Rakhi: ek bahan ki pukaar books and stories free download online pdf in Hindi

राखी: एक बहन की पुकार

राखी

हाथों में कई रंग बिरंगी राखियाँ थामे राखी ये फैसला नहीं कर पा रही थी कि इसे ले या उसे। कोई अपने खिले-खिले रंगों से अपनी ओर ध्यान खींचता तो कोई अपनी बनावट-सजावट से। कहीं छोटे-छोटे मोर पंख राखी की खूबसूरती में चार चाँद लगा रहे थे तो किसी में गणेशजी की अनुकृति पावन भाव जगा रहे थे। उसने पलट कर सबके दाम देखे। कोई सौ का तो कोई सवा-सौ का था। उसका दिल बैठ सा गया। फिर उसने स्वास्तिक के निशान वाली एक राखी उठाई -

"भैया, ये कितने का दिया?"

दुकानवाले ने हाथ से डब्बा लिया, उसे उलट-पलट कर देखा और बोला,

"बहनजी, ये आपको सत्तर का पड़ेगा।"

"क्या भैया, इतना महँगा? ठीक-ठीक बताओ।"

"आप पाँच रूपए कम दे देना बहनजी।"

"ये भी कुछ ज्यादा है। कुछ और कम करो न भइया।" राखी अब मनुहार पर उतर आयी थी। उसने मन ही मन सोचा, पिछली बार तो मैंने सस्ती राखी भेज दी थी। पता नहीं रंजन और मधु को कैसा लगा होगा? हो सकेगा तो इस बार उसके घर जा कर ही राखी बाँध आऊँगी। इसी बहाने मुलाकात भी हो जाएगी और बंटी भी अपने मामा-मामी से मिलकर खुश हो जायेगा। ये विचार मन में आते ही उसने सौ-रूपए लिखे गणेश-जी की आकृति वाली राखी उठाई और नब्बे रूपए दुकानदार की ओर बढ़ा दिए। उसने भी बिना कुछ कहे पैसे रख लिए।

दरवाज़े से अंदर दाखिल होते ही राखी ने सब्ज़ियों से भरा थैला एक ओर रख दिया। अपने आँचल से चेहरे का पसीना पोंछते हुए उसने पंखे का बटन दबाया पर उसमें कोई हलचल नहीं हुई। होती भी कैसे? बिजली रानी जो रूठी हुई थी! उसने अपना पर्स टेबल रखा और रसोईघर से एक ग्लास पानी ले कर वहीँ बैठ गई। जल की शीतलता उसके चेहरे पर उभर आयी थी। उसने पर्स से राखी निकाली और उसे देखने लगी। उसकी भावनाएँ जैसे ही मंद स्मित के रूप में बाहर आईं, बिजली रानी भी ख़ुशी के उस पल का भागीदार बनने चली आई। राखी ने अपने पर्स से फ़ोन निकाला और मधु का नंबर लगाया। जैसे ही उधर से किसी ने उठाया, राखी बोल पड़ी,

"हैलो"

"हैलो", उधर से मधु की आवाज़ आई। "अरे दीदी आप! मैं अभी आप ही के बारे में सोच रही थी।"

"अच्छा", सुनकर राखी को अच्छा लगा था।

"और नहीं तो क्या? कसम से", मधु ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा।

"अच्छा..... ज्यादा मस्का मत लगाइये भाभी।" राखी ने अपनी ख़ुशी छुपाते हुए जवाब दिया।

"क्या दीदी? आप भी न..... मुझे आप क्यूँ कहती हैं? मैं छोटी हूँ आपसे।" मधु के स्वर में नाराज़गी थी।

"अच्छा..." राखी ने उसके ही अंदाज़ में जवाब दिया तो दोनों ही बेसाख्ता खिलखिला उठे। उल्लास का ज्वार उतरा तो राखी ने पूछा

"रंजन कैसा है।"

"वो तो अभी ऑफिस गए हैं दीदी।"

"अच्छा" राखी अब गंभीर हो चली थी।

"हाँ, उनका काम काफी बढ़ गया है ना। न दिन को चैन, न रात को आराम।"

"अच्छा" भाई के प्रति राखी की चिंता अब उसकी आवाज़ में उतर आयी थी। "खाना-पीना तो ठीक से खाता है न? और हाँ, आराम भी ज़रूरी है।"

"हाँ दीदी पर वो मेरी कहाँ सुनते हैं।" मधु ने शिकायत की। "आप ही उन्हें डाँट लगाओ न।"

"अच्छा... पकड़ में आए तो बच्चू को बताती हूँ।" बात करते-करते राखी अब उस दीवार के सामने थी जिस पर उसकी शादी की, बंटी की और उसकी-रंजन की बचपन की तस्वीर लगी थी। राखी को अपना बचपन जैसे कौंध सा गया। एक बार रक्षाबंधन के दिन उसने रंजन को छेड़ा था - कब तक पापा के पैसों से गिफ्ट देगा? रंजन ने कहा था की जिस दिन वह कमाने लगेगा, हर रक्षाबंधन पर बड़ा सा तोहफा लेकर उससे राखी बँधवाने आएगा।

"और दीदी, जीजाजी कैसे हैं? और बंटी ?" मधु की आवाज़ ने उसे वर्तमान में ला खड़ा किया।

"बंटी तो स्कूल गया है। पर उनकी कंपनी को आर्डर नहीं मिल रहे।" कहते-कहते राखी का गला भर आया। "सुना है कि अगर ऐसा ही चला तो कंपनी बंद हो जाएगी। पता नहीं ऐसा हुआ तो हमारा क्या होगा। फिर उनकी तबियत भी तो ठीक नहीं रहती है।" राखी की आवाज़ का दर्द अब छलकने लगा था। वो अपलक अपनी शादी की तस्वीर देखे जा रही थी।

"हैलो"

मधु की आवाज़ ने जैसे उसे झकझोरा। उसने अपने आँचल के कोने में अपनी आँखों की नमी को जज़्ब कर सँभालते हुए कहा,

"अरे, बातों-बातों में तो मैं भूल ही गई कि आज ही मैं राखी लेकर आयी हूँ। कल उसे पोस्ट कर दूँगी। और हाँ, इस बार मैंने सोचा है कि अगर राखी दो दिन पहले तक नहीं पहुंचेगी तो मैं खुद आऊँगी, आप लोगों से मिलने और रंजन को राखी बाँधने!"

"हाँ-हाँ दीदी, क्यों नहीं? आपका हक़ है। बल्कि मैं तो कहती हूँ कि आप सीधे आ ही जाइए। हम सबको बहुत अच्छा लगेगा।"

"अच्छा!" राखी को सुन कर सचमुच अच्छा लगा था। वो हँसने लगी तो मधु ने भी उसका साथ दिया।

आज शुक्रवार है और रविवार को रक्षाबंधन है। सुबह का काम जल्दी निपटा कर राखी ने सूटकेस निकाला। उस पर जमी धूल साफ़ कर उसने गीले कपड़े से उसे अच्छे से पोंछा। फिर मन ही मन सोचने लगी, "कितने कपड़े रख लूँ? सिर्फ दो रातों की तो बात है और हम सिर्फ तीन लोग हैं। वैसे सत्तर-अस्सी किलोमीटर कोई दूरी है भला पर मेरी ऐसी हालत है कि इसे पार करने में भी तीन बरस लग गए।" मन में उठते तमाम विचारों की गति के बीच उसके हाथ अपनी गति से कपड़ों को सूटकेस के अंदर तह करने में लगे थे कि तभी फ़ोन की घंटी बजी। उसने घड़ी की ओर देखा -

"ओफ्फो ये अभी दस बजे किसने फ़ोन किया है?"

वो उठ कर तेजी से फ़ोन के पास पहुँची।

"अच्छा, तो ये मधु भाभी हैं!" उसने हरा बटन दबा दिया।

"हैलो"

"हैलो दीदी, कैसे हैं?"

"अच्छी हूँ। आज सुबह-सुबह कैसे याद किया?" राखी फिर से कपड़ों को सूटकेस में रखने लगी।

"वो... दीदी... अभी-अभी डाकिया आया था। आपकी राखी दे कर गया है। बहुत ही खूबसूरत है।"

कपड़ों के ऊपर राखी वाला लिफाफा रखते राखी के हाथ अचानक से थम गए।

"ये भी अभी ऑफिस जा रहे थे।" मधु ने फ़ोन रंजन की ओर बढ़ दिया था, "दीदी हैं। लीजिये, ज़रा बात कर लीजिये। "

पल भर में ही रंजन की आवाज़ राखी के कानों में गूँजने लगी।

"हैलो दीदी, प्रणाम। आपकी भेजी राखी मिल गयी। "

"अच्छा" काँपते होठों से बस इतना ही निकल पाया।

"हाँ दीदी। बहुत ही सुन्दर है। मैं ऑफिस जा रहा हूँ। आपके अकाउंट में दो हज़ार रूपए डाल दूँगा। आप अपने पसंद का कोई भी उपहार ले लेना। बाय दी।" रंजन अब मधु से मुखातिब था - "ये लो मधु, दीदी से बात करो।"

हाथों में फ़ोन आते ही मधु शुरू हो गयी - "दीदी, ये जो आपने नग वाली राखी भेजी है, ये काफी महँगी होगी न?"

मधु की बातों ने मानो राखी के होश उड़ा दिए थे। कुछ पलों पूर्व चहक रही राखी के शब्द-स्रोत मानो सूख चले थे। उसके थरथराते होठों से बस एक शब्द निकला - "अच्छा"

"हाँ दीदी, और ये जो उस पे मोर पंख है, ये तो बस सोने पे सुहागा.... " मधु बोले जा रही थी पर राखी सुन कहाँ रही थी। उसने काँपते हाथों से कपड़ों के ऊपर रखा लिफाफा खोला और अंदर से राखी बाहर निकाल ली। फ़ोन कब का उसके हाथ से छूट कर गिर चुका था। मधु की आवाज़ अब भी आ रही थी - "दीदी, हम सब चाहते थे कि इस बार आप आएँ लेकिन आपने इस बार भी राखी भेज दी.... "

एक बहन का स्नेह आँसुओं की अविरल धारा में बहा चला जा रहा था। कुछ बचा था तो वो था हकीकत की खुरदरी ज़मीन पर रिश्तों की नागफनी!

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