नेताजी सुभाष चंद्र बोस
वर्णनकर्ता - जय रावल
प्रस्तावना
“Freedom is not given, it is taken”, यानि की "स्वतंत्रता दी नहीं जाती, उसे छीनना (लेना) पड़ता है।" जी हा, ये उस राष्ट्रवादी, स्वतंत्रता सेनानी के शब्द है, जिसे सब लोग "नेताजी" के नाम से जानते है। नेताजी के बारे में काफी कुछ लिखा गया है, और काफी कुछ लिखा जा रहा है। उनका समग्र जीवन एवं व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा है की जब जब भारत देश के स्वतंत्रता संग्राम की और उनमे शामिल सेनानी की बात होती है, तो वह "नेताजी सुभाष चन्द्र बॉस" के नाम के बिना खत्म नहीं हो सकती। और यहाँ में उन्ही की जीवनी के बारे में और उनके जीवन के महदंशो के बारे एक बार फिर से आप लोगो के परिचित करवाना चाहता हूँ।
बचपन और प्रारंभिक जीवन
सुभाष चन्द्र बॉस का जन्म २३ जनवरी, सन् १८९७, को बंगाल प्रांत के कटक, उड़ीसा में हुआ था। उनके जन्मदिन को "देश प्रेम दिवस" के रूप में मनाया जाता है। उनके पिता के नाम जानकीनाथ बॉस व् उनकी माता का नाम प्रभावती देवी था। वे अपने परिवार के १४ संतानो में से ९ वि संतान थी। उनके पिता एक प्रसिद्द वकील थे व् उनकी माता एक पवित्र एवं धार्मिक स्त्री थी।
सुभाष चन्द्र बॉस बचपन से ही पढ़ने में बड़े काबिल थे। उनको जनवरी,१९०२ में "प्रोटोस्टेंट यूरोपियन स्कूल" में दाखिल किया गया। सन् १९०९, तक उन्होंने बैप्टिस्ट मिशन द्वारा संचालित इस स्कूल में अभ्यास किया, और उसके बाद "रेवेंशॉव कॉलेजिएट स्कूल" में अभ्यास किया। जिस दिन सुभाष को स्कूल में दाखिल किया गया उसी दिन से उनके हेडमास्टर, बेनी माधब दास, ने उनकी काबलियत एवं प्रतिभा को पहचान लिया था और समाज लिया था की वो कितने होनहार थे।
सन्, १९१३ में अपनी मैट्रिक के इम्तिहान में दूसरी कक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने "प्रेसीडेंसी कॉलेज" में अभ्यास किया । यहाँ पर उनके राष्ट्रवादी चरित्र की आभा सबके सामने आई, जब सुभाष ने "प्रोफेसर ओटन" की भारत विरोधी टिप्पणिओं पर अपने राष्ट्रवादी शब्दों से हमला किया, और उस वजह से उन्हें कॉलेज से निष्कासित किया गया। बाद में सुभाष ने "यूनिवर्सिटी ऑफ़ कलकत्ता" की "स्कॉटिश चर्च कॉलेज" में प्रवेश लिया और वहां से अपनी B.A. की पदवी फिलोसोफी विषय में सन् १९१८ में हासिल की।
बॉस सन् १९१९, में भारत छोड़ इंग्लैंड गए, और अपने पिता से वादा किया की वो वहां पे "इंडियन सिविल सर्विसेज" के इम्तिहान देंगे। बॉस "Fitzwilliam कॉलेज, कैंब्रिज" से १९ जनवरी,१९१९ को मैट्रिक हुये। बॉस, ICS के इम्तिहान में ४ थे स्थान पर आये और उनका चयन हुआ, लेकिन उन्होंने "ब्रिटिश गवर्नमेंट" के लिए काम करने से मना कर दिया। उन्होंने १९२१ में भारतीय सिविल सेवा से इस्तीफा देकर अपने बड़े भाई शरत चंद्र बोस को लिखा: "Only on the soil of sacrifice and suffering can we raise our national edifice"। और उसके बाद बॉस भारत आ गये। भारत आने के बाद उन्होंने बंगाल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी की पदोन्नति के लिए "स्वराज" नाम का अखबार शुरू किया। १९३७ में, बॉस ने चोरी से ऑस्ट्रिया में एमिली शेंकल (ऑस्ट्रिया के पशु चिकित्सक की बेटी) को शादी कर ली।
राजनीतिक करियर
सन् १९२३ में बॉस "आल इंडिया युथ कांग्रेस" के अध्यक्ष बने और "बंगाल स्टेट कांग्रेस" के सचिव बने। बॉस, "फॉरवर्ड" अख़बार के संपादक भी रहे, जो "चित्तरंजन दास" ने शुरू किया था। बॉस, "चित्तरंजन दास" को अपनी आक्रामक राष्ट्रवादी प्रतिभा की वजह से अपना "राजकीय गुरु" मानते थे। बॉस ने "कोलकाता नगर निगम" के सीईओ के रूप काम किया और बाद में वे सन् १९२४ को कलकत्ता के मेयर चुने गये। १९२५ में राष्ट्रवादियों की एक राउंडअप में बोस को गिरफ्तार कर लिया गया था, जहां उन्हें यक्ष्मा की पीड़ा हुयी थी। सन् १९२७ में जेल से रिहा होने के बाद बोस कांग्रेस पार्टी के महासचिव बने और स्वतंत्रता के लिए जवाहर लाल नेहरू के साथ काम किया। सविनय अवज्ञा के मामले में बॉस को एक बार फिर गिरफ्तार किया गया। सन् १९३० के मध्यान में बॉस यूरोप की यात्रा के दौरान भारतीय विद्यार्थी और यूरोपियन राजनीतिज्ञों से मिले जिनमे "बेनिटो मुसोलिनी" भी शामिल थे। यहाँ पर उन्होंने पार्टी संगठन के साथ साम्यवाद और फासीवाद को देखा और उसका परीक्षण किया। इस दौरान उन्होंने अपनी खोज को संगठित करके अपनी पुस्तक "धे इंडियन स्ट्रगल" की प्रथम आवृत्ति लिखी, जिसमे सन् १९२०–१९३४ के बिच में हुए भारत के आज़ादी के आंदोलन की चर्चा थी।
आल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक और आज़ाद हिन्द फ़ौज
बॉस अयोग्य स्वराज के लिए खड़े हुए और उसके लिए वे ब्रिटिश के सामने बल प्रयोग करने के समर्थन में भी थे। उनके विचार से अहिंसक विचार वाले महात्मा गांधी और बॉस के बिच में विचारों का टकराव हुआ। बॉस ने एकता बनाए रखने के लिए काफी सारे प्रयास किये, लेकिन गांधीजी ने उन्हें अपनी अलग कैबिनेट बना लेने की सलाह दी। २२ जून, १९३९ को बॉस ने छोड़े हुए राजनीतिक करियर को मजबूत करने के लिए "आल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक" की योजना बनाई। बॉस के सबसे बड़े राजनीतिक समर्थक मुथुरमलिंगम थेवर ने ६ सितम्बर को मदुराई में एक बड़ी रैली का आयोजन किया।
बोस की गिरफ्तारी और रिहाई के बाद उनके पास जर्मनी भाग जाने का दृश्य स्पष्ट था। बॉस १९ जनवरी, १९४१ को ब्रिटिश निगरानी के निचे से अपने कलकत्ता के घर से पठान के वेश में भाग निकले। बॉस ने जर्मनी जाकर हिटलर से हाथ मिलकर जर्मन सेना को भारत की आज़ादी के लिए लड़ने के लिए मना लिया और इस के लिए जर्मन सेना का नेतृत्व बॉस करंगे ऐसा तय हुआ, लेकिन कुछ समय में बॉस को लगा की नाज़ी नेता हिटलर केवल उनका उपयोग कर रहा है, और उसके बाद बॉस वहां से भाग निकले। बॉस १९४१-१९४३ तक बर्लिन में रहे, और १९३४ में उनकी जर्मनी की यात्रा के दौरान वे "एमिली सचेंकल", अपनी बेटी से मिले।
"तुम मुझे खून दो, और मैं तुम्हें आजादी दूंगा!" जैसे प्रख्यात उद्धरण के माध्यम से बॉस ने आजाद हिंद फौज का नेतृत्व किया। और उनके इस देशप्रेम और स्वतंत्रता की आस देने वाले भाषण को सुनके उनको "नेताजी" की उपाधि मिली । सिंगापुर आजाद हिंद रेडियो द्वारा ६ जुलाई, १९४४ को प्रसारित हुए अपने भाषण में उन्होंने महात्मा गांधी को "राष्ट्र के पिता" सम्बोधित किया था। उनके अन्य प्रसिद्ध उद्धरण "दिल्ली चलो" आईएनए सेनाओं प्रोत्साहित करने के लिए था। "जय हिंद", "भारत की जय हो!" एक अतिरिक्त नारा आम तौर पर उनके द्वारा इस्तेमाल किया जो बाद में भारत सरकार और भारतीय सशस्त्र बलों द्वारा स्वीकार कर लिया गया था।
मृत्यु और विवाद
विद्वानों की राय की आम सहमति में, सुभाष चन्द्र बॉस की मौत १८ अगस्त, १९४५ को अतिभारित जापानी विमान दुर्घटनाग्रस्त होने से हुयी। हालांकि, उनके काफी सारे समरथक ने, ख़ास कर के बंगाल में उस समय पर, बॉस की मौत के हालत को मानने से इंकार कर दिया था। उनके समर्थक मानते थे की बॉस जिन्दा है और वो भारत की आज़ादी बाद वापिस आयेंगे। केवल ४८ साल की आयु में गुजर जाने के बाद नेताजी द्वारा स्थापित INA के सदस्य सदमे माँ चले गए और वो सब बांध हो गया।
उपलब्धि
जापानी प्रधानमंत्री (शिंजो अबे) ने २३ अगस्त, २००७ की अपनी यात्रा के दौरान जब कोलकाता में सुभाष चन्द्र बॉस मेमोरियल हॉल में कहा था की जापानी बॉस के भारत की स्वतंत्रता आंदोलन में ब्रिटिश शासन के खिलाफ किये हुए आंदोलन से अत्यन्त प्रभावित हुए थे और नेताजी का नाम जापान में एक महँ व्यक्तित्व की परिभाषा दर्शाता है। निम्नलिखित शब्दों कुर्सी के सामने एक पीतल ढाल पर उत्कीर्ण हैं।
"नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के बंधनों से भारत को मुक्त करने के लिए अक्टूबर २१, १९४३ को देश के बाहर से आजाद हिंद सरकार का आयोजन किया। नेताजी ने 'प्रोविशनल गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिपेंडेंट इंडिया (आज़ाद हिन्द)' को स्थापित किया और उसका मुख्यालय ७ जनवरी, १९४४ को रंगून में प्रस्थापित किया। ५ अप्रैल, १९४४ को रंगून में 'आज़ाद हिन्द बैंक' का उद्घाटन किया गया। यह पहला ऐसा अवसर था जब नेताजी ने पहेली बार कुर्सी का उपयोग किया था। बाद में कुर्सी, नेताजी के निवासस्थान, ५१, यूनिवर्सिटी एवेन्यू, रंगून, की जहां पर आज़ाद हिन्द गवर्नमेंट का घर था वह पर रख गयी। बाद में, बर्मा छोड़ने के बाद, अंग्रेजो ने कुर्सी मि. ऐ. टी. आहूजा, रंगून के प्रसिद्द व्यापारी आदमी को दे दी। कुर्सी आधिकारिक तौर पर जनवरी १९७९ में भारत सरकार को सौंप दि गयी। १७, जुलाई,१९८० को उसे कोलकाता लाया गया। अब यह समारोहपूर्वक ७ जुलाई, १९८१ को लाल किले पर स्थापित कर दिया गया है।
गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया ने यह निर्णय लिया की नेताजी की फाइल्स को जनलोक के लिए प्रस्थापित किया जाये। १४ अक्टूबर,२०१५ को प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने यह निर्णय सुनाया जब वे नेताजी के परिवार से मिले। उस फाइल्स के प्रथम ३३ लेख राष्ट्रीय अभिलेखागार को ४ दिसंबर,२०१५ को हस्तगत किये गये।
नेताजी सुभाष चन्द्र बॉस के वचन
"Freedom is not given, it is taken"
"One individual may die for an idea; but that idea will, after his death, incarnate itself in a thousand lives. That is how the wheel of evolution moves on and the ideas and dreams of one nation are bequeathed to the next"
"You give me your blood and I will give you Independence!"
गौरवान्वित अभिवादन
ऐसे महान स्वतन्त्र सेनानी नेताजी सुभाष चन्द्र बॉस को समग्र भारतवर्ष उनके अतुलनीय योगदान के लिए सदैव याद रखेगा और कोटि कोटि वंदन करेगा।
References:-
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