श्रमदान से स्वराज्य तक MANAN BHATT द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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श्रमदान से स्वराज्य तक

श्रमदान से स्वराज्य तक

वर्ष १९४७ में एक राष्ट्र २०० वर्ष की गुलामी की बेडियों से स्वतंत्र हुआ. इन २०० वर्षों में जहाँ हमारे उपनिवेशीय शासकों ने हमारी संकृति के मूल आधार, कृषि को खोखला किया बल्कि शहरीकरण को बढ़ावा दिया. भारतीय उपखंड भौगोलिक आधार से चारों दिशाओं से सुरक्षित होने की वजह से सेंकडो वर्षों से इस उपमहाद्वीप का अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र गावों के इर्द गिर्द घूमता रहा. गाँव एक अपने में स्वचालित एकम था. भारतीय उपमहाद्वीप के मूल निवासी मूलतः किसान स्व-श्रम करते थे और संतोषी जीवन निर्वाह करते थे. औपनिवेशिय शासकों ने सर्व प्रथम भारतीय कृषि बाद में स्वदेशी हथकरघा एवं गृह उद्योग, और हमारी परंपरागत सांस्कृतिक प्रणालियों को बड़े ही सुनियोजित तरीके से नष्ट किया. जिससे ग्रामीण अर्थतंत्र और स्व-शासन व्यवस्था टूट के बिखर गए. समाज के संचालन में व्यक्ति की सहभागिता का अंत हुआ. साथ ही समग्र राष्ट्र में एक नया सामजिक अध्याय शुरू हुआ. समाज मे मजदूर और नौकरीपेशा वर्ग का उदय हुआ. शहरीकरण के साथ ही गरीबी, भुखमरी, बेकारी और गन्दगी यह अनिवार्य सामजिक दूषण हमारे जीवन का हिस्सा बन गए.

पूर्व में जहाँ किसान अपने और परिवार के निर्वाह हेतु खुद के खेतों में श्रम करते थे वहीँ आज श्रम विक्रय की वस्तु बन गया. धरती का पिता कहलाने वाला किसान अब श्रमिक-गुलाम बनके रह गया. पाश्चात्य जीवन पध्धति में श्रम का दर्जा अत्यंत निम्न श्रेणी में चला गया. सफ़ेद कॉलर एवं नीले कॉलर के बिच का अंतर बढ़ता ही गया, साथ ही बढ़ा वर्ग वैमनस्य, जात-पात और बढ़ी गन्दगी. अगर हम भारतीय, जैसे की हमें पश्चिमी सभ्यता के लोगों द्वारा बताया गया, पहले से ही गंवार, कमज़ोर और गंदे होते तो क्या इस उपखंड की संस्कृति अचार एवं विचार इतने समृध्द होते? आज भी पौराणिक भारतीय शहरों में पानी गटर और अन्य व्यवस्थाएं पश्चिम से कई गुना आधुनिक प्रणाली का विकास दिखाते है.

अब यक्ष प्रश्न यह है की हम वर्तमान में अपने आपको इन विपरीत परिस्थियों में क्यों पाते है. क्यों आज हमारे गाँव और शहरों में स्वच्छता की कमी आ गयी है? कबसे स्वच्छता, जीवन निर्वाह, स्वशासन एवं सुरक्षा केवल सरकारी विषयवस्तु बन कर रह गयी?

प्रायः देखा जाता रहा है की हम भारतीय अपनेघरों में जितने स्वच्छता के आग्रही है, उतनी सफाई हम अपने आस पास के विस्तार की रखने के इच्छुक नहीं है. हमारे हमारे इस दुर्गुण की वजह से आज हमारे शहर कूड़े करकट का ढेर बनते जा रहे है. हमारी वर्तमान उपभोक्तावादी जीवनशैली ने जहाँ एक तरफ हमें आलसी और विलासी बना दिया है. वहीँ दूसरी और हम चीजों को सहेज कर रखने और बार बार इस्तेमाल करने की भारतीय मानसिकता को अधिकतर भुलाते जा रहे है.

नागरिक आज वोट देता है और फिर अगले पांच साल तक निश्चिन्त होकर सोता है की मैने अपना काम कर दिया. जन सामान्य की स्वराज्य में सहभागिता समाप्त हो गयी है. हम ये मानते है की सफाई म्युनिसिपालिटी का काम है, सुरक्षा का जिम्मा सुरक्षा बलों का है. सामजिक सायुज्य सरकार के हिस्से है. हम आम नागरिक आज जितने अपने हक़ो के लिए जागरूक है उतने ही हमारे मुलभुत कर्तव्यों के प्रति उदासीन है.

गांधीजी कहते है, “अधिकारों की उत्पति का सच्चा स्त्रोत कर्तव्यों का पालन है. यदि हम सब अपने कर्तव्यों का पालन करें, तो अधिकारों को ज्यादा ढूँढने की ज़रूरत नहीं रहेगी. हमारा बुनियादी कर्तव्य है की हम हाथ पांवो से मेहनत करें. यदि सब लोग शारीरिक श्रम करें तो न किसीको जनसँख्या की वृद्धि की शिकायत रहे, न कोई बिमारी आये, और न मनुष्य को कोई कष्ट या कलेश ही सतावे. वह श्रम उच्च से उच्च प्रकार का यज्ञ होगा. इसमें संदेह नहीं की मनुष्य अपने शरीर या बुद्धि के द्वारा और भी अनेक काम करेंगे, पर उनका वह सब श्रम लोक कल्याण के लिए प्रेम का श्रम होगा. उस अवस्था में न कोई उंच होगा, और न कोई नी; न कोई स्पृश्य रहेगा न कोई अस्पृश्य.

वर्तमान में हम ऐसे चुनौतीपूर्ण दौर से गुज़र रहे है जब की हमारी आतंरिक सुरक्षा पर सबसे ज्यादा खतरा है. देश और विदेश में कई ऐसी ताकते पनप रही है जो हमारे सांस्कृतिक सायुज्य को अन्दर से खोखला करने में लगी है. वर्ग, जाती, धर्म और समाज एक दुसरे से दूर होते जा रहे है. देशमे बढ़ता आतंरिक वैमनस्य किसी टाइम बम की तरह है जो की कभी भी फट सकता है. हालिया समय में एक तरफ कश्मीर को बाहरी ताकतें हमसे दूर ले जाने में लगी हुई है, वहीँ पटेल आन्दोलन, जाट आन्दोलन और दलितों के ऊपर हुए अत्याचार हमारे अन्दर फैले हुए अविश्वास को दर्शाते है.

वर्तमान भारतीय समाज के लक्षण एक ऐसी परिस्थिति की और इशारा करते है जहाँ हम अपनी सांस्कृतिक समन्वय की गंगा-जमुना तहज़ीब को भुला चुके है. आपसी भाईचारा मिट रहा है और आपसी अविश्वास बढता जा रहा है. मनुष्य और समाज जब अपनी जड़ों से दूर होने लगते है, तो इसी तरह के आइडेंटिटी क्राइसिस का सामना करना पड़ता है. मेरा देश, मेरा मुल्क, मेरा यह वतन वाली उत्कट राष्ट्रभावना नामशेष हो केवल सेना और सैनिको तक सिमित हो गई है. वैश्विक एकता की अनूठी मिसाल भारत की अनेकता में एकता कमज़ोर हो चली है. क्या, बहु रंगी विविधता वाला भारतीय समाज मिलजुल कर नहीं रह सकेगा? क्या हम टूट जायेंगे?

अन्धकार की इस गर्त में आशा की किरण है भारतीय सशस्त्र सेनाएं. जहां सैनिक आज भी समूह श्रम करते है, एक ही थाली में मिलजुल कर खाते है, साथ मिलकर लड़ते है. साथ साथ जीने, मरने और देश के दुश्मनों को मारने का सबक भारतीय जवानों ने भुलाया नहीं है. वोही पुरानी वाली गंगा-जमुना तहज़ीब, वोही प्यार और अपनापन, वोही जिंदादिली मौजूद है. जहाँ एक तरफ भारतीय समाज अपनी जात पात और धर्म की पहचान बनाने में लगा है. वहीँ भारतीय सैनिक कंधे से कंधा मिलाकर दुश्मनों के होंसले पस्त कर रहे है. भारत को सुरक्षित कर रहे सैनिक स्वच्छ भारत अभियान, योग दिवस, अंतर्राष्ट्रीय कोस्टल क्लीन अप दिवस, इन लक्ष्यों के प्रति जोश-ऑ खरोश से जुटे हुए है. आप किसी भी सेना छावनी में, नौसेना पोत या फिर एयर बेस में चले जाइए आपको कंधे से कंधा मिलाकर श्रमदान करते सैनिक भाई ज़रूर मिल जाएंगे. भारतीय सेनाऑ के सभी संस्थान स्वच्छता और सूरक्षितता की जिन्दा मिसाल है.

सैनिकों में आपसी समभाव और एकता कोई आज कल की बात नहीं. इतिहासकार लिखते है की महारों की बाज जैसे नज़र, ताकतवर देहयष्टि, हिम्मत और वफादारी इन गुणों से प्रभावित महान हिन्दू राजा छत्रपति शिवाजी महाराज की सेना में महार सैनिक शामिल थे. शिवाजीराजे को अस्पृश्यता नहीं रास आती थी. आपको याद दिला दूँ ‘बाबा साहब आम्बेडकर’ महार जाती के थे. उनके पिता ब्रिटिश भारतीय सेना में सूबेदार थे. और बाबा साहब ने कहा था, “में तेरह साल का हुआ तब तक मेरे पिता फ़ौज में थे. उस वक्त तक मुझे अहसास ही नहीं हुआ की में दलित हूँ.

अंग्रेजी शासन में जहाँ भारतीय समाज डिवाइड एंड रुल (बांटो और राज करो) निति के तहेद बंटता चला जा रहा था वहीँ सैन्य एकता मजबूत होती जा रही थी. “बोम्बे आर्मी में, ब्राह्मण सैनिक कंधे से कंधा मिलाकर के अपने साथी महार सैनिक के साथ एक ही तम्बू में सोता है, और इस व्यवस्था के सामने किसीको स्वप्न में भी किसी तरह का विरोध नहीं है.” ब्रिगेडियर जॉन जेकब.

सैनिको की इस एकसूत्रता पीछे का रहस्य है, श्रम. सैनिक अपने मूल कर्तव्यों के पालन के साथ श्रमदान में भी अपना योगदान देते है. यह जन सहभागितासे किया गया श्रमदान ही सैनिको को एक डोर से बंधे हुए रखता है. जब दो जिव सहकार्य से शारीरिक श्रम को अंजाम देते है तो उनके बिच एक न दिखने वाली मजबूत डोर बंध जाती है. श्रमदान प्राणियों के लिए एक दैवीय वरदान है. सह-श्रम से रण मैदानों में जंग लड़ना, उस जंग के लिए शारीरिक तौर पर सक्षम एवं तैयार रहने के लिए तनतोड़ श्रम करना सैनिको के लिए आम है.

सैनिकों के इस अविरत श्रमदान का परिणाम भारत वर्ष की अविजेय शत्रुजीत 16 लाख सेवारत एवं 30 लाख सेवा निवृत रणबांकुरो की सेना है. जिसके नाम मात्र से शत्रुओं के गात्र शिथिल हो जाते है. चोबीसो घंटे बिना थके बिना हारे जो सैनिक लड़ना जानते है वोही सैनिक उसी तीव्रता और लगन से श्रमदान में अपना योगदान देते है. अत्यंत श्रम के पश्चात बहता हुआ प्रस्वेद न सिर्फ मानव को मानव से जोड़ता है बल्कि मनुष्य का ईश्वरीय तत्व से मिलाप भी करवाता है. जो मनुष्य श्रम करता है, वह परमात्मा के सबसे ज्यादा करीब है. श्रमदान कर पसीना बहाने से हमारा तन तो स्वच्छ रहता है साथ ही मन भी उद्वेगों, आवेगों और नकारात्मक उर्जा से मुक्त हो जीव को शिव के करीब रखता है.

गांधीजी के दिखाए रास्ते पर आज़ादी से ले कर आज तक चल रहे भारतीय सैनिक और पूर्व सैनिक खुद भी शायद इससे अनजान है, और बिना संज्ञान लिए इसे अपना फ़र्ज़ समज कर बजाए जा रहे है. गांधीजी ने श्रम और स्वच्छता की हमारे जीवन में उपयोगिता प्रचारित की. अस्पृश्यता नाबूदी, मानव श्रम का महत्त्व, श्रमिक का महत्त्व और तत्पश्चात स्वराज्य का विचार दिया. गांधीजी के मुताबिक जो राज्य के लिए श्रम करेगा उसे ही नागरिकता का अधिकार है. लोक-सहभागिता, लोगों के द्वारा लोगों के लिए संचालित राज्य का विचार गांधीजी के आदर्श भारत की कल्पना का केंद्र था.

अपनी पुस्तक ‘मेरे सपनो का भारत’ में गांधीजी लिखते है. “जिस दिन राष्ट्र रूपी रथ को चलाने के लिए सरकार नामक बैसाखी की हमें ज़रूरत नहीं पड़ेगी उसी दिन स्थापित होगा सच्चा स्वराज्य. स्वराज्य शब्द में ही इसका अर्थ प्रेषित है. ऐसा राज्य जिसे जन सहभागितासे हम खुद चलाएंगे. वर्तमान में राज्य चलाने का अर्थ है कुर्सी पर काबिज़ होना. इस अनर्थ की वजह से आज हमारा यह हाल है. प्रगति स्वतंत्रता में निहित है। बिना स्वशासन के न औद्योगिक विकास संभव है , न ही राष्ट्र के लिए शैक्षिक योजनाओं की कोई उपयोगिता है… देश की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न करना सामाजिक सुधारों से अधिक महत्वपूर्ण है.

महात्मा गांधी का भी विश्वास था कि स्व-श्रम, समान नागरिक मूल्य और स्वच्छता राष्ट्रवाद की नींव हैं। लाहौर के प्रसिद्ध कांग्रेस अधिवेशन में वे पूर्ण स्वराज्य की बजाय कांग्रेस प्रतिनिधियों की गंदगी फैलाने की आदतों पर अंतहीन बोलते रहे। जब लोगों ने उनसे पूछा कि उन्होंने स्वराज पर उत्तेजनापूर्ण भाषण क्यों नहीं दिया, तो उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता पाने के लिए व्यक्ति को इसके लायक बनना होता है और योग्य बनने के लिए भारतीयों को व्यक्तिगत अनुशासन और साफ-सफाई के मामले में सुधार लाना होगा. मोदी की तरह गांधी का भरोसा था कि नागरिक दायित्व और स्वच्छता राष्ट्रीय गौरव के आधार हैं। सारा व्यवहार प्रेम, निर्भयता, ज्ञान, उद्योग एवं स्वच्छता से होने लगे, तब होता है- रामराज्य.

हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने जब ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की शुरुआत जब स्वयं हाथ में झाड़ू उठाकर की तब किसी ने यह सोचा भी नहीं होगा की यह आन्दोलन एक दिन समग्र राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधने का माद्दा रखता है.

स्वराज्य का अर्थ है स्वच्छता एवं श्रमदान जैसे जन सहभागिताके गांधीजी के बताये मार्ग पर चलना. गांधीजी लिखते है, “महान प्रकृति की इच्छा तो यही है, की हम अपनी रोटी पसीना बहाकर कमायें. रोटी के लिए हर एक मनुष्य को मजदूरी करना चाहिये, शरीरको (कमर को) झुकाना चाहिये, यह इश्वर का कानून है. श्रमदान एक भारतीय परंपरा है. भगवद्गीता के तीसरे अध्याय में प्रभु श्रीकृष्ण कहते है, “यज्ञ किए बिना जो खाता है वह चोरी का अन्न खाता है.” ऐसा कठिन श्राप यज्ञ यानि ‘शारीरिक श्रम’ नहीं करने वाले को दिया गया है. अंग्रेजी चलन सिखने के बाद हम भारतीय श्रम को घिन की नज़र से देखने लगे। हमारे सांस्कृतिक पतन का मुख्य कारण है हमारा श्रम के प्रति उदासीन होना. श्रम ही कर्म है. श्रमण्ये वाधिकारस्ये माँ फलेषु कदाचन्. श्रमदान से ही स्वराज्य की प्राप्ति होगी.

गांधीजी ने ‘श्रम-सिद्धांत’’ के अन्तर्गत यह शिक्षा दी कि प्रत्येक व्यक्ति को शारीरिक श्रम करके अपने उपभोग की वस्तुओं में योगदान देना चाहिए। चूँकि इसमें प्रत्येक प्रकार की सेवा (चाहे नाई हो या वकील) या श्रम को एक जैसा सम्मान दिया जाएगा, इसलिए श्रम की गरिमा स्थापित होगी तथा वर्गीय भेद मिट जाने से ‘वर्गविहीन’ समाज की स्थापना होगी। कर्मयोगी होने के नाते गाँधी श्रम की गरिमा मे विश्वास रखते थे।

‘हर हफ्ते चार घंटे’ ‘स्वच्छ भारत’ ‘श्रमदान से स्वराज्य तक’

अपने इस निबंध के माध्यम से में राष्ट्र निर्माण और सम्पूर्ण स्वराज्य प्राप्ति के एक नये मार्ग ‘श्रमदान से स्वराज्य तक’ को राष्ट्र को समर्पित करना चाहता हु. श्रमदान से स्वराज्य तक एक ऐसा मार्ग है जिसपर चलकर हम एक नये युग का अवतरण करेंगे. रूपये पैसे का दान तो कोई भी कर सकता है हमें अपने देशवासियों से केवल श्रम का दान चाहिये. जब भारत का हर एक नागरिक अपना फ़र्ज़ जानकर हर हफ्ते केवल चार घंटे श्रमदान के माध्यम से स्वच्छता अभियान में जुटेगा उसी दिन से हमारे अच्छे दिन आने लगेंगे. जन सहभागितासे किए गए श्रमदान से न केवल स्वच्छता बढ़ेगी परन्तु आपसी भाईचारा और सांस्कृतिक समन्वय भी भारतीय फौजों की तर्ज़ पर प्रचुर मात्रा में पाया जाएगा. स्वच्छता एवं श्रमदान को भारत में मुलभूत कर्तव्यों में शामिल किया जाना चाहिए.

स्टार्टअप आइडिया : ‘हर हफ्ते चार घंटे’ ‘स्वच्छ भारत’ ‘श्रमदान से स्वराज्य तक’ एक ऐसा मोबाइल एप्प बनाया जाये जो हर भारतीय को हफ्ते में कमसे कम चार घंटे श्रमदान का संकल्प लिवायेगा. साथ ही उन्हें अपने पसंदीदा दिन समूह श्रमदान केंद्र में उपस्थित होने के लिए मोबाइल के ज़रिये मेसेज भी मिलेगा. समग्र भारत वर्ष में ‘श्रमदान से स्वराज्य तक’ के स्वयंसेवी समूह श्रमदान केंद्र होंगे. नागरिक मोबाइल एप्लीकेशन के माध्यम से अपनी पसंद की गई जगह पर ‘श्रमदान से स्वच्छ भारत तक’ में हिस्सा लेंगे और हर हफ्ते कमसे कम चार घंटे श्रमदान करेंगे. स्कुल और कोलेज में पढने वाले हमारे भविष्य के नागरिकों से समूह श्रमदान के संकल्प करवाएं जाएं. सेना की तर्ज़ पर बच्चे और युवा जब कंधे से कंधा मिलाकर श्रमदान करेंगे तो स्वच्छता के नैतिक मूल्य की नींव पर राष्ट्र निर्माण का प्रधानमंत्री का, महात्मा गांधी का स्वप्न सम्पूर्ण होगा.

जय हिन्द जय हिन्द की सेना.