भाग-३ - पंचतंत्र MB (Official) द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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भाग-३ - पंचतंत्र

पंचतंत्र

भाग — 3

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पंचतंत्र

गोलू—मोलू और भालू

रंगा सियार

कौए और उल्लू

शत्रु की सलाह

झगड़ालू मेंढक

गोलू—मोलू और भाल

गोलू और मोलू पक्के दोस्त थे। गोलू जहां दुबला—पतला था, वहीं मोलू मोटा गोल—मटोल। दोनों एक—दूसरे पर जान देने का दम भरते थे, लेकिन उनकी जोड़ी देखकर लोगों की हंसी छूट जाती।

एक बार उन्हें किसी दूसरे गांव में रहने वाले मित्र का निमंत्रण मिला। उसने उन्हें अपनी बहन के विवाह के अवसर पर बुलाया था।

उनके मित्र का गांव कोई बहुत दूर तो नहीं था लेकिन वहां तक पहुंचने के लिए जंगल से होकर गुजरना पड़ता था। और उस जंगल में जंगली जानवरों की भरमार थी।

दोनों चल दिए३जब वे जंगल से होकर गुजर रहे थे तो उन्हें सामने से एक भालू आता दिखा। उसे देखकर दोनों भय से थर—थर कांपने लगे। तभी दुबला—पतला गोलू तेजी से दौड़कर एक पेड़ पर जा चढ़ा, लेकिन मोटा होने के कारण मोलू उतना तेज नहीं दौड़ सकता था।

उधर भालू भी निकट आ चुका था, फिर भी मोलू ने साहस नहीं खोया। उसने सुन रखा था कि भालू मृत शरीर को नहीं खाते। वह तुरंत जमीन पर लेट गया और सांस रोक ली। ऐसा अभिनय किया कि मानो शरीर में प्राण हैं ही नहीं। भालू घुरघुराता हुआ मोलू के पास आया, उसके चेहरे व शरीर को सूंघा और उसे मृत समझकर आगे बढ़ गया।

जब भालू काफी दूर निकल गया तो गोलू पेड़ से उतरकर मोलू के निकट आया और बोला, मित्र, मैंने देखा था३.भालू तुमसे कुछ कह रहा था। क्या कहा उसने?

मोलू ने गुस्से में भरकर जवाब दिया, मुझे मित्र कहकर न बुलाओ३और ऐसा ही कुछ भालू ने भी मुझसे कहा। उसने कहा, गोलू पर विश्वास न करना, वह तुम्हारा मित्र नहीं है।

सुनकर गोलू शमिर्ंदा हो गया। उसे अभ्यास हो गया था कि उससे कितनी भारी भूल हो गई थी। उसकी मित्रता भी सदैव के लिए समाप्त हो गई।

सीख रू सच्चा मित्र वही है जो संकट के समय काम आए।

रंगा सियार

एक बार की बात है कि एक सियार जंगल में एक पुराने पेड़ के नीचे खड़ा था। पूरा पेड़ हवा के तेज झोंके से गिर पड़ा। सियार उसकी चपेट में आ गया और बुरी तरह घायल हो गया। वह किसी तरह घिसटता—घिसटता अपनी मांद तक पहुंचा।

कई दिन बाद वह मांद से बाहर आया। उसे भूख लग रही थी। शरीर कमजोर हो गया था तभी उसे एक खरगोश नजर आया। उसे दबोचने के लिए वह झपटा।

सियार कुछ दूर भाग कर हांफने लगा। उसके शरीर में जान ही कहां रह गई थी? फिर उसने एक बटेर का पीछा करने की कोशिश की। यहां भी वह असफल रहा। हिरण का पीछा करने की तो उसकी हिम्मत भी न हुई।

वह खड़ा सोचने लगा। शिकार वह कर नहीं पा रहा था। भूखों मरने की नौबत आई ही समझो। क्या किया जाए? वह इधर—उधर घूमने लगा पर कहीं कोई मरा जानवर नहीं मिला। घूमता—घूमता वह एक बस्ती में आ गया। उसने सोचा शायद कोई मुर्गी या उसका बच्चा हाथ लग जाए। सो, वह इधर—उधर गलियों में घूमने लगा। तभी कुत्ते भौं—भौं करते उसके पीछे पड़ गए। सियार को जान बचाने के लिए भागना पड़ा। गलियों में घुसकर उनको छकाने की कोशिश करने लगा पर कुत्ते तो कस्बे की गली—गली से परिचित थे। सियार के पीछे पड़े कुत्तों की टोली बढ़ती जा रही थी और सियार के कमजोर शरीर का बल समाप्त होता जा रहा था।

सियार भागता हुआ रंगरेजों की बस्ती में आ पहुंचा था। वहां उसे एक घर के सामने एक बड़ा ड्रम नजर आया। वह जान बचाने के लिए उसी ड्रम में कूद पड़ा। ड्रम में रंगरेज ने कपड़े रंगने के लिए रंग घोल रखा था। कुत्तों का टोला भौंकता चला गया। सियार सांस रोक कर रंग में डूबा रहा। वह केवल सांस लेने के लिए अपनी थूथनी बाहर निकालता। जब उसे पूरा यकीन हो गया कि अब कोई खतरा नहीं है तो वह बाहर निकला।

वह रंग में भीग चुका था। जंगल में पहुंचकर उसने देखा कि उसके शरीर का सारा रंग हरा हो गया है। उस ड्रम में रंगरेज ने हरा रंग घोल रखा था। उसके हरे रंग को जो भी जंगली जीव देखता, वह भयभीत हो जाता। उनको खौफ से कांपते देखकर रंगे सियार के दुष्ट दिमाग में एक योजना आई। रंगे सियार ने डरकर भागते जीवों को आवाज दी, श्भाईयों, भागो मत मेरी बात सुनो।'' उसकी बात सुनकर सभी भागते जानवर ठिठके। उनके ठिठकने का रंगे सियार ने फायदा उठाया और बोला, श्देखो—देखो मेरा रंग। ऐसा रंग किसी जानवर का धरती पर है? नहीं ना। मतलब समझो। भगवान ने मुझे यह खास रंग देकर तुम्हारे पास भेजा है। तुम सब जानवरों को बुला लाओ तो मैं भगवान का संदेश सुनाऊं।'' उसकी बातों का सब पर गहरा प्रभाव पड़ा। वे जाकर जंगल के दूसरे सभी जानवरों को बुलाकर लाए। जब सब आ गए तो रंगा सियार एक ऊंचे पत्थर पर चढ़कर बोला, श्वन्य प्राणियों, प्रजापति ब्रह्मा ने मुझे खुद अपने हाथों से इस अलौकिक रंग का प्राणी बनाकर कहा कि संसार में जानवरों का कोई शासक नहीं है। तुम्हें जाकर जानवरों का राजा बनकर उनका कल्याण करना है। तुम्हार नाम सम्राट ककुदुम होगा। तीनों लोकों के वन्य जीव तुम्हारी प्रजा होंगे। अब तुम लोग अनाथ नहीं रहे। मेरी छत्रछाया में निर्भय होकर रहो।'' सभी जानवर वैसे ही सियार के अजीब रंग से चकराए हुए थे। उसकी बातों ने तो जादू का काम किया। शेर, बाघ व चीते की भी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की सांस नीचे रह गई। उसकी बात काटने की किसी में हिम्मत न हुई। देखते ही देखते सारे जानवर उसके चरणों में लोटने लगे और एक स्वर में बोले, श्हे बह्मा के दूत, प्राणियों में श्रेष्ठ ककुदुम, हम आपको अपना सम्राट स्वीकार करते हैं। भगवान की इच्छा का पालन करके हमें बड़ी प्रसन्नता होगी।''

एक बूढ़े हाथी ने कहा, श्हे सम्राट, अब हमें बताइए कि हमारा क्या कर्तव्य है?'

सम्राट की तरह पंजा उठाकर बोला, श्तुम्हें अपने सम्राट की खूब सेवा और आदर करना चाहिए। उसे कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए। हमारे खाने—पीने का शाही प्रबंध होना चाहिए।'' शेर ने सिर झुकाकर कहा, श्महाराज, ऐसा ही होगा। आपकी सेवा करके हमारा जीवन धन्य हो जाएगा।'' बस, सम्राट ककुदुम बने रंगे सियार के शाही ठाठ हो गए। वह राजसी शान से रहने लगा। कई लोमड़ियां उसकी सेवा में लगी रहतीं, भालू पंखा झुलाता। सियार जिस जीव का मांस खाने की इच्छा जाहिर करता, उसकी बलि दी जाती। जब सियार घूमने निकलता तो हाथी आगे—आगे सूंड उठाकर बिगुल की तरह चिंघाड़ता चलता। दो शेर उसके दोनों ओर कमांडो बॉडी गार्ड की तरह होते। रोज ककुदुम का दरबार भी लगता। रंगे सियार ने एक चालाकी यह कर दी थी कि सम्राट बनते ही सियारों को शाही आदेश जारी कर उस जंगल से भगा दिया था। उसे अपनी जाति के जीवों द्वारा पहचान लिए जाने का खतरा था। एक दिन सम्राट ककुदुम खूब खा—पीकर अपने शाही मांद में आराम कर रहा था कि बाहर उजाला देखकर उठा। बाहर आया तो चांदनी रात खिली थी। पास के जंगल में सियारों की टोलियां ‘हू हू ैैै' की बोली बोल रही थी। उस आवाज को सुनते ही ककुदुम अपना आपा खो बैठा। उसके अंदर के जन्मजात स्वभाव ने जोर मारा और वह भी मुंह चांद की ओर उठाकर और सियारों के स्वर में मिलाकर ‘हू हू ैैै' करने लगा। शेर और बाघ ने उसे ‘हू हू ैैै' करते देख लिया। वे चौंके, बाघ बोला, श्अरे, यह तो सियार है। हमें धोखा देकर सम्राट बना रहा। मारो नीच को।'' शेर और बाघ उसकी ओर लपके और देखते ही देखते उसका तिया—पांचा कर डाला। सीखः नकलीपन की पोल देर या सबेर जरूर खुलती है।

कौए और उल्लू

बहुत समय पहले की बात है। एक वन में एक विशाल बरगद का पेड़ कौओं की राजधानी था। हजारों कौए उस पर वास करते थे। उसी पेड़ पर कौओं का राजा मेघवर्ण भी रहता था।

बरगद के पेड़ के पास ही एक पहाड़ी थी, जिसमें असंख्य गुफाएं थीं। उन गुफाओं में उल्लू निवास करते थे, उनका राजा अरिमर्दन था। अरिमर्दन बहुत पराक्रमी राजा था।

कौओं को तो उसने उल्लुओं का दुश्मन नंबर एक घोषित कर रखा था। उसे कौओं से इतनी नफरत थी कि किसी कौए को मारे बिना वह भोजन नहीं करता था।

जब बहुत अधिक कौए मारे जाने लगे तो उनके राजा मेघवर्ण को बहुत चिंता हुई। उसने कौओं की एक सभा इस समस्या पर विचार करने के लिए बुलाई।

मेघवर्ण बोला, श्मेरे प्यारे कौओ, आपको तो पता ही है कि उल्लुओं के आक्रमणों के कारण हमारा जीवन असुरक्षित हो गया है। हमारा शत्रु शक्तिशाली है और अहंकारी भी। हम पर रात को हमले किए जाते हैं। हम रात को देख नहीं पाते। हम दिन में जवाबी हमला नहीं कर पाते, क्योंकि वे गुफाओं के अंधेरों में सुरक्षित बैठे रहते हैं।''

फिर मेघवर्ण ने सयाने और बुद्धिमान कौओं से अपने सुझाव देने के लिए कहा।

एक डरपोक कौआ बोला, श्हमें उल्लुओं से समझौता कर लेना चाहिए। वह जो शतेर्ं रखें, हम स्वीकार करें। अपने से ताकतवर दुश्मन से पिटते रहने में क्या तुक है?'

बहुत—से कौओं ने कांव—कांव करके विरोध प्रकट किया। एक गर्म दिमाग का कौआ चीखा, श्हमें उन दुष्टों से बात नहीं करनी चाहिए। सब उठो और उन पर आक्रमण कर दो।''

एक निराशावादी कौआ बोला, श्शत्रु बलवान हैं। हमें यह स्थान छोड़कर चले जाना चाहिए।''

सयाने कौए ने सलाह दी, श्अपना घर छोड़ना ठीक नहीं होगा। हम यहां से गए तो बिल्कुल ही टूट जाएंगे। हमे यहीं रहकर और पक्षियों से सहायता लेनी चाहिए।''

कौओं में सबसे चतुर व बुद्धिमान स्थिरजीवी नामक कौआ था, जो चुपचाप बैठा सबकी दलीलें सुन रहा था। राजा मेघवर्ण उसकी ओर मुड़ा, श्महाशय, आप चुप हैं। मैं आपकी राय जानना चाहता हूं।''

स्थिरजीवी बोला, श्महाराज, शत्रु अधिक शक्तिशाली हो तो छलनीति से काम लेना चाहिए।''

कैसी छलनीति? जरा साफ—साफ बताइए, स्थिरजीवी।'' राजा ने कहा।

स्थिरजीवी बोला, श्आप मुझे भला—बुरा कहिए और मुझ पर जानलेवा हमला कीजिए।'

मेघवर्ण चौंका, श्यह आप क्या कह रहे हैं स्थिरजीवी?'

स्थिरजीवी राजा मेघवर्ण वाली डाली पर जाकर कान में बोला, श्छलनीति के लिए हमें यह नाटक करना पड़ेगा। हमारे आसपास के पेड़ों पर उल्लू जासूस हमारी इस सभा की सारी कार्यवाही देख रहे हैं। उन्हें दिखाकर हमें फूट और झगड़े का नाटक करना होगा। इसके बाद आप सारे कौओं को लेकर ॠष्यमूक पर्वत पर जाकर मेरी प्रतीक्षा करें। मैं उल्लुओं के दल में शामिल होकर उनके विनाश का सामान जुटाऊंगा। घर का भेदी बनकर उनकी लंका ढाऊंगा।''

फिर नाटक शुरू हुआ। स्थिरजीवी चिल्लाकर बोला, श्मैं जैसा कहता हूं, वैसा कर राजा के बच्चे। क्यों हमें मरवाने पर तुला है?'

मेघवर्ण चीख उठा, श्गद्दार, राजा से ऐसी बदतमीजी से बोलने की तेरी हिम्मत कैसे हुई?' कई कौए एक साथ चिल्ला उठे, श्इस गद्दार को मार दो।''

राजा मेघवर्ण ने अपने पंख से स्थिरजीवी को जोरदार झापड़ मारकर टहनी से गिरा दिया और घोषणा की, श्मैं गद्दार स्थिरजीवी को कौआ समाज से निकाल रहा हूं। अब से कोई कौआ इस नीच से कोई संबध नहीं रखेगा।''

आसपास के पेड़ों पर छिपे बैठे उल्लू जासूसों की आंखें चमक उठीं। उल्लुओं के राजा को जासूसों ने सूचना दी कि कौओं में फूट पड़ गई है। मारपीट और गाली—गलौच हो रही हैं। इतना सुनते ही उल्लुओं के सेनापति ने राजा से कहा, श्महाराज, यही मौका है कौओं पर आक्रमण करने का। इस समय हम उन्हें आसानी से हरा देंगे।''

उल्लुओं के राजा अरिमर्दन को सेनापति की बता सही लगी। उसने तुरंत आक्रमण का आदेश दे दिया। बस, फिर क्या था हजारों उल्लुओं की सेना बरगद के पेड़ पर आक्रमण करने चल दी, परंतु वहां एक भी कौआ नहीं मिला।

मिलता भी कैसे? योजना के अनुसार मेघवर्ण सारे कौओं को लेकर ॠष्यमूक पर्वत की ओर कूच कर गया था। पेड़ खाली पाकर उल्लुओं के राजा ने थूका, श्कौए हमारा सामना करने की बजाए भाग गए। ऐसे कायरों पर हजार थू।'' सारे उल्लू ‘हू—हू' की आवाज निकालकर अपनी जीत की घोषणा करने लगे।

नीचे झाड़ियों में गिरा पड़ा स्थिरजीवी कौआ यह सब देख रहा था। स्थिरजीवी ने कांव—कांव की आवाज निकाली। उसे देखकर जासूस उल्लू बोला, श्अरे, यह तो वही कौआ है, जिसे इनका राजा धक्का देकर गिरा रहा था और अपमानित कर रहा था।''

उल्लुओं का राजा भी आया। उसने पूछा, श्तुम्हारी यह दुर्दशा कैसे हुई?' स्थिरजीवी बोला श्मैं राजा मेघवर्ण का नीतिमंत्री था। मैंने उनको नेक सलाह दी कि उल्लुओं का नेतॄत्व इस समय एक पराक्रमी राजा कर रहे हैं। हमें उल्लुओं की अधीनता स्वीकार कर लेनी चाहिए। मेरी बात सुनकर मेघवर्ण क्रोधित हो गया और मुझे फटकार कर कौओं की जाति से बाहर कर दिया। मुझे अपनी शरण में ले लीजिए।''

उल्लुओं का राजा अरिमर्दन सोच में पड़ गया। उसके सयाने नीति सलाहकार ने कान में कहा, श्राजन, शत्रु की बात का विश्वास नहीं करना चाहिए। यह हमारा शत्रु है। इसे मार दो।'' एक चापलूस मंत्री बोला, श्नहीं महाराज! इस कौए को अपने साथ मिलाने में बड़ा लाभ रहेगा। यह कौओं के घर के भेद हमें बताएगा।''

राजा को भी स्थिरजीवी को अपने साथ मिलाने में लाभ नजर आया और उल्लू स्थिरजीवी कौए को अपने साथ ले गए। वहां अरिमर्दन ने उल्लू सेवकों से कहा, श्स्थिरजीवी को गुफा के शाही मेहमान कक्ष में ठहराओ। इन्हें कोई कष्ट नहीं होना चाहिए।''

स्थिरजीवी हाथ जोड़कर बोला, श्महाराज, आपने मुझे शरण दी, यही बहुत है। मुझे अपनी शाही गुफा के बाहर एक पत्थर पर सेवक की तरह ही रहने दीजिए। वहां बैठकर आपके गुण गाते रहने की ही मेरी इच्छा है।'' इस प्रकार स्थिरजीवी शाही गुफा के बाहर डेरा जमाकर बैठ गया।

गुफा में नीति सलाहकार ने राजा से फिर से कहा, श्महाराज! शत्रु पर विश्वास मत करो। उसे अपने घर में स्थान देना तो आत्महत्या करने समान है।'' अरिमर्दन ने उसे क्रोध से देखा, श्तुम मुझे ज्यादा नीति समझाने की कोशिश मत करो। चाहो तो तुम यहां से जा सकते हो।'' नीति सलाहकार उल्लू अपने दो—तीन मित्रों के साथ वहां से सदा के लिए यह कहता हुआ, श्विनाशकाले विपरीत बुद्धि।''

कुछ दिनों बाद स्थिरजीवी लकड़ियां लाकर गुफा के द्वार के पास रखने लगा, श्सरकार, सर्दियां आने वाली हैं। मैं लकड़ियों की झोपड़ी बनाना चाहता हूं ताकि ठंड से बचाव हो।' धीरे—धीरे लकड़ियों का काफी ढेर जमा हो गया।

एक दिन जब सारे उल्लू सो रहे थे तो स्थिरजीवी वहां से उड़कर सीधे ॠष्यमूक पर्वत पर पहुंचा, जहां मेघवर्ण और कौओं सहित उसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। स्थिरजीवी ने कहा, श्अब आप सब निकट के जंगल से जहां आग लगी है, एक—एक जलती लकड़ी चोंच में उठाकर मेरे पीछे आइए।''

कौओं की सेना चोंच में जलती लकड़ियां पकड़ स्थिरजीवी के साथ उल्लुओं की गुफाओं में आ पहुंची। स्थिरजीवी द्वारा ढेर लगाई लकड़ियों में आग लगा दी गई। सभी उल्लू जलने या दम घुटने से मर गए। राजा मेघवर्ण ने

स्थिरजीवी को श्कौआ रत्नश् की उपाधि दी।

सीखः शत्रु को अपने घर में पनाह देना अपने ही विनाश का सामान जुटाना है।

शत्रु की सलाह

नदी किनारे एक विशाल पेड़ था। उस पेड़ पर बगुलों का बहुत बड़ा झुंड रहता था। उसी पेड़ के कोटर में काला नाग रहता था। जब अंडों से बच्चे निकल आते और जब वह कुछ बड़े होकर मां—बाप से दूर रहने लगते, तभी वह नाग उन्हें खा जाता था। इस प्रकार वषोर्ं से काला नाग बगुलों के बच्चे हड़पता आ रहा था। बगुले भी वहां से जाने का नाम नहीं लेते थे, क्योंकि वहां नदी में कछुओं की भरमार थी। कछुओं का नरम मांस बगुलों को बहुत अच्छा लगता था।

इस बार नाग जब एक बच्चे को हड़पने लगा तो पिता बगुले की नजर उस पर पड़ गई। बगुले को पता लग गया कि उसके पहले बच्चों को भी वह नाग खाता रहा होगा। उसे बहुत शोक हुआ। उसे आंसू बहाते एक कछुए ने देखा और पूछा, श्मामा, क्यों रो रहे हो?' गम में जीव हर किसी के आगे अपना दुखड़ा रोने लगता है। उसने नाग और अपने मृत बच्चों के बारे में बताकर कहा, श्मैं उससे बदला लेना चाहता हूं।'' कछुए ने सोचा, श्अच्छा तो इस गम में मामा रो रहा है। जब यह हमारे बच्चे खा जाते हैं, तब तो कुछ ख्याल नहीं आता कि हमें कितना गम होता होगा। तुम सांप से बदला लेना चाहते हो तो हम भी तो तुमसे बदला लेना चाहेंगे।'' बगुला अपने शत्रु को अपना दुख बताकर गलती कर बैठा था। चतुर कछुआ एक तीर से दो शिकार मारने की योजना सोच चुका था। वह बोला, श्मामा! मैं तुम्हें बदला लेने का बहुत अच्छा उपाय सुझाता हूं।''

बगुले ने अधीर स्वर में पूछा, श्जल्दी बताओ, वह उपाय क्या है। मैं तुम्हारा अहसान जीवनभर नहीं भूलूंगा।' कछुआ मन ही मन मुस्कुराया और उपाय बताने लगा, श्यहां से कुछ दूर एक नेवले का बिल है। नेवला सांप का घोर शत्रु है। नेवले को मछलियां बहुत प्रिय होती हैं। तुम छोटी—छोटी मछलियां पकड़कर नेवले के बिल से सांप के कोटर तक बिछा दो, नेवला मछलियां खाता—खाता सांप तक पहुंच जाएगा और उसे समाप्त कर देगा।' बगुला बोला, श्तुम जरा मुझे उस नेवले का बिल दिखा दो।' कछुए ने बगुले को नेवले का बिल दिखा दिया। बगुले ने वैसा ही किया, जैसा कछुए ने समझाया था। नेवला सचमुच मछलियां खाता हुआ कोटर तक पहुंचा। नेवले को देखते ही नाग ने फुफकार छोड़ी। कुछ ही देर की लड़ाई में नेवले ने सांप के टुकड़े—टुकड़े कर दिए।

गुला खुशी से उछल पड़ा। कछुए ने मन ही मन में कहा, श्यह तो शुरुआत है मूर्ख बगुले। अब मेरा बदला शुरू होगा और तुम सब बगुलों का नाश होगा।'' कछुए का सोचना सही निकला। नेवला नाग को मारने के बाद वहां से नहीं गया। उसे अपने चारों ओर बगुले नजर आए, उसके लिए महीनों के लिए स्वादिष्ट खाना। नेवला उसी कोटर में बस गया, जिसमें नाग रहता था और रोज एक बगुले को अपना शिकार बनाने लगा। इस प्रकार एक—एक करके सारे बगुले मारे गए। सीखः शत्रु की सलाह में उसका स्वार्थ छिपा होता है।

झगड़ालू मेंढक

एक कुएं में बहुत से मेंढक रहते थे। उनके राजा का नाम था गंगदत्त। गंगदत्त बहुत झगड़ालू स्वभाव का था। आसपास दो—तीन और भी कुएं थे। उनमें भी मेंढक रहते थे। हर कुएं के मेंढकों का अपना राजा था।

हर राजा से किसी न किसी बात पर गंगदत्त का झगड़ा चलता ही रहता था। वह अपनी मूर्खता से कोई गलत काम करने लगता और बुद्धिमान मेंढक रोकने की कोशिश करता तो मौका मिलते ही अपने पाले गुंडे मेंढकों से पिटवा देता। कुएं के मेंढकों के भीतर गंगदत्त के प्रति रोष बढ़ता जा रहा था। घर में भी झगड़ों से चौन न था। अपनी हर मुसीबत के लिए दोष देता।

एक दिन गंगदत्त पड़ोसी मेंढक राजा से खूब झगड़ा। खूब तू—तू, मैं—मैं हुई। गंगदत्त ने अपने कुएं में आकर बताया कि पड़ोसी राजा ने उसका अपमान किया है। अपमान का बदला लेने के लिए उसने अपने मेंढकों को आदेश दिया कि पड़ोसी कुएं पर हमला करें सब जानते थे कि झगड़ा गंगदत्त ने ही शुरू किया होगा।

कुछ सयाने मेंढकों तथा बुद्धिमानों ने एकजुट होकर एक स्वर में कहा, श्राजन, पड़ोसी कुएं में हमसे दुगने मेंढक हैं। वे स्वस्थ व हमसे अधिक ताकतवर हैं। हम यह लड़ाई नहीं लड़ेंगे।''

गंगदत्त सन्न रह गया और बुरी तरह तिलमिला गया। मन ही मन उसने ठान ली कि इन गद्दारों को भी सबक सिखाना होगा। गंगदत्त ने अपने बेटों को बुलाकर भड़काया, श्बेटा, पड़ोसी राजा ने तुम्हारे पिताश्री का घोर अपमान किया है। जाओ, पड़ोसी राजा के बेटों की ऐसी पिटाई करो कि वे पानी मांगने लग जाएं।''

गंगदत्त के बेटे एक—दूसरे का मुंह देखने लगे। आखिर बड़े बेटे ने कहा, श्पिताश्री, आपने कभी हमें टर्राने की इजाजत नहीं दी। टर्राने से ही मेंढकों में बल आता है, हौसला आता है और जोश आता है। आप ही बताइए कि बिना हौसले और जोश के हम किसी की क्या पिटाई कर पाएंगे?'

अब गंगदत्त सबसे चिढ़ गया। एक दिन वह कुढ़ता और बड़बड़ाता कुएं से बाहर निकल इधर—उधर घूमने लगा। उसे एक भयंकर नाग पास ही बने अपने बिल में घुसता नजर आया। उसकी आंखें चमकीं। जब अपने दुश्मन बन गए हों तो दुश्मन को अपना बनाना चाहिए। यह सोच वह बिल के पास जाकर बोला, श्नागदेव, मेरा प्रणाम।''

नागदेव फुफकारा, श्अरे मेंढक मैं तुम्हारा बैरी हूं। तुम्हें खा जाता हूं और तू मेरे बिल के आगे आकर मुझे आवाज दे रहा है।

गंगदत्त टर्राया, श्हे नाग, कभी—कभी शत्रुओं से ज्यादा अपने दुख देने लगते हैं। मेरा अपनी जाति वालों और सगों ने इतना घोर अपमान किया है कि उन्हें सबक सिखाने के लिए मुझे तुम जैसे शत्रु के पास सहायता मांगने आना पड़ा है। तुम मेरी दोस्ती स्वीकार करो और मजे करो।''

नाग ने बिल से अपना सिर बाहर निकाला और बोला, श्मजे, कैसे मजे?'

गंगदत्त ने कहा, श्मैं तुम्हें इतने मेंढक खिलाऊंगा कि तुम मोटाते—मोटाते अजगर बन जाओगे।''

नाग ने शंका व्यक्त की, श्पानी में मैं जा नहीं सकता। कैसे पकडूंगा मेंढक?'

गंगदत्त ने ताली बजाई, श्नाग भाई, यहीं तो मेरी दोस्ती तुम्हारे काम आएगी। मैंने पड़ोसी राजाओं के कुओं पर नजर रखने के लिए अपने जासूस मेंढकों से गुप्त सुरंगें खुदवा रखीं हैं। हर कुएं तक उनका रास्ता जाता है। सुरंगें जहां मिलती हैं, वहां एक कक्ष है। तुम वहां रहना और जिस—जिस मेंढक को खाने के लिए कहूं, उन्हें खाते जाना।''

नाग गंगदत्त से दोस्ती के लिए तैयार हो गया। क्योंकि उसमें उसका लाभ ही लाभ था। एक मूर्ख बदले की भावना में अंधे होकर अपनों को दुश्मन के पेट के हवाले करने को तैयार हो तो दुश्मन क्यों न इसका लाभ उठाए?

नाग गंगदत्त के साथ सुरंग कक्ष में जाकर बैठ गया। गंगदत्त ने पहले सारे पड़ोसी मेंढक राजाओं और उनकी प्रजाओं को खाने के लिए कहा। नाग कुछ सप्ताहों में सारे दूसरे कुओं के मेंढकों को सुरंगों के रास्ते जा—जाकर खा गया। जब सब समाप्त हो गए तो नाग गंगदत्त से बोला, श्अब किसे खाऊं? जल्दी बता। चौबीस घंटे पेट फुल रखने की आदत पड़ गई है।''

गंगदत्त ने कहा, श्अब मेरे कुएं के सभी सयाने और बुद्धिमान मेंढकों को खाओ।''

वह खाए जा चुके तो प्रजा की बारी आई। गंगदत्त ने सोचा, श्प्रजा की ऐसी की तैसी। हर समय कुछ न कुछ शिकायत करती रहती है। उनको खाने के बाद नाग ने खाना मांगा तो गंगदत्त बोला, श्नाग मित्र, अब केवल मेरा कुनबा और मेरे मित्र बचे हैं। खेल खत्म और मेंढक हजम।''

नाग ने फन फैलाया और फुफकारने लगा, श्मेंढक, मैं अब कहीं नहीं जाने का। तू अब खाने का इंतजाम कर वर्ना।''

गंगदत्त की बोलती बंद हो गई। उसने नाग को अपने मित्र खिलाए फिर उसके बेटे नाग के पेट में गए। गंगदत्त ने सोचा कि मैं और मेंढकी जिंदा रहे तो बेटे और पैदा कर लेंगे। बेटे खाने के बाद नाग फुफकारा, श्और खाना कहां है? गंगदत्त ने डरकर मेंढकी की ओर इशार किया। गंगदत्त ने स्वयं के मन को समझाया, श्चलो बूढ़ी मेंढकी से छुटकारा मिला। नई जवान मेंढकी से विवाह कर नया संसार बसाऊंगा।''

मेंढकी को खाने के बाद नाग ने मुंह फाड़ा, श्खाना।''

गंगदत्त ने हाथ जोड़े, श्अब तो केवल मैं बचा हूं। तुम्हारा दोस्त गंगदत्त। अब लौट जाओ।''

नाग बोला, श्तू कौन—सा मेरा मामा लगता है और उसे हड़प गया।

सीखः अपनो से बदला लेने के लिए जो शत्रु का साथ लेता है, उसका अंत निश्चित है।