चाहत … ?
–ः लेखक :– अजय ओझा
© COPYRIGHTS
This book is copyrighted content of the concerned author as well as Matrubharti.
Matrubharti has exclusive digital publishing rights of this book.
Any illegal copies in physical or digital format are strictly prohibited.
Matrubharti can challenge such illegal distribution / copies / usage in court.
चाहत . . . ?
राजकोट स्टेशन के बाहर खडी टु बाय टु लक्जरी बस मेंमैं चढ़ तो गया पर बस में बैठने की जगह कहीं दिखाई न दी । 'फँसगये बादशाह, भावनगर तक खडे खडे जाना तुम्हारे बस की बातनहीं' –मनको कोसता हुआ नीचे उतरनेवाला ही था कि पीछे कीतरफ एक सीट खाली देख, मै पीछे मुडा । बगल में खिडकीवालीसीट पर गोगल्स पहने एक स्मार्ट युवती बैठी थी । हो सकता है शायदउसके पासवाली सीट रीजर्व हो –लेकिन पूछ लेना ही मैंने मुनासिबसमझा, क्योंकि बस की ये ऐकस्ट्रा ट्रीप थी और पहले से किसी कोटिकट नहीं दिया गया था । प्राइवेट ट्रावेल्स की ओफिस में बैठेकाउन्टर क्लर्क ने सब को कहा था, 'पहले बस में बैठिए तो सही,बाद में हमारा आदमी टिकट के लिए आ जायगा ।'
'यहाँ कोई आनेवाला है, मिस ़ ़ ?' मैने उस युवती सेपूछा । खिडकी से बाहर किसी के साथ बातों में मशगुल एक खूबसूरतचेहरा मेरी ओर घूमा । ऐसा लगा जैसे अपारदर्शक डार्कब्लेक ग्लास सेमढे गोगल्स के भीतर छिपकर वो अदृश्य आँखें मुझे सर से पैर तक नापरही हो । फिर हलका–सा हँसकर बोली, 'नहीं, बैठिए ।'
राहत की साँस लेते हुए मैने अपना सामान रखा औरयुवती की बगल में बैठा । उसने मेरे 'थेन्कस'का अभिवादन कियाऔर फिर खिडकी के बाहर खडी कोई औरत के साथ बात करने लगी। उनकी बातों से मैं इतना समझ पाया कि वह औरत इसे बस परछोडने आई थीं, औरत बोल रही थीं, 'सँभलकर जाना, भावनगर तककही नीचे मत उतरना । आज कोई तेरे साथ नहीं, अकेली है तोसँभलना । मैं अभी फोन करती हूँ, चाचाजी तूझे लेने आ जायेंगे ।
सरकारी बस मिल गई होती तो ठीक होता, लेकिन क्या करें ? यात्रामें कभी कभी टिकट का थोडा–बहोत खर्च भी हो जाता है । ठीक है,तो मैं चलती हूँ । जाते ही खबर कर देना ।'बच्चे चाहे कितने भी बडे हो, कितने भी स्मार्ट हो, तोभी सारे बडे–बुजुर्ग उन्हें ऐसे ही बोध देते रहते हैं । इन दोनों की बातेंसुनकर मेरी समझ में एक बात आ गई कि ये खूबसूरत और बिलकुलअकेला साथ भावनगर तक का है । इससे पहले मेरे साथ कभी ऐसाहुआ नहीं था, सो मैं कुछ ज्यादा ही रोमांच का अनुभव कर रहा था ।
औरत के जाने के बाद युवती ने मेरी ओर देखकर जरासामुस्कुरा दिया तो पहचान बढाने का ये मौका मैंने जाने नहीं दिया,'शायद आपकी माताजी थीं ?'
'नहीं, बुआ थीं । यहाँ राजकोट में बुआजी अकेली रहतींहैं । पिछले हप्ते वें मुझे अपने साथ कुछ दिन रहने ले आईं थीं । उनकीव्यस्तता के कारण वो मेरे साथ नहीं आ पाईँ । कालेज में होने जा रहेएक्जाम्स की बदौलत मुझे तो हर हाल में निकलना ही पडा । बातपढाई की थी तो अकेला ही सही, जाना तो चाहिए ही । वेल, आपकहाँ तक जा रहे हैं ?'
एक अनजान खूबसूरत युवती मेरे जैसे सामान्य अनजाननौजवान से सामान्य प्रश्न के जवाब में इतने भोलेपन से, सरल वबिलकुल स्वाभाविक ढंग से, रसपूर्वक मृदु स्वरों में हँसकर अपनों–सीबातें करने लगे ये मेरे लिए एक हसीन आश्चर्य था ।'जहाँ तक आप जा रहे हैं, भावनगर ।' मैने कहा तो वहजोर से हँसने लगी, 'वाह, बहोत अच्छा ।'संवाद की डोर आगे बढानी थी पर टिकटवाला आदमीनजदीक आ गया था । मैंने उसे पैसे दिए और कहा, 'भावनगर,एक।' फिर हसीना के सामने देखकर गलती सुधारते हुए कहा,'मेडम, आपका टिकट भी ले ही लेता हूँ, ़ ़ दो टिकट, भावनगर ।'
उस आदमी ने टिकट देते हुए कहा, ' आप भी क्यासाहब, बस में भी मजाक करते हैं ? भाभीजी साथ मैं है तो उसकाटिकट भी आपको ही लेना होता है न ?' कहते हुए वो आगे बढ़ गया ।उसे हुई गलतफहमी मुझे रोमांचित कर गई, लेकिन युवतीपर क्या असर हुआ ये देखने मैंने उसकी और देखा । उसके चेहरे परकोई नकारात्मक लकीरें नहीं थीं, बल्कि शर्म से लाल हुए चेहरे परहलकी–सी मुस्कान थी; मतलब कि उस आदमी को हुई गलतफहमीयुवती को भी जरूर पसंद आई थी ।
'मैं आपको अभी पैसे देती हूँ ।' उसने कहा । मैंनेऔपचारिकता दिखाईं 'कोई जलदी नहीं, भावनगर तक साथ जो है।'बस हाइ–वे पर तेज़ गति से भागने लगी । खिडकी सेभीतर आ रही पवन युवती ने बनाये आकर्षक केशगूंथन को बिखेरने मेंन जाने कब से जुट गई थी । इसी वजह से शायद वह और सुंदर लगरही थी । मुझे लगा मैंने अब तक उसके सौंदर्य को तो देखा ही नहीं ।
अभी अभी ही मेरा ध्यान उसकी खूबसूरती पर गया । स्काय कलर केसलवार–कमीज़ पर उसी रंगका शार्प एम्ब्रोइडरीवर्क किया हुआ था ।
उड–उडकर कब से मुझे छुकर रोमांचित कर रहा दुपट्टा भी मैचींगकलर में था । हाथ–पैर में कुछ गहने नहीं पहने, पर कान में पतलीसेरवाले एयरिंग पहने थे । गोल्डन फ्रेम मे मढे काले गोगल्स उसकेसौंदर्य में एवं स्मार्टनेस में चार चांद लगा रहे थे । अलबत्त चश्मे कीवजह से आँखों की खूबसूरती नहीं पा सकने का अफसोस भी था । जोभी हो, कुछ तो है कि जो मुझे उसकी तरफ आकर्षित कर रहा है ।
संवाद की डोर फिर से जोडने मैंने उसे फिर एक सवालकिया, 'आपने अपना नाम तो बताया नहीं, वेल, शुरूआत मुझे हीकरनी चाहिए, मेरा नाम प्रकाश है, आपका ?''निशा, ़ ़ निशा है मेरा नाम । भावनगर एस–एन–डी–टीयुनिवर्सिटी में थर्ड यर में हूँ । स्टेशन के पास ही मेरा घर है । भावनगरपहूँचते ही अपना पता भी दूँगी । और हां, टिकट के पैसे भी तो देनेहैं, जरूर याद दिलाना हां । कभी घर पे आइयेगा, हमें खुशी होगी ।'
हर बात को बढा–चढाकर बताना उसकी आदत मालूमहोती है । हाय, उसकी आदत पर मैं आफरीन क्यों न होऊँ ? मैं तोयही चाहूँगा कि उसकी बातें कभी खत्म न हो । इसी परंपरा को बनायेरखने हेतु मैंने संवाद चालु रखा ।
'मैं भी भावनगर में ही रहता हूँ । एक इन्टर्व्यू केसिलसिले में यहां आया था, पर इन्टर्व्यू खराब होने की वजह सेमूडलैस था । उपर से मैं भी आप ही की तरह सरकारी बस नहीं पकड़सका । तभी यह प्राइवेट बस मिली और आप से मुलाकात हूई ।
आपकी कंपनी में कुछ मूड़ बना ।''वाह, आपका मजाकिया अंदाज कुछ और ही है, आइलाइक इट ।' निशा ने खुलकर मेरी प्रशंसा की, तो मैं और मचलनेलगा ।
एक महंगे रेस्टोरण्ट पर बस रूकी । सभी यात्री चायनाश्तेके लिए उतरे । मैंने निशा से कहा,
'चलो, कुछ पेट–पूजा कीजाय ।'
'नहीं ।' उसने कहा, 'मुझे नीचे नहीं उतरना ।'
'क्यों ?' मैने पूछा, 'कोई हर्ज ?'
मेरे आग्रह को देखकर वह बोली, 'ऐसा कीजिए, आपकुछ नाश्ता ले आइए, यहीं बैठकर साथ खायेंगे ।'
'स्योर ़ ़ ।' कहते मैं खुश होते होते नीचे गया और गरमजलेबियां व पोटेटो चिप्स ले आया । सीट के बीचोबीच रखकर नाश्ताकरने लगे । इस प्रक्रिया में जब उसका हाथ मेरे हाथों से टकरा जातातब मेरे बदन में न जाने कैसी सिहरन दौडने लगती । मैं समझ गयाथा कि वह जान–बूझकर स्पर्श की मात्रा बढा रही थी । इस वक्त बसमें चंद यात्री ही थे । मेरे अंदर पहले प्यार की शहनाइयां बजने लगीं ।पोटेटो चिप्स लेते वक्त मैंने उसका हाथ बिलकुल सभानता औरहिंमत से कुछ इस तरह पकड़ लिया कि उसे लगे, ये सब अनजाने मेंहुआ हो ।
'आप भी न ़ ़ ' कहते वह शरमा–सी गई । हाथ छुडालिया । खिडकी से ही मँगवाई चाय पीने के बाद एक बार फिर बसअपने रास्ते पर दौडने लगी । मेरे मन में फूटी चाहत की किरणें अबमौके की तलाश में बचैन थीं । बस में वीडियो पर फिल्म चल रही थी,लेकिन मुझे या निशा को उस ओर देखने की भी फूरसत कहाँ थी ?
एक छोटे से स्पीड–ब्रेकर ने काम बना दिया । हलके जम्पमें मेरा पैर उसके पैर से टकराया । निशा ने मुस्कुराकर मेरी ओरदेखा, फिर रुकते स्वरों में बोल पडी, 'आप मुझे ़ ़ '
'चाहता हूँ ।' मैने फट से बोल दिया । मैं ये मौकाछोडना नहीं चाहता था, 'हाँ, निशा, आप मुझे पसंद हैं । मैं आपकोचाहने लगा हूँ । क्या आप मेरी चाहत को कुबूल करेंगी ?'
'ओह ़ ़ ।' महज एक उद्गार ही निकला उसके मुँह से ।मैने देखा कि उसके चेहरे पर गोल्डन फ्रेम की सुनहरी लकीरें इधर–उधर आनंद से नाच रही हैं ।
कुछ देर यूं ही समय गुजरा । कोई कुछ बोला नहीं ।मानो चाहत के इस शांत स्वरों सुनने के लिए बस ने भी अपना कठोरकोलाहल काबू में कर लिया था । चाहत के नशे में मस्त मेरे विचारबस से भी अधिक गति में दौड़ रहे थे । तभी निशा ने मेरा हाथथामकर अपनी ओर देखने का इशारा किया । मैंने उसकी ओर देखा ।
मेरा हाथ प्यार से दबाते भावनात्मक स्वरों में उसने प्रश्न किया,'आप ़ ़ आप मुझसे शादी करेंगे ?'बस के रूटिन कोलाहल में ऐसे मनमोहक प्रश्न काप्रतिध्वनि देर तक मेरे कानों को ऐसी ही मुलायमता से सहलाये रखेतो कितना अच्छा होता ?
मैं उसके गंभीर खूबसूरत चेहरे पर लगे गोगल्स के उस पारउसकी सुंदर आँखों की गहराइयों को पार करने कोशिश करते हुए सरहिलाकर हामी भरनेवाला ही था कि उसने कहा, 'यूं सर हिलाने सेकाम थोडे ही बनता है ? हाँ या ना, बोलो, जल्दी ।'
मुझे उसका ये रोब झाडना अच्छा लगा । मेरे 'हाँ' कहनेके बाद वह खिडकी से बाहर झाँकने लगी । मुझे भी कुछ बोलना सुझानहीं, सो चूप होकर बैठा ।
कब भावनगर आ गया, पता ही न चला । आखरी स्टोपपर बस रूकी तब हम दोनों सामान लेकर खडे हुए । उतरते समयबरबस ही मैंने निशाका हाथ थाम लिया था । नीचे उतरने के बादहोश आया कि दुसरे यात्री हमें देख रहें हैं तो मैने उसका हाथ छोड़दिया । कुछ याद आने से निशा ने मुझे कहा, 'मेरे साथ एक लकडीथी, शायद सीट के नीचे रह गई, आप ले आयेंगे ?'
मैं वापस बस में चढा । सीट के नीचे से लकडी निकालतेही ऐसा लगा जैसे हाथ में जिंदा अजगर आ गया हो । पूरे बदन मेंतीव्रतम झलझला फैल गया ।
होकी जैसी घुमावदार उस सफेद लकडी के लाल सिरे परएक घण्टी लगी थी ़ ़ ।
दिल पर लगातार कोई काचपेपर घिसता रहा । भीतर बंधेवासनाओं के पत्तों का महल कब टूट पडा, पता ही न चला । अभीअभी फूटे चाहत के नन्हें पौधे न जाने कहाँ गायब हो गये ? पल–दोपलमें ही कितने सारे खयाल दिल को उलट–सुलट कर गये । अंदरकी खुदगर्ज व्यावहारिक समझ यकायक उभर आई ।
नीचे उतरकर टिकट के पैसे लेने की परवाह किये बिना,लकडी निशा के हाथ में थमाकर, उसकी नजरें चुराकर ़ ़ ़ओह ़ ़ ़ अब तो नजरें चुराने की भी क्या जरूरत थी ? यूंही भाग निकला, इस डर से कि शायद वह टिकट के पैसे देने केबहाने अपना पता भी दे और फिर एक बार वोही सवाल दोहराए,'आप मुझसे शादी करेंगे ़ ़ ?'