देह के दायरे
भाग - सोलह
पूजा की यह निश्चित धारणा बन चुकी थी कि उसके पति के जीवन में अवश्य ही कोई और लड़की आ गई है | सन्देह का अंकुर पनपकर एक विशाल वृक्ष का रूप धारण करता रहा था | वह पिछ्ले कई दिनों से अपने इस सन्देह की पुष्टि करने की योजना बनी रही थी | बीमारी का बहाना करके आज प्रातः ही उसने टेलीफोन करके घर के नौकर को बुला लिया था |
प्रातः दस बजे जब देव बाबू घर से निकले तो पूजा ने नौकर को भी सब कुछ समझाकर यह देखने के लिए उनके पीछे भेज दिया कि वे कहाँ जाते हैं | नौकर कुछ दुरी रखकर देव बाबू के पीछे-पीछे चल दिया | कुछ ही दूर चलने के पश्च्यात देव बाबू एक मकान के सामने जाकर रुक गए | उस कमरे का दरवाजा सड़क की ओर ही खुलता था | जब देव बाबू ने दरवाजा खटखटाया तो पूजा का नौकर कुछ ही दूर पर खड़ा सब कुछ देख रहा था | द्वार एक स्त्री ने खोला तो देव बाबू अन्दर चले गए |
नौकर कुछ देर बाहर खड़ा प्रतीक्षा करता रहा | उसने खिड़की की राह कमरे में झाँककर देखा तो वही स्त्री देव बाबू के समक्ष चाय का प्याला रख रही थी | नौकर और अधिक प्रतीक्षा न करके तेजी से घर की ओर लौट चला |
घर आकर उसने सारी घटना पूजा को सुना दी | उसके सन्देह की पुष्टि हो गई थी | उसका शक विश्वास में बदल गया | नारी-स्वभाववश मन में ईर्ष्या जाग्रत हो उठी और उसने निश्चय किया कि वह आज ही उसे स्त्री से मिलेगी जो पिछ्ले तीन महीनों से उसके घर में आग लगा रही है |
पूजा ने नौकर को घर का कुछ आवश्यक सामान लाने के बहाने बाजार भेजा और स्वयं कार्य निपटाने में लग गई | जब नौकर बाजार से लौटकर आया तो वह घर का कार्य निपटाकर जाने के लिए तैयार हो चुकी थी |
जब पूजा तैयार होकर नौकर के साथ घर से निकली उस समय एक बज चुका था | जिस घर को नौकर ने दूर से दिखाया, वह अधिक दूर न था | नौकर ने उँगली के इशारे से ही वह कमरा भी बता दिया |
नौकर वहीँ से लौट गया | पूजा धड़कते ह्रदय से उस घर की ओर बढ़ी | उसके ह्रदय में घबराहट-सी हो रही थी जिसे दबाने की प्रयास में वह हाँफने लगी थी |
कमरे के दरवाजे पर पहुँचकर पूजा एक पल को वहीँ ठहर गयी | कुछ देर रूककर उसने अपनी उखड़ी हुई साँस पर नियन्त्रण पाया और आगे बढ़कर दरवाजा खटखटा दिया |
“कौन...!” अन्दर से नारी-स्वर सुनाई दिया | बिना कोई उत्तर दिए पूजा ने फिर दरवाजा खटखटा दिया |
द्वार खुला तो पूजा ने देखा, सामने खड़ी वह स्त्री किसी भी तरह उससे अधिक सुन्दर न थी | साधारण परन्तु आकर्षक वस्त्र पहने खड़ी वह एक प्रश्नभरी दृष्टि लिए पूजा को देख रही थी | पूजा सोच रही थी कि क्या इसी स्त्री ने मेरे पति को मुझसे छिनकर अपने वश में कर रखा है? विशेष आकर्षण तो उसे उसमें नहीं लगा परन्तु फिर भी वह सोच रही थी कि पुरुष प्रायः अपनी प्राप्य स्त्री को छोड़कर दूसरी स्त्रियों के पीछे भागने का स्वभाव रखते हैं | न जाने गोपियों के मध्य कृष्ण बने रहने का उन्हें क्या शौक होता है!
“क्षमा करना बहन, मैंने आपको पहचाना नहीं |” सामने खड़ी स्त्री बड़ी शालीनता के साथ पूजा से कह रही थी |
“आप पह्चानेंगी कैसे, पहली बार मुझे देख रही हैं |”
“तो फिर...?”
“देव बाबू मेरे पति हैं |” पूजा ने सीधे ही कहा | उसके कहने में एक अधिकार की भावना थी |
“अच्छा! तो आप देव बाबू की पत्नी हैं, आइए...आइए...आप बाहर क्यों खड़ी हैं?” रास्ता छोड़ते हुए उस स्त्री ने कहा | एक लम्बी मुसकान उसके मुख पर फैल गयी थी |
पूजा अन्दर आने का साहस नहीं कर पा रही थी |
“आइए न, आप संकोच क्यों कर रही हैं |” उस स्त्री ने पूजा का हाथ पकड़कर अन्दर लाते हुए कहा, “धन्य भाग्य हैं मेरे जो आपने इस कुटिया को पवित्र किया |”
ऐसा कुछ घटित होने की पूजा को आशा न थी | इस स्त्री का व्यवहार उसकी समझ में नहीं आ रहा था | पूजा सोच रही थी कि क्या यह स्त्री इतनी कुशलता से अभिनय कर रही है?
“आप बैठिए, मैं आपके लिए कुछ फल लाती हूँ |”
“सुनिए, मैं किसी विशेष काम से यहाँ आई हूँ |”
“काम बाद में होता रहेगा बहन, पहले मुझे कुछ अतिथि-सत्कार तो कर लेने दो | आप तो देवी हैं...अच्छे भाग्य से आपके दर्शन हो रहे हैं |” कहती हुई वह स्त्री कमरे से बाहर चली गयी |
पूजा के लिए इस स्त्री का व्यवहार एक पहेली के समान उलझता जा रहा था | वह सोच रही थी कि वह कैसे इस स्त्री के समक्ष अपने मन की बात कहे? यह स्त्री तो उसे इतना अधिक सम्मान दे रही है कि उसके समक्ष कुछ कहा ही नहीं जा सकता | जिस काम के लिए वह आयी थी उसे पूरा किए बिना ही वह लौटना नहीं चाहती थी |
तभी उस स्त्री ने एक प्लेट में कुछ कटे हुए फल लाकर उसके सामने रख दिए |
पूजा सोच रही थी कि बात कहाँ से प्रारम्भ करे |
“खाईए!” उसे स्त्री ने कहा |
“आप भी लीजिए |”
“नहीं..नहीं, आप जैसी देवी के साथ मैं...!” कहते हुए उसने बात अधूरी छोड़ दी |
इज्जत की एक मोटी परत उसने पूजा पर चढ़ा दी थी | उस परत को कुछ हल्का करने के उद्देश्य से पूजा ने पूछा, “आप मुझे इतना सम्मान क्यों दे रही हैं?”
“मैं तो कुछ भी नहीं दे पा रही हूँ | आप तो इससे बहुत अधिक सम्मान के योग्य हैं, आप पूजनीय हैं | और इसके पीछे मेरा अपना स्वार्थ भी तो है |”
“आपका स्वार्थ...?” आश्चर्य से पूजा ने पूछा |
“आपको सम्मान देकर मुझे खुशी मिलती है |”
“लेकिन आप तो पहली बार मुझसे मिल रही हैं? मेरे विषय में तो आप कुछ भी नहीं जानतीं |”
“आपके विषय में मुझे बहुत कुछ पता है |”
“कैसे?”
“देव बाबू प्रायः आपकी चर्चा करते हैं | वे आपकी बड़ी प्रसंशा करते हैं |”
“मेरी...?” पूजा का आश्चर्य बढ़ता ही जा रहा था |
“हाँ! वे तो आपके पीछे जैसे पागल हैं | जब कभी भी यहाँ आते हैं तो बस, एक ही बात कहते हैं-चलूँ, पूजा प्रतीक्षा कर रही होगी | बहुत कसकर बाँधा है आपने अपने पति को | भाग्यवान हैं वे स्त्रियाँ जिन्हें देव बाबू जैसे देवता मिल जाते हैं |”
“इस पृथ्वी पर देवता की कल्पना करना मिथ्या है बहन! वे तो दुसरे लोक में ही निवास करते हैं | हाँ, इस लोक में भी अनेक मनुष्य देवता का आवरण ओढ़कर विचरण करते हैं लेकिन उनमें देवत्व नहीं, स्वार्थ की कोई भावना होती है |” पूजा के मन में छिपी घृणा पति की प्रशंसा सुनकर उभर आई | उसने तनिक रोष से कहा था परन्तु वह स्त्री शायद उसका भाव नहीं समझ पाई थी | उसने पूजा की बात का अर्थ उसकी विनम्रता ही समझा था |
“धन्य हैं आप जो इतने गुण होते हुए भी आपमें लेशमात्र अहंकार नहीं है | अब छोडिए इन बातों को, अपने आने का कारण कहिए |”
“मैं सोच रही हूँ, कि मन की बात तुमसे कहूँ या नहीं |” पूजा कह उठी |
“मन में कोई शंका हो तो पूछने से उसका निवारण हो जाता है | कोई दुःख हो तो कहने से हल्का हो जाता है | अपनों से कोई बात छिपाने से क्या लाभ?”
“अपनों से...?”
“क्यों, क्या आप मुझे...?”
“लेकिन इतनी शीध्र, पहली भेंट में ही क्या कहा जा सकता है |” पूजा ने कहा |
“ओह! मैं तो भूल ही गई थी कि हम पहली बार मिल रहे हैं | मैं इतना अवश्य कह सकती हूँ कि आप मुझे कभी पराया महसूस नहीं करेंगी |”
“लेकिन...”
“आप संकोच न करें बहन, मुझपर विशवास करो | मुझसे जो कुछ भी हो सकेगा वह मैं करने से पीछे नहीं हटूँगी |”
“मुझे डर है कि कहीं आप अन्यथा...”
“आप निःसंकोच कहिए, यहाँ कोई भय नहीं है |”
पूजा ने साहस बटोरकर अपने मन के दृढ़ किया और एक प्रश्न उसकी तरफ छोड़ दिया, “आप देव बाबू को कब से और कैसे जानती हैं?”
प्रश्न सुनकर एक पल को वह स्त्री सोच में डूब गई | धीरे-धीरे वह जैसे सब कुछ याद करती जा रही थी | पूजा के मुख पर दृष्टि जमा वह कहने लगी...
“लगभग तीन महीने पूर्व एक रात देव बाबू मुझे मिले थे | जैसे भगवान ने उन्हें मेरे पास भेजा था!” कहकर वह चुप हो गयी, जैसे वह आगे कुछ कहने का सूत्र तलाश कर रही हो |
“रात को, कैसे...?” पूजा चौंक उठी | तीन महीने से ही तो उसके पति उससे विमुख हुए हैं | वह अपनी बढ़ती उत्सुकता को दबा न सकी और बोली, “विस्तार से बताओ कि वे आपको कैसे मिले थे?”
“यह मेरे जीवन की लम्बी कहानी है बहन | माँ-बाप के देहान्त के बाद मैं गाँव में अकेली रह गई थी | सारी धन-दौलत रिश्तेदारों ने हड़पकर मुझसे मुँह मोड़ लिया था | सारे गाँव में मैं अकेली बेसहारा रह गयी थी | किसी पर भी मैं विश्वास नहीं कर सकती थी | सारा दिन मैं स्वयं को घर में बन्द किए पड़ी रहती |
“मैं सब कुछ सहन कर सकती थी मगर पेट की भूख को सहन नहीं कर सकी |” एक पल रूककर उसने फिर कहना प्रारम्भ किया, “इस तरह घर में मुँह छिपाकर पड़े रहने से कब तक पेट भरा जा सकता था | घर में खाने को कुछ भी शेष न बचा तो मुझे बाहर की दुनिया में निकलना पड़ा |”
पूजा ध्यान से उसकी बात सुन रही थी |
“पेट पालने के लिए मैंने एक सेठ के यहाँ नौकरी कर ली | मैं बी. ए. तक पढ़ी थी परन्तु फिर भी भाग्य ने मुझे घर की नौकरानी बना दिया था | पेट की भूख तो मिटने लगी परन्तु इसके साथ ही दुनिया की पाप-भरी दृष्टि भी मुझपर पड़ने लगी | राह में आते-जाते कोई आँख मटकता तो कोई भद्दा मजाक करता मगर मैं जैसे अपने कानों और आँखों को बन्द किए सेठ जी के घर जाती और लौट आती |
“राह में तंग करने वालों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ती ही गई | कोई अपना न था जिसका सहारा पाकर स्वयं को सुरक्षित महसूस करती | किसी को भी अपनी विपदा नहीं कह सकती थी | गाँव के सरपंच का बदमाश लड़का तो हाथ धोकर मेरे पीछे ही पड़ गया था | वह प्रायः अपने व्यंग्य बाणों से मुझे आहत करता रहता था | मुझे बेसहारा देखकर उसका साहस बढ़ता ही जा रहा था | अब तो वह कई बार मेरे घर भी घुस आता था | उसने मुझे तरह-तरह के प्रलोभन दिए परन्तु बचाने को मेरे पास सिर्फ इज्जत ही तो थी, उसे मैं किस तरह लुट जाने देती?
“उस रात भी मैं अन्य रातों की तरह घर में अकेली ही थी | बाहर बादलों की गडगडाहट और तेज वर्षा के मध्य बिजली चमक रही थी | बादलों की तेज गर्जना रह-रहकर मेरे मन को कँपा जाती थी | भय से मैंने दीपक की लौ को तेज कर दिया था | उससे उठते धुएँ की एक मोटी लकीर छत की तरफ जा रही थी | मेरा ध्यान भी उस लकीर में उलझकर रह गया था | अचानक सब कुछ अन्धकार में बदल गया | हवा के तेज झोंके ने दीपक को बुझा दिया |
“बादलों की गडगडाहट और बिजली की चमक से मेरा मन काँप रहा था | खिड़की के दरवाजों में चिटकनी न थी | उन्हें बन्द करके मैंने उनके पीछे ईंट लगा दी | काफी देर से वे भी हवा से आपस में भड़भड़ा रहे थे | दीपक को फिर से जलाने के लिए मैं उठकर माचिस खोजने लगी तो बिजली के प्रकाश में अपने सामने उस बदमाश को खड़ा देखकर भय से मेरी चीख निकल गई | सामने का दरवाजा खुला खुला हुआ था और वह बदमाश चौखट का सहारा लिए खड़ा विचित्र-सी निगाहों से मुझे देख रहा था | मैं उससे कुछ दुरे पर खड़ी थी परन्तु फिर भी शराब की बदबू मेरी नाक में घुस रही थी | बिजली फिर चमकी | उसके मुख पर किसी पाप का दृढ़ निश्चय देखकर मैं काँप उठी |
“ ‘तुम इतनी रात को यहाँ किसलिए आए हो?’ मैंने क्रोध से कहा मगर उसपर इसका कुछ भी असर नहीं हुआ |
“ ‘दिन में तो अवसर मिलता नहीं, इसलिए रात को आना पड़ा |’ नशे के कारण उसकी आवाज लड़खड़ा रही थी |
“ ‘चले जाओ यहाँ से |’
“ ‘जाने के लिए तो मैं यहाँ नहीं आया हूँ |’ कहकर वह मेरी ओर बढ़ा |
“उसका दृढ निश्चय देखकर मैं स्वयं को बचाने के लिए दरवाजे की ओर भागी मगर वहाँ तक पहुँच पाती इससे पहले ही उसने मुझे पीछे से पकड़कर खींच लिया |
“ ‘छोड़ दे, मुझे नहीं तो अच्छा नहीं होगा |’ मैंने उसे धमकी दी |
“ ‘यहाँ अच्छा करने के लिए कौन आया है!’ उसने हँसकर कहा |
“ ‘में शोर मचा दूँगी |’
“ ‘कोई नहीं सुनेगा |’ कहते हुए उसने एक झटके से मुझे अर्धनग्न कर दिया |
“मैं बहुत रोयी थी, अपनी पूरी ताकत से मैं चिल्लायी भी थी मगर मेरी आवाज बादलों की गडगडाहट के नीचे दबकर रह गयी | किसी तक मेरी पुकार न पहुँची और यदि किसी तक पहुँची भी होगी तो वह मेरी सहायता को न आया |
“मैंने उससे लड़कर स्वयं को बचाने का बहुत प्रयास किया मगर बचा न सकी | वह अपनी इच्छा पूर्ण करके चला गया | मैं लुटी-सी पड़ी थी | अब मेरे पास शेष क्या बचा था! उस रात अपने भाग्य पर मैंने बहुत आँसू बहाए थे | सब कुछ गँवाकर अब इस दुनिया में जीने की इच्छा नहीं रह गयी थी | अपने-आपको समाप्त कर देने के लिए मैं अपने गाँव और इस शहर के मध्य उस बड़े तालाब की ओर चल दी |
“मकान को यूँ ही खुला छोड़, मैं वर्षा की बौछारों में भीगती एक दृढ़ निश्चय के साथ निकल पड़ी | वापस लौटने की कोई इच्छा न थी जो कि घर से मोह होता | आसमान पर काले-काले दैत्याकार बादल फैले हुए थे | उनकी गर्जना के मध्य रह-रहकर बिजली चमक उठती थी | अँधेरी भयानक रात और कीचड़-भरी राह; मैं तालाब की ओर बढ़ती ही चली गयी | स्वयं को समाप्त कर देने के निश्चय से मेरा सारा भय समाप्त हो गया था |
“एक क्षण को तालाब के बुर्ज पर खड़ी मैं सोचती रही | तेज चमकती बिजली में मैंने आसपास देखा-चारों ओर सन्नाटा-सा फैला हुआ था | बारिश रुक गयी थी | तालाब की गहराई की ओर झाँका तो गहरे पानी ने मुझे अपनी ओर आकर्षित कर लिया | आँखें बन्द करके मैं तालाब की गहराई में कूद पड़ी |
“पानी में मेरा दम घुटने लगा था | उसी पल मुझे अपने पास किसी और के कूदने का अहसास हुआ | मैं मरने का निश्चय करके कूदी थी मगर मैंने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया | शायद मैं मौत से डर गयी थी | मेरा निश्चय डगमगा गया और मैं मौत से बचने को संघर्ष करने लगी |
“तभी कठोर और मजबूत हाथों ने मुझे थाम लिया | उसके बाद मुझे होश नहीं रहा था |
“चेतना लौटी तो मैं तालाब के बुर्ज पर लेटी थी | वर्षा नहीं हो रही थी तो भी आसमान में चारों ओर बादलों का साम्राज्य था | एक व्यक्ति मेरे समीप बैठा हुआ था |
“ ‘आप कौन हैं?’ मैं हड़बड़ाकर उठने लगी |
“ ‘मैं आपका दुश्मन नहीं हूँ |’
“ ‘आपने मुझे क्यों बचाया?’
“ ‘इस विषय में तो मैं कुछ भी नहीं कह सकता |’
“ ‘आप इतनी वर्षा में रात को यहाँ क्या कर रहे थे?’ मैं पूछ बैठी |
“ ‘मैं भी मरने के लिए आया था |’
“ ‘फिर...?’
“ ‘पानी की उठती-गिरती लहरों ने मुझे जीने का सन्देश सुनाया तो मैंने अपना इरादा बदल दिया | आपको छलाँग लगाते देखा और न जाने किस भावना से मैं आपको बचाने के लिए तालाब में कूद पड़ा |’
“ ‘आपने मुझे बचाकर अच्छा नहीं किया | मरने का साहस बार-बार नहीं किया जा सकता |’
“ ‘अच्छा-बुरा क्या होता है, यह कोई नहीं जानता | हम सब तो भाग्य के हाथों में खेलते हैं |’
“ ‘मेरे जीवन में कहीं भी, कुछ भी तो नहीं बचा है जिसके सहारे जीवन कटा जाए |’
“ ‘आप अपने विषय में कुछ बताइए तो |’
“ ‘सुनकर आप मुँह मोड़कर चल देंगे |’
“ ‘नहीं, एक दुखी मनुष्य दुसरे दुखी मनुष्य से अनजान होते हुए भी उसका मित्र होता है |’
“ ‘इस जीवन में मेरा सब कुछ छिन चुका था परन्तु फिर भी मैं स्वयं को किसी तरह बचाए जी रही थी परन्तु आज रात मैं स्वयं भी लुट गयी | अब तो मेरे पास कुछ भी शेष नहीं रहा |’
“वह सब कुछ समझ गए थे इसलिए आश्चर्य से उन्होंने पूछा था, ‘लेकिन यह सब कुछ हुआ कैसे?’
“ ‘ताकत ने एक अबला को रात के अन्धकार में लुट लिया |’
“ ‘इसमें आपका क्या दोष है | आप तो व्यर्थ ही स्वयं को अपराधी अनुभव कर रही हैं |’
“ ‘शायद स्त्री हूँ इसलिए |’ दो आँसू मेरी आँखों से निकलकर आसमान के बहाए आँसुओं में विलीन हो गए |
“ ‘अब समाज में मेर क्या स्थान होगा? क्या सभी मुझे घृणा की दृष्टि से नहीं देखेंगे? मैं कलंकित हो चुकी हूँ | क्या प्रत्येक व्यक्ति मेरा अपमान नहीं करेगा? मैं अब इस समाज में कैसे रह सकूँगी!’
“ ‘समाज में रहने वालों को कोई नहीं निकाल सकता |’
“ ‘अब कौन मुझे स्वीकार करेगा? मैं किसके सहारे यह जीवन व्यतीत करुँगी?’
“ ‘कोई न कोई आपको अवश्य स्वीकार कर लेगा | आज से आप अपने इस जीवन को पीछे छोड़ दो | इस दुनिया में बहुत-से व्यक्ति एक-दुसरे के सहारे की तलाश में होते हैं |’
“ ‘क्या आप...?’
“ ‘मेरी पत्नी जिन्दा है |’
“ ‘ओह!’
“ ‘देखो, समाज और दुनिया में जीने के लिए संघर्ष करना होता है | आप आगे बढ़ें, मैं प्रत्येक कदम पर आपकी सहायता करूँगा |’
“ ‘मेरे साथ आपको भी अपमान सहन करना होगा |’
“ ‘इसकी चिन्ता मुझे नहीं है | मैं समाज से अधिक व्यक्ति को महत्त्व देता हूँ | समाज मानव के लिए है न कि मानव समाज के लिए, मेरी ऐसी धारणा है | आप मेरी चिन्ता न करें |’
“ ‘लेकिन यह सब कैसे होगा?’ मैं चकित थी |
“ ‘सुबह की उषा की नयी किरण के साथ हम यहाँ से चल देंगे | शहर में आपको कोई नहीं जानता | वहाँ आप फिर से अपना नया जीवन प्रारम्भ करें | मैं वहाँ इसकी व्यवस्था कर दूँगा |’
“ ‘मैं कब तक आपपर बोझ बनी रहूँगी?’
“ ‘इसकी आप चिन्ता न करें | मैं इतना अमीर भी नहीं हूँ | आप अपने जीवन को स्वयं आगे बढ़ाएँगी...मैं तो सिर्फ आपकी सहायता को रहूँगा |’
“ ‘कैसे?’
“ ‘कुछ पढ़ी हैं आप?’
“ ‘बी. ए. किया था |’
“ ‘फिर चिन्ता न करें | मैं प्रयास करूँगा कि आपको कोई नौकरी मिल जाए | तब तक मैं आपको कुछ ट्यूशन दिलवा दूँगा |’
“ ‘मैं तो कुछ भी नहीं समझ पा रही हूँ |’
“ ‘इस समय आप कुछ समझने की स्थिति में हैं भी नहीं | मुझपर भरोसा हो तो मेरे साथ चलिए |’
“ ‘आप जैसा कहेंगे मैं वैसा ही करुँगी |’
“ ‘लेकिन एक वायदा आपको करना होगा |’
“ ‘क्या?’
“ ‘मुझसे कभी यह न पूछना कि मैं आत्महत्या क्यों कर रहा था |’
“ ‘लेकिन क्यों...’
“ ‘यह मेर व्यक्तिगत रहस्य है, मैं किसी पर इसको प्रकट नहीं कर सकता |’
“ ‘यदि आप इसे गुप्त रखना चाहते हैं तो मैं इस विषय में कभी कुछ नहीं पूछूँगी |’
“ ‘ठीक है, आज से आप हमारी बहन हुई | अब आप अपने घर जाओ, मैं सुबह वहाँ से आपको ले जाऊँगा |’
“मैंने उन्हें अपना पता बताया और उठकर घर की तरफ चल दी | गाँव की सीमा तक वे भी मुझे छोड़ने आए | रात को ही मैंने अपना सारा सामान समेट लिया | सामान था ही क्या जो देर लगती | प्रातः ही देव बाबू ताँगा लेकर मेरे घर पहुँच गए और मैं उनके साथ शहर आ गयी | उन्होंने ही मुझे यह कमरा दिलाया है जीविका चलाने के लिए अपने स्कूल के कुछ बच्चों की ट्यूशनें भी मुझे दिला दीं | कुछ महीनों में शायद कोई नौकरी भी मिल जाए |
“देव बाबू मेरे जीवन में देवता ही बनकर आए हैं | उन्होंने मुझे फिर से जीने की प्रेरणा दी है | आप उनकी पत्नी हैं, कई बार आपके दर्शन करने की इच्छा हुई परन्तु भेंट न कर सकी | उनके मुख से आपकी इतनी प्रशंसा सुनी है कि आपके चरणों की धुल लेने को मन करता है |”
इतना कहकर वह स्त्री चुप हो गयी | वह पूजा के मुख पर अपनी बातों की प्रतिक्रिया देख रही थी |
“आप मुझे इतना सम्मान न दें, इससे तो मैं आपसे दूर हो जाऊँगी |” पूजा उससे कह उठी |
“आप रुष्ट न हों तो मैं आपको भाभी कह लूँ, इससे मुझे बहुत खुशी होगी |”
“कह लो, मुझे भी अच्छा लगेगा |”
पूजा की स्वीकृति पाकर तो वह स्त्री चिहुँक उठी | उसके गले में बाँहें डालकर वह कह उठी, “आज फिर अनुभव हो रहा है कि मैं संसार में अकेली नहीं हूँ | सब कुछ है मेरे पास |”
पूजा के भ्रम का निवारण हो चुका था परन्तु वह कुछ अधिक ही उलझ गयी थी | मन में शंका थी कि उसके पति किसी और स्त्री को चाहने लगे हैं, उस शंका का समाधान हुआ तो वह एक और उलझन में फँस गयी | उसके पति आत्महत्या क्यों करना चाहते थे? यह स्त्री भी तो इस विषय में कुछ नहीं जानती थी | उन्होंने इसे भी तो इस विषय में कुछ नहीं बताया था | वह अपने पति के जीवन के इस रहस्य में उलझ गयी थी |
“अच्छा चलूँ बहन, समय मिलने पर हमारे घर अवश्य आना |” पूजा ने उठते हुए कहा |
“आपने अपने आने का उद्देश्य तो बताया ही नहीं?”
“बिना बताए ही मेरा उद्देश्य पूर्ण हो गया है |”
“बिना बताए ही?”
“हाँ, मनुष्य कुछ करना चाहता है तो कुछ नहीं होता और कई बार स्वयं ही सब कुछ हो जाता है |”
“आपकी बातों ने तो मुझे उलझा दिया है |”
“कोई बात नहीं, समय आने पर सुलझा दूँगी | हाँ, तुमने अपना नाम तो बताया ही नहीं |”
“करुणा कह लो भाभी |”
“अच्छा तो करुणा, अब मैं चलती हूँ |” कहती हुई पूजा दरवाजे तक आ गयी | करुणा उसे छोड़ने बाहर तक आयी | पूजा उससे विदा लेकर आगे बढ़ गयी |
सन्ध्या के चार बज रहे थे | पश्चाताप के कारण पूजा के पाँव जैसे पृथ्वी से चिपके जा रहे थे | उसका मस्तिष्क अपने पति की जीवन के रहस्य में उलझता जा रहा था | भारी कदमों को वह अपने घर की ओर धकेले जा रही थी |