इन्तज़ार भरी आँखे Asha Gupta Ashu द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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इन्तज़ार भरी आँखे

इन्तज़ार भरी आँखें

जी इस बार बड़ा खुश था, होता भी क्यों नहीं । कई साल बाद मुख्यभूमि अपने ससुराल से होकर वापस आई थी। यूँ तो शादी के बाद से मेरा रिश्ता ससुराल से सदा मधुर ही रहा है, ना वहां किसी को मुझसे शिकायत थी ना मुझे किसी से। साल दो साल पर हम अक्सर गर्मियों की छुट्टियों में मुख्यभूमि जाते रहते थे। रिश्तेेदारों से भी मेल मुलाकात बनी रहती थी और हमारा घूमना भी हो जाता था परन्तु मेरी ख़ुशी का कारण यह नहीं, बल्कि इस बार मै यह सोच कर ही गयी थी कि उन सभी रिश्तेदारों से जरुर मिलूंगी जिन्हें शादी के बाद से कभी मिल ही नहीं पाई। वैसे तो सभी लोगों का शादी-ब्याह के मौकों पर मिलना-मिलाना हो जाता है, पर हम इतनी दूर रहते हैं कि सभी मौकों पर शरीक नहीं हो पाते हैं।

3-4 दिनों का सफ़र तय कर ससुराल पहुंचे। परिवार वालों से मिलकर मन बहुत प्रसन्न हो जाता है और उन लोगों ने भी बड़ी ख़ुशी जताई, मै भी खुश थी। कुछ दिन सभी के साथ रही, काफी घूमना फिरना हुआ। फिर एक दिन मौका देख कर परिवार वालों को अपनी दिली ख्वाहिश जताते हुए रिश्तेदारों से मिलने की बात कह डाली। किसी को क्या एतराज़ हो सकता था। सब ने सहर्ष हमारी बात पर अपनी सहमति जता दी । पिताजी ने कहा अपनी बड़ी मामिया सास से जरुर मिल लेना, बहुत पूछती रहती है तुम लोगों को। मिलने की इच्छा मेरी भी बहुत थी क्योंकि बहुत कुछ सुन रखा था उनके बारे में।

कुछ एक रिश्तेदारों से मिलते मिलाते एक दिन हम मामी जी के घर पहुँच ही गये। पहले तो बढती उम्र की वजह से वो हमें पहचान ही नहीं पायी और जब पहचान कराई गयी तो घंटो मेरा हाथ अपनी हाथेलियों के बीच लेकर बैठी रहीं। इधर -उधर की बातें होती रहीं, पर मै अपनी नज़रें उनके चेहरे से हटा नहीं पा रही थी और वो मेरी हथेलियों को बड़े अपनेपन से सहलाए जा रही थीं। उनकी साँसों में एक अजीब सी उदासी थी। हम जितनी देर वहां रहे मामी जी का दिल बहलाने की कोशिश करते रहे। ऐसे ही शाम हो गयी और घर लौटने की बेला आ गई। न चाहते हुए भी हम घर की ओर रवाना हुए। घर पहुँचने तक भी मै मामी जी की उन उदास आँखों से बाहर नहीं आ पाई थी। दूसरे ही दिन हमें लौटना था सो रात भर हम यहाँ वहां की बाते करते रहे। दूसरे दिन घर वालों से हम विदा होकर अपने घर लौट गए।

अभी अपने घर आये हमें कुछ ही दिन हुए थे कि एक दिन शाम के समय फ़ोन की घंटी घनघना उठी। मै सब्जी काट रही थी, पति महोदय ने फ़ोन उठाया। कुछ देर बातें करते रहे और खामोश हो गए। मैंने टोकते हुए पूछा "किसका फ़ोन था?" जवाब न मिलने पर मैंने उनकी ओर देखा । उनकी आँखों में पानी तैर रहा था। झटपट चाकू रख मै उनके पास आ गयी। पूछा- किसका फोन था क्या बात हुई, वे बोले "भाभी जी का फ़ोन था" , "तो क्या कहा उन्होंने...सब ठीक तो है न?" मैंने डरते हुए पूछा। "तुम्हे बड़ी मामी जी याद हैं?" वे उदास स्वर में बोले। मैंने "हाँ" में सर हिला दिया। वे फिर सकपकाए से बोले "वो नहीं रहीं"। ओह....यह सुन कर एक बार फिर से वो आँखें मेरे जेहन में कौंध गई और मै धम्म से वहीँ बैठ गयी।

मामी जी का चेहरा मेरी आँखों के सामने नाच उठा और फिर उनकी दुखद कहानी की परते दर परतें खुलने लगीं। मामी का जीवन किसी तपस्विनी से कम नहीं था। हर लड़की की तरह उनकी भी शादी हुई, उन्होंने भी कुंवारेपन के कई सपने अपनी आँखों में सजा कर ससुराल की देहरी लांघी थी। शादी के कुछ वर्ष बीते, मामी जी के एक बेटा हुआ। घर में उल्लास का माहौल था, हंसी-ख़ुशी में पल बीत रहा था कि एक दिन अचानक मामा जी कहीं गायब हो गए। पहले तो सभी ने यही सोचा कि कहीं नाते-रिश्तेदारी में गए होंगे, आ जायेंगे, पर कई दिन बीत गए और वो नहीं आये। बहुत रोना-धोना मचा, बहुत ढूँढायी हुई, पर कुछ पता नहीं चला। जब बहुत दिनों तक वे नहीं लौटे तो गाँव में सुबुगाहट होने लगी कि किसी ने मार-वार कर डाल दिया होगा। पर मामी का दिल इन सब बातों को मानने के लिए कतई तैयार नहीं था। वे जैसे-तैसे अपने बच्चे के साथ, लोगों के ताने सहते हुए उनके इंतज़ार में रहने लगी। ऐसे ही धीरे धीरे दो वर्ष बीत गए। फिर एक दिन अचानक से मामा जी वापस आ गए। उस दिन तो मामी जी के लिए जैसे दीवाली हो गयी थी। उनका मस्तक गर्व से कुछ और उन्नत हो गया था। घरवाले भी बहुत खुश हुए। सभी ने मामा जी से उनके गायब होने के रहस्य जानना चाहा तो उन्होंने कहा कि गुजरात चले गए थे। मनमौजी जो ठहरे। जहाँ मन किया मुँह उठाये और चलते बने, पीछे से पत्नी पर या परिवार वालों पर क्या बीतती, इन बातों की उन्हें कोई परवाह ही नहीं थी।...खैर जो हुआ सो हुआ।

मामा- मामी साथ रहने लगे। मामी जी ने सभी शिकायतों को दर-किनार कर हंसी-खुशी समय बीतना शुरू कर दिया। ज़िंदगी अपनी रफ्तार से चल रही थी, कभी रूक-रूक, कभी अटक-अटक और कभी दौड़ंती हुई। 3 -4 बरस बीते। मामी जी अब तक तीन पुत्रों और एक पुत्री की माँ बन चुकी थी। पर कहते हैं ना कि सुख की छाँव ज्यादा देर ठहरती नहीं है, सो मामी के भी सुख के दिन ठहर नहीं पाए। बंधी मुट्ठियों से रेत कब कैसे फिसल गया, पता ही नहीं चला। मामा एक बार फिर घर छोड़ कर चले गए। मामी ने सोचा कुछ दिन बाद वापस आ जायेंगे। ऐसे ही इंतज़ार करते करते कई बरस बीत गए, पर मामा नहीं आये। बच्चे अब बड़े हो चुके थे, उनकी शादी भी करनी थी। अब तो रिश्ते भी आने लगे थे। मामी इस इंतज़ार में थी कि मामा आ जाते तो बच्चों कि शादियाँ निपटा दी जाती, पर मामा नहीं आये। आखिर समय गुजरता जा रहा था, कब तक राह तकते। नाते-रिश्ते वालो ने देख-वेख कर लड़की और लड़कों की शादियाँ करा दीं। समय के साथ-साथ सभी बच्चे घर गृहस्थी वाले हो गए। अब मामी को अकेलापन सताने लगा था। वो तो ऐसी सुहागान थीं जिनके पति का कुछ पता ही नहीं था। दिन-रात ईश्वर से बस यही विनती करती कि किसी तरह उनके पति वापस घर आ जाये। उन्हें यह तक पता नहीं था कि आखिर वे घर छोड़ कर गए ही क्यों ? नाते वालो और गाँव वालो के ताने अकेली सहती रही पर उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ा। उनकी आँखे हर समय इंतज़ार में दरवाज़े पर ही लगी रहती कि शायद आज आ जाए। उनके लिए ना होली थी और ना दीवाली, ना करवा चौथ के मायने थे और ना कजरी तीज। मन में पति के लौटने का सपना लिए रोज़ के कामो में उलझी रहती।

दिन महीनो में, महीने बरसों में समाने लगे। इंतज़ार की उम्र लम्बी होती चली गयी। नाते-रिश्ते वालो ने टोकना शुरू कर दिया, कहने लगे- "मर वर गए होंगे, अब क्या आयेंगे" । नव यौवना मामी के शरीर पर ढलती उम्र का असर दिखने लगा था। बालों में भी सफेदी आ गयी थी, पर मन था कि इंतज़ार में पलक-फावड़े बिछाए बैठा था। धीरे धीरे करके सब रिश्तेदार छूट गए, बहुत लोग उम्र बिता कर लम्बी नींद सो गए। पर उन आँखों में कुछ समाये कैसे, जिन आँखों में इंतज़ार ने डेरा डाल रखा था। कभी कभी यूँ ही बैठे बैठे मामी कुछ गुनगुना उठती, शायद कोई सौहर या बन्ना। या हो सकता है मामा की याद में कोई विरह गीत ही रहा हो। अपने में मगन, रोजमर्रा के कामों में उलझीं, इन्तज़ार के नशे में उनके दिन गुजर रहे थे।

मै जब मिलने गयी थी, उन दिनों भी मामी जी की हालत ऐसी ही थी.....खोयी खोयी सी। चेहरा देख कर पता ही नहीं चलता था कि उदास हैं या खुश। उन्हें देख कर मेरा मन पीड़ा से कराह उठा था। उस वक़्त बड़ा क्रोध आ रहा था मामा पर कि आना है तो आये, वरना कहलवा देते कि नहीं आयेंगे। कम से कम कोई इंतज़ार तो नहीं करता। मैंने इनकी और बच्चो की कुशलक्षेम बताई और तसल्ली से मामी का हाथ अपनी हथेलियों के बीच ले लिया। मन तो उनसे बहुत कुछ कहना चाहता था पर होंठ कांप कर रह जाते थे। कोई शब्द नहीं मिल रहे थे जिनसे उनकी पीर कुछ कम की जा सके। बस स्पर्श की बोली से हम एक-दूसरे की कुशल कामना करते रहे। हमें विदा करते वक़्त भी मामी की आँखें दरवाज़े पर लगी रहीं और जब स्वयं उनकी विदा की घडी आई तब भी।

और अब जब वे नहीं रही तो रह-रह कर मेरे जहन में उनकी इंतज़ार से भरी हुयी आँखें कौंध उठती हैं। उनका अकेलापन, उनकी मन की पीड़ा, उनके बोझल दिन। क्या औरत होने की यही नियति है? पुरुष के बिना उसका जीवन ठहर सा क्यों जाता है? क्यों वो मन की गहराइयों में अपने जीवनसाथी को समेट लेती है? ना जाने मन में कैसी-कैसी टीसें उठ रही थीं। कैसे-कैसे सवाल थे जो आँखों को रोने नहीं दे रहे थे बल्कि हमें ये सोचने पर मजबूर कर रहे थे कि क्या औरत की जिन्दगी पुरुष के इर्द-गिर्द ही है, उसके अलावा कुछ नहीं ? शायद हम सभी की आँखों में पानी की जगह अब ये ही सवाल तैर रहे थे और मामी जी की आंखें थीं जो सदा के लिए बंद हो चुकी थीं इन्तज़ार करते करते।

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