हिंदी कथाकड़ी
आइना सच नही बोलता
कथाकड़ी भाग २४
लेखिका उपासना सिआग
सूत्रधार नीलिमा शर्मा
कलाम साहब को विदा करने के बादअमिता कुछ देर यूँ ही बैठी रही । कुछ समझ नहीं आ रहा था कि कहाँ से शुरू करे और क्या करे ? सब कुछ बिखर गया था। जिंदगी के टूटे-बिखरे सिरे हाथ में थामे सोचती जा रही थी कि काश कोई रफूगर ही मिल जाये और एक बार फिर से ठीक हो जाये , कि कोई तो हल मिले। जितना सोचती जाती उतना ही उलझती जाती। आँखों से आंसू बह चले।
" भाभी ...," रमा ने धीरे से कंधे पर हाथ रखा तो वह अनायास लिपट गई और जोर से बिलख-बिलख कर रोने लगी। बेशक अमिता सबसे बड़ी थी। जिम्मेदारी से भरे हालात कुछ इस तरह से हो गए थे कि वहखुलकर रो भी नहीं पाई थी। अंदर ही घुट कर रह गई थी। आज रमा के स्नेहिल स्पर्श और असहनीय परिस्तिथियों से पिघल गई और बिखरने लगी। रमा ने भी बहुत प्रेम से गले लग कर रो लेने दिया। प्यार से पीठ सहलाती रही।
" भाभी , अब आप भी ऐसे करोगे तो हमें कौन संभालेगा ? "
" कोई नहीं संभालेगा ! हम सब अनाथ हो गए हैं। "
" बेसहारों का भी कोई सहारा होता ही है , बहन जी ! "
तभीआमोद जी भी बेटे संग आ गए। उनका भी गला भर्रा आया।
" भगवान पर भरोसा रखिये ताई जी, समय मुश्किल भरा तो है लेकिन हौसला भी वही देगा ! लीजिये पानी पीजिये। "
चिराग पानी देते हुए बोला। पानी पी कर, आँसू पौंछ कर अमिता अमोद जी की तरफ मुखातिब हुई। उनके चेहरे पर हिचकिचाहट के भाव थे कि क्या कहे और क्या नहीं।
" कहिये अमोद जी, संकोच मत कीजिये। मुझमें सहन शक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है ! "
" बहन जी , वो दीपक बाबू ने तो ....."
" हाँ ......जानती हूँ "
" अब क्या होगा .....?
" सूजन से भरी लाल आँखे एक बार फिर से बरसने को तैयार थी, लेकिन अमिता ने जी कड़ा कर लिया ।
" कुछ नहीं होगा ! मेरे साथ मेरे पति के नाम का सहारा ही बहुत है। जिसने जाना हो चला जाये ! " कहने को तो कह गई अमिता , लेकिन मन ही मन वह उलझी हुयी तो थी ही। शोक प्रकट करने वाले भूले-भटके अब भी आते थे। दिन तो कट जाता था पर रात ! रातें अभी बड़ी ही थी।
सर्दी का असर बढ़ रहा था। बेटियां भी एक -दो दिन में चली जाने वाली थी। दीवाली से पहले दीपक भी चला जायेगा। वह तो रुक ही नहीं सकता था। फिर आगे की जिंदगी कैसे चलेगी। क्या होगा ? अमिता सोचती तो चिंता और भी बढ़ जाती।
दीपक को भी चैन कहाँ था। वह जानता था कि वह गलत कर रहा है। ना तो नंदिनी का कसूर था ना नहीं बेटे का। लेकिन वह खुद की अपने परिवार के प्रति जिम्मेदारी अधिक समझ रहा था। उसको मालूम था कि वह बेटे को अगर साथ ले जायेगा तो उसे,उसकी पत्नी कभी नहीं स्वीकारेगी।
दिवीत एक तिरस्कृत जीवन बिताएगा। आगे चल कर वह ना तो उसे और ना ही नंदिनी को माफ़ करेगा। इसलिए वह उसकी तरफ रुख नहीं जोड़ रहा था। नहीं तो उसके मन में भी पिता का प्यार हिलोरें ले रहा था। उसकी मासूम किलकारियों से उसका मन भी आल्हादित होता था और एक पल तो उसे सीने को लगाने को मचल उठता था, लेकिन अगले ही पल मन को कड़ा कर के मुँह फिरा के चला जाता। बेशक उसे निष्ठुर ही समझा जा रहा था लेकिन वह बहुत यथार्थवादी और भावुकता से परे हो कर सोच रहा था। बेटे से तो मोह था। और नंदिनी से ? क्या उससे कोई लगाव नहीं था उसका
! " नहीं ! वह मेरी कोई नहीं है ! मुझसे उसका कोई नाता नहीं है , और कोई लगाव भी नहीं है ! वैसे भी दूसरी शादी जायज भी तो नहीं है ..... उसे तो पिता जी ने जबरन सर पर मढ़ दिया था। "
“पिता को अपना वारिस चाहिए था जो उनको मिल गया अब नंदिनी से मोह रखेगा तो उसकी पत्नी नाराज होगी और अगर ऐसे ही चले जाएगा तो आत्मा धिक्कारेगी |” दीपक पसोपेश में था | नंदिनी उसके टाइप की लड़की थी भी नही ना मानसिक स्तर पर न दैहिक स्तर पर उसको खुश रख सकती थी वो “ दीपक की उहापोह चरम पर थी
" भैया ! " वह मीतू की आवाज़ से चोंक उठा। " आपको हम सब पर जरा सा भी रहम नहीं आया ! आपने तो यहाँ आने के सारे राह ही बंद कर दिए ! हमें जायदाद का थोड़ा सा भी हिस्सा नहीं चाहिए ; आप यहीं रहो भाभी का, मासूम से बच्चे का तो ख्याल करो !"
“नंदिनी भाभी से आप बात तो करे वो क्या चाहती हैं “
“लेकिन तुम्हारी भाभी ने कौन सा मुझसे बात की ? अपना कोई हक माँगा जायदाद में ?मेरा विवाह पिता जी ने जबरदस्ती कराया था तो उसके पिता ने भी तो कोई मालूमात नही किया था मेरे बारे में , विदेश से आया पैसे वाले बाप का बेटा क्या उनकी बेटी के मानसिक स्तर से सामंजस्य बैठा पायेगा ? क्यों नही सोचा | अपनी इस घरेलु सी लड़की के लिय कोई समकक्ष क्यों नही खोजा | मैंने दिवित के नाम बैंक में कुछ अमाउंट जमा करा दी हैं जो उसे किश्तों में मिलेगी दस बरस का होने पर १५ बरस का होने पर फिर २० बरस का होने पर | फिर मैं तुम्सबके साथ कांटेक्ट में रहूंगा न ,जब जब उसे जरुरत होगी भेजता रहूंगा | “
दीपक को अब से पहले सभी समझा चुके थे। उसने नहीं मानना था तो नहीं माना। नंदिनी ने दीपक से कोई बात नहीं की। जब से वह आया था उससे कटा -कटा ही था तो उसका भी स्वाभिमान उसे यह मंजूरी नहीं दे रहा था कि वह किसी पत्थर से सर टकराये। वैसे भी जहाँ नमी न हो प्रेम का पौधा पल्लवित न होगा वो समझ गयी थी |अब अगर वह जा रहा था तो बेशक चला जाये। उसका बेटा उसके साथ था। उसका बेटा ही उसके जीने का सहारा है। दीपक से उसे प्रेम था ही नहीं। प्रेम के लिए दो हृदयों का मेल होना चाहिए ना की शरीरों का |
उसका बेटा दीपक की निशानी नहीं थी बल्कि उसकी अपनी संतान थी , उसके खुद के हाड़ -मांस से निर्मित और लहू द्वारा सिंचित्त था। अगर तूफान से कोई बीज इधर-उधर उड़ कर आ जाये तो क्या धरती उसे अपने सीने में नहीं समा लेती ? दिवीत भी ऐसे ही किसी तूफान या क्षणिक आवेग का ही परिणाम था। सोये हुए दिवीत के पास अधलेटी सी नंदिनी सोचे जा रही थी। उसका मन भर आया था लेकिन वह अपने आंसुओं को यूँ ही किसी निष्ठुर के लिए नहीं बहाना चाहती थी।
" अँधेरा हो गया नंदू बेटा ! " अमिता ने कमरे में आते हुए लाइट का बटन दबा दिया।
" कहाँ है अँधेरा माँ ! आपने आकर रौशनी तो कर दी है ना ! आप साथ हो तो कैसा अँधेरा ! " कहते हुए स्वाभाविक हंसी से हंस दी नंदिनी। अमिता ने भी गौर किया कि नंदिनी दिल से ही हंसी थी , दिखावा नहीं कर रही थी। उसे भी राहत सी मिली।
दीपक तो चला गया। उसके लिए अपना परिवार ही जरुरी था।उसके जाने से खुद को टूटा हुआ सा महसूस किया अमिता ने ....... कैसी विडम्बना थी, ना तो बेटे को जाते हुए रोक पाई और ना ही गले लगा कर आशीर्वाद दे पाई। ना ही खुल के रो सकी। बस चुप कर के बैठी रही। लेकिन ये दिल कब तक भरा रहता , छलक ही गई आंखे !
दीपक तो चला गया। उसके लिए अपना परिवार ही जरुरी था।उसके जाने से खुद को टूटा हुआ सा महसूस किया अमिता ने ....... कैसी विडम्बना थी, ना तो बेटे को जाते हुए रोक पाई और ना ही गले लगा कर आशीर्वाद दे पाई। ना ही खुल के रो सकी। बस चुप कर के बैठी रही। लेकिन ये दिल कब तक भरा रहता , छलक ही गई आंखे !
नंदिनी का भाई उसे लिवाने के लिए आया। नंदिनी ने जाने को मना कर दिया कि वह अब त्यौहार के बाद ही आएगी। हालांकि अमिता का मन था कि वह चली जाये। क्योंकि वह चाहती थी कि स्थान परिवर्तन से नंदिनी का मन बहल जायेगा।
त्योहारों के बाद के सभी रिश्तेदारों ने एक बार फिर आना था , इसलिए घर में चहल-पहल आम दिनों से कुछ जल्दी ही शुरू हो गई। अमिता खामोश-दुःखी बैठक में बैठी थी कि आंगन से बैठक में आती नंदिनी को देख के बुरी तरह से चौंक गई। नंदिनी जबरन मुस्कुराते हुए सामने थी और अमिता सकते में थी।"
क्या हुआ माँ ? इतने हैरान-परेशान क्यों देख रहे तो मुझे ?
" तूने यह क्या पहना है ?"
क्या ! क्या पहना है मैंने ? साड़ी तो रोज़ पहनती हूँ , इसमें हैरानी वाली क्या बात है ? ""
यह हलके रंग की साड़ी किसलिए पहनी है, माथे पर सिंदूर भी नहीं , अरे बेटा तूँ सुहागन है ! ""
अच्छा माँ ! सच में सुहागन तो हूँ ! " कहते हुए अमिता को बैठाते हुए खुद भी पास बैठ गई।"
माँ , सुहागन के रंग तो सुहाग की उपस्तिथि से ही तो..........." बात बीच में ही रह गई और फिर बात करने का समय नहीं मिल पाया क्योंकि अब मिलने-जुलने वालों का ताँता लग गया था। मिलने आने वालों ने, विशेषकर परिवार की महिलाओं ने तो खास तौर पर , नंदिनी की वेशभूषा पर जरूर ध्यान दिया लेकिन कुछ कह नहीं पाए।
नंदिनी की माँ ने यह देखा तो रो ही पड़ी। बेटी का घर बसाया था, वह भी उजड़ गया। अब उसकी इच्छा थी कि वे नंदिनी को साथ ले जाएँ।"
समधन जी , मेरे विचार से तो आप अपने पोते को ले कर दीपक के पास विदेश चली जाईये और हम हमारी बेटी को अपने साथ ले जाते हैं। इसकी नयी जिंदगी बसा देंगे। अभी उम्र ही क्या है इसकी !"
अमिता ने भी सहमती से सर हिलाया। मीतू-नीतू और रमा को भी यह विचार अच्छा लगा। इससे बेहतर हल भी क्या था इस समस्या का !
लेकिन नंदिनी ने साफ मना कर दिया। बोली , " अगर माँ सच में मुझे, अपने दिल से ही छोड़ कर जाना चाहती है तो मैं उनको रोकूंगी नहीं; नहीं तो मैं माँ और अपने बच्चे से अलग नहीं होना चाहती। शादी जैसी संस्था में मेरी अब कोई रूचि नहीं रह गई। मेरा मन खत्म हो चुका है ! ""
यह जिन हालातों से गुजरी है, तो इसका ऐसा सोचना स्वाभाविक ही है। थोड़ा समय दीजिये इसे संभलने को ..... समय बहुत बलवान है , वही इसे हौसला देगा ! " रमा ने अपनी राय रखी।
नंदिनी के माँ-पिताजी चले गए लेकिन बेटी के लिए उनके द्वार हमेशा ही खुले हैं, यह आश्वासन भी देते गए। अब भविष्य का सोचना था। जायदाद के नाम पर हवेली ही थी और अमिता के नाम बहुत सारा बैंक -बैलेंस भी था। रोजमर्रा की जरूरतें आराम से पूरी हो सकती थी , लेकिन कब तक ! दिवित के नाम जमा धन की तरफ किसी की नजर उठाने की इच्छा भी न थी | आमदनी का जरिया भी तो होना चाहिए था। अमिता ने सुझाव दिया कि नंदिनी को अपनी पढाई पूरी करनी चाहिए और पैरों पर खड़ा होना चाहिए। "
नहीं भाभी , मैं ऐसा नहीं सोचती ! ""
क्यों रमा ? ""
क्योंकि पढाई कर के यह कुछ हज़ार -लाख की नौकरी करेगी। और फिर कब तक पढाई करेगी और कब नौकरी मिलेगी , कैसी मिलेगी ! मेरे विचार में कोई अपना काम करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। अपना काम खुद शुरू करे और दूसरे लोगों को भी नौकरी दे ! ""
लेकिन चाची जी ..........""
लेकिन क्या ! ""
मैं तो कुछ भी नहीं जानती .......""
संसार -सागर में उतरना है अब तुम्हें बिटिया , हम सभी हैं तुम्हारे साथ ! " अमिता भीगे स्वर में बोली। "
कोई भी काम शुरू करने से पहले किसी की राय की जरूरत होगी , प्रशिक्षण की भी जरूरत होगी , वह कैसे होगा माँ ?""
हम चिराग की सहायता लेंगे। वह अभी अपनी पढाई पूरी करके आया है। चौधरी साहब की इच्छा थी कि आमोद जी के रिटायर्ड पर चिराग उनका काम देखें। लेकिन चिराग को मुंबई में बड़ी कंपनी में काम मिल गया हैं उसे ६ माह बाद वहां ज्वाइन करना हैं चिराग अपने बलबूते पर कुछ करना चाहता हैं| लेकिन जब तक यहाँ हैं हम उसकी सहायता ले सकते हैं " अमिता ने कहा तो रमा ने हामी भर दी।
नंदिनी अब भी असमंजस में थी।
बातें करते-करते कितना समय बीत गया पता ही नहीं चला। घड़ी की तरफ देखा तो रात के बारह बज रहे थे। अमिता जो कि पानी पीने के बहाने से रसोई की तरफ गई थी, हाथ में केक लिए आ रही थी। नंदिनी ने देखा तो चिहुंक पड़ी। "
अरे ! आज तो दिवीत का जन्म दिन है ! आपको याद रहा माँ ? ""
क्यों नहीं याद रहेगा मुझे आज का दिन, आज के दिन ना केवल दिवीत का जन्म हुआ था बल्कि तुम्हारा भी एक माँ के रूप में नया जन्म हुआ था ! तुम्हें बहुत सारी बधाईयां , ढ़ेरों दुआएं ! तू और तेरा बेटा हमेशा खुश रहो ......," अमिता ने बहुत प्यार से नंदिनी को गले लगा लिया।
“ केक कहाँ से मंगाया ?”
“ मैंने चिराग से कहा था वो रमा को देकर गया था और साथ में दिवित के लिए ढेर सारे खिलौने भी दे गया “
रमा ने भी बहुत सारे स्नेहाशीष दे डाले। नन्हा दिवीत सब से बेखबर सो रहा था। "
माँ आज पिता जी होते तो रौनक और ही कुछ होती। " रो पड़ी नंदिनी। "
ना मेरी बच्ची , ख़ुशी के मौके पर यूँ दिल छोटा ना कर , तेरे पिता जी आज भी हमारे साथ ही हैं आशीर्वाद बन कर। " रमा ने उसके सर पर हाथ फिराते हुए कहा।
केक खाते हुए रमा अमिता और नंदिनी एक दुसरे के गमो की गठरी को सम्हालते हुए आपस में बतियाने लगी | तीन अकेली महिलाए सब अपने अपने दायरे में तनहा थी लेकिन फिर भी मजबूती से थामे थी एक दुसरे का दामन ........दीपक तो बूझ गया था उनके जीवन से लेकिन नन्हे दिवित की रौशनी उनको नए रस्ते की तरफ बढ़ने को प्रेरित और प्रोत्साहित कर रही थी .नन्हे जुगनू खिड़की के उस पार गुनगुना रहे थे .............
लेखिका उपासना सिआग
सूत्रधार ..नीलिमा शर्मा निविया