मशीन
किरन राजपुरोहित नितिला
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मशीन
गाड़ी में बैठ कर दीपांकर ने पास बैठी ममता को एक नजर देखा।
उदास ममता सूनी आँखों से दूर कहीं देख रही थी शून्य में। दीपांकर का मन हुआ उसको अपने सीने में भींच ले लेकिन वह जानता है ऐसे में वह फफक पड़ेगी। कुछ पल यों ही देखता रहा। हौले से कंधे को थपथपा दिया। गर्दन घुमा उसने दीपांकर को डबडबायी आँखों से देखा जिनमें कई प्रश्न आतुरता से जवाब के लिए तैर रहे थे।
कोशिश करेंगे डॉक्टर यही कह पाया। वह खुद नहीं समझ पाया कि उन शब्दों में क्या है सूचना, सांत्वना या आशा? लेकिन ममता जानती है कि ये केवल सूचना है उसके जीवन में शनैरू शनैरू प्रवेश करते अंधकार के और निकट आने की। गाड़ी अपनी गति से चली जा रही थी। निस्तब्धता ने अपना अधिकार जमाये रखा।
क्या बात करे? अब बातों के सिरे भी न जाने कहाँ छूटते जा रहे थे। ढूँढने पर भी कोई सहज—सी बात का सिरा नहीं मिलता। घंटों खतम न होने वाली बातें न जाने इन सालों में कैसे चुक—सी गई है। लेकिन ममता ये सब नहीं सोचती। उसके पास सोचने को बहुत कुछ है बल्कि अब लग रहा है कि सोचना ही शेष है करना तो जैसे अब खतम ही हो जाएगा। अगले कुछ सालों में उसके पास शायद ऐसा कुछ भी नहीं रहेगा जिसके लिए वह कुछ करे!
पहले भी पचासों बार इस स्थिति से गुजरी है वह। घर से निकलते वक्त हर बार ही ईश्वर से प्रार्थना करती है! हे ईश्वर आज कुछ मनचाही सूचना मिल जाए। वह यही सोचती कि मनचाहा बस कुछ ही दूरी पर है जो मिल ही जाएगा। ममत्व की उमंग को वह थोड़ा दबाए रखती। बस कुछ ही दिनों की बात है फिर तो वह भी आँचल के फूल के साथ झूमेगी। सासु माँ भी सैकड़ों आशीर्वाद देती अपनी सुलक्षणी बहू को। फूलो—फलो, सुखी रहो, भगवान मुझे जल्दी ही पोते—पातियों की किलकारी सुनाए!
धीरे—धीरे डॉक्टरों के चक्कर की संख्या बढ़ने लगी, ईश्वर से मिन्नतों का समय बढ़ने लगा लेकिन आशा की किरण धुँधली होने लगी, आशीर्वादों का कवच भी छोटा होने लगा। डॉक्टर से वार्तालाप की एक—एक बात ममता सासु माँ को बताती वे सुनती भी। अस्पताल जाने और आने के बीच वह देहरी पर ही खड़ती। ऐसी सास पाकर वह स्वयं को धन्य समझती। लेकिन बधाई सुनने को लालायित उनके कान धीरे—धीरे अड़ोस—पड़ोस और रिश्तेदारों की पूछा—ताछी सुनते, पहले पहल तो उदास रहने लगी और धीरे—धीरे अपनी भड़ास निकालने के लिए कटु वचनों का सहारा लेने लगी। जो मिलता बस एक ही सवाल उससे करता श्खुशखबरी कब सुना रही हो!श् शुरू—शुरू में अच्छा लगता वह शरमा जाती लेकिन बाद में वह इस सवाल से बचने लगी, कुढ़ने लगी उँह! और कोई बात नहीं जिसको देखो यही बात, यही सवाल। दुनिया में इससे आगे कुछ नहीं है क्या? और भी तो रास्ते है दुनिया में, काम है जिनके बारे में पूछा जा सकता है। सच में तो अब स्वयं को भी यह बात सालने लगी थी बस खुद को दिलासा देने के लिए खोखले तर्क करती। तब ममता ये नहीं जानती थी कि जिंदगी के सफर में यहाँ आने के बाद एक परिवर्तन होता है जिसे पार करने के बाद नई दुनिया में पदार्पण होता है और फिर जीवन उसी केन्द्र के सहारे गुजरता है अन्यथा रिश्ते, दाम्पत्य और जिंदगी भी अंधेरी गलियों में गुम हो जाती है।
ऐसे में सहारा था तो केवल दीपांकर का। पति के अगाध प्रेम में लिपटी वह बिछ जाती। अपना दिल आँसुओं के पन्ने पर खोल कर रख देती । उदास ममता को दीपांकर की सुदृढ़ बाँहों का ही नहीं शब्दों का भी सहारा मिलता। अरे! क्या हुआ बच्चा नहीं तो? हम दानों तो है, हमारा प्रेम है। कहाँ जरूरत है किसी और की। मुझे बच्चा—वच्चा कुछ नहीं चाहिए बस तुम खुश रहो, उदास मत रहा करो। पति के प्रेम में कुछ—कुछ अपनी पीड़ा भूल जाती। उसे बहुत तसल्ली मिलती कि दीपांकर को बहुत अधिक कामना नहीं है बच्चे की।
इन्हीं ऊँचे—नीचे रास्तों पर समय अपने साथ सबको चलाता रहा। विवाह को आठ वर्ष व्यतीत हो गए। घर में हरदम तनाव व्याप्त रहता। खुशखबरी पूछने वाले रिश्तेदार अब अजीब—सी दया भरी निगाहों से देखते। गाहे—बगाहे सान्त्वना देते तो अपमान से भर उठती लेकिन क्या करे? एक बात का उसे फिर भी संतोष था कि दीपांकर इस संबंध में अधिक कुछ नहीं कहते।
एक दिन कुछ सामान खरीदने बाजार गए। ममता दुकान के अंदर गई बौर दीपांकर बाहर इंतजार में खड़े रहे। सामान के बारे में कुछ राय जानने के लिए ममता ने दुकान से बाहर झाँक कर उसका ध्यान अपनी ओर करना चाहा लेकिन तीन—चार आवाजें देने के बाद भी नहीं सुना तो बाहर आकर देखा और वहीं जड़ हो गई।
पास की दुकान में छोटा बच्चा किसी खिलौने के लिए जिद कर रहा था और माँ लगातार समझाए जा रही थी। एकटक यह दृश्य देखते दीपांकर के चेहरे पर आँसुओं की धार थी। अंदर तक काँप गई वह। न जाने उसके मन में कौन—सी मजबूत डोर चटक कर टूट गई थी। उसके सामने भविष्य के तरह—तरह के रंग तैर गए। दीवार न थामती तो शायद गिर ही पड़ती। चौंक कर दीपांकर ने देखा और झटसे आँखें पोंछी श्अरे! क्या हुआ तुम्हें? तबीयत तो ठीक है। एकाएक चेहरे के भावबदल कर सहज होते हुए कहा जैसे कुछ हुआ ही न हो। घिसटती—सी ममता बमुश्किल गाड़ी में बैठ पाई।
समय, खुशियाँ, भविष्य और...और... भी न जाने क्या—क्या बालू रेत की तरह उसके हाथों से छूटता जाते लग रहा है। वह निरपराध—सी चुपचाप देखती जा रही है। लेकिन इसमें क्या गलत हुआ? वह भी तो कितने ही वषोर्ं से दिखने वाले हर बच्चे को कैसी सी नजरों से निहारती है। ठिठक कर उसकी भोली हरकतों में खो सी जाती हैं कई बार तो उसे बैठे हुए यही लगता कि जैसे उसका प्रतिरूप पास ही लेटा है और वह हाथ बढ़ा कर उठाने के लिए मचल पड़ती लेकिन...
समूचे वातावरण में बोझिलता, उदासी महसूस होती ही थी लेकिन आजकल न जाने क्यों सबके व्यवहार में एक बू सी आने लगी है ममता को। कई दिन गुजरते—गुजरते उस बू का कड़वा सच पकड़ आ गया।
ओह! मेरे भगवान नहीं... ऐसा नहीं... दीपांकर... और पछाड़ कर गिर पड़ी ममता। कई दिन सूनी—सूनी आँखें लिए ही बैठी रही। पति की दूसरी शादी की बात सुन कर ही जैसे शून्य में पहुँच गई। ऐसा शून्य जहाँ केवल अंधकार ही अंधकार छाया हो और कोई भी सान्त्वना का प्रकाश भी सिर पीट कर मिट जाए। दीपांकर के उदासीन व्यवहार ने तो जैसे तस्वीर का दूसरा रुख दिख दिया। मन में हजारों सवाल उमड़ते लेकिन उनका जवाब किससे माँगे? मन में ही टूट—टूट कर वे सवाल अंधेरे को और घना कर देते। वो चीख—चीख कर एक—एक को झिंझोड़ कर पूछना चाहती अरे! उसके अकेले का ही क्या दोष है, फिर उसे ही सजा क्यों सुना दी गई है झट से? घर की हर स्त्री से पूछना चाहती कि तुम भी तो औरत हो तुम भी मेरा मन नहीं पढ़ सकती कि मुझे भी तो बच्चे की कितनी चाह है। दीपांकर का, वंश का भला सोच कर नई मशीन की भाँति शादी कर दूसरी स्त्री लाई जाएगी जो सबकी इच्छा पूरी करेगी लेकिन मेरा भला क्या है ये किसी ने सोचा? एक नहीं काम आने वाली वस्तु समझ कर मुझे फेंक दिया जाएगा। नई उठा ली जाएगी। भावना रहित मशीन ही तो समझा जा रहा है दोनों ही को! इससे अधिक क्या स्थान है? आने वाली स्त्री को भी संतान पैदा करने के लिए लाया जाएगा उसके मन को भी कोई समझेगा? उस अदेखी के प्रति सहानुभूति—सी उमड़ आई। बेचारी! फिसल पड़ा ममता के मुँह से। केवल माध्यम बनाने के लिए ही शादी का, प्रेम का स्वांग रचा जाता है?
सुनो... कई दिनों तक अजनबियों की तरह साथ रहे—रहते, घर वालों के बर्ताव ने उसे झिंझोड़ कर रख दिया था। दीपांकर नामक विश्वास जिसकी छाँव तले अपने आपको सुरक्षित, सौभाग्यशाली पाती थी। ऐसा लगता था जैसे जीवन में कोई भी झंझवात आए सहन कर लेगी बस दीपांकर का प्रेम न छूटे। उस वट वृक्ष के सहारे वह हर मुश्किल, अभाव सहन कर गुजरेगी लेकिन पहले ही तूफान ने वटवृक्ष का खोखलापन दर्पण की तरह सामने ला पटका। उस सच्चाई ने कोमल लता की जडें ही खोद दी थी।
घर के विषैले वातावरण ने ही जैसे उस लता को नए सिरे से सींचना शुरू कर दिया। इन दिनों में ममता ने खुद में एक नई मजबूती महसूस की जो खुद को थाम सके। अब तक हरदम वह पति के, उसके परिवार के ईद—गिर्द सिमटी, सकुचायी, भयभीत—सी सोच लिए रहती लेकिन इस तूफान ने तो जैसे उसके वजूद पर जमी धूल झाड़ कर उसके असली अस्तित्व को निखारने की ठान ही ली है। इस परीक्षा के इस तरफ केवल समझौता, उसकी निरीहता और अपमान के कड़वे घूँट है लेकिन उस पार जैसे उसका आत्माभिमानी वजूद उसकी प्रतीक्षा कर रहा है। इसीलिए एक दिन जैसे उसके भीतर का वजूद ही बोल पड़ा सुनो...
अलमारी में से कपड़े निकालते दीपांकर को कई दिनों बाद पुकारा ममता ने। आवाज की मजबूती सुन चौंक कर पलटा वह। कई दिनों से दिन भर रोती रहने वाली का यह स्वर सुन कर तकने लगा जैसे यह उसकी पत्नी नहीं कोई और है। क्या हम बच्चा गोद नहीं ले सकते अपने पति के दिल में अपने लिए आखिरी बार जगह ढूँढने की कोशिश की। सपाट—सी बात सुन उसने नजरें झुका ली। कुछ जवाब देते न बना। अपनी सकपकाहट छुपाने के लिए अलमारी में फिर उपक्रम करने लगा।
कंधे पर हाथ के स्पर्श से पलटा आपने जवाब नहीं दिया... क्या ऐसा नहीं हो सकता? एक बच्चे की चाह मुझे भी उतनी ही है जितनी आपको... हो सकता है ईश्वर हमें एक गुमनाम बच्चे का जीवन सँवारने का मौका देना चाहता है। अपनी संतानों को तो सब पालते हैं। हम भी शायद इस मुश्किल में न होते तो ऐसा ही करते लेकिन ईश्वर ने हम दोनों के लिए ये रास्ता छोड़ा है जिस पर हम अब भी साथ चल सकते हैं। कह कर जवाब के लिए उन आँखों में झाँका। दिल थाम कर इंतजार करने लगी क्यों कि उसका भविष्य इस जवाब से पूरी तरह जुड़ा हुआ है नहीं तो...। लेकिन उन आँखों ने इधर—उधर देख कर असमर्थता जाहिर की।
वो...वो माँ नहीं मानेंगी। थूक गटक कर बमुश्किल दो शब्द कह पाया।
आप क्या सोचते हैं?
दागे गए सवाल का जवाब वह न दे सका। फुर्ती से कमरे से बाहर हो गया जैसे कह रहा हो नहीं...ये नहीं...। आहत, अपमानित—सी ममता की आँखों से धारा बह चली।
बहुत रात वह कमरे में आया। जबरदस्ती सोने की कोशिश में लगे दीपांकर का हाथ थाम उसने डबडबायी आँखों से वि वास, सहारा जैसा कुछ माँगा। अनुनय भरे शब्दों में आँसू पोंछकर बोली,
दीपांकर... भगवान के लिए मुझे समझने की कोशिश करो। तुम ही ऐसे क्या करने लगे। इतने—इतने वादे, इतना—इतना प्यार क्या सब भूल गए? मेरे होने का वजूद क्या उसके सामने कुछ भी नहीं जो अभी तक कहीं भी नहीं है। जो है ही नहीं उसके लिए तुम मेरे प्यार, मेरे वि वास, मेरे सम्मान को ठोकर मार दोगे। मुँह बाये वह सुनता रहा। उसे लगा जैसे ममता के भीतर भावों का अगाध समुद्र उमड़ आया। ...एक नया प्राणी तुम्हें सौंप दूँ तो मैं तुम्हारे लिए कुछ हूँ नहीं तो अपनी जिंदगी से मुझे फेंक दोगे। बेजान ठूँठ की तरह। मेरा प्रेम...,मैं... कुछ भी नहीं... कहते—कहते गला रुँध गया। चारों ओर से निरुपाय—सी वह फफक कर रो पड़ी। बुत बना वह बैठा रहा। एक सांत्वना भरे, स्नेह, विश्वास के स्पर्श की आस लिए बस बैठी ही रह गई। न कुछ बोला, न कुछ पूछा करवट बदल कर लेट गया। जैसे कह रहा हो कि ऐसा ही होगा तुम जो भी सोचो!
दीवार के सहारे सिर टिका दिया उसने जैसे स्वयं के परिस्थितियों की धारा में बहने को छोड़ दिया हो। दीपांकर की पीठ देखती रही चुपचाप। अब दीपांकर पति नहीं पुरुष नजर आ रहा है। वही सनातन पुरुष! इसी पुरुष साथ जीवन की नई शुरुआत कर अपने भाग्य पर इठलाई थी। न जाने कितने वादे किए थे, सपने देखे थे। लेकिन उन छलते सपनों का अंत अब...।
सवेरे उठा तो वह किसी सफर के लिए तैयार जान पड़ी। कहाँ जाएगी पति को छोड़ कर और जा भी कहाँ सकती है? उसने सोचा और फिर मुस्कुरा दिया। चेहरे पर उज्ज्वल आभा दमक रही थी। एकाएक ही प्यार उमड़ आया और माथा चूम लिया उसका। न चाहते हुए भी ममता की आँखों में नमी उभर आई। शायद ये आखिरी... सोचा ममता ने।
बहुत सुंदर लग रही हो।
अच्छा एक बात तो बताओ... सीने से लगी ही बोली। जिसने तुम्हें यह रास्ता दिखाया उससे मुझे कुछ पूछना है।
माँ से सवाल करोगी तुम... एकदम उसे झटक कर अनायास कह गया। फीकी—सी व्यंग्यनुमा हँसी उभर आई ममता के होठों पर। फिर खुल कर हँसी और बुदबुदायी...
माँ...ममतामयी माँ... घर सँवारने वाली माँ... वही... औरत की दुश्मन औरत... हमेशा की तरह... हतप्रभ खड़ा रह गया वह।
ममता ने एक बार फिर अटेची खोली और उसमें पड़े अपने बी. एड. के प्रमाण—पत्र और उस अखबार की कतरन फिर सँभाली श्सात दिनों की बच्ची के माँ—पिता की दुर्घटना में मृत्यु। परिवार में दूर—दूर तक कोई नहीं। ममतामयी दंपति संपर्क करें...श् नहीं केवल ममतामयी माँ!! वाक्य पूरा किया ममता ने।
मजबूत हाथों से अटैची थामी। मूर्तिवत खड़े दीपांकर को झिंझोडा और खिलखिलाकर बोली, अब मेरा चेहरा तकने को नहीं मिलेगा। जाते—जाते एक बात मन में आ रही है श्रीमान दीपांकर गुप्ता! कि आने वाली स्त्री जिसे तुम नई मशीन बनाकर लाओगे वो भी तुम्हारी इच्छा पूरी नहीं कर पाई तो और कितनी स्त्रियों की भावनाओं से खेलोगे?