हुक्मउदूली भाग 2 Jaynandan द्वारा नाटक में हिंदी पीडीएफ

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हुक्मउदूली भाग 2

(नाटक)

हुक्मउदूली

भाग 2

जयनंदन

दृश्य 6

(जीप के रुकने की आवाज आती है। सोहर, मनोहर और अंगरक्षक प्रवेश करते हैं। सोहर बैठकखाने के अपने खास आसन पर सुस्ताते हुए से बैठ जाते हैं। मनोहर आवाज लगाता है।)

मनोहर: गपलू...जरा पानी-वानी लाना भाई ।

(उमा देवी आ जाती है।)

उमा देवी: बहुत देर लगा दी आपलोगों ने ?

सोहर: कई गांव जाना पड़ा...सबका रोना-धोना और फरियाद सुनना...देर तो हो ही जाती है। अभिराम आ गया...कहां है वह ?

उमा: आराम कर रहा है ऊपर।

(गपलू पानी लाकर देता है। सोहर पानी पीकर जरा इत्मीनान महसूस करते हैं।)

उमा: कुछ पता लगा हाथी का ?

सोहर: कुछ पता नहीं लगा। डीसी ने एक स्पेशल पुलिस फोर्स मंगवाया है। फोर्स गश्त लगाता रह गया और हाथी ने रात में दो और हरिजन को मार डाला। गाँववाले गुस्से से एकदम बेकाबू हो रहे हैं।

मनोहर: भैया, एक बात पर शायद आप गौर नहीं कर रहे। जितने लोग मारे गये हैं, उन सबकी किसी ने किसी बबुआन से या तो दुश्मनी या झगड़ा रहा है।

सोहर: तुम्हारा मतलब है कि हाथी के बहाने लोग अपना पुराना बदला निकाल रहे हैं ?

मनोहर: सभी मामलों पर नजर डालने से मुझे तो यही निष्कर्ष दिखाई पड़ता है।

सोहर: (सोचते हुए) तुम्हारे कहने में वाकई वजन है...मनोहर (फुस-फुसाकर कहना) गाँव में कुछ कट्‌टर दुश्मन तो हमारे भी हैं, हमलोग भी क्यों नहीं इस मौके का फायदा उठा लें ?

मनोहर: मेरे खयाल में यह बहुत अच्छा अवसर है भैया कि साँप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे।

सोहर: बुलाओ जग्गन-मग्गन को।

मनोहर: (आवाज लगाकर) जग्गन...मग्गन....!

जग्गनमग्गन: (एक साथ) हां हुजूर...।

मनोहर: जग्गन-मग्गन, बहुत दिनों से तुम दोनों के हाथ में खुजली हो रही थी न! चलो अब वक्त आ गया है...हाथी का कुछ काम बचा है जो तुमलोगों को पूरा करना है। समझ रहे हो न?

जग्गन: आप हुक्म तो कीजिये सरकार।

मग्गन: आपको तो मालूम है कि आदमी का खून देखे जब बहुत दिन हो जाता है तो हमारा स्वास्थ्य खराब होना शुरू हो जाता है।

मनोहर: तो सुनो, रेवत चौधरी और फुलेरा शर्मा को कल रात में हाथी कुचल डालेगा...ठीक है?

सोहर: काम उसी तरह होना चाहिए जिस तरह हाथी करता है। किसी अस्ला-औजार का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। लगना यों चाहिए कि जैसे कुचला गया हो।

जग्गन-मग्गन: हम समझ गये हुजूर।

सोहर: ठीक है...जाओ, खाना खाकर आराम करो...रात जागना पड़ेगा। फिलहाल कहीं जाने का कोई प्रोग्राम नहीं है।

(सोहर इशारे से अपने अंगरक्षकों को पास बुलाकर समझाने लगता है। अंत में मनोहर एक हिदायत देता है।)

उमा: अभिराम को बुलाऊं क्या ?

सोहर: नहीं, अभी उसे आराम करने दो, कुछ देर बाद मैं खुद ही उसके कमरे में जाऊंगा।

दृश्य 7

(सोहर आवाज लगाते हैं अंदर से।)

सोहर: कहां हो भाई अभिराम? (कहते हुए मंच पर आना। अभिराम जो पहले मौजूद है, उठकर उनकी ओर बढ़ता है)

अभिराम: प्रणाम अंकल...।

सोहर: खुश रहो। आराम से तो हो...कोई दिक्कत तो नहीं है ?

अभिराम: आपका यह घर तो पंचसितारा मकानों से भी आरामदेह और नफासतदार है, अंकल।यहां भला क्या दिक्कत हो सकती है।

सोहर: यहां तुम एकदम इत्मीनान और निश्चिंत होकर रह सकते हो।

अभिराम: दिक्कत यह है अंकल कि मैं एक घर में बंद होकर नहीं रह सकता।

सोहर: बहुत बंद होकर रहने की जरूरत भी नहीं है। आसपास तो थोड़ा घूमफिर सकते ही हो। तुम्हें तो यहां कोई पहचानता भी नहीं है। पुलिस तो तुम्हें देखकर भी नहीं देखेगी, चूंकि उन्हें सब पता है। तुम्हारी बोरियत दूर करने के लिए घर के सारे लोग तुम्हारे साथ हैं। प्रथा तुम्हारा खास खयाल रखेगी।

अभिराम: बहुत-बहुत धन्यवाद अंकल। आप मेरे लिए इतना कर रहे हैं।

सोहर: यह घर तुम्हारा है बेटे, हमलोग सभी तुम्हारे हैं।

अभिराम: अब मैं समझा कि पापा क्यों आपके इतने प्रशंसक हैं। हमेशा आपका जिक्र करते हैं। खासकर पिछले चुनाव में उन्हें जीतवाने में जो आपने मदद की, उसके लिए वे आपके एकदम मुरीद हो गये हैं।

सोहर: यह उनका बड़प्पन है बेटे कि मुझे वे अपनी जीत का श्रेय देते हैं। सच्चाई तो यह है कि वे खुद ही बहुत लोकप्रिय और यहां की जनता के लाड़ले नेता हैं।

अभिराम: उनकी ऐसी छवि बनाने में आपका योगदान है अंकल। कह रहे थे कि अगले विधानसभा के चुनाव में अपनी पार्टी से उम्मीदवारी का टिकट बिना आपको दिलाये वे चैन नहीं लेंगे।

सोहर: टिकट दिलायें या न दिलायें, मैं उनका समर्थक हूं और सदा बना रहूंगा। मेरा भी तो कितना काम उनसे निकलता है। कुछ भी कह देता हूं कभी इंकार नहीं करते।

अभिराम: हाथी प्रकरण की क्या स्थिति है अंकल।

सोहर: पुलिस गश्त लगा रही है रात-दिन...गाँववाले घूम रहे हैं ग्रुप बनाकर उसे खदेड़ने के लिए, मगर उसकी कहीं परछाईं तक देखने को नहीं मिल रही।

अभिराम: पुलिस और कानून का चक्कर छोड़कर आप मुझे ले चलिये अंकल, देखिये, मैं उसे कैसे ढूंढ निकालता हूं। निशाना भी मेरा अचूक है...एक ही गोली में सूट कर दूंगा।

सोहर: तुम्हारा निशाना अचूक है, यह मुझे पता है बेटे। तुम्हारे सिक्सर से जितनी भी बार गोलियां चली हैं, कोई बेकार नहीं गयी हैं। कम से कम पाँच शिकार तो तुम कर ही चुके होगे।

अभिराम: क्या करें अंकल, कुछ लोग इतने जिद्दी, अड़ियल और थेथर होते हैं कि लाख कहने से भी वे चेतते नहीं। उन्हें नैतिक और आदर्शवादी होने के दौरे पड़ने लगते हैं। पापा के रास्ते में अड़ंगा डालते रहते हैं, उनके हर सफेद पर कालिख पोतने के अभियान में लग जाते हैं। जाहिर है इनकी दवा बस गोली ही कर पाती है।

सोहर: हा...हा...हा (हंसी)

दृश्य 8

(कौओं के डकरने और चिड़ियों के चहचहाने की आवाज आ रही है। सोहर और मनोहर आमनेसामने बैठकर चाय पी रहे हैं। बाहर जीप के आकर रुकने की आवाज आती हैं।)

सोहर: लगता है जग्गन-मग्गन आ गये? मनोहर, उन्हें खिड़की से आवाज देकर यहीं बुला लो।

मनोहर: जग्गन-मग्गन, आ जाओ....भैया बुला रहे हैं।

(जग्गन-मग्गन प्रवेश करता है।)

मनोहर: क्या हुआ जग्गन, काम हो गया ?

जग्गन: नहीं सर कोई काम नहीं हुआ। उल्टे एक बुरी खबर लेकर आया हूं।

सोहर: बुरी खबर ! जल्दी बताओ यार, क्या हुआ ?

मग्गन: हम रात में घर से निकले ही थे कि सचमुच के हाथी से सामना हो गया। हम दोनों तो भाग निकले लेकिन लजपत चाचा उसकी चपेट में आ गये। हाथी ने खदेड़कर उन्हें सूंड़ में उठा लिया। हम दोनों शोर मचाकर उस पर ईंट-पत्थर चलाने लगे। हाथी डरकर उन्हें जल्दी में हल्का सा पटककर भाग निकला। वे बालबाल बच गये।

(पीछे से आकर प्रथा भी सुनने लगती है।)

सोहर: (गुस्से से आगबबूला होकर) अब यह हाथी नहीं बचेगा। चाचा जी को चपेट में ले लिया...मेरे चाचा जी को। मनोहर, एके 56 निकालकर लाओ। (मनोहर हुक्म की तामील के लिए दौड़ पड़ता है)

मनोहर: मैं अभी निकालता हूं भैया। (अंदर चला जाता है।)

जग्गन: इतना तय हो गया सर कि सचमुच का एक पागल हाथी है जो उत्पात मचा रहा है। इसे मार देने का आदेश आपने पहले दे दिया होता तो रात में हमलोग निश्चित रूप से मार गिराये होते। पिस्तौल तो हमारे पास था ही।

सोहर: पिस्तौल से कुछ नहीं होता उसे। एके47 ले जाओ और उसे ढूंढ़कर खत्म कर दो।

प्रथा: लेकिन बाउजी, वन्य जीव अधिनियम के अनुसार हाथी एक संरक्षित प्राणी है। आपने गाँववालों को कहा था कि इसे मारना एक संगीन जुर्म है।

सोहर: तुम्हें यहां आने को किसने कहा ? तुम घर के अंदर जाओ। एक जंगली हाथी की इतनी हिम्मत हो गयी कि वह हमारे परिवार को भी शिकार बनाने लगा। हमसे दुश्मनी करके जब आदमी नहीं बचते तो यह हाथी क्या चीज है।

(प्रथा चली जाती है। मनोहर एके56 लेकर आता है और जग्गन के हाथ में थमा देता है)

मनोहर: लो जग्गन, यह रहा एके 56।

सोहर: चाचा जी को ज्यादा चोट तो नहीं आयी?

मग्गन: चोट तो आयी है लेकिन वे ठीक हैं, गाँव के डॉक्टर को उन्होंने दिखा लिया है।

मनोहर: ज्यादा कुछ हो तो उन्हें लेकर यहां आ जाना और उन्हें कहना कि हाथी की मौत का परवाना कट चुका है। इस संदेश से उन्हें साइक्लोजिकल सुकून मिलेगा।

दृश्य 9

(अपने कमरे में प्रथा ध्यानमग्न होकर एक कविता लिख रही है। गपलू चाय लेकर आता है।)

गपलू: प्रथा बहिन, चाय लाया हूं तुम्हारे लिए।

प्रथा: गपलू...देखो, मैं इस समय कुछ लिख रही हूं। मुझे कोई डिस्टर्ब न करे...तुम भी नहीं।

गपलू: तो चाय लेकर चला जाऊं?

प्रथा: डिस्टर्ब जब कर ही चुके तो चाय रहने दो। (गपलू चला जाता है।)

प्रथा: (बोल-बोलकर लिखने लगती है) संविधान एक हो, फिर भी समान नहीं होते सबके लिए न्याय और कानून...

अभिराम: (मंच के अंदर से दस्तक देकर) प्रथा, क्या मैं आ सकता हूं तुम्हारे कमरे में?

प्रथा: (बुरी तरह भन्नाकर) जी नहीं। प्लीज आप इस समय जाइए...मैं कुछ लिख रही हूं।

अभिराम: अब तो आ ही गया हूं। अतिथि हूं तुम्हारा, कुछ तो खयाल करो मेरा। आखिर तुम से बात न करूं तो किससे करूं ?

प्रथा: जब से आये हो बात ही तो कर रहे हो...अनर्गल, फालतू, बेसिर पैर के। मेरा तो सारा लिखना पढ़ना हराम हो गया है।

अभिराम: गुस्से में खूबसूरत हो जाना एक कहावत है न, तुम पर यह कहावत बिल्कुल फिट बैठती है। प्रथा, अब तुम्हें और लिखने-पढ़ने की जरूरत क्या है, यार। तुम जैसी हो मेरे लिए यही पर्याप्त है।

प्रथा: तुम्हारी जरूरत क्या है, क्या नहीं, उससे मुझे कोई लेना-देना नहीं है।

अभिराम: (उसके हाथ पकड़ लेना) क्यों, मेरी बीवी नहीं बन रही हो तुम ?

प्रथा: (हाथ झटकरकर) तमीज से पेश आओ। मैं तुम्हें पहले भी मना कर चुकी हूं कि ज्यादा खुशफहमी में न रहा करो। यह पागलपन ही होगा कि गंदी और अंधी खाई को देखकर भी कोई उसमें छलांग लगा दे।

अभिराम: तुम्हारा इंकार जितना ही सख्त होगा, मेरा स्वीकार उतना ही मजबूत होता जायेगा।

(धृष्टता से उसके गालों की ओर हाथ बढ़ाता है, जिसे फिर वह झटक देती है)

प्रथा: भूलो मत कि तुम मेरे घर में हो, जहां तुम्हारी कोई भी बेहयाई तुम्हें महंगी पड़ सकती है।

अभिराम: तुम्हारे घर में हूं इसीलिए मुझे और भी कोई डर नहीं है। सच पूछो तो मैं यह मंसूबा लेकर आया हूं कि तुमसे करीब होने की मुझे पूरी आजादी मिलेगी और जो चाहूंगा मैं करूंगा।

प्रथा: जितना जल्दी हो सके अपने मंसूबे को टायलेट में फ्लश कर दो। मुझे कोई ऐरी-गैरी लड़की समझ लेने की भूल मत करना।

अभिराम: ऐरी-गैरी तो कितनी मेरी जांघों से गुजर चुकी है। तुम्हें तो खास समझता हूं इसलिए अपने घर में बिठाना चाहता हूं। तुम वाकई इस समय बहुत अच्छी लग रही हो। (वह फिर अपना हाथ उसके कपोल की तरफ बढ़ाना चाहता है।)

प्रथा: (चिल्ला पड़ती है) तुम एक नंबर के कमीने हो...कातिल और खूनी तो हो ही...निकल जाओ यहां से...।

उमा: (घर के अंदर से) क्या हो गया प्रथा ?

(सोहर और उमा देवी भागते हुए से कमरे में दाखिल होते हैं। अभिराम तमतमाता हुआ निकल जाता है।)

उमा: क्यों चीख रही हो ? ऐसी क्या आफत टूट गयी तुम पर ?

सोहर: बेटी, जरा उससे ढंग से पेश आओ। मैं देख रहा हूं कि तुम कभी उससे सौहार्द और आत्मीयता का बर्ताव नहीं कर रही।

प्रथा: बाउजी, वह आदमी नहीं हैवान है हैवान...!

सोहर: (डांट देना) प्रथा...।

(दोनों विस्फारित आँखों से उसे देखते रह जाते हैं।)

दृश्य 10

(कॉलबेल बजने की ध्वनि। गपलू अंदर से आकर दरवाजा खोलता है। तपोवन प्रवेश करता है।)

गपलू: जी कहिये?

तपोवन: अरे गपलू, तुमने पहचाना नहीं, मैं हूं तपोवन।

गपलू: हां...हां, मैं पहचान गया...प्रथा को बुला दूं न!

तपोवन: अरे वाह! तुम तो काफी समझदार हो।

गपलू: जी अभी बुलाता हूं।

(गपलू अंदर जाता है। प्रथा आती है।)

प्रथा: (उसे देखकर चहकती हुई) अरे तुम ! अचानक !

तपोवन: हाँ, अचानक खबर मिली कि सत्यप्रिय भारती शहर में आये हुए हैं। सान्निध्य पत्रिका के संपादक ने निराला भवन में एक गोष्ठी रखी है।

प्रथा: मैं अभी तैयार होकर आती हूं।

(दरवाजे के पास आकर)

अभिराम: प्रथा, क्या मैं आ सकता हूं?

प्रथा: ड्राइंग हॉल में आने की इजाजत नहीं ली जाती...खासकर उस आदमी को जो घर के अन्तःपुर में ठहराया गया हो।

(प्रथा अंदर चली जाती है।)

अभिराम: सीधा बोलना तो इसे आता ही नहीं। (तपोवन से मुखातिब होकर) हलो, क्या आप प्रथा को कहीं ले जाने आये हैं ?

तपोवन: जी हां, एक साहित्यिक समारोह में।

अभिराम: आपका शुभ नाम ?

तपोवन: जी मेरा नाम तपोवन कुमार है। क्या मैं आपका नाम जान सकता हूं ?

अभिराम: जी..म..म...मैं घनश्याम तिवारी हूं।

तपोवन: घनश्याम तिवारी (संशय में गर्दन हिलाते हुए) लगता है कहीं अखबार में मैंने आपका फोटो देखा है...लेकिन नहीं, शायद यह मेरा भ्रम भी हो सकता है। अखबार में आपका फोटो भला मैं क्यों देखूंगा?

अभिराम: क्या करते हैं आप भाई तपोवन कुमार ?

तपोवन: बस यह समझ लीजिए कि इंसानियत की फसल उगानेवाला एक मामूली किसान हूं जिसमें किसी भी चीज को जोड़ना मुख्य काम होता है, तोड़ना नहीं।

अभिराम: भाई, जरा साफ-साफ बतायें तो मुझे कुछ समझ में आये।

तपोवन: फिलहाल तो फकत एक अदीब हूं, जिसे हिन्दी में साहित्यकार कहते हैं।

अभिराम: पेशा क्या है आपका ? मेरा मतलब आजीविका चलाने के लिए कोई काम ?

तपोवन: सच पूछिए तो मैं साहित्य-सृजन को भी कम बड़ा काम नहीं मानता। यह आजीविका बड़ा मायाबी शब्द है। इसके अर्थ सबके लिए अलग-अलग होते हैं। जिसकी जितनी हसरत, जिसकी जितनी आवश्यकता, उतने ही इसके बदले-बदले अर्थ। एक साधु-सन्यासी की आजीविका तपस्या, साधना और भ्रमण-तीर्थाटन से ही पूरी हो जाती है। सिर्फ रोटी और कपड़ा आजीविका में शामिल हो तो साहित्य से भी गुंजाइश निकल आती है। कार, बंगला, कुर्सी, धाक और विलासिता के तमाम ठाट अगर आजीविका में शामिल हों तब भ्रष्टाचार, घोटाला तथा हत्या-रक्तपात आदि करके ही जुटाये जा सकते हैं।

अभिराम: (भंगिमा वक्र करके) तुम्हें क्या लगता है दुनिया में पवित्रता, सच्चाई और सुगंध के तुम साहित्यकार ही ठेकेदार हो ?

तपोवन: साहित्यकार ठेकेदार तो किसी भी चीज का नहीं है। ठेकेदार तो वर्चस्ववादी और एकाधिकार जतानेवाला सामंती शब्द है। हां, साहित्यकार हर अच्छी चीज का समर्थक और पोषक जरूर है।

अभिराम: बड़ीबड़ी सैद्घान्तिक डींगे हांकते हो। आज अगर किसी पार्टी से टिकट दिला दूं तो तुरंत दौड़ पड़ोगे चुनाव लड़ने के लिए और अगर मंत्री बनने का मौका मिल जाये तो चापलूसी में बिछ जाओगे जमीन पर।

तपोवन: संभव है जैसा तुम कहते हो वैसा करने लगूं, लेकिन मंत्री बनकर हम लूटपाट, भ्रष्टाचार और हत्या तो कतई नहीं कर सकते, इसकी गारंटी है। राजनीति में जाकर भी एक साहित्यकार इंसानियत की फसल को ही सींचने का काम करने लगेगा।

अभिराम: बहुत सयानी चीज हो दोस्त। लगता है प्रथा से गाढ़ी दोस्ती है।

(तैयार होकर प्रथा आ जाती है और सुन लेती है कुछ बातें।)

प्रथा: तप, चलो भी। जिससे सर लड़ाने-टकराने से फूट जाने का खतरा हो वहां से बच निकलना ही बेहतर है। चलो देर हो रही है।

तपोवन: चलता हूं मि. घनश्याम तिवारी।

प्रथा: (चौंकती हुई) घनश्याम तिवारी!

तपोवन: हां, इन्होंने मुझे अपना नाम घनश्याम तिवारी ही बताया।

प्रथा: अच्छा...अच्छा, मुझे भी इनका नाम पता नहीं था, अब पता हो गया।

(तपोवन को साथ लेकर प्रथा घर से निकल जाती है। इसी समय मनोहर प्रवेश करता है।)

अभिराम: आइये मनोहर अंकल...आइये। आपसे कुछ पूछना है मुझे।

मनोहर: हां भाई अभिराम...पूछो क्या पूछना है।

अभिराम: अंकल, अभी-अभी प्रथा को जो अपने साथ लेकर गय, क्या आप उस लड़के को जानते हैं?

मनोहर: बहुत साधारण लड़का है, कुछ कहानी-वहानी लिखता है।

अभिराम: अपने को बहुत बड़ा तीसमार समझता है। मुझे तो इसके लक्षण अच्छे नहीं लगे। प्रथा को

ऐसे लड़कों से दूर रहना चाहिए।

मनोहर: भैया-भाभी नहीं थे घर में इसलिए वह चली गयी। अन्यथा भैया तो उसे डांटकर भगा देते।

अभिराम: अंकल, आज मोबाइल काम नहीं कर रहा, लगता है रिले टावर में कुछ गड़बड़ी है। आज एक जरूरी कॉल आनेवाला है, आप जरा फोन पर ध्यान रखिएगा।

मनोहर: क्या आज कोई खास दिन है ?

अभिराम: आज मेरे बेल पेटिशन पर सुनवाई है।

मनोहर: अच्छा....। अरे बेटे बेल मिले न मिले, तुम्हें फर्क क्या पड़ता है। पूरी सरकार तुम्हारे पक्ष में है,आज नहीं तो कल, जमानत तो मिलना ही मिलना है।

दृश्य 11

(बैठकखाना में सोहर कुछ पढ़ रहे हैं। गपलू झाड़-पोंछ कर रहा है। फोन की घंटी बजती है। सोहर फोन उठाते हैं। दूसरी तरफ से चौसर मिश्र हैं।)

सोहर: हाँ चौसर बाबू। कहिए क्या हालचाल है?

चौसर: (दूसरी तरफ से) एक अच्छी खबर है सोहर बाबू। हाईकोर्ट से अभिराम को एंटीसिपेटरी बेल मिल गयी है। अभिराम से जरा बात करवाइए, उसका मोबाइल लगता है काम नहीं कर रहा है।

सोहर: अभी बुलाता हूं मैं। (गपलू को इशारा करते हैं)

(गपलू दौड़कर जाता है, अभिराम को लेकर आता है।)

अभिराम: (सोहर से फोन लेकर) हलो पापा...जी...जी...अच्छा...हां कल ही मैं आ रहा हूं। (फोन रखकर सोहर की ओर मुखातिब होना) बेल मिल गयी मुझे। पापा बेहद खुश हैं। उन्हें हमेशा लगता था कि पता नहीं क्या होगा।

सोहर: बधाई हो बेटे...बहुत-बहुत बधाई हो।

अभिराम: कल सुबह ही निकल जाऊंगा, अंकल। मन तो हो रहा है कि अभी ही उड़ जाऊं।

उमा: तुम यहां रहे तो हम सबको बहुत अच्छा लगा बेटे।

अभिराम: आपलोगों ने मुझे जितना स्नेह-प्यार दिया, मैं उसके लिए आप सबका आभारी हूं आंटी। आपलोगों ने मेरा दिल जीत लिया है। पापा आपलोगों के बारे में जितनी प्रशंसा करते थे, उससे भी कहीं ज्यादा निकले आपलोग। मेरी एक-एक जरूरत का आपने बहुत ध्यान रखा। आपलोग मुझे हमेशा याद आयेंगे।

सोहर: मुझे तो बहुत अच्छा लगता कि तुम दो-चार दिन और रुकते।

अभिराम: रुकूंगा अंकल, कभी इतना रुकूंगा कि जाने का नाम ही नहीं लूंगा।

(सभी लोग हंसने लगते हैं।)