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खुश्बू


खुशबू

गजाल जैगम


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खुशबू

शायद तुमको यकीन न आये कि मुझे धुयें में खुशबू महसूस होती है। एक अजीब सी खुशबू... धुएँ में कभीकभी एक तल्ख सी कसीली खुशबू आती है और कभी कभी बेहद नर्म सी खुशबू रोटियों की महक लिए हुए। हमारे घर में खाना लकडी वाले चूल्हे पर पकता था, लकडी जला कर मेरी बडी बहन चपातियां पकाती थी और में उकडू चूल्हे के आगे बैठकर धुएँ की खुशबू और अंगारों से बातें करता था और अक्सर बेखुदी में हाथों को आगे फैला लेता था। मेरी बहन की रोटी फट जाती थी और वह झुंझला कर मुझे डाटती थी परे हट।

अब मेरी बहन लंदन में हैं। वहाँ बन्द डिब्बों का खाना खुद खाती होगी, पति और बच्चों को खिलाती होगी। मैं होटल पर.. डबलरोटी पर जी रहा हूँ लेकिन जहाँ भी धुएँ की लकीर शाम को या सुबह के धुँधलके में उठती देखता हूँ यही महसूस करता हूँ कि यह खुशबूदार धुआँ रोटी की सौंधी खुशबू लिये हुए है।

मुझे पत्तियों से हरीहरी खुशबू आती है, धान के खेत से धानीधानी खुशबू...। मुझे खुद हैरत है कि मुझे खुशबू का रंग कैसे महसूस हो जाता है? हल्की हल्की शुरू की सर्दियों में मुझे गुलाबी गुलाबी खुशबू आती है और यह मौसम मुझे बेहद पसंद है। जब मैं अपनी बहन के हाथ का बुना हुआ पुलोवर पहनकर साफ लम्बी चौडी सडकों पर यूकेलिप्टस के सायेदार दरख्तों के बीच से गुजरता हूँ तब गुलाबी गुलाबी जाडे की खुशबू महसूस करता हूँ।

मैं सिर्फ अपनी बहन के ही हाथ के बनाये स्वेटर पहनता हूँ न कि बाजार या किसी और के हाथ के बनाये गये स्वेटर क्योंकि उनके एकएक फंदे में मेरे लिए ममता की खुशबू बसी हुई होती है। मेरी माँ बचपन में ही चल बसी थी। मुझे मेरी बहन ने बच्चों की तरह ही पाला, वह मुझसे केवल ८ साल बडी है और मुझसे बहुत बडों सा रवैया रखती है। वह मुझे अभी भी बच्चा समझती है जबकि मैं २८ साल का अच्छा खासा मैच्योर लडका हूँ। एक फर्म में एकाउन्ट्‌स में काम भी कर रहा हूँ।

जब उसकी शादी हुई तो मैं छोटा ही था और उसकी शादी से मैं बहुत खुश हुआ था कि वह चली जायेगी तो मुझे घर में डाँटनेवाला कोई नहीं रहेगा। पापा मुझे कभी डाँटते नहीं थे। मैं अपनी मर्जी करूँगा, दोपहर में बागों में जाकर आम तोड़ूँगा, दिन भर घूमूँगा, तालाब में पत्थर फेकूँगा, नौकरों के बच्चों पर हाथ आजमाऊँगा, किताबें सब छुपा दूँगा और मास्टर जी को भगा दूँगा। ओह...कितना मजा आयेगा, मैं कितना आजाद होऊँगा। वक्त पर खाना खाओ, वक्त पर सोओ, उठो, पडो। वह हर वक्त मेरे पीछे हुक्म का हुक्का लेकर चलती थी। उसकी विदाई पर सब रो रहे थे। वह मुझे भी गले लगाकर खूब रोई, लेकिन मेरी आँख नम न हुई, मैं सोच रहा था कब उसकी सजी हुई कार नजरों से दूर हो और कब मैं आजादी का नारा लगाता हुआ मैदान में भाग जाऊँ और मनमानी करूँ।

उसका मोटा दूल्हा मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था जबकि सब लोग मेरे पीछे पडे थे उसके पास जाकर बैठो। वह मुझे घूर रहा था, मैं उसे घूर रहा था।

मेरी बहन तो इतनी नाजुक सी, गोरी सी, एकदम मौलश्री का फूल थी और यह मोटा...। मुझे उस बडा गुस्सा आ रहा था कि ये मेरी बहन को क्यों ले जा रहा है? लेकिन ले जाने दो जी, मुझे क्या? हर वक्त की ड्यूटी से तो मुझे छुट्टी रहेगी। आराम से खूब देर तक सुबह सोकर उठूँगा, नहाऊँगा भी नहीं, सारा काम अपनी मर्जी से करूँगा।

हूँ...बडी आई वहाँ की।

उसकी कार धुआँ उगलती हुई फूलों से महकती गावों की कच्ची सडक पर डगमगाती हुई जा रही थी। मैं बाग की सफील पर खडा देख रहा था। कार के ओझल होते ही मैंने आजादी का नारा लगाना चाहा, लेकिन नारे की आवाज मेरी हलक में ही फँस गयी। न जाने कैसे मेरा दिल दर्द की शिकायत से कराह उठा। अब मेरा कौन खयाल रखेगा? कौन मुझे प्यार करेगा, कौन सुबहसुबह उठायेगा। सालगिरह के दिन मेरा माथा कौन चूमेगा? मुझे खाना अपने हाथ से कौन खिलायेगा?

एकाएक मैं फूटफूट कर रोने लगा। आँसुओं का कारवाँ रुक ही नहीं रहा था, मेरी कमी की दोनों आस्तीनें भीग गयी। मेरी हिचकियाँ बड गयीं। मैं घर भी वापस नहीं जाना चाहता था। वहाँ मेरा कोई भी इन्तजार नहीं कर रहा होगा, खाली दरवाजा मेरा स्वागत करेगा। किसी को दो बडीबडी रोशन आँखे चिलमन से झाँककर मेरा बेचौनी से इंतजार नहीं कर रही होंगी।

पापा के कमरे में मुवक्किल होंगे, वह मुकदमा सुलझा रहे होंगे। उनको क्या फिकर, लडका मर गया या जी रहा है। तभी मेरा पुराना नौकर अलीशेर मुझे ढूँढता हुआ वहाँ आ पहुँचा और मुझे जबरदस्ती घर ले गया। मैं कमरे में चुपचाप पडेा रहा। मेरे दोस्त मुझे खेलने के लिए बुलाने आये, लेकिन मेरा दिल नहीं चाहा। दोपहर में मैं आम तोडने भी नहीं गया, नौकर खाना लाकर कमरे में रख गया, मैंने नहीं खाया। मैं फिर रोतेरोते सो गया। उठा तो शाम हो चुकी थी। मेरा दिमाग बोझिल था। कुछ करने की तबीयत नहीं हो रही थी। खाली बैठेबैठे घबराहट सी हो रही थी। बेचौनी बडती जा रही थी। झक मारने मैंने कोर्स की किताब उठाई। पडना शुरू ही किया कि कान में मुझसे किसी ने कहा, श्दिल लगाकर पडो, इम्तेहान में अच्छे नम्बर लाना है।

कौन है भई? घबराकर कमरे में देखा। मेरे अलावा कोई न था, तो वह बोला कौन? क्या तुम हर जगह हो?

क्या आवाजे. बादगश्त में रह जाती है?

सुबह मेरा इरादा देर तक सोने का था। लेकिन पाँच बजे ही तुम्हारी आवाज ने मुझे उठा दिया। उठो। देर तक सोना अच्छी आदत नहीं हैं। मैं मजबूरन उठ बैठा। इधरउधर देखा तुम कहीं न थीं, यानी तुम मेरा पीछा कभी छोडोगी नहीं...चाहे यहाँ हो या न हो, तुम हमेशा मेरे वजूद में एक खुशबू की तरह बसी रहोगी।

जैसा तुम चाहती थी मैं सारे काम वैसे ही करता था। तुम्हारी गैर मौजूदगी में भी। मेरी सालगिरह के दिन भी तुमने मेरा माथा चूम कर उठाया था, श्सालगिरह मुबारक हो, श्अरे तुम कब आई? मैं हडबडाकर उठ बैठा। लेकिन तुम कहीं नहीं थीं, तो फिर माथा किसने चूमा? एकदम तुम्हारी तरह। लेकिन कमरा हमेशा की तरह खाली था।

शाम की डाक से तुम्हारा पार्सल मिला। तुमने मुझे जर्द रंग का पुलोवर भेजा था। अच्छा, तुमको याद था कि मुझे जर्द रंग बेहद पसंद हैं। उस दिन मैं बबूल के दरख्त के पास घंटों बैठा रहा। दरख्त अपनी बहार पर था, जर्दजर्द फूलों से ढका हुआ बबूल।

मैं फूल तोडता था, तुम अपने कान की लटों में फूल पहन लेती थीं। एक दिन तुमने यह शेर भी पडा था जुनूं पसंद मुझे छाँव है बबूलों की अजब बहार है इन जर्दजर्द फूलों की।

तुम्हारे कहने के मुताबिक मैं पड लिखकर इंसान बन गया, नौकरी भी मिल गयी। फिर मैं पैसे जुटा कर तुमसे मिलने लंदन भी आ गया, तुम्हारे लिये मैं कुछ ला नहीं सका था। मैं तमाम दिन दिल्ली के पालिका बाज़ार में घूमता रहा। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि तुम्हारे लिए क्या खरीदूँ? थककर मैं वापस कमरे पर लौट आया। कमरे में मेरी नज़र पडेी, एक पाउडर के पुराने डिब्बे पर, मुझे याद आया कि मैं बचपन में पुराने डिब्बे में शीशे लगाकर तुम्हारी टूटी हुई चूडियाँ डालकर एक खिलौना बनाता था जिसको हिलाने पर चूडियों के रंगीन टुकडों के विभिन त्रिकोण बनते थे। वह तुमको बेहद पसंद था, लेकिन मैं तुमको कभी वह खिलौना देता नहीं था। तुम्हारे लाख कहने पर भी नहीं बनाता था।

मैंने बाजार जाकर चन्द रंगीन चूडियाँ लीं, उनको तोडकर तुम्हारे लिये ये एक हकीर सा तोहफा तैयार किया।

तुम्हारे घर पहुँचने पर मुझे यह अहसास हुआ कि तुम्हारे अलावा मेरे आने से कोई खुश नहीं था। खैर मुझे उम्मीद भी यही थी, हालांकि तुम बारबार यही कोशिश कर रही थीं कि सभी लोग तुम्हारे भाई को तुम्हारी तरह ही अहमियत दें।

खलौना पाकर तुम रो पडेी थीं। लगता था तुम्हारे सारे जख्म फिर हरे हो गये हो। गाँवों की यादों में तुम डूब गयी थीं। बबूल का पेड पिछवाडे है कि नहीं? श्वह कट गया सतरोहन की अम्मा आती है कि नहीं? वह हैजे में कब की मर गयी... मैं झुझला गया था। यह भी कहाकहाँ की बातें करती हैं। लगता ही नहीं कि लंदन में रहती है।

खाना तुमने हिन्दुस्तानी पकाया था। मेरी पसन्द की मखाने की खीर भी बनाई थी। लेकिन तुम्हारे पति और बच्चों ने चखा भी नहीं और उन लोगों ने डबलरोटी खायी थी। मैं तुम्हारी हाथ की पकी बरसों बाद नरम व नाजुक जायकेदार चपातियों से लुत्फ अंदोज हो रहा था।

तुम मुझसे अब भी बिल्कुल बच्चों सा सुलूक करती हो। सुबह बाकी बच्चों के साथ मुझे उठा देती थीं, मेरे कपडेे प्रेस कर देती थीं, मेरे जूतों की लेस भी एक दिन तुमने बाँधने की कोशिश की थी, श्अरे भई मैं खुद बाँध लूँगा, तुम मुझे बच्चा मत समझा करो प्लीज।

पप्पू तुम कितने भी बडे हो जाओ मेरी नजर में तो तुम हमेशा बच्चे ही रहोगे। उसकी आँखें झिलमिला उठी थी। मैंने जूते के लेस उसी से बँधवाये थे। बचपन में लेस गलत बाँध लेता था, कभी उलझा देता था इसलिए वह बाँधती थीं। तुम्हारे बच्चे हँसे थे कि मामा को लेस भी बाँधना नहीं आता। एक ने कहा था, श्गाँव वाले हैं न, इसलिए नहीं जानते होंगे।

तुमने बडे शौक से उनको वह हकीर सा खिलौना दिखाया था जो तुम्हें बेहद अजीज था। लेकिन तुम्हारे बच्चों ने उसको एक नजर देखकर कहा था क्या वहाँ ऐसे ही बेकार और गन्दे खिलौने बनते हैं? तुम्हारे लडके ने पूछा था।

तरक्की हुई कहाँ हैं वहाँ? तुम्हारी लडकी ने कहा था। मैं चुपचाप सोफे में धँसा हुआ था। तुम चुप थीं, शमिर्ंदा थीं। तुम्हारे पति सन्जीदा ढँग से मुस्करा रहे थे। उनके भद्दे मोटेमोटे होठों पर मुस्कुराहट रेंग रही थीं। लेकिन मैं सिर्फ तुम्हारी तरफ देख रहा था, कितनी कमजोर हो गयी थीं तुम। बालों में चाँदी उतर आयी थी। आम लंदन वालो की तरह तुम बाल डाई नहीं करती थीं हालाँकि तुम्हारे पति के बाल चमकीली डाई से चमक रहे थे। बबूल के फूलों की तरह तुम्हारा चेहरा जर्द था और मैं इतना मजबूर था कि तुम्हारे लिए कुछ कर नहीं सकता था, चाहते हुए भी नहीं।

मैंने तुम सबसे अपने देश चलने को कहा था। तुम्हारे पति ने तो पहले ही श्सॉरी कह दिया था कि हम लोग बगैर एयर कन्डीशन के जिन्दा ही नहीं रह सकते हैं, एक पल भी नहीं। बच्चे भी इन सब चीजों के आदी हैं, और फिर गाँव की तकलीफदेह जिन्दगी। यह लोग बर्दाश्त नहीं कर पायेंगे, बीमार हो जायेंगे।

श्अच्छा जाडों में चलिए। तुमने खुद सिफारिश की थी, खेतों में हमारे गन्ने और मूँगफल्ली होंगी। बच्चे भी खुश होंगे। उसकी आँखों में सरसों के खेत उभरने लगे थे। वह कमल के तालाबों, मटर के फूलों और धने की तेज खुशबू से होकर फिर लौट आयी थी जाडों में हम लोग पेरिस जा रहे हैं। क्यों? तुम्हारे मोटे पति ने बच्चों से कहा, श्यस सब चिल्लाये थे।

मैं दीदी को लिए जाऊँ मैंने झिझकते हुए कहा था। मेरी बहन के चेहरे पर कैसी हैरानी, खुशी, गम, हसरत, मर्सरत का मिला जुला जज्बा था जिसको बताना मुश्किल था। लेकिन तुम्हारे पति ने मना कर दिया। अपनी भारी आवा में वह बोला, घर के काम में परेशानी होगी। तुम एक लफ्ज़ भी नहीं बोली थीं, उठकर चली गयीं थीं और मुझे मालूम है कि तुम कमरे का दरवाजा बन्द करके खूब रोई होगी। घर के सारे काम मशीन से होते हैं और अब तो बच्चे भी बडे हो गये हैं। खुद भी कुछ न कुछ कर सकते हैं, लेकिन मैं कुछ कह ही नहीं पाया था।

खाने की मेज पर जब वह आई थी तो उसके हाथों में तर्जिश सी थी और आँखों में हल्की सुर्खी थी जो उसके गम का सबूत थीं। दूसरे दिन मुझे वापिस आना था। तुम जिन्दगी में पहली बार सीने पर रात भर सिर रखकर रोती रही थीं क्योंकि इसके अलावा तुम कुछ कर भी तो नहीं सकती थीं। कितनी मजबूर थीं तुम और मैं ?

क्या करता मैं भी, तुम बताओ? मैंने कहा था तुम मेरे साथ चलो अपने गाँव, अपने देश। चलो तुम, मैं तुमको ले जाता हूँ। देखता हूँ, तुम्हारे भाई को कौन रोक सकता है।

नहीं मैया नहीं पप्पू वह नाराज हो जायेंगे।

कमबख्त वह...। तुमको उनका इतना ख्याल है। उनकी मर्जी के बगैर साँस भी नहीं ले सकती हो तो भूल जाओ हम सबको, हम सब देहाती है, जाहिल हैं गरीब हैं, भूल जाओ अपने घर को, अपने खेतों, अपने लोगों को, खो जाओ यहाँ की रंगीन फिजा में, डूब जाओ मस्तियों में, बेहनगम मौसिकी में, बेमानी जिन्दगी में, जहाँ सब कुछ सिर्फ पैसा है। इंसानी जज्बात कोई अहमियत नहीं रखते, क्यों जुडी हो? तुम अभी तक अपनी कदरों से?

मेरी जे तो वही हैं भैया मेरा वजूद भी वहीं हैं। मेरी रूह भी वही हैं, सिर्फ जिस्म ही तो यहाँ आ गया है। मैं कैसे तुम सबको भूल सकती हूँ?

मुझे अपने सीने से लगा लिया था तुमने। मैं एक बच्चा बनकर काश तुम्हारे पास तमाम उम्र रह सकता। काश ये लम्हा कभी खत्म न होता, मैं यों ही तुम्हारी गोद में सिर रखेरखे मर जाता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सुबह सूरज निकल आया बिला वजह ही...। मैं चाहता तो और छुट्टी लेकर रुक सकता था, लेकिन तुम्हारे पति के चेहरे पर मेरे रहने से जो नफरत का जज्बा उभरता था वह चाहे वह खुद न पड सकता हो, लेकिन एक आम इंसान जरूर पड सकता था। रात में कई बार मेरे दिल में खयाल आया कि मैं तुम्हारे श्वह को मोटी गर्दन अपने मजबूत हाथों से दबा दूँ जब उसकी नीली रंगे उभर आए तो छोड दूँ और तुमको अपने देश ले जाऊँ...चाहे खुद तमाम उम्र जेल में रहूँ। लेकिन कमएजकम फिअॉन से दुनिया तो पाक होगी।

लेकिन तुम्हें बेवा कैसे देख सकूँगा? तुम रंगीन के बजाय सफेद साडी पहनोगी, तुम्हारे कानों में जर्द कर्ण फूल हैं जो अम्मा के दहेज के हैं, उनको तुम्हें उतारना पडेेगा। रंगीन चूडियाँ तुमको बचपन से पसंद हैं, मेले जाते समय हमेशा तुम मुझसे चूडियों की फरमाइश करती थीं। हरे रंग की चूडियाँ थीं तुम्हारे पास, तुम्हारे हाथ खालीखाली कैसे लगेंगे? नहीं...नहीं...मैं तुम्हारी वजह से तुम्हारे श्वह का कत्ल नहीं कर रहा हूँ। एयरपोर्ट पर भी वह मोटा, अच्छा हुआ मुझे छोडने नहीं आया...उसको वक्त नहीं था। सिर्फ तुम आई थीं, यही मैं चाहता भी था। चलते वक्त तुमने मेरा माथ घूमा था, मैं जाकर अपनी सीट पर बैठ गया। तुम चली गयी होगी, तुम कपडेे धो रही होगी, खाना पका रही होगी, तुम्हारे श्वह बैठे वीडियो पर ब्लू फिल्म देख रहे होंगे। तुम्हारे बच्चे रिकार्ड लगाकर किसी अफ्रीकी धुन पर नाच रहे होंगे। तुम मेरे खैरियत से घर पहुँचने की दुआ कर रही होगी। मैं तुम्हारी यादों का खुशगवार बोझ लेकर अपनी सरजमीन पर आ गया हूँ। और खेतों को, घर को, सतरोहन की अम्मां को, पापा को, बबूल के कटे दरख्त को तुम्हारा सलाम, तुम्हारी अकीदत व मुहब्बत पेश कर रहा हूँ।

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