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देह के दायरे - 19

देह के दायरे

भाग - उन्नीस

“अरे वाह! पंकज ने तो रंगों से इस तसवीर को बहुत ही सुन्दर बना दिया है |” कमरे में प्रवेश करते ही देव बाबू की दृष्टि सामने रखे उस चित्र पर पड़ी | एक पल को वे उस तसवीर को देखते ही रह गए |

पूजा देव बाबू के आने पर कुर्सी से खड़ी हो गई | उनसे चाय के लिए पूछना चाहती थी मगर जब उसने उनको उस तसवीर में खोए हुए देखा तो बिना पूछे ही चाय बनाने के लिए रसोई में चली गई |

रसोई में बैठी पूजा सोच रही थी कि उसने पंकज से सब बातें कहकर ठीक नहीं किया | पिछ्ले दो दिनों से उसके पति का व्यवहार उसके प्रति काफी मृदु हो गया था | यदि भाववेश में कभी पंकज ने इनसे उस बातों की चर्चा कर दी तो वह कहीं की न रहेगी | वह पहले ही अपने पति से काफी दूर हो चुकी है और जब उन्हें इस बात का पता चलेगा तो वे उसे कभी क्षमा नहीं करेंगे |

आज तो उसके पति स्कूल बन्द होने के समय से पूर्व ही घर आ गए थे | अभी पाँच ही बजे थे | पूजा को आश्चर्य था कि क्या उसके पति आज स्कूल से अवकाश लेकर आए हैं? यदि हाँ, तो उन्होंने ऐसा क्यों किया? वह पूछना चाहती थी, फिर कुछ सोचकर उसने कुछ न पूछना ही अधिक उपयुक्त समझा | पिछ्ले दिनों से वह अपने पति के व्यवहार को बिलकुल ही नहीं समझ पा रही थी | यधपि इन दिनों उनका व्यवहार बदला हुआ था परन्तु फिर भी वह प्रत्येक पल आशंकित रहती थी कि न जाने वे कब उसका अपमान कर दें |

चाय बन गई तो पूजा उन्हें प्यालों में डालकर कमरे में ले आई | देव बाबू अब तक यूँ ही खड़े थे और उनकी दृष्टि पूजा की तसवीर पर जमी हुई थी |

“चाय पी लीजिए |” पूजा ने उन्हें टोकते हुए कहा | देव बाबू ने मुड़कर अपनी पत्नी की ओर देखा और पास रखी कुर्सी पर बैठ गए | चाय के प्यालों को मेज पर रखकर पूजा भी उनके सामने वाली कुर्सी पर बैठ गई | उसने अपने पति के मुख की ओर देखा तो उन्हें इतना अधिक गम्भीर पाकर कुछ सहम-सी गयी

“पंकज ने अपनी तूलिका से इस तसवीर को बिलकुल ही बदल दिया है पूजा | कल जब मैं इसे लाया था, कैसा हँसता हुआ चेहरा था मगर आज तो जैसे इस पर मौत की उदासी छायी हुई है |”

“वह चेहरा शादी से पहले का था और यह चेहरा अब का है |” पूजा कह उठी ||

“इसके लिए क्या मैं दोषी हूँ?” कुछ झुँझलाकर देव बाबू ने कहा |

“इसके लिए कोई दोषी नहीं है | सब भाग्य की बात है |”

“खुश रहने का प्रयास किया करो पूजा |”

“यह क्या मेरे वश में है?”

“फिर भी तुम्हें इसके लिए प्रयास तो करना ही चाहिए |” देव बाबू की आवाज से झुंझलाहट समाप्त हो गयी | नम्रता का पुट पाकर पूजा का साहस भी लौटा |

“आप कह रहे हैं कि मैं खुश रहने का प्रयास करूँ? आप जब चाहते हैं, मुझे रुला देते हैं और आज आप कह रहे हैं कि मैं खुश रहा करूँ | आपके कहने पर ही मुझे हँसना है और आपके कहने पर ही मुझे रोना है | जैसे मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं है | मैं क्या एक मशीन हूँ? क्या हँसना या रोना किसी के कहने से होता है?” कहते हुए पूजा की आवाज भर्रा गयी |

“हाँ पूजा, हमें बहुत-से काम दूसरों की इच्छा से ही करने पड़ते हैं | जैसे तुम चाय बनाकर ले आयी हो | क्या तुमने मुझसे इसके लिए पूछा था? मगर मैं पी लूँगा |” चाय का प्याला मेज से उठाकर होंठों से लगाते हुए देव बाबू ने कहा |

पूजा को एक गहरा धक्का लगा | उसके पति ने एक विशेष बात को किस साधारणता में बदलकर उसे निरुतर कर दिया था | उसका मन हुआ कि वह सामने मेज पर रखे प्याले को उठाकर दरवाजे से बाहर फेंक दे और स्वयं वहाँ से उठकर कहीं भाग जाए | लेकिन वह ऐसा कुछ भी नहीं कर पायी |

“हमें जीवन में प्रत्येक क्षण खुशी का ही नहीं मिलता पूजा | कुछ ही क्षण हमें सुख के मिलते हैं | यदि हम उन्हें भी उदासी में बिता देंगे तो हमारा जीवन एक मृगतृष्णा बन जाएगा |”

“इससे तो मृगतृष्णा ही अच्छी है | पानी की परछाई तो दिखायी देती रहती है | मगर मेरे जीवन में तो सूखे रेगिस्तान के सिवाय कुछ भी नहीं | यहाँ तो चारों तरफ अन्धकार है |”

“तुमने आँखें बन्द कर रखी हैं पूजा | उजाला किसीकी आँखों को चुँधिया तो सकता है मगर बन्द आँखों को चीरकर अन्दर नहीं जा सकता |”

“आँखें खोलूँ तो कौन-सा प्रकाश बिखरा हुआ है?”

“बहुत क्रोध है |” देव बाबू हँस पड़े, “चलो छोड़ो इस बात को, एक काम करो |” उन्होंने बात बदलने के लिए कहा |

“क्या?”

कुछ देर देव बाबू सोचते रहे मगर फिर सिर को हिलाते हुए बोले, “मगर नहीं, तुम कहोगी कि अपनी बात मुझपर लाद रहे हो |”

“नहीं कहूँगी...आप कहिए |” पूजा स्वयं भी उस तनाव के वातावरण से मुक्ति पाना चाहती थी |

“तो तैयार हो जाओ |”

“किसलिए?” पूजा ने चौंककर पूछा |

“पिक्चर चलेंगे |”

पूजा यह सुनकर चकित रह गयी | वह सोच उठी कि उसके पति स्वयं को इतनी शीध्र बदल कैसे लेते हैं |

“मेरी इच्छा नहीं है |”

“मगर हमारी तो है | हमारी इच्छा के लिए ही सही |” देव बाबू ने चाय का आखिरी घूँट भरकर प्याला मेज पर रख दिया |

पूजा अपने पति की बात पर हँस पड़ी | कितनी गम्भीरता से वे कितनी शीध्र सरलता पर आ गए थे | पूजा ने दृष्टि उठाकर उनकी ओर देखा तो सिवाय मुसकराहट के उनके मुख पर और कोई भाव न खोज सकी |

पूजा तैयार हुई तो वे दोनों कमरा बन्द करके निकल पड़े | पूजा काफी स्वस्थ लग रही थी | हरे रंग की साड़ी और ब्लाउज, उसने थोड़ा-सा मेक-अप भी किया था-पतझड़ से झड़ी टहनियों पर जैसे नई-नई कोपलें उग आई हों | उसका यह सौंदर्य देव बाबू को बहुत भला लगा | वे बहुत दिनों बाद आज उसे ध्यान से देख रहे थे | एक पल को उन्होंने सोचा कि वह उसे सब कुछ बताकर माफी माँग लें मगर वे ऐसा करने का साहस नहीं कर पाए |

“बड़ी मुश्किल से तीन टिकटें मिली हैं |” वे दोनों हॉल के समीप पहुँचे तो साथ वाली दुकान से निकलते हुए पंकज ने कहा |

“तुम?” पंकज को वहाँ देखकर पूजा को आश्चर्य हुआ |

“मैंने इसे टिकटें लेकर रखने को कह दिया था |” देव बाबू ने कहा और बिना कुछ बोले तीनों हॉल की तरफ बढ़ गए | गेट पार करके जब वे हॉल में पहुँचे तो न्यूज-रील चल रही थी | अन्दर टार्च की सहायता से लाइट-मैन ने उन्हें उनकी सीटों तक पहुँचा दिया |

फिल्म प्रारम्भ हुई | पूजा पंकज और देव बाबू के मध्य बैठी हुई थी | उसके पति किनारे की सीट पर जम गए तो पूजा के समक्ष वहाँ बैठने के और कोई उपाय ही न था |

पंकज बार-बार अपना ध्यान पर्दे पर जमाने का प्रयास कर रहा था मगर उसका मन पास बैठी पूजा में भटक जाता था | साथ बैठी पूजा के शरीर की गन्ध उसे अपनी ओर आकर्षित कर रही थी | उसके बाल उड़-उड़कर उसके कन्धे को छू रहे थे | अनचाहे ही उसका हाथ पूजा के हाथ पर जा पड़ा |

पंकज का हाथ अपने हाथ पर पाकर पूजा चौंकी मगर बिना कुछ कहे उसने अपना हाथ खींच लिया | पंकज का हाथ अब भी उसकी कुर्सी के हत्थे पर निश्चेष्ट पड़ा था |

इसी बीच मध्यान्तर हो गया | देव बाबू ने सीट से उठते हुए कहा, “पंकज, तुम बैठना मैं जरा बाथरूम होकर आता हूँ |”

पंकज पूजा से बात करना चाहता था मगर उसे कोई सूत्र ही नहीं मिल रहा था | मन ही मन उसे बड़ी घुटन-सी हो रही थी | हॉल का वातावरण उसे बोझिल-सा लगने लगा था | पूजा उससे बेखबर अब भी उसे खाली पर्दे की ओर एकटक देख रही थी |

“फिल्म कैसी है पूजा?” पंकज ने इसी बहाने मौन तोड़ा |

“पूरी फिल्म देखकर ही कुछ कहा जा सकता है | आधी फिल्म से क्या पता चलता है |” पूजा ने पंकज की ओर देखते हुए कहा |

“फिर भी, कुछ तो अनुमान लग ही जाता है |” पंकज ने टूटती बात को जोड़ना चाहा |

“पंकज, मुझे तो नायिका का अपने पति के अलावा पूर्व प्रेमी से सम्बन्ध बनाना अच्छा नहीं लगा | इससे तो उसका चरित्र बहुत पिछड़ गया है | क्या एक स्त्री को इस तरह अपने पति को धोखा देना चाहिए?”

पंकज को एक झटका-सा लगा | उसे लगा जैसे पूजा ने उसके मन में उठे विचारों को पढ़ लिया है और ये शब्द उसने उसीको इंगित करके कहा हैं |

“एक स्त्री को यदि उसका पति लगातार अपमानित करे तो उसके समक्ष और क्या उपाय है?” पंकज कह उठा |

“यह तो समस्या का कोई हल नहीं है | उसे चाहिए कि वह किसी तरह अपने पति का प्यार पाने का प्रयास करे, न कि अपने मार्ग से ही भटक जाए | तुम्हारा क्या विचार है?”

पंकज क्या उतर देता | उसने तो फिल्म देखी ही नहीं थी | वह चाहकर भी पर्दे पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाया था | खीझ-भरे स्वर में वह इतना ही कह सका, “मेरा तो फिल्म में ध्यान ही न था |”

“तो कहाँ ध्यान था?”

“मालूम नहीं |”

“क्या सो गए थे?”

“हाँ, सो ही गया था |”

“क्यों?”

“सिरदर्द था |” बात को टालने के लिए पंकज ने कह दिया |

कुछ देर दोनों मौन रहे | पूजा हॉल में लोगों की हलचल देख रही थी और पंकज न जाने क्या सोचने लगा था |

“आप ठण्डा लेंगी या गर्म?” पंकज ने पूछा |

“तुम्हारे सिर में दर्द है, चाय ठीक रहेगी |”

“अच्छा तो आप ठण्डा ले लें |”

“नहीं, मैं भी चाय ही लूँगी |”

“मैं भी चाय ही लेकर आया हूँ |” पीछे खड़े देव बाबू की आवाज सुनकर दोनों चौंक उठे | साथ खड़े लड़के ने तीनों के हाथों में चाय के गिलास थमा दिए |

“आपको कैसे पता चला कि हमारी चाय की इच्छा है?” चाय का घूँट भरते हुए पंकज ने कहा |

“क्या बात करते हो यार! हम तो लिफाफा देखकर खत का मजमून भाँप लेते हैं |” हँसते हुए देव बाबू ने कहा और अपनी कौने वाली सीट पर बैठ गए |

फिल्म समाप्त हुई तो साढ़े नौ बज रहे थे |

“आज का खाना भी तुम हमारे साथ ही खाओगे पंकज |” देव बाबू ने अनुरोध किया |

“नहीं...नहीं, आपको व्यर्थ ही कष्ट होगा |”

“कष्ट हमें क्या होगा, कुछ होगा तो होटल के बेयरे को | उसके लिए टिप जरा तगड़ी दे देंगे | आज तुमने पूजा का चित्र पूरा किया है, इसी खुशी में मैं पार्टी दे रहा हूँ |” देव बाबू ने कहा |

“घर क्यों नहीं चलते | पहुँचते ही गर्म-गर्म खाना तैयार हो जाएगा | मौसम भी खराब होता जा रहा है |” पूजा ने आसमान में उमड़ते बादलों को देखते हुए कहा |

“नहीं पूजा |” देव बाबू ने पूजा का प्रस्ताव अस्वीकार करते हुए कहा, “आज तो घुमने का मौसम है और फिर तुम कितने दिनों के बाद घर से निकली हो | आज हम तुम्हें कोई काम नहीं करने देंगे | खाना होटल में और घर जाकर आराम |”

देव बाबू की बात सुनकर पंकज सोच रहा था कि यह सच है या वह जो दोपहर को पूजा ने उससे कहा था | इस समय देव बाबू के व्यवहार को देखकर कोई भी पूजा की इस बात को स्वीकार नहीं कर सकता था कि उसके पति उससे प्यार नहीं करते | वह सोच रहा था कि क्या पूजा ने वह सब झूठ कहा था | यदि हाँ, तो उसने यह झूठ क्यों बोला-वह समझ नहीं पा रहा था |

तीनों अपने-अपने विचारों में खोए सड़क पर चल रहे थे | होटल पहुँचने तक किसी ने कुछ नहीं कहा | होटल में प्रवेश कर सीटों पर बैठने के बाद देव बाबू ने कहा, “क्या खाओगे पंकज?”

“जो आप उपयुक्त समझें मँगा लें | मेरी किसी विशेष चीज की इच्छा नहीं है | मैं भी वही ले लूँगा जो आ लेंगे |”

“ठीक, बहुत ठीक | तुम्हारी भी हम जैसी ही इच्छा है तब तो खूब निभेगी | ऐसा लगता है, हमारी पसन्द काफी मिलती है |” हँसते हुए देव बाबू ने कहा |

“मैं दोहरे व्यक्तित्व में विश्वास नहीं रखता देव बाबू |” पंकज ने जो व्यंग्य किया था उसे पूजा भी समझ गयी थी |

“करना भी नहीं चाहिए मगर फिर भी हमें दोहरे व्यक्तितव में जीना होता है | तुम ही बताओ, मैं घर में पत्नी से और स्कूल में बच्चों से समान व्यवहार कैसे कर सकता हूँ?” देव बाबू ने बात को हँसी में उड़ा दिया |

‘बच्चे इतने पंगु नहीं होते जो आपका वह व्यवहार स्वीकार कर लें |’ पूजा की इच्छा हुई कि अपने पति से कह दे मगर कुछ न कहकर वह मौन ही रही |

पंकज भी निरुतर हो गया था | इसी मध्य बेयरा खाने का आर्डर लेने के लिए आ गया | देव बाबू ने उसे आर्डर दिया और तीनों अपने-अपने विचारों में खोए खाने की प्रतीक्षा करने लगे | तीनों ही आपस के सम्बन्धों के विषय में सोच रहे थे मगर तीनों के ही सोचने का दृष्टिकोण भिन्न था |

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