देह के दायरे
भाग - बीस
“आज का दिन बहुत अच्छा रहा पूजा |” रात को बिस्तर पर जाते समय देव बाबू ने कहा |
“...” पूजा सुनकर भी कुछ न बोली |
“इधर आओ पूजा, एक बात सुनो |” देव बाबू ने बहुत प्यार से उसे बुलाया था मगर वह जानती थी कि अधिक प्यार से बुलाने का अर्थ है अधिक अपमान | एक पल को तो वह खामोश रही, फिर उठकर पास आ गयी |
“सामने कुर्सी पर बैठो |” देव बाबू ने आदेश-सा दिया मगर वह उस आदेश की अवहेलना करके उनके पाँवों के समीप ही पलंग पर बैठ गयी | उसके हाथ पति के पाँवों पर जा पड़े और वह धीरे-धीरे उन्हें दबाने लगी |
कुछ देर के लिए देव बाबू को बहुत ही आराम मिला | उन्होंने प्यार से अपनी पत्नी को स्वयं पर खींच लेना चाहा | वे विचलित हो उठे थे मगर तभी अपने निश्चय को याद कर उन्होंने अपने पाँव ऊपर खींच लिए |
“क्या कर रही हो पूजा!”
“अपने धर्म पालन |” दृढ़ता से पूजा ने कहा |
“मेरे विचार से यह धर्म पालन नहीं, गिरावट है |”
“यदि यह गिरावट है तो मुझे गिरने में ही सुख मिलता है | मुझे गिर लेने दो देव |”
“नहीं पूजा, तुम्हें गिरकर नहीं, उठकर सुख भोगना है |” देव बाबू सिर्फ इतना ही कह पाए | दोनों का मन भरा हुआ था मगर दोनों ही चुप थे | मौन फैलता जा रहा था |
पूजा के हाथ फिर देव बाबू के पाँवों की ओर बढ़ रहे थे मगर वे उठकर तकिए के सहारे अधलेटे-से बैठ गए |
“मेरा के विचार है पूजा |”
“क्या...?”
“पंकज मुझे बहुत पसन्द है |”
“तो...?”
इस मकान में ऊपर एक कमरा खली है | क्यों न पंकज यहीं आ जाए? मैंने आज सुबह मकान-मालिक से भी इसके लिए बात की थी |”
“आपने ऐसा किसलिए सोचा है?” किसी शंका से भयभीत पूजा कह उठी |
“अरे भई, कोई विशेष बात नहीं है | अपना मित्र है, अकेला है | यहाँ रहेगा तो उसके खाने की समस्या भी हल हो जाएगी और फिर तुम भी तो अकेली नहीं रहोगी |”
“उससे पूछ है?”
“नहीं, उसके सामने चर्चा करने से पहले मैंने तुमसे पूछना अधिक उपयुक्त समझा |”
“आपको यदि यह अच्छा लगता है तो मुझे क्या आपति हो सकती है |” तटस्थता से पूजा ने कहा |
“फिर भी तुमसे पूछना तो आवश्यक था |”
“मेरे विचार आपसे भिन्न थोड़े ही हैं |”
“तो फिर ठीक है | कल रविवार है | मैं प्रातः ही जाकर उसे अपने साथ ले आने का प्रयास करूँगा | तुम सुबह उठकर ऊपर वाला कमरा ठीक कर देना |”
एक पल को फिर मौन छा गया | दीवार पर लगे घंटे की सुइयाँ निरन्तर आगे भागती जा रही थीं | बारह बजने को थे |
“अब जाकर अपने बिस्तर पर सो जाओ | रात बहुत अधिक बीत चुकी है |” देव बाबू ने कहा |
सुनकर पूजा की आशाएँ मिट गयीं | निराश-सी वह उठी और चुपचाप अपने बिस्तर पर जाकर लेट गयी |
दोनों ही अपने-अपने बिस्तर पर सोने का प्रयास कर रहे थे मगर आँखें बन्द किए होने पर भी नींद मीलों दूर थी | यह जानते हुए भी कि दूसरा सो नहीं रहा है, दोनों ही सोने का बहाना कर एक-दुसरे को धोखा दे रहे थे |
रात देर तक जागने के उपरान्त भी देव बाबू प्रातः शीघ्र ही उठ गए | अपनी दिनचर्या से निवृत होकर जब वे पंकज के स्टूडियो की तरफ चले तो उसने पूजा को भी उठा दिया | वे जानते थे कि पंकज न अपने रहने का अब तक कोई प्रबन्ध नहीं किया है और वह रात को स्टूडियो में ही सोता है |
सात बज रहे थे मगर पंकज अभी सोकर नहीं उठा था | देव बाबू ने जाकर दरवाजा खटखटाया तो उसकी नींद खुली | उठकर उसने दरवाजा खोला तो सामने देव बाबू को खड़ा देखकर चकित रह गया |
“आओ-आओ, देव बाबू | आज तो सुबह की किरण के साथ ही आपके दर्शन हो गए |” देव बाबू को अन्दर लेकर उसने दरवाजा उढ़का दिया |
“सुबह-सुबह एक प्याला चाय नहीं पिलाओगे?” देव बाबू ने बैठते हुए कहा | वे अपने उद्देश्य तक पहुँचने के लिए भूमिका तैयार कर रहे थे |
“आप तो जानते हैं देव बाबू, कि अभी मैं दूध नहीं लाया हूँ, सोकर ही उठा हूँ | आओ बाजार में पिएँगे |” पंकज तैयार होने के लिए उठने लगा |
“नहीं भई, बाजार की भी कोई चाय होती है!” देव बाबू ने मना कर दिया |
“इस बिना घर-द्वार के व्यक्ति को क्यों लज्जित कर रहे हो देव बाबू!”
“मैं एक प्रस्ताव लेकर तुम्हारे पास आया हूँ | मना तो नहीं करोगे पंकज?”
“प्रताव तो बताओ |”
“तुम हमारे साथ आ जाओ | हमारे मकान में ऊपर वाला कमरा खाली है | तुम्हारे खाने का प्रबन्ध भी हो जाएगा |”
“नहीं देव बाबू, मैं किसी पर बोझ नहीं बनना चाहता |”
“यह बोझ नहीं होगा पंकज | इसमें मेरा भी स्वार्थ है |”
“क्या?”
“तुम तो देख रहे हो कि पूजा कितनी उदास रहती थी मगर तुम्हारे आने से जैसे उसकी खुशी लौट आयी है |”
“मेरे आने से?”
“हाँ पंकज, उसे मुसकराए कितने ही दिन हो गए थे मगर तुम्हारे आने से वह हँसने भी लगी है | हमपर यह उपकार कर दो पंकज |”
“पूजा से इस विषय में बात की है?”
“वह भी यही चाहती है | तुम्हारे आने से उसका एकान्त टूट जाएगा |”
“जब आप दोनों की यही खुशी है तो मैं अवश्य ही इस विषय में सोचूँगा |”
“अरे भई, सोचना कैसा? पूजा ने तो हमें सामान के साथ तुम्हें लिवा लाने का आदेश दिया है | रविवार है, मैं भी इस काम में तुम्हारी सहायता कर दूँगा |” हँसते हुए देव बाबू ने कहा |
“देव, मैं उस मकान में रह तो लूँगा लेकिन खाना मैं बाजार में ही खाऊँगा |” पंकज को पूजा के समीप जाना बड़ा सुखद लग रहा था मगर उसने अपनी प्रसन्नता को दबाते हुए कहा |
“क्यों, पूजा के हाथ का बना खाना हजम नहीं होगा क्या?”
“ऐसी बात नहीं है देव बाबू! बात यह है...”
“मैं तुम्हारी उलझन समझ गया हूँ | तुम खर्चे के विषय में सोच रहे हो तो इस विषय में चिन्ता न करो | वहाँ तुम्हें मुफ्त खाना नहीं मिलेगा | जितना तुम खाने में खर्च करते हो उतना पूजा को दे देना |” देव बाबू ने कहा |
“इस विषय में वह बहु हठी है देव! वह कभी खर्च लेना स्वीकार नहीं करेगी |” पंकज ने शंका व्यक्त की |
“कमाल के आदमी हो तुम भी | देने के सौ बहाने होते हैं | चलो, अब अपना सामान समेटो | पूजा ने तुम्हारा कमरा भी ठीक कर दिया होगा |”
“आपकी चाय...?”
“उधार रही |”
“तो चलो | आपका आग्रह टालना क्या मेरे वश में है?” पंकज ने प्रस्ताव स्वीकार कर अपना सामान समेटना शुरू कर दिया |
गिनती का सामान था | एक बिस्तरा, एक अटैची, एक थर्मस और छोटी-छोटी चीजों का एक थैला | कुल मिलाकर बीस मिनट में ही सामान तैयार हो गया |
देव बाबू ने स्टूडियो के दरवाजे पर आकर बाहर सड़क से गुजरते रिक्शे को बुलाया और उसमें सामान लादकर दोनों घर की तरफ चल दिए | दोनों ही अपने विचारों में खोए हुए थे | देव बाबू पंकज को पूजा के समीप लाने की सोच रहे थे और पंकज पूजा के समीप जाने की उत्सुकता से प्रसन्न था |
पूजा कमरा साफ करके छज्जे से निकल ही रही थी कि उसकी दृष्टि सामने सड़क पर आ रहे रिक्शे पर पड़ी | देव बाबू पंकज को उसके सामान सहित लेकर आ रहे थे | वह भी शीघ्रता से नीचे दरवाजे पर आ गयी |
रिक्शा मकान के सामने आकर रुका तो पंकज के उतरने से पहले ही देव बाबू कूदकर रिक्शे से उतर पड़े |
“मैं पंकज को पकड़ लाया हूँ पूजा |” दरवाजे पर खड़ी पूजा से उन्होंने कहा |
पूजा पंकज की ओर देख रही थी | एक पल बाद उसे ध्यान आया तो उसने आगे बढ़कर रिक्शे से पंकज की अटैची उतार ली, पंकज भी थैला और थर्मस लिए रिक्शे से उतर गया | रिक्शा वाले ने बिस्तर उठाकर दरवाजे में रख दिया और पैसे लेकर चला गया |
सभी सामान ऊपर कमरे में पहुँचा दिया गया | इस प्रकार दो व्यक्तियों के इस परिवार में एक व्यक्ति और जुड़ गया |
देव बाबू प्रसन्न थे...वे अपने उद्देश्य के निकट आते जा रहे थे |
पंकज पूजा के समीप आकर प्रसन्न था |
पूजा यह सोचकर सन्तुष्ट थी कि शायद पंकज की उपस्थिति से उसके पति का व्यवहार बदल जाएगा |