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आइना सच नही बोलता - 13

हिंदी कथाकड़ी _१३

आइना सच नहीं बोलता

लेखिका सुमन मलिक तनेजा

सूत्रधार नीलिमा शर्मा निविया

नन्दिनी एक झटके से उठी बच्चे के रोने की आवाज़ सुन!! इधर उधर देखा , एकाएक स्वप्न का स्मरण हो आया. उफ़्फ़ कितना भयावह था , उसका सर बोझिल हुआ जा रहा था , इधर किसी सहयात्री का बच्चा लगातार रो रहा था , पिता के भरसक चुप कराने के प्रयत्न के बावजूद , शायद बहुत भूख लगी थी , माँ जल्दी -जल्दी दूध बनाने में जुटी थी , अब सब्र करना बच्चों का स्वभाव तो नहीं!स्वप्न का स्मरण कर उसकी आँखें भर आयीं ,

उसने स्वप्न देखा था कि वह अपने घर पर है , दीपक tv पर कुछ देख रहा है और वह रसोई में खाना बना रही है कि दीपक उसे ज़ोर से पुकारता है और लगभग चीख़ता हुआ पूछता है “खाना बन गया , कितनी देर लगेगी , कुछ काम करना आता भी है गँवार !! “ वह हड़बड़ा करपलटती है और उसका पाँव ख़ुद की साड़ी में ही उलझ जाता है , वह पेट के बल गिर जाती है !! उसका अस्तित्व दर्द से भर जाता है , उसे लगता है उसकी जान निकल जाएगी , शायद -शायद उसका गर्भपात हो गया , वह उठने का निष्फल प्रयत्न करती है , और तभी बच्चे के रोने की आवाज़ से उसकी निद्रा टूटती है !पसीना आ गया था उसे और लगा जैसे सब कुछ लुट गया उसका !!

आह !ईश्वर ने जाने क्यूँ छीन लिया सब कुछ उससे !! मगर हाथ पेट पर जाता है , चारों और देखती है तो चैन की साँस आती है , ओह वो सब स्वप्न था , मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद देती है और जैसे अन्दर ही अन्दर समेट लेती है वो अपना भ्रूण ,अपना बच्चा ! कुछ नहीं होने देगी वो !विमान अपनी गति से उड़ रहा था , बादलों को चीरता , नीले आकाश में सूर्य की आभा मिश्रित हो रही थी

,पहली बार अकेले हवाई यात्रा कर रही थी अब सब उसे बहुत आकर्षक लग रहा था रोमांचक भी ! बच्चा माँ की गोद में दूध का आनंद उठा रहा था , कितना ममत्व था माँ कि आँखों में , बालों में हाथ फेर सहला रही थी उसे ! नंदनी भी डूब गयी वात्सल्य रस में , भूल गयी कड़वा स्वप्न विमान परिचारिका अपनी मधुर आवाज़ में सबसे बात कर रही थी ! नन्दिनी सजग हो अपना पल्ला संभालने लगी ! मन पुनश्च उत्साह और उमंग से चहकने लगता है !

माँ -पिताजी भाई -भाभी से मिलने की आस पुलकित करती है ! सखियों सहेलियों से बतियाने की इच्छा प्रफुलित हो उठी! हवाई अड्डे पर सभी औपचारिकताओं से निपट सामान को ट्राली पर रख बाहर निकली तो सामने पाया माँ और भैया को ! दौड़ के लिपट गयी माँ से जैसे बरसों बाद मिली हो , जैसे कभी अलग नहीं होगी , हृदय मानो भरा पड़ा था , भावनाओं का उद्वेग संभल नहीं रहा था ! माँ हाथ फेर रही थीं प्यार भरा नंदू नंदू और नन्दिनी डूबती जा रही थी स्नेह में|

माँ माँ ! अरे भाई हम भी आए हैं ! भैया की आवाज़ से उसकी तन्द्रा टूटी !और वो भाई के सीने से लग गयी ! भाई ने ट्राली आगे बढ़ायी और वह कार की और बढ़ चले ! विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वह माँ और भैया के साथ है ,माँ का हाथ थाम लिया और संभल के बिलकुल क़रीब चलने लगी ! माँ के साथ बिलकुल सट के बैठ गयी पिछली सीट पर , माँ एकटक निहार रही थीं उसका चेहरा जेसे पढ़ना चाहती हों बेटी के मन को , जानना चाहतीं हों उसके सुख -दुःख के सब राज़ !

कार घर की और चल पड़ी ,भाई पूछने लगा “ सब हाल -चाल कैसे ?, नंदू सब ठीक तो है ,बहुत दुबली लग रही हो ,जीजा जी कैसे हैं हमारे , ख़याल तो रखते हैं ना तुम्हारा !”सिर्फ़ हाँ ना में जवाब दे पा रही थी गर्दन हिलाकर , जाने चहकने वाली भैया से चुहुल करने वाली नटखट नंदिनी को वह कहाँ छोड़ आयी थी ? माँ का हाथ थाम उतरी पीहर के दरवाज़े पे , पिताजी भाभी बाहर ही आ गए लिवाने! दोनों हाथ जोड़ प्रणाम किया पिताजी को , स्नेह अतिरेक से काम्पता हाथ सर पे रख दिया उन्होंने "ख़ुश रहो बिटिया , सब सुख देखो जीवन के ! बहु कुछ ठंडा वगैरह पिलाओ नंदू को। , चलो सब अन्दर चलकर बैठते हैं आराम से , चलो बिटिया !”

भाभी ने समेट लिया अपने आग़ोश में नंदू को , “कैसी हैं आप ! “ भाभी से गले मिल जैसे सारी थकान उतर गयी रास्ते की ! दिमाग़ के सारे बोझ उतार फेंकना चाहती थी वो , लगा कि बन जाए फिर सबकी पुरानी नंदू वह !उसके क़दम अपने कमरे की और बढ़ने लगे और दिल भी जैसे धकेल रहा था उधर !

माँ ने उसका कमरा साफ़ कर बिलकुल पहले जैसे सजा डाला था ! जो उसे जहाँ पसंद था बिलकुल वैसे , किताबें अल्मारी में क़रीने से लगीं थीं ,पत्र - पत्रिकाओं से उसकी ख़ासी दोस्ती थी , वो रात पढ़ते- पढ़ते ही सोया करती थी ! लाइब्रेरी के चक्कर काटना उसे अच्छा लगता और नयी -नयी कहानियों की किताब नित प्रति ला चाटती रहती थी वह, खाना- पीना सब भूल जाती थी !,प्रेमचंद उसके प्रिय लेखकों में से थे ! शिवानी के उपन्यासों की तो वह दीवानी ही थी ! मुस्कुरा दी नन्दिनी उपन्यास का सोच ! एक समय तो जुनून ही हो गया था , घर के पीछे एक छोटी सी दुकान से किराए पर लाया करती थी उपन्यास गुलशन नंदा, राज हंस , राज कमल ,भानु , कर्नल रणजीत जिसका भी हाथ लगे पढ़ डालती !पिताजी और भैया से छिपा कर पढ़ती , कभी कभी तो कोर्स की किताबों में छिपा कर !

आह !वो उम्र ही ऐसी होती बचपन कुलाँचे मारता भागता जाता है और योेवन दबे पाँव जगह बनाता मन और तन पर ! रोमांटिक उपन्यास पुलकित करते मन को और सपने सजते की कोई राजकुमार आएगा उसकी भी ज़िन्दगी में ! दूसरी और नायिका सा जोश कुछ कर गुज़रने का कुछ कर दिखाने का ! यादों का सिलसिला आगे बढ़ता ही जा रहा था ! वह कमरे की हर वस्तु को छू कर जैसे प्रयास कर रही थी उससे जुड़ने का !

कोने में क़रीने से लगे थे उसके खेल खिलौने कैरम बोर्ड , चेस , बैड्मिंटॉन का रेकिट ! गुड्डियाँ तो जैसे मुँह उठाए बाट जोह रही हों उसके आने की , सब के साथ जुड़े थे कितने सुंदर बीते हुए क्षण !और यह फ़ोटोफ़्रेम , माँ पिताजी और भैया के साथ एक बोलती तस्वीर जड़ी थी उसमें उसकी , दोनों कैसे मुँह बना कर खड़े थे ," नटखट” उसके मुँह से निकला ! बढ़ते क़दम रुक गए आइने के सामने !

अपनी छवि देख चौंक गयी , एकटक देखती रही जैसे ढूँढ रही हो उस नंदू को जिसकी चूड़ियों का स्टैंड अभी भी खनखना रहा था , किनारे लहरा रहीं थीं रंग बिरंगी झुमकियाँ! उसने अपने बालों पर हाथ मार चोटी आगे की तो एक पतली सी काली लकीर जैसी हाथ आयी , क्या मोटी नागिन सी लहराया करती थी उसकी चोटी कमर पर ,स्कूल में सब दीवाने थे उसके लम्बे बालों के और कॉलेज में भी ख़ूब चर्चा थी उसके लहराते बालों की !

“नंदिनी ! आओ बेटा खाने पे सब तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं ! “

“आती हूँ माँ “और नंदू झट हाथ मुँह धो ताज़ा हो पहुँच गयी बरामदे में ! उसकी कुर्सी आज भी वहीं थी भैया के साथ , शरारत से भैया के बालों को ख़राब करती बैठ गयी वह

!” क्या क्या बनाया आज ! भाभी इतना सब क्यूँ बना डाला , मैं तो अभी यहीं रहने वाली हूँ , मेहमान थोड़े ही हूँ” ,

जाने क्यूँ कहते कहते अटक गए शब्द उसके गले में और वह संभल कर पुनः देखने लगी , “

अरे वाह नया डिनर सेट ,भाभी !!कटहल की सब्ज़ी मसाले वाली , बैंगन की कचरि, प्याज़ ज़ीरे के चावल और हींग के बघार की दाल और आलू का रायता सब मेरी पसन्द का , देख के भूख लग गयी , क्यूँ भैया चलो टूट पड़ें! “

भर पेट खाया उसने आत्मा भी तृप्त हो गयी, दीपक को हाथ से खाना बिलकुल पसंद नहीं है सो उसकी कभी हिम्मत ही नहीं पड़ी !तभी उसने देखा बंगाल स्वीट हाउस की रस मलाई ,”

“ पिताजी आप भूले नहीं मेरी पसन्द!”

“ अच्छा जी यह भी कोई भूलने की बात है ,बिटिया दो खाओ तुम, जब तक रहोगी रोज़ खिलाऊँगा तुम्हें !”

रीझ उतार रहे थे सभी ! खाना ख़त्म होने पर माँ और भाभी रसोई में जुट गयीं , मेज़ से सामान पहुँचाने में मदद करते नंदिनी को लगा कि जैसे वह थक गयी है,

“ माँ मैं सो जाऊँ अब”

“ ,हाँ तुम आराम करो , सफ़र की थकान है !चलो सो जाओ कल सुबह बातें करेंगे !”

माँ भाभी को मिल वह अपने कमरे में पहुँची तो अपनी अल्मारी खोल के खड़ी रही कुछ देर , नए पुराने सभी जोड़े लगे थे ,उसने एक ढीला नाइट सूट पहना और बिस्तर में घुस गयी ,अपने तकिए पे सर रखते एक सुख का एहसास हुआ और जाने कब वो निद्रा के आग़ोश में चली गयी ! सुबह उठी तो शरीर जैसे साथ नहीं दे रहा था, हर अंग में मीठी सी पीड़ा , आलस्य ने घेर रखा था , वह तकिए को बाहों में भर पड़ी रही , दीपक के बारे में सोचने लगी,एक फ़ोन तक करने की ज़रूरत नहीं समझी जनाब ने , इस समय क्या कर रहा होगा ,कैसे सम्भालेगा घर , क्या खाएगा ,तब तक माँ चाय का प्याला लिए आ गयीं!

“नींद पूरी हुई बेटा , देख तो सूरज सर पे चढ़ आया ! पेट से हो तो लडकियों का जी नहीं करता उठने का , दिन में सोना ठीक है थोड़ी देर मगर सुबह वक़्त पे उठ स्नान -ध्यान करना चाहिए!”

“!हाँ माँ !तुम फिर शुरू हो गयीं !”

“ अच्छा सुनो अपने ससुर जी का पता कर लेना फ़ोन कर “

,” कहोगी तो हो आएँगे तुम्हारे ससुराल इनके साथ ! दुबली हो गयी हो बेटा , चेहरा भी उतरा हुआ है ऐसे समय में तो तो खाने पीने का बहुत ध्यान रखना चाहिए , ध्यान रखती हो ना अपना , डॉक्टर के हो आयीं थीं , क्या कहा उसने सब ठीक है ? कितने दिन हो गए ऊपर ? “

माँ ने सवालों की झड़ी लगा दी , और पास बैठ पीठ सहलाने लगीं ! माँ का स्पर्श कितना आलौकिक होता है आज पता लग रहा था उसे !

“हाँ माँ सब ठीक है , तुम चिंता ना करो ! अपनी सुनाओ ! पिताजी ठीक हैं , अब तो वो ज्यादा समय घर पे ही बिताते हैं , कुछ कहते तो नहीं तुम्हें “

, स्नेहातिरेक में उसने माँ का हाथ पकड़ लिया , लगभग पचपन वर्ष की होंगी माँ अभी , कोई इतनी बड़ी बूढ़ी भी नहीं , पर बालों में सफ़ेदी झाँक रही थी , चेहरा शांत ,लाल गोल बिंदी और ख़ाली -ख़ाली आँखें , “बताओ ना माँ पिताजी बदल गए हैं ना !” माँ की आँखें बोल पड़ीं , गहरी साँस ले बोलीं ,

“ पुरुष भी कभी बदलता है क्या , शरीर ढल भी जाए ज़ुबान तो सदैव चलती है , मुझे तो आदत हो गयी बेटा , स्त्री का तो धर्म ही है सहना , घर गृहस्थी हमारे ही बल पर तो टिकी है ,हम ही को ईश्वर ने यह क्षमता दी है कि हम धरती से सहनशील बनें , बतीस बरस हो गए हमारे विवाह को , तीस का तो राघव भी हो गया अब ! माँ बनना स्त्री का गौरव है , पूर्णता मिलती है उसे , उद्देश्य मिलता जीने का , मैं बहुत प्रसन्न हूँ की तुम भी इस सुख को पाने वाली हो ! देखना कैसे बदल जाएगा जीवन , नन्हें नन्हें क़दमों का पीछा करते समय कब आगे निकल जाता है पता ही नहीं चलता ! बस एक बात याद रखना नन्दिनी विजय तोड़ने में नहीं जोड़ने में है!आजकल की लड़कियाँ तो बस “

, एक ठंडी साँस ली माँ ने ,

“ क्या हुआ माँ क्या भाभी ? हाँ साक्षी और राघव , बहुत झगड़ा होता है दोनों के बीच आज कल , अब तो इधर राघव हाथ भी उठाने लगा है अपने पिता की तरह ! उफ़्फ़ माँ और तुम चुपचाप देख रही हो , मना नहीं किया भाई को ! किसे मना करूँ वो तो पुरुष है , साक्षी की ज़ुबान भी केंचि सी चलती है , खाने को पड़ते हैं दोनों एक दूसरे को , बात बात पर ज़लील करते हैं !घर कहीं ऐसे बसते हैं, एक को तो चुप होना ही पड़ता है , नहीं तो तमाशा देखती है दुनिया ! “

“माँ लड़कियाँ पढ़ लिख कर भी लात घूँसा सहतीं रहें ! क्या उनकी कोई अस्मिता नहीं आत्मसम्मान नहीं ! पत्थर नहीं होतीं लड़कियाँ , उनके सीने में भी दिल धड़कता है ! प्यार चाहिए उन्हें और सम्मान भी , वो तो अपना सब कुछ न्योछावर करने को तत्पर रहती हैं ! आपने तो यह सब ख़ुद झेला है आपको तो समझना चाहिए ! “नन्दिनी ने रुआंसे होकर कहा !

“ मैं ही समझूँ सब !कोई मेरी सुनता है क्या , कितनी बार बोला राघव को”

,रोने लगीं माँ ! गला भर आया नन्दिनी का भी

“,माँ पैदा ही क्यूँ होती हैं लड़कियाँ !!”

“रोते नहीं बिटिया ख़ुश रहने के दिन हैं अभी तेरे , मेरा नाती क्या सोचेगा , नानी के घर आ कर रो रही माँ !

“नन्दिनी अंतर्द्वंद में फँसी थी , अहम क्यूँ इतना हावी रहता है पुरुष पर ? क्यूँ वो सदैव दबा के रखना चाहता स्त्री को ? हमारे समाज में दोनों को बराबर का दर्जा कब मिलेगा ? नहीं माँ ,हमें भैया को समझना होगा

“! माँ अब यह बताइए नाश्ते में क्या खिला रही हैं “

, उसने बातों का रूख दूसरी और मोड़ना चाहा ! माँ के गले में बाहें डालती हुई बोली” चिंता नहीं करिए माँ , मैं आ गयी हूँ ना अब सब ठीक हो जाएगा ! अच्छा यह बताइए क्या हाल हैं मेरी प्यारी सखियों के सुनिता , रिया और अलका कभी आयीं आपके पास !आज मिलने का मन है सब से !

“नन्दिनी क्या तुम सब सम्पर्क में हो ? बात होती रहती है आपस में?नहीं माँ , वक़्त ही कहां मिला किसी से सम्पर्क साधने का , अबकि लेकर जाऊँगी सबके फ़ोन नम्बर ! बिटिया बहुत बुरा हुआ सुनिता के साथ , शादी तो उसकी तुमसे पहले हो गयी थी और साल भर के अंदर बिटिया भी हो गयी पर घोर अनर्थ हुआ ,उसका पति रात काम से आते ट्रक से टकरा जान गँवा बैठा ! बाइक पे था सुना है पीता बहुत था ! फूटी क़िस्मत लड़की की ,तभी कहते हैं भगवान लड़की दे तो भाग्य की धनी दे !भगवान ने तो जो बुरी की तो की उसके ससुराल वालों ने तो दुःख का पहाड़ ही गिरा दिया अभागन पे , सत्राहनवे पे ही भेज दी वापिस घर ,पोती से भी मोह ना डाला उन्होंने ! कहने लगे माँ बेटी खा गयीं हमारे बेटे को हम नहीं रखेंगे ऐसी कुलक्षणी को !बहुत हाथ पैर जोड़े उसके माँ बाप ने , मगर दिल नहीं पसीजा किसी का , सफ़ेद कपड़ों में घर आ गयी इस कच्ची उम्र में बेटी ! घोर कलियुग है! “

धक से रह गयी नन्दनी उसे कुछ ख़बर ही ना थी ,कुछ सोचती सी बोली “ठीक ही हुआ माँ यहाँ आ गयी ! अपने लोग जीवन में आए संकट से उबारने में सहायक होंगे, वहाँ तो मर जाती वह घुट घुट के”

जिन्दगी पहेली ही हैं सोचो कुछ और होता कुछ और ही हैं नंदिनी भी मायके में रह कर ससुराल का सोचती ससुराल में रह उसे बार बार मायके का ख्याल आता | सहेलियां रिश्तेदार सब अजनबी से लगने लगे थे और जो अपना सा था वो भी अजनबी सा था .सोचने लगी आने से एक रात पहले आखिर ऐसा क्या हुआ दीपक को जो उसने उसे इसतरह प्यार किया चाहे कुछ पल को ही ...............

सुमन मालिक तनेजा

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