मेरा तेरा हम सबका प्यारा टुनटुना
राजू आज बहुत उदास था। आज उसके हाथ से गिरने की वजह से मोबाईल की स्क्रीन टूट गई थी । शोरूम वाले ने उसे कल तक ठीक करके देने के लिए बोला है। क्या करूं टाइम ही पास नही हो रहा.. "राजू ओ राजू..अन्दर से मां ने आवाज लगाई तो राजू "आया मां..कहकर उठकर चल दिया पिछले तीन चार साल में शायद यह पहला अवसर था जब मां की एक आवाज पर राजू ने जवाब दिया हो ।
"बोलो मां.."बेटा आज घर में सब्जी नही है सुबह पानी की मोटर ने पानी देर से उठाया बेटा इसलिए मैं तेरी मौसी(बगल वाली आंटी) के साथ सब्जी लेने नही जा पाई मेरा प्यारा बेटा मेरा राजा बेटा मेरा ये काम कर दे ना बेटा मां ने लगभग मनुहार करते हुए कहा... 'खाली बैठने से अच्छा है । चलो आज बाजार ही घूम आता हूं,.. मनही मन मैने सोचा "अच्छा बताओ क्या लाना है...? मां के मुखमंडल पर एक नई सी चमक थी..मां ने सब्जी की लिस्ट और थैला मुझे थमा दिया ।
बाजार जा रहे हो बेटा ठहरो मैं भी चलता हूं दादा जी ने छड़ी उठाते हुए कहा "हां दादाजी चलिए...."बेटा मेरा ये चश्मा टूट गया है। काफी दिन हो गए तुम्हारे पापा को तो आफिस से टाइम नही लगता तुम ही ठीक करवाकर ला दो दादी जी ने मेरी तरफ बढ़ते हुए टूटा हुआ चश्मा मुझे थमा दिया ।
मैं और दादाजी स्कूटी पर बाजार चल दिए दादा जी को नाई की दुकान पर छोड़कर मैंने सब्जी ली और दादी जी के चश्में का फ्रेम बदलवाया। मैं थोड़ी ही देर में फ्री हो चुका था नाई की दुकान पर पहुंचा तो दादाजी का नम्बर अभी नही आया था कटिंग करवानी थी उन्हें.."बेटा अभी मुझे आधा घण्टा और लग जाएगी इतने तुमको कोई और काम है तो कर आओ..दादाजी ने कहा ।
अरे हां याद आया रमेश का घर यहीं बगल मे ही तो है कितनी बार बोल चुका है कभी घर आ ना यार. मैंने मन ही मन सोचा। मैं रमेश के घर पहुंचा तो वह घर पर ही था आंटी से नमस्ते हुई और हम वही ड्राइंग रूम मे बैठे गए आंटी चाय ले आई खूब गपशप हुई पता ही नही चला कब आधा घण्टा बीत गया आज कितने दिनों बाद किसी दोस्त के घर आया था "अच्छा रमेश चलता हूं दादाजी वेट कर रहे होंगे.. "आते रहा करो बेटा..आंटी ने भी कहा ।
नाई की दुकान पर पहुंचा तो दादाजी फ्री हो चुके थे। हम दोनो घर की तरफ चल पड़े रास्ते में दादाजी ने स्कूटी रूकवाकर कुल्फी वाले से कुल्फी खाई और मुझे भी खिलाई। दादाजी ने बहुत सी बातें बताई उस कुल्फी वाले के बारे में । काफी पुराना था उस कुल्फी वाले का इतिहास..वाकई कुल्फी थी भी गजब की..भूल ही गया था उसका स्वाद अगर पहले कभी खाई भी होगी तो याद नही ।
हम वहां से चलकर घर पहुंचे तो दोपहर के दो बज चुके थे दादाजी बोले निहाल कर दिया बेटा तुम जा रहे थे तो साथ चला गया नही तो गर्मी में हालात खराब हो जाती.. दादाजी ने स्कूटी से लगभग उतरते हुए कहा कितना आनन्द था उस पल में दादीजी के हाथ में जब चश्मा थमाया तो सैंकड़ों आशीषों की पिटारी उपहार स्वरूप मिली।
मां ने भी फटाफट शिकंजी बनाकर पिलाई और पास बैठकर अपनी साड़ी से मेरा पसीना पौंछा शायद बहुत बड़ी खुशी दी थी मैने उन्हें आज सब्जी लाकर..थोड़ी देर में खाना तैयार हो गया मैंने खाना खाया और सो गया..शायद थोड़ा थक गया था आज बाजार जाकर दो घण्टे की नींद के बाद ऊठा तो पापा आफिस से आ चुके थे।
"कैसे हो बरखुरदार..पापा ने पूछा तो मैंने ठीक में सर हिला दिया "पार्क चलोगे मेरे साथ..? खाली घर बैठने से तो अच्छा है चलो आज पापा के साथ पार्क ही हो आता हूं। यह सोचकर मैंने हामी भर दी..आधा घण्टे बाद हम दोनों पार्क में थे पढ़ाई, खेलकूद और ना जाने कितने विषयों पर बातचीत हुई ।
पार्क में पापा के दोस्तों से भी मिला शायद पहली बार ही मिल रहा था क्योंकि कभी मोबाईल से इत्तर की दुनिया मैंने देखी ही नही थी..बड़ा फ्रैश सा महसूस कर रहा था आज मैं खुद को। दो घण्टे पार्क में बिताकर घर लौटे तो आठ बजे चुके थे खाना तैयार था खाने की टेबल पर हम सभी ने बैठकर खाना खाया। खूब हंसी मजाक हुआ। मां और दादाजी ने मेरी खूब तारीफ की उन्होंने बताया कि आज मैंने बाजार के काम निपटाकर उनकी कितनी मदद की क्यूं बरखुरदार आज तुम्हारे पास तुम्हारा "टुनटुना" नही है..?
पापा अक्सर मेरे मोबाईल को "टुनटुना" ही कहते हैं क्योंकि वह बजता ही रहता है कभी व्हट्स एप्प और कभी फेसबुक की नोटिफिकेशन की टोन से.."पापा उसकी स्क्रीन क्रैक हो गई थी ठीक होने को दे रखा है..."कल ठीक करकर देगा..."तभी तो मैं सोचूं आज हमारे बरखुरदार को हमारे पास बैठने का वक्त कहां से मिल गया..मैं बस झेंप कर रहा गया।
सच ही तो कह रहे थे पापा शायद पिछले तीन चार साल में परिवार के इतना करीब मैं आज के अलावा शायद ही रहा था..खाना तो अक्सर मैं अपने कमरे में ही खाता था। वो आवाज लगाते लगाते थक जाते थे लेकिन शायद आज पहली बार था ।
जब मैंने हर किसी की पहली आवाज पर मैंने उनको जवाब दिया था "अच्छा चलो सो जाओ..सुबह पांच बजे उठकर मेरे साथ पार्क में चलना। सुबह की हवा और भी सुहानी होती है। पापा यह कहकर सोने चले गए मैं भी उठकर अपने कमरे में आ गया। मोबाईल पास नही था इसलिए बिस्तर पर पसरते ही नींद आ गई।
घुर्रररररर..घुर्ररररररर की आवाज से अचानक आंखे खुल गई। देखा तो सुबह के आठ बज रहे हैं लेकिन पापा ने तो सुबह पांच बजे उठने को कहा था। और ये क्या फोन तो आज ठीक होकर मिलने वाला था फोन किसने लाकर रख दिया मेरे सिरहाने।
""ओहहहहह तो क्या ये सब सपना था..? दिल ने खुद ही दिल से सवाल किया और दिल ने दिल को ही जवाब दिया..हां यह सपना था। उसने एक झटके से "टुनटुने" को टेबल पर रख दिया और मां,पापा, दादाजी चिल्लाता हुआ नीचे की और दौड़ पड़ा नाश्ते की टेबल की तरफ जहां उसके अपने रिश्ते, उसकी खुशियां पलकें बिछाए उसका बेसब्री से इन्तजार कर रहे थे।
"टुनटुना" अब भी बज रहा था लेकिन वहां उसकी आवाज सुनने वाला कोई नही था क्योंकि उसका गुलाम आज आजाद हो चुका था ।
X X X X X X X X
लोगों के साथ भगवान कृष्ण का बर्ताव करुणा से भरा था लेकिन कुछ लोगों के साथ वह बड़ी कठोरता से पेश आते थे। जब जिस तरह से जीवन को संभालने की जरूरत पड़ी, उन्होंने उसे उसी तरह से संभाला। हालात के लिए जो उचित हो, वही करने पर जोर देते थे श्री कृष्ण ।
श्री कृष्ण जब-जब लड़ाई के मैदान में भी उतरे, तो भी आखिरी पल तक उनकी यही कोशिश थी कि युद्ध को कैसे टाला जाए लेकिन जब टालना मुमकिन नहीं होता था तो वह मुस्कराते हुए लड़ाई के मैदान में एक योद्धा की तरह लड़ते थे।
एक बार जरासंध अपनी बड़ी भारी सेना लेकर मथुरा आया। वह कृष्ण और बलराम को मार डालना चाहता था, क्योंकि उन्होंने उसके दामाद कंस की हत्या कर दी थी। कृष्ण और बलराम जानते थे कि उन्हें मारने की खातिर जरासंध मथुरा नगरी की घेराबंदी करके सारे लोगों को यातनाएं देगा।
अत: लोगों की जान बचाने के लिए उन्होंने अपना परिवार और महल छोडऩे का फैसला किया और जंगल में भाग गए। इसके लिए उनको रणछोड़ भी कहा गया (आज भी कहा जाता है) लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की क्योंकि उस समय मथुरा वासियों की जान बचाना ज्यादा जरूरी था।
जब श्रीकृष्ण भाग रहे थे तब जरासंध का एक साथी असूर कालयवन भी उनसे युद्ध करने आ पहुंचा। दोनो उनका पीछा करने लगे। इस तरह श्रीकृष्ण रणभूमि से भागे क्योंकि कालयवन के पूर्व जन्म के पुण्य बहुत ज्यादा थे व श्रीकृष्ण किसी को भी तब तक सजा नहीं देते थे जब कि पुण्य का बल शेष रहता था।
इस दौरान उन्हें तरह-तरह के शारीरिक कष्ट झेलने पड़े। श्री कृष्ण ने इसे बड़ी सहजता से लिया। उन्होंने सभी हालात का मुस्कराते हुए सामना किया। ध्यान रखें, हालात के लिए जो उचित हो, वही करें।
X X X X X X X X
आंधी को अपनी शक्ति पर बड़ा घमंड था। एक दिन चलते-चलते उसने अपनी छोटी बहन मंदवायु से कहा-'तुम भी क्या धीरे-धीरे बहती रहती हो । तुम्हारे चलने से एक पत्ता तक नहीं हिलता, जबकि मेरे प्रचंड वेग के आगे बड़े-बड़े वृक्ष धराशायी हो जाते हैं । जब मैं उठती हूं, तो दूर-दूर तक लोग मेरे आने की खबर चारों ओर फैला देते हैं ।
मुझे देखकर लोग खिड़की-दरवाजे बंद कर अपने घरों में दुबक जाते हैं। पशु-पक्षी अपनी जान बचाकर इधर-उधर भागते फिरते हैं ।मेरे प्रभाव से बस्तियां धूल में मिल जाती हैं । क्या तुम नहीं चाहती कि तुम्हारे भीतर भी मेरे समान शक्ति आ जाए ?
आंधी की ये बातें सुनकर मंदवायु हौले से मुस्कराई, मगर उसने कोई जवाब नहीं दिया । वह धीरे-धीरे अपनी यात्रा पर बढ़ चली। उसे आते देखकर नदियां, ताल, जंगल, खेत सभी मुस्कराने लगे। बगीचों में तरह-तरह के फूल खिल उठे।
रंग-बिरंगे फूलों के गलीचे बिछ गए। वातावरण महक उठा। पक्षी कुंजों में आकर विहार करने लगे। ऐसा लग रहा था मानो पूरी प्रकृति अपनी बांहें पसारकर उस मंदवायु का स्वागत करने को आतुर हो।
इस तरह अपने कार्यों द्वारा मंदवायु ने अपनी शक्ति का परिचय आंधी को आसानी से करा दिया। यह देख आंधी बोली- मैं ही गलत थी बहन । भले ही मेरा वेग और पराक्रम तुमसे अधिक हो, पर सकारात्मक प्रभाव तो तुम्हारा ही अधिक है।
यही कारण है कि तुम्हारी आमद से चारों ओर इतनी खुशियां फैल जाती हैं । सज्जन व्यक्तियों का जीवनक्रम भी मंदवायु के समान चारों ओर सुरभि, सौंदर्य और प्रसन्नता फैलाने वाला होता है । वे पराक्रम में नहीं, अपने सौजन्य में महानता देखते हैं। यही कारण है कि वे हर जगह सम्मान पाते हैं ।
X X X X X X X X
एक नगर में रहने वाले एक पंडित जी की ख्याति दूर-दूर तक थी। पास ही के गाँव में स्थित मंदिर के पुजारी का आकस्मिक निधन होने की वजह से, उन्हें वहाँ का पुजारी नियुक्त किया गया था। एक बार वे अपने गंतव्य की और जाने के लिए बस में चढ़े, उन्होंने कंडक्टर को किराए के रुपये दिए और सीट पर जाकर बैठ गए।
कंडक्टर ने जब किराया काटकर उन्हें रुपये वापस दिए तो पंडित जी ने पाया कि कंडक्टर ने दस रुपये ज्यादा दे दिए हैं। पंडित जी ने सोचा कि थोड़ी देर बाद कंडक्टर को रुपये वापस कर दूंगा ।
कुछ देर बाद मन में विचार आया कि बेवजह दस रुपये जैसी मामूली रकम को लेकर परेशान हो रहे है, आखिर ये बस कंपनी वाले भी तो लाखों कमाते हैं, बेहतर है इन रूपयों को भगवान की भेंट समझकर अपने पास ही रख लिया जाए। वह इनका सदुपयोग ही करेंगे।
मन में चल रहे विचारों के बीच उनका गंतव्य स्थल आ गया बस से उतरते ही उनके कदम अचानक ठिठके,उन्होंने जेब मे हाथ डाला और दस का नोट निकाल कर कंडक्टर को देते हुए कहा,"भाई...!
तुमने मुझे किराया काटने के बाद भी दस रुपये ज्यादा दे दिए थे।" कंडक्टर मुस्कराते हुए बोला, "क्या आप ही गाँव के मंदिर के नए पुजारी है?"पंडित जी के हामी भरने पर कंडक्टर बोला, "मेरे मन में कई दिनों से आपके प्रवचन सुनने की इच्छा थी, आपको बस में देखा तो ख्याल आया कि चलो देखते है कि मैं अगर ज्यादा पैसे दूँ तो आप क्या करते हो..!
अब मुझे विश्वास हो गया कि आपके प्रवचन जैसा ही आपका आचरण है। जिससे सभी को सीख लेनी चाहिए" बोलते हुए, कंडक्टर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी। पंडितजी बस से उतरकर पसीना-पसीना थे। उन्होंने हाथ जोड़कर भगवान का आभार व्यक्त किया, "प्रभु तेरा लाख-लाख शुक्र है जो तूने मुझे बचा लिया, मैने तो दस रुपये के लालच में तेरी शिक्षाओं की बोली लगा दी थी।पर तूने सही समय पर मुझे सम्हलने का अवसर दे दिया।"
कभी कभी हम भी तुच्छ से प्रलोभन में, अपने जीवन भर की चरित्र पूँजी दाँव पर लगा देते हैं...॥ किसी ने लिखा है।। बक्श देता है ईश्वर उनको ...! जिनकी 'किस्मत' ख़राब होती है ... !! वो हरगिज नहीं 'बक्शे' जाते हैं... ! जिनकी 'नीयत' खराब होती है... !! ! (संकलन)
Praful patel