Deh ke Dayre - 7 books and stories free download online pdf in Hindi

देह के दायरे भाग - 7

देह के दायरे

भाग - सात

कालका को पीछे छोड़कर अब बस तेजी से पहाड़ की सर्पाकार सड़क पर शिमला की ओर बढ़ी जा रही थी | ज्यों-ज्यों बस पहाड़ो में आगे जी ओर बढ़ रही थी, त्यों-त्यों वातावरण में ठण्ड की अधिकता बढ़ती जा रही थी | हवा के ठण्डे झोंके बन्द खिड़की के शीशों से टकराकर रह जाते | सभी छात्र-छात्राओं ने अपने गर्म कपड़े पहने हुए थे |

भास्कर देव आसमान के बीचों-बीच चमक रहे थे | दूर-दूर तक पहाड़ों पर उनका प्रकाश फैल रहा था | आसमान में यहाँ-वहाँ छोटे-छोटे बादलों के टुकड़े भी तैर रहे थे | सभी छात्र-छात्राएँ बन्द खिड़की के शीशों में से बाहर के दृश्यों का आनन्द ले रहे थे | पहाड़ के एक भाग पर फैलता हुआ सूर्य का प्रकाश और दुसरे भाग पर फैली छाया मन को विचित्रता का आभास देने के साथ ही आनन्दित भी करती थी | सड़क के एक ओर फैले ऊँचे पहाड़ और दूसरी तरफ गहराई | गहराई की तरफ झाँकने पर आँखें कई बार स्वतः ही भय से मूँद जाती थीं |

खिड़की के साथ बैठी पूजा की दृष्टि बाहर विस्तृत प्रकृति के प्रांगण पर टिकी थी | पास ही बैठी रेणुका भी अपने ही विचारों में खोई हुई थी | अभी बर्फ नहीं गिरी थी इसलिए जगह-जगह हरियालीविहीन वृक्षों के ठूँठ खड़े थे | किसी-किसी वृक्ष पर पतझर की मार से शेष बचे पत्ते वृक्षों की हरियाली की याद दिला रहे थे |

बस तेजी से आगे को भागती जा रही थी | एक के बाद एक तीखा मोड़ और चढ़ाई पर चढ़ती तेज बस | छात्र-छात्राओं को यह यात्रा बड़ी ही रोमांचकारी लग रही थी | सभी अपने में मस्त यात्रा का आनन्द ले रहे थे | कुछ सीटों पर गपशप चल रही थी तो कुछ पर मौन फैला हुआ था | कुछ छात्र अपने सामने कोई पुस्तक खोले बैठे थे तो कुछ खिड़की की राह बाहर के दृश्यों को देखने में खोए हुए थे |

कुछ देर तो पूजा खिड़की से बाहर झाँकती बाहर के दृश्यों में खोयी रही परन्तु उसकी दृष्टि जब एक ओर फैली गहराई की तरफ गयी तो उसका मन काँप उठा | उसने अपनी दृष्टि खिड़की से हटा ली और साथ रखे बैग से पुस्तक निकालकर पढ़ने लगी | आँखें जैसे थकान-सी अनुभव कर रही थीं | वह पुस्तक पढ़ न सकी |

“रेणुका, जी कुछ मिचला रहा है |” उसने साथ बैठी रेणुका का ध्यान अपनी ओर खींचते हुए कहा |

“अभी से...?”

“लगता है कहीं उल्टी न हो जाए |”

“डॉक्टर को बुलाऊँ?”

“अरी पगली, चलती बस में डॉक्टर कहाँ से आएगा?”

“हमारे लिए न सही, तुम्हारा डॉक्टर तो इसी बस में बैठा है |” रेणुका ने हँसते हुए कहा |

“कौन?” चौंकते हुए पूजा ने कहा |

“तुम्हारा डॉक्टर बाबू |”

“देव बाबू?”

“देव बाबू का नाम तो मैंने नहीं लिया लेकिन चोर की दाढ़ी में तिनका | एक बार एक व्यक्ति ने एक भूखे से पूछा कि दो कितने होते हैं-तो भूखे व्यक्ति ने उत्तर दिया, चार रोटियाँ | कुछ ऐसी ही हालत तुम्हारी भी है | कोई कुछ भी कहे परन्तु मुझे तो देव बाबू ही सुनाई देता है | वाह रे इश्क! सचमुच तुमने गालिब को निकम्मा कर दिया होगा |”

पूजा अपनी स्थिति पर झेंप-सी गयी | झेंप को कुछ कम करते हुए उसने कहा, “रहने दो अपने भाषण को! इतना तो होता नहीं कि थर्मस से निकालकर एक प्याला चाय ही पिला दो |”

“अभी लो पूजा रानी | हम तो आपके हुक्म के गुलाम हैं |” रेणुका ने जिस अन्दाज से कहा था उससे बस में बैठे अन्य छात्र-छात्राओं के साथ ही देव बाबू का ध्यान भी उनकी तरफ खिंच गया |

देव बाबू को अपनी ओर देखता पाकर मुसकराते हुए रेणुका ने उसे अपने पास आने का इशारा कर दिया |

“क्या बात है रेणुका जी?” देव बाबू अपनी सीट छोड़ उठकर उनके पास आ गया |

रेणुका मुख से कुछ न बोल आँखों से मुसकराती रही |

“आपको कुछ चाहिए तो नहीं?” उसने फिर पूछा |

“चाहिए |” रेणुका के मुख पर हँसी और आँखों में शरारत नाच रही थी |

“क्या...?”

“दवा |”

“क्यों, क्या बात हुई?” चौंककर देव बाबू ने पूछा |

“इनसे पूछ लो | अभी कह रही थीं की दिल मचल रहा है |” उसने पूजा को इंगित करते हुए धीरे से कहा |

“चल झूठी कहीं की, कब कह रही थी मैं?” रोष से झिड़कते हुए पूजा ने कहा परन्तु अपने रोष के बनावटीपन को वह छुपा नहीं सकी |

“अभी तो कह रही थीं कि शायद उल्टी हो जाए |”

“यह तो कहा था लेकिन तुम तो शब्दों के हाथ-पैर तोड़कर कुछ का कुछ अर्थ बना देती हो |”

“नखरे करने तो हमें आते नहीं पूजा रानी, जो ठीक होता है, कह देते हैं |”

“नखते कौन करता है?” क्रोध से पूजा ने कहा |

“आप दोनों आपस के झगड़े में हमें बैठाना भी भूल गयी हैं |” हँसकर बीच में टोकते हुए देव बाबू ने कहा |

देव बाबू की बात सुनकर पूजा चौंक उठी | बातों ही बातों में वह उससे बैठने के लिए कहना भी भूल गयी थी |

“बैठिए...|” रेणुका ने सीट पर एक ओर खिसकते हुए कहा तो देव बाबू धन्यवाद कहता हुआ उन दोनों के मध्य बैठ गया |

“एक प्याला चाय चलेगी?” पूजा ने पूछा |

“अरी पूछती क्या हो! तुम्हारी ‘चाह’ कौन नहीं लेना चाहेगा |”

“तो फिर दे क्यों नहीं देतीं डालकर |”

“ना बाबा, अपने बस का यह काम नहीं है | तुमने पूछा है तो अब तुम ही पिला दो |”

पूजा को रेणुका पर क्रोध तो आ रहा था परन्तु हृदय की गहराईयों में उसे यह सब अच्छा भी लग रहा था | रेणुका जानबूझकर उसे तंग कर रही थी |

“आप परेशान न हों | मेरी चाय पीने की इच्छा नहीं है |” देव बाबू भी उन दोनों के मध्य स्वयं को फँसा पाकर बड़ा विचित्र-सा अनुभव कर रहा था |

“पिलाने वाले की तो इच्छा है देव बाबू |” पूजा ने थर्मस से चाय का प्याला भरकर देव बाबू की ओर बढ़ाया तो रेणुका चुटकी लिए बिना न रह सकी |

“धन्यवाद!” पूजा के काँपते हाथों से देव बाबू ने चाय का प्याला थाम लिया |

“आप भी लीजिए! मेरे चक्कर में आपकी चाय भी ठण्डी हुई जा रही है |” चाय का घूँट भरते हुए देव बाबू ने कहा |

“इसे अपनी सुध कहाँ!”

“रेणुका, यदि इससे आगे अब अगर तुम कुछ बोलीं तो गर्म-गर्म चाय तुम्हारे सिर पे उड़ेल दूँगी |” पूजा ने क्रोध से कहा तो रेणुका मुसकराकर रह गयी |

रेणुका सचमुच ही खामोश हो गयी थी | सम्भवतः वह समझ गयी थी कि पूजा से उसकी छेड़-छाड़ सहन नहीं हो रही है |

सूर्य आसमान के बीच से पश्चिम की ओर बढ़ता जा रहा था और बस अपने गंतव्य की ओर भागती जा रही थी |

बस की एक सीट पर बैठे देव बाबू, रेणुका और पूजा के मध्य खामोशी फैलती जा रही थी | पूजा और देव बाबू आपस में बात करने का कोई सूत्र नहीं खोज पा रहे थे और रेणुका चुप थी कि कहीं उसकी बातों से पूजा अधिक न बिगड़ जाए |

अचानक पूजा को अनुभव हुआ जैसे देव बाबू का पाँव उसके पाँव से टकरा रहा है | बस तेजी से मोड़ खाती हुई पहाड़ पर चढ़ रही थी | पूजा के सारे शरीर में सिहरन-सी दौड़ गयी | आनन्द से आँखें बोझिल होने लगीं | दृष्टि झुकाकर उसने नीचे झाँका तो वह चौंक उठी-यह देव बाबू नहीं, रेणुका थी जो अपने पाँव से उसके पाँव को छेड़ रही थी | झुँझलाकर उसने रेणुका की ओर देखा तो वह धीरे से गर्दन हिलाकर मुसकरा दी | पूजा झुँझलाहट से अपना होंठ काटकर रह गयी |

पूजा ने रेणुका से आँखें बचाने के लिए दृष्टि खिड़की से बाहर के दृश्यों पर टिका दी परन्तु बाहर गहराई की तरफ देखकर वह सिहर उठी |

“नहीं |” वह घबराकर कह उठी | बक एक तीखा मोड़ काटकर चढ़ाई चढ़ रही थी |

“क्या हुआ?” चौंककर देव बाबू ने पूछा |

“बहुत भय लगता है देव बाबू |”

“शायद पहली बार पहाड़ी यात्रा कर रही हो | भय की कोई बात नहीं है |” उसने सामने सीट के डण्डे पर रखे पूजा के हाथ पर अपना हाथ रखकर जैसे उसे आश्वस्त कर दिया |

हाँफती हुई-सी बस शिमला के स्टैंड पर जाकर रुकी | छात्र-छात्राओं में उत्साह की लहर दौड़ गयी | सब दरवाजों को खोल तेजी से निचे उतरे तो ठण्डी कंपकंपति हवा ने उनका स्वागत किया |

कुलियों की सहायता से सामान नीचे उतरवाया गया | बर्फीली हवा शरीर को कंपकंपा रही थी | कई छात्र-छात्राओं ने अपनी अटैचियाँ खोलकर अतिरिक्त गर्म कपड़े नीकालकर पहन लिए |

कुलियों की कमर पर सामान का बोझा लदवाकर वे सभी पक्की पथरीली सड़कों पर चढ़ते हुए पूर्व निश्चित होटल तक जा पहुँचे | चढ़ते-चढ़ते उनकी साँस फुल गयी थी | शरीर में गर्मी आ गयी थी और उनमें से कई इस बात पर आश्चर्य कर रहे थे कि ये कुली अपनी पीठ पर इतना बोझा लादकर बिना राह में कहीं रुके इतनी चढ़ाई कैसे चढ़ जाते हैं | वे बिना किसी सामान के खाली हाथ थे तो भी उनके साथ चलते हुए पिछड़ जाते थे | होटल पर पहुँचकर कुलियों ने सामान उतारा तो उन्हें यह देखकर और भी आश्चर्य हुए की उनके मुख पर थकान का कोई चिह्न न था जब कि वे स्वयं हाँफ रहे थे |

होटल के गेट पर ही मैनेजर ने इस समूह का स्वागत किया और सामान को पहले से बुक करवाए हुए कमरों में पहुँचा दिया गया | कुल तीन कमरे थे | एक में सभी छात्र, दुसरे में छात्राएँ और तीसरा कमरा, जो अपेक्षाकृत कुछ छोटा था, अध्यापक वर्ग के लिए निश्चित कर दिया गया |

सामान आदि को कमरों में लगवाने के बाद सभी चाय पीने के लिए होटल के डाईनिंग हॉल में आ गए | कुछ हॉल के बाहर बरामदे में रखी आराम कुर्सियों में घँस गए तो कुछ अन्दर मेजों पर चाय की प्रतीक्षा करने लगे | पूजा रेणुका को खोज रही थी | न जाने वह किधर चली गयी थी | आखिर वह अकेली ही डाईनिंग हॉल की तरफ चल दी |

गर्म कपड़ों के बावजूद ठण्ड शरीर को छुए जा रही थी | पूजा ने कमरे से बाहर आकर इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई | सब कुछ विचित्र-सा आनन्ददायक लग रहा था | बादल चोटियों का चुम्बन लेते हुए इधर से उधर भागे जा रहे थे | तेज हवा पहाड़ियों से टकरा-टकराकर सांय-सांय की आवाज कर रही थी | पूजा ने कोट के ऊपर ओढ़े अपने शोल को और अधिक कस लिया |

पूजा ने बरामदे में प्रवेश किया तो सामने ही देव बाबू एक आरामकुर्सी में बैठा था | पश्चिम में अस्त होते सूर्य की क्षीण-सी किरणें वहाँ तक सीधी पहुँच रही थीं | पूजा वहीँ पास में पड़ी एक कुर्सी पर जाकर मौन-सी बैठ गयी |

हॉल के अन्दर कहकहों का साम्राज्य था | हँसी-मजाक, गाना एवं मेजें बजाना | रेणुका भी वहीँ बैठी किसी लड़की से बातें कर रही थी |

आमने-सामने बैठे देव बाबू और पूजा दोनों ही अस्त होते उस सूर्य की ओर देख रहे थे जो कि दिन-भर सफर से थककर अब अपनी मंजिल तक पहुँचने वाला था | दोनों ही शायद एक-दुसरे की उपस्थिति से अनजान बने पर एक-दुसरे के सामीप्य का अहसास करते मौन बैठे थे |

लम्बे फैलते इस मौन को पूजा सहन न कर सकी और उकताकर वह अकेली ही होटल से बाहर निकल पड़ी | शायद रेणुका ने उसे जाते हुए देख लिया था | मुसकराती हुई वह भी उधर को लपकी |

“क्या हुआ देव बाबू?” देव बाबू के समीप आते हुए रेणुका ने पूछा |

“क्या बात है?” देव बाबू की दृष्टि सामने से हटकर रेणुका की ओर घूमी |

“पूजा कहाँ चली गयी?”

“शायद घुमने गयी होगी |”

“अकेली?” रेणुका की मुसकान गहरी हो गयी |

“तुम भी उसके पीछे भाग जाओ |” देव बाबू ने हँसते हुए कहा और रेणुका भी उसी राह पर भाग गयी जिसपर कुछ देर पूर्व पूजा गयी थी |

पूजा पहाड़ी की ढलवाँ पगडण्डी से नीचे उतर रही थी | कुछ नीचे आकर उसने देखा-एक चट्टान को काटकर वहाँ पर बैठने के लिए बहुत ही सुन्दर स्थान बनाया गया था | पूजा के पाँव इसी स्थल पर ठिठक गए | वहाँ पर बैठकर वह एक पल को सुस्ताने लगी | सामने कुछ निचाई पर एक बड़ा-सा चौक था | आदमियों की भीड़ वहाँ न थी अपितु इक्का-दुक्का व्यक्ति ही इधर से उधर गुजर रहा था | पूजा ने आँखों पर दूरबीन लगायी और दूर-दूर तक फैले दृश्य देखने लगी |

सामने काफी निचाई पर एक छोटा-सा पहाड़ी गाँव बसा हुआ था | सूर्य पूरी तरह से अस्ताचलगामी नहीं हुआ था | कुछ घरों से उठकर धुआँ आसमान में फैल रहा था | सूर्य के हलके प्रकाश ने पहाड़ियों की सुन्दरता को और भी अधिक मनोहारी बना दिया था | एक पहाड़ी लड़का सिर पर लकड़ियों का बोझा उठाए सँकरी पगडण्डी से गाँव की तरफ बढ़ा जा रहा था | एक तरफ दूर-दूर तक लम्बे-लम्बे वृक्षों की कतार-सी फैली हुई थी | कहीं दूर एक पहाड़ी पर बना एकाकी बंगला बड़ा सुना-सा लग रहा था |

“पूजा |...” पुकार सुनकर भी पूजा अपनी आँखों से दूरबीन हटाकर दृश्य-अवलोकन करने का आनन्द न छोड़ सकी | आवाज से ही पहचान लिया था उसने की पुकारने वाली रेणुका है |

“हाँ...|” दूर एक पहाड़ी पर दृष्टि जमाए हुए उसने कहा |

“दूरबीन आँखों से हटा ले पूजा |”

“क्यों?”

“इससे आदमी बहुत दूर चला जाता है |”

“फिर क्या हुआ?” हँसकर पूजा ने कहा |

“हमें बहुत दूर नहीं भागना है पूजा | खुशियाँ तो कहीं आसपास ही बिखरी हुई मिलेंगी |”

“रेणुका, फिलोसफर कब से बन गयीं? पहले तो तुम कभी इस तरह की बातें नहीं करती थीं |” पूजा ने दूरबीन को आँखों से हटाते हुए आश्चर्य से कहा |

“पहले तुम भी तो इतनी दूर नहीं देखती थीं |”

“लो भाई | अब हम तुम्हें ही देखेंगे |” हँसते हुए पूजा ने अपनी दृष्टि रेणुका पर टिका दी |

“देव बाबू को बुलाऊँ क्या?” अचानक रेणुका के मुख पर फिर वही चिरपरिचित शरारत उभर आयी |

“किसलिए?”

“मैंने कहा था न की खुशियाँ हमारे आसपास ही बिखरी हुई मिलेंगी |”

“हाँ, तो फिर...?”

“देव बाबू इतनी दूर नहीं कि आँखों पर दूरबीन लगाकर खोजना पड़े |”

“देव बाबू? क्या मतलब?”

“अपने मन से पूछो |”

“पूछ लिया |” मुसकराकर पूजा ने कहा |

“क्या कहता है?”

“कुछ नहीं |”

एक क्षण के लिए मौन छा गया दोनों के मध्य | पूजा सोच रही थी कि रेणुका के सामने सब कुछ स्पष्ट कह दूँ | अपने मन में छुपी भावना को उसपर प्रकट कर दूँ | एक क्षण को उसका मन शंकित भी हुआ परन्तु वह अपनी भावनाओ पर नियन्त्रण रखने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी | कुछ देर वह सोचती रही की बात को कहाँ से प्रारम्भ करे |

“रेणुका!” पूजा सिमटकर अपने पास बैठी रेणुका के और भी करीब आ गयी |

“.....” चुप रही रेणुका |

“रेणुका, तू मेरी बहुत प्यारी सहेली है ना |”

“यह तो अपने मन से पूछ |”

“हूँ |”

“अरी झिझकती क्यों है | सच कह न, बात क्या है?”

“बताती हूँ, मगर इतनी जल्दी क्या है?”

फिर एक पल के लिए मौन छा गया | हवा में ठण्डक कुछ और अधिक बढ़ गयी |

“रेणुका, वो देव बाबू है ना |...” पूजा बात पूरी न कर सकी |

“हाँ, क्या हुआ उसे?” रेणुका जान-बूझकर अनजान बन रही थी |

“उसे कुछ नहीं हुआ |”

“तो फिर?”

“उसे कुछ नहीं हुआ रेणुका, यही तो मुश्किल है |”

“उसे कुछ नहीं हुआ तो इसमें मुश्किल की क्या बात है?” रेणुका उसकी स्थिति का आनन्द ले रही थी |

“तू नहीं समझेगी रेणुका |” पूजा हृदय की बात रेणुका से स्पष्ट शब्दों में नहीं कह पा रही थी और रेणुका थी कि उसे स्पष्ट कहने को विवश कर रही थी | मौन वहाँ फिर उपस्थित हो गया |

“मैं समझती हूँ पूजा | तू बोल, कोई काम अटक गया है क्या?” आखिर रेणुका को पूजा की स्थिति पर तरस आ ही गया |

“तेरे बिना मेरा कोई काम नहीं को सकता रेणु | मैं स्वयं तो बहुत कमजोर हो गयी हूँ-मुझसे अब कुछ नहीं हो सकता |”

“प्यार में ऐसा ही होता है पूजा |”

“प्यार...”

“मैं जानती हूँ पूजा, कि तू देव बाबू को चाहती है |” रेणुका ने उसके कन्धे पर हाथ रखते हुए कहा |

इसके बाद तो पूजा रेणुका पर खुलती ही गयी | अपनी गर्दन का भार उसने उसके कन्धों पर डाल दिया |

“हाँ रेणुका | मुझे उनसे प्यार हो गया है | दिन-रात मैं उन्हीं के सपनों में खोयी रहती हूँ | न पढ़ सकती हूँ और न घर के काम में मन लगता है | पढ़ने बैठती हूँ तो सारे अक्षर गडमड हो जाते हैं और रह जाते है पन्नों पर सिर्फ उनकी तस्वीर | हर आवाज में मुझे उनकी आवाज सुनाई देती है | रात को मैं सो नहीं पाती और दिन में जैसे उनींदी आँखों से उन्हीं का स्वप्न देखती रहती हूँ |”

“...रेणुका, मुझे बचा ले रेणुका मैं पागल हो जाऊँगी | मुझसे अब और नहीं सहा जाता |”

आँसू छलक आए थे पूजा की आँखों में | रेणुका ने उसे अपनी बाँहों में ले लिया और आँसू पोंछकर उसकी पीठ पर हाथ फिराते हुए कहने लगी, “साहस से काम ले पूजा | जैसा तू चाहती है वैसा ही होगा |”

“ऐसा नहीं हुआ तो मैं मर जाऊँगी रेणुका |”

“क्यों बुरी बात मुँह से निकालती है |”

“रेणुका, इससे भी बुरे-बुरे विचार मन में आते हैं | मैं शायद जी नहीं सकूँगी, मैं बहुत दूर चली गयी हूँ |”

“तूने देव बाबू से कभी बात की है?”

“मुझमें साहस ही कहाँ है |”

“तू चिन्ता न कर | मैं उनसे बात करुँगी, मगर क्या तेरे घर वाले सम्बन्ध को स्वीकार कर लेंगे?”

“हो सकता है न करें, मगर मैं घर छोड़ दूँगी |”

“आवेश में तो नहीं कह रही हो?”

“यदि यह आवेश है तो मैं इसी आवेश में सब कुछ कर गुजरूँगी |”

“तो फिर ठीक है | मैं अवश्य ही उनसे बात करुँगी | मगर तू भी इस शर्म के पर्दे को हटाकर तनिक साहस से कम ले | जनवरी, फरवरी, मार्च | अप्रैल में परीक्षाएँ हो जाएँगी | जितना शीध्र हो इस काम को कर गुजर, अन्यथा फिर सारे जीवन पछताती रहेगी |”

पूजा धीर-धीरे अपनी हिचकियों पर तियन्त्रण पाने का प्रयास कर रही थी | इस समय वह कितनी कातर हो गयी थी | फैलते हुए मौन में हल्की-हल्की हिचकियों का स्वर भी साफ उभर रहा था |

“अब तू बैठ, मैं चली |” अचानक ही रेणुका पूजा को छोड़कर खड़ी हो गयी |

“बैठो ना, कहाँ जा रही हो?”

“पुजारिन की लिए देवता को खोजने जा रही हूँ |” यह कहते हुए वह उछलती हुई उसी सँकरी पगडण्डी पर भाग गयी जो होटल तक पहुँचती थी |

हृदय के उदगार रेणुका पर प्रकट करने से और आँसू बहाने से पूजा का मन हल्का हो गया था | उसने अपनी पीठ पत्थर की तराशी हुई बेंच पर टिका दी |

सामने पश्चिम में डूबता हुआ सूर्य बड़ा भव्य लग रहा था | आसपास की पहाड़ियों में जैसे सोने का रंग भर गया था | सर्दी पहले से कुछ और बढ़ गयी थी | अपने हाथों को ओवरकोट से निकल शोल को कुछ और कस लिया पूजा ने | बैठे-बैठे थक-सी गयी थी वह, इसलिए उठकर दो-चार कदम इधर-उधर टहलने लगी |

दो-चार कदम टहलने के बाद वह फिर उसी बेंच पर आकर बैठ गयी |

“पूजा-जी, आप यहाँ अकेली बैठी हैं?” कन्धे पर कैमरा लटकाए सामने से आते हुए पंकज ने कहा |

पूजा तो इस समय देव बाबू की प्रतीक्षा कर रही थी | उसे इस समय पंकज का यहाँ आना अच्छा न लगा, फिर भी उसने अपने मनोभावों को छिपाते हुए कहा, “कई बार अकेले में बैठना बहुत अच्छा लगता है |”

“यहाँ...शिमला में आकर भी?”

“हाँ...|” रुखाई छुप नहीं सकी पूजा के शब्दों की |

“आप कुछ उदास हैं, क्या बात है?” अपनत्व से पंकज ने पूछा |

“ऐसे कोई बात नहीं है, आपको कुछ भ्रम हुआ है |” पूजा ने होंठों पर सप्रयास मुसकान लाते हुए कहा |

“देखो, ठण्ड बढ़ रही है, आओ होटल चलें |”

“नहीं...मैं कुछ देर यहाँ और बैठूंगी | कोई अधिक ठण्ड तो नहीं है |”

‘जैसी आपकी इच्छा |” कहता हुआ पंकज पगडण्डी पर निचे उतर गया |

यधपि रेणुका को गए अभी मुश्किल से पाँच-सात मिनट ही हुए थे परन्तु प्रतीक्षा करती पूजा कुछ झुँझला-सी गयी थी | उसे ऐसा लग रहा था कि न जाने कितना अधिक समय व्यतीत हो गया है |

वह सोच रही थी कि अब तक तो देव बाबू को आ जाना चाहिए था | फिर कुछ सोचकर वह स्वयं ही अपने इस ख्याल पर हँस पड़ी | क्या देव बाबू रेणुका के कहने से अवश्य ही यहाँ आ जाएगा? हो सकता है रेणुका को वह मिला ही न हो या फिर किसी कार्य में या अपने मित्रों में व्यस्त हो | लेकिन यदि ऐसी बात होती तो रेणुका तो अवश्य आती |

वह बैठी-बैठी बोर होने लगी | बेंच से उठकर उसने दूरबीन फिर अपनी आँखों पर चढ़ा ली और दूर-दूर तक फैली पहाड़ियाँ-पेड़ों की कतार-पगडण्डीयाँ |

अचानक सब कुछ दिखाई देना बन्द हो गया | दूरबीन पर मोटी-मोटी उँगलियाँ उभर आई | एक पल को वह दर डर गयी |

“कौन?” घबराकर पूजा ने कहा |

सामने खड़े व्यक्ति ने कोई उत्तर देने की अपेक्षा दूरबीन उसकी आँखों से उतार ली | सर्दी के इस मौसम में भी पूजा को लगा जैसे उसके सारे शरीर से पसीना छुट रहा है | एक पल को तो वह घबराकर आँखें ही न खोल सकी लेकिन साहस कर सामने देखा तो वहाँ देव बाबू खड़ा मुसकरा रहा था | कुछ न समझ सकी वह | भय एवं मिलन से उसके हृदय की धड़कने अधिक ही बढ़ गयी थीं | देव बाबू उसके बिलकुल समीप खड़ा था | सहारा लेने के लिए पूजा ने उसके कन्धों पर हाथ रखकर मुख उसके सीने में छुपा लिया |

कुछ देर तो बिना कुछ और सोचे दोनों यूँ ही खड़े रहे | पूजा को लगा जैसे मौसम बदल गया है | सर्दी से कंपकंपाते शरीर में गर्मी की लहर दौड़ गयी |

“आप शायद डर गयी थीं |” देव बाबू ने उसके बालों पर हाथ फिरते हुए कहा |

“जी हाँ |” नीची दृष्टि किए वह उसके सीने से अलग हो गयी |

“मुझसे...?”

“नहीं...नहीं..., मुझे क्या पता था कि आप हैं |” जल्दी में पूजा ने कहा |

“आपने मुझे यहाँ किसलिए बुलाया था?” देव बाबू ने पूछा |

“मैंने?” प्रत्यक्ष में तो पूजा ने उसे नहीं बुलाया था, हाँ रेणुका यह अवश्य कहकर भाग गयी थी कि वह देव बाबू को खोजने जा रही है |

“क्या आपने मुझे नहीं बुलाया था ?”

“नहीं तो |”

“रेणुका ने तो यही कहा था कि इस ढलान पर बेंच के पास आप मेरी प्रतीक्षा कर रही हैं |”

पूजा चुप रही | कहती भी क्या वह?

“अच्छा! यदि आपने हमें नहीं बुलाया तो कोई बात नहीं, हम वापस चले जाते हैं | इस बहाने थोड़ी देर की सैर ही हो गयी |” यह कहते हुए सचमुच ही देव बाबू ने चलने का उपक्रम किया |

“सुनो...|” एकाएक पूजा की तेज आवाज उभरी |

देव बाबू के कदम ठिठके और वह पलटकर उसके समीप आ गया |

“क्या बात है?” मुसकराकर उसने कहा |

“क्या सचमुच चले जाओगे?”

“आपने बुलाया ही नहीं तो...|”

“क्या हर बार बुलाना ही पड़ेगा |”

“इच्छा का पता तो कहने पर ही चलता है |”

“क्या आप अपनी इच्छा से कोई काम नहीं करते? क्या आपका मन कुछ नहीं कहता?”

“बहुत कुछ कहता है पूजा जी...मेरा दिल तो बहुत कुछ चाहता है |” भावातिरेक में देव बाबू ने कहा |

“लेकिन तुम तो जा रहे थे?” पूजा की संकोचभरी दीवार और अधिक न ठहर सकी |

“वह तो बहाना था पूजा...मैं जा कहाँ पाता?”

“अच्छा! तो तुम मुझे तंग कर रहे थे? रेणुका भी मुझे सताती है, तुम भी परेशान कर लो |” स्वयं पर से नियन्त्रण खो पूजा सुबक-सी पड़ी | रुके हुए आँसू आँखों में छलक आए | प्रयास भी नहीं किया पूजा ने उन्हें रोकने का |

“तुम तो रोने लगीं पूजा | अरे भई, मैंने तो मजाक किया था | अगर तुम्हें दुःख पहुँचा हो तो मुझे क्षमा कर दो |”

उसको दोनों हाथ जोड़कर सामने खड़ा देख रोती हुई पूजा की आँखों के आँसू भी मुसकराए बिना न रह सके |

“देव, अपनी पुजारिन से माँफी माँगने की तुम्हें क्या आवश्यकता है?”

“पुजारिन को खुश करने के लिए सब कुछ करना पड़ता है |” हँसते हुए देव बाबू उसकी ओर अपलक देखने लगा |

“उसके लिए तो तुम्हारी एक झलक ही काफी है |” सकुचाकर पूजा ने कहा |

देव बाबू सामने आसमान में फैलते रंगों में खो गया था | सूर्य अभी-अभी धरती की गोद में समाया था परन्तु अस्त होते-होते भी वह बादलों पर अपना प्रकाश फैलाकर उन्हें रंगीन बना रहा था |

“ढलती हुई शाम भी पहाड़ों में कितनी रंगीन होती है!” देव बाबू कह उठा |

“यह तो अनुभव का परिणाम है | सूर्य ने दिन-भर जो संजोया वह सौन्दर्य जाते-जाते आसमान पर फैल दिया |” पूजा ने भी उस बादलों की ओर देखते हुए कहा, जिनमें कितने ही रंग भर गए थे |

हवा कुछ और अधिक तेज हो गयी थी, उसीके साथ ठण्ड बढ़ रही थी | दोनों का शरीर रह-रहकर ठण्ड से काँप उठता था |

पूजा को ठण्ड का अहसास अधिक हुआ तो उसने देव बाबू की ओर देखा-वे भी ठण्ड से काँपते-सिकुड़ते खड़े थे |

“ठण्ड लग रही है देव?” पूजा ने पूछा |

“सच कहूँ ?”

“हाँ |”

“जब तुम दूर हो जाती हो तो ठण्ड अधिक लगती है |” पूजा की आँखों में झाँकते हुए उसने कहा |

“आपने ओवरकोट क्यों नहीं पहना?”

“रेणुका ने कहा तो मैं जल्दी में चला आया | ध्यान ही नहीं रहा की यह दिसम्बर का महीना और पहाड़ की शाम है |”

“लो, मेरा ओवरकोट पहन लो |” कहकर पूजा अपना ओवरकोट उतारने लगी |

“नहीं पूजा!” देव बाबू ने मना किया |

“क्यों, लेडिज है इसलिए?”

“नहीं, फिर तुम्हें ठण्ड अधिक लगेगी |”

“मैंने शोल ले रखा है |”

“क्या एक कोट में दो नहीं आ सकते ?” शरारत से देव बाबू ने कहा |

“धत...|” पूजा लजा गयी और दृष्टि झुकाकर उसने ओवरकोट देव बाबू की तरफ बढ़ा दिया |

देव बाबू ने कोट को अपने कन्धे पर डाल लिया |

“आओ होटल चलते है | चढ़ाई चढ़ने से शरीर गर्म हो जाएगा |” देव बाबू ने कहा और पूजा की बाँह थामने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ा दिया |

पूजा ने भी हाथ आगे बढ़ाकर देव बाबू के हाथ में थमा दिया | आसमान पर बिखरा रंग कालिमा में परिवर्तित होता जा रहा था | पहाड़ों पर अन्धकार उतरता जा रहा था | एक-दुसरे का हाथ थामे वह उस पगडण्डी पर चढ़ते गए |

होटल के समीप आ दोनों अलग हो गए |

उसे दिन पूजा ने देव बाबू का बहुत समीप से स्पर्श किया था | उसकी गर्म साँसों और हृदय की धड़कनों को महसूसा था पूजा ने | उसे लगा था की इतना सुख तो उसे जीवन में इससे पूर्व कभी नहीं मिला था |

मिलकर भी मन शान्त नहीं हुआ था | इस भेंट ने ह्रदय के समस्त तारों को झंकृत कर दिया था | उसकी आँखों के समक्ष जैसे देव बाबू की छवि तैर रही थी | सो नहीं सकी थी वह उसे रात; पागल-सी होती जा रही थी वह |

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