देह के दायरे
भाग - सत्रह
अपने मकान पर पहुँचकर पूजा ठिठककर रुक गयी | कमरे का ताला खुला हुआ था और अन्दर से किसीके हँसने की आवाज आ रही थी | उसे अच्छी तरह याद था कि वह बाहर से ताला लगाकर गयी थी | ताले की दूसरी चाबी उसके पति के पास थी मगर वो तो रात्रि को दस बजे से पूर्व घर नहीं लौटते थे |
पूजा ने एक पल वहीँ रूककर सुनी-आवाज देव बाबू की ही थी | वे किसी अन्य व्यक्ति से बातें कर रहे थे | दूसरा स्वर भी पूजा को जाना हुआ-सा लगा मगर वह उसे पहचान न सकी |
द्वार को ढकेलने पर वह खुल गया | सामने उसके पति बैठे पंकज से बातें कर रहे थे | पंकज को वहाँ देखकर उसका आश्चर्य और भी बढ़ गया |
“आप...!”
“घर आकर देखा तो तुम नहीं थीं | यह तो मेरे पास ताले की दूसरी चाबी थी अन्यथा महेमान को बाहर ही बैठना पड़ता |” देव बाबू ने मुसकराते हुए कहा |
“आज आप जल्दी आ गए?” पूजा ने व्यंग्य से कहा |
“जल्दी तो नहीं आया |”
“स्कूल तो छः बजे बन्द होता है |”
“आज शनिवार है मेम साहब | आज आधी छुट्टी थी |”
अपने लिए मेम साहब का सम्बोधन सुनकर पूजा चौंकी | आज तो उसके पति का व्यवहार कुछ बदला हुआ-सा लग रहा था | उनहोंने कितने प्यार से उसे मेम साहब पुकारा था | यह प्यारा सम्बोधन सत्य है या सिर्फ उसका भ्रममात्र हो सकता है? हो सकता है, इनका यह व्यवहार यहाँ पंकज की उपस्थिति के कारण हो |
“तुम तो कभी घर से बाहर नहीं निकलतीं | आज कहाँ घुमने चली गई थीं?”
“अपनी एक सहेली के यहाँ गयी थी |”
“रेणुका के पास?”
“नहीं |”
“रेणुका के सिवाय भी इस शहर में तुम्हारी कोई सहेली है, यह तो मुझे पता ही न था |”
“आप भी उसे जानते हैं |”
“मैं जानता हूँ?” आश्चर्य से देव बाबू ने कहा |
“हाँ, बल्कि मुझसे अधिक आप उसे जानते हैं |”
“क्या नाम है उसका?”
“करुणा |” पूजा ने कहा और प्रतिक्रिया देखने के लिए दृष्टि अपने पति के मुख पर जमा दी |
“अच्छा हुआ तुम उससे मिल आयीं | वह भी कई दिनों से तुमसे मिलने के लिए कह रही थी |”
पति के मुख पर कोई भाव या प्रतिक्रिया न पाकर पूजा निराश हो गयी | उसने तो सोचा था कि उसके पति करुणा का नाम सुनकर चौंक उठेंगे |
“हम भी यहाँ बैठे हैं, पूजाजी |” पंकज ने उन दोनों का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए कहा |
“माफ करना, मुझे ख्याल ही न रहा |” पूजा ने हाथ जोड़कर नमस्कार करते हुए कहा |
“कोई बात नहीं, पंकज महसूस नहीं करेगा | अब तुम जल्दी से खाना बना दो, हमें भूख लगे है |” देव बाबू ने कहा |
काफी दिनों के बाद पूजा की भेंट पंकज से हुई थी | वह कुछ देर उससे बातें भी करना चाहती थी मगर पति की बात सुनकर वह रसोई की तरफ चल दी |
“पूजा को देखकर तो पहचाना भी नहीं जाता देव | क्या बात है, बीमार रहती है क्या?” पंकज ने पूछा |
“न जाने इसे क्या हो गया है पंकज | सारा दिन घर में अकेली बैठी कुढ़ती-सी रहती है | अब तुम्हीं बताओ, मैं सारा दिन घर में कैसे रहूँ? अब तो तुम यहाँ आ गए हो | दिन में एक-आध चक्कर लगा लिया करो | इसका दिल बहल जाएगा और यह मुझपर उपकार भी होगा |”
“कैसी बातें करते हो देव! क्या पूजा से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है?”
“सम्बन्ध मानकर ही तो कह रहा हूँ |”
दोनों बैठे हुए बातें कर रहे थे, तभी पूजा खाना लिए वहाँ आ गयी |
“तुम्हारी चित्रकारी कैसी चल रही है पंकज?” खाना उन दोनों के सामने रखते हुए पूजा ने पूछा |
“ठीक ही चल रही है पुजाजी | बी. एड. करके चाचा के पास चला गया था | उनहोंने मुझे व्यवसाय में लगाना चाहा मगर मैं उसमें रूचि न ले सका | इस मध्य चित्र वैसे कम ही बनाए हैं | अब फिर इस शहर में लौट आया हूँ, एक स्टूडियो भी खोल लिया है |” पंकज ने अपने विषय में बताते हुए कहा |
“इतने दिनों में कभी मिलने भी नहीं आए |”
“दो-तीन दिन पहले ही तो लौटा हूँ | स्टूडियो को ठीक से व्यवस्थित किया | आजकल में आने की सोच ही रहा था कि उससे पहले ही देव बाबू राह से पकड़ लाए |”
“आते रहा करो पंकज |” पूजा कह उठी |
“शतरंज तो भूल गई होंगी?” पंकज ने पूछा |
“ले आना, फिर सिख जाऊँगी |”
“तो ठीक है, कल ही एक बाजी हो जाए |”
“जरुर हो जाए पंकज भाई | अब तुम हमारी बेगम से जीत नहीं पाओगे | हमने इन्हें बहुत-सी नई चालें सिखा दी हैं |” हँसते हुए देव बाबू ने उन्हें खेलने की स्वीकृति देते हुए कहा |
दोनों ही खाना खा चुके थे | पूजा ने हाथ धुलाकर तौलिया उनकी ओर बढ़ा दिया |
पंकज ने सिगरेट निकालकर देव बाबू की ओर बढ़ाई |
“जानता तो था, मगर मैंने सोचा शायद शादी के बाद शुरू कर दी हो |” कहते हुए पंकज ने सिगरेट सुलगा ली |
अपने पति के झूठ बोलने पर पूजा व्यंग्य से मुस्करा उठी | वह सोचने लगी कि उसके पति शराब पीकर कोठे पर तो जा सकते हैं मगर पंकज के सामने सिगरेट पीने से मना करते हैं | ये दूसरों के सामने कितना बदला हुआ मुखौटा पहन लेते हैं | सोचते हुए पूजा का मन तो हुआ कि अपने पति के मुख से उस मुखौटे को नोच ले परन्तु वह कुछ नहीं कर पाई |
पूजा खाली बर्तन उठाकर रसोई की तरफ गई तो देव बाबू पंकज के साथ बाहर निकल गए |
घर से निकलकर दोनों सड़क के एक किनारे चले जा रहे थे |
“कभी हमारे स्टूडियो भी आ जाया करो देव बाबू |” सिगरेट का धुआँ छोड़ते हुए पंकज ने कहा |
“कहाँ बनाया है?”
“यहाँ से अधिक दूर नहीं है | सामने चौराहे पर डिस्पेन्सरी के पास ही बनाया है |”
“फिर तो अभी चलते हैं | वहीँ बैठकर बातें करेंगे |”
“चलिए, मुझे खुशी होगी |” पंकज ने कहा और देव बाबू को साथ लिए वह अपने स्टूडियो की तरफ चल दिया |
स्टूडियो में पहुँचकर देव बाबू ने पंकज के बनाए चित्र देखे तो वह उनमें खो गए | पंकज की कला और बारीकी को देखकर तो वे चकित रह गए | उन्होंने उन चित्रों को ध्यान से देखा तो पाया कि उनमें एक दर्द है...एक टीस है उन चित्रों में जो देखने वाले का ध्यान बरबस ही अपनी ओर खींचती हैं |
“पंकज, तुम्हारे सभी चित्रों में एक दर्द है, टीस है | ऐसा क्यों है?” देव बाबू ने पूछा |
“ह्रदय में जो कुछ होता है देव, वही तूलिका के सहारे कागज पर उतरता है |”
“तुम्हारे जीवन में इतना दर्द है, मैं पहली बार सुन रहा हूँ |”
“दर्द किसी को सुनाया तो नहीं जाता देव बाबू |”
“लेकिन तुम्हें ऐसा कौन-सा दर्द है?”
“अभी तो मैं कुछ नहीं बता सकता देव बाबू | शायद कभी समय आया तो आप स्वयं ही समझ जाओगे |” सिगरेट का एक लम्बा कश खींचकर पंकज ने उसे फेंक दिया |
लकड़ी का पार्टीशन डालकर कमरे के दो भागों में बाँट दिया गया था | एक तरफ स्टैंड पर कैनवास लगा था जिसपर पर्दा झूल रहा था | पार्टीशन के दूसरी ओर शायद पंकज ने अपना सामान रखा हुआ था |
“आपको एक तसवीर दिखलाता हूँ देव बाबू | यह तसवीर मैंने कुछ ही दिन पहले बनाई है |” कहते हुए पंकज तसवीर लेने के लिए पार्टीशन के दूसरी ओर चला गया |
देव बाबू का ध्यान सामने कैनवास पर पर्दे की तरफ गया तो उन्होंने सोचा कि यह पंकज की कोई नई और अधूरी तसवीर होगी | उसे देखने की सोच वे उठे और उन्होंने आगे बढ़कर वह पर्दा उठा दिया | उस तसवीर पर दृष्टि पड़ी तो एक पल को वे चौंक उठे | उन्हें पंकज के जीवन में दर्द और टीस के रहस्य का पता चल गया था | वे एकटक देखते रहे कैनवास पर लगी पूजा की उसे अधूरी तसवीर को और उनके होंठों की मुसकान गहरी होती गयी |
पंकज के आने की आहट सुनकर उन्होंने उस तसवीर पर फिर से पर्दा डाल दिया |
“देखो देव, यह चित्र!” पंकज ने बाहर आते हुए कहा |
देव बाबू ने देखा, यह एक पेड़ पर बैठे एकाकी पक्षी का चित्र था | बरसात की बूँदें झर रही थीं मगर वह अपने साथी के वियोग में प्यासा था |
“इसका दूसरा साथी कहाँ गया पंकज?”
“किसी और वृक्ष पर |”
“क्यों?”
“यहाँ तो एकाकी पक्षी सोच रहा है |”
“कोई बात नहीं, हम अपनी गजल से इसके साथी को इसके पास बुला देंगे |” देव बाबू ने मुसकराते हुए कहा |
पंकज कुछ न बोला | वह मौन किसी गहरी सोच में डूब गया था |
“पंकज!” देव बाबू ने मैं तोड़ा |
“हूँ...|”
“हमें कौन-सा चित्र दोगे?”
“सभी चित्र आपके हैं, जो इच्छा हो ले लो |”
“मना तो नहीं करोगे?”
“आप ऐसा सोचेंगे, मुझे विश्वास नहीं था | मैं आपको किसी चित्र के लिए मना करूँगा! कौन-सा चित्र पसन्द आया है आपको?”
“यह...!” कहते हुए पर्दा उठाने के लिए देव बाबू ने कैनवास की तरफ हाथ बढ़ाया |
पंकज काँप उठा | उसने तेजी से आगे बढ़कर देव बाबू का हाथ रोक लिया |
“यह तसवीर तो अधूरी है देव बाबू |”
“हमें अधूरी ही दे दो |” कहते हुए देव बाबू ने वह पर्दा उठा दिया |
पंकज को लगा जैसे देव बाबू ने तसवीर पर से पर्दा न उठाकर उसके मुख पर से एक मुखौटा खींच लिया हो |
“अच्छा! तो तुम यह तसवीर हमारे लिए ही बना रहे थे | बहुत खूब, मित्र हो तो ऐसा | इस तसवीर में तो तुम्हारी कला का कोई जवाब ही नहीं है |”
“पूजा को तसवीर बनवाने का बहुत शौक था | साथ पढ़ते थे तब यह तसवीर शुरू की थी मगर उसके बाद इसे पूरी नहीं कर सका |” पंकज की आवाज से घबराहट झलक रही थी |
“मैं इस तसवीर को ले जा रहा हूँ पंकज |”
“मगर यह तो अधूरी है |”
“मुझे तो यह पूरी लगते है | फिर भी कोई कमी हो तो घर पर आकर पूरी कर देना | इसे देखकर पूजा बहुत खुश होगी |”
“जैसी आपकी इच्छा!” विवश पंकज ने वह तसवीर कैनवास से उत्तार कर फ्रेम में लगायी और देव बाबू को दे दी |
देव बाबू ने मुसकराकर पंकज का धन्यवाद किया और हाथ मिलाकर विदा ली |
“कल आ रहे हो न पंकज?”
“हाँ, अब तो आना ही पड़ेगा |”
“भूल मत जाना | यह तसवीर भी पूरी करनी है |” कहकर देव बाबू स्टूडियो से बाहर आ गए | पंकज वहीँ कुर्सी में धँसा कुछ सोचता रहा |
तसवीर को हाथ में लिए देव बाबू सड़क पर बढ़े जा रहे थे | वे पूजा और पंकज के विषय में सोच रहे थे | शादी से पहले उन्हें यह तनिक भी आभास न था कि पंकज पूजा को चाहता है | मगर आज उन्हें यह विश्वास-सा हो गया था कि पंकज के ह्रदय में जो दर्द और तड़प है वह सिर्फ पूजा से वियोग के कारण ही है |
विचारों में खोए वे कब अपने घर के दरवाजे पर पहुँच गए पता ही न चला | दरवाजा खटखटाया तो पूजा ने खोला | उसे सामने देखकर देव बाबू के होंठों पर फिर मुसकान फैल गयी |
“आज हम तुम्हारे लिए एक बहुत ही सुन्दर भेंट लाए हैं |” देव बाबू ने कमरे में आते हुए कहा |
“जहर...!” पूजा ने व्यंग्य किया |
“जहर से तुम इतनी घृणा क्यों करती हो? वह तो दवा बनकर अनेकों दुखी व्यक्तियों का भला करता है |”
“हाँ, दुखी व्यक्तियों को वह सदा के लिए दुखों से छुटकारा भी दिला सकता है |”
“पूजा, तुम्हारी एक आदत है-तुम गिलास में भरे आधे पानी को कभी नहीं देखतीं, तुम्हारा ध्यान सदा आधे खाली गिलास पर ही होता है |”
“यह ठीक है मगर हर व्यक्ति अपनी दृष्टि से ही तो देख सकता है |”
“दृष्टि पर अधिक विश्वास नहीं करना चाहिए | कई बार आँखें धोखा दे जाती हैं |”
“इसी का परिणाम तो भुगत रही हूँ |”
पूजा कह तो गयी थी मगर वह चकित भी थी कि आज उसके पति को उसकी इतनी बातें सुनने के बाद भी क्रोध क्यों न आया | पिछ्ले तीन महीनों में उसने उन्हें इतना शान्त कभी नहीं देखा था | वह इस तरह समानता का वार्तालाप करना तो भूल ही गयी थी | उसने तो तीन महीनों में सिर्फ आँखें झुकाकर पति का आदेश मानना और अपना अपमान सहना ही सिखा था |
“मुझसे स्पष्ट हो पूजा?” पूजा की आशा के विपरीत देव बाबू ने उसके पास आते हुए मुलायम स्वर में कहा |
“मुझे नाराज होने का अधिकार ही कहाँ है!”
“मैंने तुम्हें बहुत दुख पहूँचाया है |”
“.....”
पूजा कुछ न बोल सकी | अपने पति की आवाज में प्यार की झलक पाकर वह सुबकने लगी | धीरे-धीरे आँसुओं की अविरल धारा उसकी आँखों से बह चली |
“पूजा, मैं बहुत बुरा व्यक्ति हूँ न!”
अपने पति के इस कथन पर तो पूजा हिल ही गयी | वह एक स्त्री ही तो थी | पति उसे लाख अपमानित करे...दण्डित करे...उसके साथ अनचाहा व्यवहार करे परन्तु नारी को उसके पति के दो प्यार-भरे शब्द ही सब कुछ भुलाने को पर्याप्त हैं | नारी और वह भी भारतीय परिवेश में पली-बढ़ी, कभी अपने पति से अपने अपमान का प्रतिशोध लेने की नहीं सोच पाती | प्यार की हल्की-सी आँच से ही वह मोम की तरह पिघलकर सारा दोष अपने सिर लेने को तैयार हो जाती है |
पूजा भी अपने अपमान को भूल गयी | पति के एक ही वाक्य ने उसे मोम बना दिया |
“आप तो बहुत अच्छे हैं, शायद मुझमें ही कोई दोष आ गया होगा जो आपका प्यार न पा सकी |”
“अब छोड़ो इस बातों को | अपनी गीली आँखों को पोंछकर देखो, मैं तुम्हारे लिए क्या लाया हूँ |”
“क्या लाए हो?”
“देखोगी तो चकित रह जाओगी |”
“ऐसा क्या है, दिखाओ तो |”
“देखो!” हाथ में पकड़ी तसवीर से कागज हटाकर देव बाबू ने वह तसवीर पूजा के सामने कर दी |
“अरे! यह तो मेरी तसवीर है | किससे बनवाई?” पूजा अपनी तसवीर देखकर सचमुच ही चकित रह गयी |
“पंकज से | अभी मैं उसके स्टूडियो से ही आ रहा हूँ | अब तो वह बहुत बड़ा चित्रकार बन गया है | कभी तुम भी उसकी तसवीरें देखना |”
“उसने मेरी तसवीर कब बनाई?” पूजा पूछ उठी |
“काफी दिन पहले, जव वह हमारे साथ कॉलिज में पढ़ता था | कर रहा था कि तुम्हें तसवीर बनवाने का बहुत शौक था |”
“उसने तो मुझे कभी नहीं कहा कि वह मेरी तसवीर बना रहा है |”
“यह तसवीर अभी अधूरी है | मैंने उससे कह दिया है, वह घर पर आकर इसे पूरी कर देगा | कभी-कभी तुम भी उसके स्टूडियो चली जाया करो, तुम्हारा दिल भी बहल जाएगा |”
“अब मेरे दिल की बात किए जाओगे या अपने पेट की भी चिन्ता करोगे?”
“मैंने तो पंकज के साथ खा लिया था |”
“वह तो पाँच बजे की बात है | अब नौ बज रहे हैं, भूख लगे होगी |”
“नहीं पूजा, तनिक भी इच्छा नहीं है |”
“तो फिर मुझे भी भूख नहीं है |”
“क्यों, तुम्हें क्या हुआ?”
“बस यूँ ही, इच्छा नहीं है |”
देव बाबू उसके कहने का अर्थ समझ गए थे | कुछ सोचकर वे बोले, “ठीक है, तो फिर ले आओ | मैं भी तुम्हारे साथ खा लूँगा |”
यह सुनकर पूजा खाना लेने के लिए रसोई में चली गयी | आज वह बहुत खुश थी | कितने दिनों बाद उसे अपने पति के प्यार का एक कतरा मिला था |
पूजा भविष्य के प्रति आश्वस्त-सी होती जा रही थी |