दाई क घण्टा माई के DR. SHYAM BABU SHARMA द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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दाई क घण्टा माई के

दाई क घण्टा माई के

भगवान देई के मायके और ससुराल में दो कोस का फासला था। बैलगाड़ी से जून भर (एक पहर) में बप्पा के घर पहुंच जाती। तीज-त्योहार में मौका लगता तो सरपट झोला-झण्डा और गांव में। पहले षादी विवाह किये ही जाते थे इतनी दूर कि गाढ़े-संकरे, वक्त जरूरत बिटिया-बहुरिया आनन-फानन बिदा-बिदाई की जा सकें। तमाम मान्यताएं-परम्पराएं कि बिटिया के यहां भोजन-पानी वर्जित। लोटिया-डोरि साथ में और प्यास लगी तो बगल के गांव से पानी मंगाकर..... हरि ऊँ। मायका विषुद्ध गांव में और ससुराल कस्बाई संस्कृति तथा बैसवारी रहीसत का प्रतीक परंतु भगवान देई को एडजस्ट करने में तनिक भी दिक्कत न हुई थी। यह अलग कि पति परमेष्वर की फरमाइषें अधुनातन होतीं। सास का अपना रुतबा था। घर भर इन्हें अम्मा-दादी के बजाय दीदी ही कहता था। पुत्र जगेष्वर के लिए मां से पूज्य कोई नहीं और पत्नी से प्यारा दूसरा कैसे हो सकता था क्योंकि वह बखूबी समझती थीं कि ’दीदी’ की प्रसन्नता ही ’उनकी’ खुषी है सो लगभग आदर्ष बहू, और गृहणी की तरह घर चलाने की भूमिकाओं में पूर्ण। चूल्हा-चैका, कढ़ाई-बुनाई, नात-ग्वांत, पास-पड़ोस के सांचों में फिट। पति-पत्नी में खट-पट ....। तब प्रेम में प्रेम की आकांक्षा न थी। सूक्ष्म, वायवीय, दैवीय प्रेम भगवान देई और जगेष्वर का। प्रभा, पद्मा दो बेटियों और ओंकार, पुत्ती से भरा आंचल व्रत-उपवासों का फल। व्यापार में सफलता के पायदान चढ़ते जगेष्वर को जनपद के सर्वोत्कृश्ट विपणन के लिए राश्ट्रपति पुरस्कार से जिस वर्श नवाजा गया उसी साल होली के तीन दिन पहले....। दमकता चेहरा, गौरांग? घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला। भगवान देई को सब कुछ... एक-एक दृष्य जीवंत है। कोटा की धोती और चांदी की चूड़ी भेंट लाया था लल्ला। दीदी का दुलारा छोटा भाई।

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’बप्पा हल्ला किहिन हैं।’

भगतपुर से माधवगंज आधे घंटे में साईकिल भगाकर लल्ला दिद्दा को बप्पा की डांट-डपट की रपट देता। दिद्दा का असीम स्नेह पाकर एकाध-दिन रुककर काॅलेज से घर लौट जाता। पइसा-कौड़ी की कोई कमी न थी। भ्वांथा भर खर्चा मिल जाता था। जैसे उसी को लौटाने आया था लल्ला। ष्वेत रूप में। नियति तो नियति ही है।

उसकी निगाह फिरी तो एक-एक कर अपनो ने भी किनारा करना षुरू कर दिया। भरा-पूरा परिवार गुजर-बसर में आ गया। प्रभा की नौकरी न होती तो...? प्राथमिक पाठषाला की षिक्षिका मां को संभालती और भाई-बहनों में जिंदगी से टकराने -जूझने का संस्कार भरती।

पद्मा का विवाह ठीक-ठाक परिवार में प्रभा की जीवटता का प्रमाण था। स्वयं जैसे ब्रह्मचारिणी हो गई थी। जगेष्वर जैसी कद-काठी और परिपक्वता का रूप ओंकार में। पच्चीस वर्श पूरे कर छब्बीसवें की छिटनी (जन्म दिवस) के गीतों ने भगवान देई को बहू के सांझ मनाने के आनन्दातिरेक से भाव विभोर कर दिया। ओंकार इण्टरप्राइजेज की प्रेस्टीज की चढ़ती कला का टाइम।

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नेहा सुंदर, सुषील और घर की जेठी बिटिया। यही रिष्ता सबकी स्वीकृति से पास किया गया। ’बहुत बड़ा परिवार है,’ ऐसे घरों की लड़कियां ज्वाइण्ट फैमिलीज को बढ़िया से चलाती हैं। भगवान देई के पिता का अनुषंसित तर्क। नाना की बात का सम्मान करते ओंकार ने नेहा के साथ सबका आषीर्वाद लिया। उत्सव लाॅन में ग्राण्ड रिसेप्षन। सुबह तक डी जे चला था। पुत्ती फूल के गठरी। घर मथुरा-काषी लगने लगा। दोनों भाइयों का परिश्रम जगेष्वर की साख को ऊध्र्वतर करने लगा। परंतु....? घर की चैहद्दी सिकुड़ने लगी। अपने-अपने रूम और कनसर्न। षहर का विश जैसे नेहा को बेधने लगा। देवर कांपटीटर और पाटीदार बन गया। सास की दुलार भरी बातें उसे टोका-टाकी लगने लगीं। ओकार का मां की प्रषंसा करना डाह भरने लगा। मां की कचैड़ियां और साग को बेटे का सुस्वादु कहना कलह के कारण बनते गए। फुसफुसाहट और इण्टरप्रेटेषन नग्न तांडव के लिए मौके ढूंढ़ने लगे। ’जांघ दाईं खुले या बाईं अपनी ही बदनामी।’ भगवान देई सब कुछ जब्त करना सीख गई थीं।

’प्रभा की मम्मी, पइसा तो एकाध पीढ़ी में आ जाता है मगर मान-प्रतिश्ठा, रहीसत आने में पीढ़ियां लग जाती हैं।’

बस इतना ही कह पाये थे जगेष्वर कोमा में जाने से पहले। भगवान देई की आंखें रेगिस्तान हो चलीं। अंदर-अंदर.....। और षायद यही सब देखकर ओंकार की लत बढ़ गई थी। उस दिन भी उसने बहुत पी रखी थी। रात काफी हो गई थी। नेहा अपने दोनों नेत्र-चिरागों को खिला-पिलाकर बेडरूम में जा चुकी थी। काफी देर तक बड़बड़ाहट सुनती रहीं मगर जब ’......रोज-रोज की है-है, खै-खै से तो .....ऐसे आदमी से तो ....रड़ापा भला।’ सब्र का बांध टूट गया।

’यह न कहो दुलहिन।’

’अपने श्रवण कुमार को लेकर कहीं चली क्यों नहीं जाती....जीना हराम कर दिया है.... हमारी अपनी कोई जिंदगी है कि नहीं? हर चीज में टोका टाकी?’

लाॅबी में बैठी ओंकार की गाड़ी को निहार रही थीं, मां का हृदय? कहां होगा? कहीं पी-पाकर.....?’

’मम्मी..........’

हवा की फुर्ती से गेट खोला। देषी षराब का भभका। सब कुछ समझते हुए भी अनजान। बिजनेस डाउन से जीरो पर आ गया था और ओंकार अब बीस रूपये वाली झिल्ली पीकर कुंठाओं से निजात पाने की कोषिषें करने लगा था।

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’यहीं खाना लाए देती हूँ।’

’नहीं मम्मी आज.....

कहां है नेहा.....निकल......’

जैसे इसी पुकार का इंतजार कर रही थी। नागराज का विश तो मुख में रहता है परंतु नागिन दोतरफा वार करती है। यह डंसकर उल्टी हो जाती है।

’जिंदगी नर्क हो गई है। यह बनाओ, वह बनाओ, बेटे का ख्याल नहीं रखती हो....। अपने प्रवचन अपने पास रखो।’

ओंकार की बाजी उल्टी पड़ी। इस एपिसोड के लिए वह तैयार न था।

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प्रभा ने पाल लिया है भगवान देई को। तीज-त्यौहार फोन से नेहा और पोतों का हाल-चाल ले लेती हैं। बढ़का पोता आई टी कंपनी में लग गया है और छोटा एम आर। प्रभा रिटायर होकर कुछ बच्चों को फ्री ट्यूषन देती है। काम वाली लगी है। महतारी-बिटिया सुख-दुख की साथी-दोस्त।

ओंकार और नेहा को डायबिटीज, उच्च रक्त चाप से लगी कई लैटेस्ट बीमारियों ने अपना संगी बना लिया है। ज्येश्ठ चीरंजीव ने षादी से मना कर दिया है। डिंªक्स, ड्रग्स, और....। पूने की किसी लड़की के साथ। किसी के समझाए का नहीं। नेहा फोन करती रहती है लेकिन फोन पिक अप ही नहीं करता। पिछली दीवाली में जब घर आया था तो कुछ बात करने की हिम्मत जुटाई थी मगर...।

’क्या माम.... यह खाना-वह न खाना, इनके साथ रहना-उनको एवाइड करना....। डोन्ट टीच मी आॅल दीज रबिस......ओ के?’

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’सुनो..... मम्मी जी अगर उत्कर्श को समझाएं तो षायद उनकी बात न काटे। बड़ा दुलारा है उनका?’

’उसकी अपनी जिंदगी है।’

ओंकार ने कैसरोल से दूसरी रोटी निकाल ली।