एक सवाल : क्या हम आजाद है ?
आज स्वतंत्रतापर्व है. पर मेरे जहन में ये सवाल आकार ले रहा है की क्या हम स्वतंत्र है ? बेशक आपका जवाब होगा "हां". पर क्या यह सच है ?
आजादी के बीते 70 साल का अगर मुआईना किया जाये तो हमें पता चलेगा की नहीं हम सच में आजाद नहीं हुवे है. हम आजाद नहीं हुवे है अपनी खोखली और जूठी मान्यताओं से. हम आजाद नहीं हुवे है कोमवाद से. हम आजाद नहीं हुवे है भ्रष्टाचार से. हम आजाद नहीं हुवे है अपने विकारो से. हम आजाद नहीं हुवे है धर्म, जाती, ऊंच-नीच के भेदभाव से. हम आजाद नहीं हुवे है अपनी अंधश्रध्धाओं से.और कहीं सारे ऐसे वाहीयात बंधनो से.
70 साल पहेले हमें जो आजादी(सिर्फ कहेने के लीये) मीली वो कीसी एक कौम, समाज, समुदाय, जाती या धर्म की बदौलत नहीं थी. सब कौम, समाज, समुदाय, जाती, धर्मों ने अपना योगदान दीया था तब जाकर हमें गुलामी से छुटकारा मीला था. आजादी दीलानेवाले क्रांतीकारीयों ने, टुकडों में बटें भारत को एक करने वालों ने, अपने देश की नींव जीसपे टीकी है वो संविधान बनाने वालों ने क्या ऐसे भारत की चाहत की थी जैसा आज हमनें बनाया है ? सच में वो लोग आज जिंदा होते तो देश की यह हालत देखकर अफसोस करते. की उन्होंने आजादी क्युं दीलाई. और इसी अफ़सोस के चलते पल पल मरते रहेते.
मैं ये नहीं कहता की 70 साल में देश ने प्रगती नहीं की है. प्रगती से ज्यादा देश की दुर्गती हुवी है. आज पहेले से ज्यादा कोमवाद, धर्मवाद, भ्रष्टाचार, दंगे-फसाद, औरतों पे अत्याचार, गुनाह, शोषण आदी में ईजाफा़ हुवा है. इन सब के लीये कौन जिम्मेदार है ? कभी सोचा है ? जवाब है "हम सब".
झटका लगा ? पर ये बात 100% सच है. जब राजाशाही चलती थी तब कही जाता था की, "जैसा राजा वैसी प्रजा". पर अब तो लोकशाही है तो अब यहीं कहावत ऊलट जाती है, "जैसी प्रजा वैसा राजा". नेता अच्छे है या बूरे ये बाद का मसला है, पहेले ये सवाल खुद से पुछना बहेतर रहेगा की क्या हम अच्छे है ? क्या हम कौमवाद, भ्रष्टाचार, धर्मवाद, भेदभाव, अत्याचार, गुनाहों से मुक्त है ? आजाद है ?
सही मायने में देखा जाये तो आजादी का अर्थ क्या होता है ? मेरा तो मानना ये है की आजादी मतलब किसी भी समाज, देश का सर्वांगी (सभी अंगो का) विकास. क्या भारत में ऐसा हुवा है अबतक ? यकीनन जवाब "ना" ही होगा. क्यूंकी हम ही नहीं चाहते की ऐसा हो.
आज भी कोई भी लडकी या औरत फिर वो चाहे किसी भी उम्र की क्यूं ना हो बेजीजक घर से बाहर निश्चिंत होकर नहीं निकल सकती. आज भी दहेज की लालच में बहू-बेटीयों पर अत्याचार होते है. उन्हें मारा जलाया जाता है. आज भी गरीबों लाचारों का शोषण होता है, उनकी मजबूरीयों का फायदा उठाया जाता है. आज भी लोगों की श्रध्धा का पाखंडीओं ढोंगीयों द्वारा गलत फायदा ऊठाया जाता है. आज भी अंधश्रध्धा के चलते मासूमों की, निर्दोषों की, बेजूबान जानवरों की बली दी जाती है. आज भी अपना फायदा देखने के लीये कीसी भी निर्दोष को तकलीफ देने से हम कतरातें नहीं है. ( आरक्षण को लेकर जो आंदोलन हुवे उसकी आड लेकर कुछ लोगों ने तोडफोड, लूंटमार, आगजनीं, बलात्कार जैसी घीलौनी घटनाओं को अंजाम दीया उसके संदर्भ में.) तो क्या हम इसे आजादी कहेंगे ?
ऐसा सबकुछ करने वाले लोग(या कहे की गुनहगार) कहीं बहार से नहीं आते. वो सब भी हमारे ही इस आजाद समाज के, आजाद भारत के नागरीक है. और ज्यादातर सुशिक्षित होते है. तो क्या हम(सुशिक्षित) लोग आजादी का ये मतलब निकाले की घीलौने से घीलौने काम को बेजीजक अंजाम दे सकते है ? नहीं ना ! तो फिर ऐसी आजादी किस काम की ? जहां सुरक्षा, सहायता, ईन्सानीयत का कोई वजूद ना हो.
आज सुबह रैली में एक नारा सुना, "आधी रोटी खायेंगे, देश को बचायेंगे". तो सबसे पहेले यहीं खयाल आया की देश को बचाना कीससे है ? देश के दुश्मनो से, देश को लुटने वाले नेताओं से या फीर अपने अंदर पनप रहे खोखले देशभक्त से ? ईस सवाल का जवाब मैं आप पर छोडता हूं.
हम अक्सर ये बातें करते सुनते है की अमरीका, जापान, फ्रांस, ब्रीटन, रशीया, चीन, वगैरा विकसीत राष्ट्र है और भारत विकासशील राष्ट्र है. इसका मतलब तो ये हुवा की आजादी के 70 साल तक भी हम विकसीत नहीं हुवे है, हम अब भी विकासशील ही है. तो यहां सवाल ये उठता है की और कीतने साल लगेंगे हमें विकसीत होने में ?
किसी भी लोकशाही देश की विकसीतता उस देश की प्रजा की सोच, मानसीकता, स्वयंशिस्तता, और जागृकता पर आधारीत होती है. इस लिये जिस देश के लोग विकसीत होंगे वो देश भी विकसीत होगा. जब तक ये बात हमारी समज में नहीं आयेगी तब तक हम लोग सहीं मायने में आजाद नहीं हो सकते. क्यूंकी जरूरी ये है की पहेले हम अपने आप में सुधार लायें.
अक्सर देखा गया है की हम लोग इस सब के लीये सरकार को दोष देते है. पर हम गुनाह करें, हम स्वच्छता ना रखें, हम अंधश्रध्धा, भ्रष्टाचार, लालच, अपने स्वार्थ को बढावा दें, और ऐसे कई कारनों के लिये सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहेरा सकते. क्यूंकी ये सब हम में पनपता है सरकार में नहीं. तो इन सब के लिये हम जिम्मेदार है सरकार नहीं. इस लीये जब तक हम नहीं बदलेंगे, हम नहीं सुधरेंगे तब तक कोई भी सरकार कोई भी योजना अपने देश को विकसीत नहीं कर सकती.
एक और बात देखी गई है की कोई भी विदेशी या अपने देश का लेखक, फिल्ममेकर, नेता अपने देश की बदी, गरीबी, बूराई, हलकी वास्तविकता के बारे में लिखे, दीखायें या बोले तो हम सब अपनी खोखली देशभक्ति (वो भी चंद दिनों के लिये) दीखातें हुवे धरना, उसका विरोध, तोडफोड इत्यादी करेंगे. पर ये नहीं सोचेंगे की उसने जो देखा, महेसूस किया वो ही लिखा, दीखाया, बोला है. और ऐसी कोशीष तो कतई नहीं करेंगे की उस कारन को बदला या जड से मीटाया जाये. ताकी दोबारा कोई हमें, हमारे देश को इस तरह से प्रदर्शित ना करें.
आज व्होटस्ऐप, फेसबुक, ट्वीटर जैसे सोश्यल मीडीया का ऊपयोग बडे पैमाने पे हो रहा है. जाहीर सी बात है ईनका सर्जन सकारात्मक हेतु के लिये हुवा था. पर क्या इसका सकारात्मक ऊपयोग होता है ? नहीं ना ! क्यूं ? क्यूंकी हम ही इसका नकारात्मक ऊपयोग ज्यादा करते है. आय दिन ग्रुप में, कमेंट मे ऐसी बातें एसे मैसेज चलते रहते है जीससे हमारी धर्मभावना को ठेस पहोंचती है. और इससे वैैरभाव, कौमवाद, भेदभाव बढता है. हम भी कीतने चाउ से ये सब फैलाते है ना !? इस से और कुछ हो ना हो पर ईन्सानीयत और भारतीयता तो लज्जीत होती ही है. क्या ये आजादी है ?
हमारी समस्या क्या है ये पता है ? हमें वास्तविक्ता अच्छी नहीं लगती. हमें हकीकत स्वीकारने से डर लगता है. हमारे लिये अपने देश, अपनी आजादी से ज्यादा हमारा "अहम्" ज्यादा प्यारा है. हम अपने स्वार्थ से आगे किसी और के बारे मे सोचते ही नहीं है. हम अपने नेताओं की तरह ही सोचते है की, "अपना काम बनता तो भाड में जायें जनता(देश)". हम ही शोषण, भेदभाव, गुनाहखोरी, भ्रष्टाचार, अत्याचार, वगैरे जैसी बदी(बूराई)ओं को जन्म देते है, पालते है, पोषते है और दुनीया के सामने साफ़ शरीफ़ होने का ढोंग करते है.
कहने को तो हम सब भारतीय है. पर क्या सच में ऐसा है ? नहीं बिलकुल नहीं. बाहर से एक दीखने वाला भारत अलग अलग हीस्सों में बटां हुवा है. कैसे ? देखीये देश के स्तर पर हम अपनी पहेचान कुछ ऐसे देंगें, मैं उत्तर भारतीय हूं, मैं दक्षिण भारतीय हूं, में पूर्व भारतीय हूं, मै पश्चिम भारतीय हूं, मैं मध्य भारतीय हूं. राज्यों के स्तर पर ऐसे बताते है. मैं पंजाबी हूं, गुजराती हूं, बंगाली हूं, मद्रासी हूं, भैया हूं, राजस्थानी हूं, मराठी हूं, इत्यादी. बात यहां पे खतम नहीं होती, राज्य के अंदर भी अलगतावाद इस तरह होता है. जैसे की मै कच्छी हूं, काठीयावाडी हूं, मारवाडी हूं, इत्यादी. इससे भी आगे कौम के हीसाब से मैं हीन्दू, मै मुस्लिम, मै शिख, मै ईसाइ, इत्यादी. इस में भी समाज के हीसाब से मैं दलित, मैं महाजन, मैं राजपूत, मैं गुर्जर, मैं जाट, इत्यादी. इस में भी जाती के हिसाब से मैं पटेल, मैं ब्राह्मण, मै लोहार, मैं हरीजन इत्यादी. इस से आगे अटक(surname) के हिसाब से भी अलग अलग पहेचान देते है. सच है ना ? हम कभी भी अपनी पहेचान एक भारतीय के रूप में नहीं देते ऐसा क्यूं ? क्यूंकी हमारा अहम् हमारा स्वार्थ हमें ऐसा करने नहीं देता. फिर भी हम अपना ढोंग अपना दीखावा छोडेंगे नहीं की हम सच्चे देशभक्त है. और इस बात का सबसे बढीया उदाहरण तो आज के दिन देखने को मिलेगा.
आज के दिन सब देशभक्ति के रंग में रंग जायेंगे. जहां देखो वहां तिरंगे, नारेबाजी दीखेंगे. देशभक्ति के गाने सुनाई देंगे. सोश्यल मीडीया पर भी देशभक्ति का मानों सैलाब आयेगा. पर ये सब सिर्फ़ आज के लीये ही, कल से फीर से जैसे थे.आज जीस तिरंगे को गाडी के कांच पर, घर की दीवार पर , ऑफ़िसों में, काम करने के टैबल पर और कपडों पर और कहीं जगहों पर लगाया और सजाया जायेगा. कल वहीं तिरंगा रास्ते पर पडा मीले तो हम उसे ऊठाने का भी सौजन्य(या कहें की तकलीफ़) भी नहीं दीखायेंगे. ऐसी खोखली देशभक्ति का क्या मतलब ? सवाल तो फिर भी वहीं है, क्या हम आजाद है ?
मैंने ये बात भले ही आज लिखी हो पर ये बात कल परसों या सालों तक सच्ची ही रहेगी. जबतक हम स्वतंत्र नहीं होंगे. अच्छा लगे या बुरा पर सच है तो ये आर्टीकल शेर जरुर करना. हो सकता है अपनी सच्ची देशभक्ति जाग ऊठे.
- नीरल सोमैया
15/8/2016