देह के दायरे
भाग - तीन
देव बाबू के प्रति पूजा का आकर्षण धीरे-धीरे बढ़ता ही जा रहा था | कक्षा में बैठे-बैठे जब कभी भी वह उसकी ओर देखती तो प्रायः उसकी दृष्टि भी अपनी ओर उठी देखकर निगाहें शर्म से झुक जातीं | कॉलिज के प्रांगण में कितनी ही बार दोनों आमने-सामने से आते हुए एक पल को ठिठककर रुक जाते थे | अधरों पर हृदय की बात आने को मचलती मगर शर्म से, झिझक से वाणी मूक बनकर रह जाती | अधर सिर्फ काँपकर रह जाते |
मन बार-बार एक-दूसरे से मिलने का बहाना खोजता | आँखों आपस में उलझती रहतीं | कक्षा में प्राध्यापक का भाषण चलता रहता परन्तु एक-दूसरे के ख्यालों में खोए बैठे उन दोनों को पता ही न चलता कि कक्षा में क्या पढ़ाया जा रहा है |
सचमुच उस दिन तो पूजा को भारी अपमान का सामना करना पड़ा था |
पूजा कुछ इस तरह देव बाबू के ख्यालों में खोई कक्षा में बैठी थी कि उसे पता ही न चला कि कब मैडम ने कक्षा में प्रवेश करके हाजिरी लेनी प्रारम्भ कर दी |
दो बार रोल नम्बर पुकारने पर भी जब वह नहीं सुन सकी तो पास बैठी रेणुका ने कोहनी से टोककर उसे संकेत किया था | मैडम पूजा के पड़ोस में रहने के कारण उसे व्यक्तिगत रूप से जानती थी |
तीसरी बार जब उन्होंने पूजा का नाम लेकर पुकारा और सारी कक्षा जोर से हँसी तो जैसे उसकी चेतना लौटी | अपने चारों ओर एक उचटती-सी दृष्टि डाल उसने खड़े होकर हडबडाहट में कहा, “यस सर”
पुनः हँसी का ठहाका सारी कक्षा में गूँज उठा | पूजा इतनी अधिक हडबडा गयी थी कि उसे यह भी ध्यान न रहा कि सामने मैडम है या सर |
“सॉरी! यस मैडम...” उसने झेंपकर अपनी भूल सुधारते हुए कहा था |
“किसके ख्यालों में खोई बैठी हो?” पीछे बैठे हुए शरारती छात्र नरेश ने दबी हुई आवाज में व्यंग्य किया था |
“किया बात है पूजा, कक्षा में तुम्हारा ध्यान नहीं है?” मैडम ने पूछा |
मैडम का प्रश्न सुनकर पूजा को खड़ा होना पड़ा था परन्तु टाँगें लज्जा और घबराहट से काँप रही थीं |
“रात-भर सो नहीं पाती होगी इसलिए दिन में नींद आ रही है |” नरेश ने फिर शरारत से व्यंग्य कसा था |
“नरेश, तुम्हें लज्जा नहीं आती ऐसा बोलते हुए |” उसका व्यंग्य मैडम ने सुन लिया था, अतः उसे डाँटते हुए उन्होंने कहा था |
“मैडम, सितम्बर की परीक्षा समीप आ रही है | शायद रात देर तक पढ़ना पड़ता हो...मैंने तो यही सोचा था |”
अपमान ओर घबराहट से पूजा गिर ही जाती यदि वह अपने स्थान पर न बैठ गयी होती |
“आप वकालत क्यों कर रहे हैं?” मैडम ने उसपर व्यंग्य कसते हुए कहा, “आपसे किसने कहा है वकालत करने को!”
“काश! कोई कह देता |” एक दबी आवाज उभरी |
न जाने मैडम ने सुना या नहीं लेकिन इस विवाद से बचने के लिए उन्होंने उसे आदेश दिया, “बैठ जाओ, फिर कभी ऐसी शरारत न करना |”
नरेश अकड़ता हुआ घमण्ड से अपने स्थान पर बैठ गया, जैसे उसने कोई विजय प्राप्त कर ली हो |
कक्षा का ध्यान पूजा से हटकर मैडम और नरेश की वार्ता पर केन्द्रित हो गया था | परन्तु फिर भी कक्षा में बैठी पूजा के शरीर में रह-रहकर सिहरन-सी दौड़ जाती थी |
मैडम पढ़ाती रही लेकिन अपने ख्यालों में खोई पूजा का ध्यान पढाई में नहीं लग सका | बह बार-बार अपना ध्यान कक्षा में खींचती मगर मन था कि कल्पना की ऊँची उडान भरकर आकाश में उड़ जाता था | स्वयं पर क्रोध भी आ रहा था पूजा को लेकिन न जाने यह कैसे आनन्द की अनुभूति थी जिसे मन छोड़ना ही नहीं चाह रहा था |
उस दिन वह एक बार भी कक्षा में दृष्टि उठाकर देव बाबू को न देख सकी | ह्रदय में चोर छिपा हो तो दिल यही सोचता है कि सारा संसार उसकी चोरी देख रहा है | कुछ ऐसी ही स्थिति पूजा की भी थी | दृष्टि देव बाबू के मुख की ओर उठना चाह रही थी परन्तु मन का वह चोर जैसे उसे नियन्त्रित किए हुए था | उसे लग रहा था जैसे वह धीरे-धीरे एक जाल में फँसती जा रही है...एक रेशमी जाल में, जिसमें से निकलना दुष्कर है परन्तु फिर भी जान-बूझकर इस जाल में फँसना उसने कितना भला लग रहा था!
बड़ी बेचैनी में उस दिन पूजा ने सारी घंटियाँ व्यतीत कीं | उसे बार-बार यही भय लग रहा था कि कहीं कोई प्राध्यापक अथवा छात्र उसकी स्थिति पर व्यंग्य न कर दे | अन्तिम घंटी समाप्त कर वह बाहर आयी तो उसे चैन आया |
रेणुका चुपचाप पूजा के साथ-साथ चलती जा रही थी | पूजा तो जैसे आज गूँगी ही हो गई थी | उससे कुछ भी तो नहीं बोला जा रहा था |
“पूजा...|” रेणुका ने उसे इतना खामोस देखा तो पुकारे बिना न रह सकी |
“हूँ...” संक्षिप्त-सा उत्तर मिला |
“आज इतनी चुप क्यों हो? क्या हुआ है तुझे?”
“कुछ नहीं |” बेमन से कहा पूजा ने |
“तुम्हारी तबियत तो ठीक है?”
“क्यों, मेरी तबियत को क्या हुआ है?” एक हलकी-से मुसकराहट पूजा सप्रयास अपने मुख पर ले आई |
“यह खामोश-सा चेहरा, बिखरे-बिखरे-से उड़ते बाल और किसी गहरी सोच में डूबी हुई तुम्हारी ये आँखें | ऐसा लगता है...|”
“कैसा लगता है?” न जाने कैसे पूजा के मुँह से निकल गया | कह तो गयी थी वह परन्तु मन काँप उठा था कि कहीं चोर पकड़ी न जाए |
“मुझे लगता है, तुम बीमार हो |”
रेणुका ने कहा तो जैसे पूजा की रुकी हुई साँस पुनः चलने लगी | वह आशंकित थी कि न जाने रेणुका क्या कह दे |
“हाँ...मेरे सिर में दर्द है |” बात को समाप्त-सी करते हुए पूजा ने कहा | वह व्यर्थ ही किसी विवाद में नहीं फँसना चाहती थी |
“सिरदर्द है या कुछ और...?” रेणुका उसपर चोट करने से चकी नहीं |
“तुम जो भी समझो |” पूजा के स्वर में झुंझलाहट-सी थी |
“दवा चाहिए?” पूजा के मुख पर दृष्टि जमाते हुए रेणुका ने कहा |
“ले लूँगी |”
“कौन-से डॉक्टर से?”
“एक ही डॉक्टर अच्छा होता है |”
“अच्छा!” उसने मुसकराकर बात समाप्त करनी चाही थी मगर रेणुका कहाँ चुप होने वाली थी |
“मेरी सहायता चाहिए?” रेणुका के स्वर में शरारत झलक रही थी |
“किसलिए?” पूजा पूछ उठी |
“तुम्हें डॉक्टर तक पहुँचाने के लिए...या फिर डॉक्टर साहब को तुम तक लाने के लिए |” रेणुका ने शोखी से कहा |
“मुझे कोई डॉक्टर नहीं चाहिए |” पूजा के स्वर में बनावटी क्रोध साफ झलक रहा था |
“क्रोध न कर मेरी रानी! गुस्सा करने से सिरदर्द और अधिक बढ़ जाता है |”
“बड़ी आई डॉक्टरनी!” कहते हुए पूजा ने उसके दायें बाजू पर चुटकी कटी तो रेणुका अपनी हलकी-से चीख पर काबू न रख सकी | हँसते हुए उसने अपना हाथ छुड़ाया और एक पल को खामोश-से हो गयी |
दोनों कैंटीन के सामने से गुजर रही थीं |
“चाय पिओगी पूजा?” रेणुका ने कहा |
“हूँ...|” इतना ही कह सकी पूजा |
“आओ, तुम्हारे सिर में दर्द भी है | एक प्याला चाय पि लो, नहीं तो रास्ते में किसी से टकरा जाओगी |” फिर वही चपलता लौट आयी थी रेणुका के स्वर में |
बिना कुछ कहे पूजा उसके साथ कैंटीन में जाकर बैठ गयी | कॉलिज की छुट्टी हो चुकी थी इसलिए वहाँ अधिक भीड़ नहीं थी | अधिकतर सीटें खली पड़ी थीं |
“पूजा, आज तुम्हें क्या हो गया था?”
“कब?”
“मैडम की घंटी में |”
“झपकी आ गयी होगी |” मुसकराहट-भरा किसी तीसरे का स्वर सुनकर दोनों चौंके बिना न रह सकीं | पीछे मुड़कर देखा तो सामने देव बाबू खड़ा मुस्करा रहा था |
कैंटीन में प्रवेश करते-करते देव बाबू ने उन दोनों की बात सुनकर मुस्कराते हुए कह दिया था |
“आइए देव बाबू |” रेणुका ने उसे निमन्त्रण दिया |
मुसकराते हुए वह उन दोनों के पास रखी हुई कुर्सी पर बैठ गया |
“आप चाय लेंगे?” रेणुका ने ही पूछा | पूजा की तो जैसे आवाज ही छिन गयी थी |
“कॉफी तो यहाँ मिलती नहीं; स्पष्ट है चाय लूँगा |” मुसकराकर एक दृष्टि पूजा को देखते हुए उसने कहा |
कुछ देर को उस मेज पर ख़ामोशी-सी छायी रही | न जाने क्यों देव बाबू को अपने समक्ष पाकर पूजा कुछ घबरा-सी गयी थी | ऐसा पहली बार ही तो नहीं हुआ था | इससे पहले भी तो यह स्थिति कई बार उत्पन्न हो चुकी थी | देव बाबू से मिलने, उनसे बातें करने का वह बहाना तलाश करती रहती मगर जब कभी बात करने का अवसर मिलता तो घबराकर इधर-उधर देखने के सिवा वह कुछ भी न कर पाती | मन में उठे विचार अनकहे ही समाप्त हो जाते और आँखें लज्जा से झुककर रह जातीं |
“पूजा जी...” देव बाबू की आवाज सुनकर पूजा की दृष्टि उसकी ओर उठ गयी |
“यदि आप अन्यथा न लें तो एक बात पूछूँ?”
सुनकर घबराहट से एक बार पूजा काँप उठी | मन का चोर फिर उभर गया | न जाने देव बाबू क्या पूछ बैठें? मन आशंकित था परन्तु फिर भी औपचारिकता से उसे कहना ही पड़ा, “पूछिए |”
“कुछ दिनों से मैं देख रहा हूँ की आप बहुत उदास-उदास-सी रहने लगी हैं | प्रारंम्भ में जब मैंने आपको देखा तो आपका चेहरा इतना गम्भीर न था | एक मुसकराहट रहती थी इस चेहरे पर | क्या कोई ऐसी पारिवारिक समस्या है? अथवा आपका स्वास्थय ठीक नहीं है?”
“जी नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है |”
“तो फिर क्या बात है |”
कितना अपनत्व-सा लगा था पूजा को उस शब्दों में |
“कोई बात नहीं है देव बाबू | आपको ऐसे ही लगता है |” इसके सिवाय वह कहती भी क्या? कहना तो चाहती थी अपने मन का हाल परन्तु दिल की बात कभी इस तरह तो नहीं कही जा सकती | बीमार करने वाला स्वयं रोगी से पूछे कि उसे क्या बीमारी है...इससे बढ़कर और क्या बीमारी हो सकती है! सोचकर पूजा के अधरों में मुसकराहट उभर आयी थीं |
“आप ही कोई डॉक्टर बताइए ना देव बाबू |” अब तक चुप बैठी रेणुका अब और चुप न रह सकी |
पूजा का मन फिर आशंका से धड़क उठा |
“किस बीमारी की लिए? क्या पूजा सचमुच बीमार है?” देव बाबू की आवाज में आश्चर्य था |
“बताना पूजा, तुम्हें क्या बीमारी है?” पूजा की तरफ देखते हुए उसी शरारत-भरे स्वर में रेणुका ने कहा |
“में क्या बताऊँ!” उसकी शरारत पर पूजा भी एक बार मुसकराए बिना न रह सकी |
“तो मैं ही बताती हूँ देव बाबू | लगता है इन्हें दिल का...”
मन के किसी कोने में खुशी तो हुई लेकिन क्रोध भी आया पूजा को रेणुका पर और उसने उसका पाँव अपने पाँव से कुचल दिया |
“क्यों, इसमें झूठ क्या है? सच तो...”
“हाँ | सच तो यह है कि मुझे दिल का दौरा पड़ता है और एक दिन मैं मर जाउंगी |” पूजा जानती थी कि बहुत चंचल है रेणुका | न जाने वह क्या कह देगी, इसलिए उसकी बात को काटकर एक हल्की-से हँसी से बात को समाप्त कर दिया उसने |
देव बाबू कभी पूजा को और कभी रेणुका को देख रहा था |
‘बुरा न मानिए देव बाबू, रेणुका को कुछ अधिक ही बोलने ही आदत है |” पूजा ने कहा |
“हम तो चुप होने की भी फीस लेते हैं |” वही चंचल स्वर था रेणुका का |
“बोल क्या फीस लेगी?” पूजा ने भी हँसी-हँसी में बात को मोड़ देने के लिए कहा |
“पहले वचन दो |”
“दिया |” हँसकर हाथ रेणुका के हाथ पर रख दिया पूजा ने |
“देखिए देव बाबू! आपके सामने वचन दिया है पूजा ने |” रेणुका ने गवाही के लिए देव बाबू को भी बीच में घसीट लिया |
“जी हाँ, समय आने पर मैं गवाही दे दूँगा |” रेणुका की चंचलता पर देव बाबू को भी अपनी हँसी रोकनी कठिन लग रही थी |
“ठीक है, हम भी समय आने पर अपना वचन माँग लेंगे | अपने वचन के अनुसार अब मैं मुँह नहीं खोलूँगी |”
“तो फिर चाय कैसे पिओगी?” देव बाबू ने कहा तो पूजा हँसे बिना न रह सकी मगर रेणुका अपने होंठों पर खामोशी ला चुकी थी |
कैंटीन का नौकर आया और चाय के प्याले रखकर चला गया | मेज पर छायी उस खामोशी के मध्य तीनों चाय के घूँट भरने लगे |