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देह के दायरे - 18

देह के दायरे

भाग - अठारह

बारह बजे थे | देव बाबू स्कूल जा चुके थे | पूजा घर का काम निपटाकर आराम करने के लिए लेटी ही थी कि द्वार खटखटाए जाने की आवाज सुनकर उठ गयी | उसने दरवाजा खोला तो सामने पंकज खड़ा था |

“तुम!” पूजा आश्चर्य से कह उठी |

“हमारा आना अच्छा नहीं लगा क्या?”

“ऐसा क्यों सोचते हो?”

“तो फिर चौंक क्यों पड़ी?”

“इस समय यहाँ कोई नहीं आता, इसीलिए आश्चर्य हुआ था |”

“मैं तो कल ही आने के लिए कह गया था |”

पूजा का ध्यान ही न था कि वह दरवाजे में राह रोके खड़ी है | सामने पंकज अपने दोनों हाथों में सामान उठाए खड़ा था | उसके एक हाथ में स्टैंड तथा दुसरे में अन्य सामान था |

“अब यहीं खड़ी रहकर बातें करोगी!” हँसकर पंकज ने पूजा को याद दिलाया |

“ओह! मैं तो...लाइए, यह मुझे दे दीजिए |” पूजा ने पंकज के हाथ से स्टैंड ले लिया और कमरे में आ गयी | पंकज भी हाथ में कैनवास और बैग लटकाए उसके पीछे-पीछे कमरे में आ गया |

“यह सब क्या सामान ले आए!” पूजा ने कहा |

“अभी दिखता हूँ...जरा बैठने तो दो |” कहते हुए पंकज एक कुर्सी में बैठकर बैग खोलने लगा |

पूजा भी सामने बिछे पलंग के एक किनारे पर बैठकर उत्सुकता से पंकज के बैग की ओर देख रही थी |

“यह शतरंज है तुम्हारे लिए और यह सब सामान मेरी पेंटिंग का है |”

“कोई तसवीर बनाओगे क्या?”

“हाँ, कल देव बाबू जो तसवीर लाए थे वह अधूरी है | आज उसे पूरा करने के विचार से आया हूँ | अब तुम सामने रखे उस स्टूल पर बैठ जाओ, मैं इधर स्टैंड पर कैनवास लगा लेता हूँ |” पंकज ने कहा |

“इतनी जल्दी क्या है, पहले एक प्याला चाय तो पी लो |”

“नहीं पूजा, पहले यह तसवीर पूरी कर लें | चाय बाद में पिएँगे |”

पंकज के कहने पर पूजा उठकर सामने रखे स्टूल पर जा बैठी | पंकज ने सामने स्टैंड लगाकर उसपर कैनवास लगा लिया |

“वह तसवीर तो ले आओ पूजा |”

“अभी लाई |” पूजा ने उठकर अलमारी से वह तसवीर निकल दी | पंकज ने उसे फ्रेम से निकालकर कैनवास पर लगा दिया |

पूजा फिर स्टूल पर बैठ गई | पंकज सामने से उसे एक निश्चित मुद्रा में बैठने के लिए निर्देश देने लगा |

पंकज का ब्रश तसवीर पर चलने लगा | कभी-कभी उसकी दृष्टि पूजा पर उठती और वह फिर कैनवास पर लगी तसवीर में खो जाता |

पूजा एक ही स्थान पर और एक निश्चित मुद्रा में बैठी रहने के कारण थक गई थी | अब उसके लिए अधिक समय तक यूँ ही बिना हिले बैठे रहना असम्भव हो गया |

“मुझसे और नहीं बैठा जाता पंकज | शेष तसवीर कल पूरी कर लेना |”

“बस दो मिनट और...तसवीर पूरी होने ही वाली है |” सिगरेट सुलगाकर पंकज तेजी से तसवीर पर ब्रुश चलाने लगा |

कुछ देर पश्चात् तसवीर पूरी हो गई | पंकज ने सिगरेट का आखिरी कश खींचकर एक चैन की साँस ली |

“उठो पूजा, अब पास आकर देखो अपनी तसवीर को |” ब्रुश को वहीँ स्टैंड पर एक ओर टिकाते हुए पंकज ने कहा |

पूजा ने पास आकर देखा | रंगों से तसवीर में निखार आ गया था मगर अब पंकज ने उसके मुख पर उठे भावों को परिवर्तित कर दिया था | पहले जिस मुख पर मुसकान थी अब उसपर मायूसी और निराशा झलक रही थी | वह सोच उठी, क्या पंकज ने उसकी उदासी को पकड़ लिया है या देव बाबू ने इसे मेरे विषय में कुछ कहा है | मगर ऐसा तो नहीं हो सकता | कल ही तो पंकज आया है और तब से तो उनका व्यवहार एकदम बदला हुआ है | वैसे भी वे दूसरों के सामने अपना व्यवहार बड़ा सभ्य रखते हैं |

“तसवीर कैसी लगी?” पंकज ने उसके विचार-प्रवाह को तोड़ा |

“बहुत सुन्दर बनी है |”

“तो फिर इसी खुशी में हमें एक प्याला चाय पिला दो |”

“अवश्य!” कहती हुई पूजा रसोईघर की तरफ चल दी |

पंकज ने एक सिगरेट निकाली और होंठों में दबाकर सुलगा ली | थोड़ी देर तक बराबर की रसोई से स्टोव की भरभराहट आती रही और उसके बन्द होने पर पूजा दो प्यालों में चाय लिए वहाँ आ गयी |

पंकज ने उठकर पूजा से प्याले लेकर मेज पर रख दिए | दो पल को कमरे में मौन व्याप्त हो गया | इस मौन के मध्य पंकज पूजा के मुँह की ओर देख जा रहा था |

“क्या देख रहे हो?” पूजा ने पूछा |

“पूजा, एक बात बताओगी?”

“क्या?”

“सच बताओगी न?”

“ऐसी क्या बात है?”

“तुम बहुत बदल गई हो पूजा | मुझे लगता है कि तुम खुश नहीं हो? क्या देव बाबू...|” पंकज ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी |

“तुम्हारे चाचा कैसे हैं पंकज!” पूजा ने प्रसंग से घबराकर बात बदलते हुए कहा |

“यह मेरे प्रश्न का उत्तर तो नहीं है?”

“सभी प्रश्नों का उत्तर नहीं होता पंकज |” मन में उठते तूफान को रोकते हुए पूजा ने कहा |

“मैं तुम्हारा पुराना साथी हूँ पूजा | क्या मुझसे भी अपने मन की बात छुपाओगी?” पंकज कह उठा|

“तुमने भी तो मेरे हँसते हुए चेहरे को दुख में डुबो दिया है |”

“मैंने...?” चौंककर पंकज ने पूछा |

“हाँ पंकज! कल जो तसवीर देव बाबू लाए थे उसमें रंग न होने पर भी वह जिन्दगी की तसवीर थी परन्तु आज इस तसवीर में रंग होने पर भी चेहरे पर मौत का सन्नाटा छाया हुआ है |

“वह कॉलिज में पढ़ने वाली पूजा की तसवीर थी और यह वह पूजा है जिसे मैं कल से देख रहा हूँ | चित्रकार वही कागज पर उतारता है जो कुछ वह अपने सामने देखता है |”

“क्या मैं बहुत बदल गई हूँ?” पूजा ने हँसकर कहा |

“कभी आईने में अपनी शक्ल देखी है?”

“मुझे उससे भय लगता है |”

“शायद तुम ठीक कह रहे हो पंकज |”

“लेकिन यह सब हुआ कैसे?” पंकज उत्सुकता से कह उठा |

“मुझे कुछ नहीं मालूम! पंकज, मैं कुछ नहीं जानती |” कहते-कहते वह स्वयं पर नियंत्रण न रख सुबक उठी | जिस तूफान को वह अब तक स्वयं में दबाए हुए थी वह अब रुक न सका | दो आँसू बहकर सामने रखे चाय के प्याले में समा गए |

पंकज उसके आँसुओं को सहन नहीं कर पा रहा था | वह पूजा का पुराना साथी था | उसने तो उसे कभी स्वयं से भी अधिक चाहा था | उसके हाथ पूजा की आँखों की तरफ उठ जाना चाहते थे मगर सामने ही उसकी माँग का सिन्दूर उसे रोक रहा था |

“ऐसा नहीं करते पूजा | इन आँसुओं को पोंछ लो | मुझे बताओ तो बात क्या है? प्रत्येक समस्या का समाधान होता है |”

“मैंने जीवन में बहुत बड़ा धोखा खाया है पंकज |”

“पूजा...!”

“हाँ पंकज! न जाने यह सब मेरे भाग्य में लिखा था या मुझसे समझने में भूल हो गई |” पूजा ने अपने आँसुओं पर नियन्त्रण पाने का प्रयास करते हुए कहा |

“लेकिन बात क्या है?”

“कहते हुए भय लगता है |”

“मुझपर विश्वास करो पूजा |”

“अब तो स्वयं पर भी विश्वास नहीं रहा |”

“मैं कभी तुम्हारा बुरा नहीं सोचूँगा, विश्वास करो |”

“देव बाबू को समझने में मैंने बहुत बड़ी भूल की है पंकज | जिसे देवता समझा था वह तो आदमी भी नहीं निकला | उसका व्यवहार...मैं सोच भी नहीं सकती थी कि एक पति अपनी पत्नी से इतना क्रूर व्यवहार भी कर सकता है |”

“पूजा!” पंकज आश्चर्य से पूजा को देख रहा था |

“तुम्हें तो पता है कि मैंने इनसे प्यार किया था और अपने माँ-बाप की इच्छा के विरुद्ध इनसे शादी भी की थी | माँ-बाप भी मेरी जिद के सामने झुक गए थे | शादी के बाद तीन महीनों तक ये मुझे इतना प्यार करते थे कि मैं सोचती थी कि क्या कोई और पति भी अपनी पत्नी से इतना प्यार करता होगा! वे तीन महीने कितनी जल्दी बीत गए थे!”

“फिर क्या हुआ?”

“एक दिन ये अपने मित्र की शादी में शामिल होने के लिए दुसरे शहर गए थे | चार दिन की कहकर गए थे मगर वहाँ से दो महीने बाद लौटे | वहाँ से लौटे तो ये एकदम ही बदल गए थे | अब तो हम एक नदी के दो किनारों की तरह जीवन व्यतीत कर रहे हैं | मैं इनसे जितना अधिक प्यार करती हूँ, बदले में उतनी ही घृणा और अपमान मुझे मिलता है | मैं जितना ही पास आना चाहती हूँ, ये उतना ही दूर चलते जाते हैं | अब तो हमारे जीवन की स्थिति चुम्बक के दो समान ध्रुवों की भाँती ही है |”

“कहीं कोई और लड़की तो इनके जीवन में नहीं है?” सब कुछ सुनकर पंकज ने अपनी शंका व्यक्त की |

“मैं भी ऐसा ही सोचती थी मगर ऐसा कोई संकेत भी मुझे नहीं मिलता | मेरी समझ में कुछ नहीं आता कि मैं क्या करूँ | हर पल, हर क्षण मुझे उनके अपमान और घृणा को सहन करना होता है | अब तो मैं टूट चुकी हूँ | जी चाहता है की उन्हें भी विष दे दूँ और स्वयं भी जहर पीकर सो जाऊँ |”

“मैं तो उन्हें देवता समझता था |”

“हाँ पंकज, वह देवता ही तो है | तम्बाकू वह पीता है, शराब पीकर कोठे पर वह जाता है और अपनी पत्नी का अपमान वह करता है | यह सब कुछ आदमी तो कर नहीं सकता, शायद देवता ही करते हों |” व्यंग्य से पूजा ने कहा | ह्रदय का सारा दर्द सिमटकर होंठों पर आ गया |

“सच कह रही हो पूजा?” पंकज उसकी बातों पर विश्वास न कर सका |

“क्या कोई पत्नी अपने पति के लिए इन शब्दों का झूठा प्रयोग कर सकती है पंकज?”

“ऐसी बात नहीं है पूजा! यह प्रश्न तो मैं आश्चर्य के कारण कर गया |”

“आश्चर्य में तो मैं डूबी हूँ | कल जब से तुम इस घर में आए हो इनका व्यवहार ही बदल गया है | कल एक लम्बे अरसे के बाद मैंने इनकी बातों में अपमान की झलक नहीं देखी | शायद यह सब तुम्हारे कारण हो |”

“मेरे कारण...?”

“हाँ पंकज | कल से मैं अनुभव कर रही हूँ कि इनमें पहली-सी घृणा नहीं रही | मेरे लिए इन्हें समझना कठिन हो गया है | अब तो मुझे इनसे भय लगने लगा है |”

“तुम निराश न हो पूजा | अब तो मैं आता ही रहूँगा, कोई न कोई राह निकल ही आएगी |”

“अपने मन की बात तुमसे छिपा नहीं सकी इसलिए कह दी | तुम उनसे इस विषय में कुछ न कहना |” दो आँसू बहाकर और दिल का दर्द पंकज के समक्ष खोलकर पूजा स्वयं को कुछ स्वस्थ अनुभव कर रही थी | उसका मन हल्का हो गया था |

“अच्छा पूजा, अब मैं चलता हूँ |” कहते हुए पंकज उठ खड़ा हुआ | प्यालों में पड़ी आधी से अधिक चाय ठण्डी हो गई थी मगर उसकी तरफ दोनों में से किसी का भी ध्यान न था |

पंकज अपना सामान उठाकर चल दिया | स्टैंड को उसने वहीँ छोड़ दिया था...शायद फिर आने के लिए |

पूजा दरवाजे तक उसे छोड़ने के लिए आयी |

द्वार पर खड़े होकर पंकज ने सिगरेट सुलगाई और धुआँ छोड़कर आगे की ओर बढ़ गया

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