विद्याआरंभ Atul Arora द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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विद्याआरंभ

कमाई

कोहरे की चादर झटक उर्जा और गति से जुड़ने को चला दिसम्बर का सीला-शांत दिन । तीसरे पहर की अलसाई ख़ामोशी को तोडती बूटों की धमक ।

"कमल बाबू ! ड्यूटी आई है !!"

परम नीरवता के बीच मानो हथौड़ा बज उठा हो कॉलोनीवालो के सिर पर । अपने क़्वार्टर के सुखद एकांत में सोए कमलनाथ सुनकर भी नहीं सुनते । नींद ने उन्हें पाश में बांध लिया है ।

कॉल-मैन ने दरवाजे की चौखट से बंधी रस्सी खींचकर सीढ़ियो में लगी घंटी बजाई, साथ ही हांक लगाई - "कमल बाबू ! कॉल-बुक आई है ।"

कॉल-बुक ... । कमलनाथ के शांतिमय संसार में मानो भूचाल आ गया हो । आवाज़ सुनते ही माया दनदनाती हुई सीढ़ियां उतर गई और कॉल-बुक को मेज पर पटककर हंफनी संभालती हुई बोली, "यह क्या, आप तो कह रहे थे कि दो दिन का रेस्ट है, फिर?"

"हं ...... आँ ....., "कमलनाथ जमुहाई लेकर बोलते है - "रेस्ट ही होना चाहिए । ड्यूटी रोस्टर तो ठीक था । लगया है इमरजेंसी ड्यूटी है । जरा देखू तो," कहते हुए उनका कंठ फंस गया । माया तिनककर चली गयी । इसी बीच कॉलमैन बाबूलाल सीढिया चढ़ आया था । उसने रजिस्टर खोलकर कहा - "हा बाबू , साइन करो यहाँ । सब नोट कर लेना ठीक से छै बजे पहुंचना है कंट्रोल रूम में ।"

तभी माया भीतर से चढ़ी हुई आवाज़ में पूछा - "तो ..... क्या करना है?"

"करना क्या, जाना है ।" कमलनाथ ने सिर हिलाकर मानो थकन और बेबसी को पटकना चाहा, फिर साइन करके किताब लौटते हुए कहा - "दिन हो या रात, जी चाहे न चाहे, ड्यूटी तो निभानी ही है, कोई छुटकारा नहीं ।" सीढियों पर बाबूलाल की दूर तक जाती पगचाप सुनने के साथ कमलनाथ निढाल होकर बिस्तर पर लेट गए । साढ़े तीन बजा रही घडी की सुइयों पर उनींदी दृष्टि फिराकर उन्होंने पलके मूँद ली ।

चौबीस वर्ष हुए, आज जी के दिन विवाह - बंधन में बंधे थे कमलनाथ, माया के संग । पहले दस वर्षो तक बंजारों सा भटकना पड़ा था उन्हें । कमलनाथ, गेस्ट हाउस, रनिंग रूम या मेस में रहते और माया, राहुल-रेखा को सँभालने के साथ ससुराल और मायके के बीच शटल करती । फिर उन्हें टाइप वन क़्वार्टर मिला, जिसमे कमरे के नाम पर दो कोठरिया थी, आगे-पीछे लगी हुई बोगियों की तरह । पन्द्रवे साल प्रमोशन के साथ यह टाइप थ्री अलॉट हुआ, भले गृहस्थो की तरह रहने लायक । इसी में राहुल-रेखा पढ़े-बढे हुए । रेखा दो वर्ष पहले विदा होकर अपने घर गयी और राहुल है मंगलूर के इंजीनियरिंग कॉलेज में, तीसरे वर्ष के तैयारी करता हुआ ।

छोटा - सा बसेरा, सीधा - सादा शांत जीवन - उन्ही के बीच रहते आये है कमलनाथ, पूर्व अंतरंगता सहित । अपने इसी अन्तरंग सम्बन्ध को को एक नया अर्थ देना चाह था उन्होंने । इस बार का रेस्ट सुखद संयोग लेकर आया था । कल विवाह - वर्षगांठ है, उनकी, जिसे आनंद-उत्सव की तरह मनाने की व्यवस्था की थी उन्होंने । संगी-साथियों को बुलाकर गीत-संगीत, हास-परिहास, चाय-नाश्ता ..... सुख-चैन के कुछ कीमती पल । ड्राफ्टमैन रजत-मालिक के गिटार वादन और उसकी पत्नी रंजना के ग़ज़ल - गायन की चर्चा थी पूरी कॉलोनी में । उनके एक ही अनुरोध पर रजत ने अनुमति दे दी थी । घर के बाहर फुलवारी के बीच खूब-सारी खुली जगह है अच्छा-खासा रंग जम जायेगा । यही तो सुविधा है यहाँ । किन्तु वे चाहते थे कि दूसरे लोग पहले से जान न पाए इस उत्सव का कारण । बस, केवल माया को ही पता रहना चाहिए रहस्य खुलने तक । कुछ फूलो का प्रबंध भी कर लिया था उन्होंने, एक विशेष लालित्य का अनुभव करने के लिए । माया सबसे अच्छी साड़ी पहनेगी । वे भी टूथपेस्ट के पैक के साथ मुफ्त मिले रेज़र से स्पेशल शेव बनाकर अपना घराऊ सफारी सूट पहनेंगे । कुछ देर के लिए ही सही, मन कुछ नया-नया हो जायेगा ।

रात और दिन मिलकर चार ड्यूटीया करके लौटे थे कमलनाथ । लौटते समय ड्यूटी रोस्टर देख लिया था उन्होंने । लम्बी ड्यूटी के बाद बारह घंटे का रेस्ट तो मिलता ही है, फिर उनसे पहले "इन" करने वाले गार्डों के रहते उनका नंबर बाद में आने वाला था ।

लेकिन विपरीत निरापद दिखने वाले समय ही आती है । कमलनाथ ने अपने पूर्व सेवाकाल में विडंम्बना को सामान्य नियम की तरह अपने जैसो के शांत जीवन में उत्पात मचाते देखा है । रेस्ट के बाद कुछ घंटे घर में रहने को मिला नहीं की सारी सुव्यवस्था भंग हो जाती है रेलवे की और किताब हाज़िर हो जाती है ।

साढ़े पांच बजे जब माया टिफिन कैरियर लेकर आई, कमलनाथ ड्यूटी के लिए तैयार हो चुके थे । उनके किटबैग को सजाकर मेज पर रखते समय माया ने पति को ध्यान से देखा, फिर सचेत किया - "आपने सब लोगो को कह दिया था शाम को आने की लिए?"

"इस तरह से तो नहीं कहा था ..... सस्पेंस में रखना था उन्हें । बस यही कहा था कि बहुत दिनों बाद रेस्ट मिला है, सो शाम को मौज-मस्ती करेंगे, छोटी-मोटी पार्टी हो जाएगी ।"

"इस तरह से तो नहीं कहा था" पति की बस यही आदत अखरती है माया को । 'मैरिज डे' पर भी मलंगो वाली बेध्यानी छूट नहीं पाती इनकी । इतने पर भी बस नहीं । कॉल-बुक आई तो रिपोर्ट की जुगत लगाने की जगह लामबंद होकर निकल पड़े फौजी की तरह । निमंत्रित व्यक्ति घर आकर लौट जाए, इससे अधिक लज्जा की बात क्या सिर्फ उसी के लिए होगी, दोनों के लिए नहीं?

"इसमें लज्जित होने की क्या बात है? नौकरी तो नौकरी की तरह ...."

"ऐसी नौकरी से भीख मांगना भला !"

यही रूपक वर्षो पहले भी उनके जीवन में रचा था काल-नटी ने । वर्षा की रात थी । रिमझिम बारिश में बेसुध सो रहे थे दोनों । उस मादक रात मानो समय ठहर गया था । अचानक किसी ने दरवाजा पीटा था । चोर-डकैत नहीं छाताधारी कॉलमैन था । भीगा बदन, बिखरे बाल, हाथ में किताब और लैंप । तीन बजे रात की गुड्स ट्रेन ले जानी थी - इमरजेंसी ड्यूटी । तप्त शैया छोड़ कर जाना पड़ा था कमलनाथ को । रेनकोट और गमबूट पहनकर एक हाथ में टिफिन कैरियर, दूसरे में बैग थामे कॉलोनी की सुनी - अँधेरी सड़क पर छप-छप निकल पड़े थे वे स्टेशन के ओर । क्षुब्ध-क्रुद्ध माया ने तब दरवाजा बंद करते समय कहा था, "इससे तो भीख मांग लेना अच्छा है ।"

लेकिन आज माया क्रुद्ध नहीं, दुखी है । सैकड़ो क्वार्टरो के बीच बसे अपने निर्जन संसार में जड़वत रहना होगा उसे । जीवन-साथी से साथ रहकर कुछ गतिशील कुछ जीवंत पल बिता लेना, कुछ नया देख-जान लेना वर्जित है उसके लिए ।

विदा से पहले माया ने एक बार पूछा था - "क्या कोई और उपाय नहीं है बस आज के दिन घर पर रह पाने का ?"

"है क्यों नहीं बस कॉल-बुक पर साइन मत करो, लेकिन नार्मल रेस्ट के बाद घर में रहते हुए साइन न करना संभव नहीं । उसका भी कर्मफल भुगतना होगा । शो-कॉज नोटिस, वेग-कटाई, इन्क्रीमेंट रुकने तक की नौबत आएगी । जीवन-संध्या के एक आनंद-उत्सव के लिए राजदंड सहना बुद्धिमानी है भला?

पराजित माया ने पूछा, "कहाँ जाना होगा?"

"मुगलसराय"

कितनी तटस्थता के साथ बता गए थे कमलनाथ, जबकि माया पर क्या गुजरेगी, इसका अनुमान था उन्हें । वे जा रहे है और वह घर पर ही रहेगी । समान रूप से निरर्थक स्थिति थी दोनों के लिए, फिर भी

सज-धजकर निकल पड़े कमलनाथ, मानो बाज़ार या सैर करने के लिए निकले हो । कब लौटेंगे, तीन दिन या हफ्ते भर बाद, वह सारी जिज्ञासा निष्प्रयोजन है । मुगलसराय हो या मिर्ज़ापुर, चुनार हो या वाराणसी, कोल्हू के बैल के तरह घूमते रहना है । उम्र के इस पड़ाव पर पहुंचकर भी । जीवन में कोई रस-रोमांच नहीं, कोई सुख-स्वप्न नहीं ......

कंट्रोल ऑफिस जाकर हाजिरी देते है कमलनाथ । गाड़ी साढ़े सात बजे जाएगी, यह जानकार कूलर से पानी भर लेते है थर्मस में, फिर निकल पड़ते है सफ़र के लिए जरूरी सामान लेने । अभी लाइन - बॉक्स को चेक करना है । क्या - क्या नहीं है उस बॉक्स में - टाईमटेबल, लोगबूक, बर्नर, लैंप, सिग्नल, झंडी, गार्ड मेमोबूक ... और भी बहुत कुछ । फिर स्टोर से अपना राशन लेकर इसी बॉक्स में भरना है । बॉक्सकुली आये तो उसे गार्ड, ट्रेन और लाइन नंबर बता देना है । उनके सचल गृहस्थी पहुँच जायेगी ट्रेन में ।

फिर सबसे ज़रूरी काम .... यार्ड मास्टर के केबिन में जाना होगा । ड्राईवर का नाम ट्रेन, लाइन और लोको नंबर, वैगेनो की पूरी लिस्ट वही मिलेगी । कितने वैगन, कहाँ -कहाँ की रफ्तनी, टेयरवेट कितना, खाली कितने, यह सारा हिसाब । लिस्ट के अनुसार पूरी ट्रेन चेक करनी होगी । सील, ताले, कील-कांटे सब दुरुस्त है के नहीं, यह एक सिरे से आखिर तक जाकर जाँचना होगा । किसी वैगन का फ्लैपडोर ढीला या लटका हुआ तो नहीं है? लोडिंग सुपरवाइजर ने भी चेक किया होगा, लेकिन अंतिम दायित्व तो उन्ही का है । कपलिंग की फिटिंग्स जांचने में कोई ढिलाई नहीं चलेगी । कुंडे, हुक और जंजीरे जांचना सबसे बाद में । इतना सब करके ही चैन से अपने ब्रेक-वैन में सवार हो सकते है । इसी काम की तनख्वाह मिलती है उन्हें ।

कभी कुछ चेक करने के बात वोचमन के रजिस्टर में साइन करते है कमलनाथ । बॉक्स और छोटे - बड़े मिलकर बहत्तर वागन, ताले कपलिंग, डोर सब दुरुस्त ओके ।

अब ड्राईवर को देखना है उससे घडी मिलाना है । घडी जैसे भी चल रही हो, आपस में मिलनी चाहिए । गाय-बछड़े के सही मिलाप से ही दूध दुहा जा सकेगा ।

ड्राईवर जॉइंट ट्रेन रिपोर्ट और फ्यूल फॉर्म निकाल कर देता है कमलनाथ को । किस समय, कौन सा स्टेशन पार हो रहा है, इसका हिसाब दोनों अलग-अलग रखते है, जे.टी.आर. में, फिर आखिरी स्टेशन पर दाखिल करते है । मिलान न हुआ तो मुसीबत । कितना डीजल लिया, फ्यूल फॉर्म में भरते है दोनों । सिग्नल डाउन होते ही ट्रेन स्टार्ट करना है । ड्राईवर से बोल-बतियाकर अपने ब्रेक-वैन में दाखिल होते है कमलनाथ ।

अब चहुँओर चुप्पी है । बहत्तर माल भरे वैगन के पीछे चुपचाप बैठे रहना है कमलनाथ को । इंजन जितनी दूर है उतना ही दूर है जीवन-स्पर्श । ड्राईवर के पास तो फिर भी उसका असिस्टेंट और प्रशिक्षु - सहायक बाते करने के लिए, लेकिन गार्ड के पास? कोई नहीं । दूरिया लाँघती जाती है गाडी - मैदानों, खेतो और बीहड़ो के बीच, नीरवता को चीरती हुई और कमलनाथ मौन बैठे रहते है । यह सारा संसार उनके लिए अनंत शून्य बन जाता है ।

कोई अपना, कोई साथी नहीं उनका । कोई जान लेने आ पहुंचे तो कोई नही यंहा जो बाधा डाल सके । ड्राईवर को पता भी नहीं चलेगा कि उनके जोड़ीदार को मार फेंका गया कंही ..... और अगर वैगन लूटेरे आ गए तो सर निकलकर देखेंगे भी नहीं कमलनाथ । डकैतों से क्या लैंप और रजिस्टर लेकर लड़ना होगा?

शरद-संध्या रात्रि के सर्वग्रासी अंधकार को अस्तित्व सौंपकर विदा हो गई है । जीविका से संबध इस सुदीर्घ, एकाकी और कठिन यात्रा में कमलनाथ की साथिन है यह थ्री-गुड्स ट्रेन, जो ट्राफिक कण्ट्रोल के निर्देश के बिना कही नहीं रूकेगी । लाइन खाली न मिले तो स्टेशन के बाहर खड़ी हो जाएगी - हाँ स्टेशन के बाहर, स्टेशन पर नहीं । पैसेंजर या एक्सप्रेस हो तो फिर भी अच्छा लगता है । घंटो बाद स्टेशन आते ही मिलता है यात्रियों का कोलाहल, सहकर्मियों से मेल-मिलाप, जीवन-प्रवाह का परिचय । कितना कुछ मिल जाता है स्टेशन पर, लेकिन इस यात्रा में न कोई स्टेशन है और न वह जीवंत कोलाहल ।

कमलनाथ नितांत एकाकी है, निरपेक्ष, निस्संग । वैगनो के फासले पर कहा है ड्राईवर, असिस्टेंट और हेल्पर की त्रिमूर्ति , कोई अनुमान नहीं उन्हें । लगता है गाडी कोई चला नहीं रहा, अपने आप चली जा रही है । कोई रोकेगा भी नहीं उसे किसी दिन ।

बस, बहुत हुआ । इस तरह सोचते हुए बैठे नहीं रह जान उन्हें । जानना होगा की आज के सफ़र में कोई सनसनी है कि नहीं । क्या गाड़ी किसी स्टेशन के बाहर रुके? क्या कोई चोर-व्यापारी या दस्यु दल नहीं आ जायेगा आज? इस निर्जन पथ पर भला कौन आएगा इस अंधकूप में झाँकने, उन तीन-चार प्राणियों की कुशल-क्षेम जानकर उनका और अपना जीवन धन्य करने के लिए ?

किसी प्रायोजित व्यवस्था के अंतर्गत अगर ट्रेन रूक जाए तो परिणाम भुगतने वाला कौन होगा? ड्राईवर विवश भाव से कहेगा, "क्या करे बाबु, वैक्यूम नहीं आ रहा है .. ठीक कर रह हूँ... शायद गेज भी चेक करना पड़े .... अगले स्टेशन पर वॉचमैन आएगा । मन होगा तो वैगन खोलकर देखेगा । उसकी किताब में 'ओके' लिखना होगा ।

वॉचमैन भी पहुंचा हुआ है । गार्ड से किताब पर 'ओके' लिखवाने के बाद जरूरी जीन्स भरवा लेता है अपने थैलों में । घपले की जिम्मेदारी उसकी नहीं । गाडी तो 'ओके' होकर पार हुई थी । गार्ड फंसता है तो फंसे । इन्क्वारी शुरू होगी । गार्ड बचाव करना चाहेगा - "मैं क्या जानू, वैगन, कब कहाँ खुले?" वॉचमैन किताब दिखेगा - "यह देखो, गार्ड साहेब ने "आल करेक्ट" के आगे साइन किए है ।" इसी बीच ड्राईवर मुँह फेरे रहेगा । वह इस असार संसार के पचड़ो से अलग है जैसे । उसकी सेहत पर क्या फर्क पड़ना है ? क्लेम मिलेगा तो व्यापारी को, चूना लगेगा रेलवे को । इन्क्वारी कमिटी का अनुभवसिद्ध नीर-क्षीर विवेक टुकड़खोरी के संजाल से अलग और ऊपर नहीं । कभी - कभी तो छप्पर ही फट पड़ता है । आउटर पर सिग्नल ख़राब हुआ, तब तो ठीक होते-होते ही गृद्ध - जग्य संपन्न हो जाता है । हथियारबंद सहजनी शुभ-लाभ करा जाते है सो अलग

कमलनाथ अपनी ड्यूटी पर मुस्तैद रहकर ऋषियों की निर्लिप्तता के संग जग का मुजरा लेते है; नाक-नीचे के घटना क्रम को अदृश्य मानकर गहरी नींद ले लेते है वे न तो धर्म-भीरु है न ही सिद्धांतवादी । बस, सहीपन की राह के अनाम से राही है । कर्म्हीनता का यथोचित सुफल तिरस्कृत होकर जब-तब उनकी कायरता को धिक्कारता है और दुनियादारी की उनकी समझ की खिल्ली उडाता है, पर माया की उत्कट सहभागिता और, रेखा-राहुल की उपलब्धियों का संबल उन्हें परजीविता के प्रलोभनों से विमुख करके अपने आसन पर अविचल रखता है ।

सोचते - सोचते कमलनाथ आकाश की और ताकते है । हर जगह बादलों की बैठक जम रही है वे बेचैन हो जाते है । एक बार बरसात शुरू हो जाए तो थमने का नाम नहीं । अब खाओ हवा के थपेड़े और झेलो बारिश की मार । हाँ, मुफ्त की मलाई पाने की झीनी सी उम्मीद जाग उठी होगी उन तीनो के मन में । बरसात शुरू होते ही असामी दिख जाते है कभी - कभी आंधी - पानी में । क्लेमकामी, बड़ी पार्टियों को अपना माल चोरी करवाने में और भी सुविधा रहती है । खैर, न मिले किसी को मुफ्त की मलाई, उसका सपना भी कम सुहाना नहीं ।

लेकिन क्या आज के दिन भी वे सिर्फ मुफ्तखोरी और मक्कारी की बाते सोचते रह जाएँगे?

नहीं तो फिर और क्या है सोचने को ?

कुछ पढ़ा जाए ? प्रिय कथाकारों के अभी तक अनछुए संकलनो के प्रतीक्षित आस्वाद का रोमांच खींचने लगा कमलनाथ के सुधि पाठक को । कैसा सुयोग हाथ लगा है आज के दिन ।

मुश्किल है । भीतर - बहार के इस हालेडोले और खटरखटर के बीच अक्षरों पर आँखे टिका पाना क्या संभव है?

फिर सो जाओ, कमलनाथ खुद से कहते है - लोग तो खड़े-खड़े सो लेते है । तुम्हे तो फिर भी जगह मिली हुई है । हाँ, सो लेना उचित ही है उनके लिए । दोना-भर मलाई आने दो औरो के हिस्से में । आज जिस कामिनी के हाथो में अधगुंथी माला छोड़ आये हो इस निर्जन में, अब उसी की सुमंगल छवि की स्मृति से शीतल कर लो अपने सुलगते मन को । इस क्षण यह मत सोचो कि पेट की आग बुझने से ही मन शीतल हो पाता है । मत सोचो की मजूर से हजूर तक और किरानी से कर्णधार तक सभी लोग ऊपरी कमाई के चक्कर में क्यों छटपटा रहे है .......

गाड़ी रुक गई ।

सोचते - सोचते झपकी लेने लगे थे कमलनाथ । झटका लगने से चिंहुककर जाग जाते है । हे भगवान, कैसी घनघोर वर्षा हो रही है । बादलों को देखो, कैसे झुक-झुककर घुमड़ रहे है, बिजली की कांध के बीच ...... लेकिन यह गाडी अचानक क्यों कड़ी हो गयी है यंहा? क्या कोई वणिक-दूत आने को है खलासी को लेकर, आज का प्रथम लक्ष्मिदर्शन कराने के लिए? लेकिन इस निर्जन, अंधकार में ...... ? घबरा उठे कमलनाथ ।

तभी जैसे कमलनाथ के अधैर्य और दुश्चिंता की मुक्ति के लिए गाडी खुल गई बीचो-बीच से । वैक्यूम गेज के मीटर का कांटा शून्य पर आकर टिक गया है । वैगनो की 'कपलिंग' खुल गयी है । कुछ और भी टूट-फूट हो गयी है ।

सिगरेट जला लेते है कमलनाथ ।

माचिस की तीली की लपट में घडी देखते है । दो बजने को है, मतलब ज़फरपुर से पहले रुकी है गाडी । पानी से सराबोर हो चुके ब्रेक-वैन से उतरकर इंजन की तरफ जाने का साहस नहीं है उनमे । अचानक किसने उन्हें इस रहस्यमय अनुभूति के बीच खड़ा कर दिया है ..... किसने? यह अनुभूति जितनी विराट है, उतनी ही भयावह भी ।

धीरे-धीरे बूटो की धमक के साथ ड्राईवर सामने आकर रुक जाता है । गाडी दो खंड हो गई है । कपलिंग टूट गई है ... खुल गई है सारी जंजीरे और गांठे । पहले खंड के आखिरी वैगन का नंबर लिखवा देता है ड्राईवर । वोकी-टोकी पर ट्रैफिक -कंट्रोल और अपने स्टेशन ज़फरपुर के ए.एस.एम्. को मेसेज भेजते समय इस नंबर का हवाला देना होगा । ट्रैफिक-कंट्रोल की रिपेयर टीम आ पहुंचेगी उसके बाद ।

गाडी निश्चल खड़ी है अँधेरे में । जीवन के साथ जो एक झीना सा जुडाव था वो भी ख़त्म हो गया है । कंट्रोल को खबर करने के बाद अब कमलनाथ बिलकुल अकेले है । निष्प्रभ, निशब्द, निस्संग । उन्हें अपने अधिकार में लेने आ पंहुचे है - भयानक बीहड़, बंजर, खेत, अगम्य अंधकार ।

लेकिन डर के मारे कांपते - सिकुड़ते हुए ब्रेकवैन में बैठे रहने को तैयार नहीं है कमलनाथ । कितना भयावह और अलान्ध्य हो यह अंधकूप, इसे अंतिम आश्रय के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे वे; कूद पड़ेंगे इस अपरिचित रहस्यमय नीरव प्रदेश को चीरकर, विकट परिस्थितियों का सामना करने के लिए ।

उतर पड़ते है कमलनाथ । वर्षा थम चुकी है । घोर अंधकार में आँख गड़ाकर किसी तरह देख लेना चाहते है प्रकृति-नटी के मुख को । दृष्टि हार जाती है । वे जलती-कड़वाती आँखों को मूँद लेते है । मन पूछता है, कौन ले आया है उन्हें अपने प्रिय, शांत और निरापद भीड़ से उठाकर इस अनचाही मुक्ति के लिए, एक तुच्छ वेतन बिंदु का विराट महाप्राण से मिलन कराने के लिए?

खिलखिलाकर कोई हंस रहा है लाइन से कुछ दूर, टीलो के बीच । नहीं, कोई भूत-प्रेत नहीं, टीले पर से उतरती हुई नाली का कल-कल प्रवाह है, जो वर्षा-जल का संग पाकर उमग उठा है । क्या पता उसके उल्लास में एक अनाम, अशक्त और विवश मनुष्य के प्रति उपहास का भाव प्रकट हो रहा हो, उसकी छोटी-सी-दुनिया, छोटी-छोटी आशाओ और अकंशाओ से घिरे रहने के प्रति व्यंग मुखर हो रहा हो, उसकी क्षुद्र अपेक्षाओ और हताशाओ के प्रति भर्त्सना फूट रही हो ......

किलोमीटर-पोस्ट का लक्ष्य साधकर स्लीपर के ऊपर चल पड़ते है कमलनाथ । करीब दो मीटर के बाद लाइन के ऊपर, हाथ में लैंप थामे निर्जन पथ पर चलते हुए, भीगी धरती की गंध के बीच ......

कमलनाथ थक गए है । जब और नहीं चला जाता उनसे । मृत्यु-बोध ने जकड लिया है उन्हें । पीछे से आती हुई कोई वेगवती ट्रेन अचानक आकर कहीं रौंद डाले तो? क्षण भर में सर्वनाश हो जायेगा । आशय, एकाकी मनुष्य का करुण अंतर्नाद विलीन हो जायेगा बीहड़ो के बीच इस घनीभूत अंधकार में ।

नहीं, मृत्यु-बोध को झटक कर अभी थोड़ी दूर और जाना होगा । भीषण दुर्घटना को टालना होगा, जान पर खेलकर भी । फिर अपनी ट्रेन के आसपास ही बने क्या जाने क्या होगा उस पल, लेकिन कमलनाथ को लगता है, उससे पहले ही मौत आ जाएगी उन्हें । इस पल हिंसक पशु, चोर-डकैत, भूत - प्रेत का भय ही नहीं, कुछ और भी कंपाए जा रहा है उन्हें-इस दुर्भेद्य अंधकार में । अपने असहाय, निराश्रय होने का भय ..... इस क्षण उनके मन में चोरी-डकेती, परिवार, प्रोमोशनो की बात नहीं, केवल मृत्यु की बात आ रही है, इसी बात का भय । यही भय जैसे साकार हो उठा है एक विराट पुरुष के रूप में उनके आगे - बीहड़, अंधकार और नीरवता मिलकर रची हुई तांडव - मूर्ति जैसा । यदि यही मृत्यु है तो फिर वह अनदेखी वेगवती ट्रेन कहाँ है?

नहीं, उसकी जगह धुला हुआ आकाश है । दूर अरुणिमा बिखरने को है बाल-सूर्य । कमलनाथ को लगता है, वही विराट पुरुष दे रहा है मृत्युबोध के विपरीत नवजीवन का एक जीवंत संकेत । यही है आज की ऊपरी आमदनी । आज की नहीं हमेशा की ।