आदर्श Hemlata Yadav द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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आदर्श

1 आदर्श

दोगली गीली मिट्टी के

सांचे में ढले आदर्श

स्त्री के तपते शरीर पर चिपक

कठोर बन जाते है

चुभन देते है

किंतु पुरुष के सीलन भरे शरीर

पर ढह जाता है

गीले आदर्शो का आकार।

2 हे अहिल्या

हे अहिल्या

आस्था के मनके बुनती समाधिस्थ

मत करों इंतजार राम का

पैर के स्पर्श मात्र से मुक्त

व्यर्थ भ्रम है नाम का,

संदेह से बुद्धि, भ्रष्ट साधु की हुई

सदियों तक शिला, पर तुम बन गई

बिन अपराध, अपराधिन सी तुम

जड़वत करती इंतजार राम का

पैर के स्पर्श मात्र से मुक्त

व्यर्थ भ्रम है नाम का,

हे देवी

सत्य कहो क्या राम आये

क्या स्पर्श से तुम मुक्त हुई

मुझे तो पाषाण सी लाखों अहिल्याएं

उम्मीद के कंकड़ किरकिराती

अथाह बंधनों की अंसख्य गांठे गिनती

नजर आती है आज भी करती इंतजार राम का

पैर के स्पर्श मात्र से मुक्त

व्यर्थ भ्रम है नाम का,

3 नेता और चुनाव

आ गए नेता जब आए चुनाव

काले धन से शोर शराबा

घुम घुम कर तीव्र प्रचार

नेताजी की जय जयकार

अस्त्तिव के लिए जुझती जनता

गरीबी और मजबूरी केे पाटो मे

पिसती रहती बार बार

नेताजी की जय जयकार

नापते हर गली हर आगंन को

पूर्व रटे रटाए भाषण को

पूर्व दिए आश्वासन को

फिर किया जनता पर सवार

नेताजी की जयजयकार

कोरे वादो के आकाश से

देते रोटी कपडा और मकान

दिखते सिर्फ चुनावों में ये

हाथ जोडे खादी से लिपटे

खाने के अलग और

दिखाने के अलग हैं इनके दांंत

जैसे हों हाथी के अवतार

नेताजी की जय जयकार

होटलो मे रह झोपडो की करते है बात

धर्म के नाम पर लडाकर;

कराते दंगे और फसाद

सफेदपोश ये खतरनाक

बन जाते है सरकार

नेताजी की जय जयकार

उम्मीद को लाशो मे दबाकर

उंची अपनी कुर्सी लगाकर

बैठे जाते जब सीना तान

फिर न देखे जनता को निहार

नेताजी की जय जयकार

भूल जाते है वादे इरादे

सारे देश मे आग लगा के

दोष मढ़ते पिछली सरकार

दस प्रतिशत धन लगाकर

नब्बे हडप जाते गदद्‌ार

नेताजी की जय जयकार

चर्बी जनता की घटती जितनी

तोंद बढती इनकी उतनी

वाह रे नेता वाह रे चुनाव

जिस जनता ने इनको चुना

उसी जनता को लगा रहे ये चूना।

4 नीलामी

नजर आता है

सामने खेत सुनसान

पीठ कर गई

लहलहाती फसल

उमड़ता रहा सावन

न छलकने की विवशता लिए

घुटता रहा भादो

न बरस पाने की मजबुरी में

थाली, ढोल, नगाड़ों के

शोर से भी न रुका

असंख्य टिड्‌डी दल

साहुकार — सरकार

सब भक्षकों की जमात

अन्न भीचनें वाले

हाथों को बनाया

अन्न का मोहताज

धरती को चीर विश्वास

उगाने वाला शरीर

फंस कर सिमट गया

चीत्कारती दरारों में

कई बार बेहोश रहा

ताड़ी में डूब

न मैं जागा न मेरा खेत

कई बार कांपने लगा

धुप में तपा

लावारिस हाथ जब

कौंध गई चार बरस

पहले की लहलहाती फसल,

फिर भी भीतर की

कमजोरी ने हिम्मत कर

फंदा तैयार किया

कनस्तर पर चढ़

गरदन में भी

सरका दिया

कि महसुस हुआ

लल्लन छोटे नरम

हाथो से पैर पकड़

झूल रहा हो

सोचा थम जाऊं

पर उसकी मांँ की

शुष्क आंखों से

छलकती लल्लन के

खाली पेट की करुणा ने

गांठ कस दी,

ध्योड़ी पिटती रही

सांझ भर नीलामी थी

मेरे खेत की

5 प्यासी धरती

बरस दर बरस

रही प्यासी धरती

खेत जर्जर

खलिहान जर्जर

स्नेहधार की

अतृप्त उच्छवास लिए

तन जर्जर

मन जर्जर

भूखा बेहाल बालक

पानी से बहलाती माँ

चुन जर्जर

चुल्ह जर्जर

रात भर

छत पर टंगी आंखों में

स्वपन जर्जर

भौर जर्जर

रक्त सींचे किसान

मात्र मुट्‌ठी भर धान

आस जर्जर

आत्म जर्जर

अबुझे मेघ चेतना रहित

बेजान कर गए

जीवन का स्पंदन

6 खुंटा

बांधने के लिए

प्रत्येक आंगन में

एक खुंटा

गाड़ दिया,

खुली न रहे

एक खुटे से दुसरा खुंटा

ढुंढ लिया

पिता कि बाड़े

से पति के बाड़े में

झोंक दिया

7 नीरव चिरैया

''बेचारी'' शब्द

जैसे चिपक गया था

उसकी परछाईं से,

पर मैंने जब देखा

उसे उड़ते देखा

तपते सुरज की चिलचिलाहट में

खुशी के चाँद को निगलते देखा

बंधे पैराें के सहारे

लंबी उड़ान की हिम्मत करते देखा

सर्द हवाओं के निष्ठुर थपेड़ों को

श्वासों की उदीप्त गरमाहट से

सेंकते देखा

पंखों की थकान को

चुजों की चहचहाट तले

उतारते देखा

जर्जर काया में

बलिष्ठ मन की फुनगियों को

फुटते देखा

आकाश के अभाव में

खुद को खींच अपना आसमां

बनाते देखा,

करुणाभरी डबडबाई

आँखों से ही सही

वक्त के दामन पर

हँसी की सितारे

टाँकते देखा

तुफानों की हठधर्मिता

से बिखरे घोंसले को

निहारतें देखा

तिनका—तिनका जोड़

पुनः अपने रोंओं से कोटर

संवारते देखा,

थोड़ी नादान

थोड़ी शैतान

पर बेचारी नहीेे

बहादुर है नीरव चिरैया

निर्झर भंगुरता

के बाद भी

कर्मठ है

अटल है

जिदद्‌ी है

बेचारी नहीं।

8 दर्द

काश दर्द का

कतरा भर भी

मेरी कविता

शब्दों में छलका पाए

तो संभवतः/शायद

दर्द थोड़ा

कम हो जाए

9 कस्तुरी

जख्म सींचते सींचते दर्द हुआ बेअसर

आह के संगीत से ही उठी आनंद लहर

क्षणिक राहतो ने दिया जब

कल का डर

सर पर मुसीबतों ने बनाया निडर

सिसकियां तो भरती रही

सुलगता लावा

फुटते रुदन से झिलमिलाई निर्मलता

सुनहली गाछ सा मृगमन देता रहा

केवल कस्तुरी सा छलावा

खामोश यातनाओं ने तब

गहराई संवेदनशीलता

10 शुष्क आद्रता

मुझे लगा तुमने

कुछ कहा

नजरें उठा कर देखा

तुम्हारी उगंलिया फोन पर

मचल रही थी

घना अंधेरा सहम गई

मुझे लगा तुमने

छुआ पर वो

हंसी थी तुम्हारी जो

खनक कर करीब से गुजरी थी

अपने में गुम तुम्हारे कदम आगे बढें

जिन्हें कुछ दूर तक

नापा मैनें अचानक

शुष्क आद्रता के आभास ने

बर्फ किए मेरे

उमड़ते जज्बात

तुम्हारे क्षणिक सामिप्य से

अनचाहे अलविदा

कहते हुए चल दी मैं

मुझे लगा तुमने

पीछे मुड़कर देखा

पर चले गए थे तुम,

मेघाच्छित मन लिए

अपनी राह ली मैनें

तुम्हारे ख्याल के साथ

एक बेबस प्रतीक्षा

कभी पुरी न हो सकने वाली आस

के साथ अपनी मृगतृष्णा में

जहां तुम्हारा साया

तो हो सकता है

पर तुम नहीं

कभी नहीं ।

11 नील चिन्ह

तुम्हारा साया

तुम्हें खोजते हुए मुझे पाता था

माथे की सुर्यकिरण

बरौनियों से झांकती हुई

मेरे गालों पर पड़ती थी

तुम्हारा प्रेम मेरे लिए

सत्य था

तुम्हारी प्यास

मेरे होंठो पर थी

तुम्हारी खामोशी में अर्थ खोजता

मासुमियत से उधेड़बुन

में लिपटा मेरा मन था

ओह

यह क्षणभंगुर स्वपन

मेरी देह पर पड़ा

नील चिन्ह है

12 अनब्याही भावनाएं

सन्नाटों की घुटन में

किसी अर्थ की खोज मे

स्पर्श का इंतजार करती

अनब्याही भावनाएं

शब्दों में उतर आईं

घुंघट में सहमी सी

छुअन के आनंद की

सदियों से बाट जोहती

बैठी हैं सेज पर

काश ब्याह कर

वो भावुक ले जाए

ये अनब्याही भावनाएं

.13 गुलाब

कुछ गुलाब खिलाने की चाह में

काटों से नासुर बुवाती रही

नभ कभी तो उमस कर छलकेगा

खुद को धरा की तरह तपाती रही

मरुस्थली अमृत की मृगतृष्णा में

घुंट घुंट तेजाब से प्यास बुझाती रही

गुंजेगी कभी तो मेरे भीतर धँसती खाई

वीरान खामोशी हंसी से छुपाती रही

कतरा कतरा बिखर उसकी कमी भरी मैंने

पर मुझे मेरी ही कमी जिलाती रही

जिस दर्द को अरसा हुए सह चुकी मै

उसकी टीस हर सांझ ढले रुलाती रही

14 मशाल

का्रंति की जलती मशाल

किराए पर ले गए

रामलीला मंडली वाले,

जनाना वस्त्र पहन कर

ताड़का बना बुधिया

मुंह में भरकर पेट्रोल

फूंकता मशाल पर

तेज लपटें उठती ऊपर तक

का्रंति के लिए नहीं

केवल श्रोताओं में बैठे

नन्हें बच्चों को डराने के लिए

न बुधिया समझ पाया

न ही बच्चे जान पाए

मशाल की अहमियत

जो अगली सुबह

हनुमान की गदा के साथ

बक्से में बंद कर दी गई बुझाकर।