देह के दायरे - 15 Madhudeep द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

देह के दायरे - 15

देह के दायरे

भाग - पन्द्रह

“सोने के सिवा और कोई काम भी है तुम्हें |” फर्श पर गिरकर कुछ टूटने और देव बाबू के जोर-जोर से बोलने की आवाज से पूजा की आँख खुली |

“दिन निकल आया!” आँखें मलते हुए पूजा बिस्तर पर उठकर बैठी तो उसके मुँह से निकल गया |

“नहीं, अभी तो रात आरम्भ हुई है |” देव बाबू ने अपने क्रोध-भरी आवाज में पूजा पर व्यंग्य किया |

“रात देर तक सो नहीं सकी थी |” पूजा ने सफाई देनी चाही |

“हाँ, न स्वयं सोती हो और न मुझको सोने देती हो |” एक और चोट देव बाबू ने की |

पूजा चुपचाप उठकर फर्श पर बिखरे टूटे काँच के टुकड़ों को एकत्रित करने लगी | काँच के टुकड़ों को एक कागज पर उठा, वह बाहर डालने के लिए गयी तो उसने देखा-दिन काफी चढ़ आया था | इतनी देर तक आँख न खुलने के कारण उसे स्वयं पर क्रोध भी आया |

पूजा का आज का दिन बड़े ही मनहूस ढंग से आरम्भ हुआ था | उसे प्रातः उठते ही अपमान का सामना करना पड़ा था | रात्रि को जिन स्थितियों से वह गुजरी थी वे उसके लिए मौत से भी अधिक कष्टदायी थीं |

अपमान के विष के कड़वे घूँट हलक से नीचे उतारने की तो वह आदी ही हो चुकी थी, न तो वह अपनी स्थिति पर अफसोस कर सकती थी और न ही खुलकर रो सकती थी |

स्नान से निवृत हो जब पूजा स्नानघर से बाहर निकली तो देव बाबू अपना बैग उठाकर जा रहे थे | सामने जाकर पूजा ने उनकी राह रोक ली |

“खाना खाकर जाना, मैं अभी बना देती हूँ |”

“जब तुम्हें सोने से फुर्सत मिल जाए तो...|”

“अभी तो आठ ही बजे हैं |” पूजा ने उनकी बात काटते हुए कहा, “स्कूल तो एक बजे लगता है |”

“तुम जानती हो कि मैं प्रतिदिन प्रातः आठ बजे ही घर से निकल जाता हूँ |”

“लेकिन क्यों...?”

“तुम्हारी तरह मैं समय को व्यर्थ नष्ट नहीं करता |” कहते हुए हाथ झटककर वे कमरे से बाहर निकल गए |

पूजा चौखट के सहारे लगी खड़ी देखती रह गयी | ऐसी स्थिति में वह क्या करती...वह कुछ समझ नहीं पा रही थी |

देव बाबू पहली बार घर से बिना खाना खाए हुए गए थे | पूजा अपने कर्तव्य को पूरा करने में कोई ढील नहीं छोड़ती थी | वह भरसक प्रयास करती थी कि उससे कोई ऐसी भूल न हो जिससे उसे अपमान का सामना करना पड़े परन्तु जब कोई बिना किसी दोष के ही उसे झिड़कने पर उतारू हो तो वह क्या करे! सोच-सोचकर वह बहुत देर तक रोती रही | आँसू बह जाने से मन कुछ हल्का हुआ तो वह पुनः अपनी दिनचर्या में लग गयी |

आजकल पूजा को एक भ्रम-सा होता था कि कहीं उसके पति के जीवन में कोई और लड़की तो नहीं आ गयी है? उसका ऐसा सोचना निराधार भी तो नहीं था | जब से उसके पति अपने मित्र के यहाँ से लौटे थे, वे बिलकुल ही बदल गए थे | वे चार दिन की कहकर दो मास बाद लौटे थे | वह सोचती थी कि कहीं वहाँ पर तो उसके पति की किसी अन्य लड़की से भेंट नहीं हो गयी? फिर दुसरे ही क्षण वह अपने विचार से असहमत हो जाती |

पूजा इतना तो अवश्य ही सोच सकती थी कि उसके पति में यह परिवर्तन अपने मित्र के यहाँ से लौटने पर ही हुआ है | इससे पहले वे उसे कितना प्यार करते थे! छुट्टी होते ही सीधे घर लौट आते थे परन्तु अब तो ये दो दिन ही अपवाद थे अन्यथा वे कभी रात्रि को दस बजे से पहले घर नहीं लौटते | प्रातः भी वे आठ-नौ बजे तक घर से निकल जाते हैं | ऐसा स्कूल में क्या काम हो सकता है? अवश्य ही उसके पति की जीवन में कोई और लड़की आ गयी गई है | वह लड़की ही मेरे पति को मुझसे दूर करती जा रही है |

पूजा देर तक सोचती रही | सारा दिन वह विचारों के दायरों में उलझती रही | दोपहर को खाना बनाने का उसका मन ही नहीं हुआ | एक कप चाय का पीकर वह उदास-सी पड़ी रही | इस समय भी उसका मन उठने को नहीं हो रहा था परन्तु पति के लौटने से पूर्व खाना तो बनाना ही था |

सन्ध्या को खाना बनाकर वह पति की प्रतीक्षा करने लगी | वह सोच रही थी कि पिछ्ले दो दिनों की तरह आज भी वे जल्दी लौट आएँगे परन्तु जब रात्रि को नौ बजे तक भी वे न आए तो प्रतीक्षा में रत उसकी आँखें नींद से बोझिल होने लगीं |

जोर-जोर से दरवाजा खड़खड़ाने की आवाज सुनकर पूजा की नींद खुली | सामने घंटे पर दृष्टि गयी तो ग्यारह बज रहे थे | भागकर उसने दरवाजा खोला तो लड़खड़ाते-से उसके पति उसपर गिरते-गिरते बचे | यदि वह थोड़ा बच न जाते तो उसके हाथ की सिगरेट उसकी साड़ी जला हो देती |

“आप सिगरेट कब से पीने लगे हैं |” न जाने फिर से उनके मध्य यह ‘आप’ की दुरी आ गयी थी |

“शराब पीने के बाद सिगरेट पीना बहुत अच्छा लगता है |” हँसते हुए देव बाबू ने कहा |

“तो आप शराब भी पीने लगे हैं?”

“कोठे पर जाकर क्या कोई बिना शराब पिए लौटता है?”

सुनकर पूजा सन्न रह गयी | आश्चर्य और दुख से वह टूट-सी गयी थी | जैसे उसे किसी ने आकाश से धरती पर पटक दिया हो! एक स्त्री का इससे बढ़कर और क्या अपमान होता | वह क्रोध का घूँट पीकर रह गयी |

“मैं क्या मर गयी हूँ, जो आपको कोठे पर जाने की आवश्यकता पड़ती है |” वह कहे बिना न रह सकी |

“हाँ, मेरे लिए तो तुम मर ही चुकी हो |”

“मेरा दोष क्या है, मुझे इतना तो बता दो |”

“तुम्हारा दोष!” हँसकर देव बाबू ने कहा, “चिन्ता न करो, समय आने पर तुम्हें सब पता चल जाएगा |”

“अभी बता दो न |”

“मुझे सोने दो, जाओ बहस न करो |” कहते हुए देव बाबू पत्नी को एक तरफ हटाकर अपने बिस्तर पर चले गए |

पूजा उनसे खाना खाने के लिए कहने का भी साहस न कर सकी | सुबह से उसने खाना नहीं खाया था और अब फिर अपमान के विष का घूँट पीने के बाद उसके खाने की इच्छा समाप्त हो गयी थी | भूखी ही वह अपने पलंग पर जाकर लेट गयी |

पूजा की आँखें खुलीं तो उसने हल्के-से प्रकाश में देखा, दो बज रहे थे | बराबर के पलंग पर सोते हुए देव बाबू उसे उस समय कितने आकर्षक लग रहे थे | इस समय उन्हें देखकर कौन कह सकता था कि यह व्यक्ति अपनी पत्नी का तिरस्कार कर सकता है | कुछ सोचकर वह उठी और पति के पलंग पर चली गई |

पूजा अपने पति के पास लेटी उनके मुख की तरफ देखे जा रही थी | जाने-अनजाने देव बाबू का हाथ उसकी कमर से आ लिपटा था | वह सिकुड़कर उनके वक्ष में समाने लगी | महीनों की प्यास होंठों पर उभर आयी तो उसके होंठ बिना कुछ कहे फड़फड़ा उठे | वह स्वयं को रोक नहीं पाई और उसने अपने सुलगते होंठों को उनके होंठों पर रख दिया | कितने ठण्डे थे वे होंठ! परन्तु पूजा ने उनकी इस अनजान चुप्पी को स्वीकृति समझा और उसका शरीर और अधिक क्रियाशील होता गया |

अचानक देव बाबू चौंककर उठ बैठे | उठे हुए उफान को जैसे किसी ने छोंटे मारकर शान्त कर दिया हो | एक झटके से उन्होंने स्वयं को पत्नी से अलग कर लिया और तीखी दृष्टि से उसकी ओर देखने लगे |

“क्या बात है?” दुख और आश्चर्य से पूजा ने पूछा |

“तुम मेरे बिस्तर पर कैसे!”

“क्यों, क्या मुझे इसका भी अधिकार नहीं है?” पूजा ने भी हँसते हुए देव बाबू पर व्यंग्य किया |

“यह मैं नहीं जानता...लेकिन तुम मुझे सोने क्यों नहीं देतीं? रात को यदि नींद पूरी न हो तो दिन में बच्चों के सामने नींद आने लगती है |” कहते हुए उनका गला भर आया | दिल पर रखा पत्थर सरका जाता था मगर वे विवश फिर उसे स्वयं पर खिंच रहे थे |

“मुझे सोने दो पूजा |” कहकर वे पुनः लेट गए | उनकी आँखें में उभरे आँसुओं को देखकर भी पूजा कुछ पूछने का साहस नहीं कर पाई | कल रात्रि की घटना वह भुला नहीं सकी थी |

बाढ़ आई नदी को जैसे किसी ने बहुत ऊँचा बाँध बनाकर रोक दिया था |

देव बाबू अपने आँसुओं पर नियन्त्रण नहीं रख पा रहे थे | वे यह भी नहीं चाहते थे की अपनी पत्नी के सामने कमजोर पड़ जाएँ | लघुशंका का बहाना कर, वे अपने आँसुओं को छिपाने के लिए बाहर निकल गए |

पूजा के मन को एक झटका-सा लगा | उसके मस्तिष्क में एक विचार उभरा, ‘कहीं उसका पति...नहीं-नहीं, यह बात नहीं हो सकती | शादी होने के बाद तो इन्होंने मुझे पूर्णतया सन्तुष्ट किया है | ऐसी कोई कमी इनमें नहीं हो सकती |’

मन में उठे विचार को तर्कशक्ति ने दबा दिया | शंका का कोई समाधान न था | विचारों के दायरें में उलझी वह कितनी ही देर करवटें बदलती रही और उसके पति बाहर बरामदे में टहलते रहे |