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दो कहानियाँ...

मुखाग्नि

फ़ोन रखते ही रवि अचानक ज़ोर ज़ोर से हँसने लगा, रितेश भौचक्का सा रवि को देखने लगा। रेस्ट्रॉन्ट में बैठे सभी लोग मुड़ कर दोनों को देखने लगे। और फिर अगले ही पल रवि आक्रमक सा हो गया और मेज़ पर रखी सभी चीज़ो फेकने लगा। देखते ही देखते मैनेजर और कुछ वेटर दौड़े आये और उन्होने रवि को पकड़ लिया । रवि चीखता रहा और खुद को छुड़ाने की कोशिश करता रहा।

रितेश को जैसे काठ मार गया। उसने रवि को कभी इस तरह व्यव्हार करते नहीं देखा था। जैसे तैसे रितेश ने खुद को संभाला। रितेश ने रवि को पकड़ा और रेस्त्रां के बाहर ले गया। रवि का चीखना चिल्लाना कम नहीं हुआ- मानो उसे कोई दौरा सा पड़ गया था।

चूँकि ख़ासा तमाशा हो गया था, मैनेजर पीछे पीछे आया और गुस्से में रितेश से झगड़ने लगा। रवि को एक तरफ खड़ा कर, रितेश ने मैनेजर से माफ़ी मांगी और नुकसान की भरपाई की फिर में कार में बिठा अपने फ्लैट की ओर चल पड़ा।

रवि और रितेश पिछले पांच सालों से एक ही कंपनी में काम कर रहे थे। दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई थी। चूँकि दोनों की शादी नहीं हुई थी अतः कंपनी के अपार्टमेंट के एक फ्लैट में साथ रहा करते थे। रवि, जहाँ मितभाषी था, रितेश इसके विपरीत बड़ा ही हॅसमुख,और वाचाल था ।

हालाँकि रितेश खाना बनाना जानता था मगर रवि की ज़िद थी कि रितेश को रवि की गैरमौजूदगी मे ही खाना बनाना होगा– ये बात रितेश को बहुत अटपटी लगती थी मगर कभी तवज्जो नही दी कभी इस बात को ज़्यादा. उन्होने इसका भी हल निकाल लिया था की लंच बाहर होगा और शाम का खाना बनाने के लिए एक बाई आएगी.

इत्तेफाकन आज रवि का जन्मदिन भी था इसलिए उन्होंने ऑफिस से दूर सुभाष ब्रिज के पास श्री गोरस रेस्त्रां को रात के भोजन के लिए चुना था । यहाँ का कठियावाड़ी बड़ा मशहूर था खास तौर पे बाजरे की रोटी और बैगन का भर्ता, सफ़ेद मक्खन और साथ में गौड़ पापड़ी बेहद पसंद था रवि को।

बस थाली परोसी ही थी की रवि के मोबाइल पे एक कॉल आया, हमेशा की तरह फ़ोन पे सुनता रहा रवि और उसके चेहरे के भाव भंगिमा बदलते रहे। इस सब से बेखबर रितेश ने खाना शुरू कर भी दिया था और फिर अचानक ये सब हुआ था।

रास्ते भर रवि का चेहरा तमतमाया रहा। इतने सालो में रितेश समझ चुका था कि जब तक रवि खुद न चाहे, उसके लाख पूछने पर रवि कोई जवाब नही देगा। रितेश भी रास्ते भर चुप रहा। चाबी खोलकर फ्लैट में घुसते ही रवि ने अपने आप को कमरे में बंद कर लिया। रितेश इंतज़ार करता रहा, अपने कमरे में चुपचाप टीवी देखता रहा, जानता था कुछ भी पूछना व्यर्थ होगा।

सुबह के दस बज गए थे, रितेश को लगा अब शायद रवि सामान्य हो ही गया होगा । बार बार दरवाजा पीटने पर भी रवि ने दरवाजा नही खोला । आख़िरकार घबराकर उसने आनन फानन मे अपने ऑफीस मे फोन लगाया. थोड़ी ही देर में उसके बॉस सहित कई और सहकर्मचारी आ गये . कई बार दरवाजा खटखटाने पर दरवाजा नहीं खुला तो दरवाजा तोड़ देने पे सहमति बनी. अंदर कमरे में रवि ने रो रो कर अपनी आँखे रो रो कर सुजा ली थी, उसके बाल बेतरतीब से और गालो पे आंसुओ से बनी लकीरों से भरा हुआ !

मगर रवि खामोश रहा, बस उसके आँखो के पोरों से आँसू बहते रहे मगर चेहरा भाव विहीन.

अंतः रवि के बॉस ने रितेश से कहा – “रवि needs rest, रितेश तुम ऐसा करो इसे इसके घर जूनागढ़ ले जाओ.”

“नही मैं जूनागढ़ नही जाऊंगा ” – रवि चिल्लाया

चूँकि इस समस्या का कोई उकेल नहीं निकला तो सभी स्टाफ धीरे धीरे लौट गए। वक़्त गुज़रता रहा रवि अब भी सुन्न सा था।

कुछ देर बाद रितेश ने जैसे ही रवि के कंधे पर हाथ रखा तो वो बच्चो की तरह फफक फफक कर रो पड़ा । रितेश ने भी कोई प्रयत्न नहीं किया उसे चुप कराने का. शायद बरसो की चुप्पी, अबोली ख़ामोशी, वो वेदना, वो टीस, वो पीड़ा आँसुओ के साथ बाहर निकल रही थे।

आखिर जब रवि के आँसू सूख गए और सिसकना बंद हुआ तब रितेश ने पूछा -" किसका फ़ोन था? मैंने इतने साल से तुझे कभी इतना अजीब बर्ताव करते नहीं देखा ! तेरा ऐसा स्वरुप नहीं देखा। एकबारगी को तो मैं डर ही गया था। ?,रवि बोल न" रितेश ने पूछा

रवि चुप ही रहा कुछ नही बोला.

थक हार कर रितेश ने अपने कमरे से रवि की बहन संजना को फोन लगाया और सब बताया. रितेश ने कहा – दीदी पता नही ऐसा तो किसका फोन था, जबसे फोन रखा है वियर्ड सा बिहेव कर रहा है, रो रहा है, कुछ बोलता भी नही”

" रितेश वो नाना जी का फ़ोन था” संजना ने कहा

" तो ऐसा क्या कह दिया नाना जी ने ? बताओ न दीदी !"

" यही कि हमारे पापा गुज़र गए " संजना की खाली सी आवाज़ आई

" क्या ??? पर उसने तो कहा था आपके पापा है ही नहीं !! आप दोनो को तो आपके नाना नानी ने पाला है क्यूंकी मम्मी पापा तो बचपन में ही गुज़र गए थे न ??" रितेश विस्फारित नेत्र से संजना की बात सुन रहा था.

तभी रवि के कमरे से अचानक कुछ समान गिरने की आवाज़ आई

रितेश ने फोन काटते हुए कहा –“ दीदी आप जल्दी आइए मुझसे रवि संभल नही रहा है”

संजना बोली – बस दो -तीन घंटा और सम्भालो, मुझे आनंद से अहमदाबाद पहुचने मे इतना टाइम तो लग ही जाएगा.

रितेश रवि के कमरे की ओर भगा

रवि सर पटक पटक कर रोए जा रहा था और बड़बड़ा रहा था

" वो तो मेरे लिए आज से २२ साल पहले ही मर गए थे, ये तो आज उनका शरीर मरा है । अच्छा ही हुआ कि वो मर गए ! उनको तो बरसो पहले मर जाना चाहिए था ! अफ़सोस इस बात का है कि वो मेरे जनमदिन के दिन मरे! आज ही के दिन मरना था आपको ??? " रवि ज़ोर ज़ोर से रोने लगा

“I hate you papa,..... I have always hated you my life !!” रवि के चेहरे पे घृणा के भाव उभर आये थे।

रितेश सकते मे था, बोला “ सुन रवि, संजना दीदी आ रही है. प्लीज़ कंट्रोल कर . देख सब ठीक होगा”

“दी आ रही है, संजना दी आ रही है .... हन वो सब ठीक कर देंगी ...” रवि अचानक शांत हो गया " जब दी आये तो मुझे उठा देना, बहुत थक गया हूँ मैं," रवि ने कहा।

बहुत मुश्किल दौर था रितेश के लिए भी .... कभी सोचा ही नही था ऐसे हालातों से दो चार करना होगा.

पौने तीन घंटे बाद डोरबेल बजते ही वो दरवाजे की ओर लपका – संजना दी और जीजाजी सामने खड़े थे.

संजना ने अंदर आते साथ कहा – सॉरी रितेश ... रवि की वजह से तुम्हे इतनी परेशानी होगी मैं नही जानती थी .

रितेश ने बताया की रवि क्या क्या बड़बड़ा रहा था .

संजना बोली – “रितेश रवि ने वो भयानक मंज़र देखा है बचपन मे जिसे वो कभी भूल ही नही पाया . वो गुमसुम हो गया तब से। मैं बड़ी थी इसलिए संभल गई!”

“ऐसा तो क्या हुआ उसके बचपन मे? अपने पिता से कोई इतनी नफ़रत करता है भला ? और उसने तो कहा था की आपके मम्मी पापा दोनो बचपन मे मर चुके थे !!” रितेश की उत्सुकता अपने चरम पर थी

संजन ने लंबी साँस भरी और कहा “ बहुत लंबी कहानी है, कहानी मम्मी से जुडी है।

बड़ी प्यारी थी, गोरी सी, भूरी भूरी सी आँखो वाली. नाना नानी की लाड़ली बेटी। नाना नानी ने उन्हें बड़े नाज़ो से पाला था । नाना कहते है हमारी मम्मी बहुत लकी थी उनके लिए।"

"और हमारे पापा उसी शहर में म्युनिसिपल कारपोरेशन में काम करते हमारे समाज के पहले सिविल इंजीनियर। चूँकि घर परिवार भी अच्छा था सो नाना को भा गए पापा। उन्होंने सोचा कि बेटी पास ही रहेगी, नज़रों के सामने । फिर तो मम्मी पापा की शादी हो गई। और अगले चार साल में तो मैं और रवि आ गए। रवि मुझसे तीन साल छोटा था। "

दीदी कहती रही, "घर अगले मोहल्ले में होने के कारण मम्मी अकसर नाना के घर जाया करती और ये बात पापा को नागवार गुजरती। बस पापा शराब पीने लगे मम्मी को पापा का पीना बिलकुल पसंद नहीं था। वो मना करती और पापा गाली गलौच करते। मम्मी चुपचाप सह जाती। अब तक तो मैं सात साल की और रवि चार साल का हो चूका था।"

"और अब तो पापा मम्मी पे हाथ भी उठाने लगे थे। मैं और रवि चुपचाप माँ को मार खाते देखते और सहमे रहते। ऐसे बाते कहाँ छुपती है, नाना तक बात पहुंच गई थी!

बस फिर उस दिन नाना ने पापा को बुलाया समझाने के लिए ..... वो दिन कयामत का दिन था समझो ! उस रात पापा बहुत ज्यादा पी कर आये थे, मम्मी खाना बना रही थी। पापा ने झगड़ा शुरू किया कि आख़िर नाना को बताया क्यूँ ?? हम दोनों वहीँ थे किचन में। और फिर पापा ने मम्मी को बाल पकड़कर घसीटा । मम्मी से बर्दाश्त नहीं हुआ, वो उठी और उन्होंने पापा को धक्का दिया, पापा गिर गए। मम्मी ने कोने में पड़ा हुआ केरोसिन का कनस्तर उठाया, खुद पे उड़ेला और बस आग लगा ली!! "

-" आग की लपटें जब उन्हें झुलसाने लगी तो बचने के लिए मम्मी चीखने लगी। और सोचो, पापा नशे में धुत हो, ज़मीन पे पड़े थे !! मैं बाहर भागी - पड़ोसियों को बुला लाई। लोगो ने कम्बल डाला, पानी डाला मगर वो बहुत ज्यादा झुलस चुकी थी - गठरी सी बन गई थी । और रवि उस पूरे हादसे के दौरान सहमा हुआ एक कोने मे मम्मी को जलते हुए देखता रहा– सुन्न सा!! "

-"पड़ोसियों ने नाना को खबर दी, अस्पताल ले गए मम्मी को । मम्मी डॉक्टर के सामने गिड़गिड़ाती रही -" मुझे बचा लो, बचा लो ! " और डॉक्टर्स मम्मी को नही बच पाए । "

-"फिर तो मुझे और रवि को नाना अपने घर ले आये। हम वहीं पले बढ़े, कभी कमी नहीं होने दी मम्मी पापा की। मगर रवि कभी रोया नहीं फिर उस दिन के बाद - चुप्प हो गया। हमेशा के लिए गुमसुम !"

-"हमारे पापा ने एक साल बाद फिर से शादी कर ली। सुना था उनकी दूसरी पत्नी भी मम्मी की तरह जल के मर गई। उनका पीना बदस्तूर जारी रहा। उन्हे कभी कोई फरक़ नही पड़ा दो-दो पत्नियों की मौत के बाद। फिर तीसरे साल मे तीसरी शादी !! सुना है उनके दो बच्चे और बच्चे है । शहर वही था, समाज वही। कई शादियों और कार्यक्रमों में दिखाई दे जाते - अपनी तीसरी पत्नी और बच्चो के साथ। नाना ने हमें दूर ही रखा उनसे इतने सालो तक । "

-"और आज दोपहर को पापा को हार्ट अटैक आया और वो गुजर गए! उनकी तीसरी पत्नी का नाना पे फ़ोन था कि पापा की आखरी ख्वाहिश थी कि उनका बड़ा बेटा यानि रवि उनको मुखाग्नि दे!! नाना उसे पापा के अंतिम संस्कार के लिए बुला रहे है। उनका कहना है की रवि अब पापा को माफ़ कर दे, आखिरकार वो एक पिता थे !"

रितेश को अब समझ आया की रवि क्यूँ आग से दूर भागता रहा है!!

संजना और जीजा जी रवि के कमरे की मे गये.

“रवि, उठ !!! मैं आई हूँ – तेरी दीदी !” संजना ने प्यार से रवि के सर पे हाथ फेरते हुए कहा।

“दीदी ......”

रवि उठा और संजना से लिपट कर ज़ोर ज़ोर से रोने लगा। 22 बरस का दर्द, टीस, पीड़ा, आक्रोश, चुप्पी, जैसे सभी के सब्र का बाँध टूट गया था। दोनो भाई बहन एक दूसरे से लिपट कर देर तक रोते रहे।

थोड़ी देर बाद संजना और रवि शांत हो गये। वो आँसुओ का सैलाब अपने साथ सारे दर्द बहा ले गया था.

रात घिर आई थी। रितेश ने उठ कर खिड़की खोल दी। आसमान एकदम साफ़ था - जैसे बारिश के बाद धुला आसमान। तारे और चाँद साफ़ दिखाई दे रहे थे।

" रवि, तू अपने लिए न सही, पापा के लिए न सही, माँ के लिए चल। आखिर तुझमें और उनमें कोई फ़र्क़ तो होना चाहिए न !!" संजना ने कहा।

"नही दीदी!! मैं उन्हें मुखाग्नि नहीं दूंगा। He doesn't deserve our sympathy!! हम जीते जी उनके लिए तरसे है - उन्हें मौत के बाद तरसने दो !! "

***

नया दौर

फ़ोन घनघना रहा था, देखा राकेश का था।

"सुनो, मैं बस ऑफिस से निकल रहा हूँ, तुमने सामान की पैकिंग कर ली है न ? " -

हाँ, बस हो गई है, और सुनो आते वक़्त दो किलो घारी लेते हुए आना, मैंने गीता से वादा किया था, उसे बहुत पसंद है न ! ".

ठीक है, मैं बस आठ बजे तक पहुँच जाऊंगा,बच्चो को खाना खिला देना, तुम तैयार रहना। साढ़े दस बजे तक जायेंगे।

ऑफिस से पुरे एक हफ्ते की छुट्टी ली थी मैंने, हालाँकि ईयर begining था, काम बहुत था मगर बहुत request के बाद मिल ही गई थी छुट्टी। न भी मिलती तो लीव विथाउट पे कर के जाती - आखिर गीता के ड्रीम प्रोजेक्ट की ओपनिंग की सेरेमनी जो थी।

दोनों बच्चों को मम्मी पापा के पास छोड़े जा रही थी वैसे भी ये पहली बार तो नहीं था कि मैं अकेलइस तरह कहीं जा रही थी.

राकेश भी वक़्त पे मुझे छोड़ने आ गए थे। ट्रैन - अवंतिका एक्सप्रेस अपने नियत समय पे रात सवा ग्यारह बजे प्लेटफार्म दो से रवाना होनी थी। सुबह सवा नौ बजे इंदौर पहुंच जानी थी । मेरे कुछ ज़रूरी साथी - किताबे - चश्मा और मोबाइल हमेशा की तरह मेरे साथ ही थे।

ट्रेन में मुझे बिठा कर राकेश चले गए थे - बच्चे घर पे अकेले जो थे, खाना तो खिला कर ही आई थी। ट्रेन अपने नियत समय पर चल पड़ी थी - बिस्तर बिठा कर मैं भी लेट गई थी - एकटक शून्य में ताकती हुई और अनायास ही सोच कर मुस्कुरा उठी थी।

गीता - अब के बार फुर्सत से मिलने जा रही थी। बचपन की दोस्ती थी मगर अधेड़ अवस्था में शायद इत्मीनान से उन दिनों को याद करने का वक़्त मिला था - पुरे एक हफ्ते साथ रहूंगी अब के गीता के साथ !

रात तो घिर ही आई थी, बत्तियाँ बंद हो गई थी कोच की मगर एक हलक मद्धम सा प्रकाश पसरा रहा।

वो बचपन - वो मस्ती जैसे जब कुछ तैरता गया आँखों में - गीता मेरी सहेली रही है बचपन की, रिश्तेदारी भी है हम दोनों के दरमियाँ - कम से कम हम दोनों के बचपन के १० साल तो आपस में गुथे हुए रहे है। और फिर सन १९८३ में मैंने अपना श हर छोड़ा और फिर कभी वहां लौटना नहीं हुआ। दो तीन साल में कभी कभार आई भी तो गुल्लक में रखे छुट्टे पैसे की तरह वो छुट्टियां आनन् फानन में कब खतम हो जाती थी, पता ही नहीं चलता था ! मगर वो दस साल बहुत अहम् रहे हम दोनों के ज़िन्दगी के।

आमला - ठीक मध्य प्रदेश के बीचो बीच में आता है। बरसाली - आमला से करीब २५ किलोमीटर की दूरी पे सतपुड़ा में बसा एक छोटा सा गाँव,- बस वही पर एक पत्थर गड़ा है जिसे अविभाजित भारत का केंद्र बिंदु माना जाता था - कहते है टीपू सुल्तान ने सर्वे करवाया था तब । ये आदिवासी इलाका है - गोंड और कोरकू जातियाँ रहती थी तब वहां - मुमकिन है अब भी रहती हो।

आमला छोटा सा क़स्बा है । कहते है ब्रिटीशर्स के ज़माने में ammunition land हुआ करता था आमला इस वजह से नाम पड़ा आमला ! और मैंने तो बचपन से कुछ और ही सुन रखा था - चूँकि सतपुड़ा के घने जंगल है वहां और खूब आँवला मिलता है तो इस वजह से नाम पड़ा आँवला जिसका अपभ्रंश हुआ आमला ! खैर, शहर का नाम कितना मायने रखता है कौन जाने मगर वो जगह बहुत मायने रखती है मेरे लिए आज भी । । रेलवे जंक्शन भी था हमारा शहर (? ) नहीं क़स्बा ! मगर अब नहीं रहा।

दो हिस्सों में बटाँ हुआ है आमला ! हर शहर की तरह मेरे आमला के दो हिस्से हैं - आमला - बोड़खी ! बोड़खी मतलब - एयर फार्स बेस -लेबर कॉलोनी

बोड़खी और आमला के बीच वो हेलिपैड। .... वो भी अब एयर फाॅर्स कॉलोनी में शिफ्ट हो गया ...... दोनों को अलग करती एक रेलवे लाइन और उसके पास एक आरा मशीन ..... वहीँ भरा करता था शनिचर बाजार।

करीब चारपांच किलोमीटर का फासला रहा होगा मेरे घर (जो लेबर कॉलोनी में था)और उस शनिचर बाजार के बीच में।

बाजार क्या था - हाट थी हाट ! क्या नहीं मिलता था वहां ??

अनाज, मसाला, सब्जी,मिठाई, खोआ, फल, कपडे, इस्नो, पाउडर, लाली, क्लिप्स, कंघी, कखाई, - सब कुछ ही तो मिलता था वहां - आज कल का hypermall कह ले तो ठीक रहेगा ।

हम बहनो को इस हाट में आने की इजाजत नहीं थी - घर से बहुत दूर जो था मगर कभी कभी मम्मी सब्जी लेने आती थी तो हमें साथ ले आती थी।

वो गोंड और कोरकू औरते - काली - चमकती हुई काली औरते – लुगड़ा (१६ हाथ की साड़ी ) पहने हुए सर पे लकड़ी के गट्ठर लाद कर लाती थी। मुझे अब तक याद है - पूरा बदन, चेहरा, गुदा होता था उनका - गले में हसियाँ, पैर में तोड़ा, कमर में कमरबंध, हाथ में मोटे मोटे कड़े - ये सभी गहने विशुद्ध चाँदी के। ये औरतें जंगल से आती थी - शहद, लकड़ी बेच के पुरे हफ्ते का सामान ले जाती थी। इन्हे मेकअप के सामान में बड़ी दिलचस्पी हुआ करती थी.

उस बाजार में मेरे दादा, दादी, चाचा, चाची, बुआ, फूफा, और जाने कौन कौन रिश्तेदार, कोई न कोई दूकान लगाते थे। फिर चाहे वो अनाज की हो, या सूखी मिर्च की या कुछ और की ।

पौं बारह हो जाते थे हम बहनो के - और साथ में सहेलियाँ - हमउम्र थी - हम तीन खास सहेलियाँ थी। और cousins भी।

गीता, शब्बो और मैं - खूब पटती थी हम तीनों की। शब्बो के पापा कुछ ख़ास नहीं करते थे - घर कैसे चलता था - आज तक समझ नहीं आया - ज़रूरी भी नहीं था समझना उन दिनों। मगर हाँ - गीता के पिता जी - मेरे फूफा जी की हैसियत हम तीनो से बहुत अच्छी थी। उनकी ऐन चौक बाजार के कपड़े की दूकान थी - बी - बियावान स्टोर भी था, खेत थे, ट्रेक्टर थे, ढेरों नौकर चाकर !कुल मिला कर बहुत संभ्रांत घरानो में गिनती थी फूफा जी की।

छुट्टियों में अक्सर रहना होता था गीता या शब्बो के घर। बड़ा मज़ा आता था - इतना बड़ा घर - हमेशा मूंगफली, तिल या आटे के लड्डू बोरो में भरे पड़े रहते थे। ये लड्डू गन्ने के रस से गुड़ बनाये जाने की प्रक्रिया में निकले फूल से बने होते थे - इतने कड़क कि दाँत टूट जाय मगर मैं और शब्बो तो बस टूट ही पड़ते थे इन लड्डुओं पे।

गीता तीन बहनो और दो भाइयों में सबसे बड़ी थी -और सबसे सुन्दर भी। गोरा रंग - दुबली पतली, तीखे नैन नख्श, और अदा तो थी ही उसमे - क्यूंकि वो इस बात से खूब वाकिफ थी की वह बहुत खूबसूरत थी.

गीता के बड़े पापा भी उसी घर में रहते थे - उनकी दो बेटियाँ और दो बेटे। कुल मिला कर गीता घर की बहुत लाड़ली बेटी थी और नकचढ़ी भी।

क़स्बे में स्कूल तो था - सरकारी - छोटा सा - कुल आठवीं तक - उन दिनों लड़कियां इससे ज्यादा पढ़ती भी कहाँ थी ?

शब्बो और मैं बराबर के थे - गीता हम दोनों से साल छोटी। मुझे फायदा था की मैं अंग्रेजी medium स्कूल में पढ़ती थी - KG से अंग्रेजी का ज्ञान था - इस वजह से धाक ज़माने में बड़ा मज़ा आता था।

कई बार यूँ भी होता कि शब्बो और गीता मुझे अपने साथ स्कूल ले जाती - उन दिनों अपना टाट का बोरा खुद ले जाना होता था बैठने के लिए । छोटी सी एक तंग गली में स्कूल था लड़कियों का - सामने मैदान और फिर सामने लड़को का स्कूल था।

स्कूल में क्या ख़ाक पढ़ती थी लड़कियाँ –

बस खीं -खीं कर के हँसती रहती। गली मोहल्लो के लड़को की नाना प्रकार की बातें करती - जिनमे मुझे कोई दिलचस्पी नहीं होती थी। हाँ, इंतज़ार रहता था आधी छुट्टी और छुट्टी का जब बाहर वो इमली, अचार, आइस कैंडी बेचने वाले खड़े रहते थे, गीता खरीद के खिलाती थी, उसको जेब खर्च के पैसे जो मिलते थे।

बस पापा की पोस्टिंग आ गई थी उन्ही दिनों और मैं तो बहुत दूर चली गई थी अब वहां से। अब तो साल में सिर्फ एक बार सर्दियों की छुटियों में आना होता था। और ऐसे में भी कहाँ शब्बो या गीता के घर रहने मिलता था - पापा तो उठाकर तीन महीने के लिए यहाँ के स्कूल में डाल देते थे।

बस फिर तो फासले बढ़ते गए थे क्यूंकि वक़्त भी तो बहुत गुज़र चुका था इस दरमियान। पच्चीस तीस साल !!

मम्मी पापा से कुछ कुछ कहानियों के रूप में सुनने को मिलता रहा दशकों तक। इस दौरान मेरी अपनी पढाई - नौकरी, शादी, बच्चे कितना कुछ हो हो चुका था मेरे साथ भी, शब्बो और गीता के साथ भी !

पापा ने बताया था कि शब्बो की शादी जबलपुर के एक गाँव के पास हुई है। इन दिनों शब्बो सरपंच है अपने गाँव की ! गाँव का तो पता नहीं, शब्बो और उसके परिवार ने बहुत तरक्की कर ली है इतने दशकों में । मगर जब भी गीता के बारे पूछा तो हर बार बात टाल गए, समय भी भूलती चली गई - मेरी अपनी व्यस्तताएँ भी तो थी

बस, सन २०१५ में भाई की शादी तय हुई -हम सब में सबसे छोटा है भाई। चूँकि घर की आखरी शादी थी - मेरे generation की आखरी शादी तो बहुत सारे रिश्तेदार भी आये थे शादी में - आमला,चिचोली, पाढर, सारणी, खण्डारा से, इन्ही गांवो में ही तो फैला था मेरा अस्तित्व, मेरी जड़ें ।

शब्बो भी आई और गीता भी !

हम तीनो एक साथ आज १९८३ के बाद २०१५ में मिल रही थी !! ३२ सालो के बाद - बचपन में मिले थे और अब सीधे प्रौढ़ अवस्था में मिल रहे थे !

शब्बो तो हर लिहाज़ से एक प्रौढ़ महिला सरपंच लग रही थी, आखिर नानी दादी भी तो बन चुकी थी, एक ठसक था लिहाज़ में।

मैं भी ४३ साल की प्रौढ़ा ही हूँ मगर, शायद यहाँ का रहन सहन, नौकरी करने के फलस्वरूप, उम्र कोशिश करके भी बहुत चेहरे को ज़र्द नहीं कर पाई। फिर शादी भी तो बहुत देर से की मैंने तो बच्चे भी छोटे छोटे ही है मेरे !!

.... मगर गीता ??

गीता को देखकर, बस देखती ही रह गई थी मैं! उम्र को बड़ी खूबसूरती से मात दिया था उसने। वही गोरा रंग, तीखे नैन नख्श, दुबली पतली छरहरी कमनीय काया और खूबसूरत नेट की पीली अमेरिकन डायमंड जड़ी हुई साडी में लिपटी गीता बेहद खूबसूरत और कम उम्र लग रही थी ।

गीता शादी के ऐन दिन ही आई थी। चूँकि भाई की शादी थी एतैव मेरी खुद की बहुत व्यस्तता थी, ज्यादा बात नहीं हो पाई गीता से !

और फिर दूसरे दिन तो चली भी गई थी गीता !!

शादी निपट गई - रिश्तेदार चले गए - मगर गीता मेरे दिमाग से नहीं गई।

सारे रिश्तेदार जा चुके थे, बस हम भाई बहनें और मम्मी पापा ही रह गए थे। बस एक रात खाना खाने के बाद मैंने ज़िद की मम्मी से - आप क्यूँ टालते रहे हो गीता के बारे में बात करना - वो तो इंदौर की जानी मानी बिल्डर है।

अजीब लग रहा है सुनने में - उस कसबे से, जहाँ लड़कियां आठवीं से ज्यादा नहीं पढ़ती हो - वहां की गीता आज इंदौर के जाने माने बिल्डर में गिनी जाती थी !! जहाँ लड़कियों को पढ़ने की, नौकरी की इजाजत नहीं थी - वहां की गीता आज इंदौर शहर की एक रईस बिल्डर थी !!

मम्मी ने लम्बी साँस लेते हुए कहा –“ ठीक है तू कह रही है तो बताती हूँ . बहुत सारी कहानियाँ सुनी थी मैंने गीता के बारे में - तरह तरह की कहानियाँ - जिनके सच उन कहानियों के जितने विविध थे।“

- “तुझे तो पता है -तेरे फूफा पैसे वाले थे और गीता बहुत सुन्दर !”

हाँ sssss तो ? - मेरी उत्सुकता अपने चरम सीमा पे थी

उन पाँचो बहनो को पढ़ाने मास्टर आया करते थे घर पे। बड़ी शरारती थी पांचो बहने। कभी डरा दे मास्टर को, कभी बहाना बना के भगा दे,कभी टूटी कुसी पे बिठा दे ! मास्टर क्या, कॉलेज में पढ़ने वाले लौंडे होते थे जो पढ़ाते थे उन्हें मगर अदब से मास्टर जी बुलाया जाता था !!

-बस ऐसे ही एक मास्टर से उलझने लगे थे गीता के मन के धागे। चुलबुली, गोरी, सुन्दर होशियार, धनी - सब कुछ था उसमें किसी को भी प्रेम के पाश में बांधने के लिए। और सबसे बड़ी चीज़ थी - वो उम्र - नादानियों की उम्र!

-मैंने तो यहाँ तक सुना था की उसने दो बार गर्भपात करवाया था - सच अब तक नहीं जानती - कभी हिम्मत भी नहीं हुई किसी से पूछने की ?

मम्मी बताती रही और सब कुछ जैसे चलचित्र की तरह चल रहा था मेरे दिमाग में .....

-जब परिवार में पता चला इन दोनों के बारे में तो उस मास्टर को चौक में धोखे से बुला कर इतना मारा, इतना मारा कि -मरणासन हो गया - पुलिस आई !

गीता के दादा, बड़े पापा, पापा, तेरे अपने चाचा -सब को जेल हो गई।

मगर फिर सुना कि वो मास्टर फरार हो गया, वही मास्टर जिसके लिए गीता ने पुरे समाज से पंगा लिया !!

कायर कहीं का !!! –मेरे मुँह से निकल गया

मम्मी अपनी रौ में बोलती रही -

दादा ने खेत के मकान पे रहना शुरू कर दिया था - घर आना ही बंद कर दिया । भाई, बहन, काका,काकी (गीता के पापा, मम्मी ) सभी का निकलना दूभर हो गया था।

-जब तू फर्स्ट ईयर में थी - तुझे याद है तेरे पापा और मैं आमला गए थे - गीता की शादी की थी तेरी बुआ ने जैसे तैसे।

-फोटो भी तो दिखाया था तुम सब बहन भाई को - अच्छा लड़का था - दहेज वैगेरह कुछ नहीं लिया था उसने तू बोली भी थी - “दिख तो अच्छे ही रहे थे जीजा जी “ सुना था, घर से भी संपन्न थे वो लोग !

-इतनी पुरानी बात कहाँ याद रहती है मम्मी-- एक तुम ही हो -बिलकुल नहीं भूलती - मैं बोली .

-फिर,पहली रात को गीता ने मास्टर जी से अपने प्यार की बात अपने पति को बता दी!!

समाज में बड़ा हंगामा हुआ। खूब थू थू हुई जाती बिरादरी में – उसके ससुराल वालो ने उसे वापस तेरी बुआ के यहाँ लाकर छोड़ दिया। ऐसा नहीं था कि गीता के पति ने उसे वापस ले जाने की कोशिश नहीं की थी - की थी मगर गीता नहीं गई!!

-मोहल्ले में नाक कट गई थी तेरे बुआ के परिवार की,

घर से निकलना छोड़ दिया था तेरे फूफा ने. दुकान बंद हो गई ! दोनो लड़के बेलाइन हो गये अब भी याद है मुझे कि तेरे फूफा ने तेरी बुआ को तब प्लेन में बिठाय था जब तुम सब शायद प्लेन स्पेलिंग भी बोलना नहीं जानते थे। वही बुआ अब फटी हुई साड़ी पहनने लगी थी।

- इस सब के बीच के बीच वह अपने फैसले पर चट्टान सी

अडिग खड़ी रही। और उसी दौरान उसने भोपाल से चार साल का BA B Ed का कोर्स कर लिया था।

फिर कुछ साल बाद गीता को उससे ७ साल बड़े राज के घर बिठा दिया गया ( अपने यहाँ इसे दूसरी शादी नहीं कहते - घर बिठाना कहते है). यहाँ आखिर गीता की ज़िन्दगी में थोड़ी देर के लिए सही -ठहराव आया था। बेटी हो गई थी उसकी - चुलबुली बुलाया करते थे उसे। !

मगर गीता के घर सब ठीक नहीं हुआ था अब तक – और यहाँ आमला मे उसके दादा गुज़र गए ; घर का बटवारा हो गया, आर्थिक परिस्थिति और बिगड़ गई - उसके मम्मी पापा मन से टूट से गए । दोनों बेटे भी बे - लाइन हो गए जो आज तक लाइन पे नहीं आ पाए है।

खैर, एक दिन जाने क्या हुआ - वजह क्या थी नहीं मालूम,मगर तेरे राज जीजा को हार्ट अटैक आया और वो चल बसे !

और फिर एक और कश्मकश भरी ज़िन्दगी - गीता को इन ससुराल वालो ने भी निकाल दिया - कुलच्छणी कुलटा जनमजली, कमीनी, और पता नही क्या क्या कहा था उन्होंने।

बोले थे - पहली शादी खा गई, माँ बाप की खुशियाँ खा गई और अब पति को खा गई। "

“कैसे झेला होगा उसने,क्या गुज़री होगी उसके मन पे”, मैं सोच के सिहर उठी । एक कंपकंपी सी दौड़ गई मेरे शरीर मे . जाने कहाँ से इतनी ताक़त हिम्मत लाइ थी अपने साथ - सब टूट गए वो नहीं टूटी थी .....

मम्मी कहती रही

-फिर सुनने में आया था वो इंदौर जा बस गई थी - पहले टीचर रही - स्कूल रास नहीं आया - बिल्डर के ऑफिस में बतौर असिस्टेंट रही और अब खुद ही बिल्डर है !

मम्मी बोली -“बस इतना ही मालूम है मुझे – पर लोग अब भी बहुत अनाप शनाप बोलते है लोग उसके बारे मे . अच्छा छोड़ ये सब, जाने दे – सो जा बहुत रात हो गई !!!

वाक़ई रात भी बहुत हो गई – मैं सोने चली गई फिर .

फिर वही वापस दिनचर्या मे व्यस्त हो गये हम सब लेकिन गीता मेरे दिमाग़ मे कहीं घर बना कर रह सी गई थी.

और अब इतने सालों के बाद शादी में मैंने देखा था - बस थोड़ी सी बात हुई थी हम दोनों में।

भूल नहीं पा रही थी मैं गीता को, गाहे बेगाहे वो मेरे जेहन में चली आती है हालाँकि, ऐसे तो गीता का फ़ोन नंबर बरसो से फ़ोन में रहा है - मगर कभी बात हुई नहीं - न उसने कोशिश की और न मैंने !

और उस दिन ऐसे ही फ़ोन लगाया था उसे देर रात को ..... आज जैसे मुझे उसकी कहानी सुननी थी मैंने .....

मैंने पूछा था उसे - गीता,तू whatapp पे है क्या ?

वह बोली थी मुझे - इन सब बातों के लिए मेरे पास बिलकुल वक़्त नहीं है मेरे पास, सुबह से शाम - sites, मज़दूर, और govt ऑफिस के चक्कर, कहाँ टाइम होता है मेरे पास !!

थोड़ी इधर उधर की बाते हुई, मैंने कुरेदा उसे - कैसे कब हो गया ये सब, मुझे तो पता ही नहीं चला।

गीता बोली - एक वो वक़्त था और आज ये वक़्त है - सब कुछ बदल गया - ये गीता अब वो गीता नहीं रही !!

तुझे पता है आज की तारिख़ में मेरे पास २ करोड़ का bunglow और ५० लाख से ज्यादा के गहने है, कॅश है !!

बोलती रही वो अपनी रौं में - तुझे पता है - ये वही घर वाले है - जो मुझे जली कटी सुनाते थे, मेरी बेटी को दूध नहीं देते थे, ढंग का खाना कपडा नहीं देते थे, आज मैंने उन्हें वापस ज़मीन से आसमान पे लेकर खड़ा कर दिया ! -तुझे पता है बेला, मैंने पूरे घर को फिर से खड़ा किया, आज मेरी मम्मी के घर में जो भी एक एक सामान है, मैंने खरीद के दिया है !

पता है मैंने अपनी बहनो की शादी करने का खर्चा दिया पूरा !! आज हर दो साल में मैं उन्हें नेपाल, सिक्किम या ऐसी जगह घूमने ले जाती हूँ।!!

बोलती रही गीता - सब कुछ - एक एक किस्सा, एक एक दर्द बयां करती रही वो।

...... मैं सिर्फ receiver कान पे लगाए सुनती रही - बस आंख से अविरल आँसू बहते रहे - कितना दर्द सहा था उसने, कितनी अंगारो पे चली थी वो !! आज मैं और गीता जैसे फिर बचपन में लौट गए थे - जब हम एक दूसरे के कंधे पे सर रख रो लेते थे। दोनों की आँखे नम थी और गले भर्राये हुए ।

भरी आवाज़ में मैंने पूछा था - चुलबुली कैसी है, गीता ?

वो बोली - पता है बेला, मैंने उसे सिखा रखा है क़ि मुझे सबके सामने मौसी कहना है, मम्मी नहीं!!! यहाँ इंदौर मैं हर कोई ये समझता है कि मैं single हूँ, शादीशुदा नहीं हूँ और और चुलबुली मेरी बहन की बेटी है !!

हालाँकि ये लॉजिक न मुझे तब समझ आया न अब, खैर उसकी ज़िन्दगी थी - तकलीफे उसने जी थी झेली थी -वो ज्यादा सक्षम थी अपने फैसले लेने में और उन्हें सही या गलत ठहराने में।

मेरे खयालो की तन्द्रा टूटी ....

मैंने कहा - गीता hats off to you ! मेरा तो समझ आता है - मेरे पापा मम्मी मुझे उस माहौल से यहाँ ले आये - खूब पढ़ाया लिखाया और आज मैं इस मुकाम में हूँ, पर तू ने तो अपने रस्ते अपनी मंज़िले खुद चुनी, कितना मुश्किल सफर तय किया है - मैं तुझे सलाम करती हूँ यार !

-सुन चुलबुली आई है, मुझे बुला रही है और फिर सुबह मेयर के साथ मीटिंग भी है, फ़ोन रखती हूँ . और हाँ, मेरा एक मेगा प्रॉजेक्ट शुरू हुआ है . उसकी ओपनिंग 15 जनवरी 2016 को रखी है - तुझे आना होगा - मैं नहीं जानती कैसे पर तू आएगी बस .

मैने कहा - हाँ गीता तेरे दुख मे तो मैं साथ नही आ पाई मैं, लेकिन तेरी खुशी के इस पल मे मैं तेरे साथ रहूंगी !

और इस दौरान कहाँ गुज़र गया छह महीने का वो वक़्त पता ही न चला

और बस एक हफ्ते पहले गीता का फोन आया था - सुन बेला ! तेरा पता लिखा, कार्ड भेज रही हूँ - तुझे आना है - मैं तेरी राह देख रही हूँ .....

आँख कब लग गई पता ही नही चला .... गीता मुझे झींझोड़ कर उठा रही थी – बेला, उठ इंदौर आ गया है !!

लिपट गई थी मैं गीता से !

हाँ, इंदौर आ गया था - गीता की ज़िन्दगी में एक नया दौर आ गया था !!!

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