कहाँनिया प्यार और परवरीश की
स्कूल में मैडम ने कहा---" अपनी पसंद के किसी भी विषय पर एक निबंध लिखो। " एक बालक ने निबंध लिखा..... विषय :- पत्थर पत्थर मतलब भगवान होता है क्योंकि वो हमारे आजू बाजू सब तरफ होता है। जहाँ भी देखो नजर आता है। अपरिचित गलियों में वो हमें कुत्तों से बचाता है। हाईवे पर गाँव कितनी दूर है, ये बताता है।
घर की बाउंड्रीवाल में लगकर हमारी रक्षा करता है। रसोई में सिलबट्टा बनकर माँ के काम आता है। बच्चों को पेड़ से आम, जामुन, बेर आदि तोड़कर देता है। कभी कभी हमारे ही सिर पर लगकर खून निकाल देता है और इस प्रकार हमें शत्रु की पहचान कराता है।
जिन युवाओं का माथा फिरा हो तब उनके हाँथ लगकर खिड़कियों के काँच तोड़कर उनका क्रोध शांत करता है। रास्ते पर मजदूरों का पेट भरने के लिए खुद को ही तुड़वाता है। शिल्पकार के मन के सौंदर्य को साकार करने के लिए छैनियों के घाव सहन करता है। किसान को पेड़ के नीचे आराम देने के लिए तकिया बन जाता है।
बचपन में स्टंप तो कभी लघोरी आदि बनकर हमारे साथ खेलता है। हमारी सहायता के लिए भगवान की तरह तुरंत उपलब्ध होता है। मुझे बताइए, कि, " भगवान के अलावा और कौन करता है हमारे लिए इतना ?? " माँ कहती है, " पत्थर पर सिन्दूर लगाकर उसपर विश्वास करो तो वो भगवान बन जाता है। " मतलब, पत्थर ही भगवान होता है।
राजा जनक ने ब्रह्मवेत्ता याज्ञवल्क्य से पूछा—भगवन्, यदि संसार से सूर्य लुप्त हो जाय तो फिर मनुष्य किसकी ज्योति का आश्रय लेकर जीवित रहेंगे?
महर्षि ने सहज स्वभाव उत्तर दिया—उस स्थिति में चन्द्रमा से भी काम चलता रह सकता है।
यदि चन्द्रमा भी लुप्त हो जाय तब? —जनक ने फिर पूछा।
तब अग्नि की ज्योति के सहारे संसार का काम चलता रहेगा। याज्ञवल्क्य ने नया समाधान बताया।
जनक का समाधान तब भी न हुआ। महर्षि के उत्तरों के बाद उनकी शंकायें फिर भी उठती रहीं। अग्नि के न रहने पर वाक् शक्ति को विकल्प बताया गया और कहा वाणी भी अग्नि के समान ही तेजस्वी है लोग उसका आश्रय लेकर भी जीवित रह सकते हैं।
जनक का समाधान तब भी न हुआ। महर्षि के उत्तरों के बाद उनकी शंकायें फिर भी उठती रहीं। अग्नि के न रहने पर वाक् शक्ति को विकल्प बताया गया और कहा वाणी भी अग्नि के समान ही तेजस्वी है लोग उसका आश्रय लेकर भी जीवित रह सकते हैं।
जनक का आग्रह ऐसी ज्योति का विकल्प ढूंढ़ना था जिसका अन्त कभी भी न होता हो और जिसके कभी भी लुप्त होने की आशंका न हो।
याज्ञवल्क्य ने अत्यन्त गम्भीर होकर कहा—राजन् वह आत्म−ज्योति ही है जो कभी भी नहीं बुझती। उससे प्रकाश ग्रहण करने वाले को कभी भी अन्धकार का कष्ट नहीं सहना पड़ता।
हम सभी हर साल गणपती की स्थापना करते हैं, साधारण भाषा में गणपती को बैठाते हैं।
लेकिन क्यों ???
किसी को मालूम है क्या ??
हमारे धर्म ग्रंथों के अनुसार, महर्षि वेद व्यास ने महाभारत की रचना की है।
लेकिन लिखना उनके वश का नहीं था।
अतः उन्होंने श्री गणेश जी की आराधना की और गणपती जी से महाभारत लिखने की प्रार्थना की।
गणपती जी ने सहमति दी और दिन-रात लेखन कार्य प्रारम्भ हुआ और इस कारण गणेश जी को थकान तो होनी ही थी, लेकिन उन्हें पानी पीना भी वर्जित था।
अतः गणपती जी के शरीर का तापमान बढ़े नहीं, इसलिए वेदव्यास ने उनके शरीर पर मिट्टी का लेप किया और भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को गणेश जी की पूजा की।
मिट्टी का लेप सूखने पर गणेश जी के शरीर में अकड़न आ गई, इसी कारण गणेश जी का एक नाम पर्थिव गणेश भी पड़ा।
महाभारत का लेखन कार्य 10 दिनों तक चला।
अनंत चतुर्दशी को लेखन कार्य संपन्न हुआ।
वेदव्यास ने देखा कि, गणपती का शारीरिक तापमान फिर भी बहुत बढ़ा हुआ है और उनके शरीर पर लेप की गई मिट्टी सूखकर झड़ रही है, तो वेदव्यास ने उन्हें पानी में डाल दिया।
इन दस दिनों में वेदव्यास ने गणेश जी को खाने के लिए विभिन्न पदार्थ दिए।
तभी से गणपती बैठाने की प्रथा चल पड़ी।
इन दस दिनों में इसीलिए गणेश जी को पसंद विभिन्न भोजन अर्पित किए जाते हैं।।
एक बार भगवान नारायण लक्ष्मी जी से बोले, “लोगो में कितनी भक्ति बढ़ गयी है …. सब “नारायण नारायण” करते हैं !”
तो लक्ष्मी जी बोली, “आप को पाने के लिए नहीं!, मुझे पाने के लिए भक्ति बढ़ गयी है!”
तो भगवान बोले, “लोग “लक्ष्मी लक्ष्मी” ऐसा जाप थोड़े ही ना करते हैं !”
तो माता लक्ष्मी बोली
कि , “विश्वास ना हो तो परीक्षा हो जाए!”
भगवान नारायण एक गाँव में ब्राह्मण का रूप लेकर गए…एक घर का दरवाजा खटखटाया…घर के यजमान ने दरवाजा खोल कर पूछा , “कहाँ के है ?”
तो …भगवान बोले, “हम तुम्हारे नगर में भगवान का कथा-कीर्तन करना चाहते है…”
यजमान बोला, “ठीक है महाराज, जब तक कथा होगी आप मेरे घर में रहना…”
गाँव के कुछ लोग इकट्ठा हो गये और सब तैयारी कर दी….पहले दिन कुछ लोग आये…अब भगवान स्वयं कथा कर रहे थे तो संगत बढ़ी ! दूसरे और तीसरे दिन और भी भीड़ हो गयी….भगवान खुश हो गए..की कितनी भक्ति है लोगो में….!
लक्ष्मी माता ने सोचा अब देखा जाये कि क्या चल रहा है।
लक्ष्मी माता ने बुढ्ढी माता का रूप लिया….और उस नगर में पहुंची…. एक महिला ताला बंद कर के कथा में जा रही थी कि माता उसके द्वार पर पहुंची ! बोली, “बेटी ज़रा पानी पिला दे!”
तो वो महिला बोली,”माताजी ,
साढ़े 3 बजे है…मेरे को प्रवचन में जाना है!”
लक्ष्मी माता बोली..”पिला दे बेटी थोडा पानी…बहुत प्यास लगी है..”
तो वो महिला लौटा भर के पानी लायी….माता ने पानी पिया और लौटा वापिस लौटाया तो सोने का हो गया था!!
यह देख कर महिला अचंभित हो गयी कि लौटा दिया था तो स्टील का और वापस लिया तो
सोने का ! कैसी चमत्कारिक माता जी हैं !..अब तो वो महिला हाथ-जोड़ कर कहने लगी कि, “माताजी आप को भूख भी लगी होगी ..खाना खा लीजिये..!” ये सोचा कि खाना खाएगी तो थाली, कटोरी, चम्मच, गिलास आदि भी सोने के हो जायेंगे।
माता लक्ष्मी बोली, “तुम जाओ बेटी, तुम्हारा प्रवचन का टाइम हो गया!”
वह महिला प्रवचन में आई तो सही …
लेकिन आस-पास की महिलाओं को सारी बात बतायी….
अब महिलायें यह बात सुनकर चालू सत्संग में से उठ कर चली गयी !!
अगले दिन से कथा में लोगों की संख्या कम हो गयी….तो भगवान ने पूछा कि, “लोगो की संख्या कैसे कम हो गयी ?”
किसी ने कहा, ‘एक चमत्कारिक माताजी आई हैं नगर में… जिस के घर दूध पीती हैं तो गिलास सोने का हो जाता है,…. थाली में रोटी सब्जी खाती हैं तो थाली सोने की हो जाती है !… उस के कारण लोग प्रवचन में नहीं आते..”
भगवान नारायण समझ गए कि लक्ष्मी जी का आगमन हो चुका है!
इतनी बात सुनते ही देखा कि जो यजमान सेठ जी थे, वो भी उठ खड़े हो गए….. खिसक गए!
पहुंचे माता लक्ष्मी जी के पास ! बोले, “ माता, मैं तो भगवान की कथा का आयोजन कर रहा था और आप ने मेरे घर को ही छोड़ दिया !”
माता लक्ष्मी बोली, “तुम्हारे घर तो मैं सब से पहले आनेवाली थी ! लेकिन तुमने अपने घर में जिस कथा कार को ठहराया है ना , वो चला जाए तभी तो मैं आऊं !”
सेठ जी बोले, “बस इतनी सी बात !…
अभी उनको धर्मशाला में कमरा दिलवा देता हूँ !”
जैसे ही महाराज (भगवान्) कथा कर के घर आये तो सेठ जी बोले, “
महाराज आप अपना बिस्तर बांधो ! आपकी व्यवस्था अबसे धर्मशाला में कर दी है !!”
महाराज बोले, “ अभी तो 2/3 दिन बचे है कथा के…..यहीं रहने दो”
सेठ बोले, “नहीं नहीं, जल्दी जाओ ! मैं कुछ नहीं सुनने वाला ! किसी और मेहमान को ठहराना है। ”
इतने में लक्ष्मी जी आई , कहा कि, “सेठ जी , आप थोड़ा बाहर जाओ… मैं इन से निबट लूँ!”
माता लक्ष्मी जी भगवान् से बोली, “
प्रभु , अब तो मान गए?”
भगवान नारायण बोले, “हां लक्ष्मी तुम्हारा प्रभाव तो है, लेकिन एक बात तुम को भी मेरी माननी पड़ेगी कि तुम तब आई, जब संत के रूप में मैं यहाँ आया!!
संत जहां कथा करेंगे वहाँ लक्ष्मी तुम्हारा निवास जरुर होगा…!!”
यह कह कर नारायण भगवान् ने वहां से बैकुंठ के लिए विदाई ली। अब प्रभु के जाने के बाद अगले दिन सेठ के घर सभी गाँव वालों की भीड़ हो गयी। सभी चाहते थे कि यह माता सभी के घरों में बारी 2 आये। पर यह क्या ?
लक्ष्मी माता ने सेठ और बाकी सभी गाँव वालों को कहा कि, अब मैं भी जा रही हूँ। सभी कहने लगे कि, माता, ऐसा क्यों, क्या हमसे कोई भूल हुई है ? माता ने कहा, मैं वही रहती हूँ जहाँ नारायण का वास होता है। आपने नारायण को तो निकाल दिया, फिर मैं कैसे रह सकती हूँ ?’ और वे चली गयी।
शिक्षा : जो लोग केवल माता लक्ष्मी को पूजते हैं, वे भगवान् नारायण से दूर हो जाते हैं। अगर हम नारायण की पूजा करें तो लक्ष्मी तो वैसे ही पीछे 2 आ जाएँगी, क्योंकि वो उनके बिना रह ही नही सकती ।
जहाँ परमात्मा की याद है।
वहाँ लक्ष्मी का वास होता है।
केवल लक्ष्मी के पीछे भागने वालों को न माया मिलती ना ही राम।
बार यूनान के मशहूर दार्शनिक सुकरात भ्रमण करते हुए एक नगर में गये । वहां उनकी मुलाकात एक वृद्ध सज्जन से हुई,
दोनों आपस में काफी घुलमिल गये ।
वृद्ध सज्जन आग्रहपूर्वक सुकरात को अपने निवास पर ले गये ।
भरा-पूरा परिवार था उनका, घर में बहु- बेटे, पौत्र-पौत्रियां सभी थे ।
सुकरात ने वृद्ध से पूछा- “आपके घर में तो सुख-समृद्धि का वास है । वैसे अब आप करते क्या हैं?"
इस पर वृद्ध ने कहा- “अब मुझे कुछ नहीं करना पड़ता । ईश्वर की दया से हमारा अच्छा कारोबार है, जिसकी सारी जिम्मेदारियां अब बेटों को सौंप दी हैं । घर की व्यवस्था हमारी बहुयें संभालती हैं । इसी तरह जीवन चल रहा है ।"
यह सुनकर सुकरात बोले- "किन्तु इस वृद्धावस्था में भी आपको कुछ तो करना ही पड़ता होगा ।
आप बताइये कि बुढ़ापे में आपके इस सुखी जीवन का रहस्य क्या है?"
वह वृद्ध सज्जन मुस्कुराये और बोले- “मैंने अपने जीवन के इस मोड़ पर एक ही नीति को अपनाया है कि दूसरों से अधिक अपेक्षायें मत पालो और जो मिले, उसमें संतुष्ट रहो । मैं और मेरी पत्नी अपने पारिवारिक उत्तरदायित्व अपने बेटे- बहुओं को सौंपकर निश्चिंत हैं ।
अब वे जो कहते हैं, वह मैं कर देता हूं और जो कुछ भी खिलाते हैं, खा लेता हूं । अपने पौत्र- पौत्रियों के साथ हंसता-खेलता हूं । मेरे बच्चे जब कुछ भूल करते हैं । तब भी मैं चुप रहता हूं । मैं उनके किसी कार्य में बाधक नहीं बनता । पर जब कभी वे मेरे पास सलाह-मशविरे के लिए आते हैं तो मैं अपने जीवन के सारे अनुभवों को उनके सामने रखते हुए उनके द्वारा की गई भूल से उत्पन्न् दुष्परिणामों की ओर सचेत कर देता हूं ।
अब वे मेरी सलाह पर कितना अमल करते या नहीं करते हैं, यह देखना और अपना मन व्यथित करना मेरा काम नहीं है । वे मेरे निर्देशों पर चलें ही, मेरा यह आग्रह नहीं होता । परामर्श देने के बाद भी यदि वे भूल करते हैं तो मैं चिंतित नहीं होता ।
उस पर भी यदि वे मेरे पास पुन: आते हैं तो मैं पुन: सही सलाह देकर उन्हें विदा करता हूं । बुजुर्ग सज्जन की यह बात सुनकर सुकरात बहुत प्रसन्न हुये । उन्होंने कहा- “इस आयु में जीवन कैसे जिया जाए, यह आपने सम्यक समझ लिया है ।
यह कहानी सबके लिए है । अगर आज आप बूढ़े नही हैं तो कल अवश्य होंगे । इसलिए आज बुज़ुर्गों की 'इज़्ज़त' और 'मदद' करें जिससे कल कोई आपकी भी 'मदद' और 'इज़्ज़त' करे ।
याद रखें जो ---- आज दिया जाता है वही कल प्राप्त होता है ।
मित्रों !
अपनी वाणी में सुई भले ही रखो,
पर उसमें धागा जरूर डालकर रखो,
ताकि सुई केवल छेद ही न करे आपस में माला की तरह जोडकर भी रखे ।
गुरु गोरखनाथ जी अपने शिष्यों की वाणी सुनकर बोले -" बेटा ! अधीर होने से कोई भी कार्य सफल नहीं होता । यह नासमझ धमंडी ब्राह्मण, बनिए और राजपूत वगैरह अपने को उच्च समझने वाले लोग कभी भी तुम्हारा साथ देने को तैयार नहीं हो सकते परंतु हमारे शुभ -कार्य में वाधा डालने में यह कभी चूकने वाले भी नहीं है ।
तुम्हें तो उन लोगों से मिलना चाहिए जिन्हें यह लोग तुच्छ समझ कर घृणा भरी दृष्टि से देखते हैं । मुझे पूर्ण आशा है कि तुम्हें जाट , गुजरों के मुखियाओं से जाकर मिलना चाहिए । वह बहादुर लोग किसी की परवाह न करके इन हूणों को अपनी जाति में अवश्य शामिल कर लेंगे। इससे उनकी शक्ति भी दुगुनी हो जाएगी और शक्ति दुगुनी हो जाने से यह लोग कभी भी देश के दुश्मन विदेशियों को भारत की सीमा में कदम न रखने देंगे । यह ब्राह्मण बनिए और राजपूत अपने हाथ मलते रह जाएँगे।"
अपने गुरु की आज्ञा शीश झुका कर गोगावीर ने स्वीकार कर ली और वह सातों वीर अपने -अपने घोड़ों पर सवार हो, हरियाणा और पंजाब प्रांत में जा पहुँचे। वहाँ वे जाट,गुजरों के मुखियाओं से मिले और अपनी सारी व्यथा का ब्यान किया तथा हाथ जोड़कर प्रार्थना की -"आप इन देश के दुश्मन हूणों को अपनी जाति में मिला लो ।मेरा नाम गोगा चौहान है और यह सातों रण बांकुरे मेरे गुरु भाई हैं ।
हम सभी गुरु गोरखनाथ के शिष्य है और उन्हीं की आज्ञा से आपकी शरण में इस शुभ कार्य के लिए प्रार्थना करने आए हैं ।" गोगावीर की बातो को सुन और गुरु गोरखनाथ का नाम सुनकर जाट,गुजरों के सभी मुखियाओं ने तभी एक बड़ी पंचायत जोड़ी और भरी सभा में सर्व स्म्मति से कहा -"गुरु गोरखनाथ जी धर्म रक्षक और देश हितैषी परम योगी संत है । उनकी आज्ञा मानने में ही हमारे देश और हमारी भलाई है । इसमें तो जरा भी संशय नहीं है कि हमारी जाति की शक्ति अति प्रबल हो जाएगी और कोई भी घमंडी कभी भी हमसे आँख नहीं मिला पाएगा । यह ब्राह्मण, बनिए भी सदा हमारा मुँह ताका करेंगे और कहेंगे चौधरियों हमारी लाज आपके हाथ है ।"
गोगावीर के सम्मुख गुरु की काफी गुणगान करके कहा कि- "गुरु देव का ही हमें एक सहारा है । जो उन्होंने भारत की डूबती नाव को भँवर से निकालने का बड़ा ही सुंदर उपाय किया है । वरना इन ब्राह्मण, बनिए और क्षत्रियों ने मिलकर जो जाति भेद का प्रपंच फैलाया है। यह एक दिन हम सबको ही ले डुबता ।" सभी चौधरियों के एक मत होने पर सब हूणों को अपने में मिला लेने का गोगा वीर को वचन दिया ।
गोगा राणा ने भी साथ लेकर अपने -अपने घोड़ो पर सवार हो उज्जैन नगर आ पहुँचे और हूणों के सरदार मिहिर कुल ने जब गोगा वीर की जवानी अपने उद्धार की कहानी सुनी तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा । उसने फौरन ही यह खुश -खबरी अपने सभी संगी साथियों को सुना डाली। सभी ने एक मत हो अपने धर्म का जाट, गुखरों के धर्म में हँसी -खुशी परिवर्तन कर लिया और नरसिंह पांडे ने सभी जालिमों पर गंगा जल छिड़क-छिड़क वेद मंत्रों द्वारा उन्हें पवित्र कर दिया ।