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भाग-५ - पंचतंत्र

पंचतंत्र

भाग — 05

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पंचतंत्र

गधा रहा गधा ही

आपस की फूट

बगुला भगत

बिल्ली का न्याय

एकता का बल

गधा रहा गधा ही

एक जंगल में एक शेर रहता था। गीदड़ उसका सेवक था। जोड़ी अच्छी थी। शेरों के समाज में तो उस शेर की कोई इज्जत नहीं थी, क्योंकि वह जवानी में सभी दूसरे शेरों से युद्ध हार चुका था, इसलिए वह अलग—थलग रहता था। उसे गीदड़ जैसे चमचे की सख्त जरूरत थी जो चौबीस घंटे उसकी चमचागिरी करता रहे। गीदड़ को बस खाने का जुगाड़ चाहिए था। पेट भर जाने पर गीदड़ उस शेर की वीरता के ऐसे गुण गाता कि शेर का सीना फुलकर दुगना चौड़ा हो जाता।

एक दिन शेर ने एक बिगड़ैल जंगली सांड का शिकार करने का साहस कर डाला। सांड बहुत शक्तिशाली था। उसने लात मारकर शेर को दूर फेंक दिया, जब वह उठने को हुआ तो सांड ने फां—फां करते हुए शेर को सींगों से एक पेड़ के साथ रगड़ दिया।

किसी तरह शेर जान बचाकर भागा। शेर सींगों की मार से काफी जख्मी हो गया था। कई दिन बीते, परंतु शेर के जख्म ठीक होने का नाम नहीं ले रहे थे। ऐसी हालत में वह शिकार नहीं कर सकता था। स्वयं शिकार करना गीदड़ के बस की बात नहीं थी। दोनों के भूखो मरने की नौबत आ गई। शेर को यह भी भय था कि खाने का जुगाड़ समाप्त होने के कारण गीदड़ उसका साथ न छोड़ जाए।

शेर ने एक दिन उसे सुझाया, श्देख, जख्मों के कारण मैं दौड़ नहीं सकता। शिकार कैसे करूं? तु जाकर किसी बेवकूफ—से जानवर को बातों में फंसाकर यहां ला। मैं उस झाड़ी में छिपा रहूंगा।

गीदड़ को भी शेर की बात जंच गई। वह किसी मूर्ख जानवर की तलाश में घूमता—घूमता एक कस्बे के बाहर नदी—घाट पर पहुंचा। वहां उसे एक मरियल—सा गधा घास पर मुंह मारता नजर आया। वह शक्ल से ही बेवकूफ लग रहा था।

गीदड़ गधे के निकट जाकर बोला श्पांय लागूं चाचा। बहुत कमजोर हो आए हो, क्या बात है?'

गधे ने अपना दुखड़ा रोया, श्क्या बताऊं भाई, जिस धोबी का मैं गधा हूं, वह बहुत क्रूर है। दिनभर ढुलाई करवाता है और चारा कुछ देता नहीं।''

गीदड़ ने उसे न्यौता दिया, श्चाचा, मेरे साथ जंगल चलो, वहां बहुत हरी—हरी घास है। खूब चरना तुम्हारी सेहत बन जाएगी।''

गधे ने कान फड़फड़ाए श्राम—राम। मैं जंगल में कैसे रहूंगा? जंगली जानवर मुझे खा जाएंगे।''

चाचा, तुम्हें शायद पता नहीं कि जंगल में एक बगुला भगतजी का सत्संग हुआ था। उसके बाद सारे जानवर शाकाहारी बन गए हैं। अब कोई किसी को नहीं खाता।'' गीदड़ बोला। और कान के पास मुंह ले जाकर दाना फेंका, श्चाचू, पास के कस्बे से बेचारी गधी भी अपने धोबी मालिक के अत्याचारों से तंग आकर जंगल में आ गई थी। वहां हरी—हरी घास खाकर वह खूब लहरा गई है, तुम उसके साथ घर बसा लेना।''

गधे के दिमाग पर हरी—हरी घास और घर बसाने के सुनहरे सपने छाने लगे। वह गीदड़ के साथ जंगल की ओर चल दिया। जंगल में गीदड़ गधे को उसी झाड़ी के पास ले गया, जिसमें शेर छिपा बैठा था। इससे पहले कि शेर पंजा मारता, गधे को झाड़ी में शेर की नीली बत्तियों की तरह चमकती आंखें नजर आ गईं। वह डरकर उछला, गधा भागा और भागता ही गया। शेर बुझे स्वर में गीदड़ से बोला, श्भाई, इस बार मैं तैयार नहीं था। तुम उसे दोबारा लाओ इस बार गलती नहीं होगी।''

गीदड़ दोबारा उस गधे की तलाश में कस्बे में पहुंचा। उसे देखते ही बोला, श्चाचा, तुमने तो मेरी नाक कटवा दी। तुम अपनी दुल्हन से डरकर भाग गए?'

उस झाड़ी में मुझे दो चमकती आंखें दिखाई दी थीं, जैसी शेर की होती हैं। मैं भागता नहीं तो क्या करता?' गधे ने शिकायत की।

गीदड़ नाटक करते हुए माथा पीटकर बोला, श्चाचा ओ चाचा! तुम भी पूरे मूर्ख हो। उस झाड़ी में तुम्हारी दुल्हन थी। जाने कितने जन्मों से वह तुम्हारी राह देख रही थी। तुम्हें देखकर उसकी आंखें चमक उठीं तो तुमने उसे शेर समझ लिया?'

गधा बहुत लज्जित हुआ, गीदड़ की चालभरी बातें ही ऐसी थीं। गधा फिर उसके साथ चल पड़ा। जंगल में झाड़ी के पास पहुंचते ही शेर ने नुकीले पंजों से उसे मार गिराया। इस प्रकार शेर व गीदड़ का भोजन जुटा।

सीखः दूसरों की चिकनी—चुपड़ी बातों में आने की मूर्खता कभी नहीं करना चाहिए।

आपस की फूट

प्राचीन समय में एक विचित्र पक्षी रहता था। उसका धड़ एक ही था, परन्तु सिर दो थे नाम था उसका भारुंड।

एक शरीर होने के बावजूद उसके सिरों में एकता नहीं थी और न ही था तालमेल। वे एक—दूसरे से बैर रखते थे। हर जीव सोचने—समझने का काम दिमाग से करता है और दिमाग होता है सिर में। दो सिर होने के कारण भारुंड के दिमाग भी दो थे।

जिनमें से एक पूरब जाने की सोचता तो दूसरा पश्चिम, फल यह होता था कि टांगें एक कदम पूरब की ओर चलतीं तो अगला कदम पश्चिम की ओर और भारुंड स्वयं को वहीं खड़ा पाता था। भारुंड का जीवन बस दो सिरों के बीच रस्साकसी बनकर रह गया था।

एक दिन भारुंड भोजन की तलाश में नदी तट पर धूम रहा था कि एक सिर को नीचे गिरा एक फल नजर आया। उसने चोंच मारकर उसे चखकर देखा तो जीभ चटकाने लगा श्वाह! ऐसा स्वादिष्ट फल तो मैंने आज तक कभी नहीं खाया। भगवान ने दुनिया में क्या—क्या चीजें बनाई हैं।

अच्छा! जरा मैं भी चखकर देखूं। कहकर दूसरे ने अपनी चोंच उस फल की ओर बढ़ाई ही थी कि पहले सिर ने झटककर दूसरे सिर को दूर फेंका और बोला, अपनी गंदी चोंच इस फल से दूर ही रख। यह फल मैंने पाया है और इसे मैं ही खाऊंगा।

अरे! हम दोनों एक ही शरीर के भाग हैं। खाने—पीने की चीजें तो हमें बांटकर खानी चाहिए। दूसरे सिर ने दलील दी। पहला सिर कहने लगा, ठीक! हम एक शरीर के भाग हैं। पेट हमारे एक ही हैं। मैं इस फल को खाऊंगा तो वह पेट में ही तो जाएगा और पेट तेरा भी है।

दूसरा सिर बोला, खाने का मतलब केवल पेट भरना ही नहीं होता भाई। जीभ का स्वाद भी तो कोई चीज है। तबीयत को संतुष्टि तो जीभ से ही मिलती है। खाने का असली मजा तो मुंह में ही है।

पहला सिर तुनककर चिढ़ाने वाले स्वर में बोला, मैंने तेरी जीभ और खाने के मजे का ठेका थोड़े ही ले रखा है। फल खाने के बाद पेट से डकार आएगी और वह डकार तेरे मुंह से भी निकलेगी। उसी से गुजारा चला लेना। अब ज्यादा बकवास न कर और मुझे शांति से फल खाने दे। ऐसा कहकर पहला सिर चटकारे ले—लेकर फल खाने लगा।

इस घटना के बाद दूसरे सिर ने बदला लेने की ठान ली और मौके की तलाश में रहने लगा। कुछ दिन बाद फिर भारुंड भोजन की तलाश में घूम रहा था कि दूसरे सिर की नजर एक फल पर पडी। उसे जिस चीज की तलाश थी, उसे वह मिल गई थी।

दूसरा सिर उस फल पर चोंच मारने ही जा रहा था कि पहले सिर ने चीखकर चेतावनी दी, अरे, अरे! इस फल को मत खाना। क्या तुझे पता नहीं कि यह विषैला फल है? इसे खाने पर मृत्यु भी हो सकती है।''

दूसरा सिर हंसा, श्हे हे हे! तु चुपचाप अपना काम देख। तुझे क्या लेना है कि मैं क्या खा रहा हूं? भूल गया उस दिन की बात?'

पहले सिर ने समझाने कि कोशिश की, श्तुने यह फल खा लिया तो हम दोनों मर जाएंगे।''

दूसरा सिर तो बदला लेने पर उतारु था। बोला, श्मैंने तेरे मरने—जीने का ठेका थोड़े ही ले रखा है? मैं जो खाना चाहता हूं, वह खाऊंगा चाहे उसका नतीजा कुछ भी हो। अब मुझे शांति से विषैला फल खाने दे।''

दूसरे सिर ने सारा विषैला फल खा लिया और भारुंड तड़प—तड़पकर मर गया।

सीखः आपस की फूट ही सदा ले डूबती है।

बगुला भगत

एक वन प्रदेश में एक बहुत बड़ा तालाब था। हर प्रकार के जीवों के लिए उसमें भोजन सामग्री होने के कारण वहां नाना प्रकार के जीव, पक्षी, मछलियां, कछुए और केकड़े आदि वास करते थे। पास में ही बगुला रहता था, जिसे परिश्रम करना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था। उसकी आंखें भी कुछ कमजोर थीं।

मछलियां पकड़ने के लिए तो मेहनत करनी ही पड़ती है, जो उसे खलती थी। इसलिए आलस्य के मारे वह प्रायः भूखा ही रहता। एक टांग पर खड़ा यही सोचता रहता कि क्या उपाय किया जाए कि बिना हाथ—पैर हिलाए रोज भोजन मिले।

एक दिन उसे एक उपाय सूझा तो वह उसे आजमाने बैठ गया।

बगुला तालाब के किनारे खड़ा हो गया और लगा आंखों से आंसू बहाने। एक केकड़े ने उसे आंसू बहाते देखा तो वह उसके निकट आया और पूछने लगा, श्मामा, क्या बात है, भोजन के लिए मछलियों का शिकार करने की बजाय खड़े आंसू बहा रहे हो?'

बगुले ने जोर की हिचकी ली और भर्राए गले से बोला, श्बेटे, बहुत कर लिया मछलियों का शिकार। अब मैं यह पाप कार्य और नहीं करूंगा। मेरी आत्मा जाग उठी है। इसलिए मैं निकट आई मछलियों को भी नहीं पकड़ रहा हूं। तुम तो देख ही रहे हो।''

केकड़ा बोला, श्मामा, शिकार नहीं करोगे, कुछ खाओगे नहीं तो मर नहीं जाओगे?'

बगुले ने एक और हिचकी ली, श्ऐसे जीवन का नष्ट होना ही अच्छा है बेटे, वैसे भी हम सबको जल्दी मरना ही है। मुझे ज्ञात हुआ है कि शीघ्र ही यहां बारह वर्ष लंबा सूखा पड़ेगा।''

बगुले ने केकड़े को बताया कि यह बात उसे एक त्रिकालदर्शी महात्मा ने बताई है, जिसकी भविष्यवाणी कभी गलत नहीं होती। केकड़े ने जाकर सबको बताया कि कैसे बगुले ने बलिदान व भक्ति का मार्ग अपना लिया है और सूखा पड़ने वाला है।

उस तालाब के सारे जीव मछलियां, कछुए, केकड़े, बत्तखें व सारस आदि दौड़े—दौड़े बगुले के पास आए और बोले, श्भगत मामा, अब तुम ही हमें कोई बचाव का रास्ता बताओ। अपनी अक्ल लड़ाओ, तुम तो महाज्ञानी बन ही गए हो।''

बगुले ने कुछ सोचकर बताया कि वहां से कुछ कोस दूर एक जलाशय है जिसमें पहाड़ी झरना बहकर गिरता है। वह कभी नहीं सूखता। यदि जलाशय के सब जीव वहां चले जाएं तो बचाव हो सकता है। अब समस्या यह थी कि वहां तक जाया कैसे जाए?

बगुला भगत ने यह समस्या भी सुलझा दी, श्मैं तुम्हें एक—एक करके अपनी पीठ पर बिठाकर वहां तक पहुंचाऊंगा, क्योंकि अब मेरा सारा शेष जीवन दूसरों की सेवा करने में गुजरेगा।''

सभी जीवों ने गदगद होकर ‘बगुला भगतजी की जय' के नारे लगाए।

अब बगुला भगत की पौ—बारह हो गई। वह रोज एक जीव को अपनी पीठ पर बिठाकर ले जाता और कुछ दूर ले जाकर एक चट्टान के पास जाकर उसे उस पर पटककर मार डालता और खा जाता। कभी मूड हुआ तो भगतजी दो फेरे भी लगाते और दो जीवों को चट कर जाते तालाब में जानवरों की संख्या घटने लगी।

चट्टान के पास मरे जीवों की हड्डियों का ढेर बढ़ने लगा और भगतजी की सेहत बनने लगी। खा—खाकर वे खूब मोटे हो गए। मुख पर लाली आ गई और पंख चर्बी के तेज से चमकने लगे। उन्हें देखकर दूसरे जीव कहते, श्देखो, दूसरों की सेवा का फल और पुण्य भगतजी के शरीर को लग रहा है।''

बगुला भगत मन ही मन खूब हंसता। वह सोचता कि देखो दुनिया में कैसे—कैसे मूर्ख जीव भरे पड़े हैं, जो सबका विश्वास कर लेते हैं। ऐसे मूखोर्ं की दुनिया में थोड़ी चालाकी से काम लिया जाए तो मजे ही मजे हैं। बिना हाथ—पैर हिलाए खूब दावत उड़ाई जा सकती है। संसार से मूर्ख प्राणी कम करने का मौका मिलता है। बैठे—बिठाए पेट भरने का जुगाड़ हो जाए तो सोचने का बहुत समय मिल जाता है।

बहुत दिन यही क्रम चला।

एक दिन केकड़े ने बगुले से कहा, श्मामा, तुमने इतने सारे जानवर यहां से वहां पहुंचा दिए, लेकिन मेरी बारी अभी तक नहीं आई।''

भगतजी बोले, श्बेटा, आज तेरा ही नंबर लगाते हैं, आजा मेरी पीठ पर बैठ जा।''

केकड़ा खुश होकर बगुले की पीठ पर बैठ गया। जब वह चट्टान के निकट पहुंचा तो वहां हड्डियों का पहाड़ देखकर केकड़े का माथा ठनका। वह हकलाया, श्यह हड्डियों का ढेर कैसा है? वह जलाशय कितनी दूर है, मामा?'

बगुला भगत ठां—ठां करके खूब हंसा और बोला, श्मूर्ख, वहां कोई जलाशय नहीं है। मैं एक—एक को पीठ पर बिठाकर यहां लाकर खाता रहता हूं। आज तू मरेगा।''

केकड़ा सारी बात समझ गया। वह सिहर उठा, परंतु उसने हिम्मत न हारी और तुरंत अपने जंबूर जैसे पंजों को आगे बढ़ाकर उनसे दुष्ट बगुले की गर्दन दबा दी और तब तक दबाए रखी, जब तक उसके प्राण पखेरु न उड़ गए।

फिर केकड़ा बगुले भगत का कटा सिर लेकर तालाब पर लौटा और सारे जीवों को सच्चाई बता दी कि कैसे दुष्ट बगुला भगत उन्हें धोखा देता रहा।

सीखः ' दूसरों की बातों पर आंखें मूंदकर विश्वास नहीं करना चाहिए।

बिल्ली का न्याय

एक वन में एक पेड़ की खोह में एक चकोर रहता था। उसी पेड़ के आसपास कई पेड़ और थे, जिन पर फल व बीज उगते थे। उन फलों और बीजों से पेट भरकर चकोर मस्त पड़ा रहता। इसी प्रकार कई वर्ष बीत गए। एक दिन उड़ते—उड़ते एक और चकोर सांस लेने के लिए उस पेड़ की टहनी पर बैठा। दोनों में बातें हुईं।

दूसरे चकोर को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि वह केवल पेड़ों के फल व बीज चुगकर जीवन गुजार रहा था। दूसरे ने उसे बताया, श्भई, दुनिया में खाने के लिए केवल फल और बीज ही नहीं होते और भी कई स्वादिष्ट चीजें हैं। उन्हें भी खाना चाहिए। खेतों में उगने वाले अनाज तो बेजोड़ होते हैं। कभी अपने खाने का स्वाद बदलकर तो देखो।''

दूसरे चकोर के उड़ने के बाद वह चकोर सोच में पड़ गया। उसने फैसला किया कि कल ही वह दूर नजर आने वाले खेतों की ओर जाएगा और उस अनाज नाम की चीज का स्वाद चखकर देखेगा।

दूसरे दिन चकोर उड़कर एक खेत के पास उतरा। खेत में धान की फसल उगी थी। चकोर ने कोंपलें खाईं। उसे वह अति स्वादिष्ट लगीं। उस दिन के भोजन में उसे इतना आनंद आया कि खाकर तृप्त होकर वहीं आंखें मूंदकर सो गया। इसके बाद भी वह वहीं पड़ा रहा। रोज खाता—पीता और सो जाता। छह—सात दिन बाद उसे सुध आई कि घर लौटना चाहिए।

इस बीच एक खरगोश घर की तलाश में घूम रहा था। उस इलाके में जमीन के नीचे पानी भरने के कारण उसका बिल नष्ट हो गया था। वह उसी चकोर वाले पेड़ के पास आया और उसे खाली पाकर उसने उस पर अधिकार जमा लिया और वहां रहने लगा। जब चकोर वापस लौटा तो उसने पाया कि उसके घर पर तो किसी और का कब्जा हो गया है।

चकोर क्रोधित होकर बोला, श्ऐ भाई, तू कौन है और मेरे घर में क्या कर रहा है?'

खरगोश ने दांत दिखाकर कहा, श्मैं इस घर का मालिक हूं। मैं सात दिन से यहां रह रहा हूं, यह घर मेरा है।''

चकोर गुस्से से फट पड़ा, श्सात दिन! भाई, मैं इस खोह में कई वषोर्ं से रह रहा हूं। किसी भी आसपास के पंछी या चौपाए से पूछ लीजिए।''

खरगोश चकोर की बात काटता हुआ बोला, श्सीधी—सी बात है। मैं यहां आया। यह खोह खाली पड़ी थी और मैं यहां बस गया। मैं क्यों अब पड़ोसियों से पूछता फिरूं?'

चकोर गुस्से में बोला, श्वाह! कोई घर खाली मिले तो इसका यह मतलब हुआ कि उसमें कोई नहीं रहता? मैं आखिरी बार कह रहा हूं कि शराफत से मेरा घर खाली कर दे वर्ना३।''

खरगोश ने भी उसे ललकारा, श्वरना तू क्या कर लेगा? यह घर मेरा है। तुझे जो करना है, कर ले।''

चकोर सहम गया। वह मदद और न्याय की फरियाद लेकर पड़ोसी जानवरों के पास गया सबने दिखावे की हूं—हूं की, परंतु ठोस रूप से कोई सहायता करने सामने नहीं आया।

एक बूढ़े पड़ोसी ने कहा, श्ज्यादा झगड़ा बढ़ाना ठीक नहीं होगा। तुम दोनों आपस में कोई समझौता कर लो।'' पर समझौते की कोई सूरत नजर नहीं आ रही थी, क्योंकि खरगोश किसी शर्त पर खोह छोड़ने को तैयार नहीं था। अंत में लोमड़ी ने उन्हें सलाह दी, श्तुम दोनों किसी ज्ञानी—ध्यानी को पंच बनाकर अपने झगड़े का फैसला उससे करवाओ।''

दोनों को यह सुझाव पसंद आया। अब दोनों पंच की तलाश में इधर—उधर घूमने लगे। इसी प्रकार घूमते—घूमते वे दोनों एक दिन गंगा किनारे आ निकले। वहां उन्हें जप—तप में मग्न एक बिल्ली नजर आई। बिल्ली के माथे पर तिलक लगा था। गले में जनेऊ और हाथ में माला लिए मृगछाल पर बैठी वह पूरी तपस्विनी लग रही थी। उसे देखकर चकोर व खरगोश खुशी से उछल पड़े। उन्हें भला इससे अच्छा ज्ञानी—ध्यानी कहां मिलेगा।

खरगोश ने कहा, श्चकोरजी, क्यों न हम इससे अपने झगड़े का फैसला करवाएं?'

चकोर पर भी बिल्ली का अच्छा प्रभाव पड़ा था, पर वह जरा घबराया हुआ था। चकोर बोला, श्मुझे कोई आपत्ति नहीं है, पर हमें जरा सावधान रहना चाहिए।'' खरगोश पर तो बिल्ली का जादू चल गया था।

उसने कहा, श्अरे नहीं! देखते नहीं हो, यह बिल्ली सांसारिक मोह—माया त्यागकर तपस्विनी बन गई है।''

सच्चाई तो यह थी कि बिल्ली उन जैसे मूर्ख जीवों को फांसने के लिए ही भक्ति का नाटक कर रही थी। फिर चकोर और खरगोश पर और प्रभाव डालने के लिए वह जोर—जोर से मंत्र पड़ने लगी। खरगोश और चकोर ने उसके निकट आकर हाथ जोड़कर जयकारा लगाया।

बिल्ली ने मुस्कराते हुए धीरे से अपनी आंखें खोलीं और आशीर्वाद दिया, श्आयुष्मान भव, तुम दोनों के चेहरों पर चिंता की लकीरें हैं। क्या कष्ट है तुम्हें, बच्चों?'

चकोर ने विनती की, श्माता, हम दोनों के बीच एक झगड़ा है। हम चाहते हैं कि आप उसका फैसला करें।''

बिल्ली ने पलकें झपकाईं और बोली— अरे, राम—राम! तुम्हें झगड़ना नहीं चाहिए। प्रेम और शांति से रहो।'' उसने उपदेश दिया और बोली, श्खैर, बताओ, तुम्हारा झगड़ा क्या है?'

चकोर ने मामला बताया। खरगोश ने अपनी बात कहने के लिए मुंह खोला ही था कि बिल्ली ने पंजा उठाकर रोका और बोली, श्बच्चों, मैं काफी बूढ़ी हूं, ठीक से सुनाई नहीं देता। आंखें भी कमजोर हैं, इसलिए तुम दोनों मेरे निकट आकर मेरे कान में जोर से अपनी—अपनी बात कहो ताकि मैं झगड़े का कारण जान सकूं और तुम दोनों को न्याय दे सकूं।''

वे दोनों बिल्ली के बिलकुल निकट आ गए, ताकि उसके कानों में अपनी—अपनी बात कह सकें। बिल्ली को इसी अवसर की तलाश थी, उसने ‘म्याऊं' की आवाज लगाई और एक ही झपट्टे में खरगोश और चकोर का काम तमाम कर दिया। फिर वह आराम से उन्हें खाने लगी।

सीख रू दो के झगड़े में तीसरे का ही फायदा होता है, इसलिए झगड़ों से दूर रहो।

एकता का बल

एक समय की बात है कि कबूतरों का एक दल आसमान में भोजन की तलाश में उड़ता हुआ जा रहा था। गलती से वह दल भटक कर ऐसे प्रदेश के ऊपर से गुजरा, जहां भयंकर अकाल पड़ा था।

कबूतरों का सरदार चिंतित था। कबूतरों के शरीर की शक्ति समाप्त होती जा रही थी। शीघ्र ही कुछ दाना मिलना जरूरी था। दल का युवा कबूतर सबसे नीचे उड़ रहा था। भोजन नजर आने पर उसे ही बाकी दल को सूचित करना था।

बहुत समय उड़ने के बाद कहीं वह सूखाग्रस्त क्षेत्र से बाहर आया। नीचे हरियाली नजर आने लगी तो भोजन मिलने की उम्मीद बनी। युवा कबूतर और नीचे उड़ान भरने लगा।

तभी उसे नीचे खेत में बहुत सारा अन्न बिखरा नजर आया श्चाचा, नीचे एक खेत में बहुत सारे दाने बिखरे पड़े हैं। हम सबका पेट भर जाएगा।'

सरदार ने सूचना पाते ही कबूतरों को नीचे उतरकर खेत में बिखरा दाना चुनने का आदेश दिया। सारा दल नीचे उतरा और दाना चुगने लगा। वास्तव में वह दाना पक्षी पकड़ने वाले एक बहलिए ने बिखेर रखा था। ऊपर पेड़ पर तना था उसका जाल। जैसे ही कबूतर दल दाना चुगने लगा, जाल उन पर आ गिरा। सारे कबूतर फंस गए।

कबूतरों के सरदार ने माथा पीटा श्ओह! यह तो हमें फंसाने के लिए फैलाया गया जाल था। भूख ने मेरी अक्ल पर पर्दा डाल दिया था। मुझे सोचना चाहिए था कि इतना अन्न बिखरा होने का कोई मतलब है। अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत?'

एक कबूतर रोने लगा, बोला, श्हम सब मारे जाएंगे।''

बाकी कबूतर तो हिम्मत हार बैठे थे, पर सरदार गहरी सोच में डूबा था। एकाएक उसने कहा श्सुनो, जाल मजबूत है यह ठीक है, पर इसमें इतनी भी शक्ति नहीं कि एकता की शक्ति को हरा सके। हम अपनी सारी शक्ति को जोड़ें तो मौत के मुंह में जाने से बच सकते हैं।''

युवा कबूतर फड़फड़ाया श्चाचा! साफ—साफ बताओ तुम क्या कहना चाहते हो। जाल ने हमें तोड़ रखा है, शक्ति कैसे जोड़ें?'

सरदार बोला, श्तुम सब चोंच से जाल को पकड़ो, फिर जब मैं फुर्र कहूं तो एक साथ जोर लगाकर उड़ना।''

सबने ऐसा ही किया। तभी जाल बिछाने वाला बहेलियां आता नजर आया। जाल में कबूतर को फंसा देख उसकी आंखें चमकीं। हाथ में पकड़ा डंडा उसने मजबूती से पकड़ा व जाल की ओर दौड़ा।

बहेलिया जाल से कुछ ही दूर था कि कबूतरों का सरदार बोला, श्फुर्रर्रर्र!श्

सारे कबूतर एक साथ जोर लगाकर उड़े तो पूरा जाल हवा में ऊपर उठा और सारे कबूतर जाल को लेकर ही उड़ने लगे। कबूतरों को जाल सहित उड़ते देखकर बहेलिया अवाक रह गया। कुछ संभला तो जाल के पीछे दौड़ने लगा।

कबूतर सरदार ने बहेलिए को नीचे जाल के पीछे दौड़ते पाया तो उसका इरादा समझ गया। सरदार भी जानता था कि अधिक देर तक कबूतर दल के लिए जाल सहित उड़ते रहना संभव न होगा। पर सरदार के पास इसका उपाय था।

निकट ही एक पहाड़ी पर बिल बनाकर उसका एक चूहा मित्र रहता था। सरदार ने कबूतरों को तेजी से उस पहाड़ी की ओर उड़ने का आदेश दिया। पहाड़ी पर पहुंचते ही सरदार का संकेत पाकर जाल समेत कबूतर चूहे के बिल के निकट उतरे।

सरदार ने मित्र चूहे को आवाज दी। सरदार ने संक्षेप में चूहे को सारी घटना बताई और जाल काटकर उन्हें आजाद करने के लिए कहा। कुछ ही देर में चूहे ने वह जाल काट दिया। सरदार ने अपने मित्र चूहे को धन्यवाद दिया और सारा कबूतर दल आकाश की ओर आजादी की उड़ान भरने लगा।

सीखः बड़ी से बड़ी विपत्ति का सामना एकजुट होकर ही किया जा सकता है।

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