उर्दू अखबारों ने रखी बिहार में पत्रकारिता की नींव Sanjay Kumar द्वारा पत्रिका में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

उर्दू अखबारों ने रखी बिहार में पत्रकारिता की नींव

उर्दू अखबारों ने रखी बिहार में पत्रकारिता की नींव

संजय कुमार

इसमें कोई शक नहीं कि देश में उर्दू पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। आजादी के आंदोलन से लेकर भारत के नवनिर्माण में उर्दू के पत्रकारों और उर्दू पत्रकारिता ने अपना योगदान देकर एक बड़ा मुकाम बनाया है। इसमें बिहार की उर्दू पत्रकारिता की भूमिका भी अहम रही है। लेकिन, हकीकत यह है कि मीडिया के झंझावाद ने लोकतंत्र के चैथे खम्भे को मजबूत बनाने में उर्दू के पत्रकारों और उर्दू पत्रकारिता के योगदान को आज दरकिनार कर दिया गया है। उर्दू पत्रकारिता अपने बजूद के लिए आज हर मुकाम पर संघर्ष कर रही है।

हालांकि भारत में विलियम वोल्टस के प्रयासों के बाद सर्वप्रथम हिक्की ने समाचार पत्र ‘बंगाल गजट’ और ‘कोलकता जनरल एडवाईजर’ 29 जनवरी 1780 को प्रकाशित कर जो पत्रकारिता का बीजारोपण किया था आज उसकी जडं़े न सिर्फ मजबूत हो चुकी हंै कि उसे हिला पाना आसान काम नहीं। अंग्रेजी भाषा के बाद उर्दू, फिर हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं में समाचार पत्रों का प्रकाशन हुआ। भारतीय पत्रकारिता में अंग्रजी के बाद उर्दू का योगदान देखा गया। इसमें बिहार का भी हस्तक्षेप रहा। पश्चिम बंगाल के करीब होने से वहंा की गतिविधियों का सीधा असर बिहार पर स्वाभाविक तौर पर पड़ा। यही वजह है कि बिहार से पहला समाचार पत्र प्रकाशित होने का श्रेय उर्दू पत्र को जाता है। 1810 में बिहार का पहला समाचार पत्र ‘साप्ताहिक उर्दू अखबार’ को मौलवी अकरम अली ने संपादित कर कोलकता से छपवाया। कहा जाता है कि पत्रकारिता बंगाल में जन्मी और धीरे-धीरे पूरे राष्ट्र में फैल गई। जहां तक बिहार का सवाल है तो हिन्दी भाषी क्षेत्र होने के बावजूद यहां से उर्दू समाचार पत्रों का प्रकाशन सबसे पहले हुआ। इसके बाद अंगे्रजी व हिन्दी समाचार पत्रों का प्रकाशन शुरू हुआ।

बिहार में दूसरा पत्र 1853 में आरा से प्रकाशित हुआ, जो उर्दू साप्ताहिक ‘नूर उल अनवार’ था, जिसका उर्दू उच्चारण‘‘नूरूल अनवार’’ है। इसे सैयद मोहम्मद हाशमी ने निकाला। ‘नूर उल अनवार’ पूर्णतः व्यवसायिक पत्र था। इसमें विज्ञापनों की भरमार रहती थी। साथ ही स्कूली विद्यार्थियों के लिए सामग्री छपती थी, हालांकि यह ज्यादा दिनों तक नहीं चल पायी। बिहार में सर्वप्रथम उर्दू पत्रकारिता आरम्भ तो हुई, ‘नूर उल अनवार’ और ‘अखबार उल अखबार’ पत्रों ने यहां पत्रकारिता की शुरुआत कर अन्य भाषाई पत्रों के लिए रास्ते खोल दिये। उर्दू के बाद बिहार से अंग्रेजी पत्रकारिता का दौर प्रारम्भ हुआ। वर्ष1872 तक बिहारियों द्वारा अंग्रेजी और उर्दू में ही अखबार निकाला गया। पटना में 1853 तक एक भी प्रिटिंग या लिथेाग्राफिक प्रेस नहीं था। इसलिए जो पत्र-पत्रिकाएं छपती थी, वह लखनऊ, मुम्बई और कोलकता में छपती थी।

बिहार में जहंा व्यक्तिगत स्तर पर उर्दू समाचार पत्रों का प्रकाशन हुआ वहीं पर सरकारी स्तर पर भी समाचार पत्र प्रकाशित हुए। 3 सितम्बर 1856 को पटना के अंग्रेज कमीशनर विलियम टेलर द्वारा की गई व्यवस्था से उर्दू साप्ताहिकी ‘अखबार ई बिहार’ का प्रकाशन हुआ। सरकार ने इस पत्र को अपने प्रचार के लिए प्रयोग किया। इसकी प्रतियां खरीद कर पटना क्षेत्र के सभी जिला स्कूलों में निःशुल्क डाक खर्च पर प्रेषित किया जाता था। पत्र की कीमत एक रूपया महीना और नौ रूपया वार्षिक चंदा रखा गया था। टेलर के सितम्बर 1857 में पटना से चले जाने के बाद पत्र की स्थिति खराब हो गई। इसी वर्ष मुंशी सूरजमल और राय सोहन लाल ने संयुक्त रूप से मिलकर उर्दू में आठ पृष्ठों का मासिक पत्र ‘अखबार आखीर’ निकाला। यह पत्र बिहार में काफी चर्चित भी हुआ। जनवरी 1869 में मुंशी सूरजमल ने दूसरा उर्दू पत्र ‘चश्मे ए इलम’ निकाला। यह पत्र सस्ता था और कई मायनों में महत्वपूर्ण रहा और 1875 तक लगातार प्रकाशित होता रहा। जबकि मुजफ्फरपुर से 1868 में उर्दू पत्र ‘अखबार उल अखीर’ प्रकाशित हुआ, जिसके संपादक मुंशी कुरबान अली थे । 1871 में गया से बाबू उमेशचन्द्र सरकार के संपादन में उर्दू मासिक ‘गुलदस्ता ए नजीर’ का प्रकाशन हुआ। मुंगेर से उर्दू पत्र ‘भारत ए हिन्द’ मुंशी राम प्रसाद वाली के संपादन में छपा।

‘बिहार बन्धु’ बिहार का पहला हिन्दी समाचार पत्र था। अंग्रेजी के बाद हिन्दी पत्रों के प्रकाशन हुए फिर भी यंहा सेे उर्दू पत्र के प्रकाशन का दौर नहीं थमा। बिहार से उर्दू पत्रों का निकलना जारी रहा । वर्ष 1873 में हीं आरा से एक उर्दू साप्ताहिक ‘जिया उल अबसार’ प्रकाशित हुआ वहीं 1874 में नवाब विलायत अली खान बहादुर ने उर्दू पत्र ‘अंजुमन मोजकार ए इलमीया’ निकाला। इसी वर्ष आरा से एक और उर्दू पत्र ‘सिर ए सफार’ प्रकाशित हुआ। उर्दू पत्र ‘मजमा उल फरियाद’ का प्रकाशन मुंगेर से 1876 में हुआ। छपरा से 1877 में ‘नशीं ए शहर’ और 1878 में ‘नसीम ए शरण’ ऋषि कुमार चटर्जी के संपादन में प्रकाशित हुआ। शुरूआती दौर में बिहार से उर्दू पत्रों की अधिकता से साफ जाहिर होता है कि उस दौरान उर्दू भाषा का सामाजिक-शैक्षिक माहौल पर पूरी तरह से कब्जा था। 1880 में पटना से दो उर्दू साप्ताहिक पत्र ‘मुसीर ए बिहार’ और ‘सुबह ए वतन’ मदन मोहन लाल के संपादन में छपा। वर्ष 1883 में दो उर्दू पत्र ‘शरूहुल अखबार’ और ‘गुलदस्ता ए बिहार’ का प्रकाशन बिहारशरीफ से हुआ। जहां तक उर्दू पत्रों का सवाल है तो बिहार में इसका प्रकाशन प्रत्येक वर्ष जारी रहा।1884 में मुजफ्फरपुर से उर्दू साप्ताहिक ‘मेहर ए मुनब्बा’ प्रकाशित हुआ। वर्ष 1885 में उर्दू साप्ताहिक ‘अलपंच’ और मासिक ‘नाला ए उशारक’ का प्रकाशन पटना से हुआ ।

वर्ष 1887 में उर्दू पत्र ‘अनीश’ पटना से और ‘नूर अल फरियाद’ आरा से प्रकाशित हुआ। वहीं बिहार का पहला हिन्दी दैनिक सर्व हितैषी का प्रकाशन पटना से शुरू हुआ जिसके संपादक बाबू महावीर प्रसाद थे। इस पत्र को खड़ी बोली कविता आन्दोलन का मुख्य पत्र माना गया था। बिहार से वर्ष 1892-93 में एक भी पत्र का प्रकाशन नहीं हुआ। दूसरी ओर उर्दू पत्रों के छपने का सिलसिला भी जारी रहा। 1914 में उर्दू साप्ताहिक बिहारी प्रकाशित हुआ। वर्ष 1928 में अवधि में गया से दो उर्दू साप्ताहिक नदीम और सहेली अंजुम मैनपुरी और इदरीश के संपादन में प्रकाशित हुआ। एक अन्य उर्दू पत्र नकाब फुलवारीशरीफ से छपा। 1930 में किशनगंज से उर्दू साप्ताहिक आईना और इंसान का प्रकाशन हुआ। ये दोनों पत्र 1957 तक प्रकाशित होते रहे। 1934 वर्ष फुलवारीशरीफ से अब्दुल करीम अंसारी के संपादन में उर्दू साप्ताहिक मशवाद प्रकाशित हुआ। दिसम्बर 1942 में पटना से नजीर हैदर ने उर्दू दैनिक सदा-ए-आम प्रकाशित किया जो काफी लोकप्रिय हुआ।

पटना में 1946 में उर्दू दैनिक अलहेलाल और उर्दू साप्ताहिक और नौजवान छपा। लेकिन से दोनों पत्र ज्यादा दिन नहीं चल पाए। अन्य उर्दू साप्ताहिक मौमिन दुनिया पटना से छपा, जो शीघ्र बंद हो गया। दरभंगा से 1948 में एक उर्दू साप्ताहिक ‘अल होदा’ शुरू हुआ जो 1968 तक चला। गया से 1950 में उर्दू मासिक इशारा और सुबह-ए-नौ का प्रकाशन हुआ ये दोनों पत्र बाद में पटना से भी छपने लगे। इसी साल सुहैल अजीमाबादी के संपादन में उर्दू दैनिक साथी का प्रकाशन पटना से शुरू हुआ। 1950 में बिलायत अली ने पटना से ही एक साप्ताहिक इंसानी आवाज प्रकाशित किया। यह कुछ ही दिनों में बंद हो गया। 1952 में शकील उर्द रहमान ने दूसरा उर्दू साप्ताहिक जमीन का प्रकाशन शुरू किया। लेकिन पत्र ज्यादा दिनों तक नही चल पाया। इसी वर्ष उर्दू साप्ताहिक हबीब और मासिक तहजीब का प्रकाशन हुआ। 1953 में उर्दू साप्ताहिक रोशनी का प्रकाशन हुआ जो 1968 तक प्रकाशन होता रहा। सईद मोहीउद्दीन के संपादन में साप्ताहिक सदाकत का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ जो बाद में दैनिक हो गया। वर्ष 1954 में गुलाम सरवर ने पटना से उर्दू साप्ताहिक संगम निकालना शुरू किया। जो आगे चलकर दैनिक हो गया। यह पत्र आज भी प्रकाशित हो रहा है । 1957 में इसी समय बिहार सरकार ने उर्दू पत्र बिहार की खबरें इरदाज हुसैन के संपादन में निकाला।

अन्य पत्रों में खुर्शीद अनवर अर्फी के संपादन में उर्दू दैनिक सदा-ए-हिन्द और साप्ताहिक हमारा नारा शमसुल होदा के संपादन में राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन में बिहार के अखबारों की भूमिका अहम् रही थी और जहां देशभर के पत्र इसमें योगदान कर रहे थे वहीं पर बिहार के समाचार पत्र भी आगे बढ़कर इस आन्दोलन में अपनी भागीदारी को दर्ज करा रहे थे और ऐसा भी नहीं था कि आजादी मिलने के बाद पत्रों के प्रकाशन में काफी कभी आ गई हो या फिर प़त्रों का मकसद वहीं थम हो गया हो, बल्कि राष्ट्र के निर्माण में और ज्यादा ही भूमिका बढ़ गई थी। समाज देश को नयी दिशा सोच देने में उर्दू पत्रों ने अपना योगदान जारी रखा था। वर्ष 1967 में पटना से सैयद एम रहमान समीम और सैयद शौकत इमाम के संपादन में उर्दू दैनिक पिनदार प्रकाशित किया। यह पत्र आज भी पटना से प्रकाशित हो रहा है। गया से इसी वर्ष उर्दू साप्ताहिक हमजाद प्रकाशित हुआ। शुरू से ही उर्दू पत्रों का बिहार में नियमित प्रकाशन होता रहा जिसने यहां पत्रकारिता को नई दिशा भी दी। राष्ट्रीय सहारा ग्रुप ने वर्ष 2006 में हिन्दी दैनिक राष्ट्रीय सहारा और उर्दू में रोजाना की षुरूआत पटना से कर दी।

अखबारों के प्रकाषन से आज बिहार की पत्रकारिता प्रतिस्पर्धा/प्रतिद्वंद्विता के दौर में है। बिहार में पत्रकारिता का विकास निरंतर जारी रहा है। छोटी बड़ी पत्र पत्रिकाएं समय-समय पर छपती रही। आज भी बिहार में हिन्दी, अंग्रेजी और उर्दू के पत्र-पत्रिकाओं को खास अहमियत दी जाती है। सभी के अपने-अपने पाठक वर्ग हैं। जहां एक ओर पुराने पत्र बंद होते गये वहीं, नये पत्रों का प्रकाशन भी होता गया। आज बिहार में प्रकाशित होने वाले प्रमुख उर्दू दैनिक पत्रों में कौमी तंजीम, सहारा रोजाना, पिनदार, संगम, इनकलाब ए जदीद, फारूकी तंजीम आदि प्रमुख हैं। भारत सरकार के समाचार पत्रों की पंजीयक की 47वीं वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार बिहार बंटवारे के बाद अभी कुल 1,538 समाचार पत्रों का प्रकाशन हो रहा हैं। इनमें उर्दू पत्रों की संख्या 161 है।

आज जबकि देश की तमाम भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता प्रगति कर रही है और अपने पाठक वर्ग का निरंतर विस्तार कर रही है, किंतु उर्दू पत्रकारिता इस दौड़ में पिछड़ती दिख रही है। नए जमाने की चुनौतियों और अपनी उपयोगिता के हिसाब से ही भाषाएं अपनी जगह बनाती हैं। ऐसे में उर्दू पत्रकारिता के सामने कई चुनौतियां हैं। आज वह किस तरह स्वयं को संभालकर के समय को संबोधित करते हुए जनाकांक्षाओं की पूर्ति कर सकती है।

बिहार में उर्दू पत्रकारिता की दषा और दिषा पर कौमी तन्जीम पटना के संपादक एस.एम. अजमल फरीद कहते है, बिहार में उर्दू पत्रकारिता की दषा और दिशा पर बात करने से पहले उर्दू पत्रकारिता के इतिहास पर नजर डालना जरूरी है। जिससे इस बात को आसानी से समझा जा सके कि बिहार में उर्दू पत्रकारिता की जड़ें कितनी गहरी हैं और उर्दू अखबारात का क्या योगदान है। सर्वज्ञात है कि बिहार में अखबारों के स्वर्णिम सफर की शुरूआत सर्वप्रथम उर्दू अखबार से ही हुई, सबसे पहला अखबार उर्दू भाषा में ‘‘नूरूल अनवार’’ आरा शहर से प्रकाशित हुआ। श्री फरीद का मानना है कि स्वतंत्रता आंदोलन के साथ-साथ बिहारी अस्मिता की नींव भी उर्दू अखबारों ने ही रखी थी। एक पृथक राज्य के रूप में भले ही बिहार को 1912 में मान्यता मिली लेकिन बिहारी विचारधारा का सूत्रपात इससे छह दशक पूर्व ही हो चुका था। कलाकर्म में अखबारों के माध्यम से बिहारी अस्मिता की जो लड़ाई लड़ी गई उसके बीज उर्दू अखबारों में ही निहित थे। 1856 में पटना से प्रकाशित उर्दू साप्ताहिक समाचार पत्र ‘‘अखबार ए बिहार’’ ने बिहारी अस्मिता का अलख जगाना शुरू किया और इस तरह बिहार में पत्रकारिता के नये युग का आरंभ हुआ, जिसका गवाह बना उर्दू समाचार पत्र।

यह सच है कि वर्तमान समय में उर्दू अखबारात अंग्रेजी और हिन्दी समाचार पत्रों की तुलना में उतनी गति हासिल नहीं कर पा रहे हंै जितना कि इसका स्वर्णिम इतिहास रहा है। चाहे वो आधुनिक तकनीक अपनाने, विषय वस्तु विशेषज्ञ पत्रकारों की टीम तैयार करने या आज खुद को बिल्कुल नये रूप में ढालने की बात हो। इनका दायरा थोड़ा सीमित है। उर्दू भाषा जिसकी महत्ता और उच्चारण की मधुरता को स्वीकार तो सब कोई करता है लेकिन इसके विकास के लिए सामूहिक प्रयास नहीं किए जा रहे हैं और इसको एक विशेेष वर्ग से जोड़कर देखा जाने लगा है। श्री फरीद कहते हैं कि इन सब के बावजूद एक सीमित संसाधन में उर्दू अखबारात पाठक वर्ग तक बेहतर अखबार पहुंचाने का प्रयत्न कर रहे हैं और अच्छी संख्या में उर्दू अखबारात पाबंदी से प्रकाशित हो रहे हैं। उर्दू अखबारात की प्रसार संख्या और पाठकों की संख्या में भी अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है। उर्दू अखबारात का महत्व अंग्रेजी या हिन्दी समाचार पत्रों की तुलना में इस मायने में अब भी बरकरार है कि सकारात्मक पत्रकारिता उर्दू अखबारों का मूल उद्देश्य है जहां अंग्रेजी और हिन्दी समाचार पत्रों में पश्चिमी संस्कृति पूरी तरह हावी नजर आती है। खबरों से लेकर तस्वीरों की प्रस्तुति में जिस तरह का खेल अंग्रेजी और हिन्दी अखबारों में खेला जा रहा है। इससे उर्दू अखबारात अब भी बहुत हद तक सुरक्षित हंै। समाचार या लेख की प्रस्तुति में भी इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है कि भारतीय परंपरा और गंगा-यमुनी संस्कृति का ही समावेश हो। पाठक वर्ग का ध्यान रखते हुए भले ही अल्पसंख्यकों के साथ नाइंसाफी या जुल्म की खबरों को थोड़ी प्राथमिकता मिलती है लेकिन इसमें संाप्रदायिक सौहार्द बना रहे यह अब भी उर्दू अखबारों का बड़ा लक्ष्य होता है। श्री फरीद जोर देकर कहते है कि हाल के वर्षों में कारपोरेट घरानों का आकर्षण भी उर्दू अखबारों की ओर बढ़ा है और अब काॅरपोरेट घराने भी उर्दू अखबार निकाल रहे हैं, जिससे इस बात की आशंका बढ़ गई है कि भारतीय संस्कृति और परम्पराओं को बरकरार रखते हुए अबतक उर्दू पत्रकारिता जो एक स्वस्थ समाज की कल्पना के साथ आगे बढ़ रही थी वो बाधित हो सकती है, क्योंकि काॅरपोरेट घरानों के उर्दू अखबार भी पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित नजर आते हैं और अपने पाठकवर्ग के विचारों की अनदेखी करते हुए उनपर एक नयी संस्कृति थोपने का प्रयास किया जा रहा है। जहां तक उर्दू पत्रकारिता के भविष्य का प्रश्न है तो इसे उज्ज्वल इस मायने में कहा जा सकता है कि उर्दू पत्रकारिता की ओर लोगों का आकर्षण अब भी कायम है। भले ही सरकारी स्तर पर उर्दू समाचार पत्रों को हिन्दी और अंग्रेजी समाचार पत्रों के सापेक्ष सुविधाएं नहीं मिल पातीं। इसके अलावा व्यावसायिक प्रतिष्ठान भी उर्दू समाचार पत्रों को लोगों तक पहुंचने का माध्यम नहीं मानते। ये समझने के बावजूद भी कि आज भी उर्दू समाचार पत्रों का बहुत बड़ा पाठकवर्ग मौजूद है, और उर्दू समाचार पत्रों की अपनी एक विश्वसनीयता है।

श्री फरीद उर्दू समाचार पत्रों के भविष्य के लिए भाषा को जरूरी मानते है और उर्दू भाषा का ज्यादा से ज्यादा प्रचार-प्रसार की वकालत करते हुए कहते है कि जबतक ज्यादा से ज्यादा संख्या में उर्दू भाषी नहीं होंगे तो समाचार पत्र किनके लिए प्रकाशित होंगे ? इसलिए उर्दू भाषा का प्रचार-प्रसार और जागरूकता सबसे आवश्यक है। अगर उर्दू भाषा आम लोगों की भाषा के रूप में प्रचलित होगी तो उर्दू समाचार पत्र फिर से अपने स्वर्णिम अतीत की तरह सामान्य वर्ग के पाठकों का अखबार बन जायेगा।

उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार खुर्शीद हाशमी कहते है कि इस तथ्य के बावजूद कि उर्दू पत्रकारिता आज समय के साथ चलने और स्ंजमेज ज्मबीदवसवहल का प्रयोग करने में जुटी हुई है, और उर्दू पत्रकारिता में आज पहले से अधिक पढ़े लिखे और पत्रकारिता का ज्ञान या डिग्री, डिप्लोमा रखने वाले लोग आ रहे हैं, मुझे उर्दू पत्रकारिता की दशा और दिशा दोनों गड़बड़ नजर आती है। मेरी नजर में उर्दू पत्रकारिता की हालत आज वैसी ही है जैसी बंदर के हाथ में नारियल की होती है। बंदर नारियल के साथ कब तक खेलेगा, कब उसे पानी में उछाल देगा या कब उसे किसी के सिर पर दे मारेगा, कहना मुश्किल है।

यह स्थिति इसलिए है कि उर्दू पत्रकारिता मुख्यतः आज भी निजी हाथों में हैं और उर्दू पत्रकारिता के भाग्य विधाता वह लोग बने बैठे हैं, जो न उर्दू जानते हैं और न पत्रकारिता का ज्ञान रखते हैं। यह लोग उर्दू पत्र-पत्रिकाओं के मालिक होते हैं। और मालिक होने के नाते नीति-निर्धारक से लेकर संपादक और व्यवस्थापक तक सब कुछ यही लोग होते हैं। वे जैसा चाहते हैं, करते हैं। उनकी नजर में पत्रकारों की कोई अहमियत नहीं होती है। वह उन्हें क्लर्क या एजेन्ट के तौर पर इस्तेमाल करते हैं, इसलिए अधिक तेज या पढ़े-लिखे लोग उनको रास नहीं आते, वैसे भी अधिक पढ़े-लिखे लोग महंगे होंगे, और यह लोग चीफ एंड वेस्ट में विश्वास रखते हैं। ऐसी स्थिति में अगर कोई तेज पत्रकार आ भी जाता है तो वह उनकी उपेक्षा का शिकार हो जाता है। उसकी हर बात और हर राय की अनदेखी करके उसे उसकी औकात बता दी जाती है। वे कहते हैं कि हम बिजनेस करने के लिए आये हैं, और बिजनेस कैसे करना है, यह हम जानते हैं, लेकिन वास्तव में वह बिजनेस करना भी नहीं जानते, इसलिए वह उर्दू की सेवा या पत्रकारिता तो करते ही नहीं, ढंग से बिजनेस भी नहीं कर पाते हैं।

उर्दू पत्रकारिता में अब काॅरपोरेट सेक्टर ने भी पांव पसारना शुरू कर दिया है। वैसे तो वहां भी कुछ समझौते होते हैं और कई बार अयोग्य लोगों को कमान सौंप दी जाती है, जो अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए अपने से भी अधिक अयोग्य लोगों को लाकर पत्रकारिता की कबर खोदने का प्रयास करते हैं, फिर भी निजी हाथों की तुलना में काॅरपोरेट सेक्टर में स्थिति अच्छी है। मगर समस्या यह है कि काॅरपोरेट सेक्टर का नाम सुनते ही उर्दू के पाठक भड़क उठते हैं। उन्हें लगता है कि काॅरपोरेट जगत के अखबार उनकी आवाज मजबूती के साथ नहीं उठा सकते और उनके हितों की रक्षा नहीं कर सकते हैं।

उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार और पटना कार्मस कालेज के पत्रकारिता विभाग के काॅडिनेटर तारिक फातमी का मानना है कि उर्दू पत्रकारिता आज अपने मूल उद्देश्यों से हटकर एक ऐसे रास्ते पर चल पड़ी है जहाँ दूर-दूर तक बेहतर भविष्य के लिए रौशनी की कोई किरण दिखाई नहीं देती है। शायद यही कारण है की श्री हाश्मी जैसे वरिष्ट और अनुभवी पत्रकार को उर्दू पत्रकारिता के सम्बन्ध में यह कहना पड रहा है कि उर्दू पत्रकारिता की स्थिति आज वैसी है जैसे बन्दर के हाथ में नारियल ? उर्दू प्रेस के मालिकान उर्दू पत्रकारिता के भविष्य को लेकर चाहे जितने भी आशांवित हों लेकिन दरअसल एक कडवी सच्चाई यह भी है की उर्दू पत्रकारों का भविष्य उस अँधेरे कुँए की तरह है जहाँ से न रौशनी की उम्मीद की जा सकती और न प्यास बुझाने के लिए पानी की, दुसरे शब्दों में कहें तो उर्दू पत्रकार आज अपने भविष्य को लेकर एक अनिश्चितता के स्थिति से गुजर रहा है , और अपने भविष्य की इसी अनिश्चिता के कारण वह परेशान भी है और दुखी भी, जो लोग उर्दू पत्रकारिता के स्वर्णिम इतिहास की बातें करते हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए की जिन लोगों ने उर्दू पत्रकारिता की नीव रखी थी उनका उद्देश्य पैसा कमाना नहीं बल्कि समाज और मानवता की सेवा करना था, लेकिन आज स्थिति उलट गई है और आज उर्दू प्रेस मालिकों का एक मात्र उद्देश्य सरकारी और निजी विज्ञापनों को प्रकाशित करके पैसा कमाना और उर्दू समाचार पत्रों में कार्यरत श्रमजीवी पत्रकारों से बेशर्मी के साथ उनका शोषण करना मात्र है। आप बिहार से प्रकाशित किसी भी उर्दू समाचार पत्रों के कार्यालयों में चाहे वो कौमी तंजीम, फारूकी तंजीम , पिनदार, संगम ,प्यारी उर्दू हो या कार्पोरेट जगत द्वारा प्रकाशित रोजनामा उर्दू सहारा , का भ्रमण करे तो आपको वहां कार्यरत पत्रकारों दशा देख कर मेरे दावे की पुष्टि हो जाएगी कौमी तंजीम, के संपादक उर्दू पत्रकारिता के भविष्य को लेकर खुशफहमी के शिकार हैं , सच्चाई यह है की भविष्य उर्दू पत्रकारिता का नहीं उनका जरूर उज्जवल है क्योंकि उर्दू समाचार पत्र के मालिक हैं ,वह स्वय पत्रकार नहीं , उन्हें संपादक का पद विरासत में मिला है, उन्होंने कभी चिलचिलाती धूप , कडकडाती सर्दी या भरी बरसात में मीलों पैदल चल कर समाचारों का संकलन नहीं किया। इसलिए उन्हें उस दर्द का एहसास नहीं होगा, जो दो हजार से पांच हजार की पगार पर बारह -बारह घंटों तक दफ्तर में बेगारी करने वाले श्रमजीवी पत्रकारों को होता है, यही हाल बिहार से प्रकाशित होने वाले सभी दैनिक समाचार पत्रों का है ,पिन्दार ,फारूकी तंजीम ,संगम , इन सभों के वर्तमान मालिकों (तथा कथित संपादकों ) का पत्रकारिता से कोई लेना-देना कभी नहीं रहा। इन तथाकथित संपादकों में कोई किरानी की नौकरी करता था तो कोई चिकित्सक है, कोई ठेके पर समाचार पत्र निकाल रहा है, तो कोई कमीशन पर विज्ञापन प्रकाशित करने के लिए समाचार पत्र का संपादक बना बैठा है । जाहिर है जब स्थिति इतनी भयावह हो तो उर्दू पत्रकारिता की

श्री फातमी कहते है कि दशा और दिशा का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। सचाई तो ये है की आज पूरे देश विशेष कर बिहार में उर्दू पत्रकारिता उसी तरह दिशाहीन है जिस तरह देश का अल्पसंख्यक नेतृत्व , जिस तरह अल्पसंख्यक समुदाय आज मुस्लिम नेताओं के हाथों छला जा रहा है उसी तरह तथाकथित संपादकों द्वारा उर्दू पाठक और उर्दू समाचर पत्रों में कार्य करने वाले श्रमजीवी पत्रकारों का शोषण और दोहन जारी है ।

बिहार की उर्दू पत्रकारिता आज सत्ता के इर्द -गिर्द घूम रही है । हर समाचार पत्र सरकारी विज्ञापन पाने के लिए वर्तमान सरकार की हर सही -गलत नीतियों का समर्थन करना अपना धर्म और फर्ज समझता है ,पद और सम्मान पाने के लिए उर्दू समाचार पत्रों के कुछ पत्रकार सत्ता के गलियारों में नेताओं के आगे- पीछे दुम हिलाते और चापलूसी करते देखे जा सकते हैं। जाहिर है जब एक पत्रकार पद ,पैसा ,और समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए राजनीतिज्ञों के पास अपना आत्मसम्मान गिरवी रख दे तो उस समाचार पत्र या पत्रकार से समाज कल्याण ,मानव सेवा ,भाषा देश ,राज्य और समाज के विकास में भागीदारी निभाने की आशा करना बेमानी है। देश और विशेष कर बिहार की उर्दू पत्रकारिता में आज जोश ,जज्बा ,और छमता नहीं है कि वह किसी बड़े आन्दोलन कि अगवाई कर सके ।

वहीं पर बिहार की खबरें के संपादक अंजुम आलम कहते हैं कि राज्य से सर्वप्रथम प्रकाशित होने वाला पत्र भी उर्दू था। इसके बावजूद इसकी वर्तमान दशा उत्साहवर्द्धक नहीं है। हालांकि अभी भी पटना सहित राज्य से दर्जनों उर्दू दैनिक एवं पचासों पत्रिकायें प्रकाशित हो रही हैं परंतु इनका स्तर उस बुलंदी पर नहीं है, जिसकी उम्मीद की जाती है। बिहार में उर्दू को द्वितीय राजभाषा का भी दर्जा प्राप्त है। उर्दू समाचार पत्रों को राज्य सरकार से विज्ञापन भी मिलता है। सरकारी विज्ञापनों के कारण उर्दू समाचार पत्रों की आर्थिक स्थिति सम्पन्न नही ंतो संतोषजनक अवश्य है। इसके बावजूद उर्दू पत्रकारों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। परिणाम स्वरूप युवा पीढ़ी उर्दू पत्रकारिता की ओर आकर्षित नहीं हो रही है। इस कारण आने वाले दिनों में उर्दू समाचार पत्रों को संकटमय स्थिति का सामना करना पड़ सकता है। अखबार मालिकों केा इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। श्री अंजुम आलम कहते है कि स्वतंत्रता के बाद से गुलाम सरवर, शीन मुजफ्फरी, शाहिद राम नगरी इत्यादि उर्दू पत्रकारों, जो मील का पत्थर छोड़ा था वहां तक आज कोई नहीं पहुंच पाया है। मौजूदा उर्दू पत्रकारिता जगत में आज भी कई अच्छे पत्रकार सक्रिय हैं। परंतु, उनकी दशा से नई नस्ल प्रभावित नहीं हो पा रही है। आज का युवा वर्ग इसे करियर के रूप में अपनाने का इच्छुक नजर नहीं आ रहा है। उर्दू में अभी बिहार से कई रंगीन एवं आकर्षक उर्दू समाचार पत्र प्रकाशित हो रहे हैं लेकिन सीमित समाचार नेटवर्क का अभाव पाठकों को खटकता है। उर्दू समाचार पत्र सामान्यतः आम लोगों द्वारा प्रकाशित होते थे। परंतु हाल के वर्षों में सहारा इंडिया ने इस क्षेत्र में भी कदम रखा है।

उर्दू पहले पूरे समाज की भाषा हुआ करती थी लेकिन आज यह वर्ग विशेष तक सीमित हो गई है। इस कारण इसके पाठक वर्ग में भी कमी आई है। राज्य सरकार द्वारा गैर उर्दू सरकारी कर्मियों को उर्दू सीखने पर अतिरिक्त वेतन वृद्धि से भी इस ओर लोगों का रूझान पैदा हुआ है। सरकार एवं उर्दू अकादमी द्वारा उर्दू सीखाने के लिए विशेष कक्षा भी आयोजित की जा रही है। दूसरी ओर कौमी तंजीम के समाचार संपादक राशिद अहमद का मानना है कि भारत की राजनीति विशेष रूप से स्वतंत्रता संग्राम में अदम्य भूमिका निभाने वाली उर्दू पत्रकारिता आज हिन्दी और अंग्रेजी की तुलना में पिछड़ गई है। यह एक कटु सत्य है मगर यह भी सच है कि जहां एक ओर इसके पिछड़ेपन की बात में कहानी और कल्पना अधिक है वहीं इसके पिछड़ेपन के आयाम भी विचारनीय हैं। उर्दू पत्रकारिता का पिछड़ापन पत्रकारिता के मूल तत्व से जुड़ा हुआ नहीं है क्योंकि अगर मुद्दों और सामाजिक सरोकारों की बात करें, तो समय की मांग और समस्या के मूल्यांकन में यह पीछे नहीं रही, तुलनात्मक अध्ययन करते समय कुछ बातों की अनदेखी की जाती है, जिसके कारण नतीजा गलत निकलता है। समाचार पत्र के सरोकारों का सीधा नाता उसके पाठकवर्ग से होता है। समाज की विस्तृत तस्वीर पेश करने के साथ-साथ समाचार पत्र और उससे जुड़े पत्रकार उस पूरे फ्रेम में अपने पाठक के स्थान तलाश करते हैं और उचित स्थान न मिल पाने के कारण और उससे जुड़ी समस्याआंे का मूल्यांकन करते हैं। अंग्रेजी हिन्दी पत्रकारिता का विश्लेषण करते समय तो पाठक तत्व का विशेष ध्यान रखा जाता है मगर उर्दू पत्रकारिता के विश्लेषण के समय उसके पाठक तत्व को अनदेखा करके उसे उर्दू और हिन्दी के पाठक तत्व की कसौटी पर परखा जाता है। कहने का मतलब केवल इतना है कि उर्दू पत्रकारिता की बदहाली मुद्दों और सरोकारों से दूर रहने की नहीं है बल्कि आर्थिक पिछड़ेपन की कहानी है।

समाचार पत्र का अर्थ विज्ञापन से जुड़ा हुआ है। मगर उर्दू समाचार पत्रों को हमेशा विज्ञापन के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है। संघर्षरत रहना पड़ता है। विज्ञापन सरकारी हो या गैर सरकारी। व्यापारी भी उर्दू पाठक को अपना उपभोक्ता तो जरूरत समझते हैं। उसके हाथ अपना सामान अधिक से अधिक बेचने का प्रयास तो जरूर करते हैं। मगर उन तक पहुंचने का रास्ता वह उर्दू समाचार पत्र के स्थान पर दूसरी भाषाओं के समाचार पत्रों में तलाश करते हैं। यह मानना होगा कि आर्थिक तंगी के कारण नई तकनीक अपनाने में उर्दू पत्रकारिता पिछड़ जाती है। वह नए प्रयास नहीं कर पाती, यह भी सही है कि आर्थिक तंगी के कारण उर्दू समाचार पत्र अपने पत्रकारों को उतनी और सुविधायें नहीं दे पाते जितना हिन्दी और अंग्रेजी पत्रकारों को मिलती है। इस ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।

वरिष्ठ उर्दू पत्रकार इमरान सगीर कहते है सभी लोग भली-भाँति अवगत हैं कि बिहार की पत्रकारिता में उर्दू अखबारों का अह्म मुकाम है। बिहार में पत्रकारिता का आगाज उर्दू अखबार के माध्यम से ही हुआ। शुरूआती दौर में उर्दू अखबारों को यह गौरव हासिल था कि उर्दू अखबार के संपादक या पाठक किसी विशेष वर्ग केे नहीं हुआ करते थे, बल्कि यह पूरे तौर से सामान्य वर्ग के लिए था। लेकिन समय के साथ-साथ परिवर्तन यह हुआ कि उर्दू अखबार एक विशेष वर्ग तक सीमित होने लगा। ये उर्दू पत्रकारिता के लिए सबसे दुर्भाग्यपूर्ण है। आज हिन्दी और अंग्रेजी पत्रकारिता में बड़ी क्रांति आयी है, लेकिन इसकी अपेक्षा उर्दू पत्रकारिता को उतनी गति नहीं मिल पा रही है। हिन्दी और अंग्रेजी समाचार-पत्रों की तुलना में आधुनिक तकनीक को अपनाने में अब भी उर्दू अखबरात संघर्षरत हैं, इसका कारण स्पष्ट है कि सरकारी स्तर पर इसे अपेक्षाकृत सहयोग नहीं मिल पाता वहीं निजी या व्यवसायिक विज्ञापनों से भी उर्दू समाचार-पत्रों को उतनी आमदनी नहीं हो पाती जिससे की आर्थिक रूप से संपन्न हो सकें। इन सबके बावजूद सीमित संसाधनों में उर्दू अखबरात सकारात्मक सोच के साथ उर्दू पत्रकारिता के सफर को आगे बढ़ा रहे हैं। उर्दू अखबरात की सबसे बड़ी खूबी ये है कि ये आम आदमी का अखबार होने का धर्म निभाते हैं। हिन्दी या अंग्रेजी समाचार-पत्रों तक आम लोगों की पहुंच आसान नहीं हो पाती, वहीं उर्दू अखबार तक समाज में हाशिये पर खड़ा व्यक्ति की भी आसानी से पहुंच सकता है। अर्थात् समाज का कोई व्यक्ति उर्दू अखबारों से बिल्कुल जुड़ा हुआ महसूस करता है। ये उर्दू अखबारों की लोकप्रियता का बड़ा कारण है। उर्दू अखबारों की विश्वसनीयता और महत्ता इसके पाठक वर्ग में इसे लेकर भी है, कि ये उनके साथ होने वाली किसी भी स्तर पर नाइंसाफी की आवाज प्रमुखता से उठाते हैं, ऐसी खबरों को प्रमुखता से सामने लाते हैं, जिन्हें भेदभाव के नतीजे में अंग्रेजी या हिन्दी समाचार-पत्रों में या तो जगह नहीं दी जाती या फिर उन्हें तोड़-मरोड़कर संक्षेप में किसी कोने में जगह दी जाती है। ऐसे में उर्दू समाचार पत्र ही उनकी उत्सुकता दूर कर पाते हैं। आज के आधुनिक युग में दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों में जहां लोगों को उर्दू अखबार नहीं मिल पाता, वैसे गांव के लोग अब भी उर्दू अखबार के दफ्तर से डाक के माध्यम से अखबार मंगाते हैं, और दो-तीन दिन पुरानी ही सही लेकिन इसे पढ़ना जरूर पसंद करते हैं। डाक से अखबार मंगा कर पढ़ने का शौक उर्दू अखबारों की अहमियत का एक बड़ा उदाहरण है। ऐसे में उर्दू पत्रकारिता का भविष्य उज्ज्वल ही कहा जायेगा। आज सामान्य वर्गों के बीच उर्दू भाषा के प्रचार-प्रसार की जरूरत है, उर्दू राज्य की द्वितीय राजभाषा भी है, यह उर्दू पत्रकारिता के बेहतर भविष्य के लिए बेहद जरूरी है।

उर्दू पत्रकारिता में महिलाएं नहीं के बराबर है। बल्कि उर्दू पत्रकारिता से कोसो दूर है। स्वतंत्र उर्दू पत्रकार डा0 सुरैया जबीं कहती है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में नई क्रांति तो आयी अंग्रेजी और हिन्दी समाचार-पत्रों की तुलना में न सही लेकिन उर्दू पत्रकारिता में भी क्रांति आयी है। बड़ी संख्या में उर्दू समाचार-पत्र नये रंग-रूप में प्रकाषित किये जा रहे हैं। जहां आधुनिक तकनीक का प्रयोग भी हो रहा है। समाचारों की प्रस्तुति में सीमित दायरे से बाहर निकलकर अब उर्दू अखबारों में भी सामान्य खबरें पढ़ने को मिलती हैं। अलग-अलग विषयों पर साप्ताहिक विषेषांक भी प्रकाशित होते हैं, और अंग्रेजी और हिन्दी समाचार-पत्रों की तरह खुद को स्थापित कर रहे हैं। यह उर्दू पत्रकारिता के लिए एक शुभ संकेत हैं। पहले उर्दू अखबारों में खबरों का दायरा बिल्कुल सीमित था। वत्र्तमान में उर्दू पत्रकारिता के लिए एक दुर्भाग्यपूर्ण बात ये भी है कि बिहार की उर्दू प्रिंट मीडिया में महिलाओं की भागीदारी न के बराबर है, क्योंकि उर्दू अखबारों में महिला मीडियाकर्मियों को इन्ट्री नहीं मिल पाती, आज काॅलेजों मेें उर्दू पत्रकारिता में डिप्लोमा कोर्स भी चलाये जा रहे हैं। उर्दू पत्रकारिता में डिप्लोमा प्राप्त करने वालों में बड़ी संख्या छात्राओं की भी है, लेकिन इन्हें भी उर्दू अखबारों के दफ्तरों में इन्ट्री नहीं मिल पा रही है। उर्दू पत्रकारिता की सेवा से महिलाओं की दूरी अब भी कायम है, ये दुर्भाग्यपूर्ण है और ये दूरी मिटनी चाहिए।

बिहार में उर्दू पत्रकारिता की दशा-दिशा को प्रभावित करने वाले कारणों पर उर्दू पत्रकारों ने जो विचार दिये वह सवाल छोड़ जाते हैं। बिहार में उर्दू पत्रकारिता की बदहाली के पीछे आर्थिक तंगी, भाषा, काॅरपोरेट घराना और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव जहां महत्वपूर्ण हैं वहीं पर राजनीतिक-सामाजिक कारण भी अहम है। बिहार में उर्दू दूसरी राजभाषा होने के बावजूद शुरूआती दौर की तरह आज यह अपने शिखर पर नहीं है। इसके सिमट जाने से उर्दू एक वर्ग/समुदाय तक ही रह गयी है। शुरूआती दौर में यह किसी एक वर्ग/समुदाय तक ही समीति नहीं थी बल्कि गैरमुस्लिम विद्वान उर्दू समाचार पत्रों के संपादन किया करते थे। आज ढूंढ़ने पर भी गैरमुस्लिम विद्वान नहीं मिलेगें जो उर्दू के अखबारों का संपादन करते हो ? इसके पीछे वजह जो भी रही हो एक वजह साफ है कि उर्दू को मुसलमनों की भाषा से जोड़ कर देखा गया। बिहार में उर्दू दूसरी राजभाषा होने के बावजूद भी उर्दू अखबार गैरमुस्लिम घरों में नहीं जाता है।

...................

संजय कुमार

समाचार संपादक/आकाशवाणी पटना

303, दिगम्बर प्लेस डाॅक्टर्स कालोनी, लोहियानगर, कंकड़बाग, पटना-800020, बिहार।

मेल- ेंदरन3मिइ/हउंपसण्बवउ

मो-09934293148