समय का पहिया भाग - 7 Madhudeep द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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समय का पहिया भाग - 7

समय का पहिया

भाग . ७

अनुक्रम

१.रात की परछाइयाँ

२.रुक्मिणी7हरण

३.वजूद की तलाश

४.विषपायी

५.वोट में तब्दील चेहरा

६.शोक7उत्सव

७.सन्नाटों का प्रकाश पर्व

८.समय का पहिया घूम रहा है

९.साठ या सत्तर से नहीं

१०.हड़कम्प

११ हाँ, मैं जीतना चाहता हूँ

रात की परछाइयाँ

इस बार चुनाव आयोग का डण्डा कुछ ज्यादा ही तेजी से घूमा। कोई जुलूस नहीं, कोई धूम.धड़का नहीं, दीवार पर पोस्टर भी नहीं। बस चौपालों पर छोटी.छोटी सभाएँ, जैसे ये विधानसभा के चुनाव ना हो कर ग्राम पंचायत के चुनाव हों।

अब वोट पड़ने में सिर्फ सात घण्टे शेष रह गए हैं। वह झुग्गी झोंपड़ियों का छोटा से इलाका है मगर वोट यहाँ बेहिसाब ठुसे पड़े हैं। पूरे इलाके में मरघटी सन्नाटा छाया हुआ है मगर कुछ परछाइयों की बेचैन चहलकदमी और फुसफुसाहटें इस सन्नाटे को तोड़ने की कोशिश में हैं।

परछाइयों की पदचाप चारों ओर फैलती जा रही हैैै। असली चुनाव प्रचार जोरों पर है। भरे हाथ परछाई हर झुग्गी में घुस रही है और आश्वस्त कदमों से लौट रही है।

रात के गहराने के साथ साथ परछाइयों की तेजी और बेचैनी बढ़ती जा रही थी मगर पौ फटते ही न जाने कहाँ दुबक गई हैं।

सुबह के दस बज रहे हैं। सूरज आसमान में काफी ऊपर आ चुका है। इलाके के पोलिंग बूथ पर एक विकट स्थिति पैदा हो गई है। वोटिंग के लिए लम्बी लाइन लगी है....लाइन में लगे बहुत से वोटर नशे में झूम रहे हैं.....हुड़दंग का अन्देशा बढ़ता जा रहा है.....।

चुनाव अधिकारी बेचैन है....वह बार.बार मोबाइल के बटन दबा रहा है.... बार.बार सूचना दी जा रही है....व्यवस्था बनाए रखने के लिए अतिरिक्त फोर्स की गाड़ियाँ सायरन बजाती हुई तेजी से आ रही हैं....।

रात की परछाइयाँ चिन्ता में डूबी, बेचैन तथा सहमी हुई एक तरफ खड़ी हैं।

रुक्मिणी.हरण

बात पहले पहल दो परिवारों के होठों पर ही थी। कल रात पड़ोस के दो बालिग 1लव बडर्स1 अपने परिवारों की तथाकथित मर्यादा की धज्जियाँ उड़ाकर न जाने आसमान के कौन से हिस्से में ऊँची उड़ान भर गए।

कुल्हड़ी में गुड़ कहाँ तक फूटता! सुबह ही बात फैलने लगी तो गली.समाज की पंचायत जुड़ी। सभी 1लव बडर्स के कृत्य की भर्त्सना तो कर रहे थे मगर एक बात पर सभी सहमत थे कि समय के पहिए को लौटाया नहीं जा सकता इसलिए दोनों परिवारों की भलाई और इज्जत इसी में है कि उनके सम्बन्ध को समाज सम्यक् मान्यता प्रदान कर दी जाए।

4ऐसा कैसे होंने दें! लड़के ने हमारी लड़की को भगाकर हमारे मुँह पर कालिख पोती है, वह क्या ऐसे ही धुल जाएगी!3 गली.समाज की पंचायत में विरोध का यह सबसे मुखर स्वर लड़की की माँ का था।

विरोध के मध्य गली समाज की पंचायत अनिर्णीत समाप्त हो गई।

शाम को गली.समाज की पंचायत ने देखा7 मन्दिर में इन दिनों चल रही भागवत कथा के रुक्मिणी.हरण के भव्य जुलूस में लड़की की माँ सबसे आगे ठुमके लगाते हुए नाच रही थी।

वजूद की तलाश

आज तीस वर्ष बाद शहर से गाँव लौटा हूँ। इस गाँव के गली.कूचों से मैं अच्छी तरह परिचित हूँ। मैं इसी गाँ में पैदा हुआ और जीवन के शुरू के सोलह साल मैंने यहीं गुजारे हैं।

गाँव ने खूव तरक्की की है मगर गलियाँ अभी भी ईंटों के खड़ंजे की हैं। कुछ गलियाँ कच्ची भी हैं मगर मकान, जो पहले एक मंजिले हुआ करते थे अब दो.दो, तीन. तीन मंजिल के हो गए हैं।

गाँव के छोटे से बाजार को पार कर मैं जिस गली की ओर मुड़ रहा हूँ उसके नुक्कड़ पर ही मेरी मंजिल हैं। दोनों ओर के मकानों को देखता हूँ, सब कुछ तो बदल गया है। किसी परिचित की तलाश में आँखें भटक रहीं है। ये सभी घर अपनों के ही तो हुआ करते थे। इन्हीं घरों के आँगन में मेरा बचपन गुजरा है....सभी तो अपने थे। अब वे सब कहाँ हैं?

यकायक एक दो मंजिले मकान के सामने मेरे पाँव ठिठक जाते हैं। हाँ, यह वही जगह तो है मगर सब बदला हुआ क्यों लग रहा है? यही तो था, हाँ, बिल्कुल यही। बदलने से सारी पहचान तो नहीं बदल जाती है!

1अरे! यह सामने कौन चला आ रहा है? शक्ल तो जानी पहचानी लग रही है।1

4किसे तलाश रहे हो भाई!3 वह सहसा पूछता है।

4खुद को तलाश रहा हूँ प्रेम भाई!3 अपना नाम सुन कर वह चौंकता है और मेरे चेहरे में किसी परिचित को तलाश करने लगता है।

मैं बिना कुछ कहे मुड़कर चलने लगता हूँ मगर उसने पीछे से मेरे काँधे पर हाथ रख दिया है।

4मैंने पहचान लिया दीप भाई!4 वह कहता है तो मैं अन्दर तक भीग जाता हूँ।

मुझे लगता है, मेरी तलाश पूरी हो गई है।

विषपायी

बात उन दिनों की है जब 1लव जिहाद1 शब्द पूरी तीव्रता से देश की हवाओं में फैल रहा था। हाँ, यह बात और है कि देश का गृहमन्त्री इस शब्द से बिल्कुल अनभिज्ञ था।

रामचन्द्र शर्मा के घर की बैठक में उनका पूरा परिवार एकत्रित था। आसन्न संकट से वहाँ सन्नाटा पसरा हुआ था। निखिल और जुवैदा सबके सामने सिर झुकाए बैठे थे।

4मैं निखिल को अपने दिल की गहराइयों से प्यार करती हूँ।3 जुवैदा की जुबान खुली तो सन्नाटा और अधिक गहरा गया।

4मैं जानता हूँ, बेटी!4 रामचन्द्र की निगाहें खिड़की से बाहर झाँक रहीं थी।

4मैं इसके लिए अपना धर्म भी बदलने के लिए तैयार हूँ।3 जुवैदा के शब्दों में थोड़ी मजबूती थी।

4मैं सच्चा हिन्दू होने के नाते इसकी इजाजत नहीं दे सकता, बेटी!3 रामचन्द्र की आवाज बुझी हुई थी।

4तो मैं अपना धर्म बदल लेता हूँ।3 निखिल की आवज पर सबकी निगाहें उधर ही खिंच गईं थीं।

4नहीं निखिल, यह नहीं हो सकता।3 जुवैदा प्रतिवाद कर उठी।

4क्यों नहीं हो सकता?3 निखिल ने प्रश्न उठाया।

4धर्म के ठेकेदारों के लिए तो यह 1लव जिहाद1 ही होगा ना, चाहे दूसरी तरह का ही क्यों न हो।4

जुवैदा के शब्दों की दृढ़ता ने रामचन्द्र के साथ ही वहाँ उपस्थित सभी को चौंका दिया।

4तो फिर....?3 रामचन्द्र और निखिल दोनों की प्रश्न भरी दृष्टि एक साथ जुवैदा पर टिक गई।

थोड़ी देर तक चुप्पी छाई रही। प्रश्न यूँ ही हवा में टंगा रहा।

4हमे थोड़ा इन्तजार करना होगा, निखिल।3

4कब तक....?3

4इस जहर भरी आँधी के उतरने तक....ठण्ड़ी बयार आने तक।3

4क्या यह कभी होगा?4.....क्या इस जहर को पीने कोई नीलकण्ठ आएगा?3 निखिल की दृष्टि सामने की दीवार पर लगे कैलेण्डर पर टिक गई थी।

4नहीं निखिल, कोई नीलकण्ठ नहीं आएगा। हमें खुद ही अपना नीलकण्ठ बनना होगा। हमेंं खुद ही जहर पीना होगा। न केवल पीना होगा, पचाना भी होगा। विश्वास रखो, यह जहर ही हमारे जीवन के लिए अमृत बनेगा।3

कह कर जुवैदा तेजी से उठी और मजबूत कदमों से दरवाजे से बाहर निकल गई। रामचन्द्र और निखिल दोनों की निगाहें उसकी पीठ से चिपककर रह गई थीं।

वोट में तब्दील चेहरा

नेताजी पदयात्रा पर थे। गले में फूलों की कई.कई मालाएँ। हाथ प्रणाम की मुद्रा में जुड़े हुए और चेहरे पर असली.नकली मुस्कान। पीछे.पीछे चमचों का हुजूम। इसे जुलूस तो नहीं कहा जा सकता, हाँ यह एक बड़ी जनसम्पर्क रैली अवश्य थी।

अब यह पदयात्रा मोहल्ले में प्रवेश कर पहली गली के मुहाने पर खड़ी थी। एक चमचा नेताजी के कान में फुसफुसाया7मकान नम्बर एक...रामदीन....उम्र सत्तर साल...वोट नम्बर एक सौ पाँच....

1वोट नम्बर एक सौ पाँच...1 भीड़ के शोर में नेताजी इतना ही सुन सके। रामदीन के सामने उनका सिर प्रणाम की मुद्रा में जुड़े अपने हाथों पर झुक गया।

शोक उत्सव

सेठ पन्नालाल छह दिन पहले चलते.फिरते अचानक ही गोलोकवासी हो गए। वैसे वे अपने पीछे भरा पूरा खुशहाल परिवार छोड़ गए हैं। पड़पोते ने अर्थी पर उन्हें सोने की सीढ़ी भी चढ़ाया था।

आज रविवार है। परिवार शोक मनाने के लिए एकत्रित हुआ है। पन्नालाल की विधवा जानकीदेवी के मायके से उसके भाई.भाभियाँ, बहने.बहनोई तथा कुटुम्ब के अन्य लोग विशेष तौर पर आए हैं। पन्नालाल के तीनों बेटों.बहुओं, बेटियोें.दामादों के साथ पूरा परिवार पंचायती बड़ी धर्मशाला में मौजूद है।

बहुत ही गमगीन और बोझिल वातावरण है। बाहर से जब भी कोई स्त्री अन्दर आती है तो वह रोते हुए जानकीदेवी की तरफ बड़ती है और उन दोनों का सामूहिक रुदन वातावरण की बोझिलता को अधिक गहरा कर देता है।

दोपहर का एक बज चुका है। हॉल पूरा भरा हुआ है। अब वहाँ रुदन के स्थान पर फुसफुसाहटें उभर रहीं हैं। कुछ ऊब भी पसरने लगी है। तभी नाइ पानी से भरा लोटा भीड़ के बीच घुमाने लगा है। वहाँ मौजूद हर स्त्री पुरूष उस लोटे में सिक्का डालता है और अपनी दो उंगलियाँ पानी में भिगोकर आँखों से लगा रहा है। वह शायद शोक प्रर्दशन का अन्तिम चरण है। इसके बाद माहौल बोझिलता की जकड़न से बाहर आने लगा है। फुसफुसाहटें बढ़ रहीं हैं।

सफेद मलमल के कुर्ते और धोती पहने परिवार के लोग सभी से मुँह जूठा करने के लिए साथ के हॉल में चलने का आग्रह कर रहे हैं।

मेजों पर खाना लग चुका है। पूरी.कचौरी, मटर.पनीर, दम आलू, सीताफल की लजीज सब्जी के साथ दही.बड़े भी हैं। गुलाबजामुन की ट्रें के साथ ही बर्फी और इमरती की ट्रे भी सजी हैं। इस समय सभी के चेहरों से विषाद हट चुका है। वे चटखारे लेकर खाना खा रहे हैं। खाना बनाने वाले हलवाई की प्रशंसा कर रहे हैं। कुछ उसका पता भी नोट कर रहे हैं।

अब लोग खाना खाकर आपस में हँसते.बतियाते हुए धर्मशाला से बाहर जा रहे हैं। पन्नालाल की विधवा जानकीदेवी गुमसुम बैठी सूनी आँखों से सभी जाने वालों को देख रही है।

सन्नाटों का प्रकाशपर्व

दशहरा बाद के बीस दिन जैसे नीले घोड़े पर सवार होकर उड़े जा रहें थे। बंगलो में हो रही साफ सफाई और रंगाई.पुताई ने सूचित कर दिया था कि प्रकाशपर्व नजदीक आ गया है। जे.के. व्हाइट सीमेण्ट वाली वाल पुट्ठी तथा एशियन पेंट से दीवारें बोल उठी थीं मगर सभ्रान्त कॉलोनी की इन दीवारों के बीच पाँच आशियानें ऐसे भी थे जिनकी दीवारें वषोर्ं से बोलना भूल गई हैं। इनके वारिस अपने बुजुर्गों को देश में अकेला छोड़ विदेशों में जा बसे हैं।

ये बुजुर्ग सुबह की सैर से लौटकर ऊँचे परकोटों से घिरे अपने अपने आलीशान बंगलों के लॉन में पड़ी आरामकुर्सियों में पसरे एकटक सामने देखते रहते हैं। माली की खुरपी चलती रहती है और गेट पर दरबान मुस्तैद खड़ा रहता है, मगर उनकी तरफ इनका ध्यान नहीं होता। इनका दिन तो तब आगे बढ़ता है जब गेट से कामबालियाँ प्रवेश करती हैं। साफ सफाई होती है, चाय.नाश्ता मिलता है और दोपहर का भोजन पैक होता है। कुछ देर सन्नाटा टूटता है मगर बेताल की तरह आकर फिर पसर जाता है।

इन बुजुगोर्ं के लिए दिवाली दशहरे का कोई अर्थ ही नहीं रह गया है। विदेशों से अपनों की फोन कॉल्स, 1हाय हलो1, 1हैप्पी दिवाली1, 1हैप्पी दशहरा...1 और बस....! ये सभी शरीर से बिल्कुल स्वस्थ लगते हैं मगर एक टूटन भरी थकान इनके पोर.पोर में भरती जा रही है। ये पाँचों प्रतिदिन आपस में मिलते हैं, लम्बी.लम्बी गप्पे मारते हैं, अपनी अपनी.जवानी की यादें दोहराते हैं मगर इस थकान को अपने से अलग नहीं कर पाते।

आज दिवाली की प्रभातवेला में जब ये पाँचों सुबह की सैर के बाद एक परकोटे के लॉन में पड़ी कुर्सियों में जाकर धंस गए तो उस परकोटे की ऊँची दीवारें बहुत देर तक फुसफुसाहटें सुनती रहीं। अपने.अपने मालिकों के परकोटे को बन्द पाकर वे पाँचों कामवालियाँ जब इस परकोटे में पहुँची तो वहाँ निश्छल खिलखिलाहट फैली हुई थी। वे कुछ न समझ सकीं और हैरान परेशान सी उनके दिन को आगे बढ़ाने के लिए अन्दर चली गईं।

सुबह का नाश्ता एक साथ करते हुए वे सभी अपनी थकान को समेटकर एक निर्णय पर पहुँच चुके थे।

लक्ष्मी.पूजन के बाद जब सभ्रान्त लोग अपने.अपने परिवारों के साथ कॉलोनी में फैले प्रकाशपर्व को देखने छतों पर पहुँचे तो उनकी आँखों के सामने अद्भुत नजारा था...।

साथ लगी कामगारों की कॉलोनी में मोमबत्तियों, दियों और बिजली की लड़ियों की रोशनी का झलमला फैल रहा था...सभ्रान्त कॉलोनी के वे पाँचों बुजुर्ग बच्चों के साथ गोल.गोल घूमते हुए ताली बजा रहे थे, छोटे.छोटे पटाखे छुड़ा रहे थे।

समय का पहिया घूम रहा है

शहर का प्रसिद्ध टैगोर थिएटर खचाखच भरा है। जिन दर्शकों को सीट नहींं मिली है वे दीवारों से चिपके खड़े हैं। रंगमंच के पितामह कहे जानेवाले नीलाम्बर दत्त आज अपनी अन्तिम प्रस्तुति देने जा रहे हैं। हॉल की रोशनी धीरे.धीरे बुझ रही है। रंगमंच का पर्दा उठ रहा है।

दृष्य : एक

तेज रोशनी के बीच मंच पर मुगल दरबार सजा है। शंहशाहे आलम जहाँगीर अपने पूरे रौब दाब से ऊँचे तख्तेशाही पर विरामान हैं। नीचे दोनों तरफ दरबारी बैठे हैं। एक फिरंगी अपने दोनों हाथ पीछे बाँधे, सिर झुकाए खड़ा है। उसने शंहशाहे हिन्द से ईस्ट इण्डिया कम्पनी को सूरत में तिजारत करने और फैक्ट्री लगाने की इजाज़त देने की गुजारिश की है। दरबारियों में सलाह मशविरा चल रहा है।

4इजाज़त है....3 बादशाह सलामत की भारी आवाज के साथ दरबार बर्खास्त हो जाता है।

मंच की रोशनी बुझ रही है....हॉल की रोशनी जल रही है।

दृष्य : दो

मंच पर फैलती रोशनी में जेल की कोठरी का दृष्य उभर रहा है। भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू जमीन पर आलथी.पालथी मारे बैठे गम्भीर चिन्तन में लीन हैं। जेल का अधिकारी अन्दर प्रवेश करता है।

4भगतसिंह! तुम जानते हो कि आज तुम तीनों को फाँसी दी जानी है। सरकार तुम्हारी आखिरी इच्छा जानना चाहती है।3

4हम भारत को आजाद देखना चाहते हैं। इन्कलाब जिन्दाबाद....3 तीनों का समवेत स्वर कोठरी की दीवारों से टकराकर गूँज उठा है।

रोशनी बुझ रही है, पर्दा गिर रहा है।

दृष्य : तीन

धीरे.धीरे उभरती रोशनी से मंच का अँधेरा कम होता जा रहा है। दर्शकों के सामने लाल किले की प्राचीर का दृष्य है। यूनियन जैक नीचे उतर रहा है, तिरंगा ऊपर चढ़ रहा है।

लाल किले की प्राचीर पर पड़ रही रोशनी बुझ रही है। मंच पर दूसरे भाग में रोशनी का दायरा फैल रहा है। सुबह का दृष्य है। प्रभात की किरणों के साथ गली.कूचों में लोग एक दूसरे से गले मिल रहे हैं....मिठाईयाँ बाँट रहे हैं....आजादी का जश्न मना रहे हैं।

मंच का पर्दा धीरे धीरे गिर रहा है।

दृष्य : चार

तेज रोशनी के बीच मंच पर देश की संसद का दृष्य उपस्थित है। सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच अहम् मुद्दे पर तीखी बहस हो रही है।

4देश की अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए हमें खुदरा व्यापार में विदेशी पूँजीनिवेश की इजाजत देनी ही होगी...3 सत्तापक्ष का तर्क है।

4यह हमारी अर्थव्यवस्था को नष्ट करने की साजिश है....3 विपक्ष जोरदार खण्ड़न कर रहा है।

सभी सदस्य अपनी अपनी मेज पर लगे बटन को दबाकर अपना मत दे चुके हैं। लोकसभा अध्यक्ष द्वारा परिणाम घोषित किए जाने की प्रतीक्षा है।

4सरकार का प्रस्ताव बहुमत से स्वीकार हो गया है....3 लोकसभा अध्यक्ष की महीन आवाज के साथ ही मंच अँधेरे में डूब जाता है।

रोशनी में नहाया हॉल स्तब्ध है। दर्शक ताली बजाना भूल गए हैं।

साठ या सत्तर से नहीं

4लीलावती, अब हम बूढ़े हो गए हैं।3

लॉन में 1इजी चेयर1 पर बैठे सुबह की चाय के घूँट भरते हुए रामनारायण ने कहा तो उसकी पत्नी चौंक उठी।

4ऐसा क्यों सोचते हैं आप! अभी तो आपने साठ ही छुआ है।3

4लीलावती! आदमी साठ या सत्तर से बूढ़ा नहीं होता।3

4तो....3 लीलावती चकित थी कि इन्हें आज हो क्या गया है।

4तुम चाय बना रहीं थीं कि सोमेश का फोन आया था।3

4वह ठीक तो है ना!4 वह आशंकित हो उठी।

4ठीक है लीलावती, वह बिल्कुल ठीक है।3

4आने के बारे में कुछ कह रहा था?3

4अब वह शायद ही लौटेगा....उसने लन्दन में शादी कर ली है।3

4ओह! हमसे पूछा तक नहीं!3

4मैंने कहा था ना लीलावती, आदमी साठ या सत्तर से बूढ़ा नहीं होता।3

4हाँ, बूढ़े तो अब हम हो ही गए हैं!3 लीलावती ने चाय के कप उठाए और अपनी गीली आँखें छिपाते हुए अन्दर की तरफ चल दी।

हड़कम्प

गाँव की गलियों में खड़ंजे बिछने लगे हैं। सूखे पड़े नलकूपों से जलधार टपकने लगी है। अँधेरा उतरते ही गलियों में लगे खम्बों पर जुगनू चमकने लगे हैं।

देश की एक बड़ी पार्टी इस बार चुनाव में उन उम्मीदवारों को ही टिकट देना चाहती है जिनकी जीत का पूरा विश्वास हो। इसके लिए हाईकमान विशेष सर्वेक्षण भी करवा रही है। सर्वेक्षण दल प्रत्येक मतदान क्षेत्र में जाकर मतदाताओं के मन टटोल रहे हैं।

मैं एक सर्वेक्षण दल के दूसरे दो सदस्यों के साथ इस गाँव के दौरे पर हूँ। जीप आगे बढ़ती जा रही है।

4ये जो खेतों में बनी समाधियाँ आप देख रहे हैं...3 स्थानीय प्रतिनिधि ने मेरी आँखों में उभरे आश्चर्य को ताड़कर बताना शुरू किया है....4ये उन वीरों की हैं जिन्होंने अपने देश के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया है...3

साँझ उतरने से पहले ही उस गाँव में हमारे आने की सूचना पहुँच चुकी है। सभी बिरादरी और धमोर्ं के लोग चौपाल पर एकत्रित हो गए हैं।

मैं सभी से अलग.अलग बात करके उनका मन्तव्य जानने का प्रस्ताव रखता हूँ। मगर सभी ने एक ध्वनि से इसे खारिज कर दिया है।

4क्यों.....?3

4हम फैसला कर चुके हैं कि हमें कैसा उम्मीदवार चाहिए....3

मेरी दृष्टि में ढ़ेरों प्रश्न उभर रहे हैं।

मुखिया का दृढ़ स्वर सभी के कानों से टकरा रहा है, 4हाँ, इस बार पूरे गाँव ने फैसला लिया है कि हम उस उम्मीदवार को ही अपना वोट देंगे जिसके परिवार में कोई आदमी देश की सेवा के लिए सरहद पर तैनात हुआ हो....3

मेरे भेजने से पहले ही सर्वेक्षण मत, राजधानी पहुँच चुका है और हाईकमान में हड़कम्प मच गया है।

हाँ, मैं जीतना चाहता हूँ

1आओ, जिन्दगी से कुछ बातें करें!1 हाँ, अनुपम खेर ने एक टी.वी. विज्ञापन में यही तो कहा था।

वह भी पिछले साठ साल से अपनी जिन्दगी से बातें करता रहा है मगर जिन्दगी ने जैसे उसकी बातें कभी सुनी ही नहीं।

उसने अपने बचपन से बातें की थीं। सफेद कमीज और पतलून पहनकर क्रिकेट का बल्ला घुमाने की बातें, मगर जिन्दगी ने उसकी बातें सुनने की बजाय उसके पिता की बातें सुनीं और उसे फुटबॉल का खिलाड़ी बना दिया। हासिल रहा शून्य।

बचपन से युवावस्था आने तक वह अपनी जिन्दगी से फुसफुसाहटों में बातें करता रहा। यह जिन्दगी से सपनों की बातें करने का समय था। उसने जिन्दगी से प्राध्यापक बनने के सपने की बातें की मगर यहाँ भी जिन्दगी ने उसकी बजाय नियति की बातें सुनीं। पिता के अचानक अवसान के कारण भारत सरकार में एक अदना.सा लिपिक बनकर रह गया।

उसके बाद अब तक वह जिन्दगी से बतियानें और उसे अपनी सुनाने का भरसक प्रयास करता रहा मगर जिन्दगी ने जिस अन्धी दौड़ में उसे धकेल दिया था, उसमे उसे ठहरकर इत्मीनान से बातें करने का मौका ही नहीं मिला। घर, परिवार, बच्चे और उन सबका दायित्व....वह जिन्दगी से कब अपने मन की बात कह सका!

आज वह सेवानिवृत हो रहा है। कार्यालय में उसे विदाई की पार्टी दी जा रही है। अभी एक अधिकारी ने उसके सेवाकाल की प्रशंसा करते हुए यह जानने की जिज्ञासा जताई है कि वह आगे क्या करना चाहता है।

4मैं जिन्दगी से खुलकर बातें करना चाहता हूँ। सिर्फ बातें करना ही नहीं चाहता, जिन्दगी से अपनी बातें भी मनवाना चाहता हूँं। हाँ, मैं जीतना चाहता हूँ।3 बस, इतना ही कह सका है वह और उसने अपने दोनों हाथ जोड़ दिए हैं।