ग्वालियर साहित्यिक यात्रा (भाग-3) Nitin Menaria द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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ग्वालियर साहित्यिक यात्रा (भाग-3)

ग्वालियर साहित्यिक यात्रा (यात्रा वृतान्त) ..................

भाग-2 से आगे ...

हम ग्वालियर के जय विलास पैलेस पहूँचे लेकिन वहाँ पहूँचकर पता चला कि पैलेस सोमवार को बंद रहता है। खैर हमने पैलेस के बाहर के नजारे को हमारे साथ कैमरे में कैद कर उस पल को यादगार बनाया। हम वहाँ से सुर्य मन्दिर देखने के लिए प्रस्थान कर गये। रास्ते में हमने कई पुरानी छतरियों को देखा ये सिंधिया की छतरिया थी।

हम फिर ग्वालियर विवस्वान सुर्य मन्दिर पहूँचे। यह बहुत विस्तृत भू-भाग पर बना हुआ था। चारों तरफ हरियाली और कई गुलाब के पौधे देखने को मिलें। हमने यहाँ कई तस्वीरे लीं। इस मन्दिर का निर्माण बसंत जी बिड़ला ने करवाया था। यह मन्दिर 20500 वर्ग फीट क्षेत्रफल में हैं। मन्दिर की ऊँचाई 75 फीट 1 इंच है। यह मन्दिर आधुनिक युग का एक मात्र सुर्य मन्दिर है। कोणार्क की अनुकृति के रूप में विवस्वान मन्दिर भारतिय वास्तु कला के इतिहास की महत्वपुर्ण घटना हैं। यह मन्दिर एक बड़े चबुतरे पर बना भगवान सूर्य के रथ के आकार का हैं जिसमें चौबिस चक्रों एवं सात घोड़ो द्वारा खिंचे जाने वाले रथ के समान हुआ प्रतिक होता हैं। बाहर चारों और छोटे-छोटे मन्दिर बने हुए हैं।

फिर हम तानसेन के मकबरे पर पहूँचे। यह बहुत विस्तृत क्षेत्र में बना हुआ है। यहाँ चारो तरफ बड़ें-बड़ें बगीचें है। आसमांन पर उड़ते पंछीयों को देख लगा कि आज भी तानसेन की धुन यहाँ सुनाई देती हैं ये पंछी यहाँ सुकुन भरी जिन्दगी को महसुस करते हैं। मकबरे पर बहुत पुरानी नक्काशी देखने को मिली। यहाँ हमने कई पत्थरों के आलेख भी देखें। तानसेन के गुरू गौ़स का मकबरा भी देखा। इस मकबरे का निर्माण चौकोर रूप में हुआ है तथा कोनों पर षटकोणीय बुर्ज बने है।

समय 1&30 हो चला था हमने वक्त की नजाकत को देखते हूए नगर भ्रमण को यहीं विराम दिया। बाजार से घर वालों के लिए कुछ खरिदारी कर हम सिधे होटल पहूँचें। हमें दोपहर का भोजन करना था हमने होटल में ही भोजन का आॅर्डर दिया। कुछ ही देर में हमारा भोजन तैयार हो गया और हम तीनों भोजन के लिए बैठे। आज हमारे समूह के बाकि सदस्य साथ नहीं होने से हमें भोजन का वो रसास्वाद नहीं आया जो पीछले दो दिनों में हमने समूह के साथ महसुस किया था। बिछड़े मित्रों के कारण हमें उनकी याद आती रही। सच मानों तो एक पारिवारिक वातावरण स्थापित हो गया था।

हमने होटल से प्रस्थान किया और ओटो लेकर रेल्वे स्टेशन पहूँचे। स्टेशन पहूँचते ही हमें हमारी रेल उदयपुर-खुजराहो एक्सप्रेस दिखाई दी लेकिन जब ध्यान से देखा तो पता चला की यह तो विपरित दिशा में खड़ी है क्योंकि यह रेल आज 1&30 की बजाय 2&30 पर देरी से पहूँची थी और खुजराहो जा रही थी। हमारी वापसी की रेल का समय बाकी था। कुछ ही देर में एनाउन्समेन्ट हुआ उदयपुर जाने वाली खूजराहो-उदयपुर ऐक्सप्रेस गाड़ी संख्या 19665 प्लेटफार्म नम्बर 3 पर पहूँचने वाली हैं। हम प्लेटफार्म नम्बर 3 पर पहूँचें। हमने वहाँ आज का समाचार पत्र खरिदा एवं उसमें छपी हमारे कार्यक्रम की तस्वीर एवं समाचार देखा। श्री निरंजन जी तिवारी (निरंजन ’’नीर’’) एवं श्रीमती मधुर जी परिहार का कोच एक था। मेरे समुह के अब दो सदस्य मुझसे जुदा हो रहे थे। लेकिन सफर एक ही रेल में होने से हमारे एक मित्र श्री रफीक मोहम्मद जी जो कार्यक्रम में भी साथ थे एवं मेरे साथ उदयपुर से मेरी ही रेल में बैठकर आये थे संयोग से उनका और मेरा एक ही कोच था। हमने रेल्वे स्टेशन पर साथ में तस्वीरें ली। हम सभी ने चाय पी और विदाई ली। ग्वालियर जंक्शन बहुत बड़ा जंक्शन है इसे हमने कैमरे में कैद कर लिया था।

कुछ ही देर में हमारी गाड़ी प्लेटफार्म पर आ गई। मैं अपने कोच की तरफ बढ़ा पर पीछे मुड़ कर अपने साथियों को नहीं देख पाया। मुझे जिस कोच में चढ़ना था उस कोच के दरवाजे पर बहुत भीड़ होने से पास वाले कोच से मैंने प्रवेष किया। भारतीय समयानुसार दोपहर 03&45 बजे खुजराहो उदयपुर ऐक्सप्रेस गाड़ी नम्बर 19665 ग्वालियर जंक्शन से प्रारम्भ हुई। मैंने अपनी सीट सम्भाली। कुछ ही देर में मेरे मित्र श्री रफीक मोहम्मद मंसुरी जी जो मेरे कोच में ही थे मुझसे मिले और खेरियत पूछी।

कुछ ही देर में मेरी नजर एक 7 फीट के पुरूष पर टिक गई जिसे मैंने कल कार्यक्रम में देखा था। मैंने उन्हें पहचान लिया था। इनका नाम श्री उमेश जी शर्मा था जो हरिद्वार से थे और ग्वालियर के साहित्यिक कार्यक्रम में मेरे साथ थे। मैंने अभिवादन किया उन्होंने भी मुस्कुरा कर अभिवादन किया। बातचित करने पर पता चला कि ये जनाब भी हमारे साथ उदयपुर जा रहे है जहाँ नजदीक नाथद्वारा में 05-01-2016 को नाथद्वारा साहित्य मण्डल द्वारा आयोजित एक कवि सम्मेलन में शामिल होने एवं सम्मानित होने जा रहे थे। इनकी सीट भी मेरे नजदीक थी। इस बार रेल में मैं अकेला अनजाना सा नहीं था पहचान वाले 4 सदस्य रेल में थे। मेरे कोच मैं श्री उमेश जी शर्मा एवं श्री रफीक मोहम्मद मंसुरी थे। जबकि अन्य कोच में श्री निरंजन जी तिवारी (निरंजन ’’नीर’’) एवं श्रीमती मधुर जी परिहार थी। लगता था कि हम ग्वालियर से साहित्यिक यादों के साथ-साथ साहित्यिकारों को भी ले जा रहें हो।

मैंने मेरे समूह के अन्य सदस्यों के हाल जानने के लिए मोबाईल चैक किया तब हमारे व्हाॅटस्अप ग्रुप मिशन ग्वालियर पर अन्ताक्षरी चल पड़ी थी। आज के इस मल्टीमिडिया और स्मार्टफोन के युग में कुछ भी सम्भव हैं तीन मित्र जो मुम्बई रेल में है और एक मित्र अन्य रेलगाड़ी में थे और हम तीन मित्र जो खुजराहो एक्सप्रेस में थे। हम आठ ही सदस्य अलग-अलग रेल एवं कोच में होते हुए अलग-अलग सफर पर होते हुए भी एक साथ झुड़े हुए थे और सफर का आनन्द अन्ताक्षरी के साथ लेने लगे। कई फिल्मी नये-पुराने गीत हमने मैसेज में टाईप किये और अन्ताक्षरी की टिक-टिक 1 करने लगे। कभी नेटवर्क चला जाता तो कभी फिर से आ जाता। चारों दिशाओं में यात्रा करने वाले हमारे समूह की बात ही निराली थी वास्तव में हमारा मिशन ग्वालियर सफल हुआ था। एक घंटे की अन्ताक्षरी के बाद समूह थम गया।

सांझ हो चली थी मैंने रेल के शीशे से बाहर देखा तो नजारा अद्भुत था। सुर्य अस्ताचल की ओर था, पंछी गगन में उड़ रहे थे, नदी में सुर्य की लालीमा लिए उसकी छवि दिख रही थी, आसपास हरियाली की चादर ओढ़े धरा थी। इस नजारे को मैंने अपने कैमरे में कैद कर लिया।

मेरे कोच में जब हम तीन मित्र एक साथ एक ही कोच में थे और सभी साहित्यिक रूची के तो साहित्यिक चर्चा होनी आम बात थी। मैंने श्री उमेश जी शर्मा से बातचित की। श्री उमेश जी शर्मा एक अच्छे साहित्यकार के धनी लगे इनसे बहुत कुछ सिखने को मिला। इनकी रूची साहित्य के साथ-साथ नेचर और वाईल्ड फोटोग्राफी में भी हैं। इन्हें भ्रमण में भी रूची हैं।

श्री उमेश जी शर्मा से रेल यात्रा के दौरान हाईकु कविता पर विशेष बातचीत भी हुई। श्री उमेश जी ने बताया कि हाईकु का प्रथम प्रयोग रविन्द्रनाथ टैगोर ने 1914&1917 में किया था। तब इसे त्रिपदीय छंद भी कहा जाता था। जवाहर लाल नेहरू युनिवर्सिटी जेएनयू के प्रो वर्मा के अनुसार 1970 में हाईकु का प्रयोग माना जाता हैं। वैदकाल में भी इसका वर्णन मिलता है। 1644 में मास्तुओं बांसा को इसका जनक माना जाता हैं। हाईकु अब 40 भाषाओं में लिखा जाता हैं। इसे सुक्ष्म कविता भी कहा जा सकता है। इसे अन्जली देवधर प्रसिद्ध करने का प्रयास कर रही है।

हाईकु कविता 17 अक्षरों में कहे जाने वाला शब्द विधान है जिसमें तीन पंक्तियाँ होती है प्रथम में 5 द्वितीय में 7 एवं तृतीय पंक्ति में 5 अक्षर होते है। सभी पंक्तियाँ अपने में सम्पुर्ण होनी चाहिए। सयुंक्त अक्षर 17 होते हैं। निम्न दो हाईकु कविता से मुझे श्री उमेश जी शर्मा ने समझाया।

हे गुमसुम

है क्यों बैठा उदास

उसकी रजा

करते रहे

सबके लिए दुआ

खुद को भुला

श्री उमेश जी शर्मा ने अपनी पुस्तकें दिखाई जो मुझे बहुत सुन्दर लगी। आपकी पुस्तक ’’स्पंदन’’ जिसमें 786 हाईकु कविताओं का संग्रह है। एक अन्य पुस्तक यूं ही नहीं जिसमें 70 कविताओं का संकलन है। इसके साथ ही इनकी एक संाझा संग्रह ’’दीपशिखा’’ भी प्रकाशित हुई है। इनकी पुस्तकों में एक विशेष बात यह लगी कि पुस्तकों के कवर चित्र श्री उमेश जी शर्मा ने अपने कैमरे से ही खिचें थे। उन्हीं को पुस्तक पर लगा पुस्तक की सौंदर्यता में चार चाँद लगा दिये। पुस्तक पर अपने गुरू के कथन भी प्रकाशित थे। पुस्तक में कविता के साथ-साथ उनकी लिखने की दिनांक भी प्रकाशित थी।

श्री उमेश जी शर्मा, श्री रफीक मोहम्मद मंसुरी जी और मैंने रेल में काव्य पाठ भी किया। हमने अपनी पुस्तकों से रचनाओं का काव्य पाठ किया। रेल में हमारे साथ श्री अनिल पौदार जी का परिवार भी साथ बैठा था। उन्होंने भी हमारे काव्य पाठ का बहुत आनन्द लिया। हमने रेल में काव्य पाठ करते हुए तस्वीर भी खिंची। श्री उमेश जी शर्मा की एक कविता ’’मैं यूंही नहीं जाता’’ मुझे बेहद पंसद आई। मैंने अपनी कविता ’’बिटिया की याद आ गई’’ सुनाई जिसे सभी ने बहुत पंसद किया। हमारे साथ अनील पौदार जी का परिवार उनकी पत्नी व उनकी दो बिटिया साथ थी। उन्होनें हमारे कवि धर्म पर कहा कि आप देश के बारे में अच्छे विचार रखते है और समय-समय पर कविताओं के माध्यम से जनजागरण एवं प्रेरणा देने का कार्य करते हैं। मैंने कविताऐं सुनाई। वास्तव में रेल में काव्य पाठ का यह पहला अवसर था। बहुत आनन्द आया। अनिल पौदार जी की बेटिया जो इंजिनियरिंग कर रही है उन्हें मेरी कविताऐं प्रेरणादयक लगी और उनकी माता जी को भी काव्य में रूची लगी। अन्त में हमनें उनका धन्यवाद् प्रकट किया और कहा कि आप जैसे श्रोताओं से ही हमें आगे बढ़ने का अवसर मिलता हैं।

रात्रि के 10&00 बज चुके थे फिर हमने हमारे काव्य पाठ को विराम दे दिया। मैंनें रात्रि भोज के लिए रेल्वे के मैस कर्मचारी को खाने का आर्डर दिया। कुछ देर पश्चात मेरे भोजन का पैकेट मिल गया। फिर मैंने अपना भोजन का पैकेट खोला और उसमें रोटी, सब्जी, दाल, चावल और मिठाई में आगरा का पैठा था। भोजन को देखते ही भुख और बढ़ गई। मैंने अपना भोजन शुरू किया। भोजन करते वक्त बहुत अच्छा माहौल मिला। मुझे लगा जैसे मैं अपने घर पर हूँ। सामने एक नौजवान लेपटाॅप पर मारधाड़ वाली कोई फिल्म देख रहे थे। जिस मैं भी देख पा रहा था क्योंकि मेरा ऊपर वाला स्लीपर था। भोजन के साथ-साथ फिल्म देखने का आनन्द चल ही रहा था कि कुछ देर में मेरे पीछे वाली सीटों से लड़कियों के अन्ताक्षरी की धुने सुनाई देने लगी और टिक-टिक 1 के साथ फिर नया गीत शुरू हो जाता। मेरे दो साथी जिनसे मैं काव्य पाठ को विराम देकर आया था उनकी कविताओं के शब्द फिर मुकरित हो गये। कवि अपने कवित्व को अकेले में गुनगुनाता है और जहाँ दो लोग हो तो कविता मुकरित हो ही जाती है। मुझे भोजन के रसास्वाद के साथ-साथ कविता, फिल्म अन्ताक्षरी का भी बहुत अच्छा रसास्वाद आने लगा। वास्तव में भोजन में जितने पकवान थे उतने ही मेरे आस-पास मुझे आनन्दित करने के सोपान थे।

भोजन समाप्त कर मैंने रात्रि विश्राम की तैयारी कर ली। नींद तो आने वाली थी नहीं क्योंकि इस बार की यात्रा बहुत विशेष रही मैं यात्रा के आनन्द के पलों को संजोने लगा लेकिन अन्ताक्षरी की धुनों ने मुझे सपनों में डुबो दिया और मुझे नींद आ ही गई।

जब सुबह हुई तो मैं उदयपुर पहूँच गया था। मेरे साथ वाले कवि मावली स्टेशन उतर चुके थे। मेरा स्टेशन बस आने ही वाला था। मैं प्रातः 6&45 पर उदयपुर सिटी स्टेशन के प्लेटफार्म संख्या 1 पर उतरा। मैनें स्टेशन पर लगी घड़ी की तस्वीर ली क्योंकि रेल सही समय पर मुझे उदयपुर ले आयी थी। स्टेशन से बाहर निकलते ही मुझे आॅटो मिल गया। आॅटो वाले ने किराया 150 रू बताया जिस पर मैं नहीं माना और फिर 100 रू में तैयार हो गया। लेकिन आॅटो वाला 150 रू के बजाय 100 रू में कैसे मान सकता था। उसने एक सवारी को और बैठा दिया जिससे 50 रू ही देने को कहा। मैंने मना नहीं किया क्योंकि साथी सवारी को भी मेरे रूट पर ही जाना था और मुझसे 1 किमी पहले ही उतरना था। मैंने सोचा अगर मैनें मना कर दिया तो उस सवारी को 150 रू में दुसरा आॅटो लेना पड़ेगा। ये जनाब पुलिस वाले थे जो किसी खोजबिन के काम से मेरे इलाके के थाने में ही जा रहे थे। वो अपने स्टेशन उतर गये। फिर मेरा स्टेशन भी आ ही गया। मेरे घर का नौकर दरवाजे पर ही मौजूद था जो दूध लेकर लौटा था। मैंने उसे पुकारा ’’बाबा’’ तो वो दौड़ा चला आया। फिर आॅटो वाले ने भी उसे जोर से कहा ’’बाबा सामान उतारो साहब का’’ मुझे मन ही मन बड़ी हँसी आने लगी क्योंकि उसका नाम तो इन्द्रसिंह था जिसे मैं मजाक में बाबा कहा करता हूँ लेकिन आॅटो वाले ने जब उसका नाम पुकारा तो मुझे बेहद हँसी आने लगी थी। मेरे सफर की ये अंतिम मुस्कुराहट थी क्योंकि ये चार दिनों का लम्बा सफर यहाँ थम गया था।

मैंने इस सफर का बहुत आनन्द लिया था। मुझे अच्छे दोस्तों का साथ मिला, एक परिवार जैसा वातावरण रहा। घूमना, फिरना, हँसी-मजाक, साहित्यिक सफर, मान-सम्मान, रेल में काव्य पाठ का आनन्द, मिशन ग्वालियर जैसे कई वो पल मुझे जिन्दगी में याद रहेगें।

आज भी घर पर मुझे सुबह एवं शाम को जब रेल की आवाज सुनाई पड़ती है तो सारी यादें फिर ताजा हो जाती हैं। लगता है कि मेरी रेलगाड़ी मुझे पुकार रही है और कह रही हे कि ’’आज कौनसी कविता सुनाने वाले हो।’’ जिन्दगी की रेल ऐसे ही चलती रहेगी।

पाठको का हार्दिक आभार।

नितिन मेनारिया

उदयपुर