समय का पहिया
भाग . 3
अनुक्रम
1. बन्द दरवाज़ा
2. अहम्
3. छिद्रान्वेषी
4. विडम्बना
5. अन्तर
6. ममता
7. जेल—नेता
8. उसका अस्तित्व
9. नवीन बोध
10. पूँजीनिवेश
बन्द दरवाजा
उसके शरीर पर फटा—पुराना मर्दाना कमीज था; जो अपना असली रंग खो चुका था। उसकी तरह मटमैला ही था, बस्स। उसके धूल से भरे मैले पाँव पर पसीना आने से कुछ आधुनिक चित्र से बन गए थे। वह मन्दिर के मुख्य द्वार के सहारे खड़ी बड़े चाव से नाक की गन्दगी निकाल—निकालकर फेंक रही थी।
”यहाँ क्यों खड़ी है हरामजादी, कोई मन्दिर में आएगा तो तेरी गन्दी परछाई उस पर पड़ेगी। चल, दूर हो यहाँ से....।“ पण्डित की क्रोध उगलती लाल आँखें देख वह आठ वर्षीया बच्ची सहम गई थी।
”मेरी माँ अन्दर गई है।“ उसका डरा सा स्वर बस इतना ही उभर पाया था। पण्डित जी की लाल आँखें खुमार से मुँदने लगी थीं।
”अच्छा! कोई बात नहीं, यहीं पर खेल ले।“ कहते हुए पण्डित तेज कदमों से अन्दर की ओर चल पड़ा।
दरवाजा खटाक से बन्द हुआ। नन्हीं बच्ची बन्द दरवाजे को देर तक निहारती रही।
अहम्
तब वह गाड़ी में मूँगफली बेचता था। मीरा भी उसकी हमउम्र एक कामगार लड़की थी। उसे भी हर रोज फैक्ट्री पहुँचने के लिए रेल की यात्रा करनी पड़ती थी। साँझ ढ़ले काम से लौटते हुए प्रायः उससे मूँगफली खरीदती। मीरा से पैसे लेने का उसका मन नहीं होता था।
एक दिन रेल दुर्घटना में वह अपनी एक टाँग गँवा बैठा। दो महीने तक एक हस्पताल में रहा तो अवश्य, लेकिन हर क्षण वह वहाँ से भाग आना चाहता था।
ठीक होने पर वह वापिस काम पर लौटा तो बेचैन था। दो—तीन दिन तक उसने हर गाड़ी में मीरा को तलाशा मगर वह तो न जाने कहाँ गायब हो गई थी। वह एक दम टूट गया।
एक सप्ताह बाद ही वह फिर बीमार पड़ गया। गाड़ी में चलना अब उसके लिए कठिन हो गया था। मूँगफली बेचने की हिम्मत उसमें नहीं रही थी। बेघर—बार, कौन सँभालता, स्थिति बिगड़ती ही गई।
अब वह स्टेशन के बाहर रेलवे केबिन के नीचे भीख माँगता रहता। दिन भर में पाँच—छह रुपए की रेजगारी तो मिल ही जाती। वह पास के ढ़ाबेे से रोटियाँ खा, वहीं पड़ा रहता। कुछ ही दिनों में वह वहाँ का स्थाई भिखारी बन गया।
उस दिन देख कर वह चौंका, मीरा ही तो थी। दुल्हन के लिबास में वह एक सजीले युवक के साथ उसी की ओर बढ़ी जा रही थी। हाँ, यह वही थी। कुछ क्षण वह उसके पास ठिठकी और फिर एक रुपए का चमचमाता सिक्का उसकी ओर उछालते हुए युवक के साथ आगे बढ़ गई।
अन्दर—ही—अन्दर वह फुनफुनाया। सिक्के को जमीन से उठाकर उस पर थूका और दूर जाती हुई मीरा की ओर फेंककर चिल्लाया, ”साली कल तक तो हमारे इशारे पर नाचती थी, आज हमीं पर दया दिखाती है।“
छिद्रान्वेषी
यह उसकी आदत बन गई थी। भाषा का अपमान उसके हृदय पर ठेस पहुँचाता। ज्योंही वह कहीं किसी शब्द को गलत लिखा देखता, तो उसकी आँखों में किरकिरी.सी रगड़ने लगती।
बाजार से गुजरते हुए अक्सर साइनबोर्डों, दीवाराें पर लगे पोस्टरों, पुस्तकों के आवरणों और सूचना—पटों पर उसकी नजरें वर्तनी सम्बन्धी गलतियाँ पकड़ती रहती। कोई भी त्रुटि पकड़ उसे बड़ी खुशी होती।
गत दिनों उसकी शादी हुई। ससुराल से पत्नी ने पहला पत्र लिखा :
‘प्रिय,
.....तुम्हारे बिना मैं इस तरह तड़पती हूँ जैसे जल बिन मिन....।‘
पत्र पढ़ते—पढ़ते उसकी आँखों से कोफ्त झाँकने लगी और पत्र में ही गलतियों पर लाल दायरे लगाकर संशोधित कर उसे असीम शांति प्राप्त हुई। फिर पत्नी को खत लिखने बैठा :
‘प्रिय,
तुम्हारा पत्र मिला। उसमेें काफी त्रुटियाँ हैं। मैं उन्हें सुधारकर तुम्हारे पास भेज रहा हूँ। आगे से कोशिश करो कि भाषा सम्बन्धी त्रुटि न रहे। हाँ, हो सके तो व्याकरण की पुस्तक पढ़ लिया करो। बस....।‘
पत्नी को पत्र मिला....उसने पढ़ा। देर तक वह अपने पत्र को निहारती रही।....लौटे हुए पत्र के अक्षर धुँधलाने लगे थे....।
विडम्बना
सात वर्ष से हर वर्ष परिवार का प्रत्येक सदस्य सबसे छोटी लड़की से पूछता, ”बोल बेबी, तेरा भइया कि बहन?“ भइया कह देती, तो पूछनेवाले के चेहरे पर सन्तोष छा जाता और यदि वह बहन कह देती, तो प्रश्नकर्ता झुँझला पड़ता, ”छोड़ो, बच्चों की बात भी कहीं सच होती है!”
हर बार की तरह इस बार भी बच्ची से प्रश्न पूछे गए और दिन गिनते—गिनते इस परिवार में पाँचवी बच्ची ने जन्म ले लिया।
सारे घर में मातम.सा छा गया।....अगली बार शायद कोई भी बच्ची से वह प्रश्न दोहराने का साहस न कर पाए!
अन्तर
”बाबू, भगवान् तुम्हे और दे...दस पैसे गरीब को....”
”चल साले! शर्म नहीं आती माँगते हुए....? कोई काम क्यों नहीं करता?“
”क्या काम करूँ?“
”झल्ली उठा...“
”बूढ़े शरीर से...“
”तो मूँगफली बेच....“
”इसके लिए भी पैसे चाहिए....“
”तो भाड़ में जा! हराम की खाने की आदत पड़ जाए तो हर काम मुश्किल लगने लगता है....।“ बुदबुदाता हुआ वह आगे बढ़ जाता है।
”सेठजी, कुछ रुपये चाहिए....“
”क्यों?“
”लड़का बीमार है....“
”नहीं जी नहीं....सौ रुपया तो तुमने पहलम ही म्हारे ते ले लिया और काम म्हारा इब्बे तक हुआ भी नहीं है। देखो जी, इब हम और कुछ नहीं दे सकते...।“
”सेठजी, दया करो। आपका काम आते जाते कर दूँगा।“
“नहीं जी, अब तो हम काम होने के बाद ही कुछ दे सकें।“
”उधार ही दे दो सेठजी, आज बहुत सख्त जरूरत है....“
सेठ अनसुनी करके अपने काम में उलझ गया है। वह उठकर थके कदमों से बाहर आ जाता है। तभी, उसे थोड़ी देर पहले उस भिखारी से हुई झड़प याद हो आती है। उसे लगता है, उसमें और सड़क पर माँगने वाले भिखारी मेें कोई अन्तर नहीं रह गया है।
ममता
बूढ़ी सास को जब बहू ने धक्के मारकर घर से बाहर कर दिया, तब उसने समझा.... औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन होती है। इसी चुडै़ल के कारण तो बेटा भी माँ का दुश्मन बन गया है।
इसी बेटे के जन्म पर तो पड़ोसिन ने कहा था, ‘तेरा तो बुढ़ापे का सहारा आ गया।‘
पर, आज अपने गेटे के घर में वह अजनबी की तरह दहलीज पर बैठी सोच रही है, काश! वह न ही होता तो आसरा तो न तका होता।
सीढ़ियों के बीच ठण्ड से सिकुड़ा एक कुत्ता सो रहा था। अँधेरे में वृद्धा को काला कुत्ता बड़ी कठिनाई से दिखा था। केशु आने वाला है। कहीं उसका पाँव इस पर न पड़ जाए। शायद यह पागल भी हो—काट लिया तो...? उसके दिमाग में विचार कौंधा।
वह गठिया के दर्द से अकड़े घुटने को खोलकर जल्दी से हुस...हुस.... करती हुई कुत्ते को भगाने लगी।
जेल—नेता
जब उनके फेंके गए सभी पाँसे निष्क्रिय हो गए, तो वे जीवन के आर्दश के प्रति अधिक सर्तक हो गए। उन्हें लगा, कोई भी व्यक्ति जेल गए बिना बड़ा नेता नहीं बन सकता।
स्वयं की सोच पर वे मुस्कुरा उठे और उन्होंने दूसरे नेताओं के साथ ही प्रसन्नचित हो अपने आपको जेल के सींखचों के पीछे धकेल दिया।
जेल में मिलने वाली यातनाओं की उन्होंने कल्पना भी न की थी, सो कुछ दिनों में ही बीमार हो गए। कई झूठे—सच्चे बहाने गढ़े, मगर जेल से बाहर न आ सके। उनके मन की आशाएँ वहाँ धूमिल पड़ती गईं।
कुछ दिनों बाद जब आन्दोलन ठण्डा पड़ गया, तो सभी आन्दोलनकारियों को रिहा करने का आदेश सुना दिया गया।
लोगाें ने एक मुर्दे को भी उस समय रिहा होते देखा था।
उसका अस्तित्व
‘बेटा, नीलू का छूछक देने जाना है— अगले हफ्ते मीरा की लड़की की शादी का भात भरना है, दो दिन की छुट्ठी ले लेना— कमला का ससुर बीमार है, अस्पताल में पता लेने तो जाना ही पड़ेगा— वीणा के यहाँ सावन की कोयली जानी है— अपनी बड़ी बुआ के यहाँ राखी के पैसे दे आना— और छोटी के यहाँ तो खैर मनीऑर्डर ही करा देना...।‘ आए दिन ऐसा ही कोई.न.कोई वाक्य सुनते.सुनते उसके कान पक गए थे।
पाँच शादीशुदा बहनें, तीन बुआएँ और कुछ अन्य सम्बन्ध भी। पिता के गुजरने के बाद सारा बोझ उसके सिर पर ही था।
पिछले कितने ही वर्षों से वह जिन्दा मशीन बना इन सब सम्बन्धों के बीच अपने को तलाश रहा है, लेकिन उसका अस्तित्व बेताल की तरह बार.बार उसके सिर से गायब हो जाता है।
नवीन बोध
दरवाजे पर बिलखती उस असहाय औरत पर गृहिणी को दया आ गई तो उसने उसे भी सिर ढ़ाँपने के लिए अपनी छत का एक कोना दे दिया। बदले में उस औरत ने घर का सारा काम—काज सभाँल लिया तो गृहिणी को बड़ी राहत मिली।
अभागिन थी बहुत सुन्दर! गृहिणी ने कुछ ही दिनों बाद अपने पति की दृष्टि को भाँपा तो उसे, उससे सौतन—सी डाह होने लगी। उस दिन उसने पति से स्पष्ट कह दिया कि जब तक वे उसे घर से नहीं निकालेगें, वह पानी नहीं पियेगी।
पति ने सोचा विचारा और सब इन्तजाम कर उस अभागिन को झन्नू मियाँ के साथ भेज दिया। जानकर गृहिणी के सीने का साँप उतरा और उसने चैन की साँस ली।
रात को गृहिणी ने अपने पति के और करीब खिसकते हुए पूछा, ”क्या करेगा वह आदमी, उस कलमुँही का....?“
”बेच देगा।“ उसने सहजता से कहा।
”बेच देगा! कहीं औरतें भी बिकती हैं?“ एक क्षण को उसे आश्चर्य हुआ पर तभी उसकी आँखें फैल गई, ”कितने की बेचेगा?“ पश्चाताप से उसकी आँखे सिकुडने लगीं थीं।
पूँजीनिवेश
सर्दी के बावजूद कमेटी के दफ्तर की चौथी मंजिल पर बहुत गहमागहमी है। मेन हॉल क्लर्कों और आगन्तुकों से भरा हुआ है। बीच में लगी बड़े बाबू गंगाशरण जी की बड़ी मेज अत्याधिक व्यस्त है। उनसें मिलने वालों का ताँता लगा ही रहता है। बड़े ‘मिलनसार‘ और तुरुप का पत्ता हैं वे। चपड़ासी को उनकी साफ हिदायत है— उनसे मिलने कोई भी आए, बिना चाय पिए न जाए। सूट.बूटवाले साहबों के लिए चाय के स्थान पर कॉफी व बिस्कुट पेश करने को कहा गया है। चालीस.पचास कप चाय.कॉफी रोजाना खपती है। सिगरेट का पैकेट उनकी मेज पर ‘सार्वजनिक रूप से‘ पड़ा रहता है।
उदयनारायण को इस दफ्तर में आए अभी कुल तीन दिन ही हुए हैं। वह यहाँ के रस्मोंदस्तूर से अभी परिचित नहीं हो पाया है। उसका काम है, आए हुए पत्रों को रजिस्टर में चढ़ाकर बड़े बाबू के सामने प्रस्तुत कर देना। तीन दिन से वह लगातार इस दफ्तर की हलचलाें को पढ़ते हुए कुछ समझने की कोशिश कर रहा है, मगर उसका वही हाल है जो कि एक हिन्दीभाषी प्राथमिक कक्षा के छात्र को फारसी पुस्तक पकड़ा देने पर होता है। उलट—पुलटकर उस पुस्तक को देखते हुए छात्र की भाँति ही वह दफ्तर को हर कोण से देखने—समझने की नाकाम कोशिश कर रहा है।
उदयनारायण के कुछ मित्रों ने, जो कि पहले ही सरकारी दफ्तरों में काम कर रहे थे, यह दफ्तरी—मन्त्र उसके कानों में फूँका था काम चाहे आपको आता हो या न आता हो, चाहे काम करो या न करो, मगर अपने बॉस के नजदीक पहुँचने और उनकी आँखों में चढ़ने का कोई मौका हाथ से न जाने दो।
पिछले तीन दिनों से ही उदयनाराण चाय—कॉफी पर हो रहे बड़े बाबू के बेहताशा खर्चे को देखता आ रहा है। उसे बड़े बाबू के इस फिजूल—से खर्चे पर हमदर्दी भी हो आई है और आज दोपहर से ही वह सोच रहा है कि क्यों न उनसे सहानुभूति जताकर उनके थोड़ा करीब हो लिया जाए।
तीन बजे के बाद उदयनाराण ने आज आए सभी पत्रों को रजिस्टर में चढ़ाकर फाइल में रख दिया। वह अवसर की तलाश में था कि कब बड़े बाबू अकेले हों और वह उनके पास पहुँचे।
आगन्तुक के जाने के बाद बड़े बाबू कुर्सी में धँसे.से सिगरेट के कश लगा रहे थे। उदयनाराण अपनी सीट से उठा और उनकी मेज के पास पहुँचकर फाइल उनके पास सरका दी।
”साहब! आपका तो चाय.कॉफी में फिजूल ही खर्च हो जाता है।” उसने बड़े बाबू के नजदीक खिसकने की कोशिश की।
बड़े बाबू ने सिगरेट ऐश.ट्रे में बुझाई और अपना मोटे लेंसवाला चश्मा उतारकर रुमाल से साफ करने लगे। उनकी दृष्टि उदयनाराण के चेहरे पर जड़ हो गई थी।
”बेटा! अभी तुुम नए हो। धीरे.धीरे सब समझ जाओगे। यही तो हमारा पूँजीनिवेश है।“ अपने समीप आए उदयनाराण को बड़े बाबू ने फुसफुसाहट भरे स्वर में गुरूमन्त्र.सा समझाया।