शामों के साये
उजाले अँधेरों से मिलने जो आये
धुंधले हुए तब, शामों के साये ..
समय की सुराही से समय के ये हिस्से,
पलो की मानिंद फिसलने लगे है
यादो की स्याही बिखरी जाए ....
धुंधला गए तब, शामों के साये ..
कहानी का आँचल, पकड़ कर ये किस्से
परियों के देशो में पलने लगे है
ख्वाब सुनहरे पलकों में आये
धुंधला गए तब, शामों के साये ..
नीले से अम्बर के फटे से थे जो खिस्से
उनसे चाँद सितारे फिसलने लगे है
रात संजोने सब को यूँ आये
धुंधला गए तब, शामों के साये ..
भोर
उठा कैसा शोर, पूरब की ओर ,
मन में हिलोर लिए, आई है भोर।
नभ में उड़े पंछी अपार,
करते है कलरव, बार बार।
कल कल बहे झरने हज़ार ,
ज्यूँ बह रही हो गंगधार।
तरूवर की देखो, लंबी कतार,
कुछ देवदार कुछ है चनार।
पहने हुए फूलो का हार,
करे भोर देखो सिंदूरी श्रंगार।
उमड़ा है देखो ऋतुओ का प्यार,
बन के बूँदो की रिमझिम फुहार।
हर भोर जैसै कोई हो त्योहार
लाये ये जैसे खुशियाँ अपार !!
बादल
बादलो ने आसमा में
कैसे गुल है खिलाये ..
पेड़ पंछी और धरा को
जाने क्यूँ ये सतायें ?
स्याह से लिबास पहन ये
संग दामिनी झूम जाए
लेकर पींगे और हिचकोले
सावन के गीत गाए
जाने क्यूँ गुस्से मे लरजे
गरज गरज बरस जाए
नदी नाले और झरनों
फिर तबाही साथ लाये ।
कभी पेड़ो की शाखों में फंसकर
फूल पत्तो को गुदगुदाए
और कभी पर्वतो पे चढ़कर
पंछियों सा शोर ये मचाये।
चाँद को भी घेर ले ये
चाँदनी को भी ये सताए
सूरज को उगने न दे
रात दिन में ये दिखाए।
दिन सहम जाये कभी तो
रात डर से थरथराए
डरा के फिर ये देखो
कैसे खिलखिलाए
मुंडेर पे बैठी हवा के
कानो में क्या ये बुदबुदाये
बावरी होकर हवा फिर
मीलो तलक इसको भगाए।
ऐ बादलो क्यूँ हमसे यूँ रूठे ?
अब के बरस, तुम क्यों न लौटे ?
आ जाओ ! सब है बैठे
राहों में तेरी, पलके बिछाये।
हवा
क्यूँ री हवा
तू तो बड़ी बावरी है !
कभी क्यों है गोरी?
कभी सांवली है !
क्या प्रेम की लगन
तूने पाल ली है ??
माना बड़े नाज़ों से
तू पाली है।
धरा और गगन की
बड़ी लाड़ली है।
पर, काहे को तू
नटखट हो चली है ?
अरी, उस रोज तूने
खुशबु का आँचल
पकड़ यूँ आसमा में
उड़ा क्यूँ दिया था ??
लाल हो फिर शर्म से
हर फूलो के भीतर
छुपती वो रही थी।
क्या याद है तुझको
सहर बैठी थी मुंडेर पे
निशा का इंतज़ार करते
तूने चुपके से जाके
शाम के तिनके से गुदगुदाके
भीतर तक उसको
सिहरा सा दिया था !!
क्या तू वो दिन भी भूली ?
जब उस रोज
झूल रहे थे नींदों के झूले
गा रहे थे सपने,
ले ले के हिलोरे।
कुछ सपनो को तू ,
गिरा कर भगी थी !
और फिर बड़ी
भोली के बन फिरी थी !
उस पल
कुछ उनींदी रातो ने
आँखे मली थी।
उन जागी सोयी आँखों में
सपना बन तू
ढली थी।
अरी सखी !!
यूँ तो तू
बड़ी चंचला है !
पर तेर मन का कोना
कोई अनछुआ है।
ऐ सुन ! बता न !!
क्या कोई तुझे नया
साथी मिला है ?
की रंग रूप तेरा
आज कुछ
ज्यादा ही खिला है ??
शाम
दिनभर की थकन से,
धुप की उस जलन से
ये शाम भी फिर से
झुलसने लगी है।
चूल्हे से उठते
काले धुँए से
ये शाम सुरमई सी
होने लगी है।
दरख़्तों की शाख़ें
फूलो की पाती
शाम को अपनी रंगत
क्यों खोने लगी है।
अंधेरो ने तारो को
आवाज़ दी
शाम की आँखे नींदों से
बोझिल होने लगी है।
उस पार जाकर
सपनो में आकर
ये शाम अब तो अंधेरो की
बाँहों में सोने लगी है।
आँगन
मेरे घर के आँगन में
एक बरगद के पेड़ पर
रहते थे कितने परिंदे
अपना घर बनाकर
उसी पेड़ पर कहीं
रहती थी एक चिड़िया
मेरी खिड़कियों पर
रोज़ आती थी वो चिड़िया
बैठ खिड़की किनारे
मुझसे बतियाती थी चिड़िया
दूर देशो की कहानी मुझको
सुनाती थी चिड़िया
कैसे कितने ख़तरों से
बचते बचाते
अपने चूज़ो के खातिर
दाना लाती थी चिड़िया
सात समुन्दर पार की
बाते बताती थी चिड़िया
कभी परियों की कहानी भी
सुनाती थी चिड़िया
फिर एक रोज़ भयानक
इक सैलाब आया
कही से ज़मीन तो
कभी आसमां थरथराया
पानी और हवा के
प्रचंड उस प्रलय से
वो पुराना सा बरगद भी
नहीं बच पाया
सजल आँखों से मैं
देखती रह गयी
बह रहे पानियों में
चिड़िया की शैशव वो काया
जानती हूँ!
कल वहीँ पे एक
नया पेड़ उगेगा
किन्ही और पंछियों का
वो घर बार होगा
फिर एक और चिड़िया से
मेरा मन दो चार होगा
बूझो तो नाम
थाम अंबर की बाँह,
चले इसके पाँव ,
कभी छोटा सा गाँव ,
थक रुक गए।,
कही पेड़ो की छाँव।
कभी खेत तरुवर ,
कहीं झरने निर्झर
उन्हें हौले से छूकर
सुरभि चुराकर
फूलो को फिर
धम से गिराकर
हँस पड़े वो खिलखिलाकर।
ये जीवनदायनी
कभी कभी गजगामिनी
और तांडव करे ये कामिनी
कभी कभी संग दामिनी।
है थोड़ी चंचल
मचाती है हलचल
फिर भी
बांधे ये डोरी
जीवन की ये हरपल।
बूझो तो नाम
बड़े इसके दाम
फिर मिले साँझ सवेरे
कौड़ियों के दाम ?
नदिया
एक रोज़ जब नदिया
पीहर से चली थी
सागर से मिलने को
बड़ी उतावली थी
मैंने रोक था उसको
अरी बावरी
मुझको ये तो बता जा
सागर से तेरा ये कैसा है नाता ?
उससे मिलने को तू
निकल तो चली है
क्या तुझको ये खबर है
कितना मुश्किल ये सफर है?
राहों में कितने है पत्थर
है पग पग पर ठोकर
तू थक जाएगी आगे
तू बट जायेगी आगे
जाने कब तक मिलन हो ?
क्या धरा से कभी भी
मिला ये गगन है?
तब बोली थी नदिया
सुनो बात मेरी
ये रिश्ता है पुराना
जाने सारा ज़माना
ना मैं चाँद हूँ
न मैं चकोरी
न धरा न गगन हूँ
न माली को रोता
उजड़ा सा चमन हूँ
मेरे दिल में लगन है
प्यार की एक अगन है
ना जानू मैं कोई
राहो के पत्थर
रूकती नहीं मैं
खाकर के ठोकर
है जाना मुझको
लम्बी सी डगर पर
बैठती नहीं मैं
कही पर भी थककर
चलती हूँ।
सागर को मेरा इंतज़ार होगा
तकता बैठा मेरी राह होगा
जानोगे तड़प को तभी तुम मुसाफिर
जिस रोज़ एक हसीना से तुम्हे प्यार होगा
'सहर '
अंधेरो के चादर में लिपटी
आसमां की बाहों में सिमटी
धरा के कानो में बुदबुदाकर
गुज़रते समय ने कुछ कहा था।
फ़िर चुपके चुपके दबे पाँव आकर
रात के सायों को अचानक
खिलखिलाकर रश्मियों ने
अपनी गर्म बाँहों में लिया था।
फिर हौले हौले थपथपाकर
हवा ने तब गुदगुदाकर
भीनी भीनी उँगलियों से
उन उनींदी पलकों को छुआ था।
अंगड़ाईया लेकर धरा के
ख्वाबों ने तब कसमसाकर
नींद की आगोशियों से निकालकर
अच्छा, खुदा हाफ़िज़ !कहा था।
पानी की अठखेलियों ने
बागो की फुलवारियों ने
पंछियों के कलरवो ने
जाने क्या सवाल किया था!
कि शर्मोहया से लाल होकर
फलक की बाँहों से छिटककर
सिन्दूरी से आँचल में धरा ने
अपना चेहरा ढक लिया था।
वक़्त जैसे थम गया था
हर मंज़र जैसे जम गया था
इस खूबसूरत से लम्हे को फलक ने'
सहर ' ये हसीं सा नाम दिया था।
सावन
मुझे तुम बताओ
ए पानी की बूँदो
कहाँ से चली थी
कहाँ आ गिरी हो
कुछ तो कहो तुम
ए पागल घटाओ
ये किसकी लगन मे
हुई बावरी हो?
ये कैसी ललक है?
ये कैसी जलन है?
कि रह रह के
जल उठता
ये तेरा बदन है?
ये कैसी सदा है?
ये कैसी तपन है?
तेरी हुंकारो से
गूँज उठता गगन है?
ये किसकी बिरह मे
तू जल रही है?
अपने आँसुओ से
तू नदिया भर रही है!
खिलखिलाकर हसीं थी
वो सुन बात मेरी
बोली-
मेरे प्यार को
तू ना समझेगी पागल!
मैने पूछा-
ये बादलो का आँचल
छलक क्यूँ पड़ा है?
आसमानो का सीना
क्यूंकर फट पड़ा है?
बोली थी . घटा-
मेरे प्यार को तू
समझ ना सकेगी
समझने मे शायद
सदिया कम पड़ेगी
क्या देखा है तूने?
धरा का बिलखता ये योवन?
क्या सुना है तूने?
आसमानो का क्रंदान?
उम्र गुज़री है धरा की
इंतेज़ार करते
रोज़ जाती है मिलने
गगन से क्षितिज पे
दूर है कितने दोनो
इतने पास रहकर?
हर पल हर रोज़
कितने मास रहकर
सोचती है
एक रोज़ आएगा
गया था ये कहकर!
शरद मे ठिठूरकर
कितनी राह तककर
जल उठती है पगली
बिरह की पीड़ सहकर.
बदन मे फिर
पड़ने लगती है दरारे
सूखने लगते है
पेड़ नदिया किनारे
और फिर
आती हूँ मैं
झूम कर घूमड़ कर
नाचती खेलती
बादलो से उमड़ कर
बरस जाती हूँ
आसमा का प्यार बनकर
चली जाती हूँ
मन मे आशा जगाकर
उसके योवन मे
कितने जीवन सजाकर.
फिर आउंगी मैं
आसमाँ का संदेश लेकर
मेरा इंतेज़ार करना
यहीं पर तू रहकर.
टूटा तारा
आसमान से टूटा तारा
मैने देख , उसे पुकारा.
सुनो , रूको, और बात करो,
कुछ दूर मेरे संग साथ चलो.
इस तरह तुम क्योकार टूटे ?
क्या किसी अपने से रूठे?
कैसे जल गई तुम्हारी काया?
ऐसे जल कर तुमने क्या पाया?
तुम कितने ही सुंदर थे!
क्या भीतर क्या अंदर से!
अपनी हस्ती को यूँ मिटाकर ,
यूँ अपने ही प्राण गवाँकर,
कहो मुझे तुम ? तुमने क्या पाया?
क्या जीवन, तुम्हे रास ना आया?
तारे ने कही कुछ बात मुझे यूँ,
मन को छू गई, अनायास मुझे यूँ,
मेरी नियती में जलना है,
अपने गम में यूँ पिघलना है.
में जलता हूँ तो जीवन है,
धरा के हृदय में स्पंदन है.
हरी भरी है जो ज़मीं तुम्हारी,
वो मैने ही तुम पर वारी.
मैं सूरज हूँ किसी धरा का,
ब्रम्हांड मैं कितने सूरज, मैं अदना सा.
मुझसे पानी , मुझसे वर्षा,
मैं नही तो जीवन तरसा.
कहते है कोई भला मानस जब मार जाए ,
तारा बन आसमान मैं वो टिमटिमाए.
टूटे जब मुझसा तारा कोई,
समझना किसी की आँख है रोई
ख्वाहिशे जब भी माँगे आसमानो से दुआ,
मुझसा एक तारा उसे पूरी करने, टूट यूँ चला.
मैने अपने जीवन को भरपूर जिया,
खुश हूँ, मेरी मौत ने किसी चाह का दामन सिया.
चलता हूँ, की अब ना फिर मुलाकात होगी,
जब ख्वाहिशे है, तो फिर
और टूटे हुए तारो से तुम्हारी बात होगी