हुक्मउदूली भाग 3 Jaynandan द्वारा नाटक में हिंदी पीडीएफ

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हुक्मउदूली भाग 3

(नाटक)

हुक्मउदूली

भाग 3

जयनंदन

दृश्य 12

(बैठकखाने में सोहर, उमा और अभिराम हैं। सोहर आवाज लगाते हैं।)

सोहर: गपलू....कार आकर लग गयी है बाहर, सामान लादो भाई, जल्दी।

(गपलू अंदर से बारी-बारी से अटैची, बोरा आदि ढोकर ले जाने लगता है।)

सोहर: प्रथा, अभिराम जा रहा है, बाहर आओ, भाई ।

(प्रथा अनमनी-सी बाहर आती है।)

अभिराम: बोरे में आप क्या लदवा रहे हैं अंकल?

मनोहर: गाँव से आया है बेटे, अपने खेत का चूड़ा है, कुछ बासमती चावल है।

अभिराम: ओह, अंकल इसकी क्या जरूरत थी?

(बाहर एक जीप के रुकने की आवाज आती है। जग्गन-मग्गन प्रवेश करते हैं।)

सोहर: क्या हुआ जग्गन-मग्गन, सब ठीक तो है!

जग्गन: (उसके हाथ में एके 56 रायफल है) हाथी को हमने मार दिया सर...।

सोहर: बहुत अच्छे, हमें पूरा विश्वास था कि तुमलोग यह काम जरूर कर लोगे। देखो अभिराम, जो काम पुलिस-प्रशासन नहीं कर सका, मेरे आदमी ने कर दिखाया।

अभिराम: मान गये अंकल। अब तो आपको एमेले बनना ही है।

मनोहर: अपने पापा को कह देना कि हाथी का मसला हल हो गया, अब वे चिन्ता न करें। जनता का गुस्सा अब धीरे-धीरे स्वतः शान्त हो जायेगा।

सोहर: पुलिस केस तो होगा ही, उनसे कह देना कि डी आई जी को फोन कर देंगे।

अभिराम: आप निश्चिंत रहिए अंकल, आदमी मरने से जब कुछ नहीं होता तो एक हाथी के मरने से क्या होगा? अब मुझे आज्ञा दीजिए..। (वह सबके पैर छूने का स्वांग करता है।)

सोहर: पापा को कहना कि जल्दी ही शादी की तिथि तय करके उन्हें सूचित करूंगा।

अभिराम: (प्रथा की ओर देखकर) बाई प्रथा...जा रहा हूं लेकिन वादा करता हूं कि जल्दी ही तुम्हें ले जाऊंगा।

प्रथा: (व्यंग्य से हंसकर) जमानत ही मिली है तुम्हें...हत्या के मामले से बरी नहीं हुए हो। ईश्वर के घर में देर है अंधेर नहीं...जेल चले गये तो क्या करोगे? अपना खयाल रखना। गुड बाई.....।

(अभिराम के साथ सभी बाहर निकल जाते हैं। कार के चलने की आवाज आती है।)

दृश्य 13

(बैठकखाने में परिवार के सारे लोग बैठे हैं।)

सोहर: प्रथा, तुमने पूरी तरह समझ लिया होगा कि अभिराम क्या है, कैसा है। मैं अब चाहता हूं कि तुमसे अब उसकी शादी की बात पक्की हो जाये और तिथि भी तय कर ली जाये।

प्रथा: बाउजी, पहले तो आप मुझसे यह पूछिए कि मैंने उसे समझा तो क्या समझा।

सोहर: मुझे तो लगता है कि वह जरूर तुम्हें पसंद आया होगा। भव्य पर्सनैलिटी है उसका, बड़े बाप का बेटा है, और क्या चाहिए?

प्रथा: देह का आकार बड़ा होना ही पर्सनैलिटी की भव्यता नहीं होती बाउजी और मंत्री हो जाना ही बड़ा आदमी हो जाना नहीं होता है। मैं इस भ्रष्ट मंत्री के नालायक और खूनी बेटे से शादी नहीं करूंगी। मेरे बारे में कोई हिटलरी फैसला ले, मैं इसका अधिकार भी किसी को नहीं दूंगी।

(सोहर सुनकर सन्न रह जाते हैं और उनका पसीना निकल आता है मानो)

मनोहर: प्रथा, तुम्हें पता भी है कि तुम कितना बड़ा अपराध कर रही हो? आज तक भैया से किसी को आँख मिलाने की भी हिम्मत नहीं हुई, मुंह लगने का तो खैर सवाल ही नहीं है। इनकी एक अपनी सत्ता है और हम सभी इनके हुक्म के न सिर्फ कायल हैं बल्कि उसका सम्मान भी करते हैं। इन्होंने अब तक बहनों, भतीजियों और बेटियों की पच्चीसों शादियां करवायी होंगी। एक में भी न किसी ने कोई मुखालफत की और न कोई दखलअंदाजी हुई। तुमने आज यह गुस्ताखी की है इससे न सिर्फ इन्हें चोट पहुंची है बल्कि हम सब भी जलील हुए हैं।

प्रथा: चाचा जी, बाउजी को अगर आज तक किसी ने नहीं टोका तो इसका यह मतलब नहीं है कि ये खुदा हो गये और इन्होंने कभी कोई गलती ही नहीं की। सच तो यह है कि ऐसे खुदा हो जानेवाले लोग ज्यादा ही गलतियां करते हैं। मैं जानती हूं और आपलोगों को भी यह पता है कि इन्होंने राजनीति से प्रेरित जितनी शादियां करायी हैं उनमें से अधिकांश लड़कियों को अपनी खुशियों की बलि देनी पड़ी है। मैं उनकी पंक्ति में शामिल होकर खुद को हलाल करने की इजाजत नहीं दे सकती...यह जानते हुए भी कि मंत्री का यह कुख्यात बेटा...!

(उमा देवी बीच में ही उठकर एक चाटा जड़ देती है उसके गाल पर)

उमा: बदजवान लड़की। चार अक्षर पढ़ क्या गयी और उल्टी-सीधी कविता क्या लिखने लगी कि अपने को अक्ल की खान समझने लगी। मुझे तुम्हारी यह हरकत एकदम नाकाबिले बर्दाश्त है। सुनिये जी, (पति की ओर मुखातिब होकर) कोई जरूरत नहीं है इससे कुछ भी पूछने की। आप फैसला लीजिए, देखते हैं यह कैसे नहीं मानती है।

(प्रथा के चेहरे का कसाव और बढ़ गया। वह जरा-सा भी रुआंसा नहीं हुई। सोहर मिश्र ने इसे ताड़ लिया।)

सोहर: प्रथा को छोड़ दो तुमलोग। इसे अपना पक्ष रखने का पूरा हक है...जो कुछ कहना चाहती है कहने दो। बोलो बेटी, तुम्हें क्यों आपत्ति है इतने बड़े घर की बहू बनने में, जबकि लोग लालायित रहते हैं ऐसे लोगों की जरा-सी निकटता भर पाने के लिए। मैं तुम्हारा कोई दुश्मन नहीं हूं...पिता हूं...तुम्हारा भला सोचकर ही इस घर से दुर्लभ संबंध को सुलभ बनाने जा रहा हूं।

प्रथा: बाउजी, जिसे आप बार-बार बड़ा घर कह रहे हैं, वह भ्रष्टाचार, बेईमानी और घोटालेबाजी से पला-पनपा है। वह मंत्री के मुखौटे में देश और समाज का दुश्मन है। वह कई तरह के आरोपों और कलंकों से धिरा है और उस पर सी बी आई की जाँच चल रही है। उसके बेटे को तो आपने यहां लाकर उसकी पूरी कलई मेरे सामने खोलवा दी। एक नंबर का शैतान, मक्कार, मंदबुद्घि, छिछोरा और कसाई है। कई लड़कियों की जिंदगी उसने तबाह की है। आज भी कई रखैले हैं उसकी। ऐसे घर में मेरे सुखी रहने की बात आप कर रहे हैं...मैं हैरान हूं। सच तो यह है बाउजी कि मैं वहां कुढ़कर और घुटकर मर जाऊंगी।

सोहर: (शान्त स्वर में) प्रथा, मेरे बेटे! तुम जो कुछ कह रही हो उसमें सिर्फ एक अपरिपक्व युवा

आवेग है, गहराई नहीं। मैंने जिंदगी देखी है...दुनिया देखी है...राजनीति और राजनेता से बड़ा कुछ भी नहीं होता, कोई भी नहीं होता। कहीं ने कहीं भ्रष्ट और बेईमान तो सभी होते हैं...कोई कम...कोई ज्यादा...जिसकी जितनी पहुंच, जिसकी जितनी औकात। यह चिन्ता का विषय बिल्कुल नहीं है। रही बात उसके बेटे के चरित्रहीन और नालायक होने की...तो तुम्हें शायद पता नहीं है कि उसका बाप भी युवावस्था तक इसी तरह था...एक नंबर का बदमाश, दुष्ट और मूर्ख। लेकिन देखो, आज वह एक महत्वपूर्ण महकमे का मंत्री है। राजनीति में ऊपर जाने के लिए बेवकूफ होना...जाहिल होना...कोई मायने नहीं रखता। ऐसे बहुत सारे सफल लोग तुम्हें मिलेंगे जो युवावस्था में कुल-कलंक समझे जाते थे...लेकिन आगे जाकर कुल-भूषण बन गये।

प्रथा: यह देश की व्यवस्था के लिए गर्व की नहीं बड़े शर्म की बात है बाउजी कि ऐसे नालायक, निक़ृष्ट और नाकारा लोग बड़ी-बड़ी कुर्सियों पर आसीन होकर पावर सेंटर बन जाते हैं और जो वास्तव में योग्य, मेधावी और होनहार हैं, उन्हें सड़कों और फुटपाथों पर खाक छानने के लिए विवश होना पड़ता है।

सोहर: आज खुद की प्रतिभा से कहीं ज्यादा जरूरत है बैकग्राउंड की...सीढ़ी की...सोर्स-सिफारिश की। ये चीजें हों तो अक्ल और हुनर तो आ ही जाते हैं। नेता की बात छोड़ो, यहां तो बुद्घि विवेक की न्यूनतम जरूरत है...अभिनय, गायन, वादन और नृत्य आदि क्षेत्रों में देख लो, इनमें प्रतिभा और मेधा की अधिकतम जरूरत है। लेकिन यहां भी बाप की साख पर संतानें प्रवेश पा लेती हैं। हीरो का बेटा हीरो...गायक का बेटा गायक...मूर्तिकार का बेटा मूर्तिकार...संगीतकार का बेटा संगीतकार...। तुम्हारा जो पति होगा, उसका भी कल मंत्री होना तय है बेटे...राज करेगी उसके साथ। उसके बिगड़ैल होने से तुम्हारी सेहत पर कोई खरोंच नहीं आनेवाली। जब वह सार्वजनिक व्यक्ति बन जायेगा...जब सबकी आँखें उस पर टिक जायेंगी तो लोकापवाद के डर से वह खुद ही सुधर जायेगा।

प्रथा: बाउजी। मैं जानती हूं कि सही और गलत अथवा धर्म और अधर्म दोनों के अपने-अपने परकोटे होते हैं...अपनेअपने कवच होते हैं। दुष्टता सज्जनता से चमकदार और वजनदार जरूर दिखायी पड़ती है, लेकिन उसकी मियाद ज्यादा नहीं होती। अगर ज्यादा होती तो वह आकाश, यह धरती टिकी नहीं रहती। भरोसे का नाम ही आकाश और धरती है बाउजी। यह भरोसा सज्जनता, नेकी और ईमानदारी से बनता है। आप जिस सुख-वैभव की बात कर रहे हैं, वे सबके लिए अनुकूल सिद्घ नहीं हो सकते। खून जोंक को अच्छा लग सकता है...नरभक्षी शेर को अच्छा लग सकता है...लेकिन गाय और हिरण को नहीं। मैंने ऐसे अराजक व्यक्तियों के खिलाफ बचपन से कवितायें लिखी हैं...अब इनकी संगति-साहचर्य कैसे स्वीकार कर सकती हूं। मेरे साथ ऐसा जुल्म न कीजिए, बाउजी।

सोहर: प्रथा, इस घर की आजीविका भी राजनीति पर ही टिकी रही है। इसी से तुम पल-बढ़कर कवितायें लिखती रही हो। कहनेवाला मुझे भी भ्रष्ट-बेईमान कहता रहा है...तुम फिर भी इसी घर में रही...दम घुट नहीं गया तुम्हारा ?

प्रथा: दम तो मेरा बेशक यहां भी घुटा है, बाउजी...कई बार मैं मरी हूं यहां। जब-जब जवाहर रोजगार योजना के पैसों की लूट करके आप इस घर में तामझाम बढ़ाते रहे हैं तब-तब अपनी बेबसी को मैंने बहुत धिक्कारा है कि काश मैंने आपके घर में जन्म न लिया होता। मैंने बर्दाश्त किया तो बस इस उम्मीद में कि चलो कुछ ही दिनों की बात है...फिर तो मुझे दूसरा घर जाना ही है और उसका चयन सावधानी से मुझे खुद करना है। दुर्भाग्य कि फिर आप मुझे इससे भी कहीं एक बड़ी दलदल में धकेल रहे हैं। मैं खूब जानती हूं कि आप मेरा भला चाहने से अधिक अपना भला देखकर मंत्री से संबंध कायम करना चाह रहे हैं।

मनोहर: यह लड़की तो बिल्कुल विभीषण बनने पर तुल गयी है।

प्रथा: जब आपलोगों ने विभीषण ही मान लिया है मुझे तो वो बात भी सुन ही लीजिए जो मेरे मन में है। पंचायत के चुनाव तक न करानेवाली राज्य की निकम्मी सरकारों के कारण आप सत्रह साल तक मुखिया बने रह गये...मगर काम क्या किया आपने ? आप खुद मुश्किलों और तकलीफों से भरे गाँव को छोड़कर शहर आकर रहने लगे। हरिजनों की बस्ती स्थित उस कुएं तक को ठीक नहीं करवाया जिसमें गलियों से बहकर बरसात का गंदा पानी चला जाता है और उसे मजबूरन पी-पीकर लोग डायरिया और हैजे के शिकार हो जाते हैं।

सोहर: देखो प्रथा, इस धकियल मंत्री के बेटे से शादी करने के लिए बड़े-बड़े नामी-गिरामी और दिग्गज लोग चक्कर लगा रहे हैं। मुझे तो इन्होंने इस कारण तरजीह दे दी कि पिछले चुनाव में मैंने इनकी जनबल-धनबल से थोड़ी मदद कर दी थी। अन्यथा इनकी शान-शौकत के आगे मेरी क्या बिसात! तुम्हें तो इसे खुशकिस्मती मानकर अपने का धन्य समझना चाहिए।

प्रथा: जो लोग पोर-पोर से दगाबाज और दुष्ट हों, उनके घर जाना खुशकिस्मती नहीं बदकिस्मती होगी बाउजी।

सोहर: देखो प्रथा ! (आँखों का रंग बदल जाना) मेरी नरमी का नाजायज फायदा न उठाओ। अब तक वही हुआ है जो मैंने चाहा है। मंत्री जी से सारा कुछ पक्का हो गया है... यह शादी किसी कीमत पर टल नहीं सकती।

प्रथा: बाउजी, यह शादी तो टलेगी ही, चाहे मुझे मौत की कीमत ही क्यों न चुकानी पड़े। मैंने भी किसी से पक्का कर लिया है।

(पल भर के लिए सब सन्न रह जाते हैं)

सोहर: तुमने पक्का कर लिया है...क्या मैं जान सकता हूं किससे ?

प्रथा: तपोवन कुमार का नाम तो आपने सुना ही होगा।

सोहर: (अपना सर पीटकर) हे राम! तुम्हें मिला भी तो एक मामूली किरानी का निकम्मा बेटा, जो मनगढ़ंत किस्से-कहानियां लिखकर कुछ छप-छपा क्या गया कि अपने को बहुत बड़ा तीसमार लेखक मानने लगा! तुम क्या समझती हो कि कल्पना की दुनिया में ठोकरें खानेवाला यह नाकारा लड़का दो रोटी भी उपार्जन कर लेने के लायक है?

प्रथा: वह क्या है, आप नहीं समझ पायेंगे बाउजी। आपके चश्मे का जो लेंस है उसमें घिनौनी राजनीति ही फोकस हो सकती है, उत्कृष्ट साहित्य नहीं। सरोकारों के लिए जीनेवाले लोग रोटी की परवाह नहीं करते। खुशी हृदय की चीज है जो फटेहाली और फक्कड़ता में भी मिलती है।

सोहर: तुम बता सकती हो कि साहित्य से क्या होता-जाता है और किसको क्या मिलता है? कौन इसे पूछता है और किसका खाना इसके बिना हजम नहीं होता?

प्रथा: आपके प्रिय मंत्री जैसे कृतघ्न और कमीने लोग जिस भरोसे का खून कर देते हैं, साहित्य उस भरोसे को जोड़ता है। आज भी दुनिया में भूले को राह बतानेवाले लोग हैं...गलत को गलत कहकर असहमति जाहिर करनेवाले लोग है...ईमानदारी और उसूल को अपनी सबसे बड़ी धरोहर माननेवाले लोग हैं। यह सब कुछ साहित्य ही सिखाता है बाउजी।

सोहर: (बुरी तरह चिढ़कर) बकवास बंद करो प्रथा। अब मेरे बर्दाश्त करने का इन्तहां हो गया है। मैंने तुम्हें समझाने का अपना फर्ज पूरा कर दिया, जबकि तुम जानती हो कि यह मेरी आदत नहीं है। तुम्हें हमारे अनुसार चलना ही होगा। जिद करोगी तो हमें जबर्दस्ती भी करना आता है...तुम इससे अच्छी तरह वाकिफ हो।

प्रथा: तो आप भी वाकिफ हो जायें बाउजी, मेरे साथ आप जबर्दस्ती नहीं कर पायेंगे। विश्वास नहीं हो तो एकबार आप तपोवन से मिल लीजिए, समझ जायेंगे।

सोहर: ठीक है, तुम यहां से जा सकती हो। (प्रथा चली जाती है।)

सोहर: मनोहर, प्रथा पर आज से कड़ी निगरानी रखो। इसे घर से बिना मेरी अनुमति के कहीं भी बाहर नहीं निकलना है। आज से इसकी कविता-साहित्य सब बंद।

दृश्य 14

(तपोवन को आवाज लगाते हैं सोहर मिश्र। तपोवन बाहर निकलता है।)

तपोवन: आइए मुखिया जी, मैं सोच ही रहा था कि अब आप जरूर मुझसे मिलेंगे। आपको मैं घर के अंदर चलकर बैठने के लिए कह सकता हूं?

सोहर: नहीं, मैं यहीं ठीक हूं। तपोवन कुमार, क्या तुम जानते हो कि मैं तुम्हारे पास क्यों आया हूं?

तपोवन: फिल्मों में मैंने ऐसे दृश्य कई बार देखे हैं। जाहिर है आप मुझे कहने आये होंगे कि प्रथा से मैं कोई लगाव न रखूं। इसके एवज में आप मुझे कुछ प्रलोभन ऑफर करेंगे, जिसे मैं अस्वीकार कर दूंगा तो आप मुझे जान से मारने की धमकी दे डालेंगे। क्यों मैं ठीक कह रहा हूं न?

सोहर: कह तो तुम ठीक रहे हो लेकिन कहने का अंदाज तुम्हारा ठीक नहीं है। दरअसल दुनिया में सभी अशिष्ट, बदगुमान और आवारा लड़कियों के लाचार पिताओं को यही एक रवैया है जो अख्तियार करना पड़ता है। लेकिन तुम इसे एक फिल्म न समझना। मेरा और तुम्हारा यहां होना एक हकीकत है। इस समय कल्पना की दुनिया से बाहर आ जाओ और मेरी बात ध्यान से सुनो। प्रथा की शादी मंत्री जी के बेटे से तय हो चुकी है। तुम अच्छी तरह जानते हो कि उनकी क्या धाक और रुतबा है। उनकी इज्जत पर बन जायेगी तो एक फूंक में तुम कहां उड़कर गिरोगे, यह कोई नहीं जान पायेगा। सुन रहे हो न?

तपोवन: हां मुखिया जी, बहरा नहीं हूं, सुन रहा हूं। जैसा कि शुरू में ही कहा ऐसे संवाद पहले भी मैंने कई बार सुन रखे हैं। बहरहाल, आप जो कहना चाहें, कह लें, तभी मेरा जवाब देना ठीक रहेगा।

सोहर: तुम साहित्य के आदमी हो। साहित्य में तुम्हें आगे बढ़ना है...मंत्री जी से लाइन अप करवाकर मैं राजभाषा विभाग द्वारा तुम्हारी किताबें छपवा दूंगा। आगामी पन्द्रह अगस्त की सम्मान-सूची में पचास हजार रुपये के पुरस्कार के लिए तुम्हारा नाम भी जुड़वा दूंगा। कोर्स में तुम्हारी रचनायें लगवा दूंगा। रातों-रात तुम चर्चित हो जाओगे। क्यों ठीक है न?

तपोवन: मुखिया जी, मैं साहित्यकार हूं, कोई कुत्ता नहीं कि आप गोश्त के निवाले दिखा रहे हैं। हमारे सृजन का उद्देश्य सिर्फ पुरस्कार पाना और स्टार बन जाना नहीं है। सिफारिश और कृपा के आधार पर मिले पुरस्कार, पुरस्कार नहीं बल्कि खुद्दारी और गैरत का बलात्कार है। जिसके पास आत्मस्वाभिमान नहीं है वह लेखक तो क्या साधारण आदमी होने का पात्र भी नहीं है, वह महज एक केंचुआ है। आप कह रहे हैं कि मंत्री के बेटे से प्रथा की शादी तय हो चुकी है...लेकिन मुखिया जी, अगर आपका दिल मजबूत है तो सुन लीजिए...प्रथा से मेरी शादी हो चुकी है। ये रहा अदालत का प्रमाण....। (तपोवन ने जेब से निकालकर एक कागज उनके सामने फैला दिया। इसे देखकर एकबारगी उनकी आँखें फटी की फटी रह गयी। फिर उन्होंने अपने को जरा संयत किया।)

सोहर: अदालत और कानून का मेरे लिए कितना महत्व है, तुम जानते हो, तपोवन। इस दो पन्ने के कागज को मैं फाड़कर चाहूं तो तुम्हें इसी वक्त लापता करवा दूं।

तपोवन: आप ऐसा कर सकते हैं, इसमें मुझे कोई संशय नहीं है। अदालत और कानून आपके लिए कुछ भी नहीं है, यह तो ठीक है, लेकिन जनता को भी आप इस तरह नकार नहीं सकते, मुखिया जी। मैं लेखक हूं और कलम ही मेरा हथियार है। आपके और मंत्री चौसर के सारे काले चिट्‌ठे को सप्रमाण लिख लिया है। देखते हैं जनता की नजरों में गिरने से आप खुद को कैसे रोकते हैं। मेरा अंत तो आपका भी अंत....!

(मुखिया जी हाथ से इशारा करते हैं। नेपथ्य से दौड़कर जग्गन-मग्गन आता है और तपोवन पर रायफल तान देता है। ठीक इसी समय प्रथा आती है और तपोवन के आगे ढाल बनकर खड़ा हो जाती है। मुखिया हक्के-बक्के रह जाते हैं।)