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प्यारे लोग

प्यारे लोग

बात आज से नौ वर्ष पूर्व वृन्दावन के मोतीझील स्थान के एक वैष्णव ब्राह्मण परिवार की है। एक १५-१६ वर्षीय श्वेतांक नामक किशोर दसवीं की परिक्षाएँ देने के बाद अपने नाना-नानी के यहाँ छुट्टियाँ बिताने आया। वृन्दावन वह पहली बार आया था और वृन्दावन की महिमा उसने अपने नानाजी से हमेशा से ही सुनी हुई थी।

कोई बाहर से आता तो वे सर्वप्रथम बिहारीजी के दर्शन करने की कहते थे और कहते:- "बेटा ! यहाँ तौ जो करैं सो बिहारीजी ही करैं, जाय कै सबसे पहले बिहारीजी के दर्शन करकै आओ, जो कछु हैं सो बिहारीजी ही हैं।" एक डेढ महीने की छुट्टियाँ में वह यह सोचकर आया था वृन्दावन जाकर खूब घूमूंगा, दर्शन करुंगा। लम्बी छुट्टियों के कारण घर से भी और कोई नही आया था उसके साथ, अपने मामा जी के साथ अकेला ही आया था।

अब यहाँ आने के बाद मामा जी ने उसे बिहारीजी के दर्शन करवाए, और वो अपनी छुट्टियों का आनन्द लेने लगा। यहाँ घर पर नाना-नानी जी और मामा जी के अतिरिक्त घर के सदस्य के रुप में ही बाल गोपाल जी का श्रीविग्रह विराजमान था।

घर पर नानाजी से बिहारीजी की चर्चा सुनना और आस-पड़ोस के समवय बालकों के मित्र बन जाने से उनके साथ क्रिकेट वगैरह खेलना। घूमने के बहाने घर के कुछ छोटे-मोटे काम वगैरह भी करके ले आता क्योंकि वहाँ घर पर मामा जी के अतिरिक्त उसे घुमाने वाला और कोई नही था।

नाना-नानी वृद्धावस्था और अस्वस्थता के कारण से असमर्थ थे और मामा जी अपने काम में व्यस्त। एक दिन वह इसी तरह घर से निकलकर अखण्डानन्द आश्रम तक ही आया था कि बन्दरों के समूह ने उसे घेर लिया। वह ये देख वह बहुत ही भयभीत हो गया क्योंकि उसके लिये ये सब बिल्कुल अप्रत्याशित था।

कुछ सूझ नही रहा था तभी उसे नानाजी की कही बिहारीजी वाली बात याद आ गयी कि- "यहाँ तौ जो करैं सो बिहारीजी करैं" और वो कुछ मन में और कुछ जोर जोर से बिहारीजी, बिहारी जी पुकारने लगा अचानक उसे पीछे से आवाज सुनाई दी- "चलो भागो सब के सब।"

उसने पीछे मुड़कर देखा तो उससे तनिक छोटा हष्ट्पुष्ट एक बृजवासी बालक हाथ में एक लकड़ी लिये हुए सामने आ गया और बोला - "डर मत ! अब मैं आ गयो हूँ !" और क्षण भर में ही सारे बन्दर भाग गये। श्वेतांक ने बृजवासी बालक से पूछा- तुम्हे बन्दरों से डर नही लगता तो हँस कर बोला - "नाँय, मोय डर नाँय लगे।"

बृजवासी बालक ने पूछा - "तुम कौन हो?" श्वेतांक ने बताया- "मैं तो वृन्दावन घूमने आया था लेकिन कैसे घूमूं?" बृजवासी बालक ने कहा- "मेरे संग चलो मैं घुमाय दूंगो" अब वे मित्र बन गये और उस दिन वृन्दावन के कई मन्दिरों के दर्शन करवाने के बाद उस बालक ने अपने पास से ही श्वेतांक को चाट-पकौड़ी भी खिलाई और हर तरह से उसका ध्यान रखा और फ़िर दूसरे दिन मिलने का समय निश्चित कर दोनों वापस हो लिये।

अगले दिन वह फ़िर वहाँ पहुचाँ तो उस बालक को हाथ में छ्ड़ी लिये हुए हँसते हुए प्रतीक्षा करते हुए पाया। उसके पास पहुँचते ही बोला - "तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रह्यौ हो।" और फ़िर वही आनन्द से भरे दोनों वृन्दावन के मन्दिरों में दर्शन करते घूमते रहे, और जो भी खाने-पीने का मन हुआ खाया-पिया लेकिन प्रत्येक वस्तु का मूल्य बृजवासी बालक ने ही दिया और कई बार कहने पर भी देने नही दिया। बृजवासी ने कहा -"अरे हमाय वृन्दावन घूमवे कूं आये हौ तो तुमै कैसे मूल्य दैवन दैंगे।"

इसी तरह चार-पाँच दिन बीत गये और लगभग वृन्दावन के सभी मन्दिरों के दर्शन हो गये थे। एक दिन श्वेतांक ने बृजवासी बालक से पूछा- "तुम पैरों में जूते या चप्पल क्यों नही पहनते हो, चलो आज तुम्हारी चप्पलें ले लें।" बृजवासी बालक ने जवाब दिया-"अरे भईया बिहारीजी में चप्पल पहन कै अन्दर नाँय जावैं याही तै नाय पहनूं।"

इन चार-पाँच दिनों में श्वेतांक ने घर में किसी से उस बृजवासी बालक की चर्चा नही की थी और उसे बताने का ध्यान भी नही आया था । उसे तो बस एक दिन बीतने के बाद दूसरे दिन की प्रतीक्षा रहने लगी और घर पर सभी यही सोचते कि घर पर मन न लगने के कारण मित्र मण्डली के साथ क्रिकेट वगैरह खेल रहा होगा।

इधर एक दिन घूमते हुए कुछ देर हो गयी बृजवासी बालक ने हँसते हुए पूछा -"अब तौ खुश हौ वृन्दावन घूम कै?" श्वेतांक ने हँस कर "हाँ" कहा और कुछ समय और साथ रहने के लिये कहा तो बृजवासी लगभग दौड़कर जाते हुए बोला - "नाँय !

अब बिहारी जी खुलबे कौ समय है गयौ है।" और वह बृजवासी बालक हँसता हुआ बिना कुछ पूछने का मौका दिये आँखों से ओझल हो गया। घर देर से पहुँचने पर नाना जी नाराज हुए कि - "कहाँ घूमते रहते हो सारा समय, यहाँ सभी से पूछने पर उन्होने बताया तुम चार-पाँच दिनों से इनके साथ नही खेल रहे हो, कहाँ थे ?"

श्वेतांक ने जब सारी बात नाना जी को बताई तो उन्होंने पूछा "कैसा था वो बालक" श्वेतांक ने बताया- "तेरह-चौदह वर्ष का है, घुटनों से कुछ नीची धोती और कुर्ता या बगलबंदी पहने साथ ही एक अंगोछा सा डाले हुए, हाथ में एक लकड़ी लिये हुये।" श्वेतांक ने बताया- "मुझ पर तो उसने बहुत पैसे खर्च किये लेकिन पैसे होते हुए भी उसने अपने लिए चप्पलें नही लीं पता नही क्यों?"

उसके नानाजी ने उससे कहा कि- "कल उसे घर पर बुलाकर लाना और उसके पैसे देना।" दूसरे दिन वह उस स्थान पर गया लेकिन उसे वह बृजवासी बालक कहीं नही मिला, बहुत ढूंढा पर वह कहीं नही दिखा, जबकि उसने पूछने पर बताया था कि वो यहीं पर तो रहता है, लेकिन अब हर जगह और हर गली में ढूंढने पर भी फ़िर कभी दिखाई नही दिया।

आज भी जब कभी श्वेतांक वृन्दावन आता है तो उसकी निगाहें, प्रत्येक स्थान पर, अपने उस मित्र को ढूढने की कोशिश करती हैं। बाँके बिहारी लाल की जय...जय जय श्री राधे कृष्णा... बिहारी तेरी यारी पे, बलिहारी रे बलिहारी...!! हे ईश्वर हमारे ह्रदय में वो प्रेम भाव भर दो, जिससे विबस होकर बिहारी जी हमें भी बृन्दावन की सैर करवाये।

  • - - - - - - - -
  • एक फकीर के पास एक युवक आता था। वह युवक कहता था कि मुझे भी संन्यास की यात्रा करनी है। मुझे भी सूफियों के रंग-ढंग मन को भाते हैं। लेकिन क्या करूं, पत्नी है और उसका बड़ा प्रेम है! क्या करूं बच्चे हैं, और उनका मुझसे बड़ा लगाव है। मेरे बिना वे न जी सकेंगे।

    मैं सच कहता हूं, वे मर जाएंगे। मैं पत्नी से संन्यास की बात भी करता हूं तो वह कहती है, फांसी लगा लूंगी । उस फकीर ने कहा, "तू ऐसा कर...।

    कल सुबह मैं आता हूं। तू रातभर, एक छोटा-सा तुझे प्रयोग देता हूं, इसका अभ्यास कर ले और सुबह उठकर एकदम गिर पड़ना।' प्रयोग उसने दिया सांस को साधने का कि इसका रातभर अभ्यास कर ले, सुबह तू सांस साध कर पड़ जाना।

    लोग समझेंगे, मर गया। फिर बाकी मैं समझ लूंगा। उसने कहा, "चलो! क्या हर्ज है...? देख लें करके। क्या होगा इससे?' उसने कहा कि तुझे दिखायी पड़ जाएगा, कौन-कौन तेरे साथ मरता है। पत्नी मरती है, बच्चे मरते, पिता मरते, मां मरती, भाई मरते, मित्र मरते--कौन-कौन मरता है, पता चल जाएगा। एक दस मिनट तक सांस साध कर पड़े रहना है, बस। सब जाहिर हो जाएगा।

    तू मौजूद रहेगा, तू देख लेना, फिर दिल खोलकर सांस ले लेना, फिर तुझे जो करना हो कर लेना। वह मर गया सुबह। सांस साध ली। पत्नी छाती पीटने लगी, बच्चे रोने लगे, मां-बाप चिल्लाने-चीखने लगे, पड़ोसी इकट्ठे हो गये। वह फकीर भी आ गया इसी भीड़ में भीतर।

    फकीर को देखकर परिवार के लोगों ने कहा कि आपकी बड़ी कृपा, इस मौके पर आ गये। परमात्मा से प्रार्थना करो। हम तो सब मर जाएंगे! बचा लो किसी तरह! यही हम सबके सहारे थे। फकीर ने कहा, घबड़ाओ मत! यह बच सकता है। लेकिन मौत जब आ गयी तो किसी को जाना पड़ेगा। तो तुम में से जो भी जाने को राजी हो, वह हाथ उठा दे।

    वह चला जाएगा, यह बच जाएगा। इसमें देर नहीं है, जल्दी करो। एक-एक से पूछा। पिता से पूछा। पिता ने कहा, अभी तो बहुत मुश्किल है। मेरे और भी बच्चे हैं। कोई यह एक ही मेरा बेटा नहीं है। उनमें कई अभी अविवाहित हैं। कोई अभी स्कूल में पढ़ रहा है।

    मेरा होना तो बहुत जरूरी है, कैसे जा सकता हूं ! मां ने भी कुछ बहाना बताया। बेटों ने भी कहा कि हमने तो अभी जीवन देखा ही नहीं। पत्नी से पूछा, पत्नी के आंसू एकदम रुक गये। उसने कहा, अब ये तो मर ही गये, और हम किसी तरह चला लेंगे।

    अब आप झंझट न करो और । फकीर ने कहा, अब उठ ! तो वह आदमी आंख खोलकर उठ आया। उसने कहा, "अब तेरा क्या इरादा है ?' उसने कहा, अब क्या इरादा है, आपके साथ चलता हूं । ये तो मर ही गये। अब ये लोग चला लेंगे! देख लिया राज । समझ गये, सब बातों की बात थी। कहने की बातें थीं। कौन किसके बिना रुकता है । कौन कब रुका है ।

    कौन किसको रोक सका है । दृष्टि आ जाए तो वैराग्य उत्पन्न होता है। उस घड़ी उस युवक ने देखा। इसके पहले सोचा था बहुत। उस घड़ी दर्शन हुआ । इसके पहले विचार बहुत किया था, लेकिन वे विचार विचार न थे, विवेक न था; क्योंकि उनसे वैराग्य न फलित होता था, उलटा राग फलित होता था।

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  • स्कूल में मैडम ने कहा---" अपनी पसंद के किसी भी विषय पर एक निबंध लिखो। " एक बालक ने निबंध लिखा..... विषय :- पत्थर पत्थर मतलब भगवान होता है क्योंकि वो हमारे आजू बाजू सब तरफ होता है। जहाँ भी देखो नजर आता है। अपरिचित गलियों में वो हमें कुत्तों से बचाता है। हाईवे पर गाँव कितनी दूर है, ये बताता है।

    घर की बाउंड्रीवाल में लगकर हमारी रक्षा करता है। रसोई में सिलबट्टा बनकर माँ के काम आता है। बच्चों को पेड़ से आम, जामुन, बेर आदि तोड़कर देता है। कभी कभी हमारे ही सिर पर लगकर खून निकाल देता है और इस प्रकार हमें शत्रु की पहचान कराता है।

    जिन युवाओं का माथा फिरा हो तब उनके हाँथ लगकर खिड़कियों के काँच तोड़कर उनका क्रोध शांत करता है। रास्ते पर मजदूरों का पेट भरने के लिए खुद को ही तुड़वाता है।

    शिल्पकार के मन के सौंदर्य को साकार करने के लिए छैनियों के घाव सहन करता है। किसान को पेड़ के नीचे आराम देने के लिए तकिया बन जाता है। बचपन में स्टंप तो कभी लघोरी आदि बनकर हमारे साथ खेलता है।

    हमारी सहायता के लिए भगवान की तरह तुरंत उपलब्ध होता है। मुझे बताइए, कि, " भगवान के अलावा और कौन करता है हमारे लिए इतना ?? " माँ कहती है, " पत्थर पर सिन्दूर लगाकर उसपर विश्वास करो तो वो भगवान बन जाता है। " मतलब, पत्थर ही भगवान होता है।

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  • जो घरमें रहकर प्रभुकी सेवा करते हे वे स्वयं तो कृतार्थ होते ही हे, किंतु उनके परिवारके परिजन भी कृतार्थ होते हे । सभी इन्द्रियसे अन्तःकरणसे भजनानन्दका अनुभव घरमें रहकर श्रीठाकुरजीकी सेवासे होता हे...इसीलीये घरमें आचार्य श्रीगुरुचरणसे पुष्ट करके श्रीठाकुरजी पधराओ और समय को सेवामय बनाओ "श्रीठाकुरजी घरमे बिराजते हे तो घर घर नही रह जाता ।

    वह प्रभुकी क्रीड़ाका स्थल बन जाता हे" । नन्दालयकी लीलाका स्थल बन जाता हे मुकुन्ददास रामदास सांचोरा किशोरीबाई जीवनदास इन महानुभावोने "श्रीनाथजी तथा घरके श्रीठाकुरजी में भेद नही समजा"... श्रीठाकुरजी अपने निधि अर्थात सर्वस्व है ऐसे पूर्णपुरुषोत्तम श्रीनन्दराजकुमारको श्रीमहाप्रभुजी ने हमारी गोदमें पधराकर हमे भाग्यशालि बनाया है ।

    इससे बड़ा दूसरा कौनसा फल हे.! जो सांसारिक कामनासे श्रीठाकुरजीका भजन अर्थात दर्शन स्मरण सेवा करता हे उसे क्लेश ही हाथ लगता है.... इसी तरह जो अपने माथे श्रीठाकुरजी घरमे बिराजते है उन्हें हम चाहे जैसे नये-नये पुष्टिमार्गीय मनोरथ करके सामग्री सिद्ध करके लाड़ लड़ा सकते है परन्तु यह अधिकार किसी दूसरे ठीकाने थोड़ी मील सकता है...?

    "घरके ठाकुरके सूत जायो नन्दास तहा सब सुख पायो" श्रीनाथजीको भी देवालयकी लीला छोड़कर नन्दालयकि लीला करने हेतु श्रीगुसाईजी के घर पधारना पड़ा "व्यजं लौकीकमाश्रित्य श्रीविट्ठलेशगृहे अगमत्" अत: श्रीनाथजीका यह (सत्पधरा. मथुरा) पाटोत्सव ही मुख माना गया है । जो फागुन कृष्ण सप्तमीको आता है.. अतः घरके ठाकुरजीका स्वरूप समजना बहूत आवश्यक है । जो सेवा न करे कृष्ण-कृष्ण गुणगान करते है परनतु सेवा स्वधर्म विमुख रहते है । वे हरीके दोषी है (विष्णुपुराण) सेवा से सेव्यको संतोष मिलता है यही वैश्णव का स्वधर्म है । (संकलन)

    Praful patel

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