लक्ष्मी Asha Gupta Ashu द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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लक्ष्मी

लक्ष्मी

मुझे ठीक से तो याद नहीं पर यह बात है सन् 1966-67 की। उन दिनों हम अंडमान के सुदूर जंगली इलाके में रहते थे। तब वहां की आबादी बहुत कम थी इसलिए सुख-सुविधा भी उसी के हिसाब से था। गिनी चुनी छोटी-छोटी सी दुकाने थीं। एक स्कूल और एक दो मंदिर बस। बसें और मोटर न के बराबर। जो दो-चार गाड़ियां थी वो भी सरकारी। कहीं जाना हो तो अधिकतर पैदल ही सफर तय करना पड़ता था। तब मेरी उम्र 3-4 साल की रही होगी जब मैंने पहली बार उसे देखा था। काला रंग, चिकनी चमकदार चमड़ी, ममतामयी आँखें और जलेबी जैसी सींगों वाली वो मध्यम कद की, घर के पिछवाड़े वाले दलान में खड़ी थी। ओह तो पिताजी गाय लेकर आए थे। मां ने कई दिनों से रट लगा रखी थी कि एक गाय ला दो, घर में बच्चे हैं, दूध-दही की जरूरत पड़ती रहती है, पर पिताजी टालते ही आ रहे थे। आज जब गाय आ गई तो हम सभी की खुशी का कोई ठिकाना न था। हम तो बस उसके आगे-पीछे घूम घूम कर उसे देखने लगे। मां ने उसके माथे पर हाथ फेरा, आरती उतारी और उसका नामकरण कर दिया और नाम भी क्या – “लक्ष्मी”।

पिताजी लक्ष्मी के गले में बांधने के लिए एक घंटी भी साथ ले आए थे। अब हमारे परिवार में एक सदस्य बढ़ गया था। कहने को वो गाय थी परन्तु स्वभाव से बहुत ही शांत, इसलिए किसी को कुछ नहीं करती थी परन्तु दूध दुहने का अधिकार उसने सिर्फ मेरी माँ को दे रखा था। मजाल है कि कोई और दूध दुहने के लिए उसके पास भी फटक जाए। तब वह हिरणी से शेरनी बन जाती थी, इसलिए पिता जी भी बस दूर से ही सेवा-सुश्रुवा कर देते थे। एक बार घर में काम करने वाले भैया ने कहां कि अम्मा हम निकल देते हैं दूध, हमको कुछ न कहेगी परन्तु जैसे ही भैया ने बाल्टी उठाई और लक्ष्मी के पास पहुंचे, बड़ी जो़र से लक्ष्मी ने हुंकार लगाई और लात से बालटी को परे कर दिया। भैया गिरते पड़ते भागे वहां से। हम सब का हंस हंस के बुरा हाल होने लगा। फिर उसके बाद से भैया ने कभी कोशिश नहीं की।

हम भाई-बहन जब भी उसके पास जाते वह बहुत ही शान्ति से हमें देखती रहती। उस समय उसकी आँखों से कुछ अजीब तरह से ममता बरसती थी। उसके गले में पड़ी घंटी की टन-टन की मधुर आवाज़ बहुत अच्छी लगती थी। हम भाई बहनो को शुरू में उसके पास जाते हुए उसके काले रंग को देख कर डर तो लगता था परन्तु जब उसने कभी भी हमें अपना रौद्र रूप नहीं दिखाया तो मेरी भी हिम्मत बढ़ गई और मैं धीरे-धीरे उसके करीब आने लगी। उसके करीब जाती, उसे छूती और खुश हो जाती। यह सब भी हमारी दिनचर्या में शामिल हो गया था।

लक्ष्मी को सुबह होते ही चरने के लिए खोल दिया जाता था, शाम होते होते वो खुद से चर कर घर लौट आती थी । चूंकि चारों तरफ हरियाली ही हरियाली थी, पेड़-पौधों की भरमार, इसलिए उसे चारे की कोई कमी न थी। हमारे घर के पीछे करीब सौ मीटर की दूरी पर एक पहाड़ी जंगल था। जहां वो हमेशा जाया करती थी। हम तो बच्चे थे, पर सुनते थे कि वो जंगल बड़ा ही घना है, वहां जंगली जानवर जैसे सुअर, बंदर, हिरण आदि के साथ-साथ सरीसृपों की भी भरमार थी। हमें तो उस जंगल के पास से दिन में भी गुजरते हुए डर लगता था। मगर लक्ष्मी इन सब बाधाओं के बावजूद शाम होते ही बड़ी कुशलता के साथ घर लौट आती थी।

मैंने जब भी उसे देखा, हमेशा शांत ही देखा, चारा खाते हुए बड़ी खामोशी के साथ वो देखती रहती थी। माँ भी उससे न जाने क्या-क्या बातें करती रहती, कभी डांटती, कभी उलाहने देती तो कभी कुछ कहती और लक्ष्मी हर बात पर कभी सिर हिला कर तो कभी रंभा कर अपनी प्रतिक्रिया देती। मुझे भी उससे एक अनजाना सा स्नेह हो गया था, लगता जैसे वो भी माँ की तरह हम सभी का ख्याल रख रही है। हालांकि उन दिनों मेरी उम्र ऐसी न थी कि मैं भावनाओं के समीकरण को समझ पाती, परन्तु स्नेह के बंधन को बाखूबी पहचानती थी। अकसर मैं उसके सामने थोड़ी दूरी पर जाकर बैठ जाती और उसे घंटों निहारा करती। मां डांट-डपट कर मुझे वहाँ से हटाती, पर सुबह होते ही मैं फिर भाग कर वहीं पहुंच जाती। एक अजीब ही आनंद मिलता था उसके पास बैठ कर मुझे।

एक दिन मौसम बहुत खराब हो गया था। वैसे हमारे यहां पर अधिकतर बारिश ही होती रहती थी परन्तु उस दिन अचानक ही मौसम का कहर टूट पड़ा था। सुबह जब लक्ष्मी बाहर निकली थी तब बस बादल भर ही छाये थे। दोपहर होते-होते अंधेरा छाने लगा और तेज़ हवा के साथ बारिश ने रफ्तार पकड़ ली। रह रह कर बिजली की गर्जना रूह कंपा देती थी। हम सब डर कर घर में दुबके हुए थे पर लक्ष्मी सुबह चरने के लिए जंगल की तरफ ही निकल गई थी। मां के साथ-साथ हम सभी को लक्ष्मी की चिंता सताने लगी। वो अभी तक नहीं लौटी थी। शाम के 5 बजे के बाद अंधेरा गहरा जाता है और अब तो 7 बजे गए थे। मां घर के पिछवाड़े जाकर बार बार लक्ष्मी को पुकार रही थी। पिताजी भी परेशान हो रहे थे।मां की पुकार पर कुछ ही देर बाद हमें उसके रंभाने की आवाज़ सुनाई दी। हम सभी बहुत खुश हो गए और यह अनुमान लगाने लगे कि वह ठीक ठाक है।

इसी तरह आधा घंटा बीत गया, हमें लक्ष्मी की सिर्फ आवाज़ ही सुनाई पड़ रही थी, जबकि वो अब तक घर नहीं लौटी। इतनी आंधी-तूफान में जंगल में जाकर उसे खोजना बहुत ही मुश्किल काम था। जंगलों में पेड़ों के गिरने की आवाज़ें, तेज़ हवा की सांय-सांय, बिजली का कड़कड़ाना और मुसलाधार बारिश, सब मिलकर रात के अंधेरे को और अधिक भयानक बना रहे थे। जब काफी देर तक लक्ष्मी नहीं आई तो माँ छटपटा उठी। उन्होंने पिताजी से कहा कि लक्ष्मी जरूर किसी मुसीबत में फंस गई है, मुझे जाना होगा और पिताजी के रोकने के बावजूद हम बच्चों को पिता जी के पास छोड़ कर मां अपने साथ काम करने वाले भैया को लेकर जंगल की और चल पड़ीं। टार्च की रोशनी में वो लोग लक्ष्मी को यहां-वहां ढूंढने लगे। बीच बीच में मां की पुकार भी सुनाई पड़ रही थी। जंगल में कुछ दूरी पर एक बड़ा नाला पड़ता था जिसकी चौड़ाई कोई 5 मीटर रही होगी। उस नाले में हमेशा घुटने भर पानी बहता रहता था और उस पर किसी पेड़ की मोटी सी शाख दोनों किनारों को जोड़ती पड़ी रहती थी, जिस पर से होकर कभी कभार लोग गुजरा करते थे। बारिश की वजह से नाले में पानी भर गया जिसके तेज़ बहाव अपने साथ उस मोटी शाख को भी बहा ले गई। वहां तक पहुंच कर मां ने देखा कि लक्ष्मी नाले के उस पार खड़ी थी और आने के लिए परेशान हो इधर-उधर चक्कर काट रही थी। नाला अपनी उफान पर था। लक्ष्मी की समझ में नहीं आ रहा था कि उफनते नाले को कैसे पार किया जाए। उसे सही-सलामत देख कर मां की आंखे नम हो गईं। पर किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या उपाय लगाया जाए लक्ष्मी को नाला पार कराने के लिए। मां पर नज़र पड़ते ही लक्ष्मी करूण स्वर में रंभाने लगी, और इधर मां को यह चिंता सताने लगी कि कहीं लक्ष्मी उफनते नाले में कूद न पड़े।

बारिश तेज से तेज होती जा रही थी,रात का अंधेरा और बढ़ गया था। ज्यादा देर तक जंगल में ठहरना मां के लिए भी सही नहीं था। मां द्रवित होकर लक्ष्मी से कहने लगी- क्या करें लक्ष्मी, कैसे तुझे इस पार लाएँ ? अरे पगली तु बारिश तेज होने से पहले ही क्यों नहीं लौट आई ? .. लक्ष्मी मेरी लक्ष्मी..।

अब पता नहीं लक्ष्मी ने मां की कितनी बातें समझीं, परन्तु उसने मां के लाड को जरूर पहचान लिया था। बस फिर क्या था, अगले ही पल जो घटा वो किसी चमत्कार से कम न था। लक्ष्मी ने एक हुंकार भरी, दो कदम पीछे गई और फिर अचानक से उसने नाले पर छलाँग लगा दी। मां की सांस ऊपर की ऊपर ही रह गई, उन्होंने डर कर अपनी आँखें बंद कर ली। पर अगले ही पल लक्ष्मी मां से सटी खड़ी रंभा रही थी। ओह लक्ष्मी मेरी प्यारी लक्ष्मी कहते हुए मां खुशी से रो पड़ीं। यकीन नहीं हो रहा था कि लक्ष्मी ने इतना चौड़ा नाला एक ही छलांग में पार कर लिया था।

जब लक्ष्मी को लेकर मां घर लौटी तो हम सब इतने खुश हुए कि जैसे न जाने हमें कौन सा खजाना मिल गया हो। मां ने उसके कीचड़ लगे शरीर की सफाई की, उसके पास आग जलाया और खाने के लिए चारा लाकर दिया, फिर वहीं उसके पास बैठ कर उस पर हाथ फेरने लगीं। लक्ष्मी और मां दोनों की आँखें नम थीं। लक्ष्मी का मां के साथ अगाध प्रेम था। होता भी क्यों न, मां उसे घर की सबसे बड़ी बेटी जो मानती थीं और उस दिन लक्ष्मी ने भी साबित कर दिया था कि चाहे कैसी भी मुसीबत आए पर मां की पुकार पर उसे घर लौटने से कोई नहीं रोक सकता, न प्रकृति न मानव।

ऐसे ही एक घटना और याद आ रही है मुझे। हमारे मामा-मामी कुछ दिन के लिए घूमने आये थे मुख्यभूमि से हमारे घर। उनकी एक छोटी बच्ची थी, नाम था गुड़िया, उम्र रही होगी उसकी 2-3 साल। वो भी लक्ष्मी के साथ खूब खेला करती। हमें डर लगा रहता कि कहीं लक्ष्मी उसे घायल न कर दे इसलिए कोई न कोई उसके आसपास बना रहता। एक दिन घर के बाहर लक्ष्मी खड़ी थी, वो कुछ देर पहले ही चर कर लौटी थी और मां को आवाज़ दे रही थी। उसकी आदत थी दरवाजें पर आकर वो दो-तीन बार जरूर रंभाती थी, फिर जैसे ही मां उसे वहां से उसके लिए बने घर में ले जाती और वहीं खूंटे से बांध देती तो वह शान्ति से वहीं बैठ जाती। मां फिर बाल्टी भर सानी (गाय के लिए चोकर से बना खाद्य पदार्थ) लाती और लक्ष्मी के आगे रख देती। जिसे लक्ष्मी बड़े चाव से खाती रहती।

हां तो उस दिन भी रोज की तरह लक्ष्मी लौटी और घर के सामने खड़ी हो गई। उसी समय उसकी आवाज पर गुड़िया निकल कर उसके पास आ गई। तभी न जाने कहां से एक कुत्ता दौड़ता हुआ आया और गुड़िया पर झपटा मा्रने ही वाला था कि तभी लक्ष्मी ने गुड़िया को अपने पैरों के बीच पेट के नीचे ले लिया और जोर से कुत्ते को देखकर हुंकार लगाई। कुत्ता डर कर भाग गया। हम सब तब तक दौड़ कर घर से बाहर आये,हमें लगा कि जरूर कुत्ते ने बच्ची को काट लिया होगा पर वहां तो नजारा ही कुछ और था। हमने देखा गुड़िया मजे से लक्ष्मी के थन को मुंह में लिए खड़ी खड़ी दूध पी रही थी। यह देख कर मामी जी तो डर कर रोने ही लगी कि कहीं लक्ष्मी पैर न चला दे। डर हम भी गए थे पर माँ को हंसी आ गई।

मां ने मामी से कहा- “डर क्यों रही हो, लक्ष्मी न बचाती तुम्हारी गुड़िया को तो कुत्ता काट खाता। यह नहीं नकुसान पहुंचायेगी बिटिया को। माता है माता, बच्चों की रक्षा करना जानती है।“ मामी जी के आँखों में स्नेह के आंसू छलक उठे, उन्होंने गुड़िया को गोद में लिया और लक्ष्मी के माथे पर हाथ फेरा और उसे प्रणाम किया। तब मुझे यूं महसूस हुआ कि जानवर बेजुबान होते हुए भी कितने समझदार होते हैं। अगर हम उन्हें स्नेह ने, उनकी देखभाल करें, ख्याल रखें तो वो भी बदले में हमारी सुरक्षा का उतना ही ध्यान रखते हैं। लक्ष्मी के इस प्रेम ने सदा हम सभी को स्नेह की डोर से बांधे रखा। उसके साहस और प्रेम की न जाने कितनी छोटी छोटी कहानियां हैं जो आज भी मेरे दिमाग में तरोताजा है। किसी ने सच ही कहा है - जिस घर में गाय होती है उस घर में हमेशा प्रभु की कृपा रहती है। हमने भी लक्ष्मी को कभी जानवर नहीं समझा, बल्कि वो हमारे लिए उतनी ही पूज्यनीय थी जितना कि मेरे माता-पिता। आह हमारी लक्ष्मी, सच में तुम हमारे लिए लक्ष्मी ही थीं।

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