चंद्रकांता - भाग - 2 Devaki Nandan Khatri द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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चंद्रकांता - भाग - 2

चंद्रकांता

दूसरा भाग

बयान - 1

इस आदमी को सभी ने देखा मगर हैरान थे कि यह कौन है, कैसे आया और क्या कह गया। तेजसिंह ने जोर से पुकार के कहा, आप लोग चुप रहें, मुझको मालूम हो गया कि यह सब ऐयारी हुई है, असल में कुमारी और चपला दोनों जीती हैं, यह लाशें उन लोगों की नहीं हैं!

तेजसिंह की बात से सब चौंक पड़े और एकदम सन्नाटा हो गया। सबों ने रोना-धोना छोड़ दिया और तेजसिंह के मुंह की तरफ देखने लगे। महारानी दौड़ी हुई उनके पास आईं और बोलीं, बेटा, जल्दी बताओ यह क्या मामला है! तुम कैसे कहते हो कि चंद्रकान्ता जीती है? यह कौन था जो यकायक महल में घुस आया? तेजसिंह ने कहा, यह तो मुझे मालूम नहीं कि यह कौन था मगर इतना पता लग गया कि चंद्रकान्ता और चपला को शिवदत्तसिंह के ऐयार चुरा ले गए हैं और ये बनावटी लाश यहां रख गए हैं जिससे सब कोई जानें कि वे मर गईं और खोज न करें। महाराज बोले, यह कैसे मालूम कि यह लाश बनावटी हैं? तेजसिंह ने कहा, यह कोई बड़ी बात नहीं है, लाश के पास चलिए मैं अभी बतला देता हूं। यह सुन महाराज तेजसिंह के साथ लाश के पास गए, महारानी भी गईं। तेजसिंह ने अपनी कमर से खंजर निकालकर चपला की लाश की टांग काट ली और महाराज को दिखलाकर बोले, देखिए इसमें कहीं हड्डी है। महाराज ने गौर से देखकर कहा, ठीक है, बनावटी लाश है। इसके पीछे चंद्रकान्ता की लाश को भी इसी तरह देखा, उसमें भी हड्डी नहीं पाई। अब सबों को मालूम हो गया कि ऐयारी की गई है। महाराज बोले, अच्छा यह तो मालूम हुआ कि चंद्रकान्ता जीती है, मगर दुश्मनों के हाथ पड़ गई इसका गम क्या कम है? तेजसिंह बोले, कोई हर्ज नहीं, अब तो जो होना था हो चुका। मैं चंद्रकान्ता और चपला को खोज निकालूंगा।

तेजसिंह के समझाने से सबों को कुछ ढाढ़स हुई, मगर कुमार वीरेन्द्रसिंह अभी तक बदहवास पड़े हैं, उनको इन सब बातों की कुछ खबर नहीं। अब महाराज को यह फिक्र हुई कि कुमार को होशियार करना चाहिए। वैद्य बुलाए गये, सबों ने बहुत-सी तरकीबें कीं मगर कुमार को होश न आया। तेजसिंह भी अपनी तरकीब करके हैरान हो गए मगर कोई फायदा न हुआ, यह देख महाराज बहुत घबड़ाए और तेजसिंह से बोले, अब क्या करना चाहिए? बहुत देर तक गौर करने के बाद तेजसिंह ने कहा कि कुमार को उठवा के उनके रहने के कमरे में भिजवाना चाहिए, वहां अकेले में मैं इनका इलाज करूंगा। यह सुन महाराज ने उन्हें खुद उठाना चाहा मगर तेजसिंह ने कुमार को गोद में ले लिया और उनके रहने वाले कमरे में ले चले । महाराज भी संग हुए। तेजसिंह ने कहा, आप साथ न चलिए, ये अकेले ही में अच्छे होंगे। महाराज उसी जगह ठहर गये। तेजसिंह कुमार को लिए हुए उनके कमरे में पहुंचे और चारपाई पर लिटा दिया, चारों तरफ से दरवाजे बंद कर दिए और उनके कान के पास मुंह लगाकर बोलने लगे, चंद्रकान्ता मरी नहीं, जीती है, वह देखो महाराज शिवदत्त के ऐयार उसे लिए जाते हैं&!जल्दी दौड़ो, छीनो, नहीं तो बस ले ही जायेंगे! क्या इसी को वीरता कहते हैं! छी:, चंद्रकान्ता को दुश्मन लिए जायं और आप देखकर भी कुछ न बोलें? राम राम राम!

इतनी आवाज कान में पड़ते ही कुमार में आंखें खोल दीं और घबड़ाकर बोले, हैं! कौन लिए जाता है? कहां है चंद्रकान्ता? यह कहकर इधर-उधर देखने लगे। देखा तो तेजसिंह बैठे हैं। पूछा-अभी कौन कह रहा था कि चंद्रकान्ता जीती है और उसको दुश्मन लिये जाते हैं? तेजसिंह ने कहा, मैं कहता था और सच कह रहा था! कुमारी जीती हैं मगर दुश्मन उनको चुरा ले गए हैं और उनकी जगह नकली लाश रख इधर-उधर रंग फैला दिया है जिससे लोग कुमारी को मरी हुई जानकर पीछा और खोज न करें।

कुमार ने कहा, तुम हमें धोखा देते हो! हम कैसे जानें कि वह लाश नकली है? तेजसिंह ने कहा, मैं अभी आपको यकीन करा देता हूं। यह कह कमरे का दरवाजा खोला, देखा कि महाराज खड़े हैं, आंखों से आंसू जारी हैं। तेजसिंह को देखते ही पूछा, क्या हाल है? जवाब दिया, अच्छे हैं, होश में आ गए, चलिए देखिए। यह सुन महाराज अंदर गए, उन्हें देखते ही कुमार उठ खड़े हुए, महाराज ने गले से लगा लिया। पूछा, मिजाज कैसा है! कुमार ने कहा, अच्छा है! कई लौंडियां भी उस जगह आईं जिनको कुमार का हाल लेने के लिए महारानी ने भेजा था। एक लौंडी से तेजसिंह ने कहा, दोनों लाशों में से जो टुकड़े हाथ-पैर के मैंने काटे थे उन्हें ले आ। यह सुन लौंडी दौड़ी गई और वे टुकड़े ले आई। तेजसिंह ने कुमार को दिखलाकर कहा, देखिए यह बनावटी लाश है या नहीं, इसमें हड्डी कहां है? कुमार ने देखकर कहा, ठीक है, मगर उन लोगों ने बड़ी बदमाशी की! तेजसिंह ने कहा, खैर जो होना था हो गया, देखिए अब हम क्या करते हैं।

सबेरा हो गया। महाराज, कुमार और तेजसिंह बैठे बातें कर रहे थे कि हरदयालसिंह ने पहुंचकर महाराज को सलाम किया। उन्होंने बैठने का इशारा किया। दीवान साहब बैठ गये और सबों को वहां से हट जाने के लिए हुक्म दिया। जब निराला हो गया हरदयालसिंह ने तेजसिंह से पूछा, मैंने सुना है कि वह बनावटी लाश थी जिसको सभी ने कुमारी की लाश समझा था? तेजसिंह ने कहा, जी हां ठीक बात है! और तब बिल्कुल हाल समझाया। इसके बाद दीवान साहब ने कहा, और गजब देखिए! कुमारी के मरने की खबर सुनकर सब परेशान थे, सरकारी नौकरों में से जिन लोगों ने यह खबर सुनी दौड़े हुए महल के दरवाजे पर रोते-चिल्लाते चले आये, उधर जहां ऐयार लोग कैद थे पहरा कम रह गया, मौका पाकर उनके साथी ऐयारों ने वहां धाावा किया और पहरे वालों को जख्मी कर अपनी तरफ के सब ऐयारों को जो कैद थे छुड़ा ले गए।

यह खबर सुरकर तेजसिंह, कुमार और महाराज सन्न हो गये। कुमार ने कहा, बड़ी मुश्किल में पड़ गये। अब कोई भी ऐयार उनका हमारे यहां न रहा, सब छूट गये। कुमारी और चपला को ले गये यह तो गजब ही किया! अब नहीं बर्दाश्त होता, हम आज ही कूच करेंगे और दुश्मनों से इसका बदला लेंगे। यह बात कह ही रहे थे कि एक चोबदार ने आकर अर्ज किया कि लड़ाई की खबर लेकर एक जासूस आया है, दरवाजे पर हाजिर है, उसके बारे में क्या हुक्म होता है? हरदयालसिंह ने कहा, इसी जगह हाजिर करो। जासूस लाया गया। उसने कहा, दुश्मनों को रोकने के लिए यहां से मुसलमानी फौज भेजी गई थी। उसके पहुंचने तक दुश्मन चार कोस और आगे बढ़ आये थे। मुकाबले के वक्त ये लोग भागने लगे, यह हाल देखकर तोपखाने वालों ने पीछे से बाढ़ मारी जिससे करीब चौथाई आदमी मारे गये। फिर भागने का हौसला न पड़ा और खूब लड़े, यहां तक कि लगभग हजार दुश्मनों को काट गिराया लेकिन वह फौज भी तमाम हो चली, अगर फौरन मदद न भेजी जायगी तो तोपखाने वाले भी मारे जायेंगे।

यह सुनते ही कुमार ने दीवान हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि पांच हजार फौज जल्दी मदद पर भेजी जाय और वहां पर हमारे लिए भी खेमा रवाना करो, दोपहर को हम भी उस तरफ कूच करेंगे। हरदयालसिंह फौज भेजने के लिए चले गये। महाराज ने कुमार से कहा, हम भी तुम्हारे साथ चलेंगे। कुमार ने कहा, ऐसी जल्दी क्या है? आप यहां रहें, राज्य का काम देखें। मैं जाता हूं, जरा देखूं तो राजा शिवदत्त कितनी बहादुरी रखता है, अभी आपको तकलीफ करने की कुछ जरूरत नहीं।

थोड़ी देर तक बातचीत होने के बाद महाराज उठकर महल में चले गए। कुमार और तेजसिंह भी स्नान और संध्या-पूजा की फिक्र में उठे। सबसे जल्दी तेजसिंह ने छुट्टी पाई और मुनादी वाले को बुलाकर हुक्म दिया कि तू तमाम शहर में इस बात की मुनादी कर आ कि-'दन्तारबीर का जिसको इष्ट हो वह तेजसिंह के पास हाजिर हो।' बमूजिब हुक्म के मुनादी वाला मुनादी करने चला गया। सभी को ताज्जुब था कि तेजसिंह ने यह क्या मुनादी करवाई है।

बयान - 2

मामूल वक्त पर आज महाराज ने दरबार किया। कुमार और तेजसिंह भी हाजिर हुए। आज का दरबार बिल्कुल सुस्त और उदास था, मगर कुमार ने लड़ाई पर जाने के लिए महाराज से इजाजत ले ली और वहां से चले गए। महाराज भी उदासी की हालत में उठ के महल में चले गये। यह तो निश्चय हो गया कि चंद्रकान्ता और चपला जीती हैं मगर कहां हैं, किस हालत में हैं, सुखी हैं या दु:खी, इन सब बातों का ख्याल करके महल में महारानी से लेकर लौंडी तक सब उदास थीं, सबों की आंखों से आंसू जारी थे, खाने-पीने की किसी को भी फिक्र न थी, एक चन्द्रकान्ता का ध्यान ही सबों का काम था। महाराज जब महल में गये महारानी ने पूछा कि “चंद्रकान्ता का पता लगाने की कुछ फिक्र की गई?

महाराज ने कहा, हां तेजसिंह उसकी खोज में जाते हैं, उनसे ज्यादा पता लगाने वाला कौन है जिससे मैं कहूं? वीरेन्द्रसिंह भी इस वक्त लड़ाई पर जाने के लिए मुझसे बिदा हो गए, अब देखो क्या होता है।

बयान - 3

कुछ दिन बाकी है, एक मैदान में हरी-हरी दूब पर पंद्रह-बीस कुर्सियां रखी हुई हैं और सिर्फ तीन आदमी कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और फतहसिंह सेनापति बैठे हैं, बाकी कुर्सियां खाली पड़ी हैं। उनके पूरब तरफ सैकड़ों खेमे अर्धाचंद्राकार खड़े हैं। बीच में वीरेन्द्रसिंह के पलटन वाले अपने-अपने हरबों को साफ और दुरुस्त कर रहे हैं। बड़े-बड़े शामियानों के नीचे तोपें रखी हैं जो हर एक तरह से लैस और दुरुस्त मालूम हो रही हैं। दक्षिण तरफ घोड़ों का अस्तबल है जिसमें अच्छे-अच्छे घोड़े बंधे दिखाई देते हैं। पश्चिम तरफ बाजे वालों, सुरंग खोदने वालों, पहाड़ उखाड़ने वालों और जासूसों का डेरा तथा रसद का भण्डार है।

कुमार ने फतहसिंह सिपहसालार से कहा, मैं समझता हूं कि मेरा डेरा-खेमा सुबह तक 'लोहरा' के मैदान में दुश्मनों के मुकाबले में खड़ा हो जायगा?फतहसिंह ने कहा, जी हां, जरूर सुबह तक वहां सब सामान लैस हो जायगा, हमारी फौज भी कुछ रात रहते यहां से कूच करके पहर दिन चढ़ने के पहले ही वहां पहुंच जायगी। परसों हम लोगों के हौसले दिखाई देंगे, बहुत दिन तक खाली बैठे-बैठे तबीयत घबड़ा गई थी!इसी तरह की बातें हो रही थीं कि सामने देवीसिंह ऐयारी के ठाठ में आते दिखाई दिये। नजदीक आकर देवीसिंह ने कुमार और तेजसिंह को सलाम किया। देवीसिंह को देखकर कुमार बहुत खुश हुए और उठकर गले लगा लिया, तेजसिंह ने भी देवीसिंह को गले लगाया और बैठने के लिए कहा। फतहसिंह सिपहसालार ने भी उनको सलाम किया। जब देवीसिंह बैठ गये, तेजसिंह उनकी तारीफ करने लगे।

कुमार ने पूछा, कहो देवीसिह, तुमने यहां आकर क्या-क्या किया?

तेजसिह ने कहा, इनका हाल मुझसे सुनिये, मैं मुख्तसर में आपको समझा देता हूं।

कुमार ने कहा, कहो!

तेजसिंह बोले, जब आप चंद्रकान्ता के बाग में बैठे थे और भूत ने आकर कहा था कि 'खबर भई राजा को तुमरी सुनो गुरुजी मेरे!' जिसको सुनकर मैंने जबर्दस्ती आपको वहां से उठाया था, वह भूत यही थे। नौगढ़ में भी इन्होंने जाकर क्रूरसिंह के चुनार जाने और ऐयारों को संग लाने की खबर खंजरी बजाकर दी थी। जब चंद्रकान्ता के मरने का गम महल में छाया हुआ था और आप बेहोश पड़े थे तब भी इन्हीं ने चंद्रकान्ता और चपला के जीते रहने की खबर मुझको दी थी, तब मैंने उठकर लाश पहचानी नहीं होती तो पूरे घर का ही नाश हो चुका था। इतना काम इन्होंने किया। इन्हीं को बुलाने के वास्ते मैंने सुबह मुनादी करवाई थी, क्योंकि इनका कोई ठिकाना तो था ही नहीं।

यह सुनकर कुमार ने देवीसिंह की पीठ ठोंकी और बोले, शाबास! किस मुंह से तारीफ करें, दो घर तुमने बचाये।

देवीसिंह ने कहा, मैं किस लायक हूं जो आप इतनी तारीफ करते हैं, तारीफ सब कामों से निश्चित होकर कीजियेगा, इस वक्त चंद्रकान्ता को छुड़ाने की फिक्र करनी चाहिए, अगर देर होगी तो न जाने उनकी जान पर क्या आ बने। सिवाय इसके इस बात का भी ख्याल रखना चाहिए कि अगर हम लोग बिल्कुल चंद्रकान्ता ही की खोज में लीन हो जायेंगे तो महाराज की लड़ाई का नतीजा बुरा हो जायगा!

यह सुन कुमार ने पूछा, देवीसिंह यह तो बताओ चंद्रकान्ता कहां है, उसको कौन ले गया।

देवीसिंह ने जवाब दिया कि यह तो नहीं मालूम कि चंद्रकान्ता कहां है, हां इतना जानता हूं कि नाज़िम और बद्रीनाथ मिलकर कुमारी और चपला को ले गये, पता लगाने से लग ही जायगा!

तेजसिंह ने कहा, अब तो दुश्मन के सब ऐयार छूट गये, वे सब मिलकर नौ हैं और हम दो ही आदमी ठहरे। चाहे चंद्रकान्ता और चपला को खोजें चाहे फौज में रहकर कुमार की हिफाजत करें, बड़ी मुश्किल है।

देवीसिंह ने कहा, कोई मुश्किल नहीं है सब काम हो जायगा, देखिए तो सही। अब पहले हमको शिवदत्त के मुकाबले में चलना चाहिए, उसी जगह से कुमारी के छुड़ाने की फिक्र की जायगी।

तेजसिंह ने कहा, हम लोग महाराज से बिदा हो आये हैं, कुछ रात रहते यहां से पड़ाव उठेगा, पेशखेमा जा चुका है।

आधी रात तक ये लोग आपस में बातचीत करते रहे, बाद इसके कुमार उठकर अपने खेमे में चले गये। कुमार के बगल में तेजसिंह का खेमा था जिसमें देवीसिंह और तेजसिंह दोनों ने आराम किया। चारों तरफ फौज का पहरा फिरने लगा, गश्त की आवाज आने लगी। थोड़ी रात बाकी थी कि एक छोटी तोप की आवाज हुई, कुछ देर बाद बाजा बजने लगा, कूच की तैयारी हुई और धीर- धीर फौज चल पड़ी। जब सब फौज जा चुकी, पीछे एक हाथी पर कुमार सवार हुए जिन्हें चारों तरफ से बहुत-से सवार घेरे हुए थे। तेजसिंह और देवीसिंह अपने ऐयारी के सामान से सजे हुए कभी आगे कभी पीछे कभी साथ, पैदल चले जाते थे। पहर दिन चढ़े कुंअर वीरेन्द्रसिंह का लश्कर शिवदत्तसिंह की फौज के मुकाबले में जा पहुंचा जहां पहले से महाराज जयसिंह की फौज डेरा जमाये हुए थी। लड़ाई बंद थी और मुसलमान सब मारे जा चुके थे, खेमा-डेरा पहले ही से खड़ा था, कायदे के साथ पल्टनों का पड़ाव पड़ा।

जब सब इंतजाम हो चुका, कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने अपने खेमे में कचहरी की और मीर मुंशी को हुक्म दिया, एक खत शिवदत्त को लिखो कि मालूम होता है आजकल तुम्हारे मिजाम में गर्मी आ गई है जो बैठे-बैठाये एक नालायक क्रूर के भड़काने पर महाराज जयसिंह से लड़ाई ठान ली है। यह भी मालूम हो गया कि तुम्हारे ऐयार चंद्रकान्ता और चपला को चुरा लाये हैं, सो बेहतर है कि चंद्रकान्ता और चपला को इज्जत के साथ महाराज जयसिंह के पास भेज दो और तुम वापस जाओ नहीं तो पछताओगे, जिस वक्त हमारे बहादुरों की तलवारें मैदान में चमकेंगी, भागते राह न मिलेगी।

बमूजिम हुक्म के मीर मुंशी ने खत लिखकर तैयार की। कुमार ने कहा, यहखत कौन ले जायगा?यह सुन देवीसिंह सामने आ हाथ जोड़कर बोले, मुझको इजाजत मिले कि इस खत को ले जाऊं क्योंकि शिवदत्तसिंह से बातचीत करने की मेरे मन में बड़ी लालसा है।कुमार ने कहा, इतनी बड़ी फौज में तुम्हारा अकेला जाना अच्छा नहीं है।

तेजसिंह ने कहा, कोई हर्ज नहीं, जाने दीजिए।आखिर कुमार ने अपनी कमर से खंजर निकालकर दिया जिसे देवीसिंह ने लेकर सलाम किया, खत बटुए में रख ली और तेजसिंह के चरण छूकर रवाना हुए।

महाराज शिवदत्तसिंह के पल्टन वालों में कोई भी देवीसिंह को नहीं पहचानता था। दूर से इन्होंने देखा कि बड़ा-सा कारचोबी खेमा खड़ा है। समझ गये कि यही महाराज का खेमा है, सीधो धाड़धाड़ाते हुए खेमे के दरवाजे पर पहुंचे और पहरे वालों से कहा, अपने राजा को जाकर खबर करो कि कुंअर वीरेन्द्रसिंह का एक ऐयार खत लेकर आया है, जाओ जल्दी जाओ! सुनते ही प्यादा दौड़ा गया और महाराज शिवदत्त से इस बात की खबर की। उन्होंने हुक्म दिया, आने दो।देवीसिंह खेमे के अंदर गये। देखा कि बीच में महाराज शिवदत्त सोने के जड़ाऊ सिंहासन पर बैठे हैं, बाईं तरफ दीवान साहब और इसके बाद दोनों तरफ बड़े-बड़े बहादुर बेशकीमती पोशाकें पहिरे उम्दे-उम्दे हरबे लगाये चांदी की कुर्सियों पर बैठे हैं, जिनके देखने से कमजोरों का कलेजा दहलता है। बाद इसके दोनों तरफ नीम कुर्सियों पर ऐयार लोग विराजमान हैं। इसके बाद दरजे बदरजे अमीर और ओहदेदार लोग बैठे हैं, बहुत से चोबदार हाथ बांधो सामने खड़े हैं। गरज कि बड़े रोआब का दरबार देखने में आया।

देवीसिंह किसी को सलाम किये बिना ही बीच में जाकर खड़े हो गए और एक दफे चारों तरफ निगाह दौड़ाकर गौर से देखा, फिर बढ़कर कुमार की खत महाराज के सामने सिंहासन पर रख दी। देवीसिंह की बेअदबी देखकर महाराज शिवदत्त मारे गुस्से के लाल हो गये और बोले-”एक मच्छर को इतना हौसला हो गया कि हाथी का मुकाबला करे! अभी तो वीरेन्द्रसिंह के मुंह से दूध की महक भी गई न होगी।यह कह खत हाथ में ले फाड़कर फेंक दी। खत का फटना था कि देवीसिंह की आंखें लाल हो गईं। बोले, जिसके सर मौत सवार होती है उसकी बुध्दि पहले ही हवा खाने चली जाती है।देवीसिंह की बात तीर की तरह शिवदत्त के कलेजे के पार हो गई। बोले, पकड़ो इस बेअदब को!इतना कहना था कि कई चोबदार देवीसिंह की तरफ झुके। इन्होंने खंजर निकाल दो-तीन चोबदारों की सफाई कर डाली और फुर्ती से अपने ऐयारी के बटुए में से एक गेंद निकालकर जोर से जमीन पर मारी जिससे बड़ी भारी आवाज हुई। दरबार दहल उठा, महाराज एकदम चौंक पड़े जिससे सिर का शमला जिस पर हीरे का सरपेंच था जमीन पर गिर पड़ा। लपक के देवीसिंह ने उसे उठा लिया और कूदकर खेमे के बाहर निकल गये। सब के सब देखते रह गये किसी के किये कुछ बन न पड़ा।

सारा गुस्सा शिवदत्त ने ऐयारों पर निकाला जो कि उस दरबार में बैठे थे। कहा-”लानत है तुम लोगों की ऐयारी पर जो तुम लोगों के देखते दुश्मन का एक अदना ऐयार हमारी बेइज्जती कर जाय!बद्रीनाथ ने जवाब दिया, महाराज, हम लोग ऐयार हैं, हजार आदमियों में अकेले घुसकर काम करते हैं मगर एक आदमी पर दस ऐयार नहीं टूट पड़ते। यह हम लोगों के कायदे के बाहर है। बड़े-बड़े पहलवान तो बैठे थे, इन लोगों ने क्या कर लिया!बद्रीनाथ की बात का जवाब शिवदत्त ने कुछ न देकर कहा, अच्छा कल हम देख लेंगे।

बयान - 4

महाराज शिवदत्त का शमला लिए हुए देवीसिंह कुंअर वीरेन्द्रसिंह के पास पहुंचे और जो कुछ हुआ था बयान किया। कुमार यह सुनकर हंसने लगे और बोले, चलो सगुन तो अच्छा हुआ?

तेजसिंह ने कहा, सबसे ज्यादा अच्छा सगुन तो मेरे लिए हुआ कि शागिर्द पैदा कर लाया!यह कह शमले में से सरपेंच खोल बटुए में दाखिल किया।

कुमार ने कहा, भला तुम इसका क्या करोगे, तुम्हारे किस मतलब का है?

तेजसिंह ने जवाब दिया, इसका नाम फतह का सरपेंच है, जिस रोज आपकी बारात निकलेगी महाराज शिवदत्त की सूरत बना इसी को माथे पर बांधा मैं आगे-आगे झण्डा लेकर चलूंगा।

यह सुनकर कुमार ने हंस दिया, पर साथ ही इसके दो बूंद आंसू आंखों से निकल पड़े जिनको जल्दी से कुमार ने रूमाल से पोंछ लिया। तेजसिंह समझ गये कि यह चंद्रकान्ता की जुदाई का असर है। इनको भी चपला का बहुत कुछ ख्याल था, देवीसिंह से बोले, सुनो देवीसिंह, कल लड़ाई जरूर होगी इसलिए एक ऐयार का यहां रहना जरूरी है और सबसे जरूरी काम चंद्रकान्ता का पता लगाना है।

देवीसिंह ने तेजसिंह से कहा, आप यहां रहकर फौज की हिफाजत कीजिए। मैं चंद्रकान्ता की खोज में जाता हूं।

तेजसिंह ने कहा, नहीं चुनार की पहाड़ियां तुम्हारी अच्छी तरह देखी नहीं हैं और चंद्रकान्ता जरूर उसी तरफ होगी, इससे यही ठीक होगा कि तुम यहां रहो और मैं कुमारी की खोज में जाऊं।

देवीसिंह ने कहा, जैसी आपकी खुशी।

तेजसिंह ने कुमार से कहा, आपके पास देवीसिंह है। मैं जाता हूं, जरा होशियारी से रहिएगा और लड़ाई में जल्दी न कीजिएगा।

कुमार ने कहा, अच्छा जाओ, ईश्वर तुम्हारी रक्षा करें।

बातचीत करते शाम हो गई बल्कि कुछ रात भी चली गई, तेजसिंह उठ खड़े हुए और जरूरी चीजें ले ऐयारी के सामान से लैस हो वहां के एक घने जंगल की तरफ चले गये।

बयान - 5

चंद्रकान्ता को ले जाकर कहां रखा होगा? अच्छे कमरे में या अंधेरी कोठरी में? उसको खाने को क्या दिया होगा और वह बेचारी सिवाय रोने के क्या करती होगी। खाने-पीने की उसे कब सुध होगी। उसका मुंह दु:ख और भय से सूख गया होगा। उसको राजी करने के लिए तंग करते होंगे। कहीं ऐसा न हो कि उसने तंग होकर जान दे दी हो।' इन्हीं सब बातों को सोचते और ख्याल करते कुमार को रात-भर नींद न आई। सबेरा हुआ ही चाहता था कि महाराज शिवदत्त के लश्कर से डंके की आवाज आई। मालूम हुआ कि दुश्मनों की तरफ लड़ाई का सामान हो रहा है। कुमार भी उठ बैठे, हाथ-मुंह धोए। इतने में हरकारे ने आकर खबर दी कि दुश्मनों की तरफ लड़ाई का सामान हो रहा है। कुमार ने भी कहा, हमारे यहां भी जल्दी तैयारी की जाय। हुक्म पाकर हरकारा रवाना हुआ। जब तक कुमार ने स्नान-सन्धया से छुट्टी पाई तब तक दोनों तरफ की फौजें भी मैदान में जा डटीं। बेलदारों ने जमीन साफ कर दी। कुमार भी अपने अरबी घोड़े पर सवार हो मैदान में गये और देवीसिंह से कहा, शिवदत्त को कहना चाहिए कि बहुत से आदमियों का खून कराना अच्छा नहीं, जिस-जिस को बहादुरी का घमण्ड हो एक पर एक लड़ के जल्दी मामला तै कर लें। शिवदत्तसिंह अपने को अर्जुन समझते हैं, उनके मुकाबले के लिए मैं मौजूद हूं, क्यों बेचारे गरीब सिपाहियों की जान जाय।

देवीसिंह ने कहा, बहुत अच्छा, अभी इस मामले को तै कर डालता हूं! यह कह मैदान में गये और अपनी चादर हवा में दो-तीन दफे उछाली। चादर उछालनी थी कि झट बद्रीनाथ ऐयार महाराज शिवद्त्त के लश्कर से निकल के मैदान में देवीसिंह के पास आये और बोले, जय माया की! देवीसिंह ने भी जवाब दिया, जय माया की! बद्रीनाथ ने पूछा, क्यों क्या बात है जो मैदान में आकर ऐयारों को बुलाते हो?

देवी-तुमसे एक बात कहनी है!

बद्री-कहो।

देवी-तुम्हारी फौज में मर्द बहुत हैं कि औरत?

बद्री-औरत की सूरत भी दिखाई नहीं देती!

देवी-तुम्हारे यहां कोई बहादुर भी है कि सब गरीब सिपाहियों की जान लेने और आप तमाशा देखने वाले ही हैं?

बद्री-हमारे यहां खचियों बहादुर भरे हैं?

देवी-तुम्हारे कहने से तो मालूम होता है कि सब खेत की मूली ही हैं!

बद्री-यह तो मुकाबला होने ही से मालूम होगा!

देवी-तो क्यों नहीं एक पर एक लड़ के हौसला निकाल लेते? ऐसा करने से मामला भी जल्द तै हो जायगा और बेचारे सिपाहियों की जानें भी मुफ्त में न जायेंगी। हमारे कुमार तो कहते हैं कि महाराज शिवदत्त को अपनी बहादुरी का बड़ा भरोसा है, आवें पहले हम से ही भिड़ जायं, या वही जीत जायं या हम ही चुनार की गद्दी के मालिक हों, बात की बात में मामला तय होता है।

बद्री-तो इसमें हमारे महाराज कभी न हटेंगे, वह बड़े बहादुर हैं। तुम्हारे कुमार को तो चुटकी से मसल डालेंगे।

देवी-यह तो हम भी जानते हैं कि उनकी चुटकी बहुत साफ है, फिर आवें मैदान में!

इस बातचीत के बाद बद्रीनाथ लौटकर अपनी फौज में गये और जो कुछ देवीसिंह से बातचीत हुई थी जाकर महाराज शिवदत्त से कहा। सुनते ही महाराज शिवदत्त तो लाल हो गए और बोले, यह कल का लड़का मेरे साथ मुकाबला करना चाहता है! बद्रीनाथ ने कहा, फिर हियाव ही तो है, हौसला ही तो है, इसमें रंज होने की क्या बात है? मैं जहां तक समझता हूं, उनका कहना ठीक है! यह सुनते ही महाराज शिवदत्त झट घोड़ा कुदा के मैदान में आ गये और भाला उठाकर हिलाया, जिसको देख वीरेन्द्रसिंह ने भी अपने घोड़े को एड़ मारी और मैदान में शिवदत्त के मुकाबले में पहुंचकर ललकारा, अपने मुंह अपनी तारीफ करता है और कहता है कि मैं वीर हूं? क्या बहादुर लोग चोट्टे भी होते हैं? जवांमर्दी से लड़कर चंद्रकान्ता न ली गई? लानत है ऐसी बहादुरी पर! वीरेन्द्रसिंह की बात तीर की तरह महाराज शिवदत्त के कलेजे में लगी। कुछ जवाब तो न दे सके, गुस्से में भरे हुए बड़े जोर से कुमार पर नेजा चलाया, कुमार ने अपने नेजे से ऐसा झटका दिया कि उनके हाथ से नेजा छटककर दूर जा गिरा।

यह तमाशा देख दोस्त-दुश्मन दोनों तरफ से 'वाह-वाह' की आवाज आने लगी। शिवदत्त बहुत बिगड़ा और तलवार निकालकर कुमार पर दौड़ा, कुमार ने तलवार का जवाब तलवार से दिया। दोपहर तक दोनों में लड़ाई होती रही, बाद दोपहर कुमार की तलवार से शिवदत्त का घोड़ा जख्मी होकर गिर पड़ा, बल्कि खुद महाराज शिवदत्त को कई जगह जख्म लगे। घोड़े से कूदकर शिवदत्त ने कुमार के घोड़े को मारना चाहा मगर मतलब समझ के कुमार भी झट घोड़े पर से कूद पड़े और आगे होकर एक कोड़ा इस जोर से शिवदत्त की कलाई पर मारा कि हाथ से तलवार छूटकर जमीन पर गिर पड़ी जिसको दौड़ के देवीसिंह ने उठा लिया। महाराज शिवदत्त को मालूम हो गया कि कुमार हर तरह से जबर्दस्त है, अगर थोड़ी देर और लड़ाई होगी तो हम बेशक मारे जायेंगे या पकड़े जायेंगे। यह सोचकर अपनी फौज को कुमार पर धावा करने का इशारा किया। बस एकदम से कुमार को उन्होंने घेर लिया। यह देख कुमार की फौज ने भी मारना शुरू किया। फतहसिंह सेनापति और देवीसिंह कोशिश करके कुमार के पास पहुंचे और तलवार और खंजर चलाने लगे। दोनों फौजें आपस में खूब गुथ गईं और गहरी लड़ाई होने लगी।

शिवदत्त के बड़े-बड़े पहलवानों ने चाहा कि इसी लड़ाई में कुमार का काम तमाम कर दें मगर कुछ बन न पड़ा। कुमार के हाथ से बहुत दुश्मन मारे गये। शाम को उतारे का डंका बजा और लड़ाई बंद हुई। फौज ने कमर खोली। कुमार अपने खेमे में आये मगर बहुत सुस्त हो रहे थे, फतहसिंह सेनापति भी जख्मी हो गये थे। रात को सबों ने आराम किया।

महाराज शिवदत्त ने अपने दीवान और पहलवानों से राय ली थी कि अब क्या करना चाहिए। फौज तो वीरेन्द्रसिंह की हमसे बहुत कम है मगर उनकी दिलावरी से हमारा हौसला टूट जाता है क्योंकि हमने भी उससे लड़ के बहुत जक उठाई। हमारी तो यही राय है कि रात को कुमार के लश्कर पर धावा मारें। इस राय को सबों ने पसंद किया। थोड़ी रात रहे शिवदत्त ने कुमार की फौज पर पांच सौ सिपाहियों के साथ धावा किया। बड़ा ही गड़बड़ मचा। अंधेरी रात में दोस्त-दुश्मनों का पता लगाना मुश्किल था। कुमार की फौज दुश्मन समझ अपने ही लोगों को मारने लगी। यह खबर वीरेन्द्रसिंह को भी लगी। झट अपने खेमे से बाहर निकल आए। देवीसिंह ने बहुत से आदमियों को महताब जलाने के लिए बांटीं। यह महताब तेजसिंह ने अपनी तरकीब से बनाई थीं। इसके जलाते ही उजाला हो गया और दिन की तरह मालूम होने लगा। अब क्या था, कुल पांच सौ आदमियों को मारना क्या, सुबह होते-होते शिवदत्त के पांच सौ आदमी मारे गए मगर रोशनी होने के पहले करीब हजार आदमी कुमार की तरफ के नुकसानहो चुके थे जिसका रंज वीरेन्द्रसिंह को बहुत हुआ और सुबह की लड़ाई बंद न होने दी।

दोनों फौजें फिर गुथ गईं। कुमार ने जल्दी से स्नान किया और संध्या-पूजा करके हरबों को बदन पर सजा दुश्मन की फौज में घुस गए। लड़ाई खूब हो रही थी, किसी को तनोबदन की खबर न थी। एकाएक पूरब और उत्तार के कोने से कुछ फौजी सवार तेजी से आते हुए दिखाई दिये जिनके आगे-आगे एक सवार बहुत उम्दा पोशाक पहिरे अरबी घोड़े पर सवार घोड़ा दौड़ाए चला आता था। उसके पीछे और भी सवार जो करीब-करीब पांच सौ के होंगे घोड़ा फेंके चले आ रहे थे। अगले सवार की पोशाक और हरबों से मालूम होता था कि यह सबों का सरदार है। यह सरदार मुंह पर नकाब डाले हुए था और उसके साथ जितने सवार पीछे चले आ रहे थे उन लोगों के भी मुंह पर नकाब पड़ी हुई थी।

इस फौज ने पीछे से महाराज शिवदत्त की फौज पर धावा किया और खूब मारा। इधर से वीरेन्द्रसिंह की फौज ने जब देखा कि दुश्मनों को मारने वाला एक और आ पहुंचा, तबीयत बढ़ गई और हौसले के साथ लड़ने लगे। दोतरफी चोट महाराज शिवदत्त की फौज सम्हाल न पाई और भाग चली। फिर तो कुमार की बन पड़ी, दो कोस तक पीछा किया, आखिर फतह का डंका बजाते अपने पड़ाव पर आए। मगर हैरान थे कि ये नकाबपोश सवार कौन थे जिन्होंने बड़े वक्त पर हमारी मदद की और फिर जिधर से आये थे उधर ही चले गये। कोई किसी की जरा मदद करता है तो अहसान जताने लगता है मगर इन्होंने हमारा सामना भी नहीं किया, यह बड़ी बहादुरी का काम है। बहुत सोचा मगर कुछ समझ न पड़ा।

महाराज शिवदत्त का बिल्कुल माल-खजाना और खेमा वगैरह कुमार के हाथ लगा। जब कुमार निश्चित हुए उन्होंने देवीसिंह से पूछा, क्या तुम कुछ बता सकते हो कि वे नकाबपोश कौन थे जिन्होंने हमारी मदद की? देवीसिंह ने कहा, मेरे कुछ भी ख्याल में नहीं आता, मगर वाह! बहादुरी इसको कहते हैं!!इतने में एक जासूस ने आकर खबर दी कि दुश्मन थोड़ी दूर जाकर अटक गये हैं और फिर लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं।

बयान - 6

तेजसिंह चंद्रकान्ता और चपला का पता लगाने के लिए कुंअर वीरेन्द्रसिंह से बिदा हो फौज के हाते के बाहर आये और सोचने लगे कि अब किधर जायं,कहां ढूंढें? दुश्मन की फौज में देखने की तो कोई जरूरत नहीं क्योंकि वहां चंद्रकान्ता को कभी नहीं रखा होगा, इससे चुनार ही चलना ठीक है। यह सोचकर चुनार ही की तरफ रवाना हुए और दूसरे दिन सबेरे वहां पहुंचे। सूरत बदलकर इधर-उधर घूमने लगे। जगह-जगह पर अटकते और अपना मतलब निकालने की फिक्र करते थे मगर कुछ फायदा न हुआ, कुमारी की खबर कुछ भी मालूम न हुई। रात को तेजसिंह सूरत बदल किले के अंदर घुस गये और इधर-उधर ढूंढने लगे। घूमते-घूमते मौका पाकर वे एक काले कपड़े से अपने बदन को ढांक कमंद फेंक महल पर चढ़ गये। इस समय आधीी रात जा चुकी होगी। छत पर से तेजसिंह ने झांककर देखा तो सन्नाटा मालूम पड़ा मगर रोशनी खूब हो रही थी। तेजसिंह नीचे उतरे और एक दलान में खड़े होकर देखने लगे। सामने एक बड़ा कमरा था जो कि बहुत खूबसूरती के साथ बेशकीमती असबाबों और तस्वीरों से सजा हुआ था। रोशनी ज्यादे न थी सिर्फ शमादान जल रहे थे, बीच में ऊंची मसनद पर एक औरत सो रही थी। चारों तरफ उसके कई औरतें भी फर्श पर पड़ी हुई थीं। तेजसिंह आगे बढ़े और एक-एक करके रोशनी बुझाने लगे, यहां तक कि सिर्फ उस कमरे में एक रोशनी रह गई और सब बुझ गईं। अब तेजसिंह उस कमरे की तरफ बढ़े, दरवाजे पर खड़े होकर देखा तो पास से वह सूरत बखूबी दिखाई देने लगी जिसको दूर से देखा था। तमाम बदन शबनमी से ढंका हुआ मगर खूबसूरत चेहरा खुला था, करवट के सबब कुछ हिस्सा मुंह का नीचे के मखमली तकिए पर होने से छिपा हुआ था, गोरा रंग, गालों पर सुर्खी जिस पर एक लट खुलकर आ पड़ी थी जो बहुत ही भली मालूम होती थी। आंख के पास शायद किसी जख्म का घाव था मगर यह भी भला मालूम होता था। तेजसिंह को यकीन हो गया कि बेशक महाराज शिवदत्त की रानी यही है। कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने अपने बटुए में से कलम-दवात और एक टुकड़ा कागज का निकाला और जल्दी से उस पर यह लिखा- न मालूम क्यों इस वक्त मेरा जी चंद्रकान्ता से मिलने को चाहता है। जो हो, मैं तो उससे मिलने जाती हूं। रास्ते और ठिकाने का पता मुझे लग चुका है।

बाद इसके पलंग के पास जा बेहोशी का धतुरा रानी की नाक के पास ले गये जो सांस लेती दफे उसके दिमाग पर चढ़ गया और वह एकदम से बेहोश हो गई। तेजसिंह ने नाक पर हाथ रखकर देखा, बेहोशी की सांस चल रही थी, झट रानी को तो कपड़े में बांधा और पुर्जा जो लिखा था वह तकिए के नीचे रख वहां से उसी कमंद के जरिए से बाहर हुए और गंगा किनारे वाली खिड़की जो भीतर से बंद थी, खोलकर तेजी के साथ पहाड़ी की तरफ निकल गये। बहुत दूर जा एक दर्रे में रानी को और ज्यादे बेहोश करके रख दिया और फिर लौटकर किले के दरवाजे पर आ एक तरफ किनारे छिपकर बैठ गये।

बयान - 7

अब सबेरा हुआ ही चाहता है। महल में लौंडियों की आंखें खुलीं तो महारानी को न देखकर घबरा गईं, इधर-उधर देखा, कहीं नहीं। आखिर खूब गुल-शोर मचा, चारों तरफ खोज होने लगी, पर कहीं पता न लगा। यह खबर बाहर तक फैल गई, सबों को फिक्र पैदा हुई। महाराज शिवदत्तसिंह लड़ाई से भागे हुए दस-पंद्रह सवारों के साथ चुनार पहुंचे, किले के अंदर घुसते ही मालूम हुआ कि महल में से महारानी गायब हो गईं। सुनते ही जान सूख गई, दोहरी चपेट बैठी, धड़धड़ाते हुए महल में चले आये, देखा कि कुहराम मचा हुआ है, चारों तरफ से रोने की आवाज आ रहीहै।

इस वक्त महाराज शिवदत्त की अजब हालत थी, हवास ठिकाने नहीं थे, लड़ाई से भागकर थोड़ी दूर पर फौज को तो छोड़ दिया था और अब ऐयारों को कुछ समझा-बुझा आप चुनार चले आये थे, यहां यह कैफियत देखी। आखिर उदास होकर महारानी के बिस्तरे के पास आये और बैठकर रोने लगे। तकिये के नीचे से एक कागज का कोना निकला हुआ दिखाई पड़ा जिसे महाराज ने खोला, देखा कुछ लिखा है। यह कागज वही था जिसे तेजसिंह ने लिखकर रख दिया था। अब उस पुर्जे को देख महाराज कई तरह की बातें सोचने लगे। एक तो महारानी का लिखा नहीं मालूम होता है, उनके अक्षर इतने साफ नहीं हैं। फिर किसने लिखकर रख दिया? अगर रानी ही का लिखा है तो उन्हें यह कैसे मालूम हुआ कि चंद्रकान्ता फलाने जगह छिपाई गई है? अब क्या किया जाय? कोई ऐयार भी नहीं जिसको पता लगाने के लिए भेजा जाय। अगर किसी दूसरे को वहां भेजूं जहां चंद्रकान्ता कैद है तो बिल्कुल भण्डा फूट जाय।

ऐसी-ऐसी बहुत-सी बातें देर तक महाराज सोचते रहे। आखिर जी में यही आया कि चाहे जो हो मगर एक दफे जरूर उस जगह जाकर देखना चाहिए जहां चंद्रकान्ता कैद है। कोई हर्ज नहीं अगर हम अकेले जाकर देखें, मगर दिन में नहीं, शाम हो जाय तो चलें। यह सोचकर बाहर आये और अपने दीवानखाने में भूखे-प्यासे चुपचाप बैठे रहे, किसी से कुछ न कहा मगर बिना हुक्म महाराज के बहुत से आदमी महारानी का पता लगाने जा चुके थे।

शाम होने लगी, महाराज ने अपनी सवारी का घोड़ा मंगवाया और सवार हो अकेले ही किले के बाहर निकले और पूरब की तरफ रवाना हुए। अब बिल्कुल शाम बल्कि रात हो गई, मगर चांदनी रात होने के सबब साफ दिखाई देता था। तेजसिंह जो किले के दरवाजे के पास ही छिपे हुए थे, महाराज शिवदत्त को अकेले घोड़े पर जाते देख साथ हो लिये। तीन कोस तक पीछे-पीछे तेजी के साथ चले गये मगर महाराज को यह न मालूम हुआ कि साथ-साथ कोई छिपा हुआ आ रहा है। अब महाराज ने अपने घोड़े को एक नाले में चलाया जो बिल्कुल सूखा पड़ा था। जैसे-जैसे आगे जाते थे नाला गहरा मिलता जाता था और दोनों तरफ के पत्थर के करारे ऊंचे होते जाते थे। दोनों तरफ बड़ा भारी डरावना जंगल तथा बड़े-बड़े साखू तथा आसन के पेड़ थे। खूनी जानवरों की आवाजें कान में पड़ रही थीं। जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाते थे करारे ऊंचे और नाले के किनारे वाले पेड़ आपस में ऊपर से मिलते जाते थे।

इसी तरह से लगभग एक कोस चले गये। अब नाले में चंद्रमा की चांदनी बिल्कुल नहीं मालूम होती क्योंकि दोनों तरफ से दरख्त आपस में बिल्कुल मिल गये थे। अब वह नाला नहीं मालूम होता बल्कि कोई सुरंग मालूम होती है। महाराज का घोड़ा पथरीली जमीन और अंधेरा होने के सबब धीर - धीर जाने लगा, तेजसिंह बढ़कर महाराज के और पास हो गये। यकायक कुछ दूर पर एक छोटी-सी रोशनी नजर पड़ी जिससे तेजसिंह ने समझा कि शायद यह रास्ता यहीं तक आने का है और यही ठीक भी निकला। जब रोशनी के पास पहुंचे देखा कि एक छोटी-सी गुफा है जिसके बाहर दोनों तरफ लंबे-लंबे ताकतवर सिपाही नंगी तलवार हाथ में लिए पहरा दे रहे हैं जो बीस के लगभग होंगे। भीतर भी साफ दिखाई देता था कि दो औरतें पत्थरों पर ढासना लगाये बैठी हैं। तेजसिंह ने पहचान तो लिया कि दोनों चंद्रकान्ता और चपला हैं मगर सूरत साफ-साफ नहीं नजर पड़ी।

महाराज को देखकर सिपाहियों ने पहचाना और एक ने बढ़कर घोड़ा थाम लिया, महाराज घोड़े पर से उतर पड़े। सिपाहियों ने दो मशाल जलाये जिनकी रोशनी में तेजसिंह को अब साफ चंद्रकान्ता और चपला की सूरत दिखाई देने लगी। चंद्रकान्ता का मुंह पीला हो रहा था, सिर के बाल खुले हुए थे, और सिर फटा हुआ था। मिट्टी में सनी हुई बदहवास एक पत्थर से लगी पड़ी थी और चपला बगल में एक पत्थर के सहारे उठंगी हुई चंद्रकान्ता के सिर पर हाथ रखे बैठी थी। सामने खाने की चीजें रखी हुई थीं जिनके देखने ही से मालूम होता था कि किसी ने उन्हें छुआ तक नहीं। इन दोनों की सूरत से नाउम्मीदी बरस रही थी जिसे देखते ही तेजसिंह की आंखों से आंसू निकल पड़े।

महाराज ने आते ही इधर-उधर देखा। जहां चंद्रकान्ता बैठी थी वहां भी चारों तरफ देखा, मगर कुछ मतलब न निकला क्योंकि वह तो रानी को खोजने आये थे, उस पुर्जे पर जो रानी के बिस्तर पर पाया था महाराज को बड़ी उम्मीद थी मगर कुछ न हुआ, किसी से कुछ पूछा भी नहीं, चंद्रकान्ता की तरफ भी अच्छी तरह नहीं देखा और लौटकर घोड़े पर सवार हो पीछे फिरे। सिपाहियों को महाराज के इस तरह आकर फिर जाने से ताज्जुब हुआ मगर पूछता कौन?मजाल किसकी थी? तेजसिंह ने जब महाराज को फिरते देखा तो चाहा कि वहीं बगल में छिप रहें, मगर छिप न सके क्योंकि नाला तंग था और ऊपर चढ़ जाने को भी कहीं जगह न थी, लाचार नाले के बाहर होना ही पड़ा। तेजी के साथ महाराज के पहले नाले के बाहर हो गये और एक किनारे छिप रहे। महाराज वहां से निकल शहर की तरफ रवाना हुए।

अब तेजसिंह सोचने लगे कि यहां से मैं अकेले चंद्रकान्ता को कैसे छुड़ा सकूंगा। लड़ने का मौका नहीं, करूं तो क्या करूं? अगर महाराज की सूरत बन जाऊं और कोई तरकीब करूं तो भी ठीक नहीं होता क्योंकि महाराज अभी यहां से लौटे हैं, दूसरी कोई तरकीब करूं और काम न चले, बैरी को मालूम हो जाय,तो यहां से फिर चंद्रकान्ता दूसरी जगह छिपा दी जायगी तब और भी मुश्किल होगी। इससे यही ठीक है कि कुमार के पास लौट चलूं और वहां से कुछ आदमियों को लाऊं क्योंकि इस नाले में अकेले जाकर इन लोगों का मुकाबला करना ठीक नहीं है।

यही सब-कुछ सोच तेजसिंह विजयगढ़ की तरफ चले, रात भर चले गये, दूसरे दिन दोपहर को वीरेन्द्रसिंह के पास पहुंचे। कुमार ने तेजसिंह को गले लगाया और बेताबी के साथ पूछा, क्यों कुछ पता लगा? जवाब में 'हां' सुनकर कुमार बहुत खुश हुए और सभी को बिदा किया, केवल कुमार, देवीसिंह,फतहसिंह सेनापति और तेजसिंह रह गये। कुमार ने खुलासा हाल पूछा, तेजसिंह ने सब हाल कह सुनाया और बोले, अगर किसी दूसरे को छुड़ाना होता या किसी गैर को पकड़ना होता तो मैं अपनी चालाकी कर गुजरता, अगर काम बिगड़ जाता तो भाग निकलता, मगर मामला चंद्रकान्ता का है जो बहुत सुकुमार है। न तो मैं अपने हाथ से उसकी गठड़ी बांधा सकता हूं और न किसी तरह की तकलीफ दिया चाहता हूं। होना ऐसा चाहिए कि वार खाली न जाय। मैं सिर्फ देवीसिंह को लेने आया हूं और अभी लौट जाऊंगा, मुझे मालूम हो गया कि आपने महाराज शिवदत्त पर फतह पाई है। अभी कोई हर्ज भी देवीसिंह के बिना आपका न होगा।

कुमार ने कहा, देवीसिंह भी चलें और मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं, क्योंकि यहां तो अभी लड़ाई की कोई उम्मीद नहीं और फिर फतहसिंह हैं ही और कोई हर्ज भी नहीं। तेजसिंह ने कहा, अच्छी बात है आप भी चलिये। यह सुनकर कुमार उसी वक्त तैयार हो गये और फतहसिंह को बहुत-सी बातें समझा-बुझाकर शाम होते-होते वहां से रवाना हुए। कुमार घोड़े पर, तेजसिंह और देवीसिंह पैदल कदम बढ़ाते चले। रास्ते में कुमार ने शिवद्त्तसिंह पर फतह पाने का हाल बिल्कुल कहा और उन सवारों का हाल भी कहा जो मुंह पर नकाब डाले हुए थे और जिन्होंने बड़े वक्त पर मदद की थी। उनका हाल सुनकर तेजसिंह भी हैरान हुए मगर कुछ ख्याल में न आया कि वे नकाबपोश कौन थे।

यही सब सोचते जा रहे थे, रात चांदनी थी, रास्ता साफ दिखाई दे रहा था, कुल चार कोस के लगभग गए होंगे कि रास्ते में पं. बद्रीनाथ अकेले दिखाई पड़े और उन्होंने भी कुमार को देख पास आ सलाम किया। कुमार ने सलाम का जवाब हंसकर दिया। देवीसिंह ने कहा, अजी बद्रीनाथजी, आप क्या उस डरपोक गीदड़ दगाबाज और चोर का संग किए हैं! हमारे दरबार में आइए, देखिए हमारा सरदार क्या शेरदिल और इंसाफपसंद है। बद्रीनाथ ने कहा, तुम्हारा कहना बहुत ठीक है और एक दिन ऐसा ही होगा, मगर जब तक महाराज शिवदत्त से मामला तै नहीं होता मैं कब आपके साथ हो सकता हूं और अगर हो भी जाऊं तो आप लोग कब मुझ पर विश्वास करेंगे, आखिर मैं भी ऐयार हूं! इतना कह और कुमार को सलाम कर जल्दी दूसरा रास्ता पकड़ एक घने जंगल में जा नजर से गायब हो गये। तेजसिंह ने कुमार से कहा, रास्ते में बद्रीनाथ का मिलना ठीक न हुआ, अब वह जरूर इस बात की खोज में होगा कि हम लोग कहां जाते हैं। देवीसिंह ने कहा, हां इसमें कोई शक नहीं कि यह सगुन खराब हुआ। यह सुनकर कुमार का कलेजा धाड़कने लगा। बोले, फिर अब क्या किया जाय? तेजसिंह ने कहा, इस वक्त और कोई तरकीब तो हो नहीं सकती है, हां एक बात है कि हम लोग जंगल का रास्ता छोड़ मैदान-मैदान चलें। ऐसा करने से पीछे का आदमी आता हुआ मालूम होगा। कुमार ने कहा, अच्छा तुम आगे चलो।

अब वे तीनों जंगल छोड़ मैदान में हो लिए। पीछे फिर-फिर के देखते जाते थे मगर कोई आता हुआ मालूम न पड़ा। रात भर बेखटके चलते गए। जब दिन निकला एक नाले के किनारे तीनों आदमियों ने बैठ जरूरी कामों से छुट्टी पा स्नान-संध्या किया और फिर रवाना हुए। पहर दिन चढ़ते-चढ़ते एक बड़े जंगल में ये लोग पहुंचे 1 जहां से वह नाला जिसमें चंद्रकान्ता और चपला थीं, दो कोस बाकी था। तेजसिंह ने कहा, दिन इसी जंगल में बिताना चाहिए। शाम हो जाय तो वहां चलें, क्योंकि काम रात ही में ठीक होगा। यह कह एक बहुत बड़े सलई के पेड़ तले डेरा जमाया। कुमार के वास्ते जीनपोश बिछा दिया, घोड़े को खोल गले में लंबी रस्सी डाल एक पेड़ से बांधा चरने के लिए छोड़ दिया। दिन भर बातचीत और तरकीब सोचने में गुजर गया, सूरज अस्त होने पर ये लोग वहां से रवाना हुए। थोड़ी ही देर में उस नाले के पास जा पहुंचे, पहले दूर ही खड़े होकर चारों तरफ निगाह दौड़ाकर देखा, जब किसी की आहट न मिली तब नाले में घुसे।

कुमार इस नाले को देख बहुत हैरान हुए और बोले, अजब भयानक नाला है! धीरे- धीरे आगे बढ़े, जब नाले के आखिर में पहुंचे जहां पहले दिन तेजसिंह ने चिराग जलते देखा था तो वहां अंधेरा पाया। तेजसिंह का माथा ठनका कि यह क्या मामला है। आखिर उस कोठरी के दरवाजे पर पहुंचे जिसमें कुमारी और चपला थीं। देखा कि कई आदमी जमीन पर पड़े हैं। अब तो तेजसिंह ने अपने बटुए में से सामान निकाल रोशनी की जिससे साफ मालूम हुआ कि जितने पहरे वाले पहले दिन देखे थे, सब जख्मी होकर मरे पड़े हैं। अंदर घुसे, कुमारी और चपला का पता नहीं, हां दोनों के गहने सब टूटे-फूटे पड़े थे और चारों तरफ खून जमा हुआ था। कुमार से न रहा गया, एकदम 'हाय' करके गिर पड़े और आंसू बहाने लगे। तेजसिंह समझाने लगे कि आप इतने बेताब क्यों हो गये। जिस ईश्वर ने यहां तक हमें पहुंचाया वही फिर उस जगह पहुंचायेगा जहां कुमारी है! कुमार ने कहा, भाई, अब मैं चंद्रकान्ता के मिलने से नाउम्मीद हो गया, जरूर वह परलोक को गई। तेजसिंह ने कहा, कभी नहीं, अगर ऐसा होता तो इन्हीं लोगों में वह भी पड़ी होती। देवीसिंह बोले, कहीं बद्रीनाथ की चालाकी तो नहीं भाई! उन्होंने जवाब दिया, यह बातभी जी में नहीं बैठती, भला अगर हम यह भी समझ लें कि बद्रीनाथ की चालाकी हुई तो इन प्यादों को मारने वाला कौन था? अजब मामला है, कुछ समझ में नहीं आता। खैर कोई हर्ज नहीं, वह भी मालूम हो जायगा, अब यहां से जल्दी चलना चाहिए।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह की इस वक्त कैसी हालत थी उसका न कहना ही ठीक है। बहुत समझा-बुझाकर वहां से कुमार को उठाया और नाले के बाहर लाये। देवीसिंह ने कहा, भला वहां तो चलो जहां तुमने शिवदत्त की रानी को रखा है। तेजसिंह ने कहा चलो। तीनों वहां गये, देखा कि महारानी कलावती भी वहां नहीं है, और भी तबीयत परेशान हुई।

आधी रात से ज्यादा जा चुकी थी, तीनों आदमी बैठे सोच रहे थे कि यह क्या मामला हो गया। यकायक देवीसिह बोले, गुरुजी, मुझे एक तरकीब सूझी है जिसके करने से यह पता लग जायगा कि क्या मामला है। आप ठहरिए, इसी जगह आराम कीजिए मैं पता लगाता हूं, अगर बन पड़ेगा तो ठीक पता लगाने का सबूत भी लेता आऊंगा। तेजसिंह ने कहा, जाओ तुम ही कोई तारीफ का काम करो, हम दोनों इसी जंगल में रहेंगे। देवीसिंह एक देहाती पंडित की सूरत बना रवाना हुए। वहां से चुनार करीब ही था, थोड़ी देर में जा पहुंचे। दूर से देखा कि एक सिपाही टहलता हुआ पहरा दे रहा है। एक शीशी हाथ में ले उसके पास गये और एक अशर्फी दिखाकर देहाती बोली में बोले, इस अशर्फी को आप लीजिए और इस इत्र को पहचान दीजिए कि किस चीज का है। हम देहात के रहने वाले हैं, वहां एक गंधी गया और उसने यह इत्र दिखाकर हमसे कहा कि 'अगर इसको पहचान दो तो हम पांच अशर्फी तुमको दें' सो हम देहाती आदमी क्या जानें कौन चीज का इत्र है, इसलिए रातों-रात यहां चले आए, परमेश्वर ने आपको मिला दिया है, आप राजदरबार के रहने वाले ठहरे, बहुत इत्र देखा होगा,इसको पहचान के बता दीजिए तो हम इसी समय लौट के गांव पहुंच जायं, सबेरे ही जवाब देने का उस गंधी से वादा है। देवीसिंह की बात सुन और पास ही एक दुकान के दरवाजे पर जलते हुए चिराग की रोशनी में अशर्फी को देख खुश हो वह सिपाही दिल में सोचने लगा कि अजब बेवकूफ आदमी से पाला पड़ा है। मुफ्त की अशर्फी मिलती है ले लो, जो कुछ भी जी में आवे बता दो, क्या कल मुझसे अशर्फी फेरने आयेगा? यह सोच अशर्फी तो अपने खलीते में रख ली और कहा, यह कौन बड़ी बात है, हम बता देते हैं! उस शीशी का मुंह खोलकर सूंघा, बस फिर क्या था सूंघते ही जमीन पर लेट गया, दीन दुनिया की खबर न रही, बेहोश होने पर देवीसिंह उस सिपाही की गठरी बांधा तेजसिंह के पास ले आये और कहा कि यह किले का पहरा देने वाला है, पहले इससे पूछ लेना चाहिए, अगर काम न चलेगा तो फिर दूसरी तरकीब की जायगी। यह कह उस सिपाही को होश में लाये। वह हैरान हो गया कि यकायक यहां कैसे आ फंसे,देवीसिंह को उसी देहाती पंडित की सूरत में सामने खड़े देखा, दूसरी ओर दो बहादुर और दिखाई दिये, कुछ कहा ही चाहता था कि देवीसिंह ने पूछा, यह बताओ कि तुम्हारी महारानी कहां हैं? बताओ जल्दी! उस सिपाही ने हाथ-पैर बंधे रहने पर भी कहा कि तुम महारानी को पूछने वाले कौन हो, तुम्हें मतलब? तेजसिंह ने उठकर एक लात मारी और कहा, बताता है कि मतलब पूछता है। अब तो उसने बेउज्र कहना शुरू कर दिया कि महारानी कई दिनों से गायब हैं, कहीं पता नहीं लगता, महल में गुल-गपाड़ा मचा हुआ है, इससे ज्यादे कुछ नहीं जानते।

तेजसिंह ने कुमार से कहा, अब पता लगाना कई रोज का काम हो गया, आप अपने लश्कर में जाइये, मैं ढूंढने की फिक्र करता हूं। कुमार ने कहा, अब मैं लश्कर में न जाऊंगा। तेजसिंह ने कहा, अगर आप ऐसा करेंगे तो भारी आफत होगी, शिवदत्त को यह खबर लगी तो फौरन लड़ाई शुरू कर देगा,महाराज जयसिंह यह हाल पाकर और भी घबड़ा जायेंगे, आपके पिता सुनते ही सूख जायेंगे। कुमार ने कहा, चाहे जो हो, जब चंद्रकान्ता ही नहीं है तो दुनिया में कुछ हो मुझे क्या परवाह! तेजसिंह ने बहुत समझाया कि ऐसा न करना चाहिए, आप धीरज न छोड़िये, नहीं तो हम लोगों का भी जी टूट जायगा, फिर कुछ न कर सकेंगे। आखिर कुमार ने कहा, अच्छा कल भर हमको अपने साथ रहने दो, कल तक अगर पता न लगा तो हम लश्कर में चले जायेंगे और फौज लेकर चुनार पर चढ़ जायेंगे। हम लड़ाई शुरू कर देंगे, तुम चंद्रकान्ता की खोज करना। तेजसिंह ने कहा, अच्छा यही सही। ये सब बातें इस तौर पर हुई थीं कि उस सिपाही को कुछ भी नहीं मालूम हुआ जिसको देवीसिंह पकड़ लाये थे।

तेजसिंह ने उस सिपाही को एक पेड़ के साथ कस के बांधा दिया और देवीसिंह से कहा, अब तुम यहां कुमार के पास ठहरो मैं जाता हूं और जो कुछ हाल है पता लगा लाता हूं। देवीसिंह ने कहा, अच्छा जाइये। तेजसिंह ने देवीसिंह से कई बातें पूछीं और उस सिपाही का भेष बना किले की तरफ रवाना हुए।

बयान - 8

जिस जंगल में कुमार और देवीसिंह बैठे थे और उस सिपाही को पेड़ से बांधा था वह बहुत ही घना था। वहां जल्दी किसी की पहुंच नहीं हो सकती थी। तेजसिंह के चले जाने पर कुमार और देवीसिंह एक साफ पत्थर की चट्टान पर बैठे बातें कर रहे थे। सबेरा हुआ ही चाहता था कि पूरब की तरफ से किसी का फेंका हुआ एक छोटा-सा पत्थर कुमार के पास आ गिरा। ये दोनों ताज्जुब से उस तरफ देखने लगे कि एक पत्थर और आया मगर किसी को लगा नहीं। देवीसिंह ने जोर से आवाज दी, कौन है जो छिपकर पत्थर मारता है, सामने क्यों नहीं आता है? जवाब में आवाज आई, शेर की बोली बोलने वाले गीदड़ों को दूर से ही मारा जाता है! यह आवाज सुनते ही कुमार को गुस्सा चढ़ आया, झट तलवार के कब्जे पर हाथ रखकर उठ खड़े हुए। देवीसिंह ने हाथ पकड़कर कहा, आप क्यों गुस्सा करते हैं, मैं अभी उस नालायक को पकड़ लाता हूं, वह है क्या चीज? यह कह देवीसिंह उस तरफ गये जिधर से आवाज आई थी। इनके आगे बढ़ते ही एक और पत्थर पहुंचा जिसे देख देवीसिंह तेजी के साथ आगे बढ़े। एक आदमी दिखाई पड़ा मगर घने पेड़ों में अंधॆरा ज्यादे होने के सबब उसकी सूरत नहीं नजर आई। वह देवीसिंह को अपनी तरफ आते देख एक और पत्थर मारकर भागा। देवीसिंह भी उसके पीछे दौड़े मगर वह कई दफे इधर-उधर लोमड़ी की तरह चक्कर लगाकर उन्हीं घने पेड़ों में गायब हो गया। देवीसिंह भी इधर-उधर खोजने लगे, यहां तक कि सबेरा हो गया, बल्कि दिन निकल आया लेकिन साफ दिखाई देने पर भी कहीं उस आदमी का पता न लगा। आखिर लाचार होकर देवीसिंह उस जगह फिर आये जिस जगह कुमार को छोड़ गये थे। देखा तो कुमार नहीं। इधर-उधर देखा कहीं पता नहीं। उस सिपाही के पास आये जिसको पेड़ के साथ बांधा दिया था, देखा तो वह भी नहीं। जी उड़ गया,आंखों में आंसू भर आये, उसी चट्टान पर बैठे और सिर पर हाथ रखकर सोचने लगे-अब क्या करें, किधर ढूंढें, कहां जायें! अगर ढूंढते-ढूंढते कहीं दूर निकल गये और इधर तेजसिंह आये और हमको न देखा तो उनकी क्या दशा होगी? इन सब बातों को सोच देवीसिंह और थोड़ी देर इधर-उधर देख-भालकर फिर उसी जगह चले आये और तेजसिंह की राह देखने लगे। बीच-बीच में इस तरह कई दफे देवीसिंह ने उठ-उठकर खोज की मगर कुछ काम न निकला।

बयान - 9

तेजसिंह पहरे वाले सिपाही की सूरत में किले के दरवाजे पर पहुंचे। कई सिपाहियों ने जो सबेरा हो जाने के सबब जाग उठे थे तेजसिंह की तरफ देखकर कहा, जैरामसिंह, तुम कहां चले गये थे? यहां पहरे में गड़बड़ पड़ गया। बद्रीनाथजी ऐयार पहरे की जांच करने आये थे, तुम्हारे कहीं चले जाने का हाल सुनकर बहुत खफा हुए और तुम्हारा पता लगाने के लिए आप ही कहीं गए हैं, अभी तक नहीं आये। तुम्हारे सबब से हम लोगों पर खफगी हुई! जैरामसिंह (तेजसिंह) ने कहा, मेरी तबीयत खराब हो गई थी, हाजत मालूम हुई इस सबब से मैदान चला गया, वहां कई दस्त आये जिससे देर हो गई और फिर भी कुछ पेट में गड़बड़ मालूम पड़ता है। भाई, जान है तो जहान है, चाहे कोई रंज हो या खुश हो यह जरूरत तो रोकी नहीं जाती, मैं फिर जाता हूं और अभी आता हूं। यह कह नकली जैरामसिंह तुरंत वहां से चलता बना।

पहरे वालों से बातचीत करके तेजसिंह ने सुन लिया कि बद्रीनाथ यहां आये थे और उनकी खोज में गये हैं, इससे वे होशियार हो गए। सोचा कि अगर हमारे यहां होते बद्रीनाथ लौट आवेंगे तो जरूर पहचान जायेंगे, इससे यहां ठहरना मुनासिब नहीं। आखिर थोड़ी दूर जा एक भिखमंगे की सूरत बना सड़क किनारे बैठ गए और बद्रीनाथ के आने की राह देखने लगे। थोड़ी देर गुजरी थी कि दूर से बद्रीनाथ आते दिखाई पड़े, पीछे-पीछे पीठ पर गट्ठर लादे नाज़िम था जिसके पीछे वह सिपाही भी था जिसकी सूरत बना तेजसिंह आए थे। तेजसिंह इस ठाठ से बद्रीनाथ को आते देख चकरा गए। जी में सोचने लगे कि ढंग बुरे नजर आते हैं। इस सिपाही को जो पीछे-पीछे चला आता है मैं पेड़ के साथ बांधा आया था, उसी जगह कुमार और देवीसिंह भी थे। बिना कुछ उपद्रव मचाये इस सिपाही को ये लोग नहीं पा सकते थे। जरूर कुछ न कुछ बखेड़ा हुआ है। जरूर उस गट्ठर में जो नाज़िम की पीठ पर है, कुमार होंगे या देवीसिंह, मगर इस वक्त बोलने का मौका नहीं, क्योंकि यहां सिवाय इन लोगों के हमारी मदद करने वाला कोई न होगा। यह सोचकर तेजसिंह चुपचाप उसी जगह बैठे रहे। जब ये लोग गट्ठर लिए किले के अंदर चले गए तब उठकर उस तरफ का रास्ता लिया जहां कुमार और देवीसिंह को छोड़ आये थे। देवीसिंह उसी जगह पत्थर पर उदास बैठे कुछ सोच रहे थे कि तेजसिंह आ पहुंचे। देखते ही देवीसिंह दौड़कर पैरों पर गिर पड़े और गुस्से भरी आवाज में बोले, गुरुजी कुमार तो दुश्मनों के हाथ पड़ गए!

तेजसिंह पत्थर पर बैठ गए और बोले, खैर खुलासा हाल कहो क्या हुआ! देवीसिंह ने जो कुछ बीता था सब हाल कह सुनाया। तेजसिंह ने कहा, देखो आजकल हम लोगों का नसीब कैसा उल्टा हो रहा है, फिक्र चारों तरफ की ठहरी मगर करें तो क्या करें? बेचारी चंद्रकान्ता और चपला न मालूम किस आफत में फंस गईं और उनकी क्या दशा होगी इसकी फिक्र तो थी ही मगर कुमार का फंसना तो गजब हो गया। थोड़ी देर तक देवीसिंह और तेजसिंह बातचीत करते रहे, इसके बाद उठकर दोनों ने एक तरफ का रास्ता लिया।

बयान - 10

चुनार के किले के अंदर महाराज शिवदत्त के खास महल में एक कोठरी के अंदर जिसमें लोहे के छड़दार किवाड़ लगे हुए थे, हाथों में हथकड़ी, पैरों में बेड़ी पड़ी हुई, दरवाजे के सहारे उदास मुख वीरेन्द्रसिंह बैठे हैं। पहरे पर कई औरतें कमर से छुरा बांधो टहल रही हैं। कुमार धीरे-धीरे भुनभुना रहे हैं, हाय चंद्रकान्ता का पता लगा भी तो किसी काम का नहीं, भला पहले तो यह मालूम हो गया था कि शिवदत्त चुरा ले गया, मगर अब क्या कहा जाय! हाय,चंद्रकान्ता, तू कहां है? मुझको बेड़ी और यह कैद कुछ तकलीफ नहीं देती जैसा तेरा लापता हो जाना खटक रहा है। हाय, अगर मुझको इस बात का यकीन हो जाय कि तू सही-सलामत है और अपने मां-बाप के पास पहुंच गई तो इसी कैद में भूखे-प्यासे मर जाना मेरे लिए खुशी की बात होगी मगर जब तक तेरा पता नहीं लगता जिंदगी बुरी मालूम होती है। हाय, तेरी क्या दशा होगी, मैं कहां ढूढूं! यह हथकड़ी-बेड़ी इस वक्त मेरे साथ कटे पर नमक का काम का रही है। हाय,क्या अच्छी बात होती अगर इस वक्त कुमारी की खोज में जंगल-जंगल मार-मारा फिरता, पैरों में कांटे गड़े होते, खून निकलता होता, भूख-प्यास लगने पर भी खाना-पीना छोड़कर उसी का पता लगाने की फिक्र होती। हे ईश्वर! तूने कुछ न किया, भला मेरी हिम्मत को तो देखा होता कि इश्क की राह में कैसा मजबूत हूं, तूने तो मेरे हाथ-पैर ही जकड़ डाले। हाय, जिसको पैदा करके तूने हर तरह का सुख दिया उसका दिल दुखाने और उसको खराब करने में तुझे क्या मजा मिलता है?

ऐसी-ऐसी बातें करते हुए कुंअर वीरेन्द्रसिंह की आंखों से आंसू जारी थे और लंबी-लंबी सांसें ले रहे थे। आधी रात के लगभग जा चुकी थी। जिस कोठरी में कुमार कैद थे उसके सामने सजे हुए दलान में चार-पांच शीशे जल रहे थे, कुमार का जी जब बहुत घबड़ाया सर उठाकर उस तरफ देखने लगे। एकबारगी पांच-सात लौंडियां एक तरफ से निकल आईं और हांडी, ढोल, दीवारगीर, झाड़, बैठक, कंवल, मृदंगी वगैरह शीशों को जलाया जिनकी रोशनी से एकदम दिन-सा हो गया। बाद इसके दलान के बीचोंबीच बेशकीमती गद्दी बिछाई और तब सब लौंडियां खड़ी होकर एकटक दरवाजे की तरफ देखने लगीं, मानो किसी के आने का इंतजार कर रही हैं। कुमार बड़े गौर से देख रहे थे, क्योंकि इनको इस बात का बड़ा ताज्जुब था कि वे महल के अंदर जहां मर्दों की बू तक नहीं जा सकती क्यों कैद किये गये और इसमें महाराज शिवदत्त ने क्या फायदा सोचा!

थोड़ी देर बाद महाराज शिवदत्त अजब ठाठ से आते दिखाई पड़े, जिसको देखते ही वीरेन्द्रसिंह चौंक पड़े। अजब हालत हो गई, एकटक देखने लगे। देखा कि महाराज शिवदत्त के दाहिनी तरफ चंद्रकान्ता और बाईं तरफ चपला, दोनों के हाथों में हाथ दिये धीरे- धीरे आकर उस गद्दी पर बैठ गये जो बीच में बिछी हुई थी। चंद्रकान्ता और चपला भी दोनों तरफ सटकर महाराज के पास बैठ गईं!

चंद्रकान्ता और कुमार का साथ तो लड़कपन ही से था मगर आज चंद्रकान्ता की खूबसूरती और नजाकत जितनी बढ़ी-चढ़ी थी इसके पहले कुमार ने कभी नहीं देखी थी। सामने पानदान, इत्रदान वगैरह सब सामान ऐश का रखा हुआ था।

यह देख कुमार की आंखों में खून उतर आया, जी में सोचने लगे, यह क्या हो गया! चंद्रकान्ता इस तरह खुशी-खुशी शिवदत्त के बगल में बैठी हुई हाव-भाव कर रही है, यह क्या मामला है? क्या मेरी मुहब्बत एकदम उसके दिल से जाती रही, साथ ही मां-बाप की मुहब्बत भी बिल्कुल उड़ गई? जिसमें मेरे सामने उसकी यह कैफियत है! क्या वह यह नहीं जानती कि उसके सामने ही मैं इस कोठरी में कैदियों की तरह पड़ा हुआ हूं? जरूर जानती है, वह देखो मेरी तरफ तिरछी आंखों से देख मुंह बिचका रही है। साथ ही इसके चपला को क्या हो गया जो तेजसिंह पर जी दिये बैठी थी और हथेली पर जान रख इसी महाराज शिवदत्त को छकाकर तेजसिंह को छुड़ा ले गई थी। उस वक्त महाराज शिवदत्त की मुहब्बत इसको न हुई और आज इस तरह अपनी मालकिन चंद्रकान्ता के साथ बराबरी दर्जे पर शिवदत्त के बगल में बैठी है! हाय-हाय, स्त्रियों का कुछ ठिकाना नहीं, इन पर भरोसा करना बड़ी भारी भूल है। हाय! क्या मेरी किस्मत में ऐसी ही औरत से मुहब्बत होनी लिखी थी। ऐसे ऊंचे कुल की लड़की ऐसा काम करे। हाय, अब मेरा जीना व्यर्थ है, मैं जरूर अपनी जान दे दूंगा, मगर क्या चंद्रकान्ता और चपला को शिवदत्त के लिए जीता छोड़ दूंगा? कभी नहीं। यह ठीक है कि वीर पुरुष स्त्रियों पर हाथ नहीं छोड़ते, पर मुझको अब अपनी वीरता दिखानी नहीं, दुनिया में किसी के सामने मुंह करना नहीं है, मुझको यह सब सोचने से क्या फायदा? अब यही मुनासिब है कि इन दोनों को मार डालना और पीछे अपनी भी जान दे देनी। तेजसिंह भी जरूर मेरा साथ देंगे, चलो अब बखेड़ा ही तय कर डालो!!

इतने में इठलाकर चंद्रकान्ता ने महाराज शिवदत्त के गले में हाथ डाल दिया, अब तो वीरेन्द्रसिंह सह न सके। जोर से झटका दे हथकड़ी तोड़ डाली, उसी जोश में एक लात सींखचे वाले किवाड़ में भी मारी और पल्ला गिरा शिवदत्त के पास पहुंचे। उनके सामने जो तलवार रखी थी उसे उठा लिया और खींच के एक हाथ चंद्रकान्ता पर ऐसा चलाया कि खट से सर अलग जा गिरा और धाड़ तड़पने लगा, जब तक महाराज शिवदत्त सम्हलें तब तक चपला के भी दो टुकड़े कर दिये, मगर महाराज शिवदत्त पर वार न किया।

महाराज शिवदत्त सम्हलकर उठ खड़े हुए, यकायकी इस तरह की ताकत और तेजी कुमार की देख सकते में हो गये, मुंह से आवाज तक न निकली,जवांमर्दी हवा खाने चली गई, सामने खड़े होकर कुमार का मुंह देखने लगे।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह खून भरी नंगी तलवार लिये खड़े थे कि तेजसिंह और देवीसिंह धाम्म से सामने आ मौजूद हुए। तेजसिंह ने आवाज दी, वाह शाबास,खूब दिल को सम्हाला।यह कह झट से महाराज शिवदत्त के गले में कमंद डाल झटका दिया। शिवदत्त की हालत पहले ही से खराब हो रही थी, कमंद से गला घुटते ही जमीन पर गिर पड़े। देवीसिंह ने झट गट्ठर बांधा पीठ पर लाद लिया। तेजसिंह ने कुमार की तरफ देखकर कहा, मेरे साथ-साथ चले आइये,अभी कोई दूसरी बात मत कीजिये, इस वक्त जो हालत आपकी है मैं खूब जानता हूं।

इस वक्त सिवाय लौंडियों के कोई मर्द वहां पर नहीं था। इस तरह का खून-खराब देखकर कई तो बदहवास हो गईं बाकी जो थीं उन्होंने चूं तक न किया,एकटक देखती ही रह गईं और ये लोग चलते बने।

बयान - 11

कुमार का मिजाज बदल गया। वे बातें जो उनमें पहले थीं अब बिल्कुल न रहीं। मां-बाप की फिक्र, विजयगढ़ का ख्याल, लड़ाई की धुन, तेजसिंह की दोस्ती, चंद्रकान्ता और चपला के मरते ही सब जाती रहीं। किले से ये तीनों बाहर आये, आगे शिवदत्त की गठरी लिए देवीसिंह और उनके पीछे कुमार को बीच में लिए तेजसिंह चले जाते थे। कुंअर वीरेन्द्रसिंह को इसका कुछ भी ख्याल न था कि वे कहां जा रहे हैं। दिन चढ़ते-चढ़ते ये लोग बहुत दूर एक घने जंगल में जा पहुंचे, जहां तेजसिंह के कहने से देवीसिंह ने महाराज शिवदत्त की गठरी जमीन में रख दी और अपनी चादर से एक पत्थर खूब झाड़कर कुमार को बैठने के लिए कहा, मगर वे खड़े ही रहे, सिवाय जमीन देखने के कुछ भी न बोले।

कुमार की ऐसी दशा देखकर तेजसिंह बहुत घबड़ाये। जी में सोचने लगे कि अब इनकी जिंदगी कैसे रहेगी? अजब हालत हो रही है, चेहरे पर मुर्दनी छा रही है, तनोबदन की सुधा नहीं, बल्कि पलकें नीचे को बिल्कुल नहीं गिरतीं, आंखों की पुतलियां जमीन देख रही हैं, जरा भी इधर-उधर नहीं हटतीं। यह क्या हो गया? क्या चंद्रकान्ता के साथ ही इनका भी दम निकल गया? यह खड़े क्यों हैं? तेजसिंह ने कुमार का हाथ पकड़ बैठने के लिए जोर दिया, मगर घुटना बिल्कुल न मुड़ा, धाम्म से जमीन पर गिर पड़े, सिर फूट गया, खून निकलने लगा मगर पलकें उसी तरह खुली की खुली, पुतलियां ठहरी हुईं, सांस रुक-रुककर निकलने लगी।

अब तेजसिंह कुमार की जिंदगी से बिल्कुल नाउम्मीद हो गये, रोकने से तबीयत न रुकी, जोर से पुकारकर रोने लगे। इस हालत को देख देवीसिंह की भी छाती फटी, रोने में तेजसिंह के शरीक हुए। तेजसिंह पुकार-पुकार कर कहने लगे कि-हाय कुमार, क्या सचमुच अब तुमने दुनिया छोड़ ही दी? हाय, न मालूम वह कौन-सी बुरी सायत थी कि कुमारी चंद्रकान्ता की मुहब्बत तुम्हारे दिल में पैदा हुई जिसका नतीजा ऐसा बुरा हुआ। अब मालूम हुआ कि तुम्हारी जिंदगी इतनी ही थी। तेजसिंह इस तरह की बातें कह रो रहे थे कि इतने में एक तरफ से आवाज आई-

नहीं, कुमार की उम्र कम नहीं है बहुत बड़ी है, इनको मारने वाला कोई पैदा नहीं हुआ। कुमारी चंद्रकान्ता की मुहब्बत बुरी सायत में नहीं हुई बल्कि बहुत अच्छी सायत में हुई, इसका नतीजा बहुत अच्छा होगा। कुमारी से शादी तो होगी ही साथ ही इसके चुनार की गद्दी भी कुंअर वीरेन्द्रसिंह को मिलेगी। बल्कि और भी कई राज्य इनके हाथ से फतह होंगे। बड़े तेजस्वी और इनसे भी ज्यादे नाम पैदा करने वाले दो वीर पुत्र चंद्रकान्ता के गर्भ से पैदा होंगे। क्या हुआ है जो रो रहे हो?

तेजसिंह और देवीसिंह का रोना एकदम बंद हो गया, इधर-उधर देखने लगे। तेजसिंह सोचने लगे कि हैं, यह कौन है, ऐसी मुर्दे को जिलाने वाली आवाज किसके मुंह से निकली? क्या कहा? कुमार को मारने वाला कौन है! कुमार के दो पुत्र होंगे! हैं, यह कैसी बात है? कुमार का तो यहां दम निकला जाता है। ढूंढना चाहिए यह कौन है? तेजसिंह और देवीसिंह इधर-उधर देखने लगे पर कहीं कुछ पता न चला। फिर आवाज आई, इधर देखो। आवाज की सीधा पर एक तरफ सिर उठाकर तेजसिंह ने देखा कि पेड़ पर से जगन्नाथ ज्योतिषी नीचे उतर रहे हैं।

जगन्नाथ ज्योतिषी उतरकर तेजसिंह के सामने आये और बोले, आप हैरान मत होइए, ये सब बातें जो ठीक होने वाली हैं मैंने ही कही हैं। इसके सोचने की भी जरूरत नहीं कि मैं महाराज शिवदत्त का तरफदार होकर आपके हित में बातें क्यों कहने लगा? इसका सबब भी थोड़ी देर में मालूम हो जायगा और आप मुझको अपना सच्चा दोस्त समझने लगेंगे, पहले कुमार की फिक्र कर लें तब आपसे बातचीत हो।

इसके बाद जगन्नाथ ज्योतिषी ने तेजसिंह और देवीसिंह के देखते-देखते एक बूटी जिसकी तिकोनी पत्ती थी और आसमानी रंग का फूल लगा हुआ था,डंठल का रंग बिल्कुल सफेद और खुरदुरा था, उसी समय पास ही से ढूंढकर तोड़ी और हाथ में खूब मल के दो बूंद उसके रस की कुमार की दोनों आंखों और कानों में टपका दीं, बाकी जो सीठी बची उसको तालू पर रखकर अपनी चादर से एक टुकड़ा फाड़कर बांधा दिया और बैठकर कुमार के आराम होने की राह देखने लगे।

आधी घड़ी भी नहीं बीतने पाई थी कि कुमार की आंखों का रंग बदल गया, पलकों ने गिरकर कौड़ियों को ढांक लिया, धीरे- धीरे हाथ-पैर भी हिलने लगे,दो-तीन छींकें भी आईं जिनके साथ ही कुमार होश में आकर उठ बैठे। सामने ज्योतिषीजी के साथ तेजसिंह और देवीसिंह को बैठे देखकर पूछा, क्यों, मुझको क्या हो गया था? तेजसिंह ने सब हाल कहा। कुमार ने जगन्नाथ ज्योतिषी को दण्डवत किया और कहा, महाराज, आपने मेरे ऊपर क्यों कृपा की, इसका हाल जल्द कहिये, मुझको कई तरह के शक हो रहे हैं!

ज्योतिषीजी ने कहा, कुमार, यह ईश्वर की माया है कि आपके साथ रहने को मेरा जी चाहता है। महाराज शिवदत्त इस लायक नहीं है कि मैं उसके साथ रहकर अपनी जान दूं। उसको आदमी की पहचान नहीं, वह गुणियों का आदर नहीं करता, उसके साथ रहना अपने गुण की मिट्ठी खराब करना है। गुणी के गुण को देखकर कभी तारीफ नहीं करता, वह बड़ा भारी मतलबी है। अगर उसका काम किसी से कुछ बिगड़ जाय तो उसकी आंखें उसकी तरफ से तुरंत बदल जाती हैं, चाहे वह कैसा ही गुणी क्यो न हो। सिवाय इसके वह अधार्मी भी बड़ा भारी है, कोई भला आदमी ऐसे के साथ रहना पसंद नहीं करेगा, इसी से मेरा जी फट गया। मैं अगर रहूंगा तो आपके साथ रहूंगा। आप-सा कदरदान मुझको कोई दिखाई नहीं देता, मैं कई दिनों से इस फिक्र में था मगर कोई ऐसा मौका नहीं मिलता था कि अपनी सचाई दिखाकर आपका साथी हो जाता, क्योंकि मैं चाहे कितनी ही बातें बनाऊं मगर ऐयारों की तरफ से ऐयारों का जी साफ होना मुश्किल है। आज मुझको ऐसा मौका मिला, क्योंकि आज का दिन आप पर बड़े संकट का था, जो कि महाराज शिवदत्त के धोखे और चालाकी ने आपको दिखाया! इतना कह ज्योतिषीजी चुप हो रहे।

ज्योतिषीजी की आखिरी बात ने सभी को चौंका दिया। तीनों आदमी घसककर उनके पास आ बैठे। तेजसिंह ने कहा, हां ज्योतिषीजी जल्दी खुलासा कहिये, शिवदत्त ने क्योंकर धोखा दिया? ज्योतिषीजी ने कहा, महाराज शिवदत्त का यह कायदा है कि जब कोई भारी काम किया चाहता है तो पहले मुझसे जरूर पूछता है, लेकिन चाहे राय दूं या मना करूं मगर करता है अपने ही मन की और धोखा भी खाता है। कई दफे पण्डित बद्रीनाथ भी इन बातों से रंज हो गये कि जब अपने ही मन की करनी है जो ज्योतिषीजी से पूछने की जरूरत ही क्या है। आज रात को जो चालाकी उसने आपसे की उसके लिए भी मैंने मना किया था मगर कुछ न माना, आखिर नतीजा यह निकला कि घसीटासिंह और भगवानदत्त ऐयारों की जान गई, इसका खुलासा हाल मैं तब कहूंगा जब आप इस बात का वादा कर लें कि मुझको अपना ऐयार या साथी बनावेंगे।

ज्योतिषीजी की बात सुन कुमार ने तेजसिंह की तरफ देखा। तेजसिंह ने कहा, ज्योतिषीजी, मैं बड़ी खुशी से आपको साथ रखूंगा परंतु आपको इसके पहले अपने साफ दिल होने की कसम खानी पड़ेगी।

ज्योतिषीजी ने तेजसिंह के मन से शक मिटाने के लिए जनेऊ हाथ में लेकर कसम खाई, तेजसिंह ने उठ के उन्हें गले लगा लिया और बड़ी खुशी से अपने ऐयारों की पंगत में मिला लिया। कुमार ने अपने गले से कीमती माला निकाल ज्योतिषीजी को पहना दी। ज्योतिषीजी ने कहा, अब मुझसे सुनिये कि कुमार महल में क्यों कैद किये गये थे और जो रात को खून-खराबा हुआ उसका असल भेद क्या है?

जब आप लोग लश्कर से कुमारी की खोज में निकले थे तो रास्ते में बद्रीनाथ ऐयार ने आपको देख लिया था। आप लोगों के पहले वे वहां पहुंचे और चंद्रकान्ता को दूसरी जगह छिपाने की नीयत से उस खोह में उसको लेने गये मगर उनके पहुंचने से पहले ही कुमारी वहां से गायब हो गयी थी और वे खाली हाथ वापस आये, तब नाज़िम को साथ ले आप लोगो की खोज में निकले और आपको इस जंगल में पाकर ऐयारी की। नाज़िम ने ढेला फेंका था, देवीसिंह उसको पकड़ने गये, तब तक बद्रीनाथ जो पहले ही तेजसिंह बनकर आये थे, न मालूम किस चालाकी से आपको बेहोश कर किले में ले गये और जिसमें आपकी तबीयत से चंद्रकान्ता की मुहब्बत जाती रहे और आप उसकी खोज न करें तथा उसके लिए महाराज शिवदत्त से लड़ाई न ठानें इसलिए भगवानदत्त और घसीटासिंह जो हम सबों में कम उम्र थे चंद्रकान्ता और चपला बनाये गये जिनको आपने खत्म किया, बाकी हाल तो आप जानते ही हैं।

ज्योतिषीजी की बात सुन कुमार मारे खुशी के उछल पड़े। कहने लगे, हाय, क्या गजब किया था। कितना भारी धोखा दिया! अब मालूम हुआ कि बेचारी चंद्रकान्ता जीती-जागती है मगर कहां है इसका पता नहीं, खैर यह भी मालूम हो जायगा!

अब क्या करना चाहिए इस बात को सबों ने मिलकर सोचा और यह पक्का किया कि 1. महाराज शिवद्त्त को तो उसी खोह में जिसमें ऐयार लोग पहले कैद किये गये थे डाल देना चाहिए और दोहरा ताला लगा देना चाहिए क्योंकि पहले ताले का हाल जो शेर के मुंह में से जुबान खींचने से खुलता है, बद्रीनाथ को मालूम हो गया है, मगर दूसरे ताले का हाल सिवाय तेजसिंह के अभी कोई नहीं जानता। 2. कुमार को विजयगढ़ चले जाना चाहिए क्योंकि जब तक महाराज शिवदत्त कैद हैं लड़ाई न होगी, मगर हिफाजत के लिए कुछ फौज सरहद पर जरूर होनी चाहिए। 3. देवीसिंह कुमार के साथ रहें। 4. तेजसिंह और ज्योतिषीजी कुमारी की खोज में जायें।

कुछ और बातचीत करके सब कोई उठ खड़े हुए और वहां से चल पड़े।

बयान - 12

दोपहर के वक्त एक नाले के किनारे सुंदर साफ चट्टान पर दो कमसिन औरतें बैठी हैं। दोनों की मैली-फटी साड़ी, दोनों के मुंह पर मिट्टी, खुले बाल, पैरों पर खूब धूल पड़ी हुई और चेहरे पर बदहवासी और परेशानी छाई हुई है। चारों तरफ भयानक जंगल, खूनी जानवरों की भयानक आवाजें आ रही हैं। जब कभी जोर से हवा चलती है तो पेड़ों की घनघनाहट से जंगल और भी डरावना मालूम पड़ता है।

इन दोनों औरतों के सामने नाले के उस पार एक तेंदुआ पानी पीने के लिए उतरा, उन्होने उस तेंदुए को देखा मगर वह खूनी जानवर इन दोनों को न देख सका, क्योंकि जहां वे दोनों बैठी थीं सामने ही एक मोटा जामुन का पेड़ था।

इन दोनों में से एक जो ज्यादे नाजुक थी उस तेंदुए को देख डरी और धीरे से दूसरे से बोली, प्यारी सखी, देखो कहीं वह इस पार न उतर आवे। उसने कहा, नहीं सखी वह इस पार न आवेगा, अगर आने का इरादा भी करेगा तो मैं पहले ही इन तीरों से उसको मार गिराऊंगी जो उस नाले के सिपाहियों को मारकर लेती आई हूं। इस वक्त हमारे पास दो सौ तीर हैं और हम दोनों तीर चलाने वाली हैं, लो तुम भी एक तीर चढ़ा लो। यह सुन उसने भी एक तीर कमान पर चढ़ाई मगर उसकी कोई जरूरत न पड़ी। वह तेंदुआ पानी पीकर तुरंत ऊपर चढ़ गया और देखते-देखते गायब हो गया तब इन दोनों में यों बात-चीत होने लगी-

कुमारी: क्यों चपला, कुछ मालूम पड़ता है कि हम लोग किस जगह आ पहुंचे और यह कौन-सा जंगल है तथा विजयगढ़ की राह किधर है?

चपला: कुमारी, कुछ समझ में नहीं आता, बल्कि अभी तक मुझको भागने की धुन में यह भी नहीं मालूम कि किस तरफ चली आई। विजयगढ़ किधर है,चुनार कहां छोड़ा, और नौगढ़ का रास्ता कहां है! सिवाय तुम्हारे साथ महल में रहने या विजयगढ़ की हद में घूमने के कभी इन जंगलों में तो आना ही नहीं हुआ। हां चुनार से सीधो विजयगढ़ का रास्ता जानती हूं मगर उधर मैं इस सबब से नहीं गई कि आजकल हमारे दुश्मनों का लश्कर रास्ते में पड़ा है, कहीं ऐसा न हो कोई देख ले, इसलिए मैं जंगल ही जंगल दूसरी तरफ भागी। खैर देखो ईश्वर मालिक है, कुछ न कुछ रास्ते का पता लग ही जायगा। मेरे बटुए में मेवा हैं, लो इसको खा लो और पानी पी लो, फिर देखा जायगा।

कुमारी: इसको किसी और वक्त के वास्ते रहने दो। क्या जाने हम लोगों को कितने दिन दु:ख भोगना पड़े। यह जंगल खूब घना है, चलो बेर मकोय तोड़कर खायें। अच्छा तो न मालूम पड़ेगा मगर समय काटना है। चपला-अच्छा जैसी तुम्हारी मर्जी।

चपला और चंद्रकान्ता दोनों वहां से उठीं। नाले के ऊपर इधर-उधर घूमने लगीं। दिन दोपहर से ज्यादे ढल चुका था। पेड़ों की छांह में घूमती जंगली बेरों को तोड़ती खाती वे दोनों एक टूटे-फूटे उजाड़ मकान के पास पहुंचीं जिसको देखने से मालूम होता था कि यह मकान जरूर किसी बड़े राजा का बनाया हुआ होगा मगर अब टूट-फूट गया है। चपला ने कुमारी चंद्रकान्ता से कहा, बहिन तुम मकान के टूटे दरवाजे पर बैठो, मैं फल तोड़ लाऊं तो इसी जगह बैठकर दोनों खायें और इसके बाद तब इस मकान के अंदर घुसकर देखें कि क्या है। जब तक विजयगढ़ का रास्ता न मिले यही खण्डहर हम लोगों के रहने के लिए अच्छा होगा, इसी में गुजारा करेंगे। कोई मुसाफिर या चरवाहा इधर से आ निकलेगा तो विजयगढ़ का रास्ता पूछ लेंगे और तब यहां से जायेंगे। कुमारी ने कहा, अच्छी बात है, मैं इसी जगह बैठती हूं, तुम कुछ फल तोड़ो लेकिन दूर मत जाना! चपला ने कहा, नहीं मैं दूर न जाऊंगी, इसी जगह तुम्हारी आंखों के सामने रहूंगी। यह कहकर चपला फल तोड़ने चलीगई।

बयान - 13

चपला खाने के लिए कुछ फल तोड़ने चली गई। इधर चंद्रकान्ता अकेली बैठी-बैठी घबड़ा उठी। जी में सोचने लगी कि जब तक चपला फल तोड़ती है तब तक इस टूटे-फूटे मकान की सैर करें, क्योंकि यह मकान चाहे टूटकर खंडहर हो रहा है मगर मालूम होता है किसी समय में अपना सानी न रखता होगा।

कुमारी चंद्रकान्ता वहां से उठकर खंडहर के अंदर गई। फाटक इस टूटे-फूटे मकान का दुरुस्त और मजबूत था। यद्यपि उसमें किवाड़ न लगे थे, मगर देखने वाला यही कहेगा कि पहले इसमें लकड़ी या लोहे का फाटक जरूर लगा रहा होगा।

कुमारी ने अंदर जाकर देखा कि बड़ा भारी चौखूटा मकान है। बीच की इमारत तो टूटी-फूटी है मगर हाता चारों तरफ का दुरुस्त मालूम पड़ता है। और आगे बढ़ी, एक दलान में पहुंची जिसकी छत गिरी हुई थी पर खंभे खड़े थे। इधर-उधर ईंट-पत्थर के ढेर थे जिन पर धीरे- धीरे पैर रखती और आगे बढी। बीच में एक मैदान देख पड़ा जिसको बड़े गौर से कुमारी देखने लगी। साफ मालूम होता था कि पहले यह बाग था क्योंकि अभी तक संगमर्मर की क्यारियां बनी हुई थीं, छोटी-छोटी नहरें जिनसे छिड़काव का काम निकलता होगा अभी तक तैयार थीं। बहुत से फव्वारे बेमरम्मत दिखाई पड़ते थे मगर उन सबों पर मिट्टी की चादर पड़ी हुई थी। बीचोंबीच उस खण्डहर के एक बड़ा भारी पत्थर का बगुला बना हुआ दिखाई दिया जिसको अच्छी तरह से देखने के लिए कुमारी उसके पास गई और उसकी सफाई और कारीगरी को देख उसके बनाने वाले की तारीफ करने लगी।

वह बगुला सफेद संगमर्मर का बना हुआ था और काले पत्थर के कमर बराबर ऊंचे तथा मोटे खंभे पर बैठाया हुआ था। टांगें उसकी दिखाई नहीं देती थीं,यही मालूम होता था कि पेट सटाकर इस पत्थर पर बैठा है। कम से कम पंद्रह हाथ के घेरे में उसका पेट होगा। लंबी चोंच, बाल और पर उसके ऐसी कारीगरी के साथ बनाये हुए थे कि बार-बार उसके बनाने वाले कारीगर की तारीफ मुंह से निकलती थी। जी में आया कि और पास जाकर बगुले को देखे। पास गई,मगर वहां पहुंचते ही उसने मुंह खोल दिया। चंद्रकान्ता यह देख घबड़ा गई कि यह क्या मामला है, कुछ डर भी मालूम हुआ, सामना छोड़ बगल में हो गई। अब उस बगुले ने पर भी फैला दिये।

कुमारी को चपला ने बहुत ढीठ कर दिया था। कभी-कभी जब जिक्र आ जाता तो चपला यही कहती थी कि दुनिया में भूत-प्रेत कोई चीज नहीं, जादू-मंत्र सब खेल कहानी है, जो कुछ है ऐयारी है। इस बात का कुमारी को भी पूरा यकीन हो चुका था। यही सबब था कि चंद्रकान्ता इस बगुले के मुंह खोलने और पर फैलाने से नहीं डरी, अगर किसी दूसरी ऐसी नाजुक औरत को कहीं ऐसा मौका पड़ता तो शायद उसकी जान निकल जाती। जब बगुले को पर फैलाते देखा तो कुमारी उसके पीछे हो गयी, बगुले के पीछे की तरफ एक पत्थर जमीन में लगा था जिस पर कुमारी ने पैर रखा ही था कि बगुला एक दफे हिला और जल्दी से घूम अपनी चोंच से कुमारी को उठाकर निगल गया,तब घूमकर अपने ठिकाने हो गया। पर समेट लिए और मुंह बंद कर लिया।

बयान - 14

थोड़ी देर में चपला फलों से झोली भरे हुए पहुंची, देखा तो चंद्रकान्ता वहां नहीं है। इधर-उधर निगाह दौड़ाई, कहीं नहीं। इस टूटे मकान (खण्डहर) में तो नहीं गई है! यह सोचकर मकान के अंदर चली। कुमारी तो बेधाड़क उस खण्डहर में चली गई थी मगर चपला रुकती हुई चारों तरफ निगाह दौड़ाती और एक-एक चीज तजवीज करती हुई चली। फाटक के अंदर घुसते ही दोनों बगल दो दलान दिखाई पड़ेर्। ईंट-पत्थर के ढेर लगे हुए, कहीं से छत टूटी हुई मगर दीवारों पर चित्रकारी और पत्थरों की मूर्तियां अभी तक नई मालूम पड़ती थीं।

चपला ने ताज्जुब की निगाह से उन मूर्तियों को देखा, कोई भी उसमें पूरे बदन की नजर न आई, किसी का सिर नहीं, किसी की टांग नहीं, किसी का हाथ कटा, किसी का आधा धाड़ ही नहीं! सूरत भी इन मूर्तियों की अजब डरावनी थी। और आगे बढ़ी, बड़े-बड़े मिट्टी-पत्थर के ढेर जिनमें जंगली पेड़ लगे हुए थे, लांघती हुई मैदान में पहुंची, दूर से वह बगुला दिखाई पड़ा जिसके पेट में कुमारी पड़ चुकी थी।

सब जगहों को देखना छोड़ चपला उस बगुले के पास धाड़धाड़ाती हुई पहुंची। उसने मुंह खोल दिया। चपला को बड़ा ताज्जुब हुआ, पीछे हटी। बगुले ने मुंह बंद कर दिया। सोचने लगी अब क्या करना चाहिए। यह तो कोई बड़ी भारी ऐयारी मालूम होती है। क्या भेद है इसका पता लगाना चाहिए। मगर पहले कुमारी को खोजना उचित है क्योंकि यह खण्डहर कोई पुराना तिलिस्म मालूम होता है, कहीं ऐसा न हो कि इसी में कुमारी फंस गई हो। यह सोच उस जगह से हटी और दूसरी तरफ खोजने लगी।

चारों तरफ हाता घिरा हुआ था, कई दलान और कोठरियां ढूटी-फूटी और कई साबुत भी थीं, एक तरफ से देखना शुरू किया। पहले एक दलान में पहुंची जिसकी छत बीच से टूटी हुई थी, लंबाई दलान की लगभग सौ गज की होगी, बीच में मिट्टी-चूने का ढेर, इधर-उधर बहुत-सी हड्डी पड़ी हुईं और चारों तरफ जाले-मकड़े लगे हुए थे। मिट्टी के ढेर में से छोटे-छोटे बहुत से पीपल वगैरह के पेड़ निकल आये थे। दलान के एक तरफ छोटी-सी कोठरी नजर आई जिसके अंदर पहुंचने पर देखा एक कुआं है, झांकने से अंधेरा मालूम पड़ा। इस कुएं के अंदर क्या है! यह कोठरी बनिस्बत और जगहों के साफ क्यों मालूम पड़ती है? कुआं भी साफ दीख पड़ता है, क्योंकि जैसे अक्सर पुराने कुओं में पेड़ वगैरह लग जाते हैं, इसमें नहीं हैं, कुछ-कुछ आवाज भी इसमें से आती है जो बिल्कुल समझ नहीं पड़ती। इसका पता लगाने के लिए चपला ने अपने ऐयारी के बटुए में से काफूर निकाला और उसके टुकड़े बालकर कुएं में डाले। अंदर तक पहुंचकर उन बलते हुए काफूर के टुकड़ों ने खूब रोशनी की। अब साफ मालूम पड़ने लगा कि नीचे से कुआं बहुत चौड़ा और साफ है मगर पानी नहीं है बल्कि पानी की जगह एक साफ सफेद बिछावन मालूम पड़ता है जिसके ऊपर एक बूढ़ा आदमी बैठा है। उसकी लंबी दाढ़ी लटकती हुई दिखाई पड़ती है, मगर गर्दन नीची होने के सबब चेहरा मालूम नहीं पड़ता। सामने एक चौकी रखी हुई है जिस पर रंग-बिरंगे फूल पड़े हैं। चपला यह तमाशा देख डर गई। फिर जी को सम्हाला और कुएं पर बैठ गौर करने लगी मगर कुछ अक्ल ने गवाही न दी। वह काफूर के टुकड़े भी बुझ गये जो कुएं के अंदर जल रहे थे और फिर अंधॆरा हो गया।

उस कोठरी में से एक दूसरे दलान में जाने का रास्ता था। उस राह से चपला दूसरे दलान में पहुंची, जहां इससे भी ज्यादे जी दहलाने और डराने वाला तमाशा देखा। कूड़ा-कर्कट, हड्डी और गंदगी में यह दलान पहले दलान से कहीं बढ़ा-चढ़ा था, बल्कि एक साबुत पंजर (ढांचा) हड्डी का भी पड़ा हुआ था जो शायद गदहे या टट्टू का हो। उसी के बगल से लांघती हुई चपला बीचों बीच दलान में पहुंची। एक चबूतरा संगमर्मर का पुरसा भर ऊंचा देखा जिस पर चढ़ने के लिए खूबसूरत नौ सीढ़ियां बनी हुई थीं। ऊपर उसके एक आदमी चौकी पर लेटा हुआ हाथ में किताब लिये कुछ पढ़ता हुआ मालूम पड़ा, मगर ऊंचा होने के सबब साफ दिखाई न दिया। इस चबूतरे पर चढ़े या न चढ़े? चढ़ने से कोई आफत तो न आवेगी! भला सीढ़ी पर एक पैर रखकर देखूं तो सही? यह सोचकर चपला ने सीढ़ी पर एक पैर रखा। पैर रखते ही बड़े जोर से आवाज हुई और संदूक के पल्ले की तरह खुलकर सीढ़ी के ऊपर वाले पत्थर ने चपला के पैर को जोर से फेंक दिया जिसकी धामक और झटके से वह जमीन पर गिर पड़ी। सम्हलकर उठ खड़ी हुई, देखा तो वह सीढ़ी का पत्थर जो संदूक के पल्ले की तरह खुल गया था ज्यों का त्यों बंद हो गया है।

चपला अलग खड़ी होकर सोचने लगी कि यह टूटा-फूटा मकान तो अजब तमाशे का है। जरूर यह किसी भारी ऐयार का बनाया हुआ होगा। इस मकान में घुसकर सैर करना कठिन है, जरा चूके और जान गई। पर मुझको क्या डर क्योंकि जान से भी प्यारी मेरी चंद्रकान्ता इसी मकान में कहीं फंसी हुई है जिसका पता लगाना बहुत जरूरी है। चाहे जान चली जाय मगर बिना कुमारी को लिये इस मकान से बाहर कभी न जाऊंगी? देखूं इस सीढ़ी और चबूतरे में क्या-क्या ऐयारियां की गई हैं? कुछ देर तक सोचने के बाद चपला ने एक दस सेर का पत्थर सीढ़ी पर रखा। जिस तरह पैर को उस सीढ़ी ने फेंका था उसी तरह इस पत्थर को भी भारी आवाज के साथ फेंक दिया।

चपला ने हर एक सीढ़ी पर पत्थर रखकर देखा, सबों में यही करामात पाई। इस चबूतरे के ऊपर क्या है इसको जरूर देखना चाहिए यह सोच अब वह दूसरी तरकीब करने लगी। बहुत से ईंट-पत्थर उस चबूतरे के पास जमा किए और उसके ऊपर चढ़कर देखा कि संगमर्मर की चौकी पर एक आदमी दोनों हाथों में किताब लिए पड़ा है, उम्र लगभग तीस वर्ष की होगी। खूब गौर करने से मालूम हुआ कि यह भी पत्थर का है। चपला ने एक छोटी-सी कंकड़ी उसके मुंह पर डाली, या तो पत्थर का पुतला मगर काम आदमी का किया। चपला ने जो कंकड़ी उसके मुंह पर डाली थी उसको एक हाथ से हटा दिया और फिर उसी तरह वह हाथ अपने ठिकाने ले गया। चपला ने तक एक कंकड़ उसके पैर पर रखा, उसने पैर हिलाकर कंकड़ गिरा दिया। चपला थी तो बड़ी चालाक और निडर मगर इस पत्थर के आदमी का तमाशा देख बहुत डरी और जल्दी वहां से हट गई। अब दूसरी तरफ देखने लगी। बगल के एक और दलान में पहुंची,देखा कि बीचों बीच दलान के एक तहखाना मालूम पड़ता है, नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां बनी हुई हैं और ऊपर की तरफ दो पल्ले किवाड़ के हैं जो इस समय खुले हैं।

चपला खड़ी होकर सोचने लगी कि इसके अंदर जाना चाहिए या नहीं! कहीं ऐसा न हो कि इसमें उतरने के बाद यह दरवाजा बंद हो जाय तो मैं इसी में रह जाऊं, इससे मुनासिब है कि इसको भी आजमा लूं। पहिले एक ढोंका इसके अंदर डालूं लेकिन अगर आदमी के जाने से यह दरवाजा बंद हो सकता है तो जरूर ढोंके के गिरते ही बंद हो जायगा तब इसके अंदर जाकर देखना मुश्किल होगा, अस्तु ऐसी कोई तरकीब की जाय जिससे उसके जाने से किवाड़ बंद न होने पावे, बल्कि हो सके तो पल्लों को तोड़ ही देना चाहिए।

इन सब बातों को सोचकर चपला दरवाजे के पास गई। पहले उसके तोड़ने की फिक्र की मगर न हो सका, क्योंकि वे पल्ले लोहे के थे। कब्जा उनमें नहीं था, सिर्फ पल्ले के बीचोंबीच में चूल बनी हुई थी जो कि जमीन के अंदर घुसी हुई मालूम पड़ती थी। यह चूल जमीन के अंदर कहां जाकर अड़ी थी इसका पता न लग सका।

चपला ने अपने कमर से कमंद खोली और चौहरा करके एक सिरा उसका उस किवाड़ के पल्ले में खूब मजबूती के साथ बांधा, दूसरा सिरा उस कमंद का उसीदलान के एक खंभे में जो किवाड़ के पास ही था बांधा, इसके बाद एक ढोंका पत्थर का दूर से उस तहखाने में डाला। पत्थर पड़ते ही इस तरह की आवाज आने लगी जैसे किसी हाथी में से जोर से हवा निकलने की आवाज आती है, साथ ही इसके जल्दी से एक पल्ला भी बंद हो गया, दूसरा पल्ला भी बंद होने के लिए खिंचा मगर वह कमंद से कसा हुआ था, उसको तोड़ न सका, खिंचा का खिंचा ही रह गया। चपला ने सोचा-कोई हर्ज नहीं, मालूम हो गया कि यह कमंद इस पल्ले को बंद न होने देगी, अब बेखटके इसके अंदर उतरो, देखो तो क्या है। यह सोच चपला उस तहखाने में उतरी।

बयान - 15

चंपा बेफिक्र नहीं है, वह भी कुमारी की खोज में घर से निकली हुई है। जब बहुत दिन हो गये और राजकुमारी चंद्रकान्ता की कुछ खबर न मिली तो महारानी से हुक्म लेकर चंपा घर से निकली। जंगल-जंगल पहाड़-पहाड़ मारी फिरी मगर कहीं पता न लगा। कई दिन की थकी-मांदी जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठकर सोचने लगी कि अब कहां चलना चाहिए और किस जगह ढूंढना चाहिए, क्योंकि महारानी से मैं इतना वादा करके निकली हूं कि कुंअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह से बिना मिले और बिना उनसे कुछ खबर लिए कुमारी का पता लगाऊंगी, मगर अभी तक कोई उम्मीद पूरी न हुई और बिना काम पूरा किये मैं विजयगढ़ भी न जाऊंगी चाहे जो हो, देखूं कब तक पता नहीं लगता।

जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठी हुई चंपा इन सब बातों को सोच रही थी कि सामने से चार आदमी सिपाहियाना पोशाक पहने, ढाल-तलवार लगाये एक-एक तेगा हाथ में लिये आते दिखाई दिये।

चंपा को देखकर उन लोगों ने आपस में कुछ बातें कीं जिसे दूर होने के सबब चंपा बिल्कुल सुन न सकी मगर उन लोगों के चेहरे की तरफ गौर से देखने लगी। वे लोग कभी चंपा की तरफ देखते, कभी आपस में बातें करके हंसते, कभी ऊंचे हो-हो कर अपने पीछे की तरफ देखते, जिससे यह मालूम होता था कि ये लोग किसी की राह देख रहे हैं। थोड़ी देर बाद वे चारों चंपा के चारों तरफ हो गए और पेडॊ के नीचे छाया देखकर बैठ गये।

चंपा का जी खटका और सोचने लगी कि ये लोग कौन हैं, चारों तरफ से मुझको घेरकर क्यों बैठ गये और इनका क्या इरादा है? अब यहां बैठना न चाहिए। यह सोचकर उठ खड़ी हुई और एक तरफ का रास्ता लिया, मगर उन चारों ने न जाने दिया। दौड़कर घेर लिया और कहा, तुम कहां जाती हो? ठहरो,हमारे मालिक दमभर में आया ही चाहते हैं, उनके आने तक बैठो, वे आ लें तब हम लोग उनके सामने ले चल के सिफारिश करेंगे और नौकर रखा देंगे, खुशी से तुम रहा करोगी। इस तरह से कहां तक जंगल-जंगल मारी फिरोगी!

चंपा-मुझे नौकरी की जरूरत नहीं जो मैं तुम्हारे मालिक के आने की राह देखूं, मैं नहीं ठहर सकती।

एक सिपाही-नहीं-नहीं, तुम जल्दी न करो, ठहरो, हमारे मालिक को देखोगी तो खुश हो जाओगी, ऐसा खूबसूरत जवान तुमने कभी न देखा होगा, बल्कि हम कोशिश करके तुम्हारी शादी उनसे करा देंगे।

चंपा-होश में आकर बातें करो नहीं तो दुरुस्त कर दूंगी! खाली औरत न समझना, तुम्हारे ऐसे दस को मैं कुछ नहीं समझती!

चंपा की ऐसी बात सुनकर उन लोगों को बड़ा अचम्भा हुआ, एक का मुंह दूसरा देखने लगा। चंपा फिर आगे बढ़ी। एक ने हाथ पकड़ लिया। बस फिर क्या था, चंपा ने झट कमर से खंजर निकाल लिया और बड़ी फुर्ती के साथ दो को जख्मी करके भागी। बाकी के दो आदमियों ने उसका पीछा किया मगर कब पा सकते थे।

चंपा भागी तो मगर उसकी किस्मत ने भागने न दिया। एक पत्थर से ठोकर खा बड़े जोर से गिरी, चोट भी ऐसी लगी कि उठ न सकी, तब तक ये दोनों भी वहां पहुंच गये। अभी इन लोगों ने कुछ कहा भी नहीं था कि सामने से एक काफिला सौदागरों का आ पहुंचा जिसमें लगभग दो सौ आदमियों के करीब होंगे। उनके आगे-आगे एक बूढ़ा आदमी था जिसकी लंबी सफेद दाढ़ी, काला रंग, भूरी आंखें, उम्र लगभग अस्सी वर्ष के होगी। उम्दे कपड़े पहने, ढाल-तलवार लगाये बर्छी हाथ में लिये, एक बेशकीमती मुश्की घोड़े पर सवार था। साथ में उसके एक लड़का जिसकी उमर बीस वर्ष से ज्यादा न होगी, रेख तक न निकली थी, बड़े ठाठ के साथ एक नेपाली टांगन पर सवार था, जिसकी खूबसूरती और पोशाक देखने से मालूम होता था कि कोई राजकुमार है। पीछे-पीछे उनके बहुत से आदमी घोडे पर सवार और कुछ पैदल भी थे, सबसे पीछे कई ऊंटों पर असबाब और उनका डेरा लदा हुआ था। साथ में कई डोलियां थीं जिनके चारों तरफ बहुत से प्यादे तोड़ेदार बंदूकें लिये चले आते थे। दोनों आदमियों ने जिन्होंने चंपा का पीछा किया था पुकारकर कहा, इस औरत ने हमारे दो आदमियों को जख्मी किया है। जब तक कुछ और कहे तब तक कई आदमियों ने चंपा को घेर लिया और खंजर छीन हथकड़ी-बेड़ी डाल दी।

उस बूढ़े सवार ने जिसके बारे में कह सकते हैं कि शायद सबों का सरदार होगा, दो-एक आदमियों की तरफ देखकर कहा, हम लोगों का डेरा इसी जंगल में पड़े। यहां आदमियों की आमदरफ्त कम मालूम होती है, क्योंकि कोई निशान पगडण्डी का जमीन पर दिखाई नहीं देता।

डेरा पड़ गया, एक बड़ी रावटी में कई औरतें कैद की गईं जो डोलियों पर थीं। चंपा बेचारी भी उन्हीं में रखी गई। सूरज अस्त हो गया, एक चिराग उस रावटी में जलाया गया जिसमें कई औरतों के साथ चंपा भी थी। दो लौडियां आईं जिन्होंने औरतों से पूछा कि तुम लोग रसोई बनाओगी या बना-बनाया खाओगी? सबों ने कहा, हम बना-बनाया खाएंगे। मगर दो औरतों ने कहा, हम कुछ न खाएंगे! जिसके जवाब में वे दोनों लौंडियां यह कहकर चली गईं कि देखें कब तक भूखी रहती हो। इन दोनों औरतों में से एक तो बेचारी आफत की मारी चंपा ही थी और दूसरी एक बहुत ही नाजुक और खूबसूरत औरत थी जिसकी आंखों से आंसू जारी थे और जो थोड़ी-थोड़ी देर पर लंबी-लंबी सांस ले रही थी। चंपा भी उसके पास बैठी हुई थी।

पहर रात चली गई, सबों के वास्ते खाने को आया मगर उन दोनों के वास्ते नहीं जिन्होंने पहले इंकार किया था। आधी रात बीतने पर सन्नाटा हुआ, पैरों की आवाज डेरे के चारों तरफ मालूम होने लगी जिससे चंपा ने समझा कि इस डेरे के चारों तरफ पहरा घूम रहा है। धीरे- धीरे चंपा ने अपने बगल वाली खूबसूरत नाजुक औरत से बातें करना शुरू किया-

चंपा-आप कौन हैं और इन लोगों के हाथ क्यों कर फंस गईं?

औरत-मेरा नाम कलावती है, मैं महाराज शिवदत्त की रानी हूं, महाराज लड़ाई पर गये थे, उनके वियोग में जमीन पर सो रही थी, मुझको कुछ मालूम नहीं, जब आंख खुली अपने को इन लोगों के फंदे में पाया। बस और क्या कहूं। तुम कौन हो?

चंपा-हैं, आप चुनार की महारानी हैं! हा, आपकी यह दशा! वाह विधाता तू धन्य है! मैं क्या बताऊं, जब आप महाराज शिवदत्त की रानी हैं तो कुमारी चंद्रकान्ता को भी जरूर जानती होंगी, मैं उन्हीं की सखी हूं, उन्हीं की खोज में मारी-मारी फिरती थी कि इन लोगों ने पकड़ लिया।

ये दोनों आपस में धीरे-धीरे बातें कर रही थीं कि बाहर से एक आवाज आई, कौन है? भागा, भागा, निकल गया महारानी डरीं, मगर चंपा को कुछ खौफ न मालूम हुआ। बात ही बात में रात बीत गई, दोनों में से किसी को नींद न आयी। कुछ-कुछ दिन भी निकल आया, वही दोनों लौंडियां जो भोजन कराने आई थीं इस समय फिर आईं। तलवार दोनों के हाथ में थी। इन दोनों ने सबों से कहा, चलो पारी-पारी से मैदान हो आओ।

कुछ औरतें मैदान गईं, मगर ये दोनों अर्थात् महारानी और चंपा उसी तरह बैठी रहीं, किसी ने जिद्द भी न की। पहर दिन चढ़ आया होगा कि इस काफिले का बूढ़ा सरदार एक बूढ़ी औरत को लिए इस डेरे में आया जिसमें सब औरतें कैद थीं।

बुङ्ढी-इतनी ही हैं या और भी?

सरदार-बस इस वक्त तो इतनी ही हैं, अब तुम्हारी मेहरबानी होगी तो और हो जायेंगी।

बुङ्ढी-देखिये तो सही, मैं कितनी औरतें फंसा लाती हूं। हां अब बताइये किस मेल की औरत लाने पर कितना इनाम मिलेगा।

सरदार-देखो ये सब एक मेल में हैं, इस किस्म की अगर लाओगी तो दस रुपये मिलेंगे। (चंपा की तरफ इशारा करके) अगर इस मेल की लाओगी तो पूरे पचास रुपये। (महारानी की तरफ बताकर) अगर ऐसी खूबसूरत हो तो पूरे सौ रुपये मिलेंगे, समझ गईं।

बुङ्ढी-हां अब मैं बिल्कुल समझ गई, इन सबों को आपने कैसे पाया।

सरदार-यह जो सबसे खूबसूरत है इसको तो एक खोह में पाया था, बेहोश पड़ी थी और यह कल इसी जगह पकड़ी गई है, इसने दो आदमी मेरे मार डाले हैं, बड़ी बदमाशहै!

बुङ्ढी-इसकी चितवन ही से बदमाशी झलकती है, ऐसी-ऐसी अगर तीन-चार आ जायें तो आपका काफिला ही बैकुण्ठ चला जाय!

सरदार-इसमें क्या शक है! और वे सब जो हैं, कई तरह से पकड़ी गई हैं। एक तो वह बंगाले की रहने वाली है इसके पड़ोस ही में मेरे लड़के ने डेरा डाला था, अपने पर आशिक करके निकाल लाया। ये चारों रुपये की लालच में फंसी हैं, और बाकी सबों को मैंने उनकी मां, नानी या वारिसों से खरीद लिया है। बस चलो अब अपने डेरे में बातचीत करेंगे। मैं बुङ्ढा आदमी बहुत देर तक खड़ा नहीं रह सकता।

बुङ्ढी-चलिए।

दोनों उस डेरे से रवाना हुए। इन दोनों के जाने के बाद सब औरतों ने खूब गालियां दीं-मुए को देखो, अभी और औरतों को फंसाने की फिक्र में लगा है?न मालूम यह बुङ्ढी इसको कहां से मिल गई, बड़ी शैतान मालूम पड़ती है! कहती है, देखो मैं कितनी औरतें फंसा लाती हूं। हे परमेश्वर इन लोगों पर तेरी भी कृपा बनी रहती है? न मालूम यह डाइन कितने घर चौपट करेगी!

चंपा ने उस बुढ़िया को खूब गौर करके देखा और आधो घंटे तक कुछ सोचती रही, मगर महारानी को सिवाय रोने के और कोई धुन न थी। हाय,महाराज की लड़ाई में क्या दशा हुई होगी, वे कैसे होंगे, मेरी याद करके कितने दु:खी होते होंगे! धीरे- धीरे यही कह के रो रही थीं। चंपा उनको समझाने लगी-

महारानी, सब्र करो, घबराओ मत, मुझे पूरी उम्मीद हो गई, ईश्वर चाहेगा तो अब हम लोग बहुत जल्दी छूट जायेंगे। क्या करूं, मैं हथकड़ी-बेड़ी में पड़ी हूं, किसी तरह यह खुल जातीं तो इन लोगों को मजा चखाती, लाचार हूं कि यह मजबूत बेड़ी सिवाय कटने के दूसरी तरह खुल नहीं सकती और इसका कटना यहां मुश्किल है।

इसी तरह रोते-कलपते आज का दिन भी बीता। शाम हो गई। बुङ्ढा सरदार फिर डेरे में आ पहुंचा जिसमें औरतें कैद थीं। साथ में सवेरे वाली बुढ़िया आफत की पुड़िया एक जवान खूबसूरत औरत को लिये हुए थी।

बुढ़िया-मिला लीजिये, अव्वल नंबर की है या नहीं?

सरदार-अव्वल नंबर की तो नहीं, हां दूसरे नंबर की जरूर है, पचास रुपये की आज तुम्हारी बोहनी हुई, इसमें शक नहीं!

बुढ़िया-खैर पचास ही सही, यहां कौन गिरह की जमा लगती है, कल फिर लाऊंगी, चलिये।

इस समय इन दोनों की बातचीत बहुत धीरे-धीरे हुई, किसी ने सुना नहीं मगर होठों के हिलने से चंपा कुछ-कुछ समझ गई। वह नई औरत जो आज आई बड़ी खुश दिखाई देती थी। हाथ-पैर खुले थे। तुरंत ही इसके वास्ते खाने को आया। इसने भीखूब लंबे-चौड़े हाथ लगाये, बेखटके उड़ा गई। दूसरी औरतों को सुस्त और रोते देख हंसती और चुटकियां लेती थी। चंपा ने जी में सोचा-यह तो बड़ी भारी बला है, इसको अपने कैद होने और फंसने की कोई फिक्र ही नहीं! मुझे तो कुछ खुटका मालूम होता है!

बयान - 16

कल की तरह आज की रात भी बीत गई। लोंडियों के साथ सुबह को सब औरतें पारी-पारी मैदान भेजी गईं। महारानी और चंपा आज भी नहीं गईं। चंपा ने महारानी से पूछा, आप जब से इन लोगों के हाथ फंसी हैं, कुछ भोजन किया या नहीं!उन्होंने जवाब दिया, महाराज से मिलने की उम्मीद में जान बचाने के लिए दूसरे-तीसरे कुछ खा लेती हूं, क्या करूं, कुछ बस नहीं चलता।

थोड़ी देर बाद दो आदमी इस डेरे में आये। महारानी और चंपा से बोले, तुम दोनों बाहर चलो, आज हमारे सरदार का हुक्म है कि सब औरतें मैदान में पेड़ों के नीचे बैठाई जायं जिससे मैदान की हवा लगे और तन्दुरुस्ती में फर्क न पड़ने पावे।यह कह दोनों को बाहर ले गये। वे औरतें जो मैदान में गई थीं बाहर ही एक बहुत घने महुए के तले बैठी हुई थीं। ये दोनों भी उसी तरह जाकर बैठ गई। चंपा चारों तरफ निगाह दौड़ाकर देखने लगी।

दो पहर दिन चढ़ आया होगा। वही बुढ़िया जो कल एक औरत ले आई थी आज फिर एक जवान औरत कल से भी ज्यादे खूबसूरत लिये हुए पहुंची। उसे देखते ही बुङ्ढे मियां ने बड़ी खातिर से अपने पास बैठाया और उस औरत को उस जगह भेज दिया जहां सब औरतें बैठी हुई थीं। चंपा ने आज इस औरत को भी बारीक निगाह से देखा। आखिर उससे न रहा गया, ऊपर की तरफ मुंह करके बोली, मी सगमता। वह औरत जो आई थी चंपा का मुंह देखने लगी। थोड़ी देर के बाद वह भी अपने पैर के अंगूठे की तरफ देख और हाथों से उसे मलती हुई बोली, चपकला छटमे बापरोफस। फिर दोनों में से कोई न बोली।

शाम हो गई। सब औरतें उस रावटी में पहुंच गईं। रात को खाने का सामान पहुंचा। महारानी और चंपा के सिवाय सभी ने खाया। उन दोनों औरतों ने तो खूब ही हाथ फेरे जो नई फंसकर आई थीं।

रात बहुत चली गई, सन्नाटा हो गया, रावटी के चारों तरफ पहरा फिरने लगा। रावटी में एक चिराग जल रहा है। सब औरतें सो गई, सिर्फ चार जाग रही हैं-महारानी, चंपा और वे दोनों जो नई आई हैं। चंपा ने उन दोनों की तरफ देखकर कहा, कड़ाक मी टेटी, नो से पारो फेसतो एक ने जवाब दिया, तोमसे की? फिर चंपा ने कहा, रानी में सेगी।

उन दोनों औरतों ने अपनी कमर से कोई तेज औजार निकाला और धीरे से चंपा की हथकड़ी और बेड़ी काट दी। अब चंपा लापरवाह हो गई, उसके ओठों पर मुस्कुराहट मालूम होने लगी।

दो पहर रात बीत गई। यकायक उस रावटी को चारों तरफ से बहुत से आदमियों ने घेर लिया। शोर-गुल की आवाज आने लगी, 'मारो-पकड़ो' की आवाज सुनाई देने लगी। बंदूक की आवाज कान में पड़ी। अब सब औरतों को यकीन हो गया कि डाका पड़ा और लड़ाई हो रही है। खलबली पड़ गई। रावटी में जितनी औरतें थीं इधर-उधर दौड़ने लगीं। महारानी घबड़ाकर ”चंपा-चंपापुकारने लगीं, मगर कहीं पता नहीं, चंपा दिखाई न पड़ी। वे दोनों औरतें जो नई आई थीं आकर कहने लगीं, मालूम होता है चंपा निकल गई मगर आप मत घबराइये, यह सब आप ही के नौकर हैं जिन्होंने डाका मारा है। मैं भी आप ही का ताबेदार हूं, औरत न समझिये।मैं जाती हूं। आपके वास्ते कहीं डोली तैयार होगी, लेकर आता हूं।यह कह दोनों ने रास्ता लिया।

जिस रावटी में औरतें थीं उसके तीन तरफ आदमियों की आवाज कम हो गई। सिर्फ चौथी तरफ जिधर और बहुत से डेरे थे लड़ाई की आहट मालूम हो रही थी। दो आदमी जिनका मुंह कपड़े या नकाब से ढंका हुआ था डोली लिये हुए पहुंचे और महारानी को उस पर बैठाकर बाहर निकल गये। रात बीत गई,आसमान पर सफेदी दिखाई देने लगी। चंपा और महारानी तो चली गई थीं मगर और सब औरतें उसी रावटी में बैठी हुई थीं। डर के मारे चेहरा जर्द हो रहा था, एक का मुंह एक देख रही थीं। इतने में पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल एक डोली जिस पर कि मख्वाब का पर्दा पड़ा हुआ था लिये हुए उस रावटी के दरवाजे पर पहुंचे, डोली बाहर रख दी, आप अंदर गये और सब औरतों को अच्छी तरह देखने लगे, फिर पूछा-तुम लोगों में से दो औरतें दिखाई नहीं देतीं, वे कहां गई?

सब औरतें डरी हुई थीं, किसी के मुंह से आवाज न निकली। पन्नालाल ने फिर कहा, तुम लोग डरो मत, हम लोग डाकू नहीं हैं। तुम्हीं लोगों को छुड़ाने के लिए इतनी धूमधाम हुई है। बताओ वे दोनों औरतें कहां हैं?' अब उन औरतों का जी कुछ ठिकाने हुआ। एक ने कहा, दो नहीं बल्कि चार औरतें गायब हैं जिनमें दो औरतें तो वे हैं जो कल और परसों फंस के आई थीं, वे दोनों तो एक औरत को यह कह के चली गईं कि आप डरिये मत, हम लोग आपके ताबेदार हैं, डोली लेकर आते हैं तो आपको ले चलते हैं। इसके बाद डोली आई जिस पर चढ़ के वह चली गई, और चौथी तो सब के पहले ही निकल गई थी।”

पन्नालाल के तो होश उड़ गए, रामनारायण और चुन्नीलाल के मुंह की तरफ देखने लगे। रामनारायण ने कहा, ठीक है, हम दोनों महारानी को ढाढ़स देकर तुम्हारी खोज में डोली लेने चले गये, जफील बजाकर तुमसे मुलाकात की और डोली लेकर चले आ रहे हैं, मगर दूसरा कौन डोली लेकर आया जो महारानी को लेकर चला गया! इन लोगों का यह कहना भी ठीक है कि चंपा पहले ही से गायब है। जब हम लोग औरत बने हुए इस रावटी में थे और लड़ाई हो रही थी महारानी ने डर के चंपा-चंपा पुकारा, तभी उसका पता न था। मगर यह मामला क्या है कुछ समझ में नहीं आता। चलो बाहर चलकर इन बर्देफरोशों 1 की डोलियों को गिनें उतनी ही हैं या कम? इन औरतों को भी बाहर निकालो।

सब औरतें उस डेरे के बाहर की गईं। उन्होंने देखा कि चारों तरफ खून ही खून दिखाई देता है, कहीं-कहीं लाश भी नजर आती है। काफिले का बुङ्ढा सरदार और उसका खूबसूरत लड़का जंजीरों से जकड़े एक पेड़ के नीचे बैठे हुए हैं। दस आदमी नंगी तलवारें लिए उनकी निगहबानी कर रहे हैं और सैकड़ों आदमी हाथ-पैर बंधे दूसरे पेड़ों के नीचे बैठाए हुए हैं। रावटियां और डेरे सब उजड़े पड़े हैं।

पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल उस जगह गये जहां बहुत-सी डोलियां थीं। रामनारायण ने पन्नालाल से कहा, देखो यह सोलह डोलियां हैं, पहले हमने सत्रह गिनी थीं, इससे मालूम होता है कि इन्हीं में की वह डोली थी जिसमें महारानी गई हैं। मगर उनको ले कौन गया? चुन्नीलाल जाओ तुम दीवान साहब को यहां बुला लाओ, उस तरफ बैठे हैं जहां फौज खड़ी है।

दीवान साहब को लिए हुए चुन्नीलाल आये। पन्नालाल ने उनसे कहा, देखिए हम लोगों की चार दिन की मेहनत बिल्कुल खराब गई! विजयगढ़ से तीन मंजिल पर इन लोगों का डेरा था। इस बुङ्ढे सरदार को हम लोगों ने औरतों की लालच देकर रोका कि कहीं आगे न चला जाय और आपको खबर दी। आप भी पूरे सामान से आये, इतना खून-खराबा हुआ, मगर महारानी और चंपा हाथ न आईं। भला चंपा तो बदमाशी करके निकल गई, उसने कहा कि हमारी बेड़ी काट दो नहीं तो हम सब भेद खोल देंगे कि मर्द हो, धोखा देने आये हो, पकडे ज़ाओगे, लाचार होकर उसकी बेड़ी काट दी और वह मौका पाकर निकल गई। मगर महारानी को कौन ले गया?

दीवान साहब की अक्ल हैरान थी कि क्या हो गया। बोले, इन बदमाशों को बल्कि इनके बुङ्ढे मियां सरदार को मार-पीटकर पूछो, कहीं इन्हीं लोगों की बदमाशी तो नहीं है।

पन्नालाल ने कहा, जब सरदार ही आपकी कैद में है तो मुझे यकीन नहीं आता कि उसके सबब से महारानी गायब हो गई हैं। आप इन बर्देफरोशों को और फौज को लेकर जाइये और राज्य का काम देखिए। हम लोग फिर महारानी की टोह लेने जाते हैं, इसका तो बीड़ा ही उठाया है।

दीवान साहब बर्देफरोश कैदियों को मय उनके माल-असबाब के साथ ले चुनार की तरफ रवाना हुए। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल महारानी की खोज में चले, रास्ते में आपस में यों बातें करने लगे-

पन्नालाल-देखो आजकल चुनार राज्य की क्या दुर्दशा हो रही है, महाराज उधर फंसे, महारानी का पता नहीं, पता लगा मगर फिर भी कोई उस्ताद हम लोगों को उल्लू बनाकर उन्हें ले ही गया।

रामनारायण-भाई बड़ी मेहनत की थी मगर कुछ न हुआ। किस मुश्किल से इन लोगों का पता पाया, कैसी-कैसी तरकीबों से दो दिन तक इसी जंगल में रोक रखा कहीं जाने न दिया, दौड़ा-दौड़ चुनार से सेना सहित दीवान साहब को लाये, लड़े-भिड़े, अपनी तरफ के कई आदमी भी मरे, मगर वही पहला दिन,शर्मिन्दगी मुनाफे में!

चुन्नी-हम तो बड़े खुश थे कि चंपा भी हाथ आवेगी मगर वह तो और आफत निकली, कैसा हम लोगों को पहचाना और बेबस करके धमाका के अपनी बेड़ी कटवा ही ली! बड़ी चालाक है, कहीं उसी का तो यह फसाद नहीं है!

पन्ना-नहीं जी, अकेली चंपा डोली में बैठा के महारानी को नहीं ले जा सकती!

राम-हम तीनों को महारानी की खोज में भेजने के बाद अहमद और नाज़िम को साथ लेकर पंडित बद्रीनाथ महाराज को कैद से छुड़ाने गये हैं, देखें वह क्या जस लगा कर आते हैं।

पन्ना-भला हम लोगों का मुंह भी तो हो कि चुनार जाकर उनका हाल सुनें और क्या जस लगा कर आते हैं इसको देखें, अगर महारानी न मिलीं तो कौन मुंह ले के चुनार जायेंगे?

राम-बस मालूम हो गया कि आज जो शख्स महारानी को इस फुर्ती से चुरा ले गया वह हम लोगों का ठीक उस्ताद है। अब तो इसी जंगल में खेती करो,लड़के-बाले लेकर आ बसो, महारानी का मिलना मुश्किल है।

पन्ना-वाह रे तेरा हौसला, क्या पिनिक के औतार हुए हैं 1

थोड़ी दूर जाकर ये लोग आपस में कुछ बातें कर मिलने का ठिकाना ठहरा अलग हो गये।

बयान - 17

एक बहुत बड़े नाले में जिसके चारों तरफ बहुत ही घना जंगल था, पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी के साथ तेजसिंह बैठे हैं। बगल में साधारण-सी डोली रखी हुई है, पर्दा उठा हुआ है, एक औरत उसमें बैठी तेजसिंह से बातें कर रही है। यह औरत चुनार के महाराज शिवदत्त की रानी कलावती कुंअर है। पीछे की तरफ एक हाथ डोली पर रखे चंपा भी खड़ी है।

महारानी-मैं चुनार जाने में राजी नहीं हूं, मुझको राज्य नहीं चाहिए, महाराज के पास रहना मेरे लिए स्वर्ग है। अगर वे कैद हैं तो मेरे पैर में भी बेड़ी डाल दो मगर उन्हीं के चरणों में रखो।

तेज-नहीं, मैं यह नहीं कहता कि जरूर आप भी उसी कैदखाने में जाइये जिसमें महाराज हैं। आपकी खुशी हो तो चुनार जाइये, हम लोग बड़ी हिफाजत से पहुंचा देंगे। कोई जरूरत आपको यहां लाने की नहीं थी, ज्योतिषीजी ने कई दफे आपके पतिव्रत धर्म की तारीफ की थी और कहा था कि महाराज की जुदाई में महारानी को बड़ा ही दुख होता होगा, यह जान हम लोग आपको ले आये थे नहीं तो खाली चंपा को ही छुड़ाने गये थे। अब आप कहिए तो चुनार पहुंचा दें नहीं तो महाराज के पास ले जायं क्योंकि सिवाय मेरे और किसी के जरिये आप महाराज के पास नहीं पहुंच सकतीं, और फिर महाराज क्या जाने कब तक कैद रहें।

महारानी-तुम लोगों ने मेरे ऊपर बड़ी कृपा की, सचमुच मुझे महाराज से इतनी जल्दी मिलाने वाला और कोई नहीं जितनी जल्दी तुम मिला सकते हो। अभी मुझको उनके पास पहुंचाओ, देर मत करो, मैं तुम लोगों का बड़ा जस मानूंगी!

तेज-तो इस तरह डोली में आप नहीं जा सकतीं, मैं बहोश करके आपको ले जा सकता हूं।

महारानी-मुझको यह भी मंजूर है, किसी तरह वहां पहुंचाओ।

तेज-अच्छा तब लीजिए इस शीशी को सूंघिये।

महारानी को अपने पति के साथ बड़ी ही मुहब्बत थी, अगर तेजसिंह उनको कहते कि तुम अपना सिर दे दो तब महाराज से मुलाकात होगी तो वह उसको भी कबूल कर लेतीं।

महारानी बेखटके शीशी सूंघकर बेहोश हो गईं। ज्योतिषीजी ने कहा, अब इनको ले जाइये उसी तहखाने में छोड़ आइए। जब तक आप न आवेंगे मैं इसी जगह में रहूंगा। चंपा को भी चाहिए कि विजयगढ़ जाय, हम लोग तो कुमारी चंद्रकान्ता की खोज में घूम ही रहे हैं, ये क्यों दुख उठाती है!

तेजसिंह ने कहा, चंपा, ज्योतिषीजी ठीक कहते हैं, तुम जाओ, कहीं ऐसा न हो कि फिर किसी आफत में फंस जाओ।

चंपा ने कहा, जब तक कुमारी का पता न लगेगा मैं विजयगढ़ कभी न जाऊंगी। अगर मैं इन बर्देफरोशों के हाथ फंसी तो अपनी ही चालाकी से छूट भी गई, आप लोगों को मेरे लिए कोई तकलीफ न करनी पड़ी।

तेजसिंह ने कहा, तुम्हारा कहना ठीक है, हम यह नहीं कहते कि हम लोगों ने तुमको छुड़ाया। हम लोग तो कुमारी चंद्रकान्ता को ढूंढते हुए यहां तक पहुंच गये और उन्हीं की उम्मीद में बर्देफराशों के डेरे देख डाले। उनको तो न पाया मगर महारानी और तुम फंसी हुई दिखाई दीं, छुड़ाने की फिक्र हुई। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल को महारानी को छुड़ाने के लिए कोशिश करते देख हम लोग यह समझकर अलग हो गए कि मेहनत वे लोग करें, मौके में मौका हम लोगों को भी काम करने का मिल ही जायगा। सो ऐसा ही हुआ भी, तुम अपनी ही चालाकी से छूटकर बाहर निकल गईं, हमने महारानी को गायब किया। खैर इन सब बातों को जाने दो, तुम यह बताओ कि घर न जाओगी तो क्या करोगी? कहां ढूंढोगी? कहीं ऐसा न हो कि हम लोग तो कुमारी को खोजकर विजयगढ़ ले जायं और तुम महीनों तक मारी-मारी फिरो।

चंपा ने कहा, मैं एकदम से ऐसी बेवकूफ नहीं, आप बेफिक्र रहें।

तेजसिंह को लाचार होकर चंपा को उसकी मर्जी पर छोड़ना पड़ा और ज्योतिषीजी को भी उसी जंगल में छोड़ महारानी की गठरी बांधा कैदखाने वाले खोह की तरफ रवाना हुए जिसमें महाराज बंद थे। चंपा भी एक तरफ को रवाना हो गई।

बयान - 18

तेजसिंह के जाने के बाद ज्योतिषीजी अकेले पड़ गये, सोचने लगे कि रमल के जरिये पता लगाना चाहिए कि चंद्रकान्ता और चपला कहां हैं। बस्ता खोल पटिया निकाल रमल फेंक गिनने लगे। घड़ी भर तक खूब गौर किया। यकायक ज्योतिषीजी के चेहरे पर खुशी झलकने लगी और होंठों पर हंसी आ गई, झटपट रमल और पटिया बांधा उसी तहखाने की तरफ दौड़े जहां तेजसिंह महारानी को लिये जा रहे थे। ऐयार तो थे ही, दौड़ने में कसर न की, जहां तक बन पड़ा तेजी से दौड़े।

तेजसिंह कदम-कदम झपटे हुए चले जा रहे थे। लगभग पांच कोस गये होंगे कि पीछे से आवाज आई, ठहरो-ठहरो! फिर के देखा तो ज्योतिषी जगन्नाथजी बड़ी तेजी से चले आ रहे हैं, ठहर गये, जी में खुटका हुआ कि यह क्यों दौड़े आ रहे हैं।

जब पास पहुंचे इनके चेहरे पर कुछ हंसी देख तेजसिंह का जी ठिकाने हुआ। पूछा, क्यों क्या है जो आप दौड़े आये हैं?

ज्योतिषी-है क्या, बस हम भी आपके साथ उसी तहखाने में चलेंगे।

तेज-सो क्यों?

ज्योतिषी-इसका हाल भी वहीं मालूम होगा, यहां न कहेंगे।

तेज-तो वहां दरवाजे पर पट्टी भी बांधानी पड़ेगी, क्योंकि पहले वाले ताले का हाल जब से कुमार को धोखा देकर बद्रीनाथ ने मालूम कर लिया तब से एक और ताला हमने उसमें लगाया है जो पहले ही से बना हुआ था मगर आसकत से उसको काम में नहीं लाते थे क्योंकि खोलने और बंद करने में जरा देर लगती है। हम यह निश्चय कर चुके हैं कि इस ताले का भेद किसी को न बतावेंगे।

ज्योतिषी-मैं तो अपनी आंखों पर पट्टी न बंधाऊंगा और उस तहखाने में भी जरूर जाऊंगा। तुम झख मारोगे और ले चलोगे।

तेज-वाह क्या खूब! भला कुछ हाल तो मालूम हो!

ज्योतिषी-हाल क्या, बस पौ बारह है! कुमारी चंद्रकान्ता को वहीं दिखा दूंगा!

तेज-हां? सच कहो!!

ज्योतिषी-अगर झूठ निकले तो उसी तहखाने में मुझको हलाल करके मार डालना।

तेज-खूब कही, तुम्हें मार डालूंगा तो तुम्हारा क्या बिगड़ेगा, बह्महत्या तो मेरे सिर चढ़ेगी!

ज्योतिषी-इसका भी ढंग मैं बता देता हूं जिसमें तुम्हारे ऊपर ब्रह्महत्या न चढ़े।

तेज-वह क्या?

ज्योतिषी-कुछ मुश्किल नहीं है, पहले मुसलमान कर डालना तब हलाल करना।

ज्योतिषीजी की बात पर तेजसिंह हंस पड़े और बोले, अच्छा भाई चलो, क्या करें, आपका हुक्म मानना भी जरूरी है।

दूसरे दिन शाम को ये लोग उस तहखाने के पास पहुंचे। ज्योतिषीजी के सामने ही तेजसिंह ताला खोलने लगे। पहले उस शेर के मुंह में हाथ डाल के उसकी जुबान बाहर निकाली, इसके बाद दूसरा ताला खोलने लगे।

दरवाजे के दोनों तरफ दो पत्थर संगमर्मर के दीवार के साथ जड़े थे। दाहिनी तरफ के संगमर्मर वाले पत्थर पर तेजसिंह ने जोर से लात मारी, साथ ही एक आवाज हुई और वह पत्थर दीवार के अंदर घुसकर जमीन के साथ सट गया। छोटे से हाथ भर के चबूतरे पर एक सांप चक्कर मारे बैठा देखा जिसकी गर्दन पकड़कर कई दफे पेच की तरह घुमाया, दरवाजा खुल गया। महारानी की गठरी लिए तेजसिंह और ज्योतिषीजी अंदर गये, भीतर से दरवाजा बंद कर लिया। भीतर दरवाजे के बाएं तरफ की दीवार में एक सूराख हाथ जाने लायक था, उसमें हाथ डाल के तेजसिंह ने कुछ किया जिसका हाल ज्योतिषीजी को मालूम न हो सका।

ज्योतिषीजी ने पूछा, इसमें क्या है? तेजसिंह ने जवाब दिया, इसके भीतर एक किल्ली है जिसके घुमाने से वह पत्थर बंद हो जाता है जिस पर बाहर मैंने लात मारी और जिसके अंदर सांप दिखाई पड़ा था। इस सूराख से सिर्फ उस पत्थर के बंद करने का काम चलता है खुल नहीं सकता, खोलते समय इधरभी वही तरकीब करनी पड़ेगी जो दरवाजे के बाहर की गई थी।

दरवाजा बंद कर ये लोग आगे बढ़े। मैदान में जाकर महारानी की गठरी खोल उन्हें होश में लाये और कहा, हमारे साथ-साथ चली आइए, आपको महाराज के पास पहुंचा दें। महरानी इन लोगों के साथ-साथ आगे बढ़ीं। तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से पूछा, बताइए चंद्रकान्ता कहां हैं? ज्योतिषीजी ने कहा, मैं पहले कभी इसके अंदर आया नहीं जो सब जगहें मेरी देखी हों, आप आगे चलिए, महाराज शिवदत्त को ढूंढिए, चंद्रकान्ता भी दिखाई दे जायगी।

घूमते-फिरते महाराज शिवदत्त को ढूंढ़ते ये लोग उस नाले के पास पहुंचे जिसका हाल पहले भाग में लिख चुके हैं। यकायक सबों की निगाह महाराज शिवदत्त पर पड़ी जो नाले के उस पार एक पत्थर के ढोके पर खड़े ऊपर की तरफ मुंह किए कुछ देख रहे थे।

महारानी तो महाराज को देख दीवानी-सी हो गईं, किसी से कुछ न पूछा कि इस नाले में कितना पानी है या उस पार कैसे जाना होगा, झट कूद पड़ीं। पानी थोड़ा ही था, पार हो गईं और दौड़कर रोती महाराज शिवदत्त के पैरों पर गिर पड़ीं। महाराज ने उठाकर गले से लगा लिया, तब तक तेजसिंह और ज्योतिषीजी भी नाले के पार हो महाराज शिवदत्त के पास पहुंचे।

ज्योतिषीजी को देखते ही महाराज ने पूछा, क्योंजी, तुम यहां कैसे आये? क्या तुम भी तेजसिंह के हाथ फंस गये।

ज्योतिषीजी ने कहा, नहीं तेजसिंह के हाथ क्यों फंसेंगे, हां उन्होंने कृपा करके मुझे अपनी मंडली में मिला लिया है, अब हम वीरेन्द्रसिंह की तरफ हैं आपसे कुछ वास्ता नहीं।

ज्योतिषीजी की बात सुनकर महाराज को बड़ा गुस्सा आया, लाल-लाल आंखें कर उनकी तरफ देखने लगे। ज्योतिषीजी ने कहा, अब आप बेफायदा गुस्सा करते हैं, इससे क्या होगा? जहां जी में आया तहां रहे। जो अपनी इज्जत करे उसी के साथ रहना ठीक है। आप खुद सोच लीजिए और याद कीजिए कि मुझको आपने कैसी-कैसी कड़ी बातें कही थीं। उस वक्त यह भी न सोचा कि ब्राह्मण है। अब क्यों मेरी तरफ लाल-लाल आंखें करके देखते हैं!

ज्योतिषीजी की बातें सुनकर शिवदत्त ने सिर नीचा कर लिया और कुछ जवाब न दिया। इतने में एक बारीक आवाज आई, तेजसिंह!

तेजसिंह ने सिर उठाकर उधर देखा जिधर से आवाज आई थी, चंद्रकान्ता नजर पड़ी जिसे देखते ही इनकी आंखों से आंसू निकल पड़े। हाय, क्या सूरत हो रही है, सिर के बाल खुले हैं, गुलाब-सा मुंह कुम्हला गया, बदन पर मैल चढ़ी हुई है, कपड़े फटे हुए हैं, पहाड़ के ऊपर एक छोटी-सी गुफा के बाहर खड़ी'तेजसिंह-तेजसिंह', पुकार रही है।

तेजसिंह उस तरफ दौडे चाहा कि पहाड़ पर चढ़कर कुमारी के पास पहुंच जायं मगर न हो सका, कहीं रास्ता न मिला। बहुत परेशान हुए लेकिन कोई काम न चला, लाचार होकर ऊपर चढ़ने के लिए कमंद फेंकी मगर वह चौथाई दूर भी न गई, ज्योतिषीजी से कमंद लेकर अपने कमंद में जोड़कर फिर फेंकी,आधी दूर भी न पहुंची। हर तरह की तरकीबें कीं मगर कोई मतलब न निकला, लाचार होकर आवाज दी और पूछा, कुमारी, आप यहां कैसे आईं?

तेजसिंह की आवाज कुमारी के कान तक बखूबी पहुंची मगर कुमारी की आवाज जो बहुत ही बारीक थी तेजसिंह के कानों तक पूरी-पूरी न आई। कुमारी ने कुछ जवाब दिया, साफ-साफ तो समझ में न आया, हां इतना समझ पड़ा-किस्मत...आई...तरह...निकालो...!

हाय-हाय कुमारी से अच्छी तरह बात भी नहीं कर सकते! यह सोच तेजसिंह बहुत घबराए, मगर इससे क्या हो सकता था, कुमारी ने कुछ और कहा जो बिल्कुल समझ में न आया, हां यह मालूम हो रहा था कि कोई बोल रहा है। तेजसिंह ने फिर आवाज दी और कहा, आप घबराइए नहीं, कोई तरकीब निकालता हूं जिससे आप नीचे उतर आवें। इसके जवाब में कुमारी मुंह से कुछ न बोली, उसी जगह एक जंगली पेड़ था जिसके पत्तो जरा बड़े और मोटे थे,एक पत्ता तोड़ लिया और एक छोटे नुकीले पत्थर की नोक से उस पत्तो पर कुछ लिखा, अपनी धोती में से थोड़ा-सा कपड़ा फाड़ उसमें वह पत्ता और एक छोटा-सा पत्थर बांधा इस अंदाज से फेंका कि नाले के किनारे कुछ जल में गिरा। तेजसिंह ने उसे ढूंढकर निकाला, गिरह खोली, पत्तो पर गोर से निगाह डाली,लिखा था, तुम जाकर पहले कुमार को यहां ले आओ।

तेजसिंह ने ज्योतिषीजी को वह पत्ता दिखलाया और कहा, आप यहां ठहरिए मैं जाकर कुमार को बुला लाता हूं। तब तक आप भी कोई तरकीब सोचिए जिससे कुमारी नीचे उतर सकें! ज्योतिषीजी ने कहा, अच्छी बात है, तुम जाओ, मैं कोई तरकीब सोचता हूं।

इस कैफियत को महारानी ने भी बखूबी देखा मगर यह जान न सकीं कि कुमारी ने पत्तो पर क्या लिखकर फेंका और तेजसिंह कहां चले गये तो भी महारानी को चंद्रकान्ता की बेबसी पर रुलाई आ गई और उसी तरफ टकटकी लगाकर देखती रहीं। तेजसिंह वहां से चलकर फाटक खोल खोह के बाहर हुए और फिर दोहरा ताला लगा विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए।

बयान - 19

जब से कुमारी चंद्रकान्ता विजयगढ़ से गायब हुईं और महाराज शिवदत्त से लड़ाई लगी तब से महाराज जयसिंह और महल की औरतें तो उदास थीं ही उनके सिवाय कुल विजयगढ़ की रियाया भी उदास थी, शहर में गम छाया हुआ था।

जब तेजसिंह और ज्योतिषीजी को कुमारी की खोज में भेज वीरेन्द्रसिंह लौटकर मय देवीसिंह के विजयगढ़ आये तब सबों को यह आशा हुई कि राजकुमारी चंद्रकान्ता भी आती होंगी, लेकिन जब कुमार की जुबानी महाराज जयसिंह ने पूरा-पूरा हाल सुना तो तबीयत और परेशान हुई। महाराज शिवदत्त के गिरफ्तार होने का हाल सुनकर तो खुशी हुई मगर जब नाले में से कुमारी का फिर गायब हो जाना सुना तो पूरी नाउम्मीदी हो गई। दीवान हरदयालसिंह वगैरह ने बहुत समझाया और कहा कि कुमारी अगर पाताल में भी गई होंगी तो तेजसिंह खोज निकालेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं, फिर भी महाराज के जी को भरोसा न हुआ। महल में महारानी की हालत तो और भी बुरी थी, खाना-पीना बोलना बिल्कुल छूट गया था, सिवाय रोने और कुमारी की याद करने के दूसरा कोई काम न था।

कई दिन तक कुमार विजयगढ़ में रहे, बीच में एक दफे नौगढ़ जाकर अपने माता-पिता से भी मिल आये मगर तबीयत उनकी बिल्कुल नहीं लगती थी,जिधर जाते थे उदासी ही दिखाई देती थी।

एक दिन रात को कुमार अपने कमरे में सोए हुए थे, दरवाजा बंद था, रात आधी से ज्यादे जा चुकी थी। चंद्रकान्ता की जुदाई में पडे-पडे क़ुछ सोच रहे थे, नींद बिल्कुल नहीं आ रही थी। दरवाजे के बाहर किसी के बोलने की आहट मालूम पड़ी बल्कि किसी के मुंह से 'कुमारी' ऐसा सुनने में आया। झट पलंग पर से उठ दरवाजे के पास आये और किवाड़ के साथ कान लगा सुनने लगे, इतनी बातें सुनने में आईं-

मैं सच कहता हूं, तुम मानो चाहे न मानो! हां पहले मुझे जरूर यकीन था कि कुमारी पर कुंअर वीरेन्द्रसिंह का प्रेम सच्चा है, मगर अब मालूम हो गया कि यह सिवाय विजयगढ़ का राज्य चाहने के कुमारी से मुहब्बत नहीं रखते, अगर सच्ची मुहब्बत होती तो जरूर खोज...

इतनी बात सुनी थी कि दरबानों को कुछ चोर की आहट मालूम पड़ी, बातें करना छोड़ पुकार उठे, कौन है! मगर कुछ मालूम न हुआ। बड़ी देर तक कुमार दरवाजे के पास बैठे रहे, परंतु फिर कुछ सुनने में न आया, हां इतना मालूम हुआ कि दरबानों में बातें हो रही हैं।

कुमार और भी घबड़ा उठे, सोचने लगे कि जब दरबानों और सिपाहियों को यह विश्वास है कि कुमार चंद्रकान्ता के प्रेमी नहीं हैं तो जरूर महाराज का भी यही ख्याल होगा, बल्कि महल में महारानी भी यही सोचती होगी। अब विजयगढ़ में मेरा रहना ठीक नहीं, नौगढ़ जाने को भी जी नहीं चाहता क्योंकि वहां जाने से और भी लोगों के जी में बैठ जायगा कि कुमार की मुहब्बत नकली और झूठी थी। तब कहां जायं, क्या करें, इन्हीं सब बातों को सोचते सबेरा हो गया।

आज कुमार ने स्नान-पूजा और भोजन से जल्दी ही छुट्टी कर ली। पहर दिन चढ़ा होगा, अपनी सवारी का घोड़ा मंगवाया और सवार हो किले के बाहर निकले। कई आदमी साथ हुए मगर कुमार के मना करने से रुक गये, लेकिन देवीसिंह ने साथ न छोड़ा। इन्होंने हजार मना किया पर एक न माना, साथ चले ही गये। कुमार ने इस नीयत से घोड़ा तेज किया जिससे देवीसिंह पीछे छूट जाये और इनका भी साथ न रहे, मगर देवीसिंह ऐयारी में कुछ कम न थे, दौड़ने की आदत भी ज्यादे थी, अस्तु घोड़े का संग न छोड़ा। इसके सिवाय पहाड़ी जंगल की ऊबड़-खाबड़ जमीन होने के सबब कुमार का घोड़ा भी उतना तेज नहीं जा सकता था, जितना कि वे चाहते थे।

देवीसिंह बहुत थक गये, कुमार को भी उन पर दया आ गई। जी में सोचने लगे कि यह मुझसे बड़ी मुहब्बत रखता है। जब तक इसमें जान है मेरा संग न छोड़ेगा, ऐसे आदमी को जान-बूझकर दुख देना मुनासिब नहीं। कोई गैर तो नहीं कि साथ रखने में किसी तरह की कबाहट हो, आखिर कुमार ने घोड़ा रोका और देवीसिंह की तरफ देखकर हंसे।

हांफते-हांफते देवीसिंह ने कहा, भला कुछ यह भी तो मालूम हो कि आप का इरादा क्या है, कहीं सनक तो नहीं गये? कुमार घोड़े पर से उतर पड़े और बोले, अच्छा इस घोड़े को चरने के लिए छोड़ो फिर हमसे सुनो कि हमारा क्या इरादा है। देवीसिंह ने जीनपोश कुमार के लिए बिछाकर घोड़े को चरने के वास्ते छोड़ दिया और उनके पास बैठकर पूछा, अब बताइये, आप क्या सोचकर विजयगढ़ से बाहर निकले! इसके जवाब में कुमार ने रात का बिल्कुल किस्सा कह सुनाया और कहा कि कुमारी का पता न लगेगा तो मैं विजयगढ़ या नौगढ़ न जाऊंगा।

देवीसिंह ने कहा, यह सोचना बिल्कुल भूल है। हम लोगों से ज्यादा आप क्या पता लगायेंगे? तेजसिंह और ज्योतिषीजी खोजने गये ही हैं, मुझे भी हुक्म हो तो जाऊं। आपके किये कुछ न होगा। अगर आपको बिना कुमारी का पता लगाये विजयगढ़ जाना पसंद नहीं तो नौगढ़ चलिए वहां रहिये, जब पता लग जायगा विजयगढ़ चले जाइयेगा। अब आप अपने घर के पास भी आ पहुंचे हैं। कुमार ने सोचकर कहा, यहां से मेरा घर बनिस्बत विजयगढ़ के दूर होगा कि नजदीक? मैं तो बहुत आगे बढ़ आया हूं।

देवीसिंह ने कहा, नहीं, आप भूलते हैं, न मालूम किस धुन में आप घोड़ा फेंके चले आये, पूरब-पश्चिम का ध्यान तो रहा ही नहीं, मगर मैं खूब जानता हूं कि यहां से नौगढ़ केवल दो कोस है और वह देखिये वह बड़ा-सा पीपल का पेड़ जो दिखाई देता है वह उस खोह के पास ही है जहां महाराज शिवदत्त कैद हैं। (तेजसिंह को आते देखकर) हैं यह तेजसिंह कहां से चले आ रहे हैं? देखिये कुछ न कुछ पता जरूर लगा होगा।

तेजसिंह दूर से दिखाई पड़े मगर कुमार से न रहा गया, खुद उनकी तरफ चले। तेजसिंह ने भी इन दोनों को देखा और कुमार को अपनी तरफ आते देख दौड़कर उनके पास पहुंचे। बेसब्री के साथ पहले कुमार ने यही पूछा, क्यों, कुछ पता चला?

तेजसिंह-हां।

कुमार-कहां?

तेजसिंह-चलिए दिखाए देता हूं।

इतना सुनते ही कुमार तेजसिंह से लिपट गये और बड़ी खुशी के साथ बोले, चलो देखें।

तेज-घोड़े पर सवार हो लीजिये, आप घबड़ाते क्यों हैं, मैं तो आप ही को बुलाने जा रहा था, मगर आप यहां आकर क्यों बैठे हैं।

कुमार-इसका हाल देवीसिंह से पूछ लेना, पहले वहां तो चलो।

देवीसिंह ने घोड़ा तैयार किया, कुमार सवार हो गए। आगे-आगे तेजसिंह और देवीसिंह, पीछे-पीछे कुमार रवाना हुए और थोड़ी ही देर में खोह के पास जा पहुंचे। तेजसिंह ने कहा, लीजिए अब आपके सामने ही ताला खोलता हूं क्या करूं, मगर होशियार रहिएगा, कहीं ऐयार लोग आपको धोखा देकर इसका भी पता न लगा लें। ताला खोला गया और तीनों आदमी अंदर गए। जल्दी-जल्दी चलकर उस चश्मे के पास पहुंचे जहां ज्योतिषीजी बैठे हुए थे, उंगली के इशारे से बताकर तेजसिंह ने कहा, देखिये वह ऊपर चंद्रकान्ता खड़ी हैं।

कुमारी चंद्रकान्ता ऊंची पहाड़ी पर थीं, दूर से कुमार को आते देख मिलने के लिए बहुत घबडा गई। यही कैफियत कुमार की भी थी, रास्ते का ख्याल तो किया नहीं, ऊपर चढ़ने को तैयार हो गए, मगर क्या हो सकता था। तेजसिंह ने कहा, आप घबड़ाते क्यों हैं, ऊपर जाने के लिए रास्ता होता तो आपको यहां लाने की जरूरत ही क्या थी, कुमारी ही को न ले जाते?

दोनों की टकटकी बंधा गई, कुमार वीरेन्द्रसिंह कुमारी को देखने लगे और वह इनको। दोनों ही की आंखों से आंसू की नदी बह चली। कुछ करते नहीं बनता, हाय क्या टेढ़ा मामला है? जिसके वास्ते घर-बार छोड़ा, जिसके मिलने की उम्मीद में पहले ही जान से हाथ धो बैठे, जिसके लिए हजारों सिर कटे, जो महीनों से गायब रहकर आज दिखाई पड़ी, उससे मिलना तो दूर रहा अच्छी तरह बातचीत भी नहीं कर सकते। ऐसे समय में उन दोनों की क्या दशा थी वे ही जानते होंगे।

तेजसिंह ने ज्योतिषीजी की तरफ देखकर पूछा, क्यों आपने कोई तरकीब सोची? ज्योतिषीजी ने जवाब दिया, अभी तक कोई तरकीब नहीं सूझी, मगर मैं इतना जरूर कहूंगा कि बिना कोई भारी कार्रवाई किये कुमारी का ऊपर से उतरना मुश्किल है। जिस तरह से वे आई हैं, उसी तरह से बाहर होंगी, दूसरी तरकीब कभी पूरी नहीं हो सकती। मैंने रमल से भी राय ली थी, वह भी यही कहता है, सो अब जिस तरह हो सके कुमारी से यह पूछें और मालूम करें कि वह किस राह से यहां तक आईं, तब हम लोग ऊपर चलकर कोई काम करें। यह मामला तिलिस्म का है खेल नहीं है।

तेजसिंह ने इस बात को पसंद किया, कुमारी से पुकारकर कहा, आप घबड़ायें नहीं, जिस तरह से पहले आपने पत्तो पर लिखकर फेंका था उसी तरह अब फिर मुख्तसर में यह लिखकर फेंकिये कि आप किस राह से वहां पहुंची हैं।

बयान - 20

चपला तहखाने में उतरी। नीचे एक लम्बी-चौड़ी कोठरी नजर आई जिसमें चौखट के सिवाय किवाड़ के पल्ले नहीं थे। पहले चपला ने उसे खूब गौर करके देखा, फिर अंदर गई। दरवाजे के भीतर पैर रखते ही ऊपर वाले चौखटे के बीचोंबीच से लोहे का एक तख्ता बड़े जोर के साथ गिर पड़ा। चपला ने चौंककर पीछे देखा, दरवाजा बंद पाया। सोचने लगी-”यह कोठरी है कि मूसेदानी? दरवाजा इसका बिल्कुल चूहेदानी की तौर पर है। अब क्या करें? और कोई रास्ता कहीं जाने का मालूम नहीं पड़ता, बिल्कुल अधेरा हो गया, हाथ को हाथ दिखाई नहीं पड़ता!"चपला अधेरे में चारों तरफ घूमने और टटोलने लगी।

घूमते-घूमते चपला का पैर एक गङ्ढे में जा पड़ा, साथ ही इसके कुछ आवाज हुई और दरवाजा खुल गया, कोठरी में चांदना भी पहुंच गया। यह वह दरवाजा नहीं था जो पहले बंद हुआ था बल्कि एक दूसरा ही दरवाजा था। चपला ने पास जाकर देखा, इसमें भी कहीं किवाड़ के पल्ले नहीं दिखाई पड़े। आखिर उस दरवाजे की राह से कोठरी के बाहर हो एक बाग में पहुंची। देखा कि छोटे-छोटे फूलों के पेड़ों में रंग-बिरंगे कफूल खिले हुए हैं, एक तरफ से छोटी नहर के जरिये से पानी अंदर पहुंचकर बाग में छिड़काव का काम कर रहा है मगर क्यारियां इसमें की कोई भी दुरुस्त नहीं हैं। सामने एक बारहदरी नजर आई, धीरे- धीरे घूमती वहां पहुंची।

यह बारहदरी बिल्कुल स्याह पत्थर से बनी हुई थी। छत, जमीन, खंभे सब स्याह पत्थर के थे। बीच में संगमर्मर के सिंहासन पर हाथ भर का एक सुर्ख चौखूटा पत्थर रखा हुआ था। चपला ने उसे देखा, उस पर यह खुदा हुआ था-”यह तिलिस्म है, इसमें फंसने वाला कभी निकल नहीं सकता, हां अगर कोई इसको तोड़े तो सब कैदियों को छुड़ा ले और दौलन भी उसके हाथ लगे। तिलिस्म तोड़ने वाले के बदन में खूब ताकत भी होनी चाहिए नहीं तो मेहनत बेफायदे है।"

चपला को इसे पढ़ने के साथ ही यकीन हो गया कि अब जान गई, जिस राह से मैं आई हूं उस राह से बाहर जाना कभी नहीं हो सकता। कोठरी का दरवाजा बंद हो गया, बाहर वाले दरवाजे को कमंद से बांधाना व्यर्थ हुआ, मगर शायद वह दरवाजा खुला हो जिससे इस बाग में आई हूं। यह सोचकर चपला फिर उसी दरवाजे की तरफ गई मगर उसका कोई निशान तक नहीं मिला, यह भी नहीं मालूम हुआ कि किस जगह दरवाजा था। फिर लौटकर उसी बारहदरी में पहुंची और सिंहासन के पास गई, जी में आया कि इस पत्थर को उठा लूं, अगर किसी तरह बाहर निकलने का मौका मिले तो इसको भी साथ लेती जाऊंगी, लोगों को दिखाऊंगी। पत्थर उठाने के लिए झुकी मगर उस पर हाथ रखा ही था, कि बदन में सनसनाहट पैदा हुई और सिर घूमने लगा, यहां तक कि बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ी।

जब तक दिन बाकी था चपला बेहोश पड़ी रही, शाम होते-होते होश में आई। उठकर नहर के किनारे गई, हाथ-मुह धोए, जी ठिकाने हुआ। उस बाग में अंगूर बहुत लगे हुए थे मगर उदासी और घबराहट के सबब चपला ने एक दाना भी न खाया, फिर उसी बारहदरी में पहुंची। रात हो गई, और र धीरे - धीरे वह बारहदरी चमकने लगी। जैसे-जैसे रात बीतती जाती थी बारहदरी की चमक भी बढ़ती थी। छत, दीवार, जमीन और खंभे सब चमक रहे थे, कोई जगह उस बारहदरी में ऐसी न थी जो दिखाई न देती हो, बल्कि उसकी चमक से सामने वाला थोड़ा हिस्सा बाग का भी चमक रहा था।

यह चमक काहे की है इसको जानने के लिए चपला ने जमीन, दीवार और खंभों पर हाथ फेरा मगर कुछ समझ में न आया। ताज्जुब, डर और नाउम्मीदी ने चपला को सोने न दिया, तमाम रात जागते ही बीती। कभी दीवार टटोलती, कभी उस सिंहासन के पास जा उस पत्थर को गौर से देखती जिसके छूने से बेहोश हो गई थी।

सबेरा हुआ, चपला फिर बाग में घूमने लगी। उस दीवार के पास पहुंची जिसके नीचे से बाग में नहर आई थी। सोचने लगी, "दीवार बहुत चौड़ी नहीं है,नहर का मुंह भी खुला है, इस राह से बाहर हो सकती हूं, आदमी के जाने लायक रास्ता बखूबी है।"बहुत सोचने-विचारने के बाद चपला ने वही किया, कपड़े सहित नहर में उतर गई, दीवार से उस तरफ हो जाने के लिए गोता मारा, काम पूरा हो गया अर्थात् उस दीवार के बाहर हो गई। पानी से सिर निकालकर देखा तो नहर को बाग के भीतर की बनिस्बत चौड़ी पाया। पानी के बाहर निकली और देखा कि दूर सब तरफ ऊंचे-ऊंचे पहाड़ दिखाई देते हैं जिनके बीचोबीच से यह नहर आई है और दीवार के नीचे से होकर बाग के अंदर गई है।

चपला ने अपने कपड़े धूप में सुखाए, ऐयारी का बटुआ भीगा न था क्योंकि उसका कपड़ा रोगनी था। जब सब तरह से लैस हो चुकी, वहां से सीधो रवाना हुई। दोनों तरफ ऊंचे-ऊंचे पहाड़, बीच में नाला, किनारे पारिजात के पेड़ लगे हुए। पहाड़ के ऊपर किसी तरफ चढ़ने की जगह नहीं, अगर चढ़े भी तो थोड़ी दूर ऊपर जाने के बाद फिर उतरना पड़े। चपला नाले के किनारे रवाना हुई। दो पहर दिन चढ़े तक लगभग तीन कोस चली गई। आगे जाने के लिए रास्ता न मिला, क्योंकि सामने से भी एक पहाड़ ने रास्ता रोक रखा था जिसके ऊपर से गिरने वाला पानी का झरना नीचे नाले में आकर बहता था। पहाड़ी के नीचे एक दलान था जो अंदाज में दस गज लंबा और गज भर चौड़ा होगा। गौर के साथ देखने से मालूम होता था कि पहाड़ काट के बनाया गया है। इसके बीचोबीच पत्थर का एक अजदहा था जिसका मुंह खुला हुआ था और आदमी उसके पेट में बखूबी जा सकता था। सामने एक लंबा-चौड़ा संगमर्मर का साफ चिकना पत्थर भी जमीन पर जमाया हुआ था।

अजदहे को देखने के लिए चपला उसके पास गई। संगमर्मर के पत्थर पर पैर रखा ही था कि धीरे-धीरे अजदहे ने दम खींचना शुरू किया, और कुछ ही देर बाद यहां तक खींचा कि चपला का पैर न जम सका, वह खिंचकर उसके पेट में चली गई साथ ही बेहोश भी हो गई।

जब चपला होश में आई उसने अपने को एक कोठरी में पाया जो बहुत तंग सिर्फ दस-बारह आदमियों के बैठने लायक होगी। कोठरी के बगल में ऊपर जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई थीं। चपला थोड़ी देर तक अचंभे में भरी हुई बैठी रही, तरह-तरह के ख्याल उसके जी में पैदा होने लगे, अक्ल चकरा गई कि यह क्या मामला है। आखिर चपला ने अपने को सम्हाला और सीढ़ी के रास्ते छत पर चढ़ गई, जाते ही सीढ़ी का दरवाजा बंद हो गया। नीचे उतरने की जगह न थी। इधर-उधर देखने लगी। चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे पहाड़, सामने एक छोटा-सी खोह नजर पड़ी जो बहुत अंधेरी न थी क्योंकि आगे की तरफ से उसमें रोशनी पहुंच रही थी।

चपला लाचार होकर उस खोह में घुसी। थोड़ी ही दूर जाकर एक छोटा-सा दलान मिला, यहां पहुंचकर देखा कि कुमारी चंद्रकान्ता बहुत से बड़े-बड़े पत्तो आगे रखे हुए बैठी है और पत्तो पर पत्थर की नोक से कुछ लिख रही है। नीचे झांककर देखा तो बहुत ही ढालवीं पहाड़ी, उतरने की जगह नहीं, उसके नीचे कुंअर वीरेन्द्रसिंह और ज्योतिषीजी खड़े ऊपर की तरफ देख रहे हैं।

कुमारी चंद्रकान्ता के कान में चपला के पैर की आहट पहुंची, फिर के देखा, पहचानते ही उठ खड़ी हुई और बोली, "वाह सखी, खूब पहुंची। देख सब कोई नीचे खड़े हैं, कोई ऐसी तरकीब नजर नहीं आती कि मैं उन तक पहुंचूं। उन लोगों की आवाज मेरे कान तक पहुंचती है मगर मेरी कोई नहीं सुनता। तेजसिंह ने पूछा है कि तुम किस राह से यहां आई हो, उसी का जवाब इस पत्तो पर लिख रही हूं, इसे नीचे फेंकूंगी।”

चपला ने पहले खूब ध्यान करके चारों तरफ देखा, नीचे उतरने की कोई तरकीब नजर न आई, तब बोली, "कोई जरूरत पत्तो पर लिखने की नहीं है। मैं पुकार के कहे देती हूं, मेरी आवाज वे लोग बखूबी सुनेंगे, पहले यह बताओ तुमको बगुला निगल गया था या किसी दूसरी राह से आई हो?"

कुमारी ने कहा, "हां मुझको वही बगुला निगल गया था जिसको तुमने उस खंडहर में देखा होगा, शायद तुमको भी वही निगल गया हो।"चपला ने कहा, "नहीं मैं दूसरी राह से आई हूं, पहले उस खण्डहर का पता इन लोगों को दे लूं तब बातें करूं, जिससे ये लोग भी कोई बंदोबस्त हम लोगों के छुड़ाने का करें। जहां तक मैं सोचती हूं मालूम होता है कि हम लोग कई दिनों तक यहां फंसे रहेंगे, खैर जो होगा देखा जायगा।”

बयान - 21

कुमारी के पास आते हुए चपला को नीचे से कुंअर वीरेन्द्रसिंह वगैरह सबों ने देखा। ऊपर से चपला पुकारकर कहने लगी, "जिस खोह में हम लोगों को शिवदत्त ने कैद किया था उसके लगभग सात कोस दक्षिण एक पुराने खण्डहर में एक बड़ा भारी पत्थर का करामाती बगुला है, वही कुमारी को निगल गया था। वह तिलिस्म किसी तरह टूटे तो हम लोगों की जान बचे, दूसरी कोई तरकीब हम लोगों के छूटने की नहीं हो सकती। मैं बहुत सम्हलकर उस तिलिस्म में गई थी पर तो भी फंस गई। तुम लोग जाना तो बहुत होशियारी के साथ उसको देखना। मैं यह नहीं जानती कि वह खोह चुनार से किस तरफ है, हम लोगों को दुष्ट शिवदत्त ने कैद किया था।"

चपला की बात बखूबी सबों ने सुनी, कुमार को महाराज शिवदत्त पर बड़ा ही गुस्सा आया। सामने मौजूद ही थे कहीं ढूंढने जाना तो था ही नहीं, तलवार खींच मारने के लिए झपटे। महाराज शिवदत्त की रानी जो उन्हीं के पास बैठी सब तमाशा देखती और बातें सुनती थीं, कुंअर वीरेन्द्रसिंह को तलवार खींच के महाराज शिवद्त्त की तरफ झपटते देख दौड़कर कुमार के पैरों पर गिर पड़ीं और बोलीं, "पहले मुझको मार डालिए, क्योंकि मैं विधावा होकर मुर्दों से बुरी हालत में नहीं रह सकती!" तेजसिंह ने कुमार का हाथ पकड़ लिया और बहुत कुछ समझा-बुझाकर ठण्डा किया। कुमार ने तेजसिंह से कहा, "अगर मुनासिब समझो और हर्ज न हो तो कुमारी के मां-बाप को भी यहां लाकर कुमारी का मुंह दिखला दो, भला कुछ उन्हें भी तो ढाढ़स हो।" तेजसिंह ने कहा, "यह कभी नहीं हो सकता, इस तहखाने को आप मामूली न समझिए, जो कुछ कहना होगा मुंहजबानी सब हाल उनको समझा दिया जायगा। अब यह फिक्र करनी चाहिए जिससे कुमारी की जान छूटे। चलिए सब कोई महाराज जयसिंह को यह हाल कहते हुए उस खण्डहर तक चलें जिसका पता चपला ने दिया है।"

यह कहकर तेजसिंह ने चपला को पुकारकर कहा, "देखो हम लोग उस खण्डहर की तरफ जाते हैं। क्या जाने कितने दिन उस तिलिस्म को तोड़ने में लगें। तुम राजकुमारी को ढाढ़स देती रहना, किसी तरह की तकलीफ न होने पाये। क्या करें कोई ऐसी तरकीब भी नजर नहीं आती कि कपड़े या खाने-पीने की चीजें तुम तक पहुंचाई जायं।"

चपला ने ऊपर से जवाब दिया, "कोई हर्ज नहीं, खाने-पीने की कुछ तकलीफ न होगी क्योंकि इस जगह बहुत से मेवों के पेड़ हैं, और पत्थरों में से छोटे-छोटे कई झरने पानी के जारी हैं। आप लोग बहुत होशियारी से काम कीजिएगा। इतना मुझे मालूम हो गया कि बिना कुमार के यह तिलिस्म नहीं टूटने का,मगर तुम लोग भी इनका साथ मत छोड़ना, बड़ी हिफाजत रखना।"

महाराज शिवद्त्त और उनकी रानी को उसी तहखाने में छोड़ कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी चारों आदमी वहां से बाहर निकले। दोहरा ताला लगा दिया। इसके बाद सब हाल कहने के लिए कुमार ने देवीसिंह को नौगढ़ अपने मां-बाप के पास भेज दिया और यह भी कह दिया कि "नौगढ़ से होकर कल ही तुम लौट के विजयगढ़ आ जाना, हम लोग वहां चलते हैं, तुम आओगे तब कहीं जायेंगे।" यह सुन देवीसिंह नौगढ़ की तरफ रवाना हुए।

सबेरे ही से कुंअर वीरेन्द्रसिंह विजयगढ़ से गायब थे, बिना किसी से कुछ कहे ही चले गये थे इसलिए महाराज जयसिंह बहुत ही उदास हो कई जासूसों को चारों तरफ खोजने के लिए भेज चुके थे। शाम होते-होते ये लोग विजयगढ़ पहुंचे और महाराज से मिले। महाराज ने कहा, "कुमार तुम इस तरह बिना कहे-सुने जहां जी में आता है चले जाते हो, हम लोगों को इससे तकलीफ होती है, ऐसा न किया करो!"

इसका जवाब कुमार ने कुछ न दिया मगर तेजसिंह ने कहा, "महाराज, जरूरत ही ऐसी थी कि कुमार को बड़े सबेरे यहां से जाना पड़ा, उस वक्त आप आराम में थे, इसलिए कुछ कह न सके।" बाद इसके तेजसिंह ने कुल हाल, लड़ाई से चुनार जाना, महाराज शिवद्त्त की रानी को चुराना, खोह में कुमारी का पता लगाना, ज्योतिषीजी की मुलाकात, बर्देफरोशों की कैफियत, उस तहखाने में कुमारी और चपला को देख उनकी जुबानी तिलिस्म का हाल आदि सब-कुछ हाल पूरा-पूरा ब्यौरेवार कह सुनाया, आखिर में यह भी कहा कि अब हम लोग तिलिस्म तोड़ने जाते हैं।

इतना लंबा-चौड़ा हाल सुनकर महाराज हैरान हो गये। बोले, "तुम लोगों ने बड़ा ही काम किया इसमें कोई शक नहीं, हद के बाहर काम किया, अब तिलिस्म तोड़ने की तैयारी है, मगर वह तिलिस्म दूसरे के राज्य में है। चाहे वहां का राजा तुम्हारे यहां कैद हो तो भी पूरे सामान के साथ तुम लोगों को जाना चाहिए, मैं भी तुम लोगों के साथ चलूं तो ठीक है।"

तेजसिंह ने कहा, "आपको तकलीफ करने की कोई जरूरत नहीं है, थोड़ी फौज साथ जायेगी वही बहुत है।"

महाराज ने कहा, "ठीक है, मेरे जाने की कोई जरूरत नहीं मगर इतना होगा कि चलकर उस तिलिस्म को मैं भी देख आऊंगा।" तेजसिंह ने कहा, "जैसी मर्जी।" महाराज ने दीवान हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि "हमारी आधी फौज और कुमार की कुल फौज रात भर में तैयार हो रहे, कल यहां से चुनार की तरफ कूच होगा।"

बमूजिब हुक्म के सब इंतजाम दीवान साहब ने कर दिया। दूसरे दिन नौगढ़ से लौटकर देवीसिंह भी आ गए। बड़ी तैयारी के साथ चुनार की तरफ तिलिस्म तोड़ने के लिए कूच हुआ। दीवान हरदयालसिंह विजयगढ़ में छोड़ दिए गए।

बयान - 22

चार दिन रास्ते में लगे, पांचवें दिन चुनार की सरहद में फौज पहुंची। महाराज शिवद्त्त के दीवान ने यह खबर सुनी तो घबड़ा उठे, क्योंकि महाराजशिवद्त्त तो कैद हो ही चुके थे, लड़ने की ताकत किसे थी। बहुत-सी नजर वगैरह लेकर महाराज जयसिंह से मिलने के लिए हाजिर हुआ। खबर पाकर महाराज ने कहला भेजा कि मिलने की कोई जरूरत नहीं, हम चुनार फतह करने नहीं आये हैं, क्योंकि जिस दिन तुम्हारे महाराज हमारे हाथ फंसे उसी रोज चुनार फतह हो गया, हम दूसरे काम से आये हैं, तुम और कुछ मत सोचो।”

लाचार होकर दीवान साहब को वापस जाना पड़ा, मगर यह मालूम हो गया कि फलाने काम के लिए आये हैं। आज तक इस तिलिस्म का हाल किसी को भी मालूम न था, बल्कि किसी ने उस खण्डहर को देखा तक न था। आज यह मशहूर हो गया कि इस इलाके में कोई तिलिस्म है जिसको कुंअर वीरेन्द्रसिंह तोड़ेंगे। उस तिलिस्मी खण्डहर का पता लगाने के लिए बहुत से जासूस इधर-उधर भेजे गये। तेजसिंह और ज्योतिषीजी भी गये। आखिर उसका पता लग ही गया। दूसरे दिन मय फौज के सभी का डेरा उसी जंगल में जा लगा जहां वह तिलिस्मी खण्डहर था।

बयान - 23

महाराज जयसिंह, कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी खण्डहर की सैर करने के लिए उसके अंदर गये। जाते ही यकीन हो गया कि बेशक यह तिलिस्म है। हर एक तरफ वे लोग घुसे और एक-एक चीज को अच्छी तरह देखते-भालते बीच वाले बगुले के पास पहुंचे। चपला की जुबानी यह तो सुन ही चुके थे कि यही बगुला कुमारी को निगल गया था, इसलिए तेजसिंह ने किसी को उसके पास जाने न दिया, खुद गये। चपला ने जिस तरह इस बगुले को आजमाया था उसी तरह तेजसिंह ने भी आजमाया।

महाराज इस बगुले का तमाशा देखकर बहुत हैरान हुए। इसका मुह खोलना, पर फैलाना और अपने पीछे वाली चीज को उठाकर निगल जाना सबों ने देखा और अचंभे में आकर बनाने वाले की तारीफ करने लगे। इसके बाद उस तहखाने के पास आये जिसमें चपला उतरी थी। किवाड़ के पल्ले को कमंद से बंधा देख तेजसिंह को मालूम हो गया कि यह चपला की कार्रवाई है और जरूर यह कमंद भी चपला की ही है, क्योंकि इसके एक सिरे पर उसका नाम खुदा हुआ है, मगर इस किवाड़ का बांधाना बेफायदे हुआ क्योंकि इसमें घुसकर चपला निकल न सकी।

कुएं को भी बखूबी देखते हुए उस चबूतरे के पास आये जिस पर पत्थर का आदमी हाथ में किताब लिए सोया हुआ था। चपला की तरह तेजसिंह ने भी यहां धोखा खाया। चबूतरे के ऊपर चढ़ने वाली सीढ़ी पर पैर रखते ही उसके ऊपर का पत्थर आवाज देकर पल्ले की तरह खुला और तेजसिंह धम्म से जमीन पर गिर पड़े। इनके गिरने पर कुमार को हंसी आ गई, मगर देवीसिंह बड़े गुस्से में आये। कहने लगे, "सब शैतानी इसी आदमी की है जो इस पर सोया है,ठहरो मैं इसकी खबर लेता हूं!" यह कहकर उछलकर बड़े जोर से एक धौल उसके सिर पर जमाई। धौल का लगना था कि वह पत्थर का आदमी उठ बैठा, मुंह खोल दिया, हाथी की तरह उसके मुंह से हवा निकलने लगी, मालूम होता था कि भूकंप आया है, सबों की तबीयत घबरा गई। ज्योतिषीजी ने कहा, "जल्दी इस मकान से बाहर भागो ठहरने का मौका नहीं है!"

इस दलान से दूसरे दलान में होते हुए सब के सब भागे। भागने के वक्त जमीन हिलने के सबब से किसी का पैर सीधा नहीं पड़ता था। खण्डहर के बाहर हो दूर से खड़े होकर उसकी तरफ देखने लगे। पूरे मकान को हिलते देखा। दो घण्टे तक यही कैफियत रही और तब तक खण्डहर की इमारत का हिलना बंद न हुआ।

तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से कहा, "आप रमल और नजूम से पता लगाइये कि यह तिलिस्म किस तरह और किसके हाथ से टूटेगा?" ज्योतिषीजी ने कहा, "आज दिन भर आप लोग सब्र कीजिए और जो कुछ सोचना हो सोचिए, रात को मैं सब हाल रमल से दरियाफ्त कर लूंगा, फिर कल जैसा मुनासिब होगा किया जायगा। मगर यहां कई रोज लगेंगे, महाराज का रहना ठीक नहीं है, बेहतर है कि वे विजयगढ़ जायं।" इस राय को सबों ने पसंद किया। कुमार ने महाराज से कहा, "आप सिर्फ इस खण्डहर को देखने आये थे सो देख चुके अब जाइये। आपका यहां रहना मुनासिब नहीं।"

महाराज विजयगढ़ जाने पर राजी न थे मगर सबों के जिद करने से कबूल किया। कुमार की जितनी फौज थी उसको और अपनी जितनी फौज साथ आई थी उसमें से भी आधी फौज साथ ले विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए।

बयान - 24

रात भर जगन्नाथ ज्योतिषी रमल फेंकने और विचार करने में लगे रहे। कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और देवीसिंह भी रात भर पास ही बैठे रहे। सब बातों को देख-भालकर ज्योतिषीजी ने कहा, "रमल से मालूम होता है कि इस तिलिस्म के तोड़ने की तरकीब एक पत्थर पर खुदी हुई है और वह पत्थर भी इसी खण्डहर में किसी जगह पड़ा हुआ है। उसको तलाश करके निकालना चाहिए तब सब पता चलेगा। स्नान-पूजा से छुट्टी पा कुछ खा-पीकर इस तिलिस्म में घूमना चाहिए, जरूर उस पत्थर का भी पता लगेगा।"

सब कामों से छुट्टी पाकर दोपहर को सब लोग खण्डहर में घुसे। देखते-भालते उसी चबूतरे के पास पहुंचे जिस पर पत्थर का वह आदमी सोया हुआ था जिसे देवीसिंह ने धौल जमाई थी। उस आदमी को फिर उसी तरह सोता पाया।

ज्योतिषीजी ने तेजसिंह से कहा, "यह देखो ईंटों का ढेर लगा हुआ है, शायद इसे चपला ने इकट्ठा किया हो और इसके ऊपर चढ़कर इस आदमी को देखा हो। तुम भी इस पर चढ़ के खूब गौर से देखो तो सही किताब में जो इसके हाथ में है क्या लिखा है?" तेजसिंह ने ऐसा ही किया और उस ईंट के ढेर पर चढ़कर देखा। उस किताब में लिखा था-

8 पहल- 5-अंक

6 हाथ- 3-अंगुल

जमा पूंजी-0-जोड़, ठीक नाप तोड़।

तेजसिंह ने ज्योतिषीजी को समझाया कि इस पत्थर की किताब में ऐसा लिखा है, मगर इसका मतलब क्या है कुछ समझ में नहीं आता। ज्योतिषीजी ने कहा, "मतलब भी मालूम हो जायगा, तुम एक कागज पर इसकी नकल उतार लो।" तेजसिंह ने अपने बटुए में से कागज कलम दवात निकाल उस पत्थर की किताब में जो लिखा था उसकी नकल उतार ली।

ज्योतिषीजी ने कहा, "अब घूमकर देखना चाहिए कि इस मकान में कहीं आठ पहल का कोई खंभा या चबूतरा किसी जगह पर है या नहीं।" सब कोई उस खंडहर में घूम-घूमकर आठ पहल का खंभा या चबूतरा तलाश करने लगे। घूमते-घूमते उस दलान में पहुंचे जहां तहखाना था। एक सिरा कमंद का तहखाने की किवाड़ के साथ और दूसरा सिरा जिस खंभे के साथ बंधा हुआ था, उसी खंभे को आठ पहल का पाया। उस खंभे के ऊपर कोई छत न थी, ज्योतिषीजी ने कहा, "इसकी लंबाई हाथ से नापनी चाहिए।" तेजसिंह ने नापा, 6 हाथ 7 अंगुल हुआ, देवीसिंह ने नापा 6 हाथ 5 अंगुल हुआ, बाद इसके ज्योतिषीजी ने नापा, 6 हाथ 10 अंगुल पाया, सब के बाद कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने नापा, 6 हाथ 3 अंगुल हुआ।

ज्योतिषीजी ने खुश होकर कहा, "बस यही खंभा है, इसी का पता इस किताब में लिखा है, इसी के नीचे 'जमा पूंजी' यानी वह पत्थर जिसमें तिलिस्म तोड़ने की तरकीब लिखी हुई है गड़ा है। यह भी मालूम हो गया कि यह तिलिस्म कुमार के हाथ से ही टूटेगा, क्योंकि उस किताब में जिसकी नकल कर लाये हैं उसका नाप 6 हाथ 3 अंगुल लिखा है जो कुमार ही के हाथ से हुआ, इससे मालूम होता है कि यह तिलिस्म कुमार ही के हाथ से फतह भी होगा। अब इस कमंद को खोल डालना चाहिए जो इस खंभे और किवाड़ के पल्ले में बंधी हुई है।"

तेजसिंह ने कमंद खोलकर अलग किया, ज्योतिषीजी ने तेजसिंह की तरफ देख के कहा, "सब बातें तो मिल गईं, आठ पहल भी हुआ और नाप से 6 हाथ, 3 अंगुल भी है, यह देखिये, इस तरफ 5 का अंक भी दिखाई देता है, बाकी रह गया, ठीक नाप तोड़, सो कुमार के हाथ से इसका नाप भी ठीक हुआ,अब यही इसको तोड़ें!"

कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने उसी जगह से एक बड़ा भारी पत्थर (चूने का ढोंका) ले लिया जिसका मसाला सख्त और मजबूत था। इसी ढोंके को ऊंचा करके जोर से उस खंभे पर मारा जिससे वह खंभा हिल उठा, दो-तीन दफे में बिल्कुल कमजोर हो गया, तब कुमार ने बगल में दबाकर जोर दिया और जमीन से निकाल डाला। खंभा उखाड़ने पर उसके नीचे एक लोहे का संदूक निकला जिसमें ताला लगा हुआ था। बड़ी मुश्किल से इसका भी ताला तोड़ा। भीतर एक और संदूक निकला, उसका भी ताला तोड़ा। और एक संदूक निकला। इसी तरह दर्जे-ब-दर्जे सात संदूक उसमें से निकले। सातवें संदूक में एक पत्थर निकला जिस पर कुछ लिखा हुआ था, कुमार ने उसे निकाल लिया और पढ़ा, यह लिखा हुआ था-

"सम्हाल के काम करना, तिलिस्म तोड़ने में जल्दी मत करना, अगर तुम्हारा नाम वीरेन्द्रसिंह है तो यह दौलत तुम्हारे ही लिये है।

बगुले के मुंह की तरफ जमीन पर जो पत्थर संगमर्मर का जड़ा है वह पत्थर नहीं मसाला जमाया हुआ है। उसको उखाड़कर सिर के में खूब महीन पीसकर बगुले के सारे अंग पर लेप कर दो। वह भी मसाले ही का बना हुआ है, दो घंटे में बिल्कुल गलकर बह जायगा। उसके नीचे जो कुछ तार-चर्खे पहिये पुर्जे हो सब तोड़ डालो। नीचे एक कोठरी मिलेगी जिसमें बगुले के बिगड़ जाने से बिल्कुल उजाला हो गया होगा। उस कोठरी से एक रास्ता नीचे उस कुएं में गया है जो पूरब वाले दलान में है। वहां भी मसाले से बना एक बुङ्ढा आदमी हाथ में किताब लिये दिखाई देगा। उसके हाथ से किताब ले लो, मगर एकाएक मत छीनो नहीं तो धोखा खाओगे! पहले उसका दाहिना बाजू पकड़ो, वह मुंह खोल देगा, उसका मुंह काफूर से खूब भर दो, थोड़ी ही देर में वह भी गल के बह जायेगा, तब किताब ले लो। उसके सब पन्ने भोजपत्र के होंगे। जो कुछ उसमें लिखा हो वैसा करो।

-विक्रम।"

कुमार ने पढ़ा, सभी ने सुना। घंटे भर तक तो सिवाय तिलिस्म बनाने वाले की तारीफ के किसी की जुबान से दूसरी बात न निकली। बाद इसके यह राय ठहरी कि अब दिन भी थोड़ा रह गया है, डेरे में चलकर आराम किया जाय, कल सबेरे ही कुल कामों से छुट्टी पाकर तिलिस्म की तरफ झुकें।

यह खबर चारों तरफ मशहूर हो गई कि चुनारगढ़ के इलाके में कोई तिलिस्म है जिसमें कुमारी चंद्रकान्ता और चपला फंस गई हैं। उनको छुड़ाने और तिलिस्म तोड़ने के लिए कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने मय फौज के उस जगह डेरा डाला है।

तिलिस्म किसको कहते हैं? वह क्या चीज है? उसमें आदमी कैसे फंसता है? कुंअर वीरेन्द्रसिंह उसे क्यों कर तोड़ेंगे? इत्यादि बातो को जानने और देखने के लिए दूर-दूर के बहुत से आदमी उस जगह इकट्ठे हुए जहां कुमार का लश्कर उतरा हुआ था, मगर खौफ के मारे खंडहर के अंदर कोई पैर नहीं रखता था,बाहर से ही देखते थे।

कुमार के लश्कर वालों ने घूमते-फिरते कई नकाबपोश सवारों को भी देखा जिनकी खबर उन लोगों ने कुमार तक पहुंचाई।

पंडित बद्रीनाथ, अहमद और नाजिम को साथ लेकर महाराज शिवदत्त को छुड़ाने गये थे, तहखाने में शेर के मुंह से जुबान खींच किवाड़ खोलना चाहा मगर न खुल सका, क्योंकि यहां तेजसिंह ने दोहरा ताला लगा दिया था। जब कोई काम न निकला तब वहां से लौटकर विजयगढ़ गये, ऐयारी की फिक्र में थे कि यह खबर कुंअर वीरेन्द्रसिंह की इन्होंने भी सुनी। लौटकर इसी जगह पहुंचे। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल भी उसी ठिकाने जमा हुए और इनसबों की यह राय होने लगी कि किसी तरह तिलिस्म तोड़ने में बाधा डालनी चाहिए। इसी फिक्र में ये लोग भेष बदलकर इधर-उधर तथा लश्कर में घूमने लगे।

बयान - 25

दूसरे दिन स्नान-पूजा से छुट्टी पाकर कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी फिर उस खंडहर में घुसे, सिरका साथ में लेते गये। कल जो पत्थर निकला था उस पर जो कुछ लिखा था फिर पढ़ के याद कर लिया और उसी लिखे के बमूजिब काम करने लगे। बाहर दरवाजे पर बल्कि खंडहर के चारों तरफ पहरा बैठा हुआ था।

बगुले के पास गये, उसके सामने की तरफ जो सफेद पत्थर जमीन में गड़ा हुआ था, जिस पर पैर रखने से बगुला मुंह खोल देता था, उखाड़ लिया। नीचे एक और पत्थर कमानी पर जड़ा हुआ पाया। सफेद पत्थर को सिरके में खूब बारीक पीसकर बगुले के सारे बदन में लगा दिया। देखते-देखते वह पानी होकर बहने लगा, साथ ही इसके एक खूशबू-सी फैलने लगी। दो घंटे में बगुला गल गया। जिस खंभे पर बैठा था वह भी बिल्कुल पिघल गया, नीचे की कोठरी दिखाई देने लगी जिसमें उतरने के लिए सीढ़ियां थीं और इधर-उधर बहुत से तार और कलपुर्जे वगैरह लगे हुए थे। सबों को तोड़ डाला और चारों आदमी नीचे उतरे, भीतर ही भीतर उस कुएं में जा पहुंचे जहां हाथ में किताब लिये बुङ्ढा आदमी बैठा था, सामने एक पत्थर की चौकी पर पत्थर ही के बने रंग-बिरंगे फूल रखे हुए देखे।

बाजू पकड़ते ही बुङ्ढे ने मुंह खोल दिया, तेजसिंह से काफूर लेकर कुमार ने उसके मुंह में भर दिया। घंटे भर तक ये लोग उसी जगह बैठे रहे। तेजसिंह ने एक मशाल खूब मोटी पहले ही से बाल ली थी। जब बुङ्ढा गल गया किताब जमीन पर गिर पड़ी, कुमार ने उठा लिया। उसकी जिल्द भी जिस पर कुछ लिखा हुआ था भोजपत्र ही की थी। कुमार ने पढ़ा, उस पर यह लिखा हुआ पाया-

"इन फूलों को भी उठा लो, तुम्हारे ऐयारों के काम आवेंगे। इनके गुण भी इसी किताब में लिखे हुए हैं, इस किताब को डेरे में ले जाकर पढ़ो, आज और कोई काम मत करो।"

तेजसिंह ने बड़ी खुशी से उन फूलों को उठा लिया जो गिनती में छ: थे। उस कुएं में से कोठरी में आकर ये लोग ऊपर निकले और धीरे- धीरे खंडहर के बाहर हो गये।

थोड़ा दिन बाकी था जब कुंअर वीरेन्द्रसिंह अपने डेरे में पहुंचे। यह राय ठहरी कि रात में इस किताब को पढ़ना चाहिए, मगर तेजसिंह को यह जल्दी थी कि किसी तरह फूलों के गुण मालूम हों। कुमार से कहा, "इस वक्त इन फूलों के गुण पढ़ लीजिए बाकी रात को पढ़ियेगा।" कुमार ने हंसकर कहा, "जब कुल तिलिस्म टूट लेगा तब फूलों के गुण पढ़े जायेंगे।" तेजसिंह ने बड़ी खुशामद की, आखिर लाचार होकर कुमार ने जिल्द खोली। उस वक्त सिवाय इन चारों आदमियों के उस खेमे में और कोई न था, सब बाहर कर दिये गये। कुमार पढ़ने लगे-

फूलों के गुण:

(1) गुलाब का फूल-अगर पानी में घिसकर किसी को पिलाया जाय तो उसे सात रोज तक किसी तरह की बेहोशी असर न करेगी।

(2) मोतिये का फूल-अगर पानी में थोड़ा-सा घिसकर किसी कुएं में डाल दिया जाय तो चार पहर तक उस कुएं का पानी बेहोशी का काम देगा, जो पियेगा बेहोश हो जायगा, इसकी बेहोशी आधा घंटे बाद चढ़ेगी।

दो ही फूलों के गुण पढ़े थे कि तीनों ऐयार मारे खुशी के उछल पड़े, कुमार ने किताब बंद कर दी और कहा, "बस अब न पढ़ेंगे।"

अब तेजसिंह हाथ जोड़ रहे हैं, कसमें देते जाते हैं कि किसी तरह परमेश्वर के वास्ते पढ़िये, आखिर यह सब आप ही के काम आवेगा, हम लोग आप ही के तो ताबेदार हैं। थोड़ी देर तक दिल्लगी करके कुमार ने फिर पढ़ना शुरू किया-

(3) ओरहुर का फूल-पानी में घिसकर पीने से चार रोज तक भूख न लगे।

(4) कनेर का फूल-पानी में घिसकर पैर धो ले तो थकावट या राह चलने की सुस्ती निकल जाय।

(5) गुलदावदी का फूल-पानी में घिसकर आंखों में अंजन करे तो अंधेरे में दिखाई दे।

(6) केवड़े का फूल-तेल में घिसकर लगावे तो सर्दी असर न करे, कत्थे के पानी में घिसकर किसी को पिलाए तो सात रोज तक किसी किस्म का जोश उसके बदन में बाकी न रहे।

इन फूलों को बड़ी खुशी से तेजसिंह ने अपने बटुए में डाल लिया, देवीसिंह और ज्योतिषीजी मांगते ही रहे मगर देखने को भी न दिया।

बयान - 26

इन फूलों को पाकर तेजसिंह जितने खुश हुए शायद अपनी उम्र में आज तक कभी ऐसे खुश न हुए होंगे। एक तो पहले ही ऐयारी में बढ़े-चढ़े थे, आज इन फूलों ने इन्हें और बढ़ा दिया। अब कौन है जो इनका मुकाबला करे? हां एक चीज की कसर रह गई, लोपांजन या कोई गुटका इस तिलिस्म में से इनको ऐसा न मिला, जिससे ये लोगों की नजरों से छिप जाते, और अच्छा ही हुआ जो न मिला, नहीं तो इनकी ऐयारी की तारीफ न होती क्योंकि जिस आदमी के पास कोई ऐसी चीज हो जिससे वह गायब हो जाय तो फिर ऐयारी सीखने की जरूरत ही क्या रही। गायब होकर जो चाहा कर डाला।

आज की रात इन चारों को जागते ही बीती। तिलिस्म की तारीफ, फूलों के गुण, तिलिस्मी किताब के पढ़ने, सबेरे फिर तिलिस्म में जाने आदि की बातचीत में रात बीत गई। सबेरा हुआ, जल्दी-जल्दी स्नान-पूजा से चारों ने छुट्टी पा ली और कुछ भोजन करके तिलिस्म में जाने को तैयार हुए।

कुमार ने तेजसिंह से कहा, "हमारे पलंग पर से तिलिस्मी किताब उठा के तुम लेते चलो, वहां फिर एक दफे पढ़ के तब कोई काम करेंगे।" तेजसिंह तिलिस्मी किताब लेने गये, मगर किताब नजर न पड़ी, चारपाई के नीचे हर तरफ देखा, कहीं पता नहीं, आखिर कुमार से पूछा, "किताब कहां है? पलंग पर तो नहीं है?"

सुनते ही कुमार के होश उड़ गये, जी सन्न हो गया, दौडे हुए पलंग के पास आये। खूब ढूंढा, मगर कहीं किताब हो तब तो मिले। कुमार 'हाय' करके पलंग के ऊपर गिर पड़े, बिल्कुल हौसला टूट गया, कुमारी चंद्रकान्ता के मिलने से नाउम्मीद हो गये, अब तिलिस्मी किताब कहां जिसमें तिलिस्म तोड़ने की तरकीब लिखी है। तेजसिंह, देवीसिंह, और जगन्नाथ ज्योतिषी भी घबरा उठे। दो घड़ी तक किसी के मुंह से आवाज तक न निकली, बाद इसके तलाश होने लगी। लश्कर भर में खूब शोर मचा कि कुमार के डेरे से तिलिस्मी किताब गायब हो गई, पहरे वालों पर सख्ती होने लगी, चारों तरफ चोर की तलाश में लोग निकले।

तेजसिंह ने कुमार से कहा, "आप जी मत छोटा कीजिये, मैं वादा करता हूं कि चोर जरूर पकड़ूंगा, आपके सुस्त हो जाने से सभी का जी टूट जायगा,कोई काम करते न बन पड़ेगा!" बहुत समझाने पर कुमार पलंग से उठे, उसी वक्त एक चोबदार ने आकर अजीब खबर सुनाई। हाथ जोड़कर अर्ज किया कि"तिलिस्म के फाटक पर पहरे के लिए जो लोग मुस्तैद किये गये हैं उनमें से एक पहरे वाला हाजिर हुआ है और कहता है कि तिलिस्म के अंदर कई आदमियों की आहट मिली है, किसी को अंदर जाने का हुक्म तो है नहीं जो ठीक मालूम करें, अब जैसा हुक्म हो किया जाय।"

इस खबर को सुनते ही तेजसिंह पता लगाने के लिए तिलिस्म में जाने को तैयार हुए। देवीसिंह से कहा, "तुम भी साथ चलो, देख आवें क्या मामला है।"ज्योतिषीजी बोले, "हम भी चलेंगे।" कुमार भी उठ खड़े हुए। आखिर ये चारों तिलिस्म में चले। बाहर फतहसिंह सेनापति मिले, कुमार ने उनको भी साथ ले लिया। दरवाजे के अंदर जाते ही इन लोगों के कान में भी चिल्लाने की आवाज आई, आगे बढ़ने से मालूम हुआ कि इसमें कई आदमी हैं। आवाज की धुन पर ये लोग बराबर बढ़ते चले गये। उस दलान में पहुंचे जिसमें चबूतरे के ऊपर हाथ में किताब लिये पत्थर का आदमी सोया था।

देखा कि पत्थर वाला आदमी उठ के बैठा हुआ पंडित बद्रीनाथ ऐयार को दोनों हाथों से दबाये है और वह चिल्ला रहे हैं। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल छुड़ाने की तरकीब कर रहे हैं मगर कोई काम नहीं निकलता। तिलिस्मी किताब के खो जाने का इन लोगों को बड़ा भारी गम था, मगर इस वक्त पंडित बद्रीनाथ ऐयार की यह दशा देख सबों को हंसी आ गई, एकदम खिलखिला के हंस पड़े। उन ऐयारों ने पीछे फिरकर देखा तो कुंअर वीरेन्द्रसिंह मय तीनों ऐयारों के खड़े हैं, साथ में फतहसिंह सेनापति हैं।

तेजसिंह ने ललकारकर कहा, "वाह खूब, जैसी जिसकी करनी होती है उसको वैसा ही फल मिलता है, इसमें कोई शक नहीं। बेचारे कुंअर वीरेन्द्रसिंह को बेकसूर तुम लोगों ने सताया, इसी की सजा तुम लोगों को मिली! परमेश्वर भी बड़ा इंसाफ करने वाला है। क्यों पन्नालाल तुम लोग जान-बूझकर क्यों फंसते हो? तुम लोगों को तो किसी ने पकड़ा नहीं है, फिर बद्रीनाथ के पीछे क्यों जान देते हो? इनको इसी तरह छोड़ दो, तुम लोग जाओ हवा खाओ!"

पन्नालाल ने कहा, "भला इनको ऐसी हालत में छोड़ के हम लोग कहीं जा सकते हैं? अब तो आपके जो जी में आवे सो कीजिये हम लोग हाजिर हैं।"तेजसिंह ने पंडित बद्रीनाथ के पास जाकर कहा, "पंडितजी परनाम! क्यों, मिजाज कैसा है? क्या आप तिलिस्म तोड़ने को आये थे? अपने राजा को तो पहले छुड़ा लिये होते। खैर शायद तुमने यह सोचा कि हम ही तिलिस्म तोड़कर कुल खजाना ले लें और खुद चुनार के राजा बन जायें!"

देवीसिंह ने भी आगे बढ़ के कहा, "बद्रीनाथ भाई, तिलिस्म तोड़ना तो उसमें से कुछ मुझे भी देना, अकेले मत उड़ा जाना!" ज्योतिषीजी ने कहा, "बद्रीनाथजी, अब तो तुम्हारे ग्रह बिगड़े हैं! खैरियत तभी है कि वह तिलिस्मी किताब हमारे हवाले करो जिसे आप लोगों ने रात को चुराया है!"

बद्रीनाथ सबकी सुनते मगर सिवाय जमीन देखने के जवाब किसी को नहीं देते थे। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल पंडित बद्रीनाथ को छोड़ अलग हो गये और कुमार से बोले, "ईश्वर के वास्ते किसी तरह बद्रीनाथ की जान बचाइये!"

कुमार ने कहा, "भला हम क्या कर सकते हैं, कुल हाल तिलिस्म का मालूम नहीं, जो किताब तिलिस्म से मुझको मिली थी, जिसे पढ़कर तिलिस्म तोड़ते, वह तुम लोगों ने गायब कर ली। अगर मेरे पास होती तो उसमें देखकर कोई तरकीब इनके छुड़ाने की करता, हां अगर तुम लोग वह किताब मुझे दे दो तो जरूर बद्रीनाथ इस आफत से छूट सकते हैं।"

यह सुनकर पन्नालाल ने तिरछी निगाहों से बद्रीनाथ की तरफ देखा, उन्होंने भी कुछ इशारा किया। पन्नालाल ने कुमार से कहा, "हम लोगों ने किताब नहीं चुराई है, नहीं तो ऐसी बेबसी की हालत में जरूर दे देते। या तो किसी तरह से पंडित बद्रीनाथ को छुड़ाइये या हम लोगों के वास्ते यह हुक्म दीजिये कि बाहर जाकर इनके लिए कुछ खाने का सामान लाकर खिलावें, बल्कि जब तक आपकी किताब न मिले आप तिलिस्म न तोड़ लें और बद्रीनाथ उसी तरह बेबस रहें, तब तक हम लोगों में से किसी को खिलाने-पिलाने के लिए यहां आने-जाने का हुक्म हो।"

देवीसिंह ने कहा, "पन्नालाल, भला यह तो कहो कि अगर कई रोज तक बद्रीनाथ इसी तरह कैद रह गये तो खाने-पीने का बंदोबस्त तो तुम कर लोगे,जाकर ले आओगे लेकिन अगर इनको दिशा मालूम पड़ेगी तो क्या उपाय करोगे? उसको कहां ले जाकर फेंकोगे? या इसी तरह इनके नीचे ढेर लगा रहेगा?"

इसका जवाब पन्नालाल ने कुछ न दिया। तेजसिंह ने कहा, "सुनो जी, ऐयारों को ऐयार लोग खूब पहचानते हैं। अगर तुम्हारे आने-जाने के लिए कुमार हुक्म नहीं देते तो हम हुक्म देते हैं कि आया करो और जिस तरह बने बद्रीनाथ की हिफाजत करो। तुम लोगों ने हमारा बड़ा हर्ज किया, तिलिस्मी किताब चुरा ली और अब मुकरते हो। इस वक्त हमारे अख्तियार में सब कोई हो, जिसके साथ जो चाहे करूं, सीधी तरह से न दो तो डंडों के जोर से किताब ले लूं मगर नहीं, छोड़ देता हूं और खूब होशियार कर देता हूं, किताब सम्हाल के रखना, मैं बिना लिये न छोडूंगा और तुम लोगों को गिरफ्तार भी न करूंगा!"

तेजसिंह की बात सुनकर पंडित बद्रीनाथ लाल हो गये और बोले, "इस वक्त हमको बेबस देख के शेखी करते हो! यह हिम्मत तो तब जानें कि हमारे छूटने पर कह-बद के कोई ऐयारी करो और जीत जाओ! क्या तुम ही एक दुनिया में ऐयार हो? हम भी जोर देकर कहते हैं कि हम ही ने तुम्हारी तिलिस्मी किताब चुराई है, मगर हम लोगों में से किसी को कैद किए या सताये बिना तुम नहीं पा सकते। यह शेखी तुम्हारी न चलेगी कि ऐयारों को गिरफ्तार भी न करो बल्कि आने-जाने के लिए छुट्टी दे दो और किताब भी ले लो। ऐसा कर तो लो उसी दिन से हम लोग तुम्हारे गुलाम हो जायं और महाराज शिवदत्त को छोड़कर कुमार की ताबेदारी करें। मैं बता देता हूं कि किताब भी न दूंगा और यहां से छूट के भी निकल जाऊंगा।"

तेजसिंह ने कहा, "मैं भी कसम खाकर कहता हूं कि बिना तुम लोगों को कैद किये अगर किताब न ले लूं तो फिर ऐयारी का नाम न लूं और सिर मुड़ा के दूसरे देश में निकल जाऊं! मुझको भी तुम लोगों से एक ही दफे में फैसला कर लेना है।"

इस बात पर तेजसिंह और बद्रीनाथ दोनों ने कसमें खाईं। बेचारे कुंअर वीरेन्द्रसिंह सबों का मुंह देखते थे, कुछ कहते बन नहीं पड़ता था। तेजसिंह ने देवीसिंह और ज्योतिषीजी को अलग ले जाकर कान में कुछ कहा और दोनों उसी वक्त तिलिस्म के बाहर हो गये। फिर तेजसिंह बद्रीनाथ के पास आकर बोले, "हम लोग जाते हैं, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल को जहां जी चाहे भेजो और अपने छुड़ाने की जो तरकीब सूझे करो। पहरे वालों को कह दिया जाता है, वे तुम्हारे साथियों को आते-जाते न रोकेंगे।"

कुमार को लिये हुए तेजसिंह अपने डेरे में पहुंचे, देखा तो ज्योतिषीजी बैठे हैं। तेजसिंह ने पूछा, "क्यों ज्योतिषीजी देवीसिंह गये?"

ज्यो-हां वह तो गये।

तेज-आपने अभी कुछ देखा कि नहीं?

ज्यो-हां पता लगा, पर आफत पर आफत नजर आती है।

तेज-वह क्या?

ज्यो-रमल से मालूम होता है कि उन लोगों के हाथ से भी किताब निकल गई और अभी तक कहीं रखी नहीं गई। देखें देवीसिंह क्या करके आते हैं, हम भी जाते तो अच्छा होता।

तेज-तो फिर आप राह क्यों देखते हैं, जाइये, हम भी अपनी धुन में लगतेहैं।

यह सुन ज्योतिषीजी तुरंत वहां से चले गये। कुमार ने कहा, "भला कुछ हमें भी तो मालूम हो कि तुम लोगों ने क्या सोचा, क्या कर रहे हो और क्या समझ के तुमने उन लोगों को छोड़ दिया। मैं तो जरूर यही कहूंगा कि इस वक्त तुम्हीं ने शेखी में आकर काम बिगाड़ दिया, नहीं तो वे लोग हमारे हाथ फंस चुके थे।"

तेजसिंह ने कहा, "मेरा मतलब आप अभी तक नहीं समझे, किताब तो मैं उनसे ले ही लूंगा मगर जहां तक बने उन सबों को एक ही दफे में अपना चेला भी करूं, नहीं तो यह रोज-रोज की ऐयारी से कहां तक होशियारी चलेगी? सिवाय जिद्द और बदाबदी के ऐयार कभी ताबेदारी कबूल नहीं करते, चाहे जान चली जाय, मालिक का संग कभी न छोडेंग़े!" कुमार ने कहा, "इससे तो हमको और तरद्दुद हुआ। ईश्वर न करे कहीं तुम हार गए और बद्रीनाथ छूट के निकल गये तो क्या तुम हमारा भी संग छोड़ दोगे?"

तेज-बेशक छोड़ दूंगा, फिर अपना मुंह न दिखाऊंगा!

कुमार-तो तुम आप भी गये और मुझे भी मारा, अच्छी दोस्ती अदा की! हाय अब क्या करूं? भला यह तो बताओ कि देवीसिंह और ज्योतिषीजी कहां गये?

तेज-अभी न बताऊंगा, पर आप डरिये मत, ईश्वर चाहेगा तो सब काम ठीक होगा और मेरा-आपका साथ भी न छूटेगा। आप बैठिये, मैं दो घंटे के लिए कहीं जाता हूं।

कुमार-अच्छा जाओ।

तेजसिंह वहां से चले गये, फतहसिंह को भी कुमार ने बिदा किया, अब देखना चाहिए ये लोग क्या करते हैं और कौन जीतता है।

बयान - 27

तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी के चले जाने पर कुमार बहुत देर तक सुस्त बैठे रहे। तरह-तरह के ख्याल पैदा होते रहे, जरा खुटका हुआ और दरवाजे की तरफ देखने लगते कि शायद तेजसिंह या देवीसिंह आते हों, जब किसी को नहीं देखते तो फिर हाथ पर गाल रखकर सोच-विचार में पड़ जाते। पहर भर दिन बाकी रह गया पर तीनों ऐयारों में से कोई भी लौटकर न आया, कुमार की तबीयत और भी घबड़ाई, बैठा न गया, डेरे के बाहर निकले।

कुमार को डेरे के बाहर होते देख बहुत से मुलाजिम सामने आ खड़े हुए। बगल ही में फतहसिंह सेनापति का डेरा था, सुनते ही कपड़े बदल हरबों को लगाकर वह भी बाहर निकल आये और कुमार के पास आकर खड़े हो गये। कुमार ने फतहसिंह से कहा, "चलो जरा घूम आवें, मगर हमारे साथ और कोई न आवे!" यह कह आगे बढ़े। फतहसिंह ने सबों को मना कर दिया, लाचार कोई साथ न हुआ। ये दोनों धीरे-धीरे टहलते हुए डेरे से बहुत दूर निकल गये, तब कुमार ने फतहसिंह का हाथ पकड़ लिया और कहा, "सुनो फतहसिंह तुम भी हमारे दोस्त हो, साथ ही पढ़े और बड़े हुए, तुमसे हमारी कोई बात छिपी नहीं रहती, तेजसिंह भी तुमको बहुत मानते हैं। आज हमारी तबीयत बहुत उदास हो गई, अब हमारा जीना मुश्किल समझो, क्योंकि आज तेजसिंह को न मालूम क्या सूझी कि बद्रीनाथ से जिद्द कर बैठे, हाथों में फंसे हुए चोर को छोड़ दिया, न जाने अब क्या होता है? किताब हाथ लगे या न लगे, तिलिस्म टूटे या न टूटे, चंद्रकान्ता मिले या तिलिस्म ही में तड़प-तड़पकर मर जाय!"

फतहसिंह ने कहा, "आप कुछ सोच न कीजिये। तेजसिंह ऐसे बेवकूफ नहीं हैं, उन्होंने जिद्द किया तो अच्छा ही किया। सब ऐयार एकदम से आपकी तरफ हो जायेंगे। आज का भी बिल्कुल हाल मुझको मालूम है, इंतजाम भी उन्होंने अच्छा किया है। मुझको भी एक काम सुपुर्द कर गए हैं वह भी बहुत ठीक हो गया है, देखिये तो क्या होता है?"

बातचीत करते दोनों बहुत दूर निकल गये, यकायक इन लोगों की निगाह कई औरतों पर पड़ी जो इनसे बहुत दूर न थीं। इन्होंने आपस में बातचीत करना बंद कर दिया और पेड़ों की आड़ से औरतों को देखने लगे।

अंदाज से बीस औरतें होंगी, अपने-अपने घोड़ों की बाग थामे धीरे-धीरे उसी तरफ आ रही थीं। एक औरत के हाथ में दो घोड़ों की बाग थी। यों तो सभी औरतें एक से एक खूबसूरत थीं मगर सबों के आगे-आगे जो आ रही थी बहुत ही खूबसूरत और नाजुक थी। उम्र करीब पंद्रह वर्ष के होगी, पोशाक और जेवरों के देखने से यही मालूम होता था कि जरूर किसी राजा की लड़की है। सिर से पांव तक जवाहरात से लदी हुई, हर एक अंग उसके सुंदर और सुडौल, गुलाब-सा चेहरा दूर से दिखाई दे रहा था। साथ वाली औरतें भी एक से एक खूबसूरत बेशकीमती पोशाक पहिरे हुई थीं।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह एकटक उसी औरत की तरफ देखने लगे जो सबों के आगे थी। ऐसे तरद्दुद की हालत में भी कुमार के मुंह से निकल पड़ा, "वाह क्या सुडौल हाथ-पैर हैं! बहुत-सी बातें कुमारी चंद्रकान्ता की इसमें मिलती हैं, नजाकत और चाल भी उसी ढंग की है, हाथ में कोई किताब है जिससे मालूम होता है कि पढ़ी-लिखी भी है।"

वे औरतें और पास आ गईं। अब कुमार को बखूबी देखने का मौका मिला। जिस जगह पेड़ों की आड़ में ये दोनों छिपे हुए थे किसी की निगाह नहीं पड़ सकती थी। वह औरत जो सबो के आगे-आगे आ रही थी, जिसको हम राजकुमारी कह सकते हैं चलते-चलते अटक गई, उस किताब को खोलकर देखने लगी,साथ ही इसके दोनों आंखों से आंसू गिरने लगे।

कुमार ने पहचाना कि यह वही तिलिस्मी किताब है, क्योंकि इसकी जिल्द पर एक तरफ मोटे-मोटे सुनहरे हरफों में 'तिलिस्म' लिखा हुआ है। सोचने लगे-'इस किताब को तो ऐयार लोग चुरा ले गये थे, तेजसिंह इसकी खोज में गये हैं। इसके हाथ यह किताब क्यों कर लगी? यह कौन है और किताब देख-देखकर रोती क्यों है!!'