सपनों के ज़रूरी पंखों पर सवार लड़की Surendra Raghuwanshi द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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सपनों के ज़रूरी पंखों पर सवार लड़की

बादल
।।।।।।।

सिर्फ़ दूर होने से
धरती से अलग नहीं हो जाता बादल

जब भी सघन होती है
स्मृतियों की उमस
वह मूसलाधार बारिश करता है
धरती पर प्रेम की

इस तरह वह धो देता है
मन की झाड़ियों पर जमी
उदासी और भ्रम की धूल
और उमंग की पत्तियों को
और भी हरा बना देता है-
सुरेन्द्र रघुवंशी

विबाइयों का गठजोड़
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

ये जो अश्वमेघी घोड़ा जा रहा है व्यवस्था का
संवेदनाओं की धरती पर
कुचलते हुए मनुष्यता को
उसकी पूँछ पकड़कर घिसटते हुए
मानते रहो खुद को सौभायशाली

इस ताक़तवर अश्व की टापों से उड़े
धूल के गुबार को अपनी आँखों में
आमन्त्रित करते हुए ख़ुशी मनाओ।

तुम्हें दर्ज़ होना है उनकी मान्यता और सहमतियों में
किसी ताम्र पत्र में अपना नाम अंकित कराने के लिए
गला फाड़कर जयघोष करो बारम्बार
और लीद उठाते हुए चलते रहो

मुझे इन सूखे खेतों की बढ़ती दरारों
और नंगे पांवों की फटी विबाइयों का गठजोड़
अपनी और आकर्षित करते हुए
अपनी कहानी कहता है सविस्तार
जिसे मैं दुनिया को सुनाया करता हूँ-
सुरेन्द्र रघुवंशी

क्यों नहीं
।।।।।।।।।

महोदय आपके आने के निर्धारित समय से
एक घण्टा पहले ही लोग आ गए सभा स्थल में
हालांकि आप आये समय से भी दो घंटे लेट
पर जनता थी कि डटी रही
प्यास के रेगिस्तान में पसीने में नहाती हुई

तुम दिल्ली से चलते हो वे आसमान में तुम्हें ढूंढते हैं
तुम्हारा हेलिकॉप्टर जब लेंड करता है
उनके दुर्भाग्य के पठार पर
तब धूल और कंकड़ों का गुबार
जनता अपनी आँखों में आमंत्रित करती है
अंधे होने की जोख़िम उठाते हुए

तुम एक कदम उनकी ओर बढ़ाते हो
वे तुम्हारी एक झलक पाने के लिए
भीड़ में कुचलकर मारे जाने से नहीं डरते
तुम्हारे सम्मोहन में पागल होकर
वे गला फाड़ने की हद तक तुम्हारी जयकार करते हैं
बूढ़े तक लोट जाते हैं तुम्हारे चरणों में

तुम हाथ हिलाकर अभिवादन करते हो
वे तुम्हारे यशगान से आकाश को भर देते हैं
तुम हल्का सा मुस्कुराते हो मंच से
वे कहते हैं दयालुता की पराकाष्ठा है ये

तुम मंच से वादों की बरसात करते हो
वे विश्वास की नदी बहा देते हैं
तुम फिर लौट जाते हो फिर सत्ता में
हर बार की तरह आसानी से
वे फिर रह जाते हैं अभावों के रेगिस्तान में
समय के सूरज से मोम की तरह पिघलने हेतु

मौसम हैरान है यह दृश्य बार-बार देखकर
कि इस रेगिस्तान में क्यों नहीं चली विरोध की आँधी ?
क्यों नहीं उगे विद्रोह के असंख्य कंटीले मज़बूत झाड़ ?
सुरेन्द्र रघुवंशी

तुमसे मिलते हुए
।।।।।।।।।।।।।।।

तुम्हें देखकर लगता है
कि दुनिया की चमक अभी कम नहीं हुई है
घिसे नहीँ हैं अभी भी विश्वास के सभी वर्तन
कि ख़ुशी होती है पर्वतों से भी ऊँची

हर बार तुम्हारी आँखों में उगते दिखाई देते हैं
उम्मीदों के अनन्त सूरज
जिनके साथ विचारों के सिन्दूरी आसमान में
तुम्हारी मुस्कुराहट का विस्तार है

तुम्हारे आगमन की खबर
खुशियों की नदी में बदल जाती है
तुमसे मिलना किसी साम्राज्य को प्राप्त कर लेना है

तुम्हारे मुलायम सुन्दर हाथों के स्पर्श से
हजारों अश्व शक्ति की ऊर्जा का संचार होता है
आभाव के गड्ढों को कौन देखता है
प्रेम में दौड़ते हुए लक्ष्य विहीन

विभाजन की दीवारों को ढहाते हुए
तुम गाती हो समता और सरसता के गीत
इस कोलाहल भरे विरुद्ध समय में
कानों को जिनकी सबसे ज्यादा ज़रूरत है-
सुरेन्द्र रघुवंशी

शहर से बहिष्कृत
।।।।।।।।।।।।।।।।

मेरा आगमन शहर की छाती पर
अतिक्रमण के पॉव थे
शहर की अनिच्छा जिसे असंगत बताती रही

काँच सी चिकनी सड़कें
मुझे इन्द्रपुरी की कथा की याद दिलाती थीं यहीं आकर सार्थक हो रहे थे
सफाई के विविध नारे

मेरी मन की निर्मल झील को अनदेखा कर
फटी पुरानी कमीज़ को इंगित कर
लोग मुझे गन्दा कहे जा रहे थे

आँखों के द्रव्य को देखने वाली दृष्टि
मर गई थी अल्पायु में ही
और लोग दृष्टि सम्पन्नता का पुरस्कार पा रहे थे

मैं शहर के स्वप्न लोक के
आकर्षक किस्से सुनकर
अपने खेत छोड़कर चला आया शहर मे
पर शहर खड़ा था तराजू लेकर
और मेरे पास कोई बजनी बाँट नहीं था

शहर मुझे धकिया रहा था
गरिया रहा था नाक भौहें सिकोड़कर
मैं भी शहर से बाहर निकलने का रास्ता
तलाश रहा था चौन्धयायी आँखों से
पर वह मुझे मिल नहीं पा रहा था-
सुरेन्द्र रघुवंशी

जब हिलते हैं पेड़
।।।।।।।।। ।।।।।।

एक पैर पर खड़े होकर दिन- रात जागते हैं पेड़
वे रेंगते हैं धरती के भीतर अपनी जड़ों से
दौड़ते हैं बूँद-बूँद पानी के पीछे
और ऊपर आकाश से थमे रहने की अपील करते हैं

सोते नहीं हैं पेड़ कभी
कि हारे-थके पंक्षी लौट रहे हैं उड़ान से
जिनके लिए पेड़ों के पास मज़बूत कंधे हैं

पेड़ अनगिनित आँखों से देखते समय की क्रूरता
और धिक्कार में झरा देते हैं पीली पत्तियां

वे अपने फूल, फलों और छँव तक
सबको पहुंचने की आज़ादी देते हैं
और इसीलिए खड़े हैं खुले आसमान के नीचे

पतझड़ में खड़े रहते हैं दिगम्बर और सूखे
पर समन्दर से पानी मांगने नहीं जाते
हाँ अपने स्वाभाविक हक़ के लिए
वे निसंकोच ललकारते हैं बादलों को

जब हिलती है धरती
तो सबसे पहले काँपकर आगाह कर देते हैं पेड़
और जब हिलते हुए झुकते हैं पेड़ एक कोंण से ज्यादा
तब आ जाता है भूकम्प-
सुरेन्द्र रघुवंशी

बरगद आदमी
।।।।।।।।।।।।।
कहानी बीजांकुरण से शुरू होती है
और इसे शुरूआत इसलिए कहेंगे
कि अपने अंकुरण के लिए बीज ने वर्षों तक
तपती धूल में दबे रहकर भी
हारकर मरे बिना बरसात की प्रतीक्षा की है

फिर संकल्प की धरती पर
बारिश को तो होनी ही होती है देर सवेर
बीजांकुरण पौधे से मज़बूत पेड़ तक का
सफर तय करता है

आदमी बरगद है
जो दुनिया की धरती पर निरंतर फैलता है
समय के आकाश के नीचे
पल्लवित ,शाखाओं में विभक्त और विशाल

जर्जर होकर कहीं से ख़त्म होता है बरगद
पर ठीक उसी वक़्त होता है पुनर्जीवित भी
अपने तनों की लड़ियों को
पत्तियों के संसार से धरती की यात्रा कराता है
फिर समानांतर कई तने विकसित करता है
यही स्वनिर्मित दुनियावी सहारे हैं
और अन्ततः यही हमें बचाते हैं

आदमी बरगद है
न रोपा जाता किसी बगीचे में
न सम्हाला जाता मालियों द्वारा
और न ही सुरक्षित रखने के लिए
किसी सुनियोजित और चर्चित जल तंत्र द्वारा
सींचा जाता उसे

पर वह स्थानांतरित होता है
एक तने से दूसरे तने में
एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में
और तना रूपांतरित होता है जड़ों में

यह ख़ुशी का चमकदार विषय है
कि आदमी बरगद है
बरगद है बिल्कुल आम और साधारण आदमी
इस हद तक बरगद
कि व्यवस्था की तूफानों से
गठबंधन कर चुकी षड्यंत्रकारी आँधी भी
उसको ध्वस्त नहीं कर सकती।-
सुरेन्द्र रघुवंशी

पिरामिड में हम
।।।।।।।।।।।।।।

पिरामिड के आधार पर हम हैं
अधिसंख्य कीड़े मकोड़ों की तरह लावारिश
रेंगते और टकराते हुए परस्पर अर्धमूर्छित से

दिशाहीन और कानों के कच्चे सीधे- सच्चे
भूमि पुत्र हम धूल धूसरित अर्धनग्न तन
और महोदय आप हवा के पैरोकार हो
पिरामिड के शीर्ष पर गिने चुने
साफ़ सुथरे , उजले चिकने धुले पुछे

देश की बैंकों को लूटकर दिन दहाड़े
नौं हज़ार करोड़ के डाके की रकम लेकर
हवाई जहाज में बैठकर भाग जाते हो विदेश
और हम घर और खेत की बिजली का बिल भी
न भर पायें तो जेल जाएँ अपराधी बनकर

हवा से तुम्हारा पुराना रिश्ता है
तुम आसमान में उड़ने वाले हवापुत्र हो
तुम सम्मानित और समरथ हो
दोषरहित तुम हम ही दोषी
जय हो जय हो जय हो

व्यवस्था के गठजोड़ से आनन्द विभोर हो
तुम मूतते हो पिरामिड के शीर्ष से
और खारेपन के उन छींटों को
ज़रूरी बताया जाता है हमारे उद्धार के लिए-
सुरेन्द्र रघुवंशी

उतरना विश्वास के तहखाने में
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

यही सबसे मुश्किल है
कि मन के सुन्दर संसार तक हो ही नहीं पाती
अक्सर लोगों की ज़रूरी पहुंच
वहां छायादार और फलदार हरे- भरे पेड़
यूं ही खड़े रहते हैं उपेक्षित

गलतफहमियों की ऊंची दीवारें रोकती हैं उन्हें
भीतर के सारे दृश्य अदृश्य रह जाते हैं
दुष्प्रचार की आंधी आँखों में भ्रम की किरकिटी भरती है
तब जबकि आँखों की दृष्टि बाधित हो गई हो
कहीं भी टकराने और गिर जाने का
खतरा बना ही रहता है हर पल
रास्ते कहीं और रह जाते हैं प्रतीक्षारत
कदम चल पड़ते हैं बीहड़ों में, खाइयों की ओर

यदि हम उतरते एक- एक सीढ़ी उनकी ओर
विश्वास के तहखाने में धीरे- धीरे
तो मन के रसायनों का विलयन संतृप्त हो सकता था
बल्कि यह सब हो सकता है अब भी-
सुरेन्द्र रघुवंशी

जड़ता
।।।।।।

वह बहुत असुन्दर बनाती है दुनिया को
साफ़ सुथरे झाड़ू लगे जीवन के मैदान में
वह अनावश्यक और अनामंत्रित
बबंडर की तरह आती है और कचरा फैलाती है

वह विवेक की दोनों सुन्दर आँखों को
ज़िद की नाखूनों युक्त उंगलियों से फोड़ती है
वह संवेदनाओं को चबाती है नुकीले दांतों से

ज्ञान की किताबों के लिए वह पाठक नहीं
बल्कि दीमक है जो उन्हें खाती है कुतर कर
वह कुतर्कों के हथियारों से लैस है
और तर्क की आवाज के लिए बहरी है

सृजन के बीजों को एकत्र कर
वह उन्हें विध्वंस के दावानल में
जला देना चाहती है-
सुरेन्द्र रघुवंशी

स्वप्न में देश
।।।।।।।।।।
बहुत थकान के बाद रात में गहरी नींद आई
और नींद की सुरंग से आया एक स्वप्न
कि देश एक टापू में बदलता जा रहा है
जिसके सूरज को एक राक्षस ने निगल लिया
सारे वाद्ययंत्र समुद्र में फेंक दिए गए
संगीतकार और गायक बेरोजगार हो गए

अँधेरे में अट्टहास करते फिरते हैं
अनगिनित भयानक आकृतियों वाले दैत्य
लोग अपनी जान बचाकर छिपे हैं इधर-उधर
दैत्यों की आँखें और बड़े दांत चमक रहे हैं

कुम्भकर्णी पैरों से कुचल देना चाहते हैं जन को
चीटियों की तरह
कि आखिर चीटियों की औकात ही क्या है

दैत्य व्यवस्था के सक्षम ताक़तवर रक्षक हैं
उनके हाथों में तरह- तरह के अस्त्र- शस्त्र हैं
वे हाथी, घोड़े और रथों पर सवार हैं
सबसे आगे उनके ध्वजवाहक असवार चल रहे हैं
उनके जयघोष से दुकी- छिपी जनता के
कानों के पर्दे फ़टे जा रहे है
घोड़ों की टापों से कुचला जा रहा है विश्वास
और संवेदनाएं धूल बनकर उड़ गईं

जनता शरणागत होते हुए प्राण रक्षा में
त्राहिमाम्-त्राहिमाम् कहते हुए धरती पर लेटी है
जो भी प्रतिरोध में उठकर खड़ा होता है
उसे मार दिया जाता है

आकाश से पानी की जगह अंगारे बरस रहे हैं
दिशाओं से हवा की जगह तीर सनसना रहे हैं
दूव के स्थान पर धरती पर उग रहे हैं कांटे
गर्मी से पक्षियों के अण्डे जल रहे हैं घोंसलों में
प्यास से त्राहि- त्राहि कर रहे हैं भयातुर जन

रात बहुत लम्बी हो गई सपना जारी है
लोग फुसफुसा रहे हैं अपनी कंदराओं में
कि एक साथ उठकर टूट पड़ो राक्षस पर
और छीन लो उससे अपना सूरज
जिससे भयानक रात का ख़ात्मा कर
आ जाये अपना सुखद दिन-
सुरेन्द्र रघुवंशी

सपनों के ज़रूरी पंखों पर सवार लड़की
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

गोबर लिपी दीवारों वाले घर के चबूतरे पर
लड़की अपने यौवन के स्वर्णिम सपनों के
अनन्त आकाश में उड़ रही है
सपने में उड़ान का आनंद ही अलग है
अलग है प्रेम की कल्पनाओं का सुन्दर संसार

लड़की के सपनों में प्रभात का सिन्दूरी आकाश है
लड़की चिड़िया है असीम आकाश के
नीलेपन में ऊंची उड़ान भरती हुई

जीवन की बाधाओं को
इस तरह ही ऊंची उड़ान से पार किया जा सकता है
जितने ऊँचे उठो विभाजक दीवारें उतनी ही बौनी लगती हैं
और एक ऊँचाई पर जाकर
अदृश्य ही हो जाती हैं सारी निरर्थक दीवारें


सियारों की अनुपयोगी और पुरातन
हूँ-हूँ पंचायत को अनसुना कर
लड़की सुन रही है प्रकृति की बांसुरी में
वक़्त की हवा की मधुर तान
और वह चाहती है कि सारी दुनिया सुने यही धुन

लड़की सोचती है
जैसे उसने तोड़ दीं प्रेम में दीवारें
वैसे काश ! सारी दुनिया भी तोड़ दे
और निर्बाध दौड़ के लिए और विस्तृत हो जाये ये सुन्दर हरीतिमा भरा मैदान ।-
सुरेन्द्र रघुवंशी