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शनि की गाथाएं

प्रस्तुति: सुनीता सुमन

संदर्भ: धर्म और अध्यात्म

शनि की गाथाएं

शनि के बारे में अनेक गाथाएं, लोकमान्यताएं एवं किंवदन्तियां प्रचलित हैं। उन गाथाओं को जाने एवं समझे बिना शनि संबंधी परिचय, जानकारियां अधूरी रह जाएगी। अतः यहां क्रमशः इन गाथाओं का वर्णन इस प्रकार हैः-

भगवान शंकर और शनि

शनि जन्म से ही उद्दण्ड व महान पराक्रमी था। एक बार शनि ने अपने परिभ्रमण काल में नियमानुसार भगवान शंकर पर आक्रमण किया। भगवान शंकर ने उद्दण्ड शनि को चेतावनी दी पर शनि न माना। फलतः शिव-शनि का युद्ध प्रारम्भ हुआ। शनि ने अपने अद्भूत पराक्रम से नन्दी, वीरभद्र एवं समस्त शिवगणों को परास्त कर दिया। अपने सैन्य बल का संहार होते देखकर शिवजी-क्रोधित हो उठें। उन्होंने अपने अमोघ त्रिशूल का शनि पर संधान किया। शनि त्रिशूल का आघात सहन नहीं कर पाए। वे भयभीत होकर संज्ञा शून्य हो गए। शनि ने अपनी दृष्टि का अनुसंधान शिव की ओर किया। शिव का तीसरा नेत्र खुलने लगा। शनि के साथ समस्त सृष्टि का नाश होना निश्चित जानकर भगवान सूर्य ने शिवजी के पांव पकड़कर शनि के जीवनदान हेतु कातर निवेदन किया। शनि ने भी शिवजी की सर्वसमर्थता को स्वीकार करते हुए बारम्बार क्षमा याचना करते हुए स्वयं को शिव-सेवा के लिए समर्पित कर दिया और कहा जब तक संसार में रहूंगा शिव का दास बनकर रहूंगा। भोलेनाथ संतुष्ट हो गए तथा शनि को अपने गणों में स्थान दे दिया। शिव ने शनि को अपना सेवक बनाते हुए दण्डाधिकारी नियुक्त किया।

शनि का विवाह

भगवान् सूर्यदेव ने अपने प्रिय पुत्र शनिदेव का विवाह गन्धर्व चित्ररथ की कन्या से करवा दिया।

पिता ददो विवाहेन, कन्या चित्ररस्थ च।

अति तेजस्विनौ शाष्वतपस्यानुरता सती।।

एकदा सा )तुस्नाता, सुवेशं स्व दिधाय च।

रत्नालंकार संयुक्ता, मुनिमानस मोहिनी।।

चित्ररथ की कन्या सुन्दर थी और पति सदैव सेवा में परायण रहती थी। एकबार ध्यानावस्था में लीन शनि के पास जाकर उनका ध्यान अपनी खींचने की कोशिश की, लेकिन शनिदेव ने आंख उठाकर पत्नी की ओर देखा तक नहीं। इससे चित्ररथ की कन्या या शनि की पत्नी कुपित हो उठी। उसने शनि को श्राप दिया तुम सदैव ऐसे ही मुंह लटकाए, नीची दृष्टि करके ही बैठे रहो। यदि तुमने सीधी दृष्टि करके किसी को देखा तो उसका निश्चित रूप में नाश होगा। शनि ने अपनी आत्मकथा में माता पार्वती को बताते हुए कहा-

तेन मातर्न पश्यामि, किंचिद्वस्तु स्वचक्षुषा।

ततः प्रवृति नम्रास्यः प्राणि हिंसाभयादहम्।।

  • ब्रह्मवैक्त्र्ते गणपतिखण्डे, अध्याय
  • हे माता! तब से मैं मुख नीचे किए रहता हूं और किसी भी वस्तु की तरफ मुंह नीचे किए रहता हूं और किसी भी वस्तु की तरफ मुंह उठाकर नहीं देखता। मेरे दृष्टिपात से अकारण किसी प्राणी की हिंसा न हो जाए। इसका मुझे सदैव भय बना रहता है। इसलिए मैं अपनी आंखे हमेशा नीची रखता हूं।

    राजा दशरथ एवं शनि

    ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शनि यदि रोहिणी नक्षत्र का अतिक्रमण करता है तो ‘रोहिणी संकट भेदन’ योग बनता है। वराहमिहिर ने बृहत्संहिता के अध्याय 24 में इस पर विस्तार से चर्चा की है। इसके फलस्वरूप पृथ्वी पर बारह वर्ष तक घोरतम दुष्काल पड़ता है। जब इछवाकुवंश उत्पन्न राजा दशरथ पृथ्वी पर राज्य कर रहे थे तो यह योग उपस्थित होेने वाला था। ज्योतिषयों ने जब नीलम की कांति वाले शनिदेव को कृत्तिका नक्षत्र के अंतिम चरण में देखा, तो भयभीत हो उठे।

    राजा दशरथ जनता की इस चिन्ता से सोच में पड़ गए। राजा दशरथ सूर्यवंशी एवं परम तेजसवी थे। उनका रथ नक्षत्र-मंडल को भी पार करने की शक्ति रखता था। बहुत सोच-विचार करने के पश्चात् अपने दिव्य अस्त्र-शस्त्रों को लेकर, मन की गति से तेज चलने वाले रथ पर सवार होकर राजा दशरथ नक्षत्र मंडल की ओर चल पड़े। वे सूर्यमंडल में भी ऊपर पहुंचकर रोहिणी नक्षत्र के पृष्ठ भाग की ओर चले गए। वहां उन्होंने नीली व पराबैंगनी किरणों से आलोकित शनि को रोहिणी नक्षत्र की ओर बढ़ते हुए देखा। राजा दशरथ ने पहले शनि को विधिवत् नमस्कार कर स्तुति की फिर तुरन्त अपने व्यि शस्त्रों का अनुसंधान शनि की ओर किया। शनि राजा दशरथ की अदम्य वीरता, साहस, पराक्रम, शिष्टाचार तथा जनता क प्रति अयतम कर्तव्यनिष्ठा को देखकर, प्रभावित हुआ। शनि देव ने राजा दशरथ को वर देना चाहा। दशरथ ने कहा कि सूर्यादि ग्रहों के होते हुए आप कभी संकट भेदन न करें। तत्पश्चात् कृतार्थ महाराज दशरथ ने मनोहरी वचनों से शनि देव की पुनः स्तुति की। शनि ने प्रसन्न होकर एक और वरदान मांगने को कहा। दशरथ ने कहा आप अकारण किसी को कष्ट न दें। शनि दशरथ की लोककल्याण भावना को देखकर पुनः प्रसन्न हुए और कहा जो मनुष्य मेरी प्रतिमा की अर्चना कर, आप द्वारा निर्मित स्तोत्र का श्रðा व भक्तिपूर्वक पाठ करेगा। उसे मैं प्रतिकूल होते हुए भी श्राप नहीं दूंगा। उस जातक की कुण्डली में 4, 8, 10 व लग्नगत प्रतिकूल फलों का मैं त्याग कर दूंगा और प्रसन्न होकर मैं उस जातक की रक्षा करूंगा। तब से दशराकृत शनि स्तोत्र शनिप्रदत्त पीड़ाओं की शन्ति हेतु अमोघ उपाया माना गया है।

    श्री हनुमान एवं शनि

    एक बार गन्धमादन पर्वत पर श्री हनुमान रामभक्ति में लीन थे कि छायापुत्र शनि उधर से गुजरे। पवनपुत्र की ध्यानमग्नता एवं शान्तिप्रिय वातावरण को देखकर शनिदेव को उनसे ईश्र्या होने लगी। ईष्र्या, उदासीनता, मिथ्या, अहंकार शनि प्रधान व्यक्ति की खास विशेषता होती है। शनि का अकारण अहंकार जागा और उसने सोचा नियमानुसार मैं इस वानर की राशि पर तो आ ही गया हूं। अब दो-चार पटकी देकर, इसकी दुर्दशा का आनन्द भी हाथोहाथ ले लूं। अहंकार में भरे शनि ने पवनपुत्र को ललकारा। बजरंग बली का ध्यान टूटा। उन्होंने अपने सामने उपस्थित शनि को पहचान कर उसे नमस्कर करते हुए विनीत स्वर में कहा ‘‘मैं प्रभु श्रीराम के ध्यान में लीन हूं। कृपाकर मुझे अपनी अर्चना करने दीजिए।’’

    शनि ने कहा ‘‘वानरराज मैंने देव-दानव एवं मनुष्य लोक में सर्वत्र तुम्हारी प्रशंसा सुनी है। अतः तुम कायरता छोड़, निडर होकर मुझसे युð करो। मेरी भुजाएं तुम्हारे बल का परिमापन करने के लिए फड़फड़ रही है। मैं तुम्हे युð के लिए ललकार रहा हूं। शनि की धृष्टता देखकर, हनुमान ने अपनी पूंछ बढ़ाई और उसमें शनि को बुरी तरह लपेट लिया। रुद्र के अंशावतार श्री हनुमान ने शनि को ऐसा कसा की वह बेबस, असहाय होकर छटपटाने लगा। इतने में रामसेतु की परिक्रमा का समय हो गया। हनुमान जी तेजी से दौड़ते हुए परिक्रमा करने लगे। पूंछ से बंधे शनि पत्थरों, शिलाखण्डों, बड़े-बड़े विशाल वृक्षों से टकराकर लहूलुहान एवं व्यथित हो उठे। असह्य पीड़ा से वेष्टित, दुःखी शनि से पवनपुत्र से बन्धन मुक्त करने की प्रार्थना की। पवनपुत्र श्रीहनुमान ने शनि से वचन लिए कि श्रीराम की भक्ति में लीन मेरे भक्तों को तुम कभी तंग नहीं करोगे। असह्य वेदना से शनि का अंग-अंग पीडि़त था। छटपटाते शनि ने मालिश के लिए हनुमान से तेल मांगा। उस दिन मंगलवान था। मंगलवान के दिन जो हनुमान जी को तेल चढ़ाता है वह सीधा शनि को मिलता है और शनि प्रसन्न होकर साधक को आशीर्वाद देते हैं। कहते हैं अजेय योðा और शिवभक्त रावण ने ब्रह्मपाश की सहायता से शनि को बांधकर अपने अस्तबल में उल्आ लटका रखा था। शनि ने अपने आराध्य शिव की स्तुति की तब शिवजी ने कहा कि हनुमान आएगा, रावण का संहार करेगा और तुम्हें इस कैद से मुकत भी कराएगा।

    लंका भस्म करते समय श्री हनुमान यह देखकर चकित थे कि लंका श्यामवर्ण की नहीं हो रही है। अकस्मात् उनकी दृष्टि उल्टे-लटके शनि पर पड़ी, जो अपने दुर्दिनों पर विलाप कर रहे थे। श्री हनुमान ने तुरन्त शनि को रावण की कैद से मुक्त किया। सीधा खड़े होते ही शनि ने अपनी रोषपूर्ण दृष्टि लंका पर फेंकी। सोने की लंका राख हो गई और रावण के दुर्दिनों की शुरूआत, कुटुम्ब-परिवार सहित, उसकी मृत्यु पर जाकर समाप्त हुई। शनि ने श्री हनुमान जी को वचन दिया कि मैं आपके भक्तों को कभी कष्ट नहीं दूंगा। अतः शनि की पनौति के समय जो लोग हनुमान चालीसा, बजरंग बाण, हनुमान बाहु एवं सुन्दरकाण्ड का पाठ करते हैं। उन्हें शनि ज्यादा व्यथित नहीं करता।

    श्री कृष्ण एवं शनि

    पौराणिक प्रसंगों से ज्ञात होता है कि बाल्यकाल से ही शनिदेव भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अगाध श्रद्धा रखते थे। कथा प्रसिद्ध है कि भगवान श्रीकृष्ण जब इस धरा पर प्रकट हुए तो उनके दर्शनों हेतु सभी देवी-देवता, नदियां, तीर्थ व्रजधाम पधारे। शनि भी श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव पर नन्दगांव पहुंचे। मां यशोदा को किसी देवता ने यह बात बता दी कि शनि तेरे पुत्र के दर्शन महल में आया है। उसका वर्ण श्याम है, विशाल नेत्र है, शुष्कोदर है तथा नीचे दृष्टि किए हुए रहता है। इन लक्षणों के आधार पर माता यशोदा ने शनि को पहचान लिया तथा हाथ जोड़कर विनती की है शनिदेव आपके नाम से लोग डरते हैं। आप यहां साक्षात् मेरे महल में आ गए तो ब्रजवासी बहुत डरेंगे। इसलिए आप महल के बाहर रहकर ही श्रीकृष्ण के दर्शन करें।

    मां यशोदा का आदेश सुनकर शनिदेव महल के बाहर चले गए और बाहर जाकर रुदन प्रारम्भ किया। भगवान श्रीकृष्ण ने भी शनि को इशारा किया कि तुम माता को तंग मत करो। यहां से कुछ दूर ही ‘कोकिल वन’ है। तुम वहीं मेरी प्रतीक्षा करो। तुम वहीं बैठे मेरी सारी लीलाओं को देख सकोगे। मैं भी तुम्हें वहीं आकर मिलता हूं। सारा उत्सव सम्पन्न होने के बाद श्रीकृष्ण कोकिल वन पहुंचे तो देखा कि पीपल के एक पेड़ के नीचे शनिदेव खड़े उनका इंतजार कर रहे हैं। श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए और कहने लगे कि शनिदेव की भक्ति मेरे प्रति अनन्य है। आज मैं यह आशीर्वाद देता हूं कि जो लोग मेरे दर्शन करने आएंगे। उनकी सेवा तुम्हारे दर्शन बिना अधूरी रहेगी। अब तुम यहीं मेरे साथ निवास करो। कोकिल वन नन्दगांव से कुछ किलोमीटर पहले, ब्रजधाम में कोसी से पांच किलोमीटर दूर तथा दिल्ली से वाराणसी जाने वाली रोड पर दिल्ली से कुछ किमी दूर मथुरा में लोग बड़ी संख्या में यहां प्रत्येक शनिवार को आते हैं। परिक्रमा करते हैं। दन्डौती परिक्रमा भी करते हैं। परिक्रमा करने पर उन्हें शनि प्रदत्त पीड़ा से शान्ति मिल जाती है। यहां लोग छाया-पात्र भी दान करते हैं।

    श्री शनि के 108 नाम

    शनि के 108 नाम को पढ़ने से या जिनके नाम की आहुति देने से शनिदेव प्रसन्न होते हैं।

    1. ऊँ शं शनैश्चराय नमः

    2. ऊँ शं शांताय नमः

    3. ऊँ शं सर्वाभीष्टप्रदायिने नमः

    4. ऊँ शं शरण्याय नमः

    5. ऊँ शं वरेण्याय नमः

    6. ऊँ शं सर्वेशाय नमः

    7. ऊँ शं सैन्याय नमः

    8. ऊँ शं सुर वन्द्याय नमः

    9. ऊँ शं सुरलोक विहारिणे नमः

    10. ऊँ शं सुखासनोपविष्ठाय नमः

    11. ऊँ शं सुन्दराय नमः

    12. ऊँ शं घनाय नमः

    13. ऊँ शं घनरूपाय नमः

    14. ऊँ शं घनाभरणधारिणे नमः

    15. ऊँ शं खद्योताय नमः

    16. ऊँ शं मन्दाय नमः

    17. ऊँ शं मन्दाय नमः

    18. ऊँ शं वेदास्वादस्वभावाय नमः

    19. ऊँ शं वज्रदेहाय नमः

    20. ऊँ शं वैराग्यदाय नमः

    21. ऊँ शं वीराय नमः

    22. ऊँ शं वीतरोगभयाय नमः

    23. ऊँ शं विपत्परं परेशाय नमः

    24. ऊँ शं विश्ववन्द्याय नमः

    25. ऊँ शं गृध्रवाहनाय नमः

    26. ऊँ शं गूढाय नमः

    27. ऊँ शं कर्माÂय नमः

    28. ऊँ शं कुरूपिणे नमः

    29. ऊँ शं कुत्सिताय नमः

    30. ऊँ शं गुणाढ्याय नमः

    31. ऊँ शं गोचराय नमः

    32. ऊँ शं अविद्यामूलनाशनाय नमः

    33. ऊँ शं विद्याऽविद्यास्वरूपिणे नमः

    34. ऊँ शं महनीयगुणात्मने नमः

    35. ऊँ शं मत्र्यपावनपादाय नमः

    36. ऊँ शं महेशाय नमः

    37. ऊँ शं छायापुत्राय नमः

    38. ऊँ शं शर्वाय नमः

    39. ऊँ शं शततूणीर धारिणे नमः

    40. ऊँ शं शुष्काय नमः

    41. ऊँ शं चरस्थिरस्वभावाय नमः

    42. ऊँ शं चंचलाय नमः

    43. ऊँ शं नीलवर्णाय नमः

    44. ऊँ शं नित्याय नमः

    45. ऊँ शं नीला´जननिभाय नमः

    46. ऊँ शं नीलम्बरविभूषाय नमः

    47. ऊँ शं निलाय नमः

    48. ऊँ शं वेद्याय नमः

    49. ऊँ शं विधिरूपाय नमः

    50. ऊँ शं विरोधाधारभूमये नमः

    51. ऊँ शं गरिष्ठाय नमः

    52. ऊँ शं वज्रांकुशधरायं नमः

    53. ऊँ शं वरदाय नमः

    54. ऊँ शं अभंयहस्ताय नमः

    55. ऊँ शं वामनाय नमः

    56. ऊँ शं ज्येष्ठापत्नीसमेताय नमः

    57. ऊँ शं श्रेष्ठाय नमः

    58. ऊँ शं मितभाषिणे नमः

    59. ऊँ शं कष्टौघनाशिने नमः

    60. ऊँ शं आर्यपुष्टिदाय नमः

    61. ऊँ शं स्तुत्याय नमः

    62. ऊँ शं स्तोत्रकामाय नमः

    63. ऊँ शं भक्तिवश्याय नमः

    64. ऊँ शं भानवे नमः

    65. ऊँ शं भानुपुत्राय नमः

    66. ऊँ शं भव्याय नमः

    67. ऊँ शं आयुष्यकारणाय नमः

    68. ऊँ शं आपदुðर्ते नमः

    69. ऊँ शं विष्णुभक्ताय नमः

    70. ऊँ शं वाशिने नमः

    71. ऊँ शं विविधागमवेदिने नमः

    72. ऊँ शं विधिस्तुत्याय नमः

    73. ऊँ शं वन्द्याय नमः

    74. ऊँ शं विरूपाक्षाय नमः

    75. ऊँ शं वरिष्ठाय नमः

    76. ऊँ शं पूशनां पतये नमः

    77. ऊँ शं खेचराय नमः

    78. ऊँ शं घननीलाम्बराय नमः

    79. ऊँ शं काठिन्यमानसाय नमः

    80. ऊँ शं आर्यगणस्तुताय नमः

    81. ऊँ शं नीलच्छत्राय नमः

    82. ऊँ शं नित्याय नमः

    83. ऊँ शं निर्गुणाय नमः

    84. ऊँ शं गुणात्मने नमः

    85. ऊँ शं निरामयाय नमः

    86. ऊँ शं निन्द्याय नमः

    87. ऊँ शं वन्दनीयाय नमः

    88. ऊँ शं पावनाय नमः

    89. ऊँ शं धनुर्मण्डलसंस्थिताय नमः

    90. ऊँ शं धनदाय नमः

    91. ऊँ शं धनुष्मते नमः

    92. ऊँ शं तनुप्रकाशदेहाय नमः

    93. ऊँ शं तामसाय नमः

    94. ऊँ शं अशेषजनवन्द्याय नमः

    95. ऊँ शं विशेषफलदायिने नमः

    96. ऊँ शं वशीकृतजनेशाय नमः

    97. ऊँ शं धीरायं नमः

    98. ऊँ शं दिव्यदेहाय नमः

    99. ऊँ शं दीनार्तिहरणाय नमः

    100. ऊँ शं दैन्यनाशनाय नमः

    101. ऊँ शं आर्यजनगण्याय नमः

    102. ऊँ शं क्रूराय नमः

    103. ऊँ शं क्रूरचेष्टाय नमः

    104. ऊँ शं कामक्रोधकराय नमः

    105. ऊँ शं कलत्रपुत्रशत्रुत्व कारणाय नमः

    106. ऊँ शं परितोषितभक्ताय नमः

    107. ऊँ शं परभीतिहराय नमः

    108. ऊँ शं भक्तसष्Ðमनोभीष्टफलदाय नमः

    शनि अष्टोत्तरनामावली से हवन करने के लिए खेजड़ी की समिधा, शमीपत्र, काले तिल, जल से हवन करना चाहिए तथा नमः की जगह ‘स्वाहा शब्द का प्रयोग करना चाहिए।

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