चंद्रकांता - भाग पहला Devaki Nandan Khatri द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

चंद्रकांता - भाग पहला


चन्द्रकान्ता

पहला भाग


© COPYRIGHTS

This book is copyrighted content of the concerned author as well as NicheTech / Gujarati Pride.

Gujarati Pride / NicheTech has exclusive digital publishing rights of this book.

Any illegal copies in physical or digital format are strictly prohibited.

NicheTech / Gujarati Pride can challenge such illegal distribution / copies / usage in court.

चन्द्रकान्ता पहला भाग

पहला बयान

शाम का वक्त है, कुछ—कुछ सूरज दिखाई दे रहा है, सुनसान मैदान में एक पहाड़ी के नीचे दो शख्स वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह एक पत्थर की चट्टान पर बैठकर आपस में बातें कर रहे हैं।

वीरेन्द्रसिंह की उम्र इक्कीस या बाईस वर्ष की होगी। यह नौगढ़ के राजा सुरेन्द्रसिंह का इकलौता लड़का है। तेजसिंह राजा सुरेन्द्रसिंह के दीवान जीतसिंह का प्यारा लड़का और कुंवर वीरेन्द्रसिंह का दिली दोस्त, बड़ा चालाक और फुर्तीला, कमर में सिर्फ खंजर बांधे, बगल में बटुआ लटकाये, हाथ में एक कमन्द लिए बड़ी तेजी के साथ चारों तरफ देखता और इनसे बातें करता जाता है। इन दोनों के सामने कसाकसाया चुस्त—दुरूस्त एक घोड़ा पेड़ से बंधा हुआ है।

कुअंर वीरेन्द्रसिंह कह रहे हैं, ‘‘भाई तेजसिंह, देखो मुहब्बत भी क्या बुरी बला है जिसने इस हद तक पहुँचा दिया। कई दफे तुम विजयगढ़ से राजकुमारी चन्द्रकान्ता की चिट्ठी मेरे पास लाये और मेरी चिट्ठी उन तक पहुँचायी, जिससे साफ मालूम होता है कि जितनी मुहब्बत मैं चन्द्रकान्ता से रखता हूँ उतनी ही चन्द्रकान्ता मुझसे रखती है, हालांकि हमारे राज्य और उसके राज्य के बीच सिर्फ पाँच कोस का फासला है इस पर भी हम लोगों के किये कुछ भी नहीं बन पड़ता। देखो इस खत में भी चन्द्रकान्ता ने यही लिखा है कि जिस तरह बने, जल्द मिल जाओ।''

तेजसिंह ने जवाब दिया, ‘‘मैं हर तरह से आपको वहाँ ले जा सकता हूँ, मगर एक तो आजकल चन्द्रकान्ता के पिता महाराज जयसिंह ने महल के चारों तरफ सख्त पहरा बैठा रक्खा है, दूसरे उनके मन्त्री का लड़का क्रूरसिंह उस पर आशिक हो रहा है, ऊपर से उसने अपने दोनों ऐयारों को जिनका नाम नाजिम अली और अहमद खाँ है इस बात की ताकीद करा दी है कि बराबर वे लोग महल की निगहबानी किया करें क्योंकि आपकी मुहब्बत का हाल क्रूरसिंह और उसके ऐयारों को बखूबी मालूम हो गया है। चाहे चन्द्रकान्ता क्रूरसिंह से बहुत ही नफरत करती है और राजा भी अपनी लड़की अपने मन्त्री के लड़के को नहीं दे सकता फिर भी उसे उम्मीद बंधी हुई है और आपकी लगावट बहुत बुरी मालूम होती है। अपने बाप के जरिये उसने महाराज जयसिंह के कानों तक आपकी लगावट का हाल पहुँचा दिया है और इसी सबब से पहरे की सख्त ताकीद हो गयी है। आप को ले चलना अभी मुझे पसन्द नहीं जब तक की मैं वहाँ जाकर फसादियों को गिरफ्तार न कर लूँ।''

‘‘ इस वक्त मैं फिर विजयगढ़ जाकर चन्द्रकान्ता और चपला से मुलाकात करता हूँ क्योंकि चपला ऐयारा और चन्द्रकान्ता की प्यारी सखी है और चन्द्रकान्ता को जान से ज्यादा मानती है। सिवाय इस चपला के मेरा साथ देने वाला वहाँ कोई नहीं है। जब मैं अपने दुश्मनों की चालाकी और कार्रवाई देखकर लौटूं तब आपके चलने के बारे में राय दूँ। कहीं ऐसा न हो कि बिना समझे—बूझे काम करके हम लोग वहाँ ही गिरफ्तार हो जायें।''

वीरेन्द्र रू जो मुनासिब समझो करो, मुझको तो सिर्फ अपनी ताकत पर भरोसा है लेकिन तुमको अपनी ताकत और ऐयारी दोनों का।

तेजसिंह रू मुझे यह भी पता लगा है कि हाल में ही क्रूरसिंह के दोनों ऐयार नाजिम और अहमद यहाँ आकर पुनरू हमारे महाराजा के दर्शन कर गये हैं। न मालूम किस चालाकी से आये थे। अफसोस, उस वक्त मैं यहाँ न था।

वीरेन्द्र रू मुश्किल तो यह है कि तुम क्रूरसिंह के दोनों ऐयारों को फंसाना चाहते हो और वे लोग तुम्हारी गिरफ्तारी की फिक्र में हैं, परमेश्वर कुशल करे। खैर, अब तुम जाओ और जिस तरह बने, चन्द्रकान्ता से मेरी मुलाकात का बन्दोबस्त करो।

तेजसिंह फौरन उठ खड़े हुए और वीरेन्द्रसिंह को वहीं छोड़ पैदल विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए। वीरेन्द्रसिंह भी घोड़े को दरख्त से खोलकर उस पर सवार हुए और अपने किले की तरफ चले गये।

' ऐयार उसको कहते हैं जो हर एक फन जानता हो, शक्ल बदलना और दौड़ना उसका मुख्य काम है।

दूसरा बयान

विजयगढ़ में क्रूरसिंह' अपनी बैठक के अन्दर नाजिम और अहमद दोनों ऐयारों के साथ बातें कर रहा है।

क्रूर रू देखो नाजिम, महाराज का तो यह खयाल है कि मैं राजा होकर मन्त्री के लड़के को कैसे दामाद बनाऊँ, और चन्द्रकान्ता वीरेन्द्रसिंह को चाहती है। अब कहो कि मेरा काम कैसे निकले? अगर सोचा जाये कि चन्द्रकान्ता को लेकर भाग जाऊँ, तो कहाँ जाऊँ और कहाँ रहकर आराम करूँ? फिर ले जाने के बाद मेरे बाप की महाराज क्या दुर्दशा करेंगे? इससे तो यही मुनासिब होगा कि पहले वीरेन्द्रसिंह और उसके ऐयार तेजसिंह को किसी तरह गिरफ्तार कर किसी ऐसी जगह ले जाकर खपा डाला जाये कि हजार वर्ष तक पता न लगे, और इसके बाद मौका पाकर महाराज को मारने की फिक्र की जाये, फिर तो मैं झट गद्दी का मालिक बन जाऊँगा और तब अलबत्ता अपनी जिंदगी में चन्द्रकान्ता से ऐश कर सकूँगा। मगर यह तो कहो कि महाराज के मरने के बाद मैं गद्दी का मालिक कैसे बनूँगा? लोग कैसे मुझे राजा बनाएंगे।

नाजिम रू हमारे राजा के यहाँ बनिस्बत काफिरों के मुसलमान ज्यादा हैं, उन सबों को आपकी मदद के लिए मैं राजी कर सकता हूँ और उन लोगों से कसम खिला सकता हूँ कि महाराज के बाद आपको राजा मानें, मगर शर्त यह है कि काम हो जाने पर आप भी हमारे मजहब मुसलमानी को कबूल करें?

क्रूरसिंह रू अगर ऐसा है तो मैं तुम्हारी शर्त दिलोजान से कबूल करता हूँ?

अहमद रू तो बस ठीक है, आप इस बात का इकरारनामा लिखकर मेरे हवाले करें। मैं सब मुसलमान भाइयों को दिखलाकर उन्हें अपने साथ मिला लूँगा।

क्रूरसिंह ने काम हो जाने पर मुसलमानी मजहब अख्तियार करने का इकरारनामा लिखकर फौरन नाजिम और अहमद के हवाले किया, जिस पर अहमद ने क्रूरसिंह से कहा, ‘‘अब सब मुसलमानों का एक (दिल) कर लेना हम लोगों के जिम्मे है, इसके लिए आप कुछ न सोचिये। हाँ, हम दोनों आदमियों के लिए भी एक इकरारनामा इस बात का हो जाना चाहिए कि आपके राजा हो जाने पर हमीं दोनों वजीर मुकर्रर किये जाएंगे, और तब हम लोगों की चालाकी का तमाशा देखिये कि बात—की—बात में जमाना कैसे उलट—पुलटकर देते हैं।''

क्रूरसिंह ने झटपट इस बात का भी इकरारनामा लिख दिया जिससे वे दोनों बहुत ही खुश हुए। इसके बाद नाजिम ने कहा, ‘‘इस वक्त हम लोग चन्द्रकान्ता के हालचाल की खबर लेने जाते हैं क्योंकि शाम का वक्त बहुत अच्छा है, चन्द्रकान्ता जरूर बाग में गयी होगी और अपनी सखी चपला से अपनी विरह—कहानी कह रही होगी, इसलिए हम को पता लगाना कोई मुश्किल न होगा कि आज कल वीरेन्द्रसिंह और चन्द्रकान्ता के बीच में क्या हो रहा है।''

ये कह कर दोनों ऐयार क्रूरसिंह से विदा लेकर वहाँ से चले गये।

'इनकी उम्र 21 वर्ष या 22 वर्ष की थी, इनके ऐयार भी कमसिन थे।

तीसरा बयान

कुछ—कुछ दिन बाकी है, चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा बाग में टहल रही हैं। भीनी—भीनी फूलों की महक धीमी हवा के साथ मिलकर तबीयत को खुश कर रही है। तरह—तरह के फूल खिले हुए हैं। बाग के पश्चिम की तरफ वाले आम के घने पेड़ों की बहार और उसमें से अस्त होते हुए सूरज की किरणों की चमक एक अजीब ही मजा दे रही है। फूलों की क्यारियों की रविशों में अच्छी तरह छिड़काव किया हुआ है और फूलों के दरख्त भी अच्छी तरह पानी से धोए हैं। कहीं गुलाब, कहीं जूही, कहीं बेला, कहीं मोतिये की क्यारियाँ अपना—अपना मजा दे रही हैं। एक तरफ बाग से सटा हुआ ऊँचा महल और दूसरी तरफ सुन्दर—सुन्दर बुर्जियां अपनी बहार दिखला रही हैं। चपला, जो चालाकी के फन में बड़ी तेज और चन्द्रकान्ता की प्यारी सखी है, अपने चंचल हाव—भाव के साथ चन्द्रकान्ता को संग लिए चारों ओर घूमती और तारीफ करती हुई खुशबूदार फूलों को तोड़—तोड़कर चन्द्रकान्ता के हाथ में दे रही है, मगर चन्द्रकान्ता को वीरेन्द्रसिंह की जुदाई में ये सब बातें कम अच्छी मालूम होती हैं? उसे तो दिल बहलाने के लिए उसकी सखियां जबर्दस्ती बाग में खींच लायी हैं।

चन्द्रकान्ता की सखी चम्पा तो गुच्छा बनाने के लिए फूलों को तोड़ती हुई मालती लता के कुंज की तरफ चली गई लेकिन चन्द्रकान्ता और चपला धीरे—धीरे टहलती हुई बीच के फौव्वारे के पास जा निकलीं और उसकी चक्करदार टूटियों से निकलते हुए जल का तमाशा देखने लगीं।

चपला रू न मालूम चम्पा किधर चली गयी?

चन्द्रकान्ता रू कहीं इधर— उधर घूमती होगी।

चपला रू दो घड़ी से ज्यादा हो गया, तब से वह हम लोगों के साथ नहीं है।

चन्द्रकान्ता रू देखो वह आ रही है।

चपला रू इस वक्त तो उसकी चाल में फर्क मालूम होता है।

इतने में चम्पा ने आकर फूलों का एक गुच्छा चन्द्रकान्ता के हाथ में दिया और कहा, ‘‘देखिये, यह कैसा अच्छा गुच्छा बना लायी हूँ, अगर इस वक्त कुंवर वीरेन्द्रसिंह होते तो इसको देख मेरी कारीगरी की तारीफ करते और मुझको कुछ इनाम भी देते।''

वीरेन्द्रसिंह का नाम सुनते ही एकाएक चन्द्रकान्ता का अजब हाल हो गया। भूली हुई बात फिर याद आ गई, कमल मुख मुरझा गया, ऊंची—ऊंची सांसें लेने लगी, आँखों से आँसू टपकने लगे। धीरे—धीरे कहने लगी, ‘‘न मालूम विधाता ने मेरे भाग्य में क्या लिखा है? न मालूम मैंने उस जन्म में कौन से—ऐसे पाप किये हैं जिनके बदले यह दुरूख भोगना पड़ रहा है? देखो, पिता को क्या धुन समायी है। कहते हैं कि चन्द्रकान्ता को कुंवारी ही रक्खूँगा। हाय ! वीरेन्द्र के पिती ने शादी करने के लिए कैसी—कैसी खुशामदें कीं , मगर दुष्ट क्रूर के बाप कुपथसिंह ने उसको ऐसा कुछ बस में कर रखा है कि कोई काम नहीं होने देता, और उधर कम्बख्त क्रूर अपनी ही लसी लगाना चाहता है।''

एकाएक चपला ने चन्द्रकान्ता का हाथ पकड़कर जोर से दबाया मानो चुप रहने के लिए इशारा किया।

चपला के इशारे को समझ चन्द्रकान्ता चुप हो रही और चपला का हाथ पकड़कर फिर बाग में टहलने लगी, मगर अपना रुमाल उसी जगह जान—बूझकर गिराती गई। थोड़ी दूर आगे बढ़कर उसने चम्पा से कहा, ‘‘ सखी देख तो, फौव्वारे के पास कहीं मेरा रुमाल गिर पड़ा है।''

चम्पा रुमाल लेने फौव्वारे की तरफ चली गयी तब चन्द्रकान्ता ने चपला से पूछा, ‘‘सखी, तूने बोलते समय मुझे एकाएक क्यों रोका?''

चपला ने कहा, ‘‘ मेरी प्यारी सखी, मुझको चम्पा पर शुबहा हो गया है। उसकी बातों और चितवनों से मालूम होता है कि वह असली चम्पा नहीं है।'' इतने में चम्पा ने रुमाल लाकर चपला के हाथ में दिया। चपला ने चम्पा से पूछा, ‘‘सखी, कल रात को मैंने तुझको जो कहा था सो तैने किया?'' चम्पा बोली, ‘‘नहीं, मैं तो भूल गयी।'' तब चपला ने कहा, ‘‘भला वह बात तो याद है या वो भी भूल गयी?'' चम्पा बोली, ‘‘बात तो याद है।'' तब फिर चपला ने कहा, ‘‘भला दोहरा के मुझसे कह तो सही तब मैं जानू की तुझे याद है।''

इस बात का जवाब न देकर चम्पा ने दूसरी बात छेड़ दी जिससे शक की जगह यकीन हो गया कि यह चम्पा नहीं है। आखिर चपला यह कहकर कि मैं तुझसे एक बात कहूँगी, चम्पा को एक किनारे ले गयी और कुछ मामूली बातें करके बोली,‘‘देख तो चम्पा, मेरे कान से कुछ बदबू तो नहीं आती ? क्योंकि कल से कान में दर्द है।'' नकली चम्पा चपला के फेर में पड़ गयी और फौरन कान सूँघने लगी। चपला ने चालाकी से बेहोशी की बुकनी कान में रखकर नकली चम्पा को सुँघा दी जिसके सूँघते ही चम्पा बेहोश होकर गिर पड़ी।

चपला ने चन्द्रकान्ता को पुकार कर कहा, ‘‘ आओ सखी, अपनी चम्पा का हाल देखो।'' चन्द्रकान्ता ने पास आकर चम्पा को बेहोश पड़ी हुई देख चपला से कहा, ‘‘सखी, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारा ख्याल धोखा ही निकले और पीछे चम्पा से शरमाना पड़े !'' नहीं, ऐसा न होगा।'' कहकर चपला चम्पा को पीठपर लाद फौव्वारे के पास ले गयी और चन्द्रकान्ता से बोली, ‘‘तुम फौव्वारे से चुल्लू भर—भर पानी इसके मुँह पर डालो, मैं धोती हूँ !'' चन्द्रकान्ता ने ऐसा ही किया और चपला खूब रगड़—रगड़कर उसका मुँह धोने लगी। थोड़ी देर में चम्पा की सूरत बदल गयी और साफ नाजिम की सूरत निकल आयी। देखते ही चन्द्रकान्ता का चेहरा गुस्से से लाल हो गया और वह बोली, ‘‘सखी, इसने तो बड़ी बेअदबी की !''

‘‘देखो तो, अब मैं क्या करती हूँ।'' कहकर चपला नाजिम को फिर पीठ पर लाद बाग के एक कोने में ले गयी, जहाँ बुर्ज के नीचे एक छोटा—सा तहखाना था। उसके अन्दर बेहोश नाजिम को ले जाकर लिटा दिया और अपने ऐयारी के बटुए में से मोमबत्ती निकाल कर जलायी। एक रस्सी से नाजिम के पैर और दोनों हाथ पीठ की तरफ खूब कसकर बाँधे और डिबिया से लखलखा निकाल कर उसको सुँघाया, जिससे नाजिम ने एक छींक मारी और होश में आकर अपने को कैद और बेबस देखा। चपला कोड़ा लेकर खड़ी हो गयी और मारना शुरू किया।

‘‘माफ करो मुझसे बड़ा कसूर हुआ, अब मैं ऐसा कभी न करूँगा बल्कि इस काम का नाम भी न लूँगा !'' इत्यादि कहकर नाजिम चिल्लाने और रोने लगा, मगर चपला कब सुनने वाली थी ? वह कोड़ा जमाये ही गयी और बोली, ‘‘सब्र कर, अभी तो तेरी पीठ की खुजली भी न मिटी होगी ! तू यहाँ क्यों आया था ? क्या तुझे बाग की हवा अच्छी मालूम हुई थी ? क्या बाग की सैर को जी चाहा था ? क्या तू नहीं जानता था कि चपला भी यहाँ होगी ? हरामजादे के बच्चे, बेईमान, अपने बाप के कहने से तूने यह काम किया ? देख मैं उसकी भी तबीयत खुश कर देती हूँ !'' यह कहकर फिर मारना शुरू किया, और पूछा, ‘‘सच बता, तू कैसे यहाँ आया और चम्पा कहाँ गई ?''

मार के खौफ से नाजिम को असल हाल कहना ही पड़ा। वह बोला, ‘‘चम्पा को मैंने ही बेहोश किया था, बेहोशी की दवा छिड़ककर फूलों का गुच्छा उसके रास्ते में रख दिया जिसको सूँघकर वह बेहोश हो गयी, तब मैंने उसे मालती लता के कुंज में डाल दिया और उसकी सूरत बना उसके कपड़े पहन तुम्हारी तरफ चला आया। लो, मैंने सब हाल कह दिया, अब तो छोड़ दो !''

चपला ने कहा, ‘‘ठहर, छोड़ती हूँ।'' मगर फिर भी दस पाँच कोड़े और जमा ही दिये, यहाँ तक की नाजिम बिलबिला उठा, तब चपला ने चन्द्रकान्ता से कहा, ‘‘सखी, तुम इसकी निगहबानी करो, मैं चम्पा को ढूँढ़कर लाती हूँ। कहीं वह पाजी झूठ न कहता हो!''

चम्पा को खोजती हुई चपला मालती लता के पास पहुँची और बत्ती जलाकर ढ़ूँढ़ने लगी। देखा की सचमुच चम्पा एक झाड़ी में बेहोश पड़ी है और बदन पर उसके एक लत्ता भी नहीं है। चपला उसे लखलखा सुँघाकर होश में लायी और पूछा, ‘‘क्यों मिजाज कैसा है, खा गई न धोखा।''

चम्पा ने कहा, ‘‘ मुझको क्या मालूम था कि इस समय यहाँ ऐयारी होगी? इस जगह फूलों का एक गुच्छा पड़ा था जिसको उठाकर सूंघते ही मैं बेहोश हो गयी, फिर न मालूम क्या हुआ ! हाय, हाय ! न जाने किसने मुझे बेहोश किया, मेरे कपड़े भी उतार लिए, बड़ी लागत के कपड़े थे !''

वहाँ पर नाजिम के कपड़े पड़े हुए थे जिनमें से दो एक लेकर चपला ने चम्पा का बदन ढंका और तब यह कहकर की ‘मेरे साथ आ, मैं उसे दिखलाऊँ जिसने तेरी यह हालत की' चम्पा को साथ ले उस जगह आई जहाँ चन्द्रकान्ता और नाजिम थे। नाजिम की तरफ इशारा करके चपला ने कहा, देख, इसी ने तेरे साथ यह भलाई की थी !'' चम्पा को नाजिम की सूरत देखते ही बड़ा क्रोध आया और वह चपला से बोली, ‘‘बहन अगर इजाजत हो तो मैं भी दो चार कोड़े लगा कर अपना गुस्सा निकाल लूँ?''

चपला ने कहा, ‘‘हाँ, हाँ, जितना जी चाहे इस मुए को जूतियाँ लगाओ !'' बस फिर क्या था, चम्पा ने मनमाने कोड़े नाजिम को लगाये, यहाँ तक कि नाजिम घबड़ा उठा और जी में कहने लगा, ‘‘खुदा, क्रूरसिंह को गारत करे जिसकी बदौलत मेरी यह हालत हुई !''

आखिरकार नाजिम को उसी कैदखाने में कैद कर तीनों महल की तरफ रवाना हुई। यह छोटा—सा बाग जिसमें ऊपर लिखी बातें हुईं, महल के संग सटा हुआ उसके पिछवाड़े की तरफ पड़ता था और खास कर चन्द्रकान्ता के टहलने और हवा खाने के लिए ही बनवाया गया था। इसके चारों तरफ मुसलमानों का पहरा होने के सबब से ही अहमद और नाजिम को अपना काम करने का मौका मिल गया था।

चौथा बयान

तेजसिंह वीरेन्द्रसिंह से रूखसत होकर विजयगढ़ पहुँचे और चन्द्रकान्ता से मिलने की कोशिश करने लगे, मगर कोई तरकीब न बैठी, क्योंकि पहरे वाले बड़ी होशियारी से पहरा दे रहे थे। आखिर सोचने लगे कि क्या करना चाहिए? रात चाँदनी है, अगर अंधेरी रात होती तो कमंद लगाकर ही महल के ऊपर जाने की कोशिश की जाती।

आखिर तेजसिंह एकान्त में गये और वहाँ अपनी सूरत एक चोबदार की—सी बना महल की ड्योढ़ी पर पहुँचे। देखा कि बहुत से चोबदार और प्यादे बैठे पहरा दे रहे हैं। एक चोबदार से बोले, ‘‘यार, हम भी महाराज के नौकर हैं, आज चार महीने से महाराज हमको अपनी अर्दली में नौकर रक्खा है, इस वक्त छुट्टी थी, चाँदनी रात का मजा देखते—टहलते इस तरफ आ निकले, तुम लोगों को तम्बाकू पीते देख जी में आया कि चलो दो फूँक हम भी लगा लें, अफीम खाने वालों को तम्बाकू की महक जैसी मालूम होती है आप लोग भी जानते ही होंगे !''

‘‘हाँ, हाँ, आइए, बैठिए, तम्बाकू पीजिए !''कहकर चोबदार और प्यादों ने हुक्का तेजसिंह के आगे रक्खा। तेजसिंह ने कहा, ‘‘मैं हिन्दू हूँ, हुक्का तो नहीं पी सकता, हाँ, हाथ से जरूर पी लूँगा।'' यह कह चिलम उतार ली और पीने लगे।

उन्होंने दो फूँक तम्बाकू के नहीं पिये थे कि खाँसना शुरू किया, इतना खांसा कि थोड़ा—सा पानी भी मुँह से निकाल दिया और तब कहा, ‘‘मियां तुम लोग अजब कड़वा तम्बाकू पीते हो? मैं तो हमेशा सरकारी तम्बाकू पीता हूँ। महाराज के हुक्काबर्दार से दोस्ती हो गयी है, वह बराबर महाराज के पीने वाले तम्बाकू में से मुझको दिया करता है, अब ऐसी आदत पड़ गयी है कि सिवाय उस तम्बाकू के और कोई तम्बाकू अच्छा नहीं लगता !''

इतना कह चोबदार बने हुए तेजसिंह ने अपने बटुए में से एक चिलम तम्बाकू निकालकर दिया और कहा, ‘‘तुम लोग भी पीकर देख लो कि कैसा तम्बाकू है।

भला चोबदारों ने महाराज के पीने का तम्बाकू कभी काहे को पिया होगा। झट हाथ फैला दिया और कहा, ‘‘लाओ भाई, तुम्हारी बदौलत हम भी सरकारी तम्बाकू पी लें। तुम बड़े किस्मतवार हो कि महाराज के साथ रहते हो, तुम तो खूब चौन करते होगे !'' यह नकली चोबदार (तेजसिंह) के हाथ से तम्बाकू ले लिया और खूब दोहरा जमाकर तेजसिंह के सामने लाए ! तेजसिंह ने कहा, ‘‘तुम सुलगाओ, फिर मैं भी ले लूँगा।''

अब हुक्का गुड़गुड़ाने लगा और साथ ही गप्पें भी उड़ने लगीं।

थोड़ी ही देर में सब चोबदार और प्यादों का सर घूमने लगा, यहाँ तक कि झुकते—झुकते सब औंधे होकर गिर पड़े और बेहोश हो गये।

अब क्या था, बड़ी आसानी से तेजसिंह फाटक के अन्दर घुस गये और नजर बचाकर बाग में पहुँचे। देखा कि हाथ में रोशनी लिए सामने से एक लौंडी चली आ रही है। तेजसिंह ने फुर्ती से उसके गले में कमन्द डाली और ऐसा झटका दिया कि वह चूं तक न कर सकी और जमीन पर गिर पड़ी। तुरन्त उसे बेहोशी की बुकनी सुँघाई और जब बेहोश हो गयी तो उसे वहां से उठाकर किनारे ले गये। बटुए में से सामान निकाल मोमबत्ती जलाई और सामने आईना रख अपनी सूरत उसी के जैसी बनाई, इसके बाद उसको वहीं छोड़ उसी के कपड़े पहन महल की तरफ रवाना हुए और वहाँ पहुँचे जहाँ चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा दस पाँच लौंडियों के साथ बातें कर रही थीं। लौंड़ी की सूरत बनाये हुए तेजसिंह भी एक किनारे जा कर बैठ गये।

तेजसिंह को देख चपला बोली, '' क्यों केतकी, जिस काम के लिए मैंने तुझको भेजा था क्या वह काम तू कर आई जो चुपचाप आकर बैठ गयी है?

चपला की बात सुन तेजसिंह को मालूम हो गया कि जिस लौंड़ी को मैंने बेहोश किया है और जिसकी सूरत बनाकर आया हूँ उसका नाम केतकी है।

नकली केतकी रू हां काम तो करने गयी थी मगर रास्ते में एक नया तमाशा देख तुमसे कुछ कहने के लिए लौट आयी हूँ।

चपला रू ऐसा ! अच्छा तूने क्या देखा कह?

नकली केतकी रू सभी को हटा दो तो तुम्हारे और राजकुमारी के सामने बात कह सुनाऊँ।

सब लौंडियां हटा दी गईं और केवल चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा रह गईं। अब केतकी ने हँसकर कहा, ‘‘कुछ इनाम तो दो खुशखबरी सुनाऊं।''

चन्द्रकान्ता ने समझा कि शायद वह कुछ वीरेन्द्रसिंह की खबर लाई है, मगर फिर यह भी सोचा कि मैंने तो आजतक कभी वीरेन्द्रसिंह का नाम भी इसके सामने नहीं लिया तब यह क्या मामला है ? कौन—सी खुशखबरी है जिसके सुनाने के लिए यह पहले ही से इनाम माँगती है ? आखिर चन्द्रकान्ता ने केतकी से कहा, ‘‘हाँ हाँ, इनाम दूंगी, तू कह तो सही, क्या खुशखबरी लाई है ?''

केतकी ने कहा, ‘‘पहले दे दो तो कहूं, नहीं तो जाती हूँ।'' यह कह उठकर खड़ी हो गई।

केतकी के ये नखरे देख चपला से न रहा गया और वह बोल उठी, ‘‘क्यों री केतकी, आज तुझको क्या हो गया है कि ऐसी बढ़—बढ़ के बातें कर रही है। लगाऊं दो लात उठ के !''

केतकी ने जवाब दिया, ‘‘क्या मैं तुझसे कमजोर हूँ जो तू लात लगावेगी और मैं छोड़ दूंगी !''

अब चपला से न रहा गया और केतकी का झोंटा पकड़ने के लिए दौड़ी, यहां तक कि दोनों आपस में गुंथ गईं। इत्तिफाक से चपला का हाथ नकली केतकी की छाती पर पड़ा जहाँ की सफाई देख वह घबरा उठी और झट से अलग हो गई।

नकली केतकीरू (हँसकर) क्यों, भाग क्यों गई ? आओ लड़ो !

चपला अपनी कमर से कटार निकाल सामने हुई और बोली, ‘‘ओ ऐयार, सच बता तू कौन है, नहीं तो अभी जान ले डालती हूँ !''

इसका जवाब नकली केतकी ने चपला को कुछ न दिया और वीरेन्द्रसिंह की चिट्ठी निकाल कर सामने रख दी। चपला की नजर भी इस चिट्ठी पर पड़ी और गौर से देखने लगी। वीरेन्द्रसिंह के हाथ की लिखावट देख समझ गई कि यह तेजसिंह हैं, क्योंकि सिवाय तेजसिंह के और किसी के हाथ वीरेन्द्रसिंह कभी चीट्ठी नहीं भेजेंगे। यह सोच—समझ चपला शरमा गई और गर्दन नीची कर चुप हो रही, मगर जी में तेजसिंह की सफाई और चालाकी की तारीफ करने लगी, बल्कि सच तो यह है कि तेजसिंह की मुहब्बत ने उसके दिल में जगह बना ली।

चन्द्रकान्ता ने बड़ी मुहब्बत से वीरेन्द्रसिंह का खत पढ़ा और तब तेजसिंह से बातचीत करने लगी—

चन्द्रकान्तारू क्यों तेजसिंह, उनका मिजाज तो अच्छा है ?

तेजसिंहरू मिजाज क्या खाक अच्छा होगा ? खाना—पीना सब छूट गया, रोते—रोते आँखें सूज आईं, दिन—रात तुम्हारा ध्यान है, बिना तुम्हारे मिले उनको कब आराम है। हजार समझाता हूँ मगर कौन सुनता है ! अभी उसी दिन तुम्हारी चिट्ठी लेकर मैं गया था, आज उनकी हालत देख फिर यहाँ आना पड़ा। कहते थे कि मैं खुद चलूंगा, किसी तरह समझा—बुझाकर यहाँ आने से रोका और कहा कि आज मुझको जाने दो, मैं जाकर वहाँ बन्दोबस्त कर आऊं तब तुमको ले चलूंगा जिससे किसी तरह का नुकसान न हो।

चन्द्रकान्तारू अफसोस ! तुम उनको अपने साथ न लाये, कम—से—कम मैं उनका दर्शन तो कर लेती ? देखो यहाँ क्रूरसिंह के दोनों ऐयारों ने इतना ऊधम मचा रक्खा है कि कुछ कहा नहीं जाता। पिताजी को मैं कितना रोकती और समझाती हूँ कि क्रूरसिंह के दोनों ऐयार मेरे दुश्मन हैं मगर महाराज कुछ नहीं सुनते, क्योंकि क्रूरसिंह ने उनको अपने वश में कर रक्खा है। मेरी और कुमार की मुलाकात का हाल बहुत कुछ बढ़ा—चढ़ाकर महाराज को न मालूम किस तरह समझा दिया है कि महाराज उसे सच्चों का बादशाह समझ गये हैं, वह हरदम महाराज के कान भरा करता है। अब वे मेरी कुछ भी नहीं सुनते, हाँ आज बहुत कुछ कहने का मौका मिला है क्योंकि आज मेरी प्यारी सखी चपला ने नाजिम को इस पिछवाड़े वाले बाग में गिरफ्तार कर लिया है, कल महाराज के सामने उसको ले जाकर तब कहूंगी कि आप अपने क्रूरसिंह की सच्चाई को देखिए, अगर मेरे पहरे पर मुकर्रर किया ही था तो बाग के अन्दर जाने की इजाजात किसने दी थी ?

यह कह कर चन्द्रकान्ता ने नाजिम के गिरफ्तार होने और बाग के तहखाने में कैद करने का सारा हाल तेजसिंह से कह सुनाया।

तेजसिंह चपला की चालाकी सुनकर हैरान हो गये और मन—ही—मन उसको प्यार करने लगे, पर कुछ सोचने के बाद बोले, ‘‘चपला ने चालाकी तो खूब की मगर धोखा खा गई।''

यह सुन चपला हैरान हो गई हाय राम ! मैंने क्या धोखा खाया ! पर कुछ समझ में नहीं आया। आखिर न रहा गया, तेजसिंह से पूछा, ‘‘जल्दी बताओ, मैंने क्या धोखा खाया ?'' तेजसिंह ने कहा, ‘‘क्या तुम इस बात को नहीं जानती थीं कि नाजिम बाग में पहुँचा तो अहमद भी जरूर आया होगा ? फिर बाग ही में नाजिम को क्यों छोड़ दिया ? तुमको मुनासिब था कि जब उसको गिरफ्तार किया ही था तो महल में लाकर कैद करतीं या उसी वक्त महाराज के पास भिजवा देतीं, अब जरूर अहमद नाजिम को छुड़ा ले गया होगा।

इतनी बात सुनते ही चपला के होश उड़ गये और बहुत शर्मिन्दा होकर बोली, ‘‘सच है, बड़ी भारी गलती हुई, इसका किसी ने खयाल न किया !''

तेजसिंहरू और कोई क्यों खयाल करता ! तुम तो चालाक बनती हो, ऐयारा कहलाती हो, इसका खयाल तुमको होना चाहिए कि दूसरों को ? खैर, जाके देखो, वह है या नहीं ?

चपला दौड़ी हुई बाग की तरफ गई। तहखाने के पास जाते ही देखा कि दरवाजा खुला पड़ा है। बस फिर क्या था ? यकीन हो गया कि नाजिम को अहमद छुड़ा ले गया। तहखाने के अन्दर जाकर देखा तो खाली पड़ा हुआ था। अपनी बेवकूफी पर अफसोस करती हुई लौट आई और बोली, ‘‘क्या कहूं, सचमुच अहमद नाजिम को छुड़ा ले गया।'' अब तेजसिंह ने छेड़ना शुरू किया, ‘‘बड़ी ऐयार बनती थीं, कहती थीं हम चालाक हैं, होशियार हैं, ये हैं, वो हैं। बस एक अदने ऐयार ने नाकों में दम कर डाला !''

चपला झुंझला उठी और चिढ़कर बोली, ‘‘चपला नाम नहीं जो अबकी बार दोनों को गिरफ्तार कर इसी कमरे में लाकर बेहिसाब जूतियां न लगाऊँ।''

तेजसिंह ने कहा, ‘‘बस तुम्हारी कारीगिरी देखी गई। अब देखो, मैं कैसे एक—एक को गिरफ्तार कर अपने शहर में ले जाकर कैद करता हूँ।''

इसके बाद तेजसिंह ने अपने आने का पूरा हाल चन्द्रकान्ता और चपला से कह सुनाया और यह भी बतला दिया कि फलां जगह पर मैं केतकी को बेहोश कर के डाल आया हूँ, तुम जाकर उसे उठा लाना। उसके कपड़े मैं न दूंगा क्योंकि इसी सूरत से बाहर चला जाता हूँ। देखो, सिवाय तुम तीनों को यह हाल और किसी को न मालूम हो, नहीं तो सब काम बिगड़ जायेगा।

चन्द्रकान्ता ने तेजसिंह से ताकीद की कि ‘‘दूसरे, तीसरे दिन तुम जरूर यहाँ आया करो, तुम्हारे आने से हिम्मत बनी रहती है।''

‘‘बहुत अच्छा, मैं ऐसा ही करूँगा !'' यह कहकर तेजसिंह चलने को तैयार हुए। चन्द्रकान्ता उन्हें देख रोकर बोली, ‘‘क्यों तेजसिंह, क्या मेरी किस्मत में कुमार की मुलाकात नहीं बदी है ?'' इतना कहते ही गला भर आया और वह फूट—फूट कर रोने लगी। तेजसिंह ने बहुत समझाया और कहा कि देखो, यह सब बखेड़ा इसी वास्ते किया जा रहा है जिससे तुम्हारी उनसे हमेशा के लिए मुलाकात हो, अगर तुम ही घबड़ा जाओगी तो कैसे काम चलेगा ? बहुत—कुछ समझा—बुझाकर चन्द्रकान्ता को चुप कराया, तब वहाँ से रवाना हो केतकी की सूरत में दरवाजे पर आये। देखा तो दो—चार प्यादे होश में आये हैं बाकी चित्त पड़े हैं, कोई औंधा पड़ा है, कोई उठा तो है मगर फिर झुका ही जाता है। नकली केतकी ने डपट कर दरबानों से कहा, ‘‘तुम लोग पहरा देते हो या जमीन सूँघते हो ?'' इतनी अफीम क्यों खाते हो कि आंखें नहीं खुलतीं, और सोते हो तो मुदोर्ं से बाजी लगाकर ! देखो, मैं बड़ी रानी से कहकर तुम्हारी क्या दशा कराती हूँ !''

जो चोबदार होश में आ चुके थे, केतकी की बात सुनकर सन्न हो गये और लगे खुशामद करने—

‘‘देखो केतकी, माफ करो, आज एक नालायक सरकारी चोबदार ने आकर धोखा दे ऐसा जहरीला तम्बाकू पिला दिया कि हम लोगों की यह हालत हो गई। उस पाजी ने तो जान से मारना चाहा था, अल्लाह ने बचा दिया नहीं तो मारने में क्या कसर छोड़ी थी ! देखो, रोज तो ऐसा नहीं होता था, आज धोखा खा गये। हम हाथ जोड़ते हैं, अब कभी ऐसा देखो तो जो चाहे सजा देना।''

नकली केतकी ने कहा, ‘‘अच्छा, आज तो छोड़ देती हूँ मगर खबरदार ! जो फिर कभी ऐसा हुआ !'' यह कहते हुए तेजसिंह बाहर निकल गये। डर के मारे किसी ने यह भी न पूछा कि केतकी तू कहाँ जा रही है ?

पाँचवाँ बयान

अहमद ने, जो बाग के पेड़ पर बैठा हुआ था जब देखा कि चपला ने नाजिम को गिरफ्तार कर लिया और महल में चली गई तो सोचने लगा कि चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा बस यही तीनों महल में गई हैं, नाजिम इन सभी के साथ नहीं गया तो जरूर वह इस बगीचे में ही कहीं कैद होगा, यह सोच वह पेड़ से उतर इधर—उधर ढूँढ़ने लगा। जब उस तहखाने के पास पहुंचा जिसमें नाजिम कैद था तो भीतर से चिल्लाने की आवाज आयी जिसे सुन उसने पहचान लिया कि नाजिम की आवाज है। तहखाने के किवाड़ खोल अन्दर गया, नाजिम को बंधा—पा झट से उसकी रस्सी खोली और तहखाने के बाहर आकर बोला, ‘‘चलो जल्दी, इस बगीचे के बाहर हो जायें तब सब हाल सुनें कि क्या हुआ।''

नाजिम और अहमद बगीचे के बाहर आये और चलते—चलते आपस में बाच—चीत करने लगे। नाजिम ने चपला के हाथ फंस जाने और कोड़ा खाने का पूरा हाल कहा।

अहमदः भाई नाजिम, जब तक पहले चपला को हम लोग न पकड़ लेंगे तब तक कोई काम न होगा, क्योंकि चपला बड़ी चालाक है और धीरे—धीरे चम्पा को भी तेज कर रही है। अगर वह गिरफ्तार न की जायेगी तो थोड़े ही दिनों में एक की दो हो जाएंगी चम्पा भी इस काम में तेज होकर चपला का साथ देने लायक हो जायेगी।

नाजिमः ठीक है, खैर, आज तो कोई काम नहीं हो सकता, मुश्किल से जान बची है। हाँ, कल पहले यही काम करना है, यानी जिस तरह से हो चपला को पकड़ना और ऐसी जगह छिपाना है कि जहाँ पता न लगे और अपने ऊपर किसी को शक भी न हो।

ये दोनों आपस में धीरे—धीरे बातें करते चले जा रहे थे, थोड़ी देर में जब महल के अगले दरवाजे के पास पहुंचे तो देखा कि केतकी जो कुमारी चन्द्रकान्ता की लौंडी है सामने से चली आ रही है।

तेजसिंह ने भी जो केतकी के वेश में चले आ रहे थे, नाजिम और अहमद को देखते ही पहचान लिया और सोचने लगे कि भले मौके पर ये दोनों मिल गये हैं और अपनी भी सूरत अच्छी है, इस समय इन दोनों से कुछ खेल करना चाहिए और बन पड़े तो दोनों नहीं, एक को तो जरूर ही पकड़ना चाहिए।

तेजसिंह जान—बूझकर इन दोनों के पास से होकर निकले। नाजिम और अहमद भी यह सोचकर उसके पीछे हो लिए कि देखें कहाँ जाती है ? नकली केतकी (तेजसिंह) ने मुड़कर देखा और कहा, ‘‘तुम लोग मेरे पीछे—पीछे क्यों चले आ रहे हो ? जिस काम पर मुकर्रर हो उस काम को करो !''अहमद ने कहा, ‘‘किस काम पर मुकर्रर हैं और क्या करें, तुम क्या जानती हो ?'' केतकी ने कहा, ‘‘मैं सब जानती हूँ ! तुम वही काम करो जिसमें चपला के हाथ की जूतियां नसीब हों ! जिस जगह तुम्हारी मददगार एक लौंडी तक नहीं है वहाँ तुम्हारे किये क्या होगा ?''

नाजिम और अहमद केतकी की बात सुन कर दंग रह गये और सोचने लगे कि यह तो बड़ी चालाक मालूम होती है। अगर हम लोगों के मेल में आ जाय तो बड़ा काम निकले, इसकी बातों से मालूम भी होता है कि कुछ लालच देने पर हम लोगों का साथ देगी।

नाजिम ने कहा, ‘‘सुनो केतकी, हम लोगों का तो काम ही चालाकी करने का है। हम लोग अगर पकड़े जाने और मरने—मारने से डरें तो कभी काम न चले, इसी की बदौलत खाते हैं, बात—की—बात में हजारों रुपये इनाम मिलते हैं, खुदा की मेहरबानी से तुम्हारे जैसे मददगार भी मिल जाते हैं जैसे आज तुम मिल गईं। अब तुमको भी मुनासिब है कि हमारी मदद करो, जो कुछ हमको मिलेगा उससे हम तुमको भी हिस्सा देंगे।''

केतकी ने कहा, ‘‘सुनो जी, मैं उम्मीद के ऊपर जान देने वाली नहीं हूँ, वे कोई दूसरे होंगे। मैं तो पहले दाम लेती हूँ। अब इस वक्त अगर कुछ मुझको दो तो मैं अभी तेजसिंह को तुम्हारे हाथ गिरफ्तार करा दूं। नहीं तो जाओ, जो कुछ करते हो करो।''

तेजसिंह की गिरफ्तारी का हाल सुनते ही दोनों की तबीयत खुश हो गई ! नाजिम ने कहा, ‘‘अगर तेजसिंह को पकड़वा दो तो जो कहो हम तुमको दें।''

केतकीः एक हजार रुपये से कम मैं हरगिज न लूंगी। अगर मंजूर हो तो लाओ रुपये मेरे सामने रखो।

नाजिमः अब इस वक्त आधी रात को मैं कहां से रुपये लाऊं, हाँ कल जरूर दे दूँगा।

केतकीः ऐसी बातें मुझसे न करो। मैं पहले ही कह चुकी हूँ कि मैं उधार सौदा नहीं करती, लो मैं जाती हूँ।

नाजिमः (आगे से रोक कर) सुनो तो, तुम खफा क्यों होती हो ? अगर तुमको हम लोगों का ऐतबार न हो तो तुम इसी जगह ठहरो, हम लोग जाकर रुपये ले आते हैं।

केतकीः अच्छा, एक आदमी यहाँ मेरे पास रहे और एक आदमी जाकर रुपये ले आओ।

नाजिमः अच्छा, अहमद यहाँ तुम्हारे पास ठहरता है, मैं जाकर रुपये ले आता हूँ।

यह कहकर नाजिम ने अहमद को तो उसी जगह छोड़ा और आप खुशी—खुशी क्रूरसिंह की तरफ रुपये लेने को चला।

नाजिम के चले जाने के बाद थोड़ी देर तक केतकी और अहमद इधर—उधर की बातें करते रहे। बात करते—करते केतकी ने दो—चार इलायची बटुए से निकालकर अहमद को दीं और आप भी खाईं। अहमद को तेजसिंह के पकड़े जाने की उम्मीद में इतनी खुशी थी कि कुछ सोच न सका और इलायची खा गया, मगर थोड़ी ही देर में उसका सिर घूमने लगा। तब समझ गया कि यह कोई ऐयार (चालाक) है जिसने धोखा दिया। चट कमर से खंजर खींच बिना कुछ कहे केतकी को मारा, मगर केतकी पहले से होशियार थी, दांव बचाकर उसने अहमद की कलाई पकड़ ली जिससे अहमद कुछ न कर सका बल्कि जरा ही देर में बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा। तेजसिंह ने उसकी मुश्कें बांधकर चादर में गठरी कसी और पीठ पर लाद नौगढ़ का रास्ता लिया। खुशी के मारे जल्दी—जल्दी कदम बढ़ाते चले गये, यह भी खयाल था कि कहीं ऐसा न हो कि नाजिम आ जाय और पीछा करे।

इधर नाजिम रुपये लेने के लिए गया तो सीधे क्रूरसिंह के मकान पर पहुंचा। उस समय क्रूरसिंह गहरी नींद में सो रहा था। जाते ही नाजिम ने उसको जगाया, क्रूरसिंह ने पूछा, ‘‘क्या है जो इस वक्त आधी रात के समय आकर मुझको उठा रहे हो ?''

नाजिम ने क्रूरसिंह से अपनी पूरी कैफियत, यानी चन्द्रकान्ता के बाग में जाना और गिरफ्तार होकर कोड़े खाना, अमहद का छुड़ा लाना, फिर वहां से रवाना होना, रास्ते में केतकी से मिलना और हजार रुपये पर तेजसिंह को पकड़वा देने की बातचीत तय करना वगैरह सब खुलासा हाल कह सुनाया। क्रूरसिंह ने नाजिम के पकड़े जाने का हाल सुनकर कुछ अफसोस तो किया मगर पीछे तेजसिंह के गिरफ्तार होने की उम्मीद सुनकर उछल पड़ा, और बोला, ‘‘लो, अभी हजार रुपये देता हूँ, बल्कि खुद तुम्हारे साथ चलता हूँ'' यह कहकर उसने हजार रुपये सन्दूक में से निकाले और नाजिम के साथ हो लिया।

जब नाजिम क्रूरसिंह को साथ लेकर वहाँ पहुंचा जहाँ अहमद और केतकी को छोड़ा था तो दोनों में से कोई न मिला। नाजिम तो सन्न हो गया और उसके मुंह से झट यह बात निकल पड़ी कि ‘धोखा हुआ !'

क्रूरसिंहः कहो नाजिम, क्या हुआ !'

नाजिमः क्या कहूं, वह जरूर केतकी नहीं कोई ऐयार था जिसने पूरा धोखा दिया और अहमद को तो ले ही गया।

क्रूरसिंहः खूब, तुम तो बाग में ही चपला के हाथ से पिट चुके थे, अहमद बाकी था सो वह भी इस वक्त कहीं जूते खाता होगा, चलो छुट्टी हुई।

नाजिम ने शक मिटाने के लिए थोड़ी देर तक इधर—उधर खोज भी की पर कुछ पता न लगा, आखिर रोते—पीटते दोनों ने घर का रास्ता लिया।

छठवाँ बयान

तेजसिंह को विजयगढ़ की तरफ विदा कर वीरेन्द्रसिंह अपने महल में आये मगर किसी काम में उनका दिल न लगता था। हरदम चन्द्रकान्ता की याद में सिर झुकाए बैठे रहना और जब कभी निराश हो जाना तो चन्द्रकान्ता की तस्वीर अपने सामने रखकर बातें किया करना, या पलंग पर लेट मुंह ढांप खूब रोना, बस यही उनका कम था। अगर कोई पूछता तो बातें बना देते। वीरेन्द्रसिंह के बाप सुरेन्द्रसिंह को वीरेन्द्रसिंह का सब हाल मालूम था मगर क्या करते, कुछ बस नहीं चलता था, क्योंकि विजयगढ़ का राजा उनसे बहुत जबर्दस्त था और हमेशा उन पर हुकूमत रखता था।

वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह को विजयगढ़ जाती बार कह दिया था कि तुम आज ही लौट आना। रात बारह बजे तक वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह की राह देखी, जब वह न आये तो उनकी घबराहट और भी ज्यादा हो गई। आखिर अपने को संभाला और मसहरी पर लेट दरवाजे की तरफ देखने लगे। सवेरा हुआ ही चाहता था कि तेजसिंह पीठ पर एक गट्ठा लादे आ पहुंचे। पहरे वाले इस हालत में इनको देख हैरान थे, मगर खौफ से कुछ कह नहीं सकते थे। तेजसिंह ने वीरेन्द्रसिंह के केमरे में पहुंचकर देखा कि अभी तक वे जाग रहे हैं। वीरेन्द्रसिंह तेजसिंह को देखते ही वह उठ खड़े हुए और बोले, ‘‘कहो भाई, क्या खबर लाये ?''

तेजसिंह ने वहाँ का सब हाल सुनाया, चन्द्रकान्ता की चिट्ठी हाथ पर रख दी, अहमद को गठरी खोल कर दिखा दिया और कहा, ‘‘यह चिट्ठी है, और यह सौगात है !''

वीरेन्द्रसिंह बहुत खश हुए। चिट्ठी को कई मर्तबा पढ़ा और आंखों से लगाया, फिर तेजसिंह से कहा, ‘‘सुनो भाई, इस अहमद को ऐसी जगह रक्खो जहाँ किसी को मालूम न हो, अगर जयसिंह को खबर लगेगी तो फसाद बढ़ जायेगा।

तेजसिंहरू इस बात को मैं पहले से सोच चुका हूँ। मैं इसको एक पहाड़ी खोह में रख आता हूँ जिसको मैं ही जानता हूँ।

यह कह तेजसिंह ने फिर अहमद की गठरी बाँधी और एक प्यादे को भेजकर देवीसिंह नामी ऐयार को बुलाया जो तेजसिंह का शागिर्द, दिली दोस्त और रिश्ते में साला लगता था, तथा ऐयारी के फन में भी तेजसिंह से किसी तरह कम न था। जब देवीसिंह आ गये तब तेजसिंह ने अहमद की गठरी अपनी पीठ पर लादी और देवीसिंह से कहा, ‘‘आओ, हमारे साथ चलो, तुमसे एक काम है।'' देवीसिंह ने कहा, ‘‘गुरुजी वह गठरी मुझको दो, मैं चलूं, मेरे रहते यह काम आपको अच्छा नहीं लगता।'' आखिर देवीसिंह ने वह गठरी पीठ पर लाद ली और तेजसिंह के पीछे चल पड़े।

वे दोनों शहर के बाहर ही जंगल और पहाडियों में घूमघुमौवे पेचीदे रास्तों में जाते—जाते दो कोस के करीब पहुंचकर एक अंधेरी खोह में घुसे। थोड़ी देर चलने के बाद कुछ रोशनी मिली। वहां जाकर तेजसिंह ठहर गये और देवीसिंह से बोले, ‘‘गठरी रख दो।''

देवीसिंहरू (गठरी रखकर) गुरुजी, यह तो अजीब जगह है, अगर कोई आवे भी तो यहाँ से जाना मुश्किल हो जाए।

तेजसिंहरू सुनो देवीसिंह, इस जगह को मेरे सिवाय कोई नहीं जानता, तुमको अपना दिली दोस्त समझकर ले आया हूं, तुम्हें अभी बहुत कुछ काम करना होगा।

देवीसिंहरू मैं तुम्हारा ताबेदार हूं, तुम गुरु हो क्योंकि ऐयारी तुम्हीं ने मुझको सिखाई है, अगर मेरी जान की जरूरत पड़े तो मैं देने को तैयार हूँ।

तेजसिंहरू सुनो, और जो बातें मैं तुमसे कहता हूँ उनका अच्छी तरह खयाल रक्खो। यह सामने जो पत्थर का दरवाजा देखते हो इसको खोलना सिवाय मेरे कोई भी नहीं जानता, या फिर मेरे उस्ताद जिन्होंने मुझको ऐयारी सिखाई, वे जानते थे। वे तो अब नहीं हैं, मर गये, इस समय सिवाय मेरे कोई नहीं जानता, और मैं तुमको इसका खोलना बतलाये देता हूँ। इसका खोलना बतलाये देता हूँ। जिस—जिस को मैं पकड़ कर लाया करूँगा इसी जगह लाकर कैद किया करूँगा जिससे किसी को मालूम न हो और कोई छुड़ा के भी न ले जा सके। इसके अन्दर कैद करने से कैदियों के हाथ—पैर बांधने की जरूरत नहीं रहेगी, सिर्फ हिफाजत के लिए एक खुलासी बेड़ी उनके पैरों में डाल देनी पड़ेगी जिससे वह धीरे—धीरे चल—फिर सकें। कैदियों के खाने—पीने की भी फिक्र तुमको नहीं करनी पड़ेगी क्योंकि इसके अन्दर एक छोटी—सी कुदरती नहर है जिसमें बराबर पानी रहता है, यहाँ मेवों के दरख्त भी बहुत हैं। इस ऐयार को इसी में कैद करते हैं, बाद इसके महाराज से यह बहाना करके कि आजकल मैं बीमार रहता हूँ, अगर एक महीने की छुट्टी मिले तो आबोहवा बदल आऊं, महीने भर की छुट्टी ले लो। मैं कोशिश करके तुम्हें छुट्टी दिला दूँगा। तब तुम भेष बदलकर विजयगढ़ जाओ और बराबर वहीं रहकर इधर—उधर की खबर लिया करो, जो कुछ हाल हो मुझसे कहा करो और जब मौका देखो तो बदमाशों को गिरफ्तार करके इसी जगह ला उनको कैद भी कर दिया करो।

और भी बहुत—सी बातें देवीसिंह को समझाने के बाद तेजसिंह दरवाजा खोलने चले। दरवाजे के ऊपर एक बड़ा सा चेहरा शेर का बना हुआ था जिसके मुँह में हाथ बखूबी जा सकता था। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा, ‘‘इस चेहरे के मुंह में हाथ डालकर इसकी जुबान बाहर खींचो।'' देवीसिंह ने वैसा ही किया और हाथ भर के करीब जुबान खींच ली। उसके खिंचते ही एक आवाज हुई और दरवाजा खुल गया। अहमद की गठरी लिए हुए दोनों अन्दर गये। देवीसिंह ने देखा कि वह खूब खुलासा जगह, बल्कि कोस भर का साफ मैदान है। चारों तरफ ऊँची—ऊँची पहाडि़यां जिन पर किसी तरह आदमी चढ़ नहीं सकता, बीच में एक छोटा—सा झरना पानी का बह रहा है और बहुत से जंगली मेवों के दरख्तों से अजब सुहावनी जगह मालूम होती है। चारों तरफ की पहाडि़यां, नीचे से ऊपर तक छोटे—छोटे करजनी, घुमची, बेर, मकोइये, चिरौंजी वगैरह के घने दरख्तों और लताओं से भरी हुई हैं। बड़े—बड़े पत्थर के ढोंके मस्त हाथी की तरह दिखाई देते हैं। ऊपर से पानी गिर रहा है जिसकी आवाज बहुत भली मालूम होती है। हवा चलने से पेड़ों की सरसराहट और पानी की आवाज तथा बीच में मोरों का शोर और भी दिल को खींच लेता है। नीचे जो चश्मा पानी का पश्चिम से पूरब की तरफ घूमता हुआ बह रहा है उसके दोनों तरफ जामुन के पेड़ लगे हुए हैं और पके जामुन उस चश्मे के पानी में गिर रहे हैं। पानी भी चश्मे का इतना साफ है कि जमीन दिखाई देती है, कहीं हाथ भर, कहीं कमर बराबर, कहीं उससे भी ज्यादा होगा। पहाड़ों में कुदरती खोह बने हैं जिनके देखने से मालूम होता है कि मानों ईश्वर ने यहाँ सैलानियों के रहने के लिए कोठरियां बना दी हैं। चारों तरफ की पहाडियां ढलवां और बनिस्बत नीचे के ऊपर से ज्यादा खुलासा थीं और उन पर बादलों के टुकड़े छोटे—छोटे शामियानों का मजा दे रहे थे। यह जगह ऐसी सुहावनी थी कि वषोर्ं रहने पर भी किसी की तबीयत न घबराये बल्कि खुशी मालूम हो।

सुबह हो गई। सूरज निकल आया। तेजसिंह ने अहमद की गठरी खोली। उसका ऐयारी का बटुआ और खंजर जो कमर में बंधा था, ले लिया और एक बेड़ी उसके पैर में डालने के बाद होशियार किया। जब अहमद होश में आया और उसने अपने को इस दिलचस्प मैदान में देखा तो यकीन हो गया कि वह मर गया है और फरिश्ते उसको यहां ले आये हैं। लगा कलमा पढ़ने। तेजसिंह के उसके कलमा पढ़ने पर हंसी आई, बोले, ‘‘मियां साहब, आप हमारे कैदी हैं, इधर देखिए !'' अहमद ने तेजसिंह की तरफ देखा, पहचानते ही जान सूख गई, समझ गया कि तब न मरे तो अब मरे। बीवी केतकी की सूरत आंखों के सामने फिर गई, खौफ ने उसका गला ऐसा दबाया कि एक हर्फ भी मुंह से न निकल सका।

अहमद को उसी मैदान में चश्मे के किनारे छोड़ दोनों ऐयार बाहर निकल आये। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा, ‘‘इस शेर की जुबान जो तुमने बाहर खींच ली है उसी के मुंह में डाल दो।'' देवीसिंह ने वैसा ही किया। जुबान उसके मुंह में डालते ही जोर से दरवाजा बन्द हो गया और दोनों आदमी उसी पेचीली राह से घर की तरफ रवाना हुए।

पहर भर दिन चढ़ा होगा जब ये दोनों लौटकर वीरेन्द्रसिंह के पास पहुंचे। वीरेन्द्रसिंह ने पूछा, ‘‘अहमद को कहां कैद करने ले गये थे जो इतनी देर लगी ?'' तेजसिंह ने जवाब दिया, ‘‘एक पहाड़ी खोह में कैद कर आया हूं, आज आपको भी वह जगह दिखाऊंगा, पर मेरी राय है कि देवीसिंह थोड़े दिन भेष बदलकर विजयगढ़ में रहे। ऐसा करने से मुझको बड़ी मदद मिलेगी।'' इसके बाद वह सब बातें भी वीरेन्द्रसिंह को कह सुनाईं जो खोह में देवीसिंह को समझाई थीं और जो कुछ राय ठहरी थी वह भी कहा जिसे वीरेन्द्रसिंह ने बहुत पसन्द किया।

स्नान—पूजा और मामूली कामों से फुरसत—पा दोनों आदमी देवीसिंह को साथ लिए राजदरबार में गये। देवीसिंह ने छुट्टी के लिए अर्ज किया। राजा देवीसिंह को बहुत चाहते थे, छुट्टी देना मंजूर न था, कहने लगे—‘‘हम तुम्हारी दवा यहाँ ही कराएंगे।'' आखिर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह की सिफारिश से छुट्टी मिली। दरबार बर्खास्त होने पर वीरेन्द्रसिंह राजा के साथ महल में चले गये और तेजसिंह अपने पिता जीतसिंह के साथ घर आये, देवीसिंह को भी साथ लाये और सफर की तैयारी कर उसी समय उनको रवाना कर दिया। जाती दफा उन्हें और भी बातें समझा दीं।

दूसरे दिन तेजसिंह अपने साथ वीरेन्द्रसिंह को उस घाटी में ले गये जहाँ अहमद को कैद किया था। कुमार उस जगह को देखकर बहुत ही खुश हुए और बोले, ‘‘भाई, इस जगह को देखकर तो मेरे दिल में बहुत—सी बातें पैदा होती हैं।'' तेजसिंह ने कहा, ‘‘पहले—पहल इस जगह को देखकर मैं तो आपसे भी ज्यादा हैरान हुआ था, मगर गुरु जीने बहुत कुछ हाल वहाँ का समझा कर मेरी दिलजमई कर दी थी जो किसी दूसरे वक्त आपसे कहूंगा।'

वीरेन्द्रसिंह इस बात को सुनकर और भी हैरान हुए और उस घाटी की कैफियत जानने के लिए जिद करने लगे। आखिर तेजसिंह ने वहां का हाल जो कुछ अपने गुरु से सुना था, कहा, जिसे सुनकर वीरेन्द्रसिंह बहुत प्रसन्न हुए। तेजसिंह ने वीरेन्द्रसिंह से कहा, वे इतना खुश क्यों हुए, और यह घाटी कैसी थी यह सब हाल किसी दूसरे मौके पर बयान किया जायेगा।

वे दोनों वहाँ से रवाना हो अपने महल आये। कुमार ने कहा, ‘‘भाई, अब तो मेरा हौसला बहुत बढ़ गया है। जी में आता है कि जयसिंह से लड़ जाऊँ।'' तेजसिंह ने कहा, ‘‘आपका हौसला ठीक है, मगर जल्दी करने से चन्द्रकान्ता की जान का खौफ है। आप इतना घबराते क्यों है ? देखिए, तो क्या होता है ? कल मैं फिर जाऊँगा और मालूम करूँगा कि अहमद के पकड़े जाने से दुश्मनों की क्या कैफियत हुई, फिर दूसरी बार आपको ले चलूंगा।'' वीरेन्द्रसिंह ने कहा, ‘‘नहीं, अब की बार मैं जरूर चलूंगा, इस तरह एकदम डरपोक होकर बैठे रहना मदोर्ं का काम नहीं।''

तेजसिंह ने कहा, ‘‘अच्छा, आप भी चलिए, हर्ज क्या है, मगर एक काम होना जरूरी है जो यह कि महाराज से पांच—चार रोज के लिए शिकार की छुट्टी लीजिए और अपनी सरहद पर डेरा डाल दीजिए, वहाँ से कुल ढाई कोस चन्द्रकान्ता का महल रह जायेगा, तब हर तरह का सुभीता होगा।'' इस बात को वीरेन्द्रसिंह ने भी पसन्द किया और आखिर यही राय पक्की ठहरी।

कुछ दिन बाद वीरेन्द्रसिंह ने अपने पिता सुरेन्द्रसिंह से शिकार के लिए आठ दिन की छुट्टी ले ली और थोड़े से अपने दिली आदमियों को, जो खास उन्हीं के खिदमती थे और उनको जान से ज्यादा चाहते थे, साथ ले रवाना हुए। थोड़ा—सा दिन बाकी था तब नौगढ़ और विजयगढ़ के सिमाने पर इन लोगों का डेरा पड़ गया। रात भर वहाँ मुकाम रहा और यह राय ठहरी कि पहले तेजसिंह विजयगढ़ जाकर हाल—चाल ले आवें।

सातवां बयान

अहमद के पकड़े जाने से नाजिम बहुत उदास हो गया और क्रूरसिंह को तो अपनी ही फिक्र पड़ गई कि कहीं तेजसिंह मुझको भी न पकड़ ले जाये ! इस खौफ से वह हरदम चौकन्ना रहता था, मगर महाराज जयसिंह के दरबार में रोज आता और वीरेन्द्रसिंह के प्रति उनको भड़काया करता।

एक दिन नाजिम ने क्रूरसिंह को यह सलाह दी कि जिस तरह हो सके अपने बाप कुपथसिंह को मार डालो, उसके मरने के बाद जयसिंह जरूर तुमको मंत्री (वजीर) बनायेंगे, उस वक्त तुम्हारी हुकूमत हो जाने से सब काम बहुत जल्द होगा।

आखिर क्रूरसिंह ने जहर दिलवाकर अपने बाप को मरवा डाला। महाराज ने कुपथसिंह के मरने पर अफसोस किया और कई दिन तक दरबार में न आये। शहर में भी कुपथसिंह के मरने का गम छा गया।

क्रूरसिंह ने जाहिर में अपने बाप के मरने का भारी मातम (गम) किया और बारह रोज के वास्ते अलग बिस्तर जमाया। दिन भर तो अपने बाप को रोता पर रात को नाजिम के साथ बैठकर चन्द्रकान्ता से मिलने तथा तेजसिंह और वीरेन्द्रसिंह को गिरफ्तार करने की फिक्र करता। इन्हीं दिनों वीरेन्द्रसिंह ने भी शिकार के बहाने विजयगढ़ की सरहद पर खेमा डाल दिया था, जिसकी खबर नाजिम ने क्रूरसिंह को पहुंचाई और कहा, —‘‘वीरेन्द्रसिंह जरूर चन्द्रकान्ता की फिक्र में आया है, अफसोस ! इस समय अहमद न हुआ नहीं तो बड़ा काम निकलता। खैर, देखा जाएगा। '' वह कह क्रूरसिंह से बिदा हो बालादवी' के वास्ते चला गया।

तेजसिंह वीरेन्द्रसिंह से रुखसत हो विजयगढ़ पहुंचे और मंत्री के मरने तथा शहर भर में गम छाने का हाल लेकर वीरेन्द्रसिंह के पास लौट आये। यह भी खबर लाये कि दो दिन बाद सूतक निकल जाने पर महाराज जयसिंह क्रूर को अपना दीवान बनायेंगे।

वीरेन्द्रसिंहः देखो, क्रूर ने चन्द्रकान्ता के बाप को मार डाला। अगर राजा को भी मार डाले तो ऐसे आदमी का क्या ठिकाना !

तेजसिंहरू सच है, वह नालायक जहाँ तक भी होगा राजा पर भी बहुत जल्द हाथ फेरेगा, अस्तु अब मैं दो दिन चन्द्रकान्ता के महल में न जाकर दरबार ही का हालचाल लूंगा, हाँ, इस बीच में अगर मौका मिल जाय तो देखा जायगा।

वीरेन्द्रसिंहः सो सब कुछ नहीं, चाहे जो हो, आज मैं चन्द्रकान्ता से जरूर मुलाकात करूँगा।

तेजसिंहरू आप जल्दी न करें, जल्दी ही सब कामों को बिगाड़ती है।

वीरेन्द्रः जो भी हो, मैं तो जरूर जाऊंगा।

तेजसिंह ने बहुत समझाया मगर चन्द्रकान्ता की जुदाई में उनको भला—बुरा क्या सूझता था ! एक न मानी और चलने के लिए तैयार हो ही गये। आखिर तेजसिंह ने कहा, ‘‘खैर, नहीं मानते तो चलिए, जब आपकी ऐसी मर्जी है तो हम क्या करें ! जो कुछ होगा देखा जायगा।''

शाम के वक्त ये दोनों टहलने के लिए खेमे के बाहर निकले और अपने प्यादों से कह गये कि अगर हम लोगों के आने में देर हो तो घबराना मत। टहलते हुए दोनों विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए।

कुछ रात गई होगी जब चन्द्रकान्ता के उसी नजरबाग के पास पहुँचे जिसका हाल पहले लिख चुके हैं।

रात अंधेरी थी इसलिए इन दोनों को बाग में जाने के लिए कोई तरद्दुद न करना पड़ा, पहरे वालों को बचाकर कमन्द फेंका और उसके जरिए बाग के अन्दर एक घने पेड़ के नीचे खड़े हो इधर उधर— निगाह दौड़ा कर देखने लगे।

बाग के बीचोबीच संगमरमर के एक साफ चिकने चबूतरे पर मोमी शमादान जल रहा था चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा बैठी बातें कर रही थीं। चपला बातें भी करती जाती थी और इधर—उधर तेजी के साथ निगाह भी दौड़ा रही थी।

चन्द्रकान्ता को देखते ही वीरेन्द्रसिंह का अजब हाल हो गया, बदन में कंपकंपी होने लगी, यहाँ तक कि बेहोश होकर गिर पड़े। मगर वीरेन्द्रसिंह की यह हालत देख तेजसिंह पर कोई प्रभाव न हुआ, झट अपने ऐयारी बटुए से लखलखा निकाल सुंघा दिया और होश में लाकर कहा, ‘‘देखिए, दूसरे के मकान में आपको इस तरह बेसुध न होना चाहिए। अब आप अपने को सम्हालिए और इसी जगह ठहरिए, मैं जाकर बात कर आऊं तब आपको ले चलूं।'' यह कह उन्हें उसी पेड़ के नीचे छोड़ उस जगह गये जहाँ चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा बैठी थीं। तेजसिंह को देखते ही चन्द्रकान्ता बोली, ‘‘क्यों जी इतने दिन कहाँ रहे ? क्या इसी का नाम मुरव्वत है ? अबकी आये तो अकेले ही आये। वाह, ऐसा ही था तो हाथ में चूड़ी पहन लेते, जवांमर्दी की डींग क्यों मारते हैं! जब उनकी मुहब्बत का यही हाल है तो मैं जीकर क्या करूंगी ?'' कहकर चन्द्रकान्ता रोने लगी, यहाँ तक कि हिचकी बंध गई। तेजसिंह उसकी हालत देख बहुत घबराये और बोले, ‘‘बस, इसी को नादानी कहते हैं ! अच्छी तरह हाल भी न पूछा और लगीं रोने, ऐसा ही है तो उनको लिये आता हूँ !''

यह कहकर तेजसिंह वहाँ गये जहाँ वीरेन्द्रसिंह को छोड़ा था और उनको अपने साथ ले चन्द्रकान्ता के पास लौटे। चन्द्रकान्ता वीरेन्द्रसिंह के मिलने से बड़ी खुश हुई, दोनों मिलकर खूब रोए, यहाँ तक कि बेहोश हो गये मगर थोड़ी देर बाद होश में आ गये और आपस में शिकायत मिली मुहब्बत की बात करने लगे।

अब जमाने का उलट—फेर देखिए। घूमता—फिरता टोह लगाता नाजिम भी उसी जगह आ पहुँचा और दूर से इन सबों की खुशी भरी मजलिस देखकर जल मरा। तुरन्त ही लौटकर क्रूरसिंह के पास पहुंचा। क्रूरसिंह ने नाजिम को घबराया हुआ देखा और पूछा, ‘‘क्यों, क्या बात है जो तुम इतना घबराये हुए हो ?''

नाजिमः है क्या, जो मैं सोचता था वही हुआ ! यही वक्त चालाकी का है, अगर अब भी कुछ न बन पड़ा तो बस तुम्हारी किस्मत फूट गई, ऐसा ही समझना पड़ेगा।

क्रूरसिंहः तुम्हारी बातें तो कुछ समझ में नहीं आतीं, खुलासा कहो, क्या बात है ?

नाजिमः खुलासा बस यही है कि वीरेन्द्रसिंह चन्द्रकान्ता के पास पहुंच गया और इस समय बाग में हंसी के कहकहे उड़ रहे हैं।

यह सुनते ही क्रूरसिंह की आंखों के आगे अन्धेरा छा गया, दुनिया उदास मालूम होने लगी, कहीं तो बाप के जाहिरी गम में वह सर मुड़ाए बरसाती मेंढक बना बैठा था, तेरह रोज कहीं बाहर जाना हो ही नहीं सकता था, मगर इस खबर ने उसको अपने आपे में न रहने दिया, फौरन उठ खड़ा हुआ और उसी तरह नंग—धड़ंग औंधी हाँडी—सा सिर लिए महाराज जयसिंह के पास पहुंचा। जयसिंह क्रूरसिंह को इस तरह आया देख हैरान हो बोले, ‘‘क्रूरसिंह, सूतक और बाप का गम छोड़ कर तुम्हारा इस तरह आना मुझको हैरानी में डाल रहा है।

क्रूरसिंह ने कहा, ‘‘महाराज, हमारे बाप तो आप हैं, उन्होंने तो पैदा किया, परवरिश आप की बदौलत होती है। जब आपकी इज्जत में बट्टा लगा तो मेरी जिन्दगी किस काम की है और मैं किस लायक गिना जाऊंगा ?''

जयसिंह रू (गुस्से में आकर) क्रूरसिंह ! ऐसा कौन है जो हमारी इज्जत बिगाड़े ?

क्रूरसिंहः एक अदना आदमी।

जयसिंह रू (दांत पीसकर) जल्दी बताओ, वह कौन है, जिसके सिर पर मौत सवार हुई है ?

क्रूरसिंहः वीरेन्द्रसिंह !

जयसिंह रू उसकी क्या मजाल जो मेरा मुकाबला करे, इज्जत बिगाड़ना तो दूर की बात है ! तुम्हारी बात कुछ समझ में नहीं आती, साफ—साफ जल्द बताओ, क्या बात है ? वीरेन्द्रसिंह कहाँ हैं ?

क्रूरसिंहः आपके चोर महल के बाग में !

' बालादवी—टोह लेने के लिए गश्त करना।

आठवां बयान

वीरेन्द्रसिंह चन्द्रकान्ता से मीठी—मीठी बातें कर रहे हैं, चपला से तेजसिंह उलझ रहे हैं, चम्पा बेचारी इन लोगों का मुंह ताक रही है। अचानक एक काला कलूटा आदमी सिर से पैर तक आबनूस का कुन्दा, लाल—लाल आंखें, लंगोटा कसे, उछलता—कूदता इस सबके बीच में आ खड़ा हुआ। पहले तो ऊपर नीचे दांत खोल तेजसिंह की तरफ दिखाया, तब बोला, ‘‘खबरी भई राजा को तुमरी सुनो गुरुजी मेरे।'' इसके बाद उछलता कूदता चला गया। जाती बार चम्पा की टांग पकड़ थोड़ी दूर घसीटता ले गया, आखिर छोड़ दिया। यह देख सब हैरान हो गये और डरे कि यह पिशाच कहां से आ गया, चम्पा बेचारी तो चिल्ला उठी मगर तेजसिंह फौरन उठ खड़े हुए और वीरेन्द्रसिंह का हाथ पकड़ के बोले, ‘‘चलो, जल्दी उठो, अब बैठने का मौका नहीं !'' चन्द्रकान्ता की तरफ देखकर बोले, ‘‘हम लोगों के जल्दी चले जाने का रंज तुम मत करना और जब तक महाराज यहां न आयें इसी तरह सब—की—सब बैठी रहना।''

चन्द्रकान्तारू इतनी जल्दी करने का सबब क्या है और यह कौन था जिसकी बात सुनकर भागना पड़ा ?

तेजः (जल्दी से) अब बात करने का मौका नहीं रहा।

यह कहकर वीरेन्द्रसिंह को जबरदस्ती उठाया और साथ ले कमन्द के जरिए बाग के बाहर हो गये।

चन्द्रकान्ता को वीरेन्द्रसिंह का इस तरह चला जाना बहुत बुरा मालूम हुआ ! आंखों में आंसू पर चपला से बोली, ‘‘यह क्या तमाशा हो गया, कुछ समझ में नहीं आता। उस पिशाच को देखकर मैं कैसी डरी, मेरे कलेजे पर हाथ रखकर देखो, अभी तक धड़धड़ा रहा है ! तुमने क्या खयाल किया ?''

चपला ने कहा, ‘‘कुछ ठीक समझ में नहीं आता, हाँ, इतना जरूर है कि इस समय वीरेन्द्रसिंह के यहाँ आने की खबर महाराज को हो गई है, वे जरूर आते होंगे।'' चम्पा बोली, ‘‘ न मालूम मुए को मुझसे क्या दुश्मनी थी ?''

चम्पा की बात पर चपला को हंसी आ गई मगर हैरान थी कि यह क्या खेल हो गया ? थोड़ी देर तक इसी तरह की ताज्जुब भरी बातें होती रहीं, इतने में ही बाग के चारों तरफ शोरगुल की आवाजें आने लगीं। चपला ने कहा, ‘‘रंग बुरे नजर आने लगे, मालूम होता है बाग को सिपाहियों ने घेर लिया।'' बात पूरी भी न होने पाई थी कि सामने महाराज आते हुए दिखाई पड़े।

देखते ही सब—की—सब उठ खड़ी हुईं। चन्द्रकान्ता ने बढ़कर पिता के आगे सिर झुकाया और कहा, ‘‘इस समय आपके एकाएक आने...!'' इतना कहकर चुप हो रही। जयसिंह ने कहा, ‘‘कुछ नहीं, तुम्हें देखने को जी चाहा इसी से चले आये। अब तुम भी महल में जाओ, यहाँ क्यों बैठी हो ? ओस पड़ती है, तुम्हारी तबीयत खराब हो जायगी।'' यह कहकर महल की तरफ रवाना हुए।

चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा भी महाराज के पीछे—पीछे महल में गईं। जयसिंह अपने कमरे में आये और मन में बहुत शर्मिन्दा होकर कहने लगे, ‘‘देखो, हमारी भोली—भाली लड़की को क्रूरसिंह झूठ—मूठ बदनाम करता है। न मालूम इस नालायक के जी में क्या समाई है, बेधड़क उस बेचारी को ऐब लगा दिया, अगर लड़की सुनेगी तो क्या कहेगी ? ऐसे शैतान का तो मुंह न देखना चाहिए, बल्कि सजा देनी चाहिए, जिससे फिर ऐसा कमीनापन न करे।'' यह सोच हरीसिंह नामी एक चोबदार को हुक्म दिया कि बहुत जल्द क्रूर को हाजिर करे।

हरीसिंह क्रूरसिंह को खोजता हुआ और पता लगाता हूआ बाग के पास पहुंचा जहां वह बहुत से आदमियों के साथ खुशी—खुशी बाग को घेरे हुए था। हरीसिंह ने कहा, ‘‘चलिए, महाराज ने बुलाया है।''क्रूरसिंह घबरा उठा कि महाराज ने क्यों बुलाया ? क्या चोर नहीं मिला ? महाराज तो मेरे सामने महल में चले गये थे। हरीसिंह से पूछा, ‘‘महाराज क्या कह रहे हैं ?'' उसने कहा, ‘‘अभी महल से आये हैं, गुस्से से भरे बैठे हैं, आपको जल्दी बुलाया है।'' यह सुनते ही क्रूरसिंह की नानी मर गई। डरता कांपता हरीसिंह महाराज के पास पहुंचा।

महाराज ने क्रूरसिंह को देखते ही कहा, ‘‘क्यों बे क्रूर ! बेचारी चन्द्रकान्ता को इस तरह झूठ—मूठ बदनाम करना और हमारी इज्जत में बट्टा लगाना, यही तेरा काम है ? यह इतने आदमी जो बाग को घेरे हुए हैं अपने जी में क्या कहते होंगे ? नालायक, गधा, पाजी, तूने कैसे कहा कि महल में वीरेन्द्र है !''

मारे गुस्से के महाराज जयसिंह के होंठ काँप रहे थे, आंखें लाल हो रही थीं। यह कैफियत देख क्रूरसिंह की तो जान सूख गई, घबरा कर बोला, ‘‘मुझको तो यह खबर नाजिम ने पहुंचाई थी जो आजकल महल के पहरे पर मुकर्रर है।'' यह सुनते ही महाराज ने हुक्म दिया, ‘‘ बुलाओ नाजिम को।'' थोड़ी देर में नाजिम भी हाजिर किया गया। गुस्से से भरे हुए महाराज के मुंह से साफ आवाज नहीं निकलती थी। टूटे—फूटे शब्दों में नाजिम से पूछा, ‘‘क्यों बे, तूने कैसी खबर पहुंचाई ?'' उस वक्त डर के मारे उसकी क्या हालत थी, वही जानता होगा, जीने से नाउम्मीद हो चुका था, डरता हुआ बोला, ‘‘मैंने तो अपनी आंखों से देखा था हुजूर, शायद किसी तरह भाग गया होगा।''

जयसिंह से गुस्सा बर्दाश्त न हो सका, हुक्म दिया, ‘‘पचास कोड़े क्रूर को और दो सौ कोड़े नाजिम को लगाए जायें ! बस इतने ही पर छोड़ देता हूँ, आगे फिर कभी ऐसा होगा तो सिर उतार लिया जायेगा। क्रूर तू वजीर होने लायक नहीं है।''

अब क्या था, लगे दो तर्फी कोड़े पड़ने। उन लोगों के चिल्लाने से महल गूंज उठा मगर महाराज का गुस्सा न गया। जब दोनों पर कोड़े पड़ चुके तो उनको महल के बाहर निकलवा दिया और महाराज आराम करने चले गये, मगर मारे गुस्से के रात भर उन्हें नींद न आई।

क्रूरसिंह और नाजिम दोनों घर आये और एक जगह बैठकर लगे झगड़ने। क्रूर नाजिम से कहने लगा, ‘‘तेरी बदौलत आज मेरी इज्जत मिट्टी में मिल गई ! कल दीवान होंगे यह उम्मीद भी न रही, मार खाई उसकी तकलीफ मैं ही जानता हूँ, यह तेरी ही बदौलत हुआ !'' नाजिम कहता था—‘‘मैं तुम्हारी बदौलत मारा गया, नहीं तो मुझको क्या काम था ? जहन्नुम में जाती चन्द्रकान्ता और वीरेन्द्र, मुझे क्या पड़ी थी जो जूते खाता !'' ये दोनों आपस में यूं ही पहरों झगड़ते रहे।

अन्त में क्रूरसिंह ने कहा, ‘‘हम तुम दोनों पर लानत है अगर इतनी सजा पाने पर भी वीरेन्द्र को गिरफ्तार न किया।''

नाजिम ने कहा, ‘‘इसमें तो कोई शक नहीं कि वीरेन्द्र अब रोज महल में आया करेगा क्योंकि इसी वास्ते वह अपना डेरा सरहद पार ले आया है, मगर अब कोई काम करने का हौसला नहीं पड़ता, कहीं फिर मैं देखूं और खबर करने पर वह दुबारा निकल जाय तो अबकी जरूर ही जान से मारा जाऊंगा।''

क्रूरसिंह ने कहा, ‘‘तब तो कोई ऐसी तरकीब करनी चाहिए जिससे जान भी बचे और वीरेन्द्रसिंह को अपनी आंखों से महाराज जयसिंह महल में देख भी लें।''

बहुत देर सोचने के बाद नाजिम ने कहा, ‘‘चुनारगढ़ महाराज शिवदत्तसिंह के दरबार में एक पण्डित जगन्नाथ नामी ज्योतिषी हैं जो रमल भी बहुत अच्छा जानते हैं। उनके रमल फेंकने में इतनी तेजी है कि जब चाहो पूछ लो कि फलां आदमी इस समय कहां है, क्या कर रहा है या कैसे पकड़ा जायेगा ? वह फौरन बतला देते हैं। उनको अगर मिलाया जाये और वे यहाँ आकर और कुछ दिन रहकर तुम्हारी मदद करें तो सब काम ठीक हो जाय। चुनारगढ़ यहाँ से बहुत दूर भी नहीं है, कुल तेईस कोस है, चलो हम तुम चलें और जिस तरह बन पड़े उन्हें ले आवें।''

आखिर क्रूरसिंह ने बहुत कुछ जवाहरात अपने कमर में बांध दो तेज घोड़े मंगवा नाजिम के साथ सवार हो उसी समय चुनार की तरफ रवाना हो गया और घर में सबसे कह गया कि अगर महाराज के यहाँ से कोई आये तो कह देना कि क्रूरसिंह बहुत बीमार हैं।

नौवां बयान

वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह बाग के बाहर से अपने खेमे की तरफ रवाना हुए। जब खेमे में पहुंचे तो आधी रात बीत चुकी थी, मगर तेजसिंह को कब चौन पड़ता था, वीरेन्द्रसिंह को पहुंचाकर फिर लौटे और अहमद की सूरत बना क्रूरसिंह के मकान पर पहुंचे। क्रूरसिंह चुनार की तरफ रवाना हो चुका था, जिन आदमियों को घर में हिफाजत के लिए छोड़ गया था और कह गया था कि अगर महाराज पूछें तो कह देना बीमार है, उन लोगों ने एकाएक अहमद को देखा तो ताज्जुब से पूछा, ‘‘कहो अहमद, तुम कहाँ थे अब तक?'' नकली अहमद ने कहा, ‘‘मैं जहन्नुम की सैर करने गया था, अब लौटकर आया हूँ। यह बताओ कि क्रूरसिंह कहाँ है?'' सभी ने उसको पूरा—पूरा हाल सुनाया और कहा, ‘‘अब चुनार गये हैं, तुम भी वहीं जाते तो अच्छा होता !''

अहमद ने कहा, ‘‘हाँ मैं भी जाता हूँ, अब घर न जाऊंगा। सीधे चुनार ही पहुंचता हूँ।'' यह कह वहाँ से रवाना हो अपने खेमे में आये और वीरेन्द्रसिंह से सब हाल कहा। बाकी रात आराम किया, सवेरा होते ही नहा—धो, कुछ भोजन कर, सूरत बदल, विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए। नंगे सिर, हाथ—पैर, मुंह पर धूल डाले, रोते—पीटते महाराज जयसिंह के दरबार में पहुँचे। इनकी हालत देखकर सब हैरान हो गये। महाराज ने मुंशी से कहा, ‘‘पूछो, कौन है और क्या कहता है ?''

तेजसिंह ने कहा—‘‘हुजूर मैं क्रूरसिंह का नौकर हूँ, मेरा नाम रामलाल है। महाराज से बागी होकर क्रूरसिंह चुनारगढ़ के राजा के पास चला गया है। मैंने मना किया कि महाराज का नमक खाकर ऐसा न करना चाहिए, जिस पर मुझको खूब मारा और जो कुछ मेरे पास था सब छीन लिया। हाय रे, मैं बिल्कुल लुट गया, एक कौड़ी भी नहीं रही, अब क्या खाऊंगा, घर कैसे पहुंचूंगा, लड़के—बच्चे तीन बरस की कमाई खोजेंगे, कहेंगे कि रजवाड़े की क्या कमाई लाये हो ? उनको क्या दूंगा ! दुहाई महाराज की, दुहाई ! दुहाई !!''

बड़ी मुश्किल से सभी ने उसे चुप कराया। महाराज को बड़ा गुस्सा आया, हुक्म दिया, ‘‘क्रूरसिंह कहाँ है ?'' चोबदार खबर लाया—‘‘बहुत बीमार हैं, उठ नहीं सकते।'' रामलाल (तेजसिंह) दुहाई महाराज की ! यह भी उन्हीं की तरफ मिल गया, झूठ बोलता है ! मुसलमान सब उसके दोस्त हैं य दुहाई महाराज की ! खूब तहकीकात की जाय !'' महाराज ने मुंशी से कहा, ‘‘तुम जाकर पता लगाओ कि क्या मामला है ?'' थोड़ी देर बाद मुंशी वापस आये और बोले, ‘‘महाराज क्रूरसिंह घर पर नहीं है, और घरवाले कुछ बताते नहीं कि कहाँ गये हैं।'' महाराज ने कहा, ‘‘जरूर चुनारगढ़ गया होगा। अच्छा, उसके यहाँ के किसी प्य़ादे को बुलाओ।'' हुक्म पाते ही चोबदार गया और बदकिस्मत प्यादे को पकड़ लाया। महाराज ने पूछा, ‘‘क्रूरसिंह कहाँ गया है ?'' प्यादे ने ठीक पता नहीं दिया। राम लाल ने फिर कहा, ‘‘दुहाई महाराज की, बिना मार खाये न बताएगा !'' महाराज ने मारने का हुक्म दिया। पिटने के पहले ही उस बदनसीब ने बतला दिया कि चुनार गये हैं।

महाराज जयसिंह को क्रूर का हाल सुनकर जितना गुस्सा आया बयान के बाहर है। हुक्म दिया—

(1) क्रूरसिंह के घर के सब औरत—मर्द घण्टे भर के अन्दर जान बचाकर हमारी सरहद के बाहर हो जायें।

(2) उसका मकान लूट लिया जाये।

(3) उसकी दौलत में से जितना रुपया रामलाल उठा ले जा सके, ले जाये, बाकी सरकारी खजाने में दाखिल किया जाये।

(4) रामलाल अगर नौकरी कबूल करे तो दी जाये।

हुक्म पाते ही सबसे पहले रामलाल क्रूरसिंह के घर पहुंचा। महाराज के मुंशी को जो हुक्म तामील करने गया था, रामलाल ने कहा, ‘‘ पहले मुझको रुपये दे दो कि उठा ले जाऊं और महाराज को आशीर्वाद करूं। बस, जल्दी दो, मुझ गरीब को मत सताओ!'' मुंशी ने कहा, ‘‘अजब आदमी है, इसको अपनी ही पड़ी है ! ठहर जा, जल्दी क्यों करता है !'' नकली रामलाल ने चिल्लाकर कहना शुरू किया, ‘‘दुहाई महाराज की, मेरे रुपये मुंशी नहीं देता।''कहता हुआ महाराज की तरफ चला। मुंशी ने कहा, ‘‘ले लो, जाते कहाँ हो, भाई पहले इसको दे दो !''

रामलाल ने कहा, ‘‘हत्त तेरे की, मैं चिल्लाता नहीं तो सभी रुपये डकार जाता !'' उइस पर सब हंस पड़े। मुंशी ने दो हजार रुपये आगे रखवा दिया और कहा, ‘‘ले, ले जा !'' रामलाल ने कहा, ‘‘वाह, कुछ याद है ! महाराज ने क्या हुक्म दिया है ? इतना तो मेरी जेब में आ जायेगा, मैं उठा के क्या ले जाऊंगा ?'' मुंशी झुंझला उठा, नकली रामलाल को खजाने के सन्दूक के पास ले जाकर खड़ा कर दिया और कहा, ‘‘उठा, देखें कितना उठाता है ?'' देखते—देखते उसने दस हजार रुपये उठा लिये। सिर पर, बटुए में, कमर में, जेब में, यहां तक कि मुंह में भी कुछ रुपये भर लिये और रास्ता लिया। सब हँसने और कहने लगे, ‘‘आदमी नहीं, इसे राक्षस समझना चाहिए !''

महाराज के हुक्म की तामील की गई, घर लूट लिया गया, औरत—मर्द सभी ने रोते—पीटते चुनार का रास्ता पकड़ा।

तेजसिंह रुपया लिये हुए वीरेन्द्रसिंह के पास पहुंचे और बोले, ‘‘आज तो मुनाफा कमा लाये, मगर यार माल शैतान का है, इसमें कुछ आप भी मिला दीजिए जिससे पाक हो जाये ! वीरेन्द्रसिंह ने कहा, ‘‘यह तो बताओ कि लाये कहाँ से ?'' उन्होंने सब हाल कहा। वीरेन्द्रसिंह ने कहा, ‘‘जो कुछ मेरे पास यहाँ है मैंने सब दिया !'' तेजसिंह ने कहा, ‘‘मगर शर्त यह है कि उससे कम न हो, क्योंकि आपका रुतबा उससे कहीं ज्यादा है।'' वीरेन्द्रसिंह ने कहा, ‘‘तो इस वक्त कहाँ से लायें ?''तेजसिंह ने जवाब दिया, ‘‘तमस्सुक लिख दो !'' कुमार हंस पड़े और उंगली से हीरे की अंगजी उतारकर दे दी। तेजसिंह ने खुश होकर ले ली और कहा, ‘‘परमेश्वर आपकी मुराद पूरी करे। अब हम लोगों को भी यहाँ से अपने घर चले चलना चाहिए क्योंकि अब मैं चुनार जाऊंगा, देखूं शैतान का बच्चा वहाँ क्या बन्दोबस्त कर रहा है।''

दसवां बयान

क्रूरसिंह की तबाही का हाल शहर भर में फैल गया। महारानी रत्नगर्भा (चन्द्रकान्ता की माँ) और चन्द्रकान्ता इन सभी ने भी सुना। कुमारी और चपला को बड़ी खुशी हुई। जब महाराज महल में गये तो हंसी—हंसी में महारानी ने क्रूरसिंह का हाल पूछा। महाराज ने कहा, वह बड़ा बदमाश तथा झूठा था, मुफ्त में लड़की को बदनाम करता था।''

महारानी ने बात छेड़कर कहा, ‘‘आपने क्या सोचकर वीरेन्द्र का आना—जाना बन्द कर दिया ! देखिए यह वही वीरेन्द्र है जो लड़कपन से, जब चन्द्रकान्ता पैदा भी नहीं हुई थी, यहीं आता और कई—कई दिनों तक रहा करता था। जब यह पैदा हुई तो दोनों बराबर खेला करते और इसी से इन दोनों की आपस की मुहब्बत भी बढ़ गई। उस वक्त यह भी नहीं मालूम होता था कि आप और राजा सुरेन्द्रसिंह कोई दो हैं या नौगढ़ या विजयगढ़ दो रजवाड़े हैं। सुरेन्द्रसिंह भी बराबर आप ही के कहे मुताबिक चला करते थे। कई बार आप कह भी चुके थे कि चन्द्रकान्ता की शादी वीरेन्द्र के साथ कर देनी चाहिए। ऐसे मेल—मुहब्बत और आपस के बनाव को उस दुष्ट क्रूर ने बिगाड़ दिया और दोनों के चित्त में मैल पैदा कर दिया !''

महाराज ने कहा, ‘‘मैं हैरान हूँ कि मेरी बुद्धि को क्या हो गया था। मेरी समझ पर पत्थर पड़ गये ! कौन—सी बात ऐसी हुई जिसके सबब से मेरे दिल से वीरेन्द्रसिंह की मुहब्बत जाती रही। हाय, इस क्रूरसिंह ने तो गजब ही किया। इसके निकल जाने पर अब मुझे मालूम होता है।'' महारानी ने कहा, ‘‘देखें, अब वह चुनार में जाकर क्या करता है ?'' जरूर महाराज शिवदत्त को भड़ाकायेगा और कोई नया बखेड़ा पैदा करेगा। महाराज ने कहा, ‘‘खैर, देखा जायेगा, परमेश्वर मालिक है, उस नालायक ने तो अपनी भरसक बुराई में कुछ भी कमी नहीं की।''

यह कह कर महाराज महल के बाहर चले गये। अब उनको यह फिक्र हुई कि किसी को दीवान बनाना चाहिए नहीं तो काम न चलेगा। कई दिन तक सोच—विचारकर हरदयालसिंह नामी नायब दीवान को मंत्री की पदवी और खिलअत दी। यह शख्स बड़ा ईमानदार, नेकबख्त, रहमदिल और साफ तबीयत का था, कभी किसी का दिल उसने नहीं दुखाया।

ग्यारहवां बयान

क्रूरसिंह को बस एक यही फिक्र लगी हुई थी कि जिस तरह बने वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह को मार डालना ही नहीं चाहिए, बल्कि नौगढ़ का राज्य ही गारत कर देना चाहिए। नाजिम को साथ लिए चुनार पहुँचा और शिवदत्त के दरबार में हाजिर होकर नजर दिया। महाराज इसे बखूबी जानते थे इसलिए नजर लेकर हाल पूछा। क्रूरसिंह ने कहा, ‘‘महाराज, जो कुछ हाल है मैं एकान्त में कहूंगा।''

दरबार बर्खास्त हुआ, शाम को तखलिए (एकान्त) में महाराज ने क्रूर को बुलाया और हाल पूछा। उसने जितनी शिकायत महाराज जयसिंह की करते बनी, की, और यह भी कहा कि—‘‘लश्कर का इन्तजाम आजकल बहुत खराब है, मुसलमान सब हमारे मेल में हैं, अगर आप चाहें तो इस समय विजयगढ़ को फतह कर लेना कोई मुश्किल बात नहीं है। चन्द्रकान्ता महाराज जयसिंह की लड़की भी जो खूबसूरती में अपना कोई सानी नहीं रखती, आप ही के हाथ लगेगी।''

ऐसी—ऐसी बहुत—सी बातें कह उसने महाराज शिवदत्त को उसने पूरे तौर से भड़काया। आखिर महाराज ने कहा, ‘‘हमको लड़ने की अभी कोई जरूरत नहीं, पहले हम अपने ऐयारों से काम लेंगे फिर जैसा होगा देखा जाएगा। मेरे यहाँ छः ऐयार हैं जिनमें से चारों ऐयारों के साथ पण्डित जगन्नाथ ज्योतिषी को तुम्हारे साथ कर देते हैं। इन सभी को लेकर तुम जाओ, देखो तो ये लोग क्या करते हैं। पीछे जब मौका होगा हम भी लश्कर लेकर पहुंच जायेंगे।''

उन ऐयारों के नाम थे— पण्डित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण, भगवानदत्त और घसीटासिंह। महाराज ने पण्डित बद्रीनाथ, रामनारायण, और भगवान दत्त इन चारों को जो मुनासिब था कहा और इन लोगों को क्रूरसिंह के हवाले किया।

अभी ये लोग बैठे ही थे कि एक चोबदार ने आकर अर्ज किया, ‘‘महाराज ड्योढ़ी पर कई आदमी फरियादी खड़े हैं, कहते हैं हम लोग क्रूरसिंह के रिश्तेदार हैं, इनके चुनार जाने का हाल सुनकर महाराज जयसिंह ने घर—बार लूट लिया और हम लोगों को निकाल दिया। उन लोगों के लिए क्या हुक्म होता है ?''

यह सुनकर क्रूरसिंह के होश उड़ गये। महाराज शिवदत्त ने सभी को अन्दर बुलाया और हाल पूछा। जो कुछ हुआ था उन्होंने बयान किया ! इसके बाद क्रूरसिंह और नाजिम की तरफ देखकर कहा, ‘‘अहमद भी तो आपके पास आया है !'' नाजिम ने पूछा, अहमद ! वह कहाँ है ? यहाँ तो नहीं आया ! '' सभी ने कहा, ‘‘वाह, वहाँ तो घर पर गया था और यह कहकर चला गया कि मैं भी चुनार जाता हूँ !''

नाजिम ने कहा, ‘‘बस मैं समझ गया, वह जरूर तेजसिंह होगा इसमें कोई शक नहीं ! उसी ने महाराज को भी खबर पहुंचाई होगी, यह सब फसाद उसी का है !'' यह सुन क्रूरसिंह रोने लगा। महाराज शिवदत्त ने कहा, ‘‘जो होना था सो हो गया, सोच मत करो। देखो इसका बदला जयसिंह से मैं लेता हूँ। तुम इसी शहर में रहो, हमाम के सामने वाला मकान तुम्हें दिया जाता है, उसी में अपने कुटुम्ब को रक्खो, रुपये की मदद सरकार से हो जायेगी। क्रूरसिंह ने महाराज के हुक्म के मुताबिक उसी मकान में डेरा जमाया।''

कई दिन बाद दरबार में हाजिर होकर क्रूरसिंह ने महाराज से विजयगढ़ जाने के लिए अर्ज किया। सब इन्तजाम हो ही चुका था, महाराज ने मय चारों ऐयार और पण्डित जगन्नाथ ज्योतिषी के साथ क्रूरसिंह और नाजिम को विदा किया। ऐयार लोग भी अपने—अपने सामान से लैस हो गये। कई तरह के कपड़े लिए। बटुआ ऐयारी का अपने—अपने कन्धे से लटका लिया, खंजर बगल में लिया। ज्योतिषीजी ने भी पोथी—पत्रा आदि और कुछ ऐयारी का सामान ले लिया क्योंकि वह थोड़ी—बहुत ऐयारी भी जानते थे। अब यह शैतान का झुण्ड विजयगढ़ की तरफ रवाना हुआ। इन लोगों का इरादा नौगढ़ जाने का भी था। देखिए कहाँ जाते हैं और क्या करते हैं ?

बारहवां बयान

वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह नौगढ़ के किले के बाहर निकल बहुत से आदमियों को साथ लिये चन्द्रप्रभा नदी के किनारे बैठ शोभा देख रहे थे। एक तरफ से चन्द्रप्रभा दूसरी तरफ से करमनाशा नदी बहती हुई आई है और किले के नीचे दोनों का संगम हो गया है। जहाँ कुमार और तेजसिंह बैठे हैं, नदी बहुत चौड़ी है और उस पर साखू का बड़ा भारी जंगल है जिसमें हजारों मोर तथा लंगूर अपनी—अपनी बोलियों और किलकारियों से जंगल की शोभा बढ़ा रहे हैं। कुंवर वीरेन्द्रसिंह उदास बैठे हैं, चन्द्रकान्ता के बिरह में मोरों की आवाज तीर—सी लगती है, लंगूरों की किलकारी वज्र—सी मालूम होती है, शाम की धीमी—धीमी ठंडी हवा लू का काम करती है। चुपचाप बैठे नदी की तरफ देख ऊंची सांस ले रहे हैं।

इतने में एक साधु रामरज से रंगी हुई कफनी पहने, रामनन्दी तिलक लगाये हाथ में खंजरी लिए कुछ दूर नदी के किनारे बैठा यह गाता हुआ दिखाई पड़ा—

‘‘गये चुनार क्रूर बहुरंगी लाये चारचितारी'।

संग में उनके पण्डित देवता, जो हैं सगुन बिचारी।।

इनसे रहना बहुत संभल के रमल चले अति कारी।

क्या बैठे हो तुम बेफिकरे, काम करो कोई भारी।।

यह आवाज कान में पड़ते ही तेजसिंह ने गौर से उस तरफ देखा। वह साधु भी इन्हीं की तरफ मुंह करके गा रहा था। तेजसिंह को अपनी तरफ देखते दांत निकालकर दिखला दिये और उठ के चलता बना।

वीरेन्द्रसिंह अपनी चन्द्रकान्ता के ध्यान में डूबे हैं, उनको इन सब बातों की कोई खबर नहीं। वे नहीं जानते कि कौन गा रहा है या किधर से आवाज आ रही है। एकटक नदी की तरफ देख रहे हैं। तेजसिंह ने बाजू पकड़ कर हिलाया। कुमार चौंक पड़े। तेजसिंह ने धीरे से पूछा, ‘‘कुछ सुना ?'' कुमार ने कहा, ‘‘क्या ? नहीं तो कहो !'' ‘‘उठिए अपनी जगह पर चलिए, जो कुछ कहना है वहीं एकान्त में कहेंगे !'' वीरेन्द्रसिंह सम्हल गये और उठ खड़े हुए। दोनों आदमी धीरे—धीरे किले में आये और अपने कमरे में जाकर बैठे।

अब एकान्त है, सिवाय इन दोनों के इस समय इस कमरे में कोई नहीं है। वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह से पूछा, ‘‘कहो क्या कहने को थे?'' तेजसिंह ने कहा, ‘‘सुनिए, यह तो आपको मालूम हो ही चुका है कि क्रूरसिंह महाराज शिवदत्त से मदद लेने चुनार गया है, अब उसके वहाँ जाने का क्या नतीजा निकला वह भी सुनिए ! वहाँ से शिवदत्त ने चार ऐयार और एक ज्योतिषी को उनके साथ कर दिया है। वह ज्योतिषी बहुत अच्छा रमल फेंकता है, नाजिम पहले से उसके साथ है। अब इन लोगों की मण्डली भारी हो गई, ये लोग कम फसाद नहीं करेंगे, इसीलिए मैं अर्ज करता हूँ कि आप सम्हले रहिये। मैं अब काम की फिक्र में जाता हूँ, मुझे यकीन है कि उन ऐयारों में से कोई—न—कोई जरूर इस तरफ भी आवेगा और आपको फंसाने की कोशिश करेगा। आप होशियार रहियेगा और किसी के साथ कहीं न जाइएगा, न किसी का दिया कुछ खाइएगा, बल्कि इत्र, फूल वगैरह भी कुछ कोई दे तो न सूंघिएगा और इस बात का भी खयाल रखिएगा कि मेरी सूरत बना के भी वे लोग आवें तो ताज्जुब नहीं। इस तरह आप मुझको पहचान लीजिएगा, देखिए मेरी आंख के अन्दर, नीचे की तरफ यह एक तिल है जिसको कोई नहीं जानता। आज से लेकर दिल में चाहे जितनी बार जब भी मैं आपके पास आया करूँगा इस तिल को छिपे तौर से दिखला कर अपना परिचय आपको दिया करूँगा। अगर यह काम मैं न करूं तो समझ लीजिएगा कि धोखा है।''

और भी बहुत—सी बातें तेजसिंह ने समझाईं जिनको खूब गौर के साथ कुमार ने सुना और तब पूछा, ‘‘तुमको कैसे मालूम हुआ कि चुनार से इतनी मदद इसको मिली है ?'' तेजसिंह ने कहा, ‘‘किसी तरह मुझको मालूम हो गया, उसका हाल भी कभी आप पर जाहिर हो जायेगा, अब मैं रुखसत होता हूँ, राजा साहब या मेरे पिता मुझे पूछें तो जो मुनासिब हो सो कह दीजिएगा।

पहर रात रहे तेजसिंह ऐयारी के सामान से लैस होकर वहाँ से रवाना हो गये।

चपला बालादवी के लिए मर्दाने भेष में शहर से बाहर निकली। आधी रात बीत गई थी। साफ छिटकी हुई चाँदनी देख एकाएक जी में आया कि नौगढ़ चलूं और तेजसिंह से मुलाकात करूं। इसी खयाल से कदम बढ़ाये नौगढ़ की तरफ चली। उधर तेजसिंह अपनी असली सूरत में ऐयारी के सामान से सजे हुए विजयगढ़ की तरफ चले आ रहे थे। इत्तिफाक से दोनों की रास्ते ही में मुलाकात हो गयी। चपला ने पहिचान लिया और नजदीक जाकर, ‘‘असली बोली में पूछा, ‘‘कहिए आप कहाँ जा रहे हैं ?''

तेजसिंह ने बोली से चपला को पहचाना और कहा, ‘‘वाह ! वाह !! क्या मौके पर मिल गईं ! नहीं तो मुझे बड़ा तरद्दुद तुमसे मिलने के लिए करना पड़ता क्योंकि—बहुत—सी जरूरी बातें कहनी थीं, आओ इस जगह बैठो।''

एक साफ पत्थर की चट्टान पर दोनों बैठ गये। चपला ने कहा, ‘‘कहो वह कौन—सी बातें हैं ?'' तेजसिंह ने कहा, ‘‘सुनो, यह तो तुम जानती ही हो कि क्रूर चुनार गया है। अब वहाँ का हाल सुनो, चार ऐयार और एक पण्डित जगन्नाथ ज्योतिषी को महाराज शिवदत्त ने मदद के लिए उसके संग कर दिया है और वे लोग यहाँ पहुँच गये हैं। उनकी मण्डली अब भारी हो गई और इधर हम तुम दो ही हैं, इसलिए अब हम दोनों को बड़ी होशियारी करनी पड़ेगी। वे ऐयार लोग महाराज जयसिंह को भी पकड़ ले जायें तो ताज्जुब नहीं, चन्द्रकान्ता के वास्ते तो आये ही हैं, इन्हीं सब बातों से तुम्हें होशियार करने मैं चला था।'' चपला ने पूछा, ‘‘फिर अब क्या करना चाहिए ?'' तेजसिंह ने कहा, ‘‘एक काम करो, मैं हरदयालसिंह नये दीवान को पकड़ता हूँ और उसकी सूरत बनाकर दीवान का काम करूंगा। ऐसा करने से फौज और सब नौकर हमारे हुक्म में रहेंगे और मैं बहुत कुछ कर सकूँगा। तुम भी महल में होशियारी के साथ रहा करना और जहाँ तक हो सके एक बार मुझसे मिला करना। मैं दीवान तो बना रहूंगा ही, मिलना कुछ मुश्किल न होगा, बराबर असली सूरत में मेरे घर अर्थात्‌ हरदयालसिंह के यहाँ मिला करना, मैं उसके घर में भी उसी की तरह रहा करूंगा।''

इसके अलावा और भी बहुत—सी बातें तेजसिंह ने चपला को समझाईं ! थोड़ी देर तक चहल रही इसके बाद चपला अपने महल की तरफ रुखसत हुई। तेजसिंह ने बाकी रात उसी जंगल में काटी और सुबह होते ही अपनी सूरत एक गन्धी की बना कई शीशी इत्र को कमर और दो—एक हाथ में ले विजयगढ़ की गलियों में घूमने लगे। दिन—भर इधर—उधर फिरते रहे, शाम के वक्त मौका देख हरदयालसिंह के मकान पर पहुँचे। देखा दीवान साहब लेटे हुए हैं और दो—चार दोस्त सामने बैठे गप्पें उड़ा रहे हैं। बाहर—भीतर खूब सन्नाटा है।

तेजसिंह इत्र की शीशियाँ लिए सामने पहुंचे और सलाम कर बैठ गये, तब कहा, ‘‘लखनऊ का रहने वाला गन्धी हूँ, आपका नाम सुनकर आप ही के लायक अच्छे—अच्छे इत्र लाया हूँ !'' यह कह शीशी खोल फाहा बनाने लगे। हरदयालसिंह बहुत रहमदिल आदमी थे, इत्र सूंघने लगे और फाहा सूंघ—सूंघ अपने दोस्तों को भी देने लगे। थोड़ी देर में हरदयालसिंह और उसके सब दोस्त बेहोश होकर जमीन पर लेट गये। तेजसिंह ने सभी को उसी तरह छोड़ हरदयालसिंह की गठरी बाँध पीठ पर लादी और मुंह पर कपड़ा ओढ़ नौगढ़ का रास्ता लिया, राह में अगर कोई मिला भी तो धोबी समझ कर न बोला।

शहर के बाहर निकल गये और बहुत तेजी के साथ चल कर उस खोह में पहुंचे जहाँ अहमद को कैद किया था। किवाड़ खोलकर अन्दर गये और दीवान साहब को उसी तरह बेहोश वहाँ रख अंगजी मोहर की उनकी उंगली से निकाल ली, कपड़े भी उतार लिये और बाहर चले आये। बेड़ी डालने और होश में लाने की कोई जरूरत न समझी। तुरन्त लौट विजयगढ़ आ हरदयालसिंह की सूरत बना कर उसके घर पहुंचे।

इधर दीवान साहब के भोजन करने का वक्त आ पहुंचा। लौंडी बुलाने आई, देखा कि दीवान साहब तो हैं नहीं, उनके चार—पाँच दोस्त गाफिल पड़े हैं। उसे बड़ा ताज्जुब हुआ और एकाएक चिल्ला उठी। उसकी चिल्लाहट सुन नौकर और प्यादे आ पहुंचे तथा यह तमाशा देख हैरान हो गये, दीवान साहब को इधर—उधर ढूंढ़ा मगर कहीं पता न लगा।

तेरहवाँ बयान

तीन पहर रात गुजर गई, उनके सब दोस्त तो बेहोश पड़े थे वह भी होश में आये मगर अपनी हालत देख—देख हैरान थे। लोगों ने पूछा, ‘‘आप लोग कैसे बेहोश हो गये और दीवान साहब कहाँ हैं ?'' उन्होंने कहा, ‘‘एक गंधी इत्र बेचने आया था जिसका इत्र सूंघते—सूंघते हम लोग बेहोश हो गये, अपनी खबर न रही। क्या जाने दीवान साहब कहाँ हैं ? इसी से कहते हैं कि अमीरों की दोस्ती में हमेशा जान की जोखिम रहती है। अब कान उमेठतें हैं कि कभी अमीरों का संग न करेंगे !''

ऐसी—ऐसी ताज्जुब भरी बातें हो रही थीं और सवेरा हुआ ही चाहता था कि सामने से दीवान हरदयालसिंह आते दिखाई पड़े जो दरअसल श्री तेजसिंह बहादुर थे। दीवान साहब को आते देख सभी ने घेर लिया और पूछने लगे कि ‘आप कहाँ गये थे ? दोस्तों ने पूछा, ‘‘वह नालायक गंधी कहाँ गया और हम लोग बेहोश कैसे हो गये ?'' दीवान साहब ने कहा, ‘‘वह चोर था, मैंने पहचान लिया। अच्छी तरह से उसका इत्र नहीं सूंघा, अगर सूंघता तो तुम्हारी तरह मैं भी बेहोश हो जाता। मैंने उसको पहचान कर पकड़ने का इरादा किया तो वह भागा, मैं भी गुस्से में उसके पीछे चला गया लेकिन वह निकल ही गया, अफसोस....!''

इतने में लौंडी ने अर्ज किया, ‘‘कुछ भोजन कर लीजिए, सब—के—सब घर में भूखे बैठे हैं, इस वक्त तक सभी को रोते ही गुजरा !'' दीवान साहब ने कहा, ‘‘अब तो सवेरा हो गया, भोजन क्या करूँ ? मैं थक भी गया हूँ, सोने को जी चाहता है।'' यह कह कर पलंग पर जा लेटे, उनके दोस्त भी अपने घर चले गये।

सवेरे मामूल के मुताबिक वक्त पर दरबारी पोशाक पहन गुप्त रीति से ऐयार का बटुआ कमर में बांध दरबार की तरफ चले। दीवान साहब को देख रास्ते में बराबर दोपट्टी लोगों में हाथ उठने लगे, वह भी जरा—जरा सिर हिला सभी के सलामों का जवाब देते हुए कचहरी में पहुंचे। महाराज अब नहीं आये थे, तेजसिंह हरदयालसिंह की खसलत से वाकिफ थे। उन्हीं के मामूल के मुताबिक वह भी दरबार में दीवान की जगह बैठ काम करने लगे, थोड़ी देर में महाराज भी आ गये।

दरबार में मौका पाकर हरदयालसिंह धीरे—धीरे अर्ज करने लगे, ‘‘महाराजाधिराज, ताबेदार को पक्की खबर मिली है कि चुनार के राजा शिवदत्तसिंह ने क्रूरसिंह की मदद की है और पांच ऐयार साथ करके सरकार से बेअदबी करने के लिए इधर रवाना किया है, बल्कि यह भी कहा है कि पीछे हम भी लश्कर लेकर आयेंगे। इस वक्त बड़े तरद्दुद का सामना है क्योंकि सरकार में आजकल कोई ऐयार नहीं, नाजिम और अहमद थे सो वे भी क्रूर के साथ हैं, बल्कि सरकार के यहाँ वाले मुसलमान भी उसी तरफ मिले हुए हैं। आजकल वे ऐयार जरूर सूरत बदलकर शहर में घूमते और बदमाशी की फिक्र करते होंगे।''

महाराज जयसिंह ने कहा, ‘‘ठीक है, मुसलमानों का रंग हम भी बेढब देखते हैं। फिर तुमने क्या बन्दो बस्त किया ?'' धीरे—धीरे महाराज और दीवान की बातें हो रही थीं कि इतने में दीवान साहब की निगाह एक चोबदार पर पड़ी जो दरबार में खड़ा छिपी निगाहों से चारों तरफ देख रहा था। वे गौर से उसकी तरफ देखने लगे। दीवान साहब को गौर से देखते हुए—पा वह चोबदार चौकन्ना हो गया और कुछ सम्हल गया। बात छोड़ कड़क के दीवान साहब ने कहा, ‘‘पकड़ो उस चोबदार को !'' हुक्म पाते ही लोग उसकी तरफ बढ़े, लेकिन वह सिर पर पैर रखकर ऐसा भागा कि किसी के हाथ न लगा। तेजसिंह चाहते तो उस ऐयार को जो चोबदार बनके आया था पकड़ लेते, मगर इनको तो सब काम बल्कि उठना—बैठना भी उसी तरह से करना था जैसा हरदयालसिंह करते थे, इसलिए वह अपनी जगह से न उठे। वह ऐयार भाग गया जो चोबदार बना हुआ था, जो लोग पकड़ने गये थे वापस आ गये।

दीवान साहब ने कहा, ‘‘महाराज देखिए, जो मैंने अर्ज किया था और जिस बात का मुझको डर था वह ठीक निकली।' महाराज को यह तमाशा देखकर खौफ हुआ , जल्दी दरबार बर्खास्त कर दीवान को साथ ले तखलिए में चले गये। जब बैठे तो हरदयालसिंह से पूछा ‘‘क्यों जी अब क्या करना चाहिए ? उस दुष्ट क्रूर ने तो एक बड़े भाई को हमारा दुश्मन बनाकर उभारा है। महाराज शिवदत्त की बराबरी हम किसी तरह भी नहीं कर सकते।''

दीवान साहब ने कहा, ‘‘महाराज, मैं फिर अर्ज करता हूँ कि हमारे सरकार में इस समय कोई ऐयार नहीं, नाजिम और अहमद थे सो क्रूर ही की तरफ जा मिले, ऐयारों का जवाब बिना ऐयार के कोई नहीं दे सकता। वे लोग बड़े चालाक और फसादी होते हैं, हजार—पाँच सौ की जान ले लेना उन लोगों के आगे कोई बात नहीं है, इसलिए जरूर कोई ईमानदार ऐयार मुकर्रर करना चाहिए, पर यह भी एकाएक नहीं हो सकता। सुना है राजा सुरेन्द्रसिंह के दीवान का लड़का तेजसिंह बड़ा भारी ऐयार निकला है, मैं उम्मीद करता हूँ कि अगर महाराज चाहेंगे और तेजसिंह को मदद के लिए मांगेंगे तो राजा सुरेन्द्रसिंह को देने में कोई उज्र न होगा क्योंकि वे महाराज को दिल से चाहते हैं। क्या हुआ अगर महाराज ने वीरेन्द्रसिंह का आना—जाना बन्द कर दिया, अब भी राजा सुरेन्द्रसिंह का दिल महाराज की तरफ से वैसा ही है जैसा पहले था।''

हरदयालसिंह की बात सुन के थोड़ी देर महाराज गौर करते रहे फिर बोले, ‘‘तुम्हारा कहना ठीक है, सुरेन्द्रसिंह और उनका लड़का वीरेन्द्रसिंह दोनों बड़े लायक है। इसमें कुछ शक नहीं कि वीरेन्द्रसिंह वीर है और राजनीति भी अच्छी तरह जानता है, हजार सेना लेकर दस हजार से लड़ने वाला है और तेजसिंह की चालाकी में भी कोई फर्क नहीं, जैसा तुम कहते हो वैसा ही है। मगर मुझसे उन लोगों के साथ बड़ी ही बेमुरव्वती हो गई है जिसके लिए मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ, मुझे उसने मदद माँगते शर्म मालूम होती है, इसके अलावा क्या जाने उनको मेरी तरफ से रंज हो गया हो, हाँ, तुम जाओ और उनसे मिलो। अगर मेरी तरफ से कुछ मलाल उनके दिल में हो तो उसे मिटा दो और तेजसिंह को लाओ तो काम चले।'' हरदयालसिंह ने कहा, ‘‘बहुत अच्छा महाराज, मैं खुद ही जाऊंगा और इस काम को करूंगा। महाराज ने अपनी मोहर लगाकर एक मुख्तसर चिट्ठी अपने हाथ से लिखी और अंगजी की मोहर लगाकर उनके हवाले किया।''

हरदयालसिंह महाराज से विदा हो अपने घर आये और अन्दर जनाने में न जाकर बाहर ही रहे, खाने को वहां ही मंगवाया। खा—पीकर बैठे और सोचने लगे कि चपला से मिल के सब हाल कह लें तो जायें। थोड़ा दिन बाकी था जब चपला आई। एकान्त में ले जाकर हरदयालसिंह ने सब हाल कहा और वह चिट्ठी भी दिखाई जो महाराज ने लिख दी थी। चपला बहुत ही खुश हुई और बोली, ‘‘हरदयालसिंह तुम्हारे मेल में आ जायेगा, वह बहुत ही लायक है। अब तुम जाओ, इस काम को जल्दी करो।'' चपला तेजसिंह की चालाकी की तारीफ करने लगी, अब वीरेन्द्रसिंह से मुलाकात होगी यह उम्मीद दिल में हुई।

नकली हरदयालसिंह नौगढ़ की तरफ रवाना हुए, रास्ते में अपनी सूरत असली बना ली।

चितारी— ऐयार।

चौदहवां बयान

नौगढ़ और विजयगढ़ का राज पहाड़ी है, जंगल भी बहुत भारी और घना है, नदियां चन्द्रप्रभा और कर्मनाशा घूमती हुईं इन पहाड़ों पर बहती हैं। जा—बजा खोह और दर्रे पहाड़ों में बड़े खूबसूरत कुदरती बने हुए हैं। पेड़ों में साखू, तेंद, विजयसार, सनई, कोरया, गो, खाजा, पेयार, जिगना, आसन आदि के पेड़ हैं। इसके अलावा पारिजात के पेड़ भी हैं। मील—भर इधर—उधर जाइए तो घने जंगल में फंस जाइएगा ! कहीं रास्ता न मालूम होगा कि कहाँ से आये और किधर जाएंगे। बरसात के मौसम में तो अजब ही कैफियत रहती है, कोस भर जाइए, रास्ते में दस नाले मिलेंगे। जंगली जानवरों में बारहसिंघा, चीता, भालू, तेंदुआ, चिकारा, लंगूर, बन्दर वगैरह के अलावा कभी—कभी शेर भी दिखाई देते हैं मगर बरसात में नहीं, क्योंकि नदी नालों में पानी ज्यादा हो जाने से उनके रहने की जगह खराब हो जाती है, और तब वे ऊंची पहाडि़यों पर चले जाते हैं। इन पहाड़ों पर हिरन नहीं होते मगर पहाड़ के नीचे बहुत से दीख पड़ते हैं। परिन्दों में तीतर, बटेर, आदि की अपेक्षा मोर ज्यादा होते हैं। गरज कि ये सुहावने पहाड़ अभी तक लिखे मुताबिक मौजूद हैं और हर तरह से देखने के काबिल हैं।

उन ऐयारों ने जो चुनार से क्रूर और नाजिम के संग आये थे, शहर में न आकर इसी दिलचस्प जंगल में मय क्रूर के अपना डेरा जमाया, और आपस में यह राय हो गई कि सब अलग—अलग जाकर ऐयारी करें। बद्रीनाथ ने जो इन ऐयारों में सबसे ज्यादा चालाक और होशियार था यह राय निकाली कि एक दफे सब कोई अलग—अलग भेष बदलकर शहर में घुस दरबार और महल के सब आदमियों तथा लौंडियों बल्कि रानी तक को देख के पहचान आवें तथा चाल—चलन तजबीज कर नाम भी याद कर लें जिससे वक्त पर ऐयारी करने के लिए सूरत बदलने और बातचीत करने में फर्क न पड़े। इस राय को सभी ने पसन्द किया नाजिम ने सभी का नाम बताया और जहाँ तक हो सका पहचनवा भी दिया ! वे ऐयार लोग तरह—तरह के भेष बदलकर महल में भी घुस आये और सब कुछ देख—भाल आये, मगर ऐयारी का मौका चपला की होशियारी की वजह से किसी को न मिला और उनको ऐयारी करना मंजूर भी न था जब तक कि हर तरह से देख—भाल न लेते।

जब वे लोग हर तरह से होशियार और वाकिफ हो गये तब ऐयारी करना शुरू किया। भगवानदत्त चपला की सूरत बना नौगढ़ में वीरेन्द्रसिंह को फंसाने के लिए चला। वहां पहुंचकर जिस कमरे में वीरेन्द्रसिंह थे उसके दरवाजे पर पहुंच पहरे वाले से कहा, ‘‘जाकर कुमार से कहो कि विजय गढ़ से चपला आई है।'' उस प्यादे ने जाकर खबर दी। कुछ रात गुजर गई थी, कुंवर वीरेन्द्रसिंह चन्द्रकान्ता की याद में बैठे तबीयत से युक्तियां निकाल रहे थे, बीच—बीच में ऊंची सांस भी लेते जाते थे, उसी वक्त चोबदार ने आकर अर्ज किया—‘‘पृथ्वीनाथ, विजयगढ़ से चपला आई हैं और ड्योढ़ी पर खड़ी हैं। क्या हुक्म होता है ? कुमार चपला का नाम सुनते ही चौंक उठे और खुश होकर बोले, ‘‘उसे जल्दी अन्दर लाओ।'' हुक्म के बमूजिब चपला हाजिर हुई, कुमार चपला को देख उठ खड़े हुए और हाथ पकड़ अपने पास बैठा बातचीत करने लगे, चन्द्रकान्ता का हाल पूछा। चपला ने कहा, ‘‘अच्छी हैं, सिवाय आपकी याद के और किसी तरह की तकलीफ नहीं है, हमेशा कह करती हैं कि बड़े बेमुरौवत हैं, कभी खबर भी नहीं लेते कि जीती है या मर गई। आज घबड़ाकर मुझको भेजा है और यह दो नासपातियां अपने हाथ से छील—काटकर आपके वास्ते भेजी हैं तथा अपने सिर की कसम दी है कि इन्हें जरूर खाइएगा।'' वीरेन्द्रसिंह चपला की बातें सुन बहुत खुश हुए। चन्द्रकान्ता का इश्क पूरे दर्जे पर था, धोखे में आ गये, भले—बुरे की कुछ तमीज न रही, चन्द्रकान्ता की कसम कैसे टालते, झट नासपाती का टुकड़ा उठा लिया और मुंह से लगाया ही था कि सामने से आते हुए तेजसिंह दिखाई पड़े। तेजसिंह ने देखा कि वीरेन्द्रसिंह बैठे हैं, देखते ही आग हो गये। ललकार कर बोले, ‘‘खबरदार, मुंह में मत डालना !'' इतना सुनते ही वीरेन्द्रसिंह रुक गये और बोले, ‘‘क्यों क्या है ?'' तेजसिंह ने कहा, ‘‘मैं जाती बार हजार बार समझा गया, अपना सिर मार गया, मगर आपको खयाल न हुआ ! कभी आगे भी चपला यहाँ आई थी ! आपने क्या खाक पहचाना कि यह चपला है या कोई ऐयार ! बस सामने रण्डी को देख मीठी—मीठी बातें सुन मजे में आ गये !''

तेजसिंह की घुड़की सुन वीरेन्द्रसिंह तो शर्मा गये और चपला के मुंह की तरफ देखने लगे !मगर नकली चपला से न रहा गया, फंस तो चुकी ही थी, झट खंजर निकाल कर तेजसिंह की तरफ दौड़ी। वीरेन्द्रसिंह भी जान गये कि यह ऐयार है, उसको खंजर ले तेजसिंह पर दौड़ते देख लपक कर हाथ से उसकी कलाई पकड़ी जिसमें खंजर था, दूसरा हाथ कमर में डाल उठा लिया और सिर से ऊंचा करना चाहते थे कि फेंके जिससे हड्डी पसली सब चूर हो जाये कि तेजसिंह ने आवाज दी, ‘‘हाँ, हाँ, पटकना मत, मर जायेगा, ऐयार लोगों का काम ही यही है, छोड़ दो, मेरे हवाले करो।'' यह सुन कुमार ने धीरे से जमीन पर पटक कर मुश्कें बांध तेजसिंह के हवाले किया। तेजसिंह ने जबर्दस्ती उसके नाक में दवा ठूंस बेहोश किया और गठरी में बांध किनारे रख बातें करने लगे।

तेजसिंह ने कुमार को समझाया और कहा, ‘‘देखिए, जो हो गया सो हो गया, मगर अब धोखा मत खाइएगा।'' कुमार बहुत शर्मिन्दा थे, इसका कुछ जवाब न दे विजयगढ़ का हाल पूछने लगे। तेजसिंह ने सब खुलासा ब्यौरा कहा और चिट्ठी भी दिखाई जो महाराज जयसिंह ने राजा सुरेन्द्रसिंह के नाम लिखी थी। कुमार यह सब सुन और चिट्ठी देख उछल पड़े, मारे खुशी के तेजसिंह को गले से लगा लिया और बोले, ‘‘अब जो कुछ करना हो जल्दी कर डालो।'' तेजसिंह ने कहा, ‘‘हाँ, देखो सब कुछ हो जाता है, घबराओ मत।'' इसी तरह दोनों को बातें करते तमाम रात गुजर गई।

सवेरा हुआ चाहता था जब तेजसिंह उस ऐयार की गठरी पीठ पर लादे उसी तहखाने को रवाना हुए जिसमें अहमद को कैद कर आये थे। तहखाने का दरवाजा खोल अन्दर गये, टहलते—टहलते चश्मे के पास जा निकले। देखा कि अहमद नहर के किनारे सोया है और हरदयालसिंह एक पेड़ के नीचे पत्थर की चट्टान पर सिर झुकाये बैठे हैं। तेजसिंह को देखकर हरदयालसिंह उठ खड़े हुए और बोले, ‘‘क्यों तेजसिंह मैंने क्या कसूर किया जो मुझको कैद कर रक्खा है ?'' तेजसिंह ने हंसकर जवाब दिया, ‘‘अगर कोई कसूर किया होता तो पैरों में बेड़ी पड़ी होती, जैसा कि अहमद को आपने देखा होगा। आपने कोई कसूर नहीं किया, सिर्फ एक दिन आपको रोक रखने से मेरा बहुत काम निकलता था इसलिए मैंने ऐसी बेअदबी की, माफ कीजिए। अब आपको अख्तियार है कि चाहे जहाँ जायें, मैं ताबेदार हूँ। विजयगढ़ में नेक ईमानदार इन्साफ पसन्द सिवाय आपके कोई नहीं है, इसी सबब से मैं भी मदद का उम्मीदवार हूँ।''

हरदयालसिंह ने कहा, ‘‘सुनो तेजसिंह, तुम खुद जानते हो कि मैं हमेशा से तुम्हारा और कुंवर वीरेन्द्रसिंह का दोस्त हूँ, मुझको तुम लोगों की खिदमत करने में कोई उज्र नहीं। मैं तो आप हैरान था कि दोस्त आदमी को तेजसिंह ने क्यों कैद किया ? पहले तो मुझको यह भी नहीं मालूम हुआ कि मैं यहाँ कैसे आया, मर के आया हूँ या जीते जी, पर अहमद को देखा तो समझ गया कि यह तुम्हारी करामात है, भला यह तो कहो मुझको यहाँ रखकर तुमने क्या कार्रवाई की और अब मैं तुम्हारा क्या काम कर सकता हूँ?''

तेजसिंहरू मैं आपकी सूरत बनाकर आपके जनाने में नहीं गया इससे आप खातिर जमा रखिए।

हरदयालसिंहः तुमको तो मैं अपने लड़के से ज्यादा मानता हूँ, अगर जनाने में जाते भी तो क्या था ! खैर, हाल कहो।

तेजसिंह ने महाराज जयसिंह की चिट्ठी दिखाई, हरदयाल के कपड़े जो पहने हुए थे उनको दे दिये और अब खुलासा हाल कह कर बोले, ‘‘अब आप अपने कपड़े सहेज लीजिए और यह चिट्ठी लेकर दरबार में जाइए, राजा से मुझको मांग लीजिए जिससे मैं आपके साथ चलूं, नहीं तो वे ऐयार जो चुनार से आये हैं विजयगढ़ को गारत कर डालेंगे और महाराज शिवदत्त अपना कब्जा विजयगढ़ पर कर लेंगे। मैं आपके संग चलकर उन ऐयारों को गिरफ्तार करूँगा। आप दो बातों का सबसे ज्यादा खयाल रखियेगा, एक यह कि जहां तक बने मुसलमानों को बाहर कीजिए और हिन्दुओं को रखिए, दूसरे यह कि कुंवर वीरेन्द्रसिंह का हमेशा ध्यान रखिये और महाराज से बारबर उनकी तारीफ कीजिए जिससे महाराज मदद के वास्ते उनको भी बुलावें !''

हरदयालसिंह ने कसम खाकर कहा, ‘‘मैं हमेशा तुम लोगों का खैरख्वाह हूँ, जो कुछ तुमने कहा है उससे ज्यादा कर दिखाऊंगा।''

तेजसिंह ने ऐयारी की गठरी खोली और एक खुलासा बेड़ी उसके पैर में डाल तथा ऐयारी का बटुआ और खंजर उसके कमर से निकालने के बाद उसे होश में लाये। उसके चेहरे को साफ किया तो मालूम हुआ कि वह भगवानदत्त है।

ऐयार होने के कारण चुनार के सब ऐयारों को तेजसिंह पहचानते थे और वे सब लोग भी उनको बखूबी जानते थे। तेजसिंह ने भगवानदत्त को नहर के किनारे छोड़ा और हरदयालसिंह को साथ ले खोह के बाहर चले। दरवाजे के पास आये, हरदयाल से कहा कि, ‘‘मेहरबानी करके मुझे इजाजत दें कि मैं थोड़ी देर के लिए आपको फिर बेहोश करूँ, तहखाने के बाहर होश में ले आऊंगा।'' हरदयालसिंह ने कहा, ‘‘इसमें मुझको कुछ उज्र नहीं है, मैं यह नहीं चाहता कि इस तहखाने में आने का रास्ता देख लूं, यह तुम्ही लोगों के काम हैं, मैं देखकर क्या करूंगा ?''

तेजसिंह हरदयालसिंह को बेहोश करके बेहोश करके बाहर लाये और होश में लाकर बोले, ‘‘अब आप कपड़े पहन लीजिए और मेरे साथ चलिए।'' उन्होंने वैसा ही किया।

शहर में आकर तेजसिंह के कहे मुताबिक हरदयालसिंह अलग होकर अकेले राजा सुरेन्द्रसिंह के दरबार में गये। राजा ने उनकी बड़ी खातिर की और हाल पूछा। उन्होंने बहुत कुछ कहने के बाद महाराज जयसिंह की चिट्ठी दी जिसको राजा ने इज्जत के साथ लेकर अपने वजीर जीतसिंह को पढ़ने के लिए दिया, जीतसिंह ने जोर से खत पढ़ा। राजा सुरेन्द्रसिंह चिट्ठी पढ़कर बहुत खुश हुए और हरदयालसिंह की तरफ देखकर बोले, ‘‘ मेरा राज्य महाराज जयसिंह का है, जिसे चाहें बुला लें मुझे कुछ उज्र नहीं, तेजसिंह आपके साथ जायेगा।'' यह कह अपने वजीर जीतसिंह को हरदयालसिंह की मेहमानी का हुक्म दिया और दरबार बर्खास्त किया।

दीवान हरदयालसिंह की मेहमानी तीन दिन तक बहुत अच्छी तरह से की गई जिससे वे बहुत खुश हुए। चौथे दिन दीवान साहब ने राजा से रुखसत मांगी, राजा बहुत कुछ दौलत जवाहरात से उनकी विदाई की और तेजसिंह को बुला समझा—बुझाकर दीवान साहब के संग किया।

बड़े साज—सामान के साथ ये दोनों विजयगढ़ पहुँचे और शाम को दरबार में महाराज के पास हाजिर हुए। हरदयालसिंह ने महाराज की चिट्ठी का जवाब दिया और सब हाल कह सुरेन्द्रसिंह की बड़ी तारीफ की जिससे महाराज बहुत खुश हुए और तेजसिंह को उसी वक्त खिलअत देकर हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि, ‘‘इनके रहने के लिए मकान का बन्दोबस्त कर दो और इनकी खातिरदारी और मेहमानी का बोझ अपने ऊपर समझो।''

दरबार उठने पर दीवान साहब तेजसिंह को साथ ले विदा हुए और एक बहुत अच्छे कमरे में डेरा दिलवाया। नौकर और पहले वाले तथा प्यादों का भी बहुत अच्छा इन्तजाम कर दिया जो सब हिन्दू थे। दूसरे दिन तेजसिंह महाराज के दरबार में हाजिर हुए, दीवान हरदयालसिंह के बगल में एक कुर्सी उनके वास्ते मुकर्रर की गई।

पन्द्रहवां बयान

हम पहले यह लिख चुके हैं कि महाराज शिवदत्त के यहाँ जितने ऐयार हैं सभी को तेजसिंह पहचानते हैं। अब तेजसिंह को यह जानने की फिक्र हुई कि उनमें से कौन—कौन चार आये हैं, इसलिए दूसरे दिन शाम के वक्त उन्होंने अपनी सूरत भगवानदत्त की बनाई जिसको तहखाने में बन्द कर आये थे और शहर से निकल जंगल—में इधर—उधर घूमने लगे, पर कहीं कुछ पता न लगा। बरसात का दिन आ चुका था, रात अंधेरी और बदली छाई थी, आखिर तेजसिंह ने एक टीले पर खड़े होकर जफील बजाई।

थोड़ी देर में तीनों ऐयार मय पण्डित जगन्नाथ ज्योतिषी के उसी जगह पहुंचे और भगवानदत्त को खड़े देखकर बोले, ‘‘क्यों जी, तुम नौगढ़ गये थे ना ? क्या किया, खाली क्यों चले आये ?''

तेजसिंह ने सबों को पहचानने के बाद जवाब दिया, ‘‘वहाँ तेजसिंह की बदौलत कोई कार्रवाई न चली, तुम लोगों में से कोई एक आदमी मेरे साथ चले तो काम बने !''

पन्नाः अच्छा कल हम तुम्हारे साथ चलेंगे, आज चलो महल में कोई कार्रवाई करें।

तेजसिंहरू अच्छा चलो, मगर मुझको इस वक्त भूख बड़े जोर की लगी है, कुछ खा लूं तो काम में जी लगे। तुम लोगों के पास कुछ हो तो लाओ।

जगन्नाथः पास में तो जो कुछ है बेहोशी मिला है, बाजार से जाकर कुछ लाओ तो सब कोई खा—पीकर छुट्टी करें।

भगवानः अच्छा एक आदमी मेरे साथ चलो।

पन्नालाल साथ हुए, दोनों शहर की तरफ चले। रास्ते में पन्नालाल ने कहा, ‘‘हम लोगों को अपनी सूरत बदल लेना चाहिए क्योंकि तेजसिंह कल से इसी शहर में आया है और हम सबों को पहचानता भी है, शायद घूमता—फिरता कहीं मिल जाये।''

भगवानदत्त ने यह सोचकर कि सूरत बदलेंगे तो रोगन लगाते वक्त शायद यह पहचान ले, जवाब दिया, ‘‘कोई जरूर नहीं, कौन रात को मिलता है ?'' भगवानदत्त के इनकार करने से पन्नालाल को शक हो गया और गौर से इनकी सूरत देखने लगा, मगर रात अंधेरी थी पहचान न सका, आखिर को जोर से जफील बजाई। शहर के पास आ चुके थे, ऐयार लोग दूर थे जफील सुन न सके य तेजसिंह भी समझ गये कि इसको शक हो गया, अब देर करने की कुछ जरूरत नहीं, झट उसके गले में हाथ डाल दिया, पन्नालाल ने भी खंजर निकाल लिया, दोनों में खूब जोर की भिड़न्त हो गई। आखिर को तेजसिंह ने पन्ना को उठा के दे मारा और मुश्कें कस बेहोश कर गठरी बांध ली तथा पीठ पर लाद शहर की तरफ रवाना हुए। असली सूरत बनाये डेरे पर पहुंचे। एक कोठरी में पन्नालाल को बन्द कर दिया और पहरे वालों को सख्त ताकीद कर आप उसी कोठरी के दरवाजे पर पलंग बिछवा सो रहे, सवेरे पन्नालाल को साथ ले दरबार की तरफ चले।

इधर रामनारायण, बद्रीनाथ और ज्योतिषीजी राह देख रहे थे कि अब दोनों आदमी खाने का सामाना लाते होंगे, मगर कुछ नहीं, यहाँ तो मामला ही दूसरा था। उन लोगों को शक हो गया कि कहीं दोनों गिरफ्तार न हो गये हों, मगर यह खयाल में न आया कि भगवानदत्त असल में दूसरे ही कृपानिधान थे।

उस रात को कुछ न कर सके पर सवेरे सूरत बदल कर खोज में निकले। पहले महाराज जयसिंह के दरबार की तरफ चले, देखा कि तेजसिंह दरबार में जा रहे हैं और उसके पीछे—पीछे दस—पन्द्रह सिपाही कैदी की तरह पन्नालाल को लिये चल रहे हैं। उन ऐयारों ने भी साथ—ही—साथ दरबार का रास्ता पकड़ा।

तेजसिंह पन्नालाल को लिए दरबार में पहुंचे, देखा कचहरी खूब लगी हुई है, महाराज बैठे हैं, वह भी सलाम कर अपनी कुर्सी पर जा बैठे, कैदी को सामने खड़ा कर दिया। महाराज ने पूछा, ‘‘क्यों तेजसिंह किसको लाये हो ?''तेजसिंह ने जवाब दिया, ‘‘महाराज, उन पांचों ऐयारों में से जो चुनार से आये हैं एक गिरफ्तार हुआ है, इसको सरकार में लाया हूँ। जो इसके लिए मुनासिब हो, हुक्म किया जाये।''

महाराज गौर के साथ खुशी भरी निगाहो से उसकी तरफ देखने लगे और पूछा, ‘‘तेरा नाम क्या है ?'' उसने कहा, ‘‘मक्कार खां उर्फ ऐयार खां।'' महाराज उसकी ढिठाई और बात पर हँस पड़े, हुक्म दिया, ''बस इससे ज्यादा पूछने की कोई जरूरत नहीं, सीधे कैदखाने में ले जाकर इसको बन्द करो और सख्त पहरे बैठा दो।'' हुक्म पाते ही प्यादों ने उस ऐयार के हाथों में हथकड़ी और पैरों में बेड़ी डाल दी और कैदखाने की तरफ ले गये। महाराज ने खुश होकर तेजसिंह को सौ अशर्फी इनाम में दीं। तेजसिंह ने खड़े होकर महाराज को सलाम किया और अशर्फियाँ बटुए में रख लीं।

रामनारायण, बद्रीनाथ और ज्योतिषीजी भेष बदले हुए दरबार में खड़े यह सब तमाशा देख रहे थे जब पन्नालाल को कैदखाने का हुक्म हुआ, वे लोग भी बाहर चले आये और आपस में सलाह कर भारी चालाकी की। किनारे जाकर बद्रीनाथ ने तो तेजसिंह की सूरत बनाई और रामनारायण और ज्योतिषीजी प्यादे बनकर तेजी के साथ उन सिपाहियों के साथ चले जो पन्नालाल को कैदखाने की तरफ लिये जा रहे थे। पास पहुंच कर बोले,. ‘‘ठहरो, ठहरो, इस नालायक ऐयार के लिए महाराज ने दूसरा हुक्म दिया है, क्योंकि मैंने अर्ज किया था कि कैदखाने में इसके संगी—साथी इसको किसी—न—किसी तरह छुड़ा ले जायेंगे, अगर मैं इसको अपनी हिफाजत में रखूंगा तो बेहतर होगा क्योंकि मैंने ही इसे पकड़ा है, मेरी हिफाजत में यह रह भी सकेगा , सो तुम लोग इसको मेरे हवाले करो।''

प्यादे तो जानते ही थे कि इसको तेजसिंह ने पकड़ा है, कुछ इनकार न किया और उसे उनके हवाले कर दिया। नकली तेजसिंह ने पन्नालाल को ले जंगल का रास्ता लिया। उसके चले जाने पर उसका हाल अर्ज करने के लिए प्यादे फिर दरबार में लौट आये। दरबार उसी तरह लगा हुआ था, तेजसिंह भी अपनी जगह बैठे थे। उनको देख प्यादों के होश उड़ गये और अर्ज करते—करते रुक गये। तेजसिंह ने इनकी तरफ देखकर पूछा, ‘‘क्यों ? क्या बात है, उस ऐयार को कैद कर आये ?'' प्यादों ने डरते—डरते कहा, ‘‘जी उसको तो आप ही ने हम लोगों से ले लिया।'' तेजसिंह उनकी बात सुनकर चौंक पड़े और बोले, ‘‘मैंने क्या किया है ? मैं तो तब से इसी जगह बैठा हूँ !''

प्यादों की जान डर और ताज्जुब से सूख गई, कुछ जवाब न दे सके, पत्थर की तस्वीर की तरह जैसे—के—तैसे खड़े रहे। महाराज ने तेजसिंह की तरफ देखकर पूछा, ‘‘क्यों ? क्या हुआ ?'' तेजसिंह ने कहा, ‘‘ऐयार चालाकी खेल गये, मेरी सूरत बना उसी कैदी को इन लोगों से छुड़ा ले गये !'' तेजसिंह ने अर्ज किया, ‘‘महाराज इन लोगों का कसूर नहीं, ऐयार लोग ऐसे ही होते हैं, बड़े—बड़ों को धोखा दे जाते हैं, इन लोगों की क्या हकीकत है।''

तेजसिंह के कहने से महाराज ने उन प्यादों का कसूर माफ किया, मगर उस ऐयार के निकल जाने का रंज देर तक रहा।

बद्रीनाथ वगैरह पन्नालाल को लिए हुए जंगल में पहुंचे, एक पेड़ के नीचे बैठकर उसका हाल पूछा, उसने सब हाल कहा। अब इन लोगों को मालूम हुआ कि भगवानदत्त को भी तेजसिंह ने पकड़ के कहीं छिपाया है, यह सोच सभी ने पण्डित जगन्नाथ से कहा, ‘‘आप रमल के जरिए दरियाफ्त कीजिए कि भगवानदत्त कहाँ है ?'' ज्योतिषीजी ने रमल फेंका और कुछ गिन—गिनाकर कहा, ‘‘बेशक भगवानदत्त को भी तेजसिंह ने ही पकड़ा है और यहाँ से दो कोस दूर उत्तर की तरफ एक खोह में कैद कर रक्खा है।'' यह सुन सभी ने उस खोह का रास्ता लिया। ज्योतिषीजी बार—बार रमल फेंकते और विचार करते हुए उस खोह तक पहुँचे और अन्दर गये, जब उजाला नजर आया तो देखा, सामने एक फाटक है मगर यह नहीं मालूम होता था कि किस तरह खुलेगा। ज्योतिषीजी ने फिर रमल फेंका और सोचकर कहा, ‘‘यह दरवाजा एक तिलिस्म के साथ मिला हुआ है और रमल तिलिस्म में कुछ काम नहीं कर सकता, इसके खोलने की कोई तरकीब निकाली जाय तो काम चले।'' लाचार वे सब उस खोह के बाहर निकल आये और ऐयारी की फिक्र करने लगे।

सोलहवां बयान

एक दिन तेजसिंह बालादवी के लिए विजयगढ़ के बाहर निकले। पहर दिन बाकी था जब घूमते—फिरते बहुत दूर निकल गये। देखा कि एक पेड़ के नीचे कुंवर वीरेन्द्रसिंह बैठे हैं। उनकी सवारी का घोड़ा पेड़ से बंधा हुआ है, सामने एक बारहसिंघा मरा पड़ा है, उसके एक तरफ आग सुलग रही है, और पास जाने पर देखा कि कुमार के सामने पत्तों पर कुछ टुकड़े गोश्त के भी पड़े हैं।

तेजसिंह को देखकर कुमार ने जोर से कहा, ‘‘आओ भाई तेजिसिंह, तुम तो विजयगढ़ ऐसा गये कि फिर खबर भी न ली, क्या हमको एक दम ही भूल गये ?''

तेजसिंहरू (हँसकर) विजयगढ़ में मैं आप ही का काम कर रहा हूँ कि अपने बाप का ?

वीरेन्द्रसिंहः अपने बाप का।

यह कहकर हंस पड़े। तेजसिंह ने इस बात का कुछ भी जवाब न दिया और हंसते हुए पास जा बैठे। कुमार ने पूछा, ‘‘कहो चन्द्रकान्ता से मुलाकात हुई थी ?''

तेजसिंह ने जवाब दिया, ‘‘इधर जब से मैं गया हूँ इसी बीच में एक ऐयार को पकड़ा था। महाराज ने उसको कैद करने का हुक्म दिया मगर कैदखाने तक पहुँचने न पाया था कि रास्ते ही में मेरी सूरत बना उसके साथी ऐयारों ने उसे छुड़ा लिया, फिर अभी तक कोई गिरफ्तार न हुआ।''

कुमारः वे लोग भी बड़े शैतान हैं !

तेजसिंहरू और तो जो हैं, बद्रीनाथ भी चुनार से इन लोगों के साथ आया है, वह बड़ा भारी चालाक है। मुझको अगर खौफ रहता है तो उसी का ! खैर, देखा जायेगा, क्या हर्ज है। यह तो बताइए, आप यहाँ क्या कर रहे हैं ? कोई आदमी भी साथ नहीं है।

कुमारः आज मैं कई आदमियों को ले सवेरे ही शिकार खेलने के लिए निकला, दोपहर तक तो हैरान रहा, कुछ हाथ न लगा, आखिर को यह बारहसिंघा सामने से निकला और मैंने उसके पीछे घोड़ा फेंका। इसने मुझको बहुत हैरान किया, संग के सब साथी छूट गये, अब इस समय तीर खाकर गिरा है। मुझको भूख बड़ी जोर की लगी थी इससे जी में आया कि कुछ गोश्त भून के खाऊं ! इसी फिक्र में बैठा था कि सामने से तुम दिखाई पड़े, अब लो तुम ही इसको भूनो। मेरे पास कुछ मसाला था उसको मैंने धो—धाकर इन टुकड़ों में लगा दिया है, अब तैयार करो, तुम भी खाओ मैं भी खाऊं, मगर जल्दी करो, आज दिन भर से कुछ नहीं खाया।

तेजसिंह ने बहुत जल्द गोश्त तैयार किया और एक सोते के किनारे जहाँ साफ पानी निकल रहा था बैठकर दोनों खाने लगे। वीरेन्द्रसिंह मसाला पोंछ—पोछकर खाते थे, तेजसिंह ने पूछा, ‘‘आप मसाला क्यों पोंछ रहे हैं ?'' कुमार ने जवाब दिया, ‘‘फीका अच्छा मालूम होता है।'' दो—तीन टुकड़े खाकर वीरेन्द्रसिंह ने सोते में से चुल्लू—भर के खूब पानी पिया और कहा, ‘‘बस भाई, मेरी तबीयत भर गई, दिन भर भूखे रहने पर कुछ खाया नहीं जाता।'' तेजसिंह ने कहा, ‘‘आप खाइए चाहे न खाइये मैं तो छोड़ता नहीं, बड़े मजे का बन पड़ा है। आखिर जहाँ तक बन पड़ा खूब खाया और तब हाथ—मुँह धोकर बोले, ''चलिए, अब आपको नौगढ़ पहुंचा कर फिर फिरेंगे।'' वीरेन्द्रसिंह ‘‘चलो'' कहकर घोड़े पर सवार हुए और तेजसिंह पैदल साथ चले।

थोड़ी दूर जाकर तेजसिंह बोले, ‘‘न मालूम क्यों मेरा सिर घूमता है।'' कुमार ने कहा, ‘‘तुम मांस ज्यादा खा गये हो, उसने गर्मी की है।'' थोड़ी दूर गये थे कि तेजसिंह चक्कर खाकर जमीन पर गिर पड़े। वीरेन्द्रसिंह ने झट घोड़े पर से कूदकर उनके हाथ—पैर खूब कसके गठरी में बांध पीठ पर लाद लिया और घोड़े की बाग थाम विजयगढ़ का रास्ता लिया। थोड़ी दूर जाकर जोर से जफील (सीटी) बजाई जिसकी आवाज जंगल में दूर—दूर तक गूंज गई। थोड़ी देर में क्रूरसिंह, पन्नालाल, रामनारायण और ज्योतिषीजी आ पहुँचे। पन्नालाल ने खुश होकर कहा, ‘‘वाह जी बद्रीनाथ, तुमने तो बड़ा भारी काम किया। बड़े जबर्दस्त को फांसा ! अब क्या है, ले लिया !!'' क्रूरसिंह मारे खुशी के उछल पड़ा। बद्रनीथ ने, जो अभी तक कुंवर वीरेन्द्रसिंह बना हुआ था गठरी पीठ से उतार कर जमीन पर रख दी और रामनारायण से कहा, ‘‘तुम इस घोड़े को नौगढ़ पहुंचा दो, जिस अस्तबल से चुरा लाये थे उसी के पास छोड़ा आओ, आप ही लोग बांध लेंगे।'' यह सुनकर रामनारायण घोड़े पर सवार हो नौगढ़ चला गया। बद्रीनाथ ने तेजसिंह की गठरी अपनी पीठ पर लादी और ऐयारों को कुछ समझा—बुझाकर चुनार का रास्ता लिया।

तेजसिंह को मामूल था कि रोज महाराज जयसिंह के दरबार में जाते और सलाम करके कुर्सी पर बैठ जाते। दो—एक दिन महाराज ने तेजसिंह की कुर्सी खाली देखी, हरदयालसिंह से पूछा कि ‘आजकल तेजसिंह नजर नहीं आते, क्या तुमसे मुलाकात हुई थी ? दीवान साहब ने अर्ज किया, ‘‘नहीं, मुझसे भी मुलाकात नहीं हुई, आज दरियाफ्त करके अर्ज करूंगा।'' दरबार बर्खास्त होने के बाद दीवान साहब तेजसिंह के डेरे पर गये, मुलाकात ने होने पर नौकरों से दरियाफ्त किया। सभी ने कहा, ‘‘कई दिन से वे यहाँ नहीं है, हम लोगों ने बहुत खोज की मगर पता न लगा।''

दीवान हरदयालसिंह यह सुनकर हैरान रह गये। अपने मकान पर जाकर सोचने लगे कि अब क्या किया जाये ? अगर तेजसिंह का पता न लगेगा तो बड़ी बदनामी होगी, जहाँ से हो, खोज लगाना चाहिए। आखिर बहुत से आदमियों को इधर—उधर पता लगाने के लिए रवाना किया और अपनी तरफ से एक चिट्ठी नौगढ़ के दीवान जीतसिंह के पास भेजकर ले जाने वाले को ताकीद कर दी कि कल दरबार से पहले इसका जवाब लेकर आना। नह आदमी खत लिये शाम को नौगढ़ को पहुंचा और दीवान जीतसिंह के मकान पर जाकर अपने आने की इत्तिला करवाई। दीवान साहब ने अपने सामने बुलाकर हाल पूछा, उसने सलाम करके खत दिया। दीवान साहब ने गौर से खत को पढ़ा, दिल में यकीन हो गया कि तेजसिंह जरूर ऐयारों के हाथ पकड़ा गया। यह जवाब लिखकर कि ‘ वह यहाँ नहीं है' आदमी को विदा कर दिया और अपने कई जासूसों को बुलाकर पता लगाने के लिए इधर—उधर रवाना किया। दूसरे दिन दरबार में दीवान जीतसिंह ने राजा सुरेन्द्रसिंह से अर्ज किया, ‘‘महाराज, कल विजयगढ़ से दीवान हरदयालसिंह का पत्र लेकर एक आदमी आया था, यह दरियाफ्त किया था, कि तेजसिंह नौगढ़ में है कि नहीं, क्योंकि कई दिनों से वह विजयगढ़ में नहीं है ! मैंने जवाब में लिख दिया है कि ‘यहाँ नहीं हैं'।

राजा को यह सुनकर ताज्जुब हुआ और दीवान से पूछा, ‘‘तेजसिंह वहाँ भी नहीं हैं और यहाँ भी नहीं तो कहाँ चला गया ? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि ऐयारों के हाथ पड़ गया हो, क्योंकि महाराज शिवदत्त के कई ऐयार विजयगढ़ में पहुँचे हुए हैं और उनसे मुलाकात करने के लिए अकेला तेजसिंह गया था ! '' दीवान साहब ने कहा, ‘‘ जहाँ तक मैं समझता हूँ, वह ऐयारों के हाथ में गिरफ्तार हो गया होगा, खैर, जो कुछ होगा दो—चार दिन में मालूम हो जायेगा।''

कुंवर वीरेन्द्रसिंह भी दरबार में राजा के दाहिनी तरफ कुर्सी पर बैठे यह बात सुन रहे थे। उन्होंने अर्ज किया, ‘‘अगर हुक्म हो तो मैं तेजसिंह का पता लगाने जाऊं ?'' दीवान जीतसिंह ने यह सुनकर कुमार की तरफ देखा और हंसकर जवाब दिया, ‘‘आपकी हिम्मत और जवांमर्दी में कोई शक नहीं, मगर इस बात को सोचना चाहिए कि तेजसिंह के वास्ते, जिसका काम ऐयारी ही है और ऐयारों के हाथ फंस गया है, आप हैरान हो जाएं इसकी क्या जरूरत है ? यह तो आप जानते ही हैं कि अगर किसी ऐयार को कोई ऐयार पकड़ता है तो सिवाय कैद रखने के जान से नहीं मारता, अगर तेजसिंह उन लोगों के हाथ में पड़ गया है तो कैद होगा, किसी तरह छूट ही जायेगा क्योंकि वह अपने फन में बड़ा होशियार है, सिवाय इसके जो ऐयारी का काम करेगा चाहे वह कितना ही चालाक क्यों न हो, कभी—न—कभी फंस ही जायेगा, फिर इसके लिए सोचना क्या ? दस—पाँच दिन सब्र कीजिए, देखिए क्या होता है ? इस बीच में, अगर वह न आया तो आपको जो कुछ करना हो कीजिएगा।''

वीरेन्द्रसिंह ने जवाब दिया, ‘‘हाँ, आपका कहना ठीक है मगर पता लगाना जरूरी है, यह सोचकर कि वह चालाक है, खुद छूट जायेगा—खोज न करना मुनासिब नहीं।''

जीतसिंह ने कहा, ‘‘सच है, आपको मुहब्बत के सबब से उसका ज्यादा खयाल है, खैर, देखा जायगा।'' यह सुन राजा सुरेन्द्रसिंह ने कहा, ‘‘और कुछ नहीं तो किसी को पता लगाने के लिए भेज दो।'' इसके जवाब में दीवान साहब ने कहा, ‘‘कई जासूसों का पता लगाने के लिए भेज चुका हूँ।'' राजा और कुंवर वीरेन्द्रसिंह चुप रहे मगर खयाल इस बात का किसी के दिल से न गया।

विजयगढ़ में दूसरे दिन दरबार में जयसिंह ने फिर हरदयालसिंह से पूछा, ‘‘कहीं तेजसिंह का पता लगा ?'' दीवान साहब ने कहा, ‘‘यहां तो तेजसिंह का पता नहीं लगता, शायद नौगढ़ में हों। मैंने वहाँ भी आदमी भेजा है, अब आता ही होगा, जो कुछ है मालूम हो जायेगा।'' ये बातें हो रही थीं कि खत का जवाब लिये वह आदमी आ पहुंचा जो नौगढ़ गया था। हरदयालसिंह ने जवाब पढ़ा और बड़े अफसोस के साथ महाराज से अर्ज किया कि ‘‘नौगढ़ में भी तेजसिंह नहीं हैं, यह उनके बाप जीतसिंह के हाथ का खत मेरे खत के जवाब में आया है'। महाराज ने कहा, ‘‘उसका पता लगाने के लिए कुछ फिक्र की गयी है या नहीं ?'' हरदयालसिंह ने कहा, ‘‘हाँ, कई जासूस मैंने इधर—उधर भेजे हैं।''

महाराज को तेजसिंह का बहुत अफसोस रहा, दरबार बर्खास्त करके महल में चले गये। बात—की—बात में महाराज ने तेजसिंह का जिक्र महारानी से किया और कहा, ‘‘किस्मत का फेर इसे ही कहते हैं। क्रूरसिंह ने तो हलचल मचा ही रक्खी थी, मदद के वास्ते एक तेजसिंह आया था सो कई दिन से उसका भी पता नहीं लगता, अब मुझे उसके लिए सुरेन्द्रसिंह से शर्मिन्दगी उठानी पड़ेगी। तेजसिंह का चाल—चलन, बात—चीत, इल्म और चालाकी पर जब खयाल करता हूँ, तबीयत उमड़ आती है। बड़ा लायक लड़का है। उसके चेहरे पर उदासी तो कभी देखी ही नहीं।'' महारानी ने भी तेजसिंह के हाल पर बहुत अफसोस किया। इत्तिफाक से चपला उस वक्त वहीं खड़ी थी, यह हाल सुन वहाँ से चली और चन्द्रकान्ता के पास पहुंची। तेजसिंह का हाल जब कहना चाहती थी, जी उमड़ आता है, कुछ कह न सकती थी। चन्द्रकान्ता ने उसकी दशा देख पूछा, ‘‘क्यों ? क्या है ? इस वक्त तेरी अजब हालत हो रही है, कुछ मुंह से तो कह !'' इस बात का जवाब देने के लिए चपला ने मुंह खोला ही था कि गला भर आया, आंखों से आंसू टपक पड़े, कुछ जवाब न दे सकी। चन्द्रकान्ता को और भी ताज्जुब हुआ, पूछा, ‘‘तू रोती क्यों है, कुछ बोल भी तो।''

आखिर चपला ने अपने को सम्हाला और बहुत मुश्किल से कहा, ‘‘महाराज की जुबानी सुना है कि तेजसिंह को महाराज शिवदत्त के ऐयारों ने गिरफ्तार कर लिया। अब वीरेन्द्रसिंह का आना भी मुश्किल होगा क्योंकि उनका वही एक बड़ा सहारा था।'' इतना कहा था कि पूरे तौर पर आंसू भर आये और खूब खुलकर रोने लगी। इसकी हालत से चन्द्रकान्ता समझ गई कि चपला भी तेजसिंह को चाहती है, मगर सोचने लगी कि चलो अच्छा ही है इसमें भी हमारा ही भला है, मगर तेजसिंह के हाल और चपला की हालत पर बहुत अफसोस हुआ, फिर चपला से कहा, ‘‘उनको छुड़ाने की यही फिक्र हो रही है ? क्या तेरे रोने से वे छूट जायेंगे ? तुझसे कुछ नहीं हो सकता तो मैं ही कुछ करूं ?'' चम्पा भी वहाँ बैठी यह अफसोस भरी बातें सुन रही थी, बोली, ‘‘अगर हुक्म हो तो मैं तेजसिंह की खोज में जाऊं ?'' चपला ने कहा, ‘‘अभी तू इस लायक नहीं हुई है ?'' चम्पा बोली, ‘‘क्यों, अब मेरे में क्या कसर है ? क्या मैं ऐयारी नहीं कर सकती ?'' चपला ने कहा, ‘‘हाँ, ऐयारी तो कर सकती है मगर उन लोगों का मुकाबला नहीं कर सकती जिन लोगों ने तेजसिंह जैसे चालाक ऐयार को पकड़ लिया है। हाँ, मुझको राजकुमारी हुक्म दें तो मैं खोज में जाऊं ?'' चन्द्रकान्ता ने कहा, ‘‘इसमें भी हुक्म की जरूरत है ? तेरी मेहनत से अगर वे छूटेंगे तो जन्म भर उनको कहने लायक रहेगी। अब तू जाने में देर मत कर, जा।'' चपला ने चम्पा से कहा, ‘‘देख, मैं जाती हूँ, पर ऐयार लोग बहुत से आये हुए हैं, ऐसा न हो कि मेरे जाने के बाद कुछ नया बखेड़ा मचे। खैर, और तो जो होगा देखा जायेगा, तू राजकुमारी से होशियार रहियो। अगर तुझसे कुछ भूल हुई या राजकुमारी पर किसी तरह की आफत आई तो मैं जन्म—भर तेरा मुंह न देखूंगी !'' चम्पा ने कहा, ‘‘इस बात से आप खातिर जमा रखें, मैं बराबर होशियार रहा करूंगी।''

चपला अपने ऐयारी के सामान से लैस हो और कुछ दक्षिणी ढंग के जेवर तथा कपड़े ले तेजसिंह की खोज में निकली।

सत्रहवां बयान

चपला कोई साधारण औरत न थी। खूबसूरती और नजाकत के अलावा उसमें ताकत भी थी। दो—चार आदमियों से लड़ जाना या उनको गिरफ्तार कर लेना उसके लिए एक अदना—सा काम था, शस्त्र विद्या को पूरे तौर पर जानती थी। ऐयारी के फन के अलावा और भी कई गुण उसमें थे। गाने और बजाने में उस्ताद, नाचने में कारीगर, आतिशबाजी बनाने का बड़ा शौक, कहाँ तक लिखें— कोई फन ऐसा न था जिसको चपला न जानती हो। रंग उसका गोरा, बदन हर जगह सुडौल, नाजुक हांथ—पांव की तरफ खयाल करने से यही जाहिर होता था कि इसे एक फूल से मारना खून करना है। उसको जब कहीं बाहर जाने की जरूरत पड़ती थी तो अपनी खूबसूरती जान बूझकर बिगाड़ डालती थी या भेष बदल लेती थी।

अब इस वक्त शाम हो गई बल्कि कुछ रात भी जा चुकी है। चन्द्रमा अपनी पूरी किरणों से निकला हुआ है। चपला अपनी असली सूरत में चली जा रही है, ऐयारी का बटुआ बगल में लटकाये कमन्द कमर में कसे और खंजर भी लगाये हुए जंगल—ही—जंगल कदम बढ़ाये जा रही है। तेजसिंह की याद ने उसको ऐसा बेकल कर दिया है कि अपने बदन की भी खबर नहीं। उसको यह मालूम नहीं कि वह किस काम के लिए बाहर निकली है या कहाँ जा रही है, उसके आगे क्या है, पत्थर या गड्ढा, नदी है या नाला, खाली पैर बढाये जाना ही यही उसका काम है। आंखों से आंसू की बूंदें गिर रही हैं, सारा कपड़ा भीग गया है। थोड़ी—थोड़ी दूर पर ठोकर खाती है, उंगलियों से खून गिर रहा है मगर उसको इसका कुछ खयाल नहीं। आगे एक नाला आया जिस पर चपला ने कुछ ध्यान न दिया और धम्म से उस नाले में गिर पड़ी, सिर फट गया, खून निकलने लगा, कपड़े बदन के सब भीग गये। अब उसको इस बात का खयाल हुआ कि तेजसिंह को छुड़ाने या खोजने चली है। उसके मुंह से झट यह बात निकली—‘‘हाय प्यारे मैं तुमको बिल्कुल भूल गई, तुम्हारे छुड़ाने की फिक्र मुझको जरा भी न रही, उसी की यह सजा मिली !'' अब चपला संभल गई और सोचने लगी कि वह किस जगह है। खूब गौर करने पर उसे मालूम हुआ कि रास्ता बिल्कुल भूल गई है और एक भयानक जंगल में आ फंसी है। कुछ क्षण के लिए तो वह बहुत डर गई मगर फिर दिल को संभाला, उस खतरनाक नाले से पीछे फिरी और सोचने लगी, इसमें तो कोई शक नहीं कि तेजसिंह को महाराज शिवदत्त के ऐयारों ने पकड़ लिया है, तो जरूर चुनार ही ले भी गये होंगे। पहले वहीं खोज करनी चाहिए, जब न मिलेंगे तो दूसरी जगह पता लगाऊंगी। यह विचार कर चुनार का रास्ता ढूढ़ने लगी। हजार खराबी से आधी रात गुजर जाने के बाद रास्ता मिल गया अब सीधे चुनार की तरफ पहाड़—ही—पहाड़ चल निकली, जब सुबह करीब हुई उसने अपनी सूरत एक मर्द सिपाही की—सी बना ली। नहानेदृधोने, खाने—पीने की कुछ फिक्र नहीं सिर्फ रास्ता तय करने की उसको धुन थी। आखिर भूखी—प्यासी शाम होते चुनार पहुंची। दिल में ठान लिया था कि जब तक तेजसिंह का पता न लगेगा—अन्न जल ग्रहण न करूँगी। कहीं आराम न लिया, इधर—उधर ढूंढ़ने और तलाश करने लगी। एकाएक उसे कुछ चालाकी सूझी, उसने अपनी पूरी सूरत पन्नालाल की बना ली और घसीटासिंह ऐयार के डेरे पर पहुंची।

हम पहले लिख चुके हैं कि छ रू ऐयारों में से चार ऐयार विजयगढ़ गये हैं और घसीटासिंह और चुन्नीलाल चुनार में ही रह गये हैं। घसीटासिंह पन्नालाल को देखकर उठ खड़े हुए और साहब सलामत के बाद पूछा, ‘‘कहो पन्नालाल, अबकी बार किसको लाये?''

पन्नाः इस बार लाये तो किसी को नहीं, सिर्फ इतना पूछने आये हैं कि नाजिम यहाँ है या नहीं, उसका पता नहीं लगता।

घसीटाः यहाँ तो नहीं आया।

पन्नाः फिर उसको पकड़ा किसने ? वहाँ तो अब कोई ऐयार नहीं है !

घसीटाः यह तो मैं नहीं कह सकता कि वहाँ और कोई भी ऐयार है या नहीं, सिर्फ तेजसिंह का नाम तो मशहूर था सो कैद हो गये, इस वक्त किले में बन्द पड़े रोते होंगे।

पन्नाः खैर, कोई हर्ज नहीं, पता लग ही जायेगा, अब जाता हूँ रुक नहीं सकता। यह कह नकली पन्नालाल वहाँ से रवाना हुए।

अब चपला का जी ठिकाने हुआ। यह सोचकर कि तेजसिंह का पता लग गया और वे यहीं मौजूद हैं, कोई हर्ज नहीं। जिस तरह होगा छुड़ा लेगी, वह मैदान में निकल गई और गंगाजी के किनारे बैठ अपने बटुए में से कुछ मेवा निकाल के खाया, गंगाजल पी के निश्चिन्त हुई और, तब अपनी सूरत एक गाने वाली औरत की बनाई। चपला को खूबसूरत बनाने की कोई जरूरत नहीं थी, वह खुद ऐसी थी कि हजार खुबूसूरतों का मुकाबला करे, मगर इस सबब से कोई पहचान ले उसको अपनी सूरत बदलनी पड़ी। जब हर तरह से लैस हो गई, एक वंशी हाथ में ले राजमहल के पिछवाड़े की तरफ जा एक साफ जगह देख बैठ गयी और चढ़ी आवाज में एक बिरहा गाने लगी, एक बार फिर स्वयं गाकर फिर उसी गत को वंशी पर बजाती।

रात आधी से ज्यादा बीत चुकी थी, राजमहल में शिवदत्त महल की छत पर मायारानी के साथ मीठी—मीठी बातें कर रहे थे, एकाएक गाने की आवाज उनके कानों में गई और महारानी ने भी सुनी। दोनों ने बातें करना छोड़ दिया और कान लगाकर गौर से सुनने लगे। थोड़ी देर बाद वंशी की आवाज आने लगी जिसका बोल साफ मालूम पड़ता था। महाराज की तबीयत बेचौन हो गई, झट लौंडी को बुलाकर हुक्म दिया, ‘‘किसी को कहो, अभी जाकर उसको इस महल के नीचे ले आये जिसके गाने की आवाज आ रही है।''

हुक्म पाते ही पहरेदार दौड़ गये, देखा कि एक नाजुक बदन बैठी गा रही है। उसकी सूरत देखकर लोगों के हवास ठिकाने न रहे, बहुत देर के बाद बोले, ‘‘महाराज ने महल के करीब आपको बुलाया है और आपका गाना सुनने के बहुत मुश्तहक हैं। चपला ने कुछ इनकार न किया, उन लोगों के साथ—साथ महल के नीचे चली आई और गाने लगी। उसके गाने महाराज को बेताब कर दिया। दिल को रोक न सके, हुक्म दिया कि उसको दीवान खाने में ले जाकर बैठाया जाय और रोशनी का बन्दोबस्त हो, हम भी आते हैं। महारानी ने कहा, ‘‘आवाज से यह औरत मालूम होती है, क्या हर्ज है अगर महल में बुला ली जाये।'' महाराज ने कहा, ‘‘पहले उसको देख—समझ लें तो फिर जैसा होगा किया जायेगा, अगर यहाँ आने लायक होगी तो तुम्हारी भी खातिर कर दी जायेगी।''

हुक्म की देर थी, सब सामान लैस हो गया। महाराज दीवान खाने में जा विराजे। बीबी चपला ने झुककर सलाम किया। महाराज ने देखा कि एक औरत निहायत हसीन, रंग गोरा, सुरमई रंग की साड़ी और धानी बूटीदार चोली दक्षिणी ढंग पर पहने पीछे से लांग बांधे, खुलासा गड़ारीदार जूड़ा कांटे से बांधे, जिस पर एक छोटा दृसा सोने का फूल, माथे पर एक बड़ा—सा रोली का टीका लगाये, कानों में सोने की निहायत खूबसूरत जड़ाऊ बालियां पहने, नाक में सरजा की नथ, एक टीका सोने का और घुंघरूदार पटड़ी गूथन के गले में पहने, हाथ में बिना घुंडी का कड़ा व छन्देली जिसके ऊपर काली चूडि़यां, कमर में लच्छेदार कर्धनी और पैर में सांकड़ा पहने अजब आनबान से सामने खड़ी है। गहना तो मुख्तसर ही है मगर बदन की गठाई और सुडौली पर इतना ही आफत हो रहा है। गौर से निगाह करने पर एक छोटा—सा तिल ठुड्डी के बगल में देखा जो चेहरे को और भी रौनक दे रहा था। महाराज के होश जाते रहे, अपनी महारानी साहब को भूल गये जिस पर रीझे हुए थे, झट मुंह से निकल पड़ा, वाह ! क्या कहना है !'' टकटकी बंध गई। महाराज ने कहा, ‘‘आओ, यहाँ बैठो।'' बीबी चपला कमर को बल देती हुई अठखेलियों के साथ कुछ नजदीक जा सलाम करके बैठ गई। महाराज उसके हुस्न के रोब में आ गये। ज्यादा कुछ कह न सके एकटक सूरत देखने लगे। फिर पूछा, ‘‘तुम्हारा मकान कहाँ है ? कौन हो ? क्या काम है ? तुम्हारी जैसी औरत का अकेली रात के समय घूमना ताज्जुब में डालता है।'' उसने जवाब दिया, ‘‘मैं ग्वालियर की रहने वाली पटलापा कत्थक की लड़की हूँ। रम्भा मेरा नाम है। मेरा बाप भारी गवैया था। एक आदमी पर मेरा जी आ गया, बात—की—बात में वह मुझसे गुस्सा हो के चला गया, उसी की तलाश में मारी—मारी फिरती हूँ। क्या करूं, अकसर दरबारों में जाती हूं कि शायद कहीं मिल जाये क्योंकि वह भी बड़ा भारी गवैया है, सो ताज्जुब नहीं, किसी दरबार में हो, इस वक्त तबीयत की उदासी में यों ही कुछ गा रही थी कि सरकार ने याद किया, हाजिर हुई।'' महाराज ने कहा, ‘‘तुम्हारी आवाज बहुत भली है, कुछ गाओ तो अच्छी तरह सुनूं !'' चपला ने कहा, ‘‘महाराज ने इस नाचीज पर बड़ी मेहरबानी की जो नजदीक बुलाकर बैठाया और लौंडी को इज्जत दी। अगर आप मेरा गाना सुनना चाहते हैं तो अपने मुलाजिम सपर्दारों को तलब करें, वे लोग साथ दें तो कुछ गाने का लुत्फ आये, वैसे तो मैं हर तरह से गाने को तैयार हूँ।''

यह सुन महाराज बहुत खुश हुए और हुक्म दिया कि, ‘‘सपर्दा हाजिर किये जायें।' प्यादे दौड़ गये और सपर्दाओं का सरकारी हुक्म सुनाया। वे सब हैरान हो गये कि तीन पहर रात गुजरे महाराज को क्या सूझी है। मगर लाचार होकर आना ही पड़ा। आकर जब एक चांद के टुकड़े को सामने देखा तो तबीयत खुश हो गई। कुढ़े हुए आये थे मगर अब खिल गये। झट साज मिला करीने से बैठे, चपला ने गाना शुरू किया। अब क्या था, साज व सामान के साथ गाना, पिछली रात का समा, महाराज को बुत बना दिया, सपर्दा भी दंग रह गये, तमाम इल्म आज खर्च करना पड़ा। बेवक्त की महफिल थी तिस पर भी बहुत—से आदमी जमा हो गये। दो चीज दरबारी की गायी थी कि सुबह हो गई। फिर भैरवी गाने के बाद चपला ने बन्द करके अर्ज किया, ‘‘महाराज, अब सुबह हो गई, मैं भी कल की थकी हूं क्योंकि दूर से आई थी, अब हुक्म हो तो रुखसत होऊं ?'' चपला की बात सुनकर महाराज चौंक पड़े। देखा तो सचमुच सवेरा हो गया है। अपने गले से मोती की माला उतारकर इनाम में दी और बोले, ‘‘अभी हमारा जी तुम्हारे गाने से बिल्कुल नहीं भरा है, कुछ रोज यहाँ ठहरो, फिर जाना !'' रम्भा ने कहा, ‘‘अगर महाराज की इतनी मेहरबानी लौंडी के हाल पर है तो मुझको कोई उज्र रहने में नहीं !''

महाराज ने हुक्म दिया कि रम्भा के रहने का पूरा बन्दोबस्त हो और आज रात को आम महफिल का सामान किया जाये। हुक्म पाते ही सब सरंजाम हो गया, एक सुन्दर मकान में रम्भा का डेरा पड़ गया, नौकर मजदूर सब तैनात कर दिये गये।

आज की रात आज की महफिल थी। अच्छे आदमी सब इकट्ठे हुए, रम्भा भी हाजिर हुई, सलाम करके बैठ गई। महफिल में कोई ऐसा न था जिसकी निगाह रम्भा की तरफ न हो। जिसको देखो लम्बी साँसे भर रहा है, आपस में सब यही कहते हैं कि ‘‘वाह, क्या भोली सूरत है, क्यों ? कभी आज तक ऐसी हसीना तुमने देखी थी ?''

रम्भा ने गाना शुरू किया। अब जिसको देखिए मिट्टी की मूरत हो रहा है। एक गीत गाकर चपला ने अर्ज किया, ‘‘महाराज एक बार नौगढ़ में राजा सुरेन्द्रसिंह की महफिल में लौंडी ने गाया था। वैसा गाना आज तक मेरा फिर न जमा, वजह यह थी कि उनके दीवान के लड़के तेजसिंह ने मेरी आवाज के साथ मिलकर बीन बजाई थी, हाय, मुझको वह महफिल कभी न भूलेगी ! दो—चार रोज हुआ, मैं फिर नौगढ़ गई थी, मालूम हुआ कि वह गायब हो गया। तब मैं भी वहाँ न ठहरी, तुरन्त वापस चली आई।'' इतना कह रम्भा अटक गई। महाराज तो उस पर दिलोजान दिये बैठे थे। बोले, ‘‘आजकल तो वह मेरे यहां कैद है पर मुश्किल तो यह है कि मैं उसको छोड़ूंगा नहीं और कैद की हालत में वह कभी बीन न बजायेगा !'' रम्भा ने कहा, ‘‘जब वह मेरा नाम सुनेगा तो जरूर इस बात को कबूल करेगा मगर उसको एक तरीके से बुलाया जाये, वह अलबत्ता मेरा संग देगा नहीं तो मेरी भी न सुनेगा क्योंकि वह बड़ा जिद्दी है।'' महाराज ने पूछा, ‘‘ वह कौन—सा तरीका है ?'' रम्भा ने कहा, ‘‘ एक तो उसके बुलाने के लिए ब्राह्मण जाये और वह उम्र में बीस वर्ष से ज्यादा न हो, दूसरे जब वह उसको लावे, दूसरा कोई संग न हो, अगर भागने का खौफ हो तो बेड़ी उसके पैर में पड़ी रहे इसका कोई मुजायका नहीं, तीसरे यह कि बीन कोई उम्दा होनी चाहिए।'' महाराज ने कहा, ‘‘यह कौन—सी बड़ी बात है।'' इधर—उधर देखा तो एक ब्राह्मण का लड़का चेतराम नामी उस उम्र का नजर आया, उसे हुक्म दिया कि तू जाकर तेजसिंह को ले आ, मीर मुंशी ने कहा, ‘‘तुम जाकर पहरे वालों को समजा दो कि तेजसिंह के आने में कोई रोक—टोक न करे। हाँ, एक बेड़ी उसके पैर में जरूर पड़ी रहे।''

हुक्म पा चेतराम तेजसिंह को लेने गया और मीरमुंशी ने भी पहरेवालों को महाराज का हुक्म सुनाया। उन लोगों को क्या उज्र था, तेजसिंह को अकेले रवाना कर दिया। तेजसिंह तुरन्त समझ गये कि कोई दोस्त जरूर यहाँ आ पहुंचा है तभी तो उसने ऐसी चालाकी की शर्त से मुझको बुलाया है। खुशी—खुशी चेतराम के साथ रवाना हुए। जब महफिल में आये, अजब तमाशा नजर आया। देखा कि एक बहुत ही खूबसूरत औरत बैठी है और सब उसी की तरफ देख रहे हैं। जब तेजसिंह महफिल के बीच में पहुँचे, रम्भा ने आवाज दी, ‘‘आओ, आओ तेजसिंह, रम्भा कब से आपकी राह देख रही है ! भला वह बीन कब भूलेगी तो आपने नौगढ़ में बजायी थी !'' यह कहते हुए रम्भी ने तेजसिंह की तरफ देखकर बायीं आँख बन्द की। तेजसिंह समझ गये कि यह चपला है, बोले, ‘‘रम्भा, तू आ गई। अगर मौत भी सामने नजर आती हो तो भी तेरे साथ बीन बजा के मरूंगा, क्योंकि तेरे जैसे गाने वाली भला काहे को मिलेगी !'' तेजसिंह और रम्भा की बात सुनकर महाराज को बड़ा ताज्जुब हुआ मगर धुन तो यह थी कि कब बीन बजे और कब रम्भा गाये। बहुत उम्दी बीन तेजसिंह के सामने रक्खी गई और उन्होंनें बजाना शुरू किया, रम्भा भी गाने लगी। अब जो समा बंधा उसकी क्या तारीफ की जाये। महाराज तो सकते—की सी हालत में हो गये। औरों की कैफियत दूसरी हो गयी।

एक गीत का साथ देकर तेजसिंह ने कहा, ‘‘बस, मैं एक रोज में एक ही गीत या बोल बजाता हूं इससे ज्यादा नहीं। अगर आपको सुनने का ज्यादा शौक हो तो कल फिर सुन लीजिएगा !'' रम्भा ने भी कहा, ‘‘हाँ, महाराज यही तो इनमें ऐब है ! राजा सुरेन्द्रसिंह, जिनके यह नौकर थे, कहते—कहते थक गये मगर इन्होंने एक न मानी, एक ही बोल बजाकर रह गये। क्या हर्ज है कल फिर सुन लीजिएगा।'' महाराज सोचने लगे कि अजब आदमी है, भला इसमें इसने क्या फायदा सोचा है, अफसोस ! मेरे दरबार में यह न हुआ। रम्भा ने भी बहुत कुछ उज्र करके गाना मौकूफ किया। सभी के दिल में हसरत बनी रह गई। महाराज ने अफसोस के साथ मंजलिस बर्खास्त की और तेजसिंह फिर उसी चेतराम ब्राह्मण के साथ जेल भेज दिये गये।

महाराज को तो अब इश्क को हो गया कि तेजसिंह के बीन के साथ रम्भा का गाना सुनें। फिर दूसरे रोज महफिल हुई और उसी चेतराम ब्राह्मण को भेजकर तेजसिंह बुलाये गये। उस रोज भी एक बोल बजाकर उन्होंने बीन रख दी। महाराज का दिल न भरा, हुक्म दिया कि कल पूरी महफिल हो। दूसरे दिन फिर महफिल का सामान हुआ. सब कोई आकर पहले ही से जमा हो गये, मगर रम्भा महफिल में जाने के वक्त से घंटे भर पहले दांव बचा चेतराम की सूरत बना कैदखाने में पहुंची। पहरेवाले जानते ही थे कि चेतराम अकेला तेजसिंह को ले जायेगा, महाराज का हुक्म ही ऐसा है। उन्होंने ताला खोलकर तेजसिंह को निकाला और पैर में बेड़ी डाल चेतराम के हवाले कर दिया। चेतराम (चपला) उनको लेकर चलते बने। थोड़ी दूर जाकर चेतराम ने तेजसिंह की बेड़ी खोल दी। अब क्या था, दोनों ने जंगल का रास्ता लिया।

कुछ दूर जाकर चपला ने अपनी सूरत बदल ली और असली सूरत में हो गई, अब तेजसिंह उसकी तारीफ करने लगे। चपला ने कहा, ‘‘आप मुझको शर्मिन्दा न करें क्योंकि मैं अपने को इतना चालाक नहीं समझती जितनी आप तारीफ कर रहे हैं, फिर मुझको आपको छुड़ाने की कोई गरज भी न थी, सिर्फ चन्द्रकान्ता की मुरौवत से मैंने यह काम किया।'' तेजसिंह ने कहा, ‘‘ठीक है, तुमको मेरी गरज काहे हो होगी ! गरजूं तो मैं ठहरा कि तुम्हारे साथ सपर्दा बना, जो काम बाप—दादों ने न किया था सो करना पड़ा !'' यह सुन चपला हंस पड़ी और बोली, ‘‘बस माफ कीजिए, ऐसी बातें न करिए।'' तेजसिंह ने कहा, ‘‘वाह, माफ क्या करना, मैं बगैर मजदूरी लिए न छोड़ूंगा।'' चपला ने कहा, ‘‘मेरे पास क्या है जो मैं दूं ?'' उन्होंने कहा, ‘‘जो कुछ तुम्हारे पास है वही मेरे लिए बहुत है।'' चपला ने कहा, ‘‘खैर, इन बातों को जाने दीजिए और यह कहिए कि यहाँ से खाली ही चलियेगा या महाराज शिवदत्त को कुछ हाथ भी दिखाइएगा ?'' तेजसिंह ने कहा, ‘‘इरादा तो मेरा यही था, आगे तुम जैसा कहो।'' चपला ने कहा, ‘‘जरूर कुछ करना चाहिए !''

बहुत देर तक आपस में सोच—विचारकर दोनों ने एक चालाकी ठहराई जिसे करने के लिए ये दोनों उस जगह से दूसरे घने जंगल में चले गये।

अट्ठारहवां बयान

अब महाराज शिवदत्त की महफिल का हाल सुनिए। महाराज शिवदत्तसिंह महफिल में आ विराजे। रम्भा के आने में देर हुई तो एक चोबदार को कहा कि जाकर उसको बुला लायें और चेतराम ब्राह्मण को तेजसिंह को लाने के लिए भेजा। थोड़ी बाद चोबदार ने आकर अर्ज किया कि महाराज रम्भा तो अपने डेरे पर नहीं है, कहीं चली गई। महाराज को बड़ा ताज्जुब हुआ क्योंकि उसको जी से चाहने लगे थे। दिल में रम्भ के लिए अफसोस करने लगे और हुक्म दिया कि फौरन उसे तलाश करने के लिए आदमी भेजे जायें। इतने में चेतराम ने आकर दूसरी खबर सुनाई कि कैदखाने में तेजसिंह नहीं है। अब तो महाराज के होश उड़ गये। सारी महफिल दंग हो गई कि अच्छी गाने वाली आई जो सभी को बेवकूफ बनाकर चली गई। घसीटासिंह और चुन्नीलाल ऐयार ने अर्ज किया, ‘‘महाराज बेशक वह कोई ऐयार था जो इस तरह आकर तेजसिंह को छुड़ा ले गया।'' महाराज ने कहा, ‘‘ठीक है, मगर काम उसने काबिल इनाम के किया। ऐयारों ने भी तो उसका गाना सुना था, महफिल में मौजूद ही थे, उन लोगों की अक्ल पर क्या पत्थर पड़ गये थे कि उसको न पहचाना ! लानत है तुम लोगों के ऐयार कहलाने पर !'' यह कह महाराज गम और गुस्से से भरे हुए उठकर महल में चले गये। महफिल में जो लोग बैठे थे उन लोगों ने अपने घर का रास्ता लिया। तमाम शहर में यह बात फैल गई य जिधर देखिए यही चर्चा थी।

दूसरे दिन जब गुस्से में भरे हुए महाराज दरबार में आये तो एक चोबदार ने अर्ज किया, ‘‘महाराज, वह जो गाने वाली आयी थी असल में वह औरत ही थी। वह चेतराम मिश्र की सूरत बनाकर तेजसिंह को छुड़ा ले गई। मैंने अभी उन दोनों को उस सलई वाले जंगल में देखा है।'' यह सुन महाराज को और भी ताज्जुब हुआ, हुक्म दिया कि बहुत से आदमी जायें और उनको पकड़ लावें, पर चोबदार ने अर्ज किया—‘‘महाराज इस तरह वे गिरफ्तार न होंगे, भाग जायेंगे, हाँ घसीटासिंह और चुन्नीलाल मेरे साथ चलें तो मैं दूर से इन लोगों को दिखला दूँ, ये लोग कोई चालाकी करके उन्हें पकड़ लें।'' महाराज ने इस तरकीब को पसन्द करके दोनों ऐयारों को चोबदार के साथ जाने का हुक्म दिया। चोबदार ने उन दोनों को लिए हुए उस जगह पहुंचा जिस जगह उसने तेजसिंह का निशान देखा था, पर देखा कि वहाँ कोई नहीं है। तब घसीटासिंह ने पूछा, ‘‘अब किधर देखें ?'' उसने कहा, ‘‘क्या यह जरूरी है कि वे तब से अब तक इसी पेड़ के नीचे बैठे रहें ? इधर—उधर देखिए, कहीं होंगे !'' यह सुन घसीटासिंह ने कहा, ‘‘अच्छा चलो, तुम ही आगे चलो।

वे लोग इधर—उधर ढूंढ़ने लगे, इसी समय एक अहीरिन सिर पर खंचिए में दूध लिए आती नजर पड़ी। चोबदार ने उसको अपने पास बुलाकर पूछा, ‘‘कि तूने इस जगह कहीं एक औरत और एक मर्द को देखा है ?'' उसने कहा, ‘‘हाँ, हाँ, उस जंगल में मेरा अडार है, बहुत—सी गाय—भैंसी मेरी वहाँ रहती हैं, अभी मैंने उन दोनों के पास दो पैसे का दूध बेचा है और बाकी दूध लेकर शहर बेचने जा रही हूँ।'' यह सुनकर चोबदार बतौर इनाम के चार पैसे निकाल उसको देने लगा, मगर उसने इनकार किया और कहा कि मैं तो सेंत के पैसे नहीं लेती, हाँ, चार पैसे का दूध आप लोग लेकर पी लें तो मैं शहर जाने से बचूं और आपका अहसान मानूं। चोबदार ने कहा, ‘‘क्या हर्ज है, तू दूध ही दे दे।'' बस अहीरन ने खांचा रख दिया और दूध देने लगी। चोबदार ने उन दोनों ऐयारों से कहा, ‘‘आइए, आप भी लीजिए।'' उन दोनों ऐयारों ने कहा, ‘‘हमारा जी नहीं चाहता !'' वह बोली, ''अच्छा आपकी खुशी।'' चोबदार ने दूध पिया और तब फिर दोनों ऐयारों से कहा, ‘‘वाह ! क्या दूध है ! शहर में तो रोज आप पीते ही हैं, भला आज इसको भी तो पीकर मजा देखिए !'' उसके जिद्द करने पर दोनों ऐयारों ने भी दूध पिया और चार पैसे दूध वाली को दिये।

अब वे तीनों तेजसिंह को ढूंढ़ने चले, थोड़ी दूर जाकर चोबदार ने कहा, ‘‘न जाने क्यों मेरा सिर घूमता है।'' घसीटासिंह बोले, ‘‘मेरी भी वही दशा है।'' चुन्नीलाल तो कुछ कहना ही चाहते थे कि गिर पड़े। इसके बाद चोबदार और घसीटासिंह भी जमीन पर लेट गये। दूध बेचने वाली बहुत दूर नहीं गई थी, उन तीनों को गिरते देख दौड़ती हुई पास आई और लखलखा सुंघाकर चोबदार को होशियार किया। वह चोबदार तेजसिंह थे, जब होश में आये अपनी असली सूरत बना ली, इसके बाद दोनों की मुश्कें बांध गठरी कस एक चपला को और दूसरे को तेजसिंह ने पीठ पर लादा और नौगढ़ का रास्ता लिया।

उन्नीसवां बयान

तेजसिंह को छुड़ाने के लिए जब चपला चुनार गई तब चम्पा ने जी में सोचा कि ऐयार तो बहुत से आये हैं और मैं अकेली हूं, ऐसा न हो, कभी कोई आफत आ जाय। ऐसी तरकीब करनी चीहिए जिसमें ऐयारों का डर न रहे और रात को भी आराम से सोने में आये। यह सोचकर उसने एक मसाला बनाया। जब रात को सब लोग सो गये और चन्द्रकान्ता भी पलंग पर जा लेटी तब चम्पा ने उस मसाले को पानी में घोलकर जिस कमरे में चन्द्रकान्ता सोती थी उसके दरवाजे पर दो गज इधर—उधर लेप दिया और निश्चिन्त हो राजकुमारी के पलंग पर जा लेटी। इस मसाले में यह गुण था कि जिस जमीन पर उसका लेप किया जाये सूख जाने पर अगर किसी का पैर उस जमीन पर पड़े तो जोर से पटाखे की आवाज आवे, मगर देखने से यह न मालूम हो कि इस जमीन पर कुछ लेप किया है। रात भर चम्पा आराम से सोई रही। कोई आदमी उस कमरे के अन्दर न आया, सुबह को चम्पा ने पानी से वह मसाला धो डाला। दूसरे दिन उसने दूसरी चालाकी। मिट्टी की एक खोपड़ी बनाई और उसको रंग कर ठीक चन्द्रकान्ता की मूरत बनाकर जिस पलंग पर कुमारी सोया करती थी तकिए के सहारे वह खोपड़ी रख दी, और धड़ की जगह कपड़ा रखकर एक हल्की चादर उस पर चढ़ा दी, मगर मुंह खुला रखा, और खूब रोशनी कर उस चारपाई के चारों तरफ वही लेप कर दिया। कुमारी से कहा, ‘‘आज आप दूसरे कमरे में आराम करें।'' चन्द्रकान्ता समझ गई और दूसरे कमरे में जा लेटी। जिस कमरे में चन्द्रकान्ता सोई उसके दरवाजे पर भी लेप कर दिया और जिस कमरे में पलंग पर खोपड़ी रखी थी उसके बगल में एक कोठरी थी, चिराग बुझाकर आप उसमें सो रही।

आधी रात गुजर जाने के बाद उस कमरे के अन्दर से जिसमें खोपड़ी रखी थी पटाखे की आवाज आई। सुनते ही चम्पा झट उठ बैठी और दौड़कर बाहर से किवाड़ बन्द कर खूब गुल करने लगी, यहाँ तक कि बहुत—सी लौंडियाँ वहाँ आकर इकट्ठी हो गईं और एक जोर से महाराज को खबर दी कि चन्द्रकान्ता के कमरे में चोर घुसा है। यह सुन महाराज खुद दौड़े आये और हुक्म दिया कि महल के पहरे से दस—पांच सिपाही अभी आवें। जब सब इकट्ठे हुए, कमरे का दरवाजा खोला गया। देखा कि रामनारायण और पन्नालाल दोनों ऐयार भीतर हैं। बहुत से आदमी उन्हें पकड़ने के लिए अन्दर घुस गये, उन ऐयारों ने भी खंजर निकाल चलाना शुरू किया। चार—पांच सिपाहियों को जख्मी किया, आखिर पकड़े गये। महाराज ने उनको कैद में रखने का हुक्म दिया और चम्पा से हाल पूछा। उसने अपनी कार्रवाई कह सुनाई। महाराज बहुत खुश हुए और उसको इनाम देकर पूछा, ‘‘चपला कहाँ है ?' उसने कहा, ‘वह बीमार है'। फिर महाराज ने और कुछ न पूछा अपने आरामगाह में चले गये। सुबह को दरबार में उन ऐयारों को तलब किया। जब वे आये तो पूछा, ‘‘तुम्हारा क्या नाम है ?'' पन्नालाल बोला, ‘‘सरतोड़सिंह।'' महाराज को उसकी ढिठाई पर बड़ा गुस्सा आया। कहने लगे कि, ‘‘ये लोग बदमाश हैं, जरा भी नहीं डरते। खैर, ले जाकर इन दोनों को खूब होशियारी के साथ कैद रखो।'' हुक्म के मुताबिक वे कैदखाने में भेज दिये गये।

महाराज ने हरदयालसिंह से पूछा, ‘‘कुछ तेजसिंह का पता लगा ?'' हरदयालसिंह ने कहा, ‘‘महाराज अभी तक तो पता नहीं लगा। ये ऐयार जो पकड़े गये हैं उन्हें खूब पीटा जाये तो शायद ये लोग कुछ बतावें।'' महाराज ने कहा, ‘‘ठीक है, मगर तेजसिंह आवेगा तो नाराज होगा कि ऐयारों को क्यों मारा ? ऐसा कायदा नहीं है। खैर, कुछ दिन तेजसिंह की राह और देख लो फिर जैसा मुनासिब होगा, किया जायेगा, मगर इस बात का खयाल रखना, वह यह कि तुम फौज के इन्तजाम में होशियार रहना क्योंकि शिवदत्तसिंह का चढ़ आना अब ताज्जुब नहीं है।'' हरदयालसिंह ने कहा, ‘‘मैं इन्तजाम से होशियार हूँ, सिर्फ एक बात महाराज से इस बारे में पूछनी थी जो एकान्त में अर्ज करूंगा।''

जब दरबार बर्खास्त हो गया तो महाराज ने हरदयालसिंह को एकान्त में बुलाया और पूछा, ‘‘वह कौन—सी बात है ?'' उन्होंने कहा, ‘‘महाराज तेजसिंह ने कई बार मुझसे कहा था बल्कि कुंवर वीरेन्द्रसिंह और उनके पिता ने भी फर्माया था कि यहां के सब मुसलमान क्रूर की तरफदार हो रहे हैं, जहां तक हो इनको कम करना चाहिए। मैं देखता हूं तो यह बात ठीक मालूम होती है, इसके बारे में जैसा हुक्म हो, किया जाये।'' महाराज ने कहा, ‘‘ठीक है, हम खुद इस बात के लिए तुमसे कहने वाले थे। खैर, अब कहे देते हैं कि तुम धीरे—धीरे सब मुसलमानों को नाजुक कामों से बाहर कर दो।'' हरदयालसिंह ने कहा, ‘‘बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा।'' यह कह महाराज से रुखसत हो अपने घर चले आये।

बीसवां बयान

महाराज शिवदत्तसिंह ने घसीटासिंह और चुन्नीलाल को तेजसिंह को पकड़ने के लिए भेजकर दरबार बर्खास्त किया और महल में चले गये, मगर दिल उनका रम्भा की जुल्फों में ऐसा फंस गया था कि किसी तरह निकल ही नहीं सकता था। उस महारानी से भी हंसकर बोलने की नौबत न आई। महारानी ने पूछा, ‘‘आपका चेहरा सुस्त क्यों हैं, ‘‘महाराज ने कहा, ‘‘कुछ नहीं, जागने से ऐसी कैफियत है।'' महारानी ने फिर से पूछा, ‘‘आपने वादा किया था कि उस गाने वाली को महल में लाकर तुमको भी उसका गाना सुनवाएंगे, सो क्या हुआ ?'' जवाब दिया, ‘‘वह हमीं को उल्लू बनाकर चली गई, तुमको किसका गाना सुनावें ?'' यह सुनकर महारानी कलावती को बड़ा ताज्जुब हुआ। पूछा, ‘‘कुछ खुलासा कहिए, क्या मामला है ?'' इस समय मेरा जी ठिकाने नहीं है, मैं ज्यादा नहीं बोल सकता।'' यह कह कर महाराज वहाँ से उठकर अपने खास कमरे में चले गये और पलंग पर लेटकर रम्भा को याद करने लगे और मन में सोचने लगे, ‘‘रम्भा कौन थी ? इसमें तो कोई शक नहीं कि वह थी औरत ही, फिर तेजसिंह को क्यों छुड़ा ले गई ? उस पर वह आशिक तो नहीं थी जैसा कि उसने कहा था ! हाय रम्भा, तूने मुझे घायल कर डाला। क्या इसी वास्ते तू आई थी ? क्या करूं, कुछ पता भी नहीं मालूम जो तुमको ढूँढूँ !''

दिल की बेताबी और रम्भा के खयाल में रात भर नींद न आई। सुबह को महाराज ने दरबार में आकर दरियाफ्त किया, ‘‘घसीटासिंह और चुन्नीलाल का पता लगाकर आये या नहीं ?'' मालूम हुआ कि अभी तक वे लोग नहीं आये। खयाल रम्भा ही की तरफ था। इतने में बद्रीनाथ, नाजिम, ज्योतिषीजी, और क्रूरसिंह पर नजर पड़ी। उन लोगों ने सलाम किया और एक किनारे बैठ गये। उन लोगों के चेहरे पर सुस्ती और उदासी देखकर और भी रंज बढ़ गया, मगर कचहरी में कोई हाल उनसे न पूछा। दरबार बर्खास्त करके तखलिए में गये और पंडित बद्रीनाथ, क्रूरसिंह, नाजिम और जगन्नाथ ज्योतिषी को तलब किया। जब वे लोग आये और सलाम करके अदब के साथ बैठ गये तब महाराज ने पूछा, ‘‘कहो, तुम लोगों ने विजयगढ़ जाकर क्या किया ?'' पंडित बद्रीनाथ ने कहा, ‘‘हुजूर काम तो यही हुआ कि भगवानदत्त को तेजसिंह ने गिरफ्तार कर लिया और पन्नालाल और रामनारायण को एक चम्पा नामी औरत ने बड़ी चालाकी और होशियारी से पकड़ लिया, बाकी मैं बच गया। उनके आदमियों में सिर्फ तेजसिंह पकड़ा गया जिसको ताबेदार ने हुजूर में भेज दिया था सिवाय इसके और कोई काम न हुआ।'' महाराज ने कहा, ‘‘तेजसिंह को भी एक औरत छुड़ा ले गई। काम तो उसने सजा पाने लायक किया मगर अफसोस ! यह तो मैं जरूर कहूँगा कि वह औरत ही थी जो तेजसिंह को छुड़ा ले गई, मगर कौन थी, यह न मालूम हुआ। तेजसिंह को तो लेती ही गई, जाती दफा चुन्नीलाल और घसीटासिंह पर भी मालूम होता है कि हाथ फेरती गई, वे दोनों उसकी खोज में गये थे मगर अभी तक नहीं आये। क्रूर की मदद करने से मेरा नुकसान ही हुआ। खैर, अब तुम लोग यह पता लगाओ कि वह औरत कौन थी जिसने गाना सुनाकर मुझे बेताब कर दिया और सभी की आँखों में धूल डालकर तेजसिंह को छुड़ा ले गई ? अभी तक उसकी मोहिनी सूरत मेरी आंखों के आगे फिर रही है।''

नाजिम ने तुरन्त कहा, ‘‘हुजूर मैं पहचान गया। वह जरूर चन्द्रकान्ता की सखी चपला थी, यह काम सिवाय उसके दूसरे का नहीं !'' महाराज ने पूछा, ‘‘क्या चपला चन्द्रकान्ता से भी ज्यादा खूबसूरत है ?'' नाजिम ने कहा, ‘‘महाराज चन्द्रकान्ता को तो चपला क्या पावेगी मगर उसके बाद दुनिया में कोई खूबसूरत है तो चपला ही है, और वह तेजसिंह पर आशिक भी है।'' इतना सुन महाराज कुछ देर तक हैरानी में रहे फिर बोले, ‘‘ चाहे जो हो, जब तक चन्द्रकान्ता और चपला मेरे हाथ न लगेंगी मुझको आराम न मिलेगा। बेहतर है कि मैं इन दोनों के लिए जयसिंह को चिट्ठी लिखूँ।'' क्रूरसिंह बोला, ‘‘ महाराज जयसिंह चिट्ठी को कुछ न मानेंगे।'' महाराज ने जवाब दिया, ‘‘क्या हर्ज है, अगर चिट्ठी का कुछ खयाल न करेंगे तो विजयगढ़ को फतह ही करूंगा।'' यह कह मीर मुंशी को तलब किया, जब वह आ गया तो हुक्म दिया, राजा जयसिंह के नाम मेरी तरफ से खत लिखो कि चन्द्रकान्ता की शादी मेरे साथ कर दें और दहेज में चपला को दे दें।'' मीर मुंशी ने बमूजिब हुक्म के खत लिखा जिस पर महाराज ने मोहर करके पंडित बद्रीनाथ को दिया और कहा, ‘‘तुम्हीं इस चिट्ठी को लेकर जाओ, यह काम तुम्हीं से बनेगा।'' पंडित बद्रनाथ को क्या उज्र था, खत लेकर उसी वक्त विजयगढ़ की तरफ रवाना हो गये।

इक्कीसवां बयान

दूसरे दिन महाराज जयसिंह दरबार में बैठे हरदयालसिंह से तेजसिंह का हाल पूछ रहे थे कि अभी तक पता लगा या नहीं, कि इतने में सामने से तेजसिंह एक बड़ा भारी गट्ठर पीठ पर लादे हुए आ पहुंचे। गठरी तो दरबार के बीच में रख दी और झुककर महाराज को सलाम किया। महाराज जयसिंह तेजसिंह को देखकर खुश हुए और बैठने के लिए इशारा किया। जब तेजसिंह बैठ गये तो महाराज ने पूछा, ‘‘क्यों जी, इतने दिन कहाँ रहे और क्या लाये हो ? तुम्हारे लिए हम लोगों को बड़ी भारी परेशानी रही, दीवान जीतसिंह भी बहुत घबराये होंगे क्योंकि हमने वहाँ भी तलाश करवाया था।'' तेजसिंह ने अर्ज किया, ‘‘महाराज, ताबेदार दुश्मन के हाथ में फंस गया था, अब हुजूर के इकबाल से छूट आया है बल्कि आती दफा चुनार के दो ऐयारों को जो वहाँ से, लेता आया है।'' महाराज यह सुनकर बहुत खुश हुए और अपने हाथ का कीमती कड़ा तेजसिंह को ईनाम देकर कहा, ‘‘यहाँ भी दो ऐयारों को महल में चम्पा ने गिरफ्तार किया जो कैद किये गये हैं। इनको भी वहीं भेज देना चाहिए !'' यह कहकर हरदयालसिंह की तरफ देखा। उन्होंने प्यादों को गठरी खोलने का हुक्म दिया, प्यादों ने गठरी खोली। तेजसिंह ने उन दोनों को होशियार किया और प्यादों ने उनको ले जाकर उसी जेल में बन्द कर दिया, जिसमें रामनारायण और पन्नालाल थे।

तेजसिंह ने महाराज से अर्ज किया, ‘‘ मेरे गिरफ्तार होने से नौगढ़ में सब कोई परेशान होंगे, अगर इजाजत हो तो मैं जाकर सबों से मिल आऊं !'' महाराज ने कहा, ‘‘हाँ, जरूर तुमको वहाँ जाना चाहिए, जाओ, मगर जल्दी वापस चले आना।'' इसके बाद महाराज ने हरदयालसिंह को हुक्म दिया, ‘‘तुम मेरी तरफ से तोहफा लेकर तेजसिंह के साथ नौगढ़ जाओ !'' बहुत अच्छा'' कह के हरदयालसिंह ने तोहफे का सामान तैयार किया और कुछ आदमी संग ले तेजसिंह के साथ नौगढ़ रवाना हुए।

चपला जब महल में पहुंची, उसको देखते ही चन्द्रकान्ता ने खुश होकर उसे गले लगा लिया और थो़ड़ी देर बाद हाल पूछने लगी। चपला ने अपना पूरा हाल खुलासा तौर पर बयान किया। थोड़ी देर तक चपला और चन्द्रकान्ता में चुहल होती रही। कुमारी ने चम्पा की चालाकी का हाल बयान करके कहा कि, ‘‘तुम्हारी शागिर्दिन ने भी दो ऐयारों को गिरफ्तार किया है' यह सुनकर चपला बहुत खुश हुई और चम्पा को जो उसी जगह मौजूद थी गले लगाकर बहुत शाबाशी दी।

इधर तेजसिंह नौगढ़ गये थे रास्ते में हरदयालसिंह से बोले, ‘‘अगर हम लोग सवेरे दरबार के समय पहुंचते तो अच्छा होता क्योंकि उस वक्त सब कोई वहां रहेंगे।'' इस बात को हरदयालसिंह ने भी पसन्द किया और रास्ते में ठहर गये, दूसरे दिन दरबार के समय ये दोनों पहुंचे और सीधे कचहरी में चले गये। राजा साहब के बगल में वीरेन्द्रसिंह भी बैठे थे, तेजसिंह को देखकर इतने खुश हुए कि मानों दोनों जहान की दौलत मिल गई हो। हरदयालसिंह ने झुककर महाराज और कुमार को सलाम किया और जीतसिंह से बराबर की मुलाकात की। तेजसिंह ने महाराज सुरेन्द्रसिंह के कदमों पर सिर रखा, राजा साहब ने प्यार से उसका सिर उठाया। तब अपने पिता को पालागन करके तेजसिंह कुमार की बगल में जा बैठे।

हरदयालसिंह ने तोहफा पेश किया और एक पोशाक जो कुंवर वीरेन्द्रसिंह के वास्ते लाये थे, वह उनको पहनाई जिसे देख राजा सुरेन्द्रसिंह बहुत खुश हुए और कुमार की खुशी का तो कुछ ठिकाना ही न रहा। राजा साहब ने तेजसिंह से गिरफ्तार होने का हाल पूछा, तेजसिंह ने पूरा हाल अपने गिरफ्तार होने का तथा कुछ बनावटी हाल अपने छूटने का बयान किया और यह भी कहा, ‘‘आती दफा वहाँ के दो ऐयारों को भी गिरफ्तार कर लाया हूँ जो विजयगढ़ में कैद हैं। यह सुनकर राजा ने खुश होकर तेजसिंह को बहुत कुछ इनाम दिया और कहा, ‘‘तुम अभी जाओ, महल में सबसे मिलकर अपनी मां से भी मिलो। उस बेचारी का तुम्हारी जुदाई में क्या हाल होगा, वही जानती होगी।'' बमूजिब मर्जी के तेजसिंह सभी से मिलने के वास्ते रवाना हुए। हरदयालसिंह की मेहमानी के लिए राजा ने जीतसिंह को हुक्म देकर दरबार बर्खास्त किया। सभी के मिलने के बाद तेजसिंह कुंवर वीरेन्द्रसिंह के कमरे में गये। कुमार ने बड़ी खुशी से उठकर तेजसिंह को गले लगा लिया और जब बैठे तो कहा, ‘‘अपने गिरफ्तार होने का हाल तो तुमने ठीक बयान कर दिया मगर छूटने का हाल बयान करने में झूठ कहा था, अब सच—सच बताओ, तुमको किसने छुड़ाया ?'' तेजसिंह ने चपला की तारीफ की और उसकी मदद से अपने छूटने का सच्चा—,सच्चा हाल कह दिया। कुमार ने कहा, ‘‘मुबारक हो ! तेजसिंह बोले, ‘‘पहले आपको मैं मुबारकबाद दे दूंगा तब कहीं यह नौबत पहुंचेगी कि आप मुझे मुबारकबाद दें।'' कुमार हंसकर चुप हो रहे। कई दिनों तक तेजसिंह हंसी—खुशी से नौगढ़ में रहे मगर वीरेन्द्रसिंह का तकाजा रोज होता ही रहा कि फिर जिस तरह से हो चन्द्रकान्ता से मुलाकात कराओ। यह भी धीरज देते रहे।

कई दिन बाद हरदयालसिंह ने दरबार में महाराज से अर्ज किया, ‘‘कई रोज हो गये ताबेदार को आये, वहाँ बहुत हर्ज होता होगा, अब रुखसत मिलती तो अच्छा था, और महाराज ने भी यह फर्माया था कि आती दफा तेजसिंह को साथ लेते आना, अब जैसी मर्जी हो।'' राजा सुरेन्द्रसिंह ने कहा, ‘‘बहुत अच्छी बात है, तुम उसको अपने साथ लेते जाओ।'' यह कह एक खिलअत दीवान हरदयालसिंह को दिया और तेजसिंह को उनके साथ विदा किया । जाते समय तेजसिंह कुमार से मिलने आये, कुमार ने रोकर, उनको विदा किया और कहा, ‘‘मुझको ज्यादा कहने की जरूरत नहीं, मेरी हालत देखते जाओ।'' तेजसिंह ने बहुत कुछ ढांढस दिया और यहाँ से विदा हो उसी रोज विजयगढ़ पहुंचे। दूसरे दिन दरबार में दोनों आदमी हाजिर हुए और महाराज को सलाम करके अपनी—अपनी जगह बैठे। तेजसिंह से महाराज ने राजा सुरेन्द्रसिंह की कुशल—क्षेम पूछी जिसको उन्होंने बड़ी बुद्धिमानी के साथ बयान किया। इसी समय बद्रीनाथ भी राजा शिवदत्त की चिट्ठी लिये हुए आ पहुंचे और आशीर्वाद देकर चिट्ठी महाराज के हाथ में दे दी जिसको पढ़ने के लिए महाराज ने दीवान हरदयालसिंह को दिया। खत पढ़ते—पढ़ते हरदयालसिंह का चेहरा मारे गुस्से के लाल हो गया। महाराज और तेजसिंह हरदयालसिंह के मुंह की तरफ देख रहे थे, उसकी रंगत देखकर समझ गये कि खत में कुछ बेअदबी की बातें लिखी गई हैं। खत पढ़कर हरदयालसिंह ने अर्ज किया यह खत तखलिए में सुनने लायक है। महाराज ने कहा, ‘‘अच्छा, पहले बद्रीनाथ के टिकने का बन्दोबस्त करो फिर हमारे पास दीवानखाने में आओ, तेजसिंह को भी साथ ले आना।''

महाराज ने दरबार बर्खास्त कर दिया और महल में चले गये। दीवान हरदयालसिंह पंडित बद्रीनाथ के रहने और जरूरी सामानों का इन्तजाम कर तेजसिंह को अपने साथ ले कोट में महाराज के पास गये और सलाम करके बैठ गये। महाराज ने शिवदत्त का खत सुनाने का हुक्म दिया। हरदयालसिंह ने खत को महाराज के सामने ले जाकर अर्ज किया कि अगर सरकार खत पढ़ लेते तो अच्छा था। महाराज ने खत पढ़ा, पढ़ते ही आंखें मारे गुस्से के सुर्ख हो गईं। खत फाड़कर फेंक दिया और कहा, ‘‘बद्रीनाथ से कह दो कि इस खत का जवाब यही है कि यहाँ से चले जाये।'' इसके बाद थोड़ी देर तक महाराज कुछ देखते रहे, तब रंज भरी धीमी आवाज में बोले. ‘‘क्रूर के चुनार जाते ही हमने सोच लिया था कि जहाँ तक बनेगा वह आग लगाने से न चूकेगा, और आखिर यही हुआ। खैर, मेरे जीते—जी तो उसकी मुराद पूरी न होगी, साथ ही आप लोगों को भी अब पूरा बन्दोबस्त रखना चाहिए।'' तेजसिंह ने हाथ जोड़ अर्ज किया, ‘‘इसमें कोई शक नहीं कि शिवदत्त अब जरूर फौज लेकर चढ़ आवेगा इसलिए हम लोगों को भी मुनासिब है कि अपनी फौज का इन्तजाम और लड़ाई का सामान पहले से कर रखें। यों तो शिवदत्त की नीयत तभी मालूम हो गई थी जब उसने ऐयारों को भेजा था, पर अब कोई शक नहीं रहा।'' महाराज ने कहा, ‘‘मैं इस बात को खूब जानता हूँ कि शिवदत्त के पास तीस हजार फौज है और हमारे पास सिर्फ दस हजार, मगर क्या मैं डर जाऊंगा !'' तेजसिंह ने कहा, ‘‘दस हजार फौज महाराज की और पांच हजार फौज हमारे सरकार की, पन्द्रह हजार हो गई, ऐसे गीदड़ के मारने को इतनी फौज काफी है। अब महाराज दीवान साहब को एक खत देकर नौगढ़ भेंजे, मैं जाकर फौज ले आता हूँ, बल्कि महाराज की राय हो तो कुंवर वीरेन्द्रसिंह को भी बुला लें और फौज का इन्तजाम उनके हवाले करें, फिर देखिए क्या कैफियत होती है।''

दीवान हरदयालसिंह बोले, ‘‘कृपानाथ, इस राय को तो मैं भी पसन्द करता हूँ।'' महाराज ने कहा, ‘‘सो तो ठीक है मगर वीरेन्द्रसिंह को अभी लड़ाई का काम सुपुर्द करने को जी नहीं चाहता ? चाहे वह इस फन में होशियार हों मगर क्या हुआ, जैसा सुरेन्द्रसिंह का लड़का, वैरा मेरा भी, मैं कैसे उसको लड़ने के लिए कहूँगा और सुरेन्द्रसिंह भी कब इस बात को मंजूर करेंगे ?'' तेजसिंह ने जवाब दिया, ‘‘महाराज इस बात की तरफ जरा भी खयाल न करें ! ऐसा नहीं हो सकता कि महाराज तो लड़ाई पर जायें और वीरेन्द्रसिंह घर बैठे आराम करें ! उनका दिल कभी न मानेगा। राजा सुरेन्द्रसिंह भी वीर हैं कुछ कायर नहीं, वीरेन्द्रसिंह को घर में बैठने न देंगे बल्कि खुद भी मैदान में बढ़कर लड़ें तो ताज्जुब नहीं !''

महाराज जयसिंह तेजसिंह की बात सुनकर बहुत खुश हुए और दीवान हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि ‘तुम राजा सुरेन्द्रसिंह को शिवदत्त की गुस्ताखी का हाल और जो कुछ हमने उसका जवाब दिया है वह भी लिखो और पूछो कि आपकी क्या राय है ? इस बात का जवाब आ ले तो जैसा होगा किया जायेगा, और खत भी तुम्हीं लेकर जाओ और कल ही लौट आओ क्योंकि अब देर करने का मौका नहीं है। हरदयालसिंह ने बमूजिब हुक्म के खत लिखा और महाराज ने उस पर मोहर करके उसी वक्त दीवान हरदयालसिंह को विदा कर दिया। दीवान साहब महाराज से विदा होकर नौगढ की तरफ रवाना हुए। थोड़ा—सा दिन बाकी था जब वहाँ पहुंचे। सीधे दीवान जीतसिंह के मकान पर चले गये। दीवान जीतसिंह खबर पाते ही बाहर आये, हरदयालसिंह को लाकर अपने यहाँ उतारा और हाल—चाल पूछा। हरदयालसिंह ने सब खुलासा हाल कहा। जीतसिंह गुस्से में आकर बोले, आजकल शिवदत्त के दिमाग में खलल आ गया है, हम लोगों को उसने साधारण समझ लिया है ? खैर, देखा जायेगा, कुछ हर्ज नहीं, आप आज शाम को राजा साहब से मिलें।'

शाम के वक्त हरदयालसिंह ने जीतसिंह के साथ राजा सुरेन्द्रसिंह की मुलाकात को गये। वहाँ कुंवर भी बैठे थे। राजा साहब ने बैठने का इशारा किया और हाल—चाल पूछा। उन्होंने महाराज जयसिंह का खत दे दिया, महाराज ने खुद उस चिट्ठी को पढ़ा, गुस्से के मारे कुछ बोल न सके और खत कुंवर वीरेन्द्रसिंह के हाथ में दे दिया। कुमार ने भी उसको बखूबी पढ़ा, इनकी भी वही हालत हुई, क्रोध से आंखों के आगे अँधेरा छा गया। कुछ देर तक सोचते रहे इसके बाद हाथ जोड़कर पिता से अर्ज किया, ‘‘मुझको लड़ाई का बड़ा हौसला है, यही हम लोगों का धर्म भी है, फिर ऐसा मौका मिले या न मिले, इसलिए अर्ज करता हूँ कि मुझको हुक्म हो तो अपनी फौज लेकर जाऊं और विजयगढ़ पर चढ़ाई करने से पहले ही शिवदत्त को कैद कर लाऊं।'' राजा सुरेन्द्रसिंह ने कहा, ‘‘उस तरफ जल्दी करने की कोई जरूरत नहीं है, तुम अभी विजयगढ़ जाओ, क्षत्रियों को लड़ाई से ज्यादा प्यारा बाप, बेटा, भाई—भतीजा कोई नहीं होता। इसलिए तुम्हारी मुहब्बत छोड़ कर हुक्म देता हूँ कि अपनी कुल फौज लेकर महाराज जयसिंह को मदद पहुंचाओ और नाम पैदा करो। फिर जीतसिंह की तरफ देखकर, ‘‘फौज में मुनादी करा दो कि रात भर में सब लैस हो जायें, सुबह को कुमार के साथ जाना होगा।'' इसके बाद हरदयायलसिंह से कहा, ‘‘आज आप रह जायें और कल अपने साथ ही फौज तथा कुमार को लेकर तब जायें।'' यह हुक्म दे राजमहल में चले गये। जीतसिंह दीवान हरदयालसिंह को साथ लेकर घर गये और कुमार अपने कमरे में जाकर लड़ाई का सामान तैयार करने लगे। चन्द्रकान्ता को देखने और लड़ाई पर चलने की खुशी में रात किधर गई कुछ मालूम ही न हुआ।

बाईसवां बयान

सुबह होते ही कुमार नहा—धोकर जंगी कपड़े पहन हथियारों को बदन पर सजा बाप—मां से विदा होने के लिए महल में गये। रानी से महाराज ने रात ही सब हाल कह दिया था। वे इनका फौजी ठाठ देखकर दिल में बहुत खुश हुईं। कुमार ने दंडवत कर विदा मांगी, रानी ने आंसू भर कर कुमार को गले से लगाया और पीठ पर हाथ फेरकर कहा, ‘‘बेटा जाओ, वीर पुरुषों में नाम करो, क्षत्रिय का कुल नाम रख फतह का डंका बजाओ। शूरवीरों का धर्म है कि लड़ाई के वक्त मां—बाप, ऐश, आराम किसी की मुहब्बत नहीं करते, सो तुम भी जाओ, ईश्वर करे लड़ाई में बैरी तुम्हारी पीठ न देखे !''

मां—बाप से विदा होकर कुमार बाहर आये, दीवान हरदयालसिंह को मुस्तैद देखा, आप भी एक घोड़े पर सवार हो रवाना हुए। पीछे—पीछे फौज भी समुद्र की तरह लहर मारती चली। जब विजयगढ़ के करीब पहुंचे तो कुमार घोड़े पर से उतर पड़े और हरदयालसिंह से बोले, ‘‘मेरी राय है कि इसी जंगल में अपनी फौज को उतारूं और सब इन्तजाम कर लूं तो शहर में चलूं।'' हरदयालसिंह ने कहा, ‘‘आपकी राय बहुत अच्छी है। मैं भी पहले से चलकर आपके के आने की खबर महाराज को देता हूं फिर लौटकर आपको साथ लेकर चलूंगा।'' कुमार ने कहा, ‘‘अच्छा जाइए।'' हरदयालसिंह विजयगढ़ पहुंचे, कुमार के आने की खबर देने के लिए महाराज के पास गये और खुलासा हाल बयान करके बोले, ‘‘कुमार सेना सहित यहाँ से कोस भर पर उतरे हैं।'' यह सुन महाराज बहुत खुश हुए और बोले, ‘‘फौज के वास्ते वह मुकाम बहुत अच्छा है, मगर वीरेन्द्रसिंह को यहाँ ले आना चाहिए। तुम यहाँ के सब दरबारियों को ले जाकर इस्तकबाल करो और कुमार को यहाँ ले आओ !''

बमूजिब हुक्म के हरदयालसिंह बहुत से सरदारों को लेकर रवाना हुए। यह खबर तेजसिंह को भी हुई, सुनते ही वीरेन्द्रसिंह के पास पहुंचे और दूर ही से बोले, ‘‘मुबारक हो !'' तेजसिंह को देखकर कुमार बहुत खुश हुए और हाल—चाल पूछा, तेजसिंह ने कहा, ‘‘जो कुछ है सब अच्छा है, जो बाकी है अब बन जायेगा !'' यह कह तेजसिंह लश्कर के इंतजाम में लगे। इतने में दीवान हरदयालसिंह मय दरबारियों के आ पहुंचे और महाराज ने जो हुक्म दिया था, कहा। कुमार ने मंजूर किया और सज—सजाकर घोड़े पर सवार हो एक सौ फौजी सिपाही साथ ले महाराज से मुलाकात को विजयगढ़ चले। शहर भर में मशहूर हो गया कि महाराज की मदद को कुंवर वीरेन्द्रसिंह आये हैं, इस वक्त किले में जायेंगे। सवारी देखने के लिए अपने—अपने मकानों पर औरत—मर्द पहले ही से बैठ गये और सड़कों पर भी बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई। सभी की आंखें उत्तर की तरफ सवारों के इंतजार में थीं। यह खबर महाराज को भी पहुंची कि कुमार चले आ रहे हैं। उन्होंनें महल में जाकर महारानी से सब हाल कहा जिसको सुनकर वे प्रसन्न हुईं और बहुत सी औरतों के साथ जिनमें चन्द्रकान्ता और चपला भी थीं, सवारी का तमाशा देखने के लिए ऊंची अटारी पर जा बैठीं। महाराज भी सवारी का तमाशा देखने के लिए दीवानखाने की छत पर जा बैठे। थोड़ी ही देर बाद उत्तर की तरफ से कुछ धूल उड़त दिखाई दी और नजदीक आने पर देखा कि थोड़ी—सी फौज (सवारों की) चली आ रही है। कुछ अरसा गुजरा तो साफ दिखाई देने लगा।

कुछ सवार, जो धीरे—धीरे महल की तरफ आ रहे थे, फौलादी जेर्रा पहने हुए थे जिस पर डूबते हुए सूर्य की किरणें पड़ने से अजब चमक—दमक मालूम होती थी। हाथ में झंडेदार नेजा लिए, ढाल—तलवार लगाये जवानी की उमंग में अकड़े हुए बहुत ही भले मालूम पड़ते थे। उनके आगे—आगे एक खूबसूरत, ताकतवर और जेवरों से सजे हुए घोड़ा, जिस पर जड़ाऊ जीन कसी हुई थी और अठखेलियां कर रहा था, पर कुंवर वीरेन्द्रसिंह सवार थे। सिर पर फौलादी टोप जिसमें एक हुमा के पर की लम्बी कलंगी लगी थी, बदन में बेशकीमती लिबास के ऊपर फौलादी जेर्रा पहने हुए थे। गोरा रंग, बड़ी—बड़ी आंखें, गालों पर सुर्खी छा रही थी। बड़े—बड़े पन्ने के दानों का कण्ठा और भुजबन्द भी पन्ने का था जिसकी चमक चेहरे पर पड़कर खूबसूरती को दूना कर रही थी। कमर में जड़ाऊ पेटी जिसमें बेशकीमती हीरा जड़ा हुआ था, और पिंडली तक का जूता जिस पर कौदैये मोती का काम था, चमड़ा नजर नहीं आता था, पहने हुए थे। ढाल, तलवार, खंजर, तीर—कमान लगाये एक गुर्ज करबूस में लटकता हुआ, हाथ में नेजा लिए घोड़ा कुदाते चले आ रहे थे। ताकत, जवांमर्दी, दिलेरी, और रोआब उनके चेहरे से ही झलकता था, दोस्तों के दिलों में मुहब्बत और दुश्मनों के दिलों में खौफ पैदा होता था। सबसे ज्यादा लुत्फ तो यह था कि जो सौ सवार संग में चले आ रहे थे वे सब भी उन्हीं के हमसिन थे। शहर में भीड़ लग गई, जिसकी निगाह कुमार पर पड़ती थी आंखों में चकाचौंध—सी आ जाती थी। महारानी ने, जो वीरेन्द्रसिंह को बहुत दिनों पर इस ठाठ और रोआब से आते देखा, सौगुनी मुहब्बत आगे से ज्यादा बढ़ गई। मुंह से निकल पड़ा, ‘‘अगर चन्द्रकान्ता के लायक वर है तो सिर्फ वीरेन्द्र ! चाहे जो हो, मैं तो इसी को दामाद बनाऊंगी।'' चन्द्रकान्ता और चपला भी दूसरी खिड़की से देख रही थीं। चपला ने टेढ़ी निगाहों से कुमारी की तरफ देखा। वह शर्मा गई, दिल हाथ से जाता रहा, कुमार की तस्वीर आंखों में समा गई, उम्मीद हुई कि अब पास से देखूँगी। उधर महाराज की टकटकी बंध गई।

इतने में कुमार किले के नीचे आ पहुंचे। महाराज से न रहा गया, खुद उतर आये और जब तक वे किले के अन्दर आवें महाराज भी वहां पहुंच गये। वीरेन्द्रसिंह ने महाराज को देखकर पैर छुए, उन्होंने उठाकर छाती से लगा लिया और हाथ पकड़े सीधे महल में ले गये। महारानी उन दोनों को आते देख आगे तक बढ़ आईं। कुमार ने चरण छुए, महारानी की आंखों में प्रेम का जल भर आया, बड़ी खुशी से कुमार को बैठने के लिए कहा, महाराज भी बैठ गये। बायें तरफ महारानी और दाहिनी तरफ कुमार थे, चारों तरफ लौंडियों की भीड़ थी जो अच्छे—अच्छे गहने और कपड़े पहने खड़ी थीं। कुमार की नीची निगाहें चारों तरफ घूमने लगी मानो किसी को ढूंढ़ रही हों। चन्द्रकान्ता भी किवाड़ की आड़ में खड़ी उनको देख रही थी, मिलने के लिए तबीयत घबड़ा रही थी मगर क्या करे, लाचार थी। थोड़ी देर तक महाराज और कुमार महल में रहे, इसके बाद उठे और कुमार को साथ लिये हुए दीवानखाने में पहुंचे। अपने खास आरामगाह के पास वाला एक सुन्दर कमरा उनके लिए मुकर्रर कर दिया। महाराज से विदा होकर कुमार अपने कमरे में गये। तेजसिंह भी पहुंचे, कुछ देर चुहल में गुजरी, चन्द्रकान्ता को महल में न देखने से इनकी तबीयत उदास थी, सोचते थे कि कैसे मुलाकात हो। इसी सोच में आंख लग गई।

सुबह जब महाराज दरबार में गये, वीरेन्द्रसिंह स्नान—पूजा से छुट्टी पा दरबारी पोशाक पहने, कलंगी सरपेंच समेत सिर पर रख, तेजसिंह को साथ ले दरबार में गये। महाराज ने अपने सिंहासन के बगल में एक जड़ाऊ कुर्सी पर कुमार को बैठाया। हरदयालसिंह ने महाराज की चिट्ठी का जवाब पेश किया जो राजा सुरेन्द्रसिंह ने लिखा था। उसको पढ़कर महाराज बहुत खुश हुए। थोड़ी देर बाद दीवान साहब को हुक्म दिया कि कुमार की फौज में हमारी तरफ से बाजार लगाया जाये और गल्ले वगैरह का पूरा इन्तजाम किया जाये, किसी को किसी तरह की तकलीफ न हो। कुमार ने अर्ज किया, ‘‘महाराज, सामान सब साथ आया है।'' महाराज ने कहा, ‘‘क्या तुमने इस राज्य को दूसरे का समझा है ! सामान आया है तो क्या हुआ, वह भी जब जरूरत होगी काम आवेगा। अब हम कुल फौज का इन्तजाम तुम्हारे सुपुर्द करते हैं, जैसा मुनासिब समझो बन्दोबस्त और इन्तजाम करो।'' कुमार ने तेजसिंह की तरफ देखकर कहा, ‘‘तुम जाओ। मेरी फौज के तीन हिस्से करके दो—दो हजार विजयगढ़ के दोनों तरफ भेजो और हजार फौज के दस टुकड़े करके इधर—उधर पांच—पांच कोस तक फैला दो और खेमे वगैरह का पूरा बन्दोबस्त कर दो। जासूसों को चारों तरफ रवाना करो। बाकी महाराज की फौज की कल कवायद देखकर जैसा होगा इन्तजाम करेंगे।'' हुक्म पाते ही तेजसिंह रवाना हुए। इस इन्तजाम और हमदर्दी को देखकर महाराज को और भी तसल्ली हुई। हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि फौज में मुनादी करा दो कि कल कवायद होगी। इतने में महाराज के जासूसों ने आकर अदब से सलाम कर खबर दी कि शिवदत्तसिंह अपनी तीस हजार फौज लेकर सरकार से मुकाबला करने के लिए रवाना हो चुका है, दो—तीन दिन तक नजदीक आ जायेगा। कुमार ने कहा, ‘‘कोई हर्ज नहीं, समझ लेंगे, तुम फिर अपने काम पर जाओ।''

दूसरे दिन महाराज जयसिंह और कुमार एक हाथी पर बैठकर फौज की कवायद देखने गये। हरदयालसिंह ने मुसलमानों को बहुत कम कर दिया था—तो भी एक हजार मुसलमान रह गये थे। कवायद देख कुमार बहुत खुश हुए मगर मुसलमानों की सूरत देख त्योरी चढ़ गई। कुमार की सूरत से महाराज समझ गये और धीरे से पूछा, ‘‘इन लोगों को जवाब दे देना चाहिए ?'' कुमार ने कहा, ‘‘नहीं, निकाल देने से ये लोग दुश्मन के साथ हो जायेंगे ! मेरी समझ में बेहतर होगा कि दुश्मन को रोकने के लिए पहले इन्हीं लोगों को भेजा जाये। इनके पीछे तोपखाना और थोड़ी फौज हमारी रहेगी, वे लोग इन लोगों की नीयत खराब देखने या भागने का इरादा मालूम होने पर पीछे से तोप मार—कर इन सभी की सफाई कर डालेंगे। ऐसा खौफ रहने से ये लोग एक दफा तो खूब लड़ जायेंगे, मुफ्त मारे जाने से लड़कर मरना बेहतर समझेंगे।'' इस राय को महाराज ने बहुत पसन्द किया और दिल में कुमार की अक्ल की तारीफ करने लगे।

जब महाराज फिरे तो कुमार ने अर्ज किया, ‘‘मेरा जी शिकार खेलने को चाहता है, अगर इजाजत हो तो जाऊं ? महाराज ने कहा, ‘‘अच्छा, दूर मत जाना और दिन रहते जल्दी लौट आना।'' यह कहकर हाथी बैठवाया। कुमार उतर पड़े और घोड़े पर सवार हुए। महाराज का इशारा पा दीवान हरदयालसिंह ने सौ सवार साथ कर दिये। कुमार शिकार के लिए रवाना हुए। थोड़ी देर बाद एक घने जंगल में पहुंचकर दो सांभर तीर से मार फिर और शिकार ढूंढ़ने लगे। इतने में तेजसिंह भी पहुंचे कुमार से पूछा, ‘‘क्या सब इन्तजाम हो चुका जो तुम यहाँ चले आये ?'' तेजसिंह ने कहा, ‘‘क्या आज ही हो जायेगा ? कुछ आज हुआ कुछ कल दुरुस्त हो जायेगा। इस वक्त मेरे जी में आया कि चलें जरा उस तहखाने की सैर कर आवें जिसमें अहमद को कैद किया है, इसलिए आपसे पूछने आया हूं कि अगर इरादा हो तो आप भी चलिए।''

‘‘हाँ, मैं भी चलूंगा।'' कहकर कुमार ने उस तरफ घोड़ा फेरा। तेजसिंह भी घोड़े के साथ रवाना हुए। बाकी सभी को हुक्म दिया कि वापस जाएं और दोनों सांभरों का जो शिकार किये हैं, उठवा ले जायें। थोड़ी देर में कुमार और तेजसिंह तहखाने के पास पहुंचे और अन्दर घुसे। जब अंधेरा निकल गया और रोशनी आई तो सामने एक दरवाजा दिखाई देने लगा। कुमार घोड़े से उतर पड़े। अब तेजसिंह ने कुमार से पूछा, ‘‘भला यह कहिए कि आप यह दरवाजा खोल भी सकते हैं कि नहीं ?'' कुमार ने कहा, ‘‘क्यों नहीं, इसमें क्या कारीगरी है ?'' यह कह झट आगे बढ़ शेर के मुंह से जुबान बाहर निकाल ली, दरवाजा खुल गया। तेजसिंह ने कहा, ‘‘याद तो है !'' कुमार ने कहा, ‘‘क्या मैं भूलने वाला हूं।'' दोनों अन्दर गये और सैर करते—करते चश्में के किनारे पहुंचे। देखा कि अहमद और भगवानदास एक चट्टान पर बैठे बातें कर रहे हैं, पैर में बेड़ी पड़ी है। कुमार को देख दोनों उठ खड़े हुए, झुककर सलाम किया और बोले, ‘‘अब तो हम लोगों का कसूर माफ होना चाहिए।'' कुमार ने कहा, ‘‘हाँ थोड़े रोज और सब्र करो।''

कुछ देर तक वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह टहलते और मेवों को तोड़कर खाते रहे। इसके बाद तेजसिंह ने कहा, ‘‘अब चलना चाहिए। देर हो गई।'' कुमार ने कहा, ‘‘चलो।'' दोनों बाहर आये तेजसिंह ने कहा, ‘‘इस दरवाजे को आपने खोला है, आप ही बन्द कीजिए।'' कुमार ने यह कह कि ‘‘अच्छा लो, हम ही बन्द कर देते हैं'', दरवाजा बन्द कर दिया और घोड़े पर सवार हुए। जब विजयगढ़ के करीब पहुंचे तो तेजसिंह ने कहा, ‘‘अब आप जाइए, मैं जरा फौज की खबर लेता हुआ आता हूँ।'' कुमार ने कहा, ‘‘अच्छा जाओ।'' यह सुन तेजसिंह दूसरी तरफ चले गये और कुमार किले में चले आये, घोड़े से उतर कमरे में गये, आराम किया। थोड़ी रात बीते तेजसिंह कुमार के पास आये। कुमार ने पूछा, ‘‘कहो, क्या हाल हैं ?''तेजसिंह ने कहा, ‘‘सब इन्तजाम आपके हुक्म मुताबिक हो गया, आज दिनभर में एक घण्टे की छुट्टी न मिली जो आपसे मुलाकात करता।'' यह सुन वीरेन्द्रसिंह हंस पड़े और बोले, ‘‘दोपहर तक तो हमारे साथ रहे तिस पर कहते हो कि मुलाकात न हुई !'' यह सुनते ही तेजसिंह चौंक पड़े और बोले, ‘‘आप क्या कहते हैं।'' कुमार ने कहा, ‘‘कहते क्या हैं, तुम मेरे साथ उस तहखाने में नहीं गये थे जहाँ अहमद और भगवानदत्त बन्द हैं ?''

अब तो तेजसिंह के चेहरे का रंग उड़ गया और कुमार का मुंह देखने लगे। तेजसिंह की यह हालत देखकर कुमार को भी ताज्जुब हुआ। तेजसिंह ने कहा, ‘‘भला यह तो बताइए कि मैं आपसे कहाँ मिला था, कहाँ तक साथ गया और कब वापस आया ?'' कुमार ने सब कुछ कह दिया। तेजसिंह बोले. ‘‘बस, आपने चौका फेरा। अहमद और भगवानदत्त के निकल जाने का तो इतना गम नहीं है मगर दरवाजे का हाल दूसरे को मालूम हो गया इसका बड़ा अफसोस है।'' कुमार ने कहा, ‘‘तुम क्या कहते हो समझ में नहीं आता।'' तेजसिंह ने कहा, ‘‘ऐसा ही समझते तो धोखा ही क्यों खाते। तब न समझे तो अब समझिए, कि शिवदत्त के ऐयारों ने धोखा दिया और तहखाने का रास्ता देख लिया। जरूर यह काम बद्रीनाथ का है, दूसरे का नहीं, ज्योतिषी उसको रमल के जरिए से पता देता है।''

कुमार यह सुन दंग हो गये और अपनी गलती पर अफसोस करने लगे। तेजसिंह ने कहा, ‘‘अब तो जो होना था हो गया, उसका अफसोस कहे का। मैं इस वक्त जाता हूँ, कैदी तो निकल गये होंगे मगर मैं जाकर ताले का बन्दोबस्त करूंगा।'' कुमार ने पूछा, ‘‘ताले का बन्दोबस्त क्या करोगे ?'' तेजसिंह ने कहा, ‘‘उस फाटक में और भी दो ताले हैं जो इससे ज्यादा मजबूत हैं। उन्हें लगाने और बन्द करने में बड़ी देर लगती है इसलिए उन्हें नहीं लगाता था मगर अब लगाऊंगा।'' कुमार ने कहा, ‘‘मुझे भी वह ताला दिखाओ।'' तेजसिंह ने कहा, ‘‘अभी नहीं, जब तक चुनार पर फतह न पावेंगे न बतावेंगे नहीं तो फिर धोखा होगा।'' कुमार ने कहा, ‘‘अच्छा मर्जी तुम्हारी।''

तेजसिंह उसी वक्त तहखाने की तरफ रवाना हुए और सवेरा होने के पहिले ही लौट आये। सुबह को जब कुमार सोकर उठे तो तेजसिंह से पूछा, ‘‘कहो तहखाने का क्या हाल है ?'' उन्होंने जवाब दिया, ‘‘कैदी तो निकल गये मगर ताले का बन्दोबस्त कर आया हूँ।''

नहा—धोकर कुछ खाकर कुमार को तेजसिंह दरबार ले गये। महाराज को सलाम करके दोनों आदमी अपनी—अपनी जगह बैठ गये। आज जासूसों ने खबर दी कि शिवदत्त की फौज और पास आ गई है, अब दस कोस पर है। कुमार ने महाराज से अर्ज किया, ‘‘अब मौका आ गया है कि मुसलमानों की फौज दुश्मनों को रोकने के लिए आगे भेजी जाये।'' महाराज ने कहा, ‘‘अच्छा भेज दो।'' कुमार ने तेजसिंह से कहा, ‘‘अपना एक तोपखाना भी इस मुसलमानी फौज के पीछे रवाना करो।'' फिर कान में कहा, ‘‘अपने तोपखाने वालों को समझा देना कि जब फौज की नीयत खराब देखें तो जिन्दा किसी को न जाने दें।

तेजसिंह इन्तजाम करने के लिए चले गये, हरदयालसिंह को भी साथ लेते गये। महाराज ने दरबार बर्खास्त किया और कुमार को साथ ले महल में पधारे। दोनों ने साथ ही भोजन किया, इसके बाद कुमार अपने कमरे में चले गये। छटपटाते रह गये मगर आज भी चन्द्रकान्ता की सूरत न दिखी, लेकिन चन्द्रकान्ता ने आड़ से इनको देख लिया।

तेईसवां बयान

शाम को महाराज से मिलने के लिए वीरेन्द्रसिंह गये। महाराज उन्हें अपनी बगल में बैठा कर बातचीत करने लगे। इतने में हरदयालसिंह और तेजसिंह भी आ पहुंचे। महाराज ने हाल पूछा। उन्होंने अर्ज किया कि फौज मुकाबले में भेज दी गई है। लड़ाई के बारे में राय और तरकीबें होने लगीं। सब सोचते—विचारते आधी रात गुजर गई, एकाएक कई चोबदार ने आकर अर्ज किया, ‘‘महाराज, चोर—महल में से कुछ आदमी निकल भागे जिनको दुश्मन समझ पहरे वालों ने तीर छोड़े, मगर वे जख्मी होकर भी निकल गये।''

यह खबर सुन महाराज सोच में पड़ गये। कुमार और तेजसिंह भी हैरान थे। इतने में ही महल से रोने की आवाज आने लगी। सभी का खयाल उस रोने पर चला गया। पल में रोने और चिल्लाने की आवाज बढ़ने लगी, यहाँ तक कि तमाम महल में हाहाकार मच गया। महाराज और कुमार वगैरह सभी के मुंह पर उदासी छा गई। उसी समय लौंडियां दौड़ती हुई आईं और रोते—रोते बड़ी मुश्किल से बोलीं, ‘‘चन्द्रकान्ता और चपला का सिर काटकर कोई ले गया।'' यह खबर तीर के समान सभी को छेद गई। महाराज तो एकाएक हाय कह के गिर ही पड़े, कुमार की भी अजब हालत हो गई, चेहरे पर मुर्दनी छा गई। हरदयालसिंह की आंखों से आंसू जारी हो गये, तेजसिंह काठ की मूरत बन गये। महाराज ने अपने को संभाला और कुमार की अजब हालत देख गले लगा लिया, इसके बाद रोते हुए कुमार का हाथ पकड़े महल में दौड़े चले गये। देखा कि हाहाकार मचा हुआ है, महारानी चन्द्रकान्ता की लाश पर पछाड़ें खा रही हैं, सिर फट गया, खून जारी है। महाराज भी जाकर उसी लाश पर गिर पड़े। कुमार में तो इतनी भी ताकत न रही कि अन्दर जाते। दरवाजे पर ही गिर पड़े, दांत बैठ गया चेहरा जर्द और मुर्दे की—सी सूरत हो गई।

चन्द्रकान्ता और चपला की लाशें पड़ी थीं, सिर नहीं थे, कमरे में चारों तरफ खून—ही—खून दिखाई देता था। सभी की अजब हालत थी, महारानी रो—रोकर कहती थीं, ‘‘हाय बेटी ! तू कहाँ गई ! उसका कैसा कलेजा था जिसने तेरे गले पर छुरी चलाई ! हाय हाय, अब मैं जी—कर क्या करूंगी ! तेरे ही वास्ते इतना बखेड़ा हुआ और तू ही न रही तो अब यह राज्य क्या हो ?'' महाराज कहते थे— ‘‘अब क्रूर की छाती ठण्डी हुई, शिवदत्त को मुराद मिल गई। कह दो, अब आवे विजयगढ़ का राज्य करे, हम तो लड़की का साथ देंगे।''

एकाएक महाराज की निगाह दरवाजे पर गई। देखा वीरेन्द्रसिंह पड़े हुए हैं, सिर से खून जारी है। दौड़े और कुमार के पास आये, देखा तो बदन में दम नहीं, नब्ज का पता नहीं, नाक पर हाथ रक्खा तो सांस ठण्डी चल रही है। अब तो और भी जोर से महाराज चिल्ला उठे, बोले, ‘‘गजब हो गया ! हमारे चलते नौगढ़ का राज्य भी गारत हुआ। हम तो समझे थे कि वीरेन्द्रसिंह को राज्य दे जंगल में चले जायेंगे, मगर हाय ! विधाता को यह भी अच्छा न लगा ! अरे कोई जाओ, जल्दी तेजसिंह को लिवा लाओ, कुमार को देखें ! हाय हाय ! अब तो इसी मकान में मुझको भी मरना पड़ा। मैं समझता हूँ राजा सुरेन्द्रसिंह की जान भी इसी मकान में जायेगी ! हाय, अभी क्या सोच रहे थे, क्या हो गया ! विधाता तूने क्या किया ?''

इतने में तेजसिंह आये। देखा कि वीरेन्द्रसिंह पड़े हैं और महाराज उनके ऊपर हाथ रखें रो रहे हैं। तेजसिंह की जो कुछ जान बची थी वह भी निकल गई। वीरेन्द्रसिंह की लाश के पास बैठ गये और जोर से बोले, ‘‘कुमार, मेरा जी तो रोने को भी नहीं चाहता क्योंकि मुझको अब इस दुनिया में नहीं रहना है, मैं तो खुशी—खुशी तुम्हारा साथ दूंगा !'' यह कह कर कमर से खंजर निकाला और पेट में मारना ही चाहते थे कि दीवार फांदकर एक आदमी ने आकर हाथ पकड़ लिया।

तेजसिंह ने उस आदमी को देखा जो सिर से पैर तक सिन्दूर से रंगा हुआ था उसने कहा—

‘‘काहे को देते हो जान, मेरी बात सुनो दे कान।

यह सब खेल ठगी को मान, लाश देखकर लो पहचान।

उठो देखो भालो, खोजो खोज निकालो।।''

यह कह वह दांत दिखलाता उछलता—कूदता भाग गया।