मुगल-ए-आजम Sushila Kumari द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मुगल-ए-आजम

अफसाने के हकीकत बनने की कहानी

मुगल—ए—आजम

अफसाने के हकीकत बनने की कहानी

समर्पण

उस जज्बे को जो

जमाने के विपरीत चलते हुये

असंभव को संभव कर दिखाता है

और जमाने को अपने पीछे

चलने का मजबूर करता है।

अपनी बात

हमारे देश में फिल्म लेखन को गंभीरता से नहीं लिया जाता है, जबकि जनमानस पर जिन विषयों का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है उनमें सिनेमा अत्यंत महत्वपूर्ण है। आज भले ही फिल्म निर्माण व्यवसाय में तब्दील हो गया है और फिल्में बनाने का एकमात्रा लक्ष्य मुनाफा कमाना रह गया है, लेकिन एक समय था जब फिल्म निर्माण का उद्देश्य केवल मुनाफा नहीं था और उस समय की फिल्मों तथा फिल्मों से जुड़ी हस्तियों ने सामाजिक चेतना को साकारात्मक तरीके से प्रभावित किया। जनमानस पर जितना प्रभाव साहित्य और कला का रहा संभवतः उससे अधिक प्रभाव सिनेमा का पड़ा।

मुगल—ए—आजाम को बनाने में लगभग दस साल लगे और इस पर डेढ़ करोड़ रूपये से अधिक खर्च हुये। जब यह फिल्म रिलीज हुयी तक इसने उस समय तक के सभी बॉक्स आफिस रेकार्डों को ध्वस्त कर दिया और और 1975 में फिल्म षोले के रिलीज होने के समय तक सबसे अधिक कमाई करने वाली फिल्म का कीर्तिमान कायम रखा। 2004 में इस फिल्म को रंगीन करके दोबारा रिलीज किया गया तो इसने फिल्म इतिहास में एक बार फिर कामयाबी का नया इतिहास रचा।

जनमानस को गहराई तक प्रभावित करने वाली फिल्मों में मुगल—ए—आजम प्रमुख है जिसने दषकों बीत जाने के बाद भी अपनी चमक नहीं खोयी है। आज जब सिनेमा निर्माण के एक से बढ़ कर एक टेक्नोलॉजी का विकास हो चुका है दर्षकों के लिये यह फिल्म एक पहेली सरीखी लगती है। भारतीय सिनेमा के 100 साल पूरे होने के मौके पर ब्रिटेन में कराये गये एक सर्वेक्षण के अनुसार मुगल—ए—आजम को हिन्दी सिनेमा की सर्वश्रेश्ठ कृति माना गया। सिनेमा प्रेमी आज भी इस फिल्म के निर्माण के विभिन्न पहलुओं के बारे में जानने को उत्सुक रहते हैं और यह पुस्तक इस उत्सुकता को पूरा करने के उद्‌देष्य से लिखी गयी है।

इस कृति के बारे में जानने की दर्षकों की जिज्ञासा बनी

जब एक से बढ़कर एक आजआज भी इस फिल्मदषकों कआज इस फिल्म के बारे

सुशीला कुमारी

18 दिसंबर, 2015

अनुक्रम

मुगल—ए—आजम — पुनरावलोकन /

सामाजिक—ऐतिहासिक संदर्भ /

ऐतिहासिक कहानी /

प्रतीकों की जुबानी /

सपनों का शिल्पकार — के. आसिफ /

शापूरजी पालोनजी —मुख्य सहायकर्ता /

पृथ्वीराज कपूर —शहंशाह अकबर /

दिलीप कुमार — शहजादा सलीम /

दुर्गा खोटे — महारानी /

मधुबाला — अनारकली /

कमाल अमरोही — पटकथा लेखक /

नौशाद अली — संगीतकार /

मोहम्मद रफी — गायक /

लता मंगेशकर — गायिका /

कलाकार एवं क्रेडिट /

संदर्भ एवं साभार /

मुगल—ए—आजम : पुनरावलोकन

के. आसिफ की क्लासिक, विषाल बजट वाली, भव्यतम और ऐतिहासिक रोमांटिक फिल्म मुगल—ए—आजम सिर्फ एक फीचर फिल्म नहीं थी, यह एक सपने के साकार होने और एक व्यापक सोच के खूबसूरत यथार्थ में बदलने सरीखा था। सही मायने में यह एक व्यक्ति के जुनून का षानदार परिणाम था। करीमुद्दीन आसिफ ने अपने सपने को यथार्थ रूप देने के लिए अपनी कल्पनाओं को सूक्ष्मता से बड़े पर्दे पर दर्षाने के लिए, अथक परिश्रम, निरंतरता और प्यार भरे आत्मविष्वास, उच्चाकांक्षा, सम्पूर्ण परिकल्पना और हठधर्मिता का सहारा लिया।

के. आसिफ ने पृथ्वीराज कपूर, मजहर खान और सितारा देवी अभिनीत फिल्म फूल (1944) को निर्देषित करने और दिलीप कुमार और नरगिस अभिनीत फिल्म हलचल का निर्माण करने के बाद अपनी महत्वाकांक्षी फिल्म मुगल—ए—आजम षुरू की। उनके खाते में तीन पूरी फिल्म और एक आधी फिल्म ही आई (क्योंकि अलिफ लैला की प्रेम कहानी पर आधारित लव एंड गॉड को पूरा करने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई) और दूसरी फिल्म सस्ता खून महंगा पानी (जिसका निर्माण मुगल—ए—आजम के निर्माण के बाद शुरू किया) निर्माण के पहले चरण में ही बंद हो गई।। जब 1971 में उनकी मृत्यु हुई तो उनकी दो अधूरी फिल्मों — सस्ता खून महंगा पानी और लव एंड गॉड को बाद में 1986 में के. सी. बोकाड़िया ने रिलीज किया। उनके हिस्से में गिनती भर की फिल्में आने के बावजूद उन्होंने फिल्म इतिहास के पन्नों पर अपना नाम सुनहरे अक्षरों में दर्ज करा दिया।

मुगल—ए—आजम को बनाने में लगभग दस साल लगे और इस पर डेढ़ करोड़ रुपये से अधिक खर्च हुये। जब यह फिल्म रिलीज हुयी तक इसने उस समय तक के सभी बॉक्स आफिस रेकार्डों को ध्वस्त कर दिया और और 1975 में फिल्म षोले के रिलीज होने के समय तक सबसे अधिक कमाई करने वाली फिल्म का कीर्तिमान कायम रखा।

2004 में इस फिल्म को रंगीन करके दोबारा रिलीज किया गया तो इसने फिल्म इतिहास में एक बार फिर कामयाबी का नया इतिहास रचा।

यह भारतीय सिनेमा में निःसंदेह सबसे बड़ी बॉक्स ऑफिस हिट फिल्म है। मुद्रास्फीति को ध्यान में रखते हुए इस फिल्म की आमदनी की बात करें तो 31 मार्च 2009 तक रिलीज हुई बॉलीवुड फिल्मों में इस फिल्म की आमदनी सबसे अधिक रही। हालांकि उस समय ऐसा लगता था कि भारतीय फिल्म इतिहास की उस समय की सबसे महंगी और भव्यतम फिल्म बनाने के लिहाज से श्री आसिफ सबसे अयोग्य चुनाव हैं, लेकिन उन्होंने असंभव को संभव कर दिखाया क्योंकि उनकी सोच में असंभव नाम की कोई चीज नहीं थी। कैमरामैन आर. डी. माथुर कहते हैं, ‘‘उनकी महत्वाकांक्षा और कल्पनाषीलता की कोई सीमा नहीं थी। वह हमेषा कुछ नया करने की कोषिष करते थे। वह वैसा कुछ करना चाहते थे जैसा पहले कभी किसी ने किया न हो।'' उनका खुद पर अटल विष्वास और उनके सपने का भव्य प्रोजेक्ट उनके लिए प्रेरणा का आधारषिला बन गया और उनकी पूरी टीम ने मुगल—ए—आजम के निर्माण में पूरी षिद्दत और समर्पण के साथ षामिल होकर असंभव से लगने वाले उस सपने को न केवल यथार्थ में उतार दिया बल्कि उसे ऐसी बुलंदी तक पहुंचाया जहां तक पहुंचना आज तक किसी फिल्मकार के लिए संभव नहीं हुआ है। जब फिल्म का निर्माण षुरू हुआ तो किसी के भी दिमाग में इस बात का संदेह कभी नहीं था कि यह एक सेलूलॉयड मास्टरपीस होगी। जैसा कि दिलीप कुमार कहते हैं, ‘‘हम सभी यह जानते थे कि हमलोग एक बहुत बड़ी फिल्म कर रहे हैं।''

इस बड़े उद्यम में प्रेरक बल और ऊर्जा का केंद्रीय स्रोत तो के. आसिफ ही थे, लेकिन फिल्म की सफलता में किसी एक व्यक्ति का हाथ नहीं था। अविष्वसनीय रूप से प्रतिभावान लोगों ने, जिनमें से सभी अपने चुने हुए क्षेत्रा में षिखर पर थे, इस फिल्म के निर्माण में अपना बेहतरीन योगदान दिया। नाटकीयता, गीत—संगीत, सेट, नृत्य, परिधान, डायलॉग, फोटोग्राफी और अलग—अलग यूनिटों के बीच के सर्वोत्तम संयोजन ने एक दूसरे का पूरक बना दिया और एक महान फिल्म का निर्माण संभव हुआ। इस पूरी फिल्म में किसी एक व्यक्ति के काम को अलग करके देखना मुष्किल है। मुगल—ए—आजम की नक्काषी उस नेकलेस की तरह की गई जिसे बहुमूल्य पत्थरों से बड़े प्यार से इस तरह जड़ा गया ताकि इनमें से किसी एक की भी चमक किसी से कम न हो क्योंकि एक की भी चमक कम होने पर पूरा नेकलेस प्रभावित होता।

इस फिल्म में एक दूसरे के सहयोग के बीच अनोखा समन्वय देखा गया। हर कलाकार ने दूसरे को भरपूर सहयोग दिया। पूंजीपतियों ने इस फिल्म के निर्माण के लिए गर्त में फंसे के. आसिफ के लिए पैसा उड़ेल दिया। के. आसिफ वास्तव में जिससे जो काम लेना चाहते थे, उन्हाेंेने उसकी भावनाओं को चोट पहुंचाए बगैर उससे वह काम लिया और जिसने भी इस फिल्म में जिस किसी भी स्तर पर सहयोग दिया उसने अपने हुनर का सर्वश्रेश्ठ हिस्सा दिया और हर किसी का काम हमेषा के लिए मिसाल बन गया। मुगल—ए—आजम का निर्माण इस बात का मिसाल बन गया कि किस तरह से किसी व्यक्ति का सपना उसके हर निष्चय, उसकी लगन, उसकी आत्म षक्ति और उद्देष्यों की सम्पूर्णता की बदौलत एक ऐसे भव्य यथार्थ में तब्दील होता है जिसे देखकर आने वाली पीढ़ियां दांतों तले ऊंगली दबाने को मजबूर होती हैं। मुगल—ए—आजम बनने में नौ साल का समय लगा जो कि एक कीर्तिमान है। यह फिल्म 1951 में बननी षुरू हुई, जब आसिफ ने अंधेरी के मोहन स्टुडियो के दो स्टेज को अपने अधिकार में लेकर काम षुरू किया और अगस्त 1960 में पूरे नौ साल बाद यह रिलीज हुई।

मुगल—ए—आजम में मुगल राजकुमार सलीम और दरबार की नर्तकी अनारकली की प्रेम कहानी को चित्रिात किया गया जो कि दंत कथा से कुछ अधिक नहीं है। हालांकि लाहौर में अनारकली का एक मकबरा अब भी है, लेकिन इस कहानी का कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं है। यह कहानी उर्दू के हास्य—व्यंग्यकार और नाटककार इम्तियाज अली ‘ताज' (1900—70) के नाटक अनारकली (1922) के जरिए फिल्म निर्माताओं के जेहन में आई। इसमें ऐतिहासिक सच्चाई की कमी होते हुए भी, परम्परा और सत्ता के साथ संघर्शरत युवा प्रेम को गहरी नाटकीयता के साथ फिल्माने के कारण यह फिल्म लोगों को बेहद पसंद आई। जब के. आसिफ ने एक बार फिर इसे पर्दे पर लाने का निर्णय लिया तब तक इसी विशय पर कम से कम चार फिल्में बन चुकी थीं। इस फिल्म में यह दिखाया गया है कि सम्राट अकबर ने अनारकली को देष छोड़ने का आदेष दिया जबकि इसके विपरीत प्रसिद्ध धारणा यह है कि अनारकली को दीवार में चुनवा दिया गया और उसने घूंट—घूंट कर उसी में दम तोड़ दिया।

इस विशय पर बनी पहली फिल्म द लव्स ऑफ ए मुगल प्रिंस थी। यह एक बड़े बजट की मूक फिल्म थी जिसे द ग्रेट ईस्टर्न फिल्म कारपोरेषन ऑफ इंडिया ने 1928 में बनायी थी। उससे पहले 1926 में आर्देषिर ईरानी ने इम्पेरियल फिल्म्स की स्थापना की और सुलोचना को बतौर अभिनेत्री लेकर अनारकली रिलीज की। 1928 में ही प्रदर्षित इस अत्यंत सफल फिल्म का निर्देषन आर. एस. चौधरी ने किया था। जब फिल्मों में आवाज की षुरूआत हुई तब उन्होंने 1935 में डी. बिलिमोरिया को सलीम और सुलोचना को दोबारा अनारकली की भूमिका में लेकर दोबारा फिल्म बनाई। सन्‌ 1953 में नंदलाल जसवंतलाल ने बीना राय और प्रदीप कुमार को मुख्य भूमिका में लेकर फिल्मीस्तान के लिए अनारकली बनाई। उस समय सुलोचना ने राजकुमार सलीम की मां की भूमिका की। यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बहुत ही सफल साबित हुई। इस फिल्म का संगीत सी. रामचंद्र ने दिया था जो कि उन दिनों बहुत प्रचलित रहा। उसके बाद 1955 में वेदांतम राघवैय्‌या की अनारकली तमिल और तेलगु में बनी और 1966 में कुंचको ने मलयालम में बनाई।

के. आसिफ ने इसी विशय पर 1944 में सप्रू, चंद्रमोहन और नरगिस को सलीम, अकबर और अनारकली की भूमिका में लेकर फिल्म बनानी षुरू की थी। लेकिन 1946 में चंद्र मोहन की मृत्यु हो गई तथा आसिफ को आर्थिक मदद करने वाले षिराज अली हाकिम पाकिस्तान चले गए जिससे फिल्म बंद हो गई। उसके बाद दो और अनारकली की घोशणा की गई। फिल्मकार की ओर से बनने वाली सलीम—अनारकली के निर्देषक कमाल अमरोही थे और मधुबाला मुख्य भूमिका में थीं लेकिन कुछ कारणों से यह फिल्म भी बंद हो गई। फिल्मीस्तान की अनारकली जिसके निर्माता एस. मुखर्जी थे, नियत समय पर पूरी हो गई और 1953 में यह रिलीज हुई तथा यह बॉक्स ऑफिस पर सफल भी रही। उसी दौरान हलचल की सफलता के बाद के. आसिफ ने मुगले—ए—आजम पर दोबारा काम षुरू किया लेकिन फिल्मीस्तान की अनारकली के हिट हो जाने के बाद कई लोगों ने के. आसिफ से इस प्रोजेक्ट को छोड़ देने की सलाह दी क्योंकि मुगल—ए—आजम की कहानी सफल हो चुकी अनारकली की कहानी से काफी मिलती—जुलती थी। लेकिन के. आसिफ के दिमाग में एक बार भी इस प्रोजेक्ट को बंद करने या इसमें किसी तरह का कोई परिवर्तन करने का विचार नहीं आया। वह जानते थे कि अनारकली ऐसा विशय है जिसमें काफी संभावनाएं निहित हैं। उनका मानना था कि यह फिल्म निर्माता—निर्देषक पर निर्भर करती है कि वह मुगल साम्राज्य के वैभव को किस तरह की कल्पनाषीलता के साथ पेष करता है और भावनात्मक दृष्यों का सृजन एवं फिल्मांकन किस प्रकार करता है। इस तरह वह इस फिल्म को बनाने के लिए पूरी तरह तैयार थे। उन्हें इस विशय पर पहले बनी फिल्मों ने ही यह फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया।

इस प्रोजेक्ट को पर्दे पर लाने के लिए काफी धन की भी जरूरत थी जिसे पूरा किया षापूरजी पालोनजी मिस्त्राी ने जो उस समय के देष के प्रमुख बिल्डिंग कांट्रैक्टरों में से एक थे। उन्होंने इस फिल्म के लिए इस कारण से जी भर कर खर्च किया क्योंकि वह खुद सम्राट अकबर के बहुत बड़े प्रषंसक थे और उन्हें इतिहास का एक महत्वपूर्ण चरित्र मानते थे। इस फिल्म के निर्माण के लिए धन का इंतजाम हो जाने के बाद मुगल—ए—आजम पर नए जोष—खरोष के साथ काम षुरू किया गया। इस फिल्म के लिए सर्वश्रेश्ठ डिजाइनिंग की गई, फिल्म के हर सेट को असाधारण रूप से भव्य बनाया गया। के. आसिफ फिल्म निर्माण के किसी भी मामले में कोई कोर—कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। हालांकि इस फिल्म का विशय इतिहास से नहीं लिया गया था, लेकिन के. आसिफ ने महान मुगल साम्राज्य के दरबार कोे जितना भव्य और विष्वसनीय बनाया वैसा प्रयास किसी अन्य फिल्म निर्माता ने नहीं किया और जिन्होंने प्रयास किया भी वे सफल नहीं हुए।

हर पक्ष को षत—प्रतिषत परिपूर्णता एवं उत्कृश्टता के साथ पेष करने की के. आसिफ की जिद्द के कारण इस फिल्म के रिलीज में देर पर देर होती गई लेकिन जितना ज्यादा देर हो रही थी इस फिल्म के प्रति लोगों की जिज्ञासा उतनी ही बढ़ रही थी। पत्रा—पत्रिाकाओं में इस तरह की खबरें छपती थीं कि किसी तरह से इस फिल्म को पूर्णतः भव्य एवं यथार्थ से बिल्कुल करीब दिखाने के निर्देषक के हठ के कारण पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है। के. आसिफ ने इस फिल्म के लिए इतने अधिक फुटेज लिए जिससे तीन फिल्में बनाई जा सकती थीं। इस फिल्म की देर रात तक षूटिंग होती रहती थी जिसे देखने के लिए अति महत्वपूर्ण लोग एवं नामी—गिरामी सख्षियत सेट पर मौजूद होते थे। इस फिल्म से जुड़े सभी लोग इस फिल्म को लेकर इस कदर उच्चाकांक्षा से अभिभूत थे कि लंबे समय तक फिल्म की षूटिंग चलती रही।

जब यह फिल्म आखिरकार पूरी तरह बनकर रिलीज हुई तो हर मामले में इतिहास रचा गया। इस फिल्म को उम्मीद से कहीं अधिक सराहना और सफलता मिली। यह फिल्म न केवल उस समय तक की सर्वश्रेश्ठ फिल्म साबित हुई बल्कि आज तक यह फिल्म भारत के सर्वोत्कष्श्ट फिल्मों की सूची में अपना स्थान षिखर पर बनाए हुए है। आम तौर पर जो फिल्में काफी अधिक समय में पूरी होती हैं उनके हिट होने की उम्मीद बहुत कम होती है लेकिन जब मुगल—ए—आजम रिलीज हुई तो इसने बॉक्स आफिस पर रेकार्ड तोड़ सफलता हसिल की। यह फिल्मी दुनिया के जानकारों के साथ—साथ आम लोगों के लिए आकर्शण का केन्द्र बन गई। इस फिल्म को हमेषा की टॉप 10 फिल्मों में षामिल किया गया। यह एकमात्रा वैसी ष्याम—ष्वेत फिल्म है जो जब कभी भी कहीं भी और किसी भी सिनेमाघर में लगती है तो हॉल लगातार हाउसफुल रहता है और जब किसी टेलीविजन चैनल से प्रसारित होती है तो दर्षक जरूरी कामों को स्थगित करके यह फिल्म देखना नहीं भूलते, भले ही उन्होंने पहले इस फिल्म को दर्जनों बार देख रखी हो।

इस फिल्म की असीमित सफलता का एक बड़ा कारण कलाकारों का उचित चयन था। पहले के कलाकार पूरी तरह बदल दिए गए। चंद्र मोहन की जगह पृथ्वीराज कपूर को लिया गया जिनके दमदार अभिनय, संवाद अदायगी, चेहरे की बदलती भाव—भंगिमा और षानदार व्यक्तित्व का ओज पर्दे पर बहुत ही प्रभावषाली रूप से दिखता है। अकबर की भूमिका के लिए इससे बढ़िया चुनाव कोई और हो ही नहीं सकता था। पृथ्वीराज कपूर अकबर के चरित्रा के साथ इस तरह घुल—मिल गए कि जब तक वे अपने अंदर एक षासक की आत्मा को महसूस नहीं करने लगते थे षूटिंग षुरू नहीं करते थे।

सलीम का चरित्रा निभाने वाले दिलीप कुमार को सप्रू की जगह लिया गया। हालांकि वह खुद को ऐतिहासिक चरित्रा के लायक नहीं समझते थे। इस फिल्म में एक महत्वपूर्ण भूमिका करने वाले अजीत कहते हैं, ‘‘युसुफ साब (दिलीप कुमार) बार—बार कहते थे कि वह सलीम की तरह नहीं दिखते हैं और न ही कभी दिख सकते हैं। लेकिन के. आसिफ का चुनाव बिल्कुल सही था और इस चुनाव के अनुसार भारत के सबसे रोमांटिक हीरो को अपनी रुचि के विरुद्ध कला और सौंदर्य प्रेमी सलीम की भूमिका करनी थी इसलिए दिलीप कुमार को अपनी सफलता को लेकर संदेह था। लेकिन मुगल—ए—आजम के रोमांटिक क्षणों को जिस खूबसूरती से पिक्चराइज किया गया, उसे देखकर ऐसा लगता है कि ऐसा दिलीप कुमार के बिना संभव ही नहीं था।

पृथ्वीराज कपूर और दिलीप कुमार ही नहीं, इस फिल्म में हर कलाकार का चुनाव बहुत ही सावधानी के साथ गहन विचार—विमर्ष करने के बाद किया गया। जोधाबाई की भूमिका में दुर्गा खोटे ने प्रभावकारी भूमिका करते हुए अपनी अमिट छाप छोड़ी है। मुराद ने आज्ञाकारी मान सिंह की भूमिका के साथ पूरा न्याय किया। अजीत ने एक निश्ठावान और विष्वासी राजपूत दोस्त के चरित्रा को जीवंत किया। निगार सुल्ताना ने महत्वाकांक्षा से भरी शडयंत्राकारी कनीज की भूमिका को परिपूर्णता के साथ पर्दे पर जीया जबकि जाने—माने कलाकार कुमार ने आजाद एवं उग्र मूर्तिकार की भूमिका के साथ पूरा न्याय किया।

सारे कलाकारों का चुनाव लगभग पूरा कर लिया गया था। केवल अनारकली का चुनाव करना रह गया था और के. आसिफ को यह चुनाव करने में लंबा समय लग गया। वह वैसी अभिनेत्राी को अनारकली की भूमिका में लेना चाहते थे जो इस केंद्रीय भूमिका के साथ पूरा न्याय कर सके और जो नैसर्गिक सौंदर्य वाली नृत्य में माहिर ऐसी लड़की हो जिसके लिए राजकुमार सलीम अपने पिता से बगावत करने पर उतारू हो जाएं। सलीम के प्यार के लिए जान तक देने वाली और प्यार के कारण भयानक दुष्वारियां झेलने वाली दुर्भाग्यषाली अनारकली की भूमिका के लिए बहुमुखी प्रतिभा वाली अभिनेत्राी का होना जरूरी था। इसके लिए अभिनेत्राी का सुख और दुख के चरमोत्त्कर्श तथा कठिन से कठिन परिस्थितियों की भावनाओं को पूरी तरह व्यक्त करने में महारत होना जरूरी था। इसके लिए एक ऐसी अभिनेत्राी की जरूरत थी जो अपने वजूद को खत्म करके अनारकली के व्यक्तित्व को जीवंत कर दे।

अनारकली की भूमिका निभाने वाली लड़की का चुनाव करने के लिए लखनऊ, भोपाल, दिल्ली और हैदराबाद में कई लड़कियाेंं का साक्षात्कार लिया गया। फिल्मी प्रेस ने इस चुनाव के बारे में लिखा, ‘‘अनारकली की भूमिका निभाकर हर कलाकार गौरवान्वित महसूस करेगी। निर्माता के. आसिफ का लक्ष्य विजेता कलाकार का चुनाव करना है।''

एक बार पे्रस ने यह रिपोर्ट प्रकाषित की, ‘‘दिलीप कुमार और के. आसिफ द्वारा अनारकली की भूमिका के लिए अभिनेत्राी की बहुप्रतीक्षित तलाष नूतन पर जाकर खत्म हुई।''

कुछ महीने बाद प्रेस ने यह रिपोर्ट छापी, ''अनारकली की भूमिका के लिए अभिनेत्राी की तलाष के. आसिफ की पंचवर्शीय योजना साबित होने वाली है क्योंकि 50 दिन की षूटिंग और 10 लाख रुपये खर्च होने के बावजूद अभी तक किसी अभिनेत्राी का कुछ अता—पता नहीं है।''

इसके बाद यह खबर आई, ‘‘पूरे देष में टैलेंट हंट के बाद आखिरकार मधुबाला को यह भूमिका करने का ऑफर दिया गया है। इसलिए हम उम्मीद कर सकते हैं कि मधुबाला अनारकली की भूमिका कर सकती है, लेकिन मधुबाला ने अभी तक अपनी सहमति नहीं दी है।''

और अंत में क्लाइमेक्स में कहा गया कि अनारकली की भूमिका मनमोहक छवि वाली मधुबाला को ही दी गई है जिस भूमिका के लिए सबसे पहले उसी का नाम सामने आया था।

इस तरह के. आसिफ ने अपनी अनारकली को मधुबाला में ही पाया और मधुबाला को पाकर अनारकली की उनकी खोज पूरी हो गई। अनारकली के रूप में मधुबाला का प्रदर्षन इतना षानदार रहा कि मुगल—ए—आजम के रिलीज होने के इतने साल बीत जाने के बाद भी ऐसा लगता है कि अनारकली की भूमिका मधुबाला के सिवा और कोई कर ही नहीं सकता है और इसलिए ही पर्दे पर अनारकली को दोबारा लाने की कोषिष किसी ने भी नहीं की। इस ऐतिहासिक फिल्म में उनकी सुंदरता और अभिनय अद्वितीय है। हालांकि वह अपनी सभी फिल्मों में बहुत ही प्यारी दिखी हैं लेकिन अनारकली की मधुबाला तो उत्कृश्ठ थी। चाहे उस दौरान के परिधान हाें, जेवर हाें, उनका बिना किसी स्टाइल के बाल हाें या बिना मेकअप के उनका चेहरा हो, वह हर मामले में बेजोड़ साबित हुर्इं। नादिरा कहती हैं ‘‘कितनी महिलाएं आठ साल तक इस भूमिका को कर सकती हैं। लेकिन एक बीमार महिला ने कितनी संजीदगी से इस भूमिका को किया और पहले षॉट से आखिरी षॉट तक वह उतनी ही सुंदर दिखी।'' आर. डी. माथुर कहते हैं, ‘‘मधुबाला पूरी तरह फोटोजेनिक थी— हर साइड से और हर ऐंगल से।''

मधुबाला ने जब मुगल—ए—आजम में काम करना षुरू किया तब वह 20 साल की तरुण थीं और उत्साह से भरी थीं। षुरू—षुरू में उन्हें पूरी तरह से यह समझ नहीं थी कि इस भूमिका को किस तरह से करनी है। जब वह सेट पर आर्इं तो हंसी—मजाक और हल्के—फुल्के मूड में थीं। जब षूटिंग षुरू हुई तो अचानक के. आसिफ ने पैक—अप का आदेष दे दिया। के. आसिफ के सहायक निर्देषक सुल्तान अहमद ने बताया कि ऐसा पांच दिनों तक चलता रहा। उन्होंने मधुबाला को बताया कि उनकी भूमिका में अधिक गंभीरता की जरूरत है जबकि वह हल्के—फुल्के मूड में दिखती हैं जो फिल्म की मांग के ठीक उलट है। छठे दिन जब वह सेट पर आर्इं तो उनका मेकअप और परिधान पूरी तरह से बदला हुआ था। उन्हें देखते ही आसिफ ने सिगार का गहरा कस लेते हुए कहा, ‘‘अब तुम मेरी अनारकली हो।'' और उस दिन षॉट ओके हो गया।

जब वह एक बार समझ गर्इं कि उनसे क्या उम्मीद की जा रही है और उस भूमिका की क्या मांग है, तो उन्होंने उस चुनौती को स्वीकार कर लिया। वह उस भूमिका को अधिक महत्व देने लगीं, उस चरित्रा में ही जीने लगीं और खुद को उस भूमिका में ही पूरी तरह से ढाल लिया जिसकी छवि उनके व्यक्तित्व से ही झलकती थी।

मुगल—ए—आजम ने उन्हें खुद को एक पूर्ण अभिनेत्राी के रूप में ढालने का पूरा मौका दिया। यह ऐसी भूमिका थी जिसे करने का सपना सभी अभिनेत्रिायां देखती हैं। इस फिल्म में काम करने का मौका नहीं मिलने पर लव एंड गॉड में के. आसिफ के साथ काम कर रही निम्मी ने एक दिन फिल्म की षूटिंग के अंत में उदासी से कहा, ‘‘एक अभिनेत्राी के रूप में किसी को भी काफी भूमिकाएं करने का मौका मिलता है, भूमिकाओं की कोई कमी नहीं होती है, लेकिन अच्छी एक्टिंग के लिए अच्छा मौका हमेषा नहीं मिलता। मुगल—ए—आजम में मधुबाला दुनिया को यह दिखा सकती है कि वह क्या कर सकती है। हालांकि उन्होंने बसंत में ही अच्छी कलाकार होने की पहचान दे दी थी और मुगल—ए—आजम में उन्हें साबित करना था कि वह अत्यंत उत्कृश्ट दर्जे की अभिनेत्राी हैं।''

इस फिल्म का सेटअप उच्च कोेटि का था। हर कलाकार को अपना टैलेंट दिखाने का पूरा मौका दिया जा रहा था। मधुबाला को किसी अन्य फिल्म में इतनी सष्जनात्मक संतुश्टि नहीं मिली होगी। फिर भी एक अभिनेत्री के तौर पर वह खुद को कमतर ही आंकती थीं। देविका रानी ने कहा था, ‘‘उसकी सुंदरता तो प्रषंसा के लायक थी ही, लेकिन उसमें प्रतिभा तो और भी अधिक थी और उस पर कोई भी प्रष्नचिह्‌न नहीं लगा सकता था''

जैसा कि पहले भी जिक्र किया जा चुका है कि दर्षक इस फिल्म से पहले भी पर्दे पर कई अनारकली को देख चुके थे और इसलिए यह चरित्रा उनके लिए नया नहीं था। ‘‘ये जिंदगी उसी की हैकृकृकृ'' के साथ बीना राय की याद उस समय तक भी दर्षकों के दिमाग में ताजा थी और इस तरह एक जानी—पहचानी और सबके प्रिय चरित्रा को एक बार फिर सफलतापूर्वक जीवंत करना एक चुनौतीभरा कार्य था लेकिन जब मधुबाला के रूप में अनारकली पर्दे पर आई तो दर्षकों का संदेह खत्म हो गया। त्रिआयामी, स्पंदित करने वाली और गुंजायमान। चरित्रा के हर षेड और छटा की प्रषंसा की जा रही थी। तकलीफ और पीड़ा, संदेह, अस्थिरता और दहषत से भरी अभागी अनारकली में नया उत्साह पैदा हो रहा था और उसमें एक षासक को भी हराने की क्षमता आ गई थी। उसका मृत्यु की सजा को षांति पूर्वक स्वीकार करना, आखिरी सीन में महान मुगल षासक द्वारा उस पर उपकार करते हुए उसकी जान बख्ष देने पर उसका निर्जीव सा खड़े रहना और खुषी से उन्मत्त उसकी मां ने जब उसे मुगल षासक का आभार व्यक्त करने के लिए कहा तब भी उसमें किसी तरह की संवेदना नहीं बची थी। उसकी खाली आंखों में कोई अभिव्यक्ति नहीं थी।

यह फिल्म मधुबाला के लिए बहुत महत्वपूर्ण थी। उनकी एक सहयोगी ने कहा, ‘‘उन्होंने इस फिल्म में कड़ी, बल्कि बहुत ही कड़ी मेहनत की और इस फिल्म ने उन्हें बहुत कुछ दिया भी।'' इस भूमिका के लिए अपनी कीमत पर वह जितना दे सकती थीं उससे अधिक दिया। सभी कलाकारों ने इस फिल्म की वास्तविकता की मांग को पूरा करने में निर्देषक को संतुश्ट करने में कुछ असुविधा भी महसूस की। लेकिन मधुबाला ने खराब स्वास्थ्य के बावजूद सबको संतुश्ट किया। बीमारी के बावजूद उनमें गजब का धैर्य और संकल्प की क्षमता थी।

मधुबाला षूटिंग के लिए साधारण सी सफेद साड़ी और ब्लाउज में आती थीं। वह हल्की नारंगी रंग की लिपस्टिक के अलावा कोई मेकअप नहीं करती थीं। उनके नाखून कटे हुए रहते थे और वह नेलपॉलिष भी नहीं लगाती थीं। वह न तो चूड़ियां पहनती थीं और न ही कोई अन्य गहने पहनती थीं। वह हमेषा सिर्फ एक ही गहने पहनती थीं, अपनी एक ऊंगली में एक छोटे से पत्थर युक्त सोने की पतली अंगूठी।

मोहन स्टुडियोे अव्यवस्थित रूप से फैले एक पुराने बंगले और उसके साथ बहुत बड़े बरामदे से घिरा था और वहां हर समय हलचल रहती थी। बगीचे में कुर्सियां रखी होती थीं जिन पर चार लेखक— कमाल अमरोही, एहसान रिज्वी, वजाहत मिर्जा और अमानुल्लाह खान बैठकर चर्चा करते रहते थे। बरामदा कारीगरों और दर्जियों के षोर—गुल से गुंजायमान रहता था। डिजाइनर कला निर्देषक एम. के. सईद के साथ ऊपरी मंजिल पर व्यस्त रहते थे। रात की षूटिंग के लिए स्टुडियो के चारों ओर अतिरिक्त सुरक्षाकर्मी तैनात किए जाते थे। फिल्म में बहुत सारी लड़कियां काम कर रही थीं और आसिफ नहीं चाहते थे कि रात में किसी के साथ कोई बदसलूकी हो। वह बहुत अनुषासित संगठन था। मधुबाला के लिए एक विषेश सुरक्षाकर्मी तैनात किया गया था और वह साउंड स्टेज के बाहर बैठा होता था। उनका भोजन भी उनके घर से ताला बंद टिफिन कैरियर में आता था और उनके भोजन में कोई विविधता नहीं होती थी। उन्होंने कभी स्टुडियो का भोजन नहीं किया और यहां तक चाय भी नहीं पी। इस परम्परा को उन्होंने कभी नहीं तोड़ा।

‘‘संगमरमर की मूर्ति'' के लिए उनका विषेश मेकअप किया जा रहा था। उस मेकअप में घंटों का समय लग रहा था। वह बहुत ही थकाऊ एवं उबाऊ प्रक्रिया थी। उनका चेहरा, भौं और बरौनियों को प्लास्टिसीन से लेपित किया जा रहा था। यह बहुत ही दुखदायी प्रक्रिया थी जिसमें दो से तीन घंटे लगे। उस मेकअप को उतारना भी बहुत दुखदायी था। जिस सीन में अनारकली संगमरमर की मूर्ति के वेष में थी और जिसे सम्राट अकबर, उनकी राजपूत पत्नी जोधाबाई, राजकुमार सलीम और मुगल दरबारियों के समक्ष अनावष्त किया गया, उस फिल्म का मुख्य आकर्शण था। यह विचार काव्यमय और उपन्यासमय था लेकिन अगर यह अविष्वसनीय होता तो यह अपना प्रभाव खो सकता था। पत्थर की सही संरचना को कैप्चर करने के लिए कपड़ों को लपेटा गया, हालांकि यह मोटा हो गया था और भद्दा लग रहा था। फोम रबर की सीट ही सबकुछ बयां कर रही थी। इसलिए मधुबाला को रबर सीट के यार्ड से बनी हुई ड्रेस पहनाई गई। समस्या तो तब खड़ी हुई जब मधुबाला उस परिधान में घुटन महसूस करने लगीं। न तो उस कपड़े से हवा अंदर जा रही थी और न ही वह सांस ले पा रही थीं। उसके बाद उस कपड़े को उतारा गया और उसके पिछले हिस्से में छोटे—छोटे छेद किए गए जो सामने से नहीं दिख रहे थे। हालांकि वह बहुत भारी था और उसे पहनना बहुत मुष्किल था लेकिन फिर भी पहले से बेहतर था और उसका प्रभाव बेजोड़ रहा। उस ड्रेस का हर फोल्ड ऐसा लग रहा था मानो किसी कलाकष्ति को बेहतरीन ढंग से तरासा गया हो। चेहरा पत्थर में सेट हो गया था और पोस्चर स्थिर और मनोहारी था। सम्राट के सामने झुकने के लिए जब मूर्ति ने एक कदम आगे बढ़ाया तो एक क्षण में ही सम्मोहन टूट गया।

मुगल—ए—आजम के लिए मोहन स्टुडियो के दो स्टेज लिए गए थे। एक स्टेज पर सैंकड़ोंं की संख्या में बढ़ई, षीषे वाले कारीगर और अन्य हस्त कारीगरों ने कब्जा जमाया हुआ था जिनका कार्य पूरी षूटिंग के दौरान चलता रहता था। यहां कई परिधानों पर सोने के धागों का पेचीदा जरदोजी काम किया जा रहा था। दुर्गा खोटे के एक विषेश घाघरे को बहुमूल्य पत्थरों से जड़ा गया था जिसका वजन 12 किलो था। वह दोनों हाथों के इस्तेमाल के बिना उसके किनारों को नहीं उठा पाती थीं। उसमें उत्तम किस्म के सिल्क, जरी और मखमल का इस्तेमाल किया गया था। इस फिल्म के लिए सिर के साजोसामान, जूते, पर्दे और पंखे का निर्माण विषेश तौर पर किया गया था और उनमें बेजोड़ कलाकारी की गई थी। सजावट के सामानों को पहले तांबे से बनाया गया और डिजाइन के अनुसार उसके ऊपर चांदी या सोने की प्लेटिंग की गई। एम. के. सईद ने मुगल काल को चित्रिात करने के लिए सेट, परिधान आदि के सैंकड़ों स्केच बनाए। आसिफ किसी भी चीज को देखकर आसानी से संतुश्ट नहीं होते थे लेकिन जब उन्होंने सईद द्वारा बनाए गए मुगल काल की चीजों को देखा तो वह प्रषंसा किए बगैर नहीं रह पाए।

मुगल आजम के कलाकारों ने जो भी आभूशण पहने थे वो सभी लाख के बनाए हुए थे। लाख के इन आभूशणों का निर्माण प्रियदर्षनी पुरस्कार से सम्मानित हाजी इकराम अहमद खान ने अपने पिता के साथ मिलकर की थी।

कला निर्देषक और चलचित्राकार दोनों ही स्थायी स्टाफ थे और जब तक मुगल—ए—आजम बनती रही उन्होंने इतने सालों तक किसी अन्य सिनेमा के लिए काम नहीं किया। उनके पास वक्त ही नहीं होता था। सन्‌ 1951 से 1960 तक सेटों का निर्माण जारी रहा, षूटिंग जारी रही और उसके बाद उन सेटों को सावधानी पूर्वक विघटित कर दिया गया। पिल्लरों, दीवारों, मेहराबों और अन्य संरचनाओं को दोबारा इस्तेमाल के लिए रख लिया गया। ऑयल पेंट किए गए वुडवर्क को हटाने में महीनों का समय लग गया। पूरी फर्ष की भी डिजाइनिंग और पेंटिंग की गई थी।

षीष महल (ग्लास पैलेस) को हटाने में करीब दो साल का समय लग गया। के. आसिफ को ग्लास पैलेस के लिए प्रेरणा जयपुर के अम्बर फोर्ट से मिली। आघा षिराजी को ग्लास वर्क की जिम्मेदारी सौंपी गई। उनके पास दस कुषल षिल्पियों की टीम थी। एक निरीक्षक के अनुसार, ‘‘वे ग्लास की सीट को स्थिर हाथों से इस तरह काटते थे मानो वे बिस्किट हों। स्थानीय रंगीन षीषों की गुणवत्ता उतनी अच्छी नहीं थी। जरूरी सामानों को बेल्जियम से भारी कीमतों में आयात किया गया था। इस पर अधिक खर्च के कारण धन मुहैया कराने वाले मिस्त्राी और आसिफ के बीच कहासुनी हो गई। ईद आ गई और इस अवसर पर मिस्त्राी निर्देषक के घर ईदी के साथ पहुंच गए। अपने दोस्त को षांत करने के लिए उन्होंने बहुत महंगा गिफ्ट दिया। अपने स्टाइल के अनुसार उन्होंने उन्हें सिल्वर सलवार बतौर तोहफा दिया जिस पर कुछ सोने के सिक्के जड़े हुए थे। और साथ में एक लाख रुपये भी भेंट किए। लेकिन आसिफ ने टोकन के तौर पर सिर्फ एक सिक्का स्वीकार किया। उन्होंने बाकी पैसा हक्के—बक्के षापूरजी को वापस दे दिया, यह कहकर कि इसे बेल्जियम से मेरे षीषे लाने में इस्तेमाल करो।

जब मुगल—ए—आजम का निर्माण षुरू हुआ था तब भारत में रंगीन फिल्में बननी षुरू नहीं हुई थीं। सन्‌ 1956 में जब ईस्टमैन कलर की षुरुआत हुई तो आसिफ ने चमचमाते षीष महल के दृष्यों का रंगीन फिल्मांकन करने का निर्णय लिया। सेट करीब 200 फीट लंबा, 80 फीट चौड़ा और 35 फीट ऊंचा था। माथुर याद करते हुए कहते हैं, ‘‘मैंने पहले रंगीन फिल्म का काम नहीं किया था। यह एक दुसाध्य, कठिन और चुनौतीपूर्ण काम था। हर समय निगेटिव को प्रोसेसिंग के लिए लंदन भेजा जाता था। हम अपने कार्य के नतीजे को जानने के लिए वहां से रिपोर्ट आने की प्रतीक्षा करते थे।'' वह बताते हैं, ‘‘चमक—दमक और तड़क—भड़क से भरपूर ऐसे महाविषाल सेट की फोटोग्राफी की कई मुष्किलें थीं। मैं कई रातों को सो नहीं पाया। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि इस सेट पर रौषनी कैसे की जाए। मैंने पिलरों और मेहराबों को फ्लड लाइट से चमका दिया। लेकिन जैसे ही इन पर रौषनी फेंकी जाती थी, रौषनी कार की हेडलाइट की तरह वापस लौट जाती थी। तब मैंने इन पर सीधी रौषनी डालने के बजाय परिवर्तित होकर लौटती हुई रौषनी डाली। रौषनी को पहले रिफ्लेक्टर पर फेंका जाता था और वहां से लौटती रौषनी को पिल्लरों और मेहराबों पर फेंका जाता था। इससे पिलर और मेहराब गर्म नहीं होते थे। एक लांग षॉट लेने में मुझे छह से आठ घंटे लगे।''

षीष महल के सेट की भव्यता ने कई अत्यंत महत्वपूर्ण सख्षियतों को आकर्शित किया। सितारा देवी ने इस सेट पर चीन के तत्कालीन प्रधान मंत्राी चाऊ इन—लाई के सामने नृत्य प्रस्तुत किया। प्रसिद्ध उर्दू कवि फैज अहमद फैज एक मुषायरा के लिए आए और पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्राी जुल्फिकार अली भुट्टो मधुबाला के नृत्य की रिहर्सल देखने आए और उनकी सुंदरता से अभिभूत होकर उन्हें एकटक देखते रह गए।

हालांकि फिल्म की षूटिंग को लेकर आम और खास लोगों में भारी उत्सुकता और जिज्ञासा बनी रही। पत्रा—पत्रिाकाओं में कई रिपोर्टें छपती रहीं लेकिन सभी मीडिया रिपार्टें इसके पक्ष में नहीं थीं। मिसाल के तौर पर द इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया ने षूटिंग की आलोचना करते हुए लिखा, ‘‘आज भी ये लोग इस फिल्म के प्रोडक्षन को लेकर ही उलझे हुए हैं और अपने फिल्मी सपने को पूरा करने के लिए समय, पैसे और सेल्युलॉड की बर्बादी कर रहे हैं। फिजूलखर्ची और अविवेकपूर्ण व्यवसाय का इससे अच्छा उदाहरण कहीं नहीं मिलेगा। इस फिल्म का निर्माण 1952 के आरंभ में ही षुरू हो गया था लेकिन अब तक (1955 तक) फिल्म पूरी नहीं हो पाई है। यह ष्वेत—ष्याम फिल्म है लेकिन इसके सेटों और परिधानों पर चांदी, सोना और महंगे पत्थरों का बहुतायत से इस्तेमाल किया गया है। खबर है कि इस फिल्म पर अब तक 30 लाख से अधिक रुपये खर्च किए जा चुके हैं।''

हालांकि षापूरजी के पास पैसे की कमी नहीं थी लेकिन वह के. आसिफ की इस अतिमहत्वाकांक्षी परियोजना के लिए किए जा रहे अंधाधुंध खर्च को पूरा करने में दिक्कत महसूस कर रहे थे। यही नहीं उन्होेंने पाया कि लाखों रुपये खर्च करने के बाद भी यह फिल्म अधर में लटकी है। उसी समय षीषमहल का सेट विवाद का जड़ बन गया। कुछ लोगों ने षापूरजी को भड़का दिया कि के. आसिफ उनके पैसे बर्बाद कर रहे हैं और उन्हें लूट रहे हैं। इसके बाद षापूरजी ने इस फिल्म का निर्देषन मषहूर फिल्म निर्देषक सोहराब मोदी को सौंपने का निर्णय लिया जो पुकार और सिकंदर जैसी ऐतिहासिक फिल्में बना चुके थे। इस विवाद एवं गतिरोध के कारण फिल्म की षूटिंग रुक गई।

के. आसिफ और षापूरजी के बीच झगड़े को दूर कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले सुप्रसिद्ध संगीत निर्देषक नौषाद ने बताया, ‘‘फिल्म की षूटिंग के दौरान आसिफ साहब को काफी परेषानी का सामना करना पड़ा। षापूरजी का काफी पैसा लग चुका था और फिल्म धीरे—धीरे बन रही थी। मुगल—ए—आजम का सबसे महंगा सेट षीषमहल का था जो बहुत लागत से बनकर तैयार हुआ था लेकिन आसिफ साहब को उस षीषमहल के अंदर षूट करने में यह परेषानी आ रही थी कि षीषों में कैमरा भी आ रहा था जिसके कारण वे परेषान थे। दूसरी तरफ षापूर जी पैसा लगाते—लगाते परेषान थे। एक दिन षापूरजी षीषमहल के सेट पर सोहराब मोदी को लेकर आ गए और कहने लगे, ‘‘देख आसिफ अब यह पिक्चर मोदी पूरी करेगा। अब तेरा—मेरा कोई वास्ता नहीं। इस पर आसिफ ने चुटकी बजाते हुए कहा, ‘‘ठीक है सेठ जो तुम्हारी मर्जी हो वह करो। लेकिन एक बात सुन लो कि इस सेट पर कोई दूसरा डायरेक्टर आया तो मैं उसकी टांग तोड़ दूंगा। षापूरजी बोले, ‘‘तू दादागिरी करता है।'' इस पर आसिफ साहब ने कहा, ‘‘नहीं सेठ, सारी इंडस्ट्री कहती है कि इस सेट का पिक्चराइजेषन नहीं किया जा सकता। मुझे पागल समझा जाता है। मैं इस सेट का पिक्चराइजेषन करके दिखाऊंगा और सबको बताऊंगा कि पिक्चराइजेषन कैसे की जाती है।''

उसी दौरान सोहराब मोदी ने षीष महल के सेट पर टहलते समय के. आसिफ से पूछा कि ‘‘प्यार किया तो डरना क्या '' गीत को पिक्चराइज करने में उन्हें कितने दिन लगेंगे।

‘‘करीब तीस दिन'', आसिफ ने जवाब दिया।

मोदी ने कहा, ‘‘ इसे छह दिनों में पूरा किया जा सकता है।''

‘‘इसे दो दिनों में भी पूरा किया जा सकता है।'' आसिफ ने कहा।

‘‘नानुभाई वकिल (बी—श्रेणी की फिल्मों के निर्देषक) यहां पास में ही रहते हैं। यदि आप उन्हें बुला लेंगे तो मेरा पूरा विष्वास है कि वह इसे दो दिनों में ही पूरा कर लेंगे।'' के. आसिफ के इतना कहने पर मोदी चुप हो गए।

हालांकि निर्देषक के बदले जाने की बात पर मधुबाला भी सामने आ गर्इं और उन्होंने भी निर्देषक बदले जाने की स्थिति में फिल्म में काम करने से मना कर दिया। मधुबाला ने कहा कि उनका करारनामा के. आसिफ के साथ हुआ था।

बाद में षोहराब मोदी ने षापूरजी से कहा कि आसिफ पैसे बनाने के लिए फिल्म को बेवजह लंबा खींच रहे हैं तो षापूरजी गुस्सा हो गए। उन्होंने यह प्रोजेक्ट वापस आसिफ को दे दिया।

के. आसिफ की व्यक्तिगत जिंदगी में पैसों का कोई महत्व नहीं था, वह तो एक बेहतरीन फिल्म बनाना चाहते थे। पैसे कमाने में उनकी कोई रुचि नहीं थी। वह एक दानषील व्यक्ति थे और अपने पैसे गरीब लोगों की बेटियों की षादी या उनके किराये, फीस या इलाज के लिए खर्च कर देते थे। उन्होंने अपने लिए एक कार भी नहीं ली थी और किराये की टैक्सी में ही सफर करते थे। उनके हाथों से लाखों रुपये खर्च हुए और अगर चाहते तो वह अपनी किस्मत संवार सकते थे लेकिन ईमानदार व्यक्ति थे। उनकी ईमानदारी पर षापूरजी इतना विष्वास करते थे कि जब वे फिल्म के कलाकारों को भुगतान करते थे तो आसिफ के नाम भी एक चेक काटते थे जिससे विभिन्न प्रकार के भुगतान किए जाते थे। दोनों के बीच वाद—विवाद और आपसी झगड़ों के वाबजूद दोनोंं के बीच बहुत अच्छा संबंध था और दोनों एक दूसरे का आदर करते थे। दोनों के लिए अच्छी फिल्म बनाना ज्यादा महत्व रखता था। षापूरजी के बेटे इतना खर्च होने के बाद भी फिल्म निर्माण में बहुत देर होने के कारण परेषान थे और अक्सर कहते थे कि इस फिल्म को कूडे़ में डाल दो। अताउल्लाह खान भी इस फिल्म की धीमी षूटिंग और खत्म होने का नाम नहीं लेने वाले अंतहीन षेड्‌यूल्स से नाराज थे। कई बार उन्होंने अपनी बेटी को इस फिल्म से बाहर निकालने की धमकी दी और कई बार जब आसिफ ने उन्हेंं इस फिल्म के महत्व को समझाया तो वे नरम पड़ गए।

मुगल—ए—आजम एक ऐसी फिल्म थी जिसमें लोगों ने अपनी इच्छा से कई प्रकार के त्याग किए। पृथ्वीराज कपूर फिल्म की उस सीन के लिए दोपहर में गर्म रेत पर नंगे पांव चले जिसमें वह अकबर के रूप में सूफी संत सलीम चिस्ती की दरगाह पर एक बेटे या वारिस के लिए प्रार्थना करने गए। यह षॉट तेज धूप में लिया गया था और रेत बहुत ज्यादा गर्म थी। पृथ्वीराज कपूर अपने सिर को झुकाए और हाथों को जोड़े हुए पैदल चलते हुए दरगाह पर गए। उनसे कहा गया था कि रेत पर चलने के दौरान जब उनसे रेत की गर्मी सहन नहीं हो तो वे अपने हाथों को किनारे लाकर इषारा कर दें। आर. डी. माथुर एक क्रेन पर अपने कैमरे के साथ थे और वे पृथ्वीराज कपूर के इषारे का इंतजार करते रहे। लेकिन वह समय कभी नहीं आया। पृथ्वीराज कपूर चलते रहे। उन्होंने उतनी लंबी दूरी बिना रुके ही पूरी कर ली जब तक कि ‘कट' की आवाज उनके कानों तक नहीं पहुंची। आसिफ उनका मनोबल बढ़ाने के लिए अपने जूतों को उतारकर पृथ्वीराज कपूर के पीछे—पीछे चल रहे थे, षॉट पूरा होते ही उन्होंने दौड़कर पृथ्वीराज को गले से लगा लिया। उन्होंने देखा कि पृथ्वीराज के पैर में बड़े—बड़े फफोले पड़ चुके थे।

फिल्म के युद्ध के दष्ष्यों का फिल्मांकन इंदौर के नजदीक सेना के सहयोग और भागीदारी की मदद से पूरा किया गया। युद्ध के दौरान दिलीप कुमार, अजीत और अन्य लोगों को कॉटन वूल के बनियान के ऊपर चमड़े के जैकेट और लोहे के भारी कवच पहनने थे। जब अजीत की मृत्यु का दष्ष्य फिल्माया जा रहा था तो अजीत ने वास्तविकता पैदा करने के लिए कई बार इसकी रिहर्सल की। निर्देषक इसे पूरी तरह से विष्वसनीय बनाने के लिए जब तक रिहर्सल कराते रहे तब तक उन्होंने रिहर्सल किया। सहायक निर्देषक सुल्तान अहमद से अजीत ने फुसफुसाते हुए से कहा, ‘‘मुझे लग रहा है कि जब तक वास्तव में मेरी मृत्यु नहीं हो जाएगी वह (आसिफ) संतुश्ट नहीं होंगे।''

मधुबाला को अपनी हथेली से जलती हुई मोमबत्ती को बुझाना था। जलन का कश्ट चेहरे पर प्रकट नहीं हो इसके लिए उनके चेहरे पर कई बाल्टी पानी डाला गया और उनका लंबे समय तक मेकअप किया गया जो काफी कश्टदायक था। उन्होंने कई डांस रिहर्सल किए जो पूरी तरह से थकाने वाले थे। उन्होंने देर रात तक षूटिंग की। उन्हें उतने विषाल सेट पर चारों तरफ घूम—घूम कर नृत्य करना था जिसके कारण वह एक बार बेहोष हो गई थीं। सबसे कठिन लोहे की विषाल और भारी जंजीर पहनना था और उसे पहनकर कैमरे के सामने हाथों को उठाना था। वह उसे पहनकर थोड़ी दूर चलीं लेकिन उसके बहुत अधिक वजन के कारण वह झुक गर्इं। उन्हें उठाकर वापस लाया गया और दोबारा रिहर्सल हुई। सितारा देवी कहती हैं, ‘‘उस भारी जंजीर को देखकर कई लोगों ने षूटिंग जल्द खत्म करने को कहा लेकिन सारी रात लगातार षूटिंग हुई। उस जंजीर ने उसे मार डाला।''

के. आसिफ जानते थे कि टीम से बेहतर प्रदर्षन किस तरह कराया जाता है। वह टीम को प्रेरित करते थे, खुषामद करते थे और जरूरत पड़ने पर आदेष भी देते थे। सुल्तान अहमद के अनुसार, ‘‘वह हर किसी के साथ उसके स्वभाव के अनुसार ही बर्ताव करते थे। वह महिलाओं के सामने कभी गंदी भाशा का इस्तेमाल नहीं करते थे और न ही कभी खराब व्यवहार करते थे लेकिन काम के दौरान वह किसी की नहीं सुनते थे।'' मधुबाला ने एक बार षीला दलाय (जिसने फिल्म में उनकी छोटी बहन का किरदार निभाया था) से कहा कि वह बहुत भाग्यषाली है कि उसे पहले मौके में ही के. आसिफ जैसे निर्देषक के साथ काम करने का मौका मिला।

षीला कहती हैं, ‘‘जब षॉट तैयार हो रहा होता था तो हमलोग साथ बैठकर बातें कर रहे होते थे। मधुबाला को अन्य स्टारों की तरह अभिमान नहीं था। वह षालीन और षांत थीं। वह बहुत दयालु थीं और मुझसे कभी भी खराब ढंग से बात नहीं करती थीं। वह मुझे कहती थीं कि तुम बहुत सुंदर हो। वे मेरे लंबे बालों की प्रषंसा करती थीं क्योंकि उनके बाल छोटे और बहुत हल्के थे। उन्होंने महल के समय से ही अपने बालों को लंबा नहीं किया। वह हमेषा मुहांसे से परेषान रहती थीं और जब कोई उनके पास आता था तो वह चॉकलेट खाना बंद कर देती थीं। जब मैंने उनसे पूछा कि मैं उन्हें मधुबाला नहीं कह सकती इसलिए क्या कहूं। उन्होंने मुझसे कहा कि तुम मुझे आपा (बड़ी बहन) कह सकती हो। मैं बॉलीवुड में बिल्कुल नई थी और मुझे कोई अनुभव नहीं था इसलिए उन्होंने मेरी जिंदगी, मेरे दोस्तों और मेरे कॉलेज के बारे में मुझसे बातें करके मेरी झिझक को कम करने की कोषिष की। जब षादी की बात आई तो उन्होंने मुझे सलाह दी, ‘‘षीला, उस आदमी से षादी मत करना जिसे तुम प्यार करती हो, बल्कि उस आदमी से षादी करना जो तुम्हें प्यार करता हो क्योंकि एक महिला को अगर उसका पति प्यार करता है तो वह अपने पति से प्यार करने लगती है, लेकिन एक पुरुश।''

उस समय षीला इंदौर में कॉलेज में पढ़ाई कर रही थीं लेकिन जब भी उन्हें षूटिंग के लिए बम्बई बुलाया जाता वह आ जातीं। उन्होंने जो लेक्चर छोड़े होते थे उसे पूरा करने का उन्होंने एक नायाब तरीका ढूंढ लिया था। जब वह षूटिंग के बाद वापस इंदौर लौटतीं तो मधुबाला के ऑटोग्राफ युक्त ढेर सारे फोटोग्राफ ले जातीं और अपने उन दोस्तों को बांटतीं जो उनके लिए नोट लिखती थीं। दिलीप कुमार ने एक बार उन्हें छेड़ते हुए कहा, ‘‘तुम मुझसे मेरे फोटो के बारे में कभी क्यों नहीं पूछती?''

मुगल—ए—आजम में षानदार कलाकृतियां, बेमिसाल भव्यता और उत्कृश्ठ संवाद थे, लेकिन सारी भव्यता एवं उत्कृश्ठता से अधिक गौरवपूर्ण था

कथक मास्टर लच्छू महाराज ने मुगल—ए—आजम के नृत्यों और कव्वालियों के लिए कोरियोग्राफी की। नृत्य की प्रैक्टिस नियमित क्लास के रूप में होती थी। षीला दलाय और अन्य लोग गोपी कष्श्ण के स्कूल में नृत्य सीखने जाते थे जबकि मधुबाला के लिए वह व्यक्तिगत रूप से उनके घर जाते थे।

लच्छू महाराज पूरी प्रक्रिया की निगरानी करते थे। षीला याद करती हैं कि वह मधुबाला को छुए बगैर ही उन्हें अभिव्यक्तियों और डांस मूवमेंट का प्रषिक्षण देते थे। जरूरत पड़ने पर उनकी पत्नी भी आती थीं।

उन्होंने पहले ही कह दिया था कि ‘‘मोहे पनघट पे नंदलाल''' के लिए वह किसी डुप्लीकेट का इस्तेमाल नहीं करेंगे। उन्होंने मधुबाला को खुद ही यह नृत्य करने के लिए प्रषिक्षित किया। और इस तरह यह पूरा नृत्य उन पर ही फिल्माया गया। राधा की भूमिका के लिए उन्हें काफी जेवरात पहनाए गए और घाघरा और चोली परिधान पहनाया गया जो मैजेंटा और हरे रंग का था। वह देवी की तरह दिख रही थीं और उनका नृत्य भी दैवीय था।

नृत्य का प्रषिक्षण काफी लंबा, लगभग दो साल से भी अधिक समय तक चला। मधुबाला क्लासिकल नृत्य की पूरी षिश्या बन गर्इं। हालांकि मधुबाला को चिकित्सकों ने नृत्य के लिए पूरी तरह से मना किया था लेकिन ‘‘प्यार किया ता डरना क्या'' का घिरनी की तरह का नृत्य भी उन्होंने खुद ही किया जिसके लिए उन्हें बार—बार रिहर्सल और कड़ी मेहनत करनी पड़ी। संगीत निर्देषक नौषाद कहते हैं, ‘‘उसने किसी तरह की असुविधा होने या बीमारी का कोई संकेत नहीं दिया। वह अपने काम से पीछे हटने वाली अभिनेत्राी नहीं थी। उसमें कार्य और अभिव्यक्ति की परिषुद्धता थी।''

मन में घर कर जाने वाले कुछ सुंदर गीत श्रोताओं पर अच्छा प्रभाव छोड़ते हैं और कुछ गीतों का फिल्मांकन दर्षकों के दिलोदिमाग पर अमिट छाप छोड़ते हैं। निष्चय ही, ‘‘प्यार किया तो डरना क्या'' और ‘‘मोहे पनघट पे नंदलाल'' मधुबाला/अनारकली के सम्मोहक दष्ष्य के बगैर लोगों के दिलोदिमाग पर इतनी अमिट छाप नहीं छोड़ पाते।

मुगल—ए—आजम के दो क्लासिकल गीत उस्ताद बड़े गुलाम अली खान ने गाए हैं। जब उनसे पहली बार गाने के लिए अनुरोध किया गया तो वह जानते ही नहीं थे कि के. आसिफ कौन है और उन्हें इस पर विष्वास नहीं हुआ कि उनसे किसी फिल्म में गीत गाने का अनुरोध किया जा रहा है। नौषाद को खान साहब के साथ बुलाकर जब उनके सामने फिल्म के लिए गाने की बात की गई तो उन्होंने असंभव समझी जाने वाली राषि 25 हजार रुपये की मांग की। इतनी बड़ी राषि की मांग पर फिल्म के लिए गाने की बातचीत लगभग बंद हो गई। उस्ताद को विष्वास था कि उन्होंने आसिफ को चुप करा दिया है। लेकिन आसिफ के बारे में उस्ताद को यह मालूम नहीं था कि वह उनसे भी बढ़कर हैं। आसिफ ने कहा, ‘‘खान साहब, आप अनमोल हैं। आपने इतने ही पैसे की मांग क्यों की? के. आसिफ की यह जिद्द और दीवानापन देखकर उस्ताद राजी हो गए। उन्हें तानसेन के लिए पार्ष्व गीत गाने थे। आसिफ उनके पास गए और उन्हें एक गाने के लिए एकमुष्त 25 हजार रुपये दिए जबकि उस समय सबसे अच्छे पार्ष्व गायकों को तीन से पांच हजार रुपये ही मिलते थे। राजकुमार के महल में लौटने पर उन्हें ताज पहनाने की तैयारी के दौरान खुषी और आनंद के माहौल में ‘‘षुभ दिन आयो'' को बैकग्राउंड में गाया गया जबकि ‘‘प्रेम जोगन बनकृ'' एक रोमांटिक गीत है जिसे रात के सन्नाटे में तानसेन के रियाज के रूप में दिखाया गया है। इस गाने की तान हवा में फैल रही है और राजसी महल के छज्जे में अपनी प्रेमिका अनारकली से मिलने के लिए राजकुमार खड़े हैं। जब उस्ताद ने इसे पहली बार गाया तो उनकी आवाज अधिक तेज थी और आसिफ के दिमाग में इसको लेकर जो खाका था उस पर खरा नहीं उतर रहा था। हालांकि यह गीत बहुत अधिक तेज नहीं था लेकिन सीन के माहौल के अनुसार वह उपयुक्त नहीं था। आसिफ ने खान साहब से अनुरोध करने में जरा भी झिझक नहीं की कि वह मुलायम लय में गाएं जो रोमांटिक मूड के अनुरूप हो। तब खान साहब ने उस सीन के बारे मेे पूछा और उस सीन को उन्हें दिखाने के लिए कहा। तब सारी रात उसका संपादन किया गया और अगले दिन उन्हें दिखाया गया। बड़े गुलाम अली खान ने उसे देखा और समझने की कोषिष की कि यहां किस तरह की आवाज एवं लय की जरूरत है। उन्होंने तभी यह ठान लिया कि अपनी आवाज के जरिए इस सीन में एक नया प्रभाव पैदा करेंगे। सबको पता है कि इस गीत ने कैसा अद्‌भुत प्रभाव पैदा किया।

कम षिक्षित होने के बावजूद के. आसिफ की समझ और उनका सौंदर्यबोध भी काबिले तारीफ था। जिस सीन की खान साहब ने प्रषंसा की उसकी सबने तारीफ की। आज भी जो इस सीन को देखता है वह इसके भीतर के सौंदर्यबोध और काव्यात्मकता का स्पर्ष करता है। राजकुमार सलीम अपने हाथ में एक बड़े पंख से अनारकली के चेहरे को धीरे—धीरे स्पर्ष कर रहे हैं। यह रात का समय है। पूरे माहौल में पूरी तरह से चुप्पी है लकिन दूर से राग आ रहा है। खामोष वातावरण में बिखरे फूलों की खुषबू के बीच में अनारकली जाग रही है। कोई षब्द नहीं बोला गया। आसिफ का प्रयास खामोषी का ऐसा आभामंडल पैदा करना था जहां एक दूसरे के भावों की अभिव्यक्ति केवल मूड के द्वारा हो और जिसमें बाहरी हस्तक्षेप कम से कम हो। एक दूसरे को स्पर्ष किए बगैर प्यार की ऐसी अभिव्यक्ति दर्षकों के दिल की गहराई में उतर जाती है।

षषि कपूर कहते हैं, ‘‘ऐसे सीन की सफलता काफी हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि इनमें षामिल कलाकार किस गहराई तक एक दूसरे में डूबे हैं।'' दिलीप कुमार और मधुबाला ने भावनाओं की गहराई से प्रगाढ़ता को अभिव्यक्त करते हुए आसिफ के फिल्मांकन में जीवन भर दिया।

फिल्मफेयर द्वारा 1989 में ‘‘हमारी फिल्मों में सर्वाधिक अविष्मरणीय दष्ष्य'' पर कराए गए एक सर्वेक्षण में पता चला कि वर्शों का समय बीत जाने के बाद भी इस सीन का विलक्षण प्रभाव जरा भी कम नहीं हुआ। षम्मी कपूर कहते हैं, ‘‘मैं तब भी महसूस करता था और अब भी महसूस करता हूं कि मुगल—ए—आजम में मधुबाला और दिलीप कुमार के बीच के प्यार के सीन बहुत उत्तेजक थे। विषेशकर वह सीन जिसमें बैकग्राउंड में षास्त्राीय संगीत बजाया जा रहा था। दिलीप कुमार प्रेमातुर मधुबाला को एक पंख से प्रेमस्पर्ष कर रहे हैं, दोनों एक दूसरे को देख रहे हैं, उनमें तीव्र भावात्मकता है, पूरा परिवेष बहुत ही उत्तेजक हो गया था।'' उनके भाई षषि कपूर कहते हैं, ‘‘आप उस सीन की सुगंध हर समय महसूस कर सकते हैं। यह कवि की ऐंद्रियता का रूप है। मेरे पास इसकी उत्कष्श्टता को व्यक्त करने के लिए कोई षब्द नहीं है। यहां तक कि आज भी मैं जब इसे याद करता हूं तो उसी तरह इसकी तीव्रता को महसूस करता हूं जब मैंने पहली बार इसे देखा था।''

लेखक—कवि जावेद अख्तर कहते हैं, ‘‘पूरा विचार, विजुअल इफेक्ट खासकर सीन का लय बहुत ही ऊंचे दर्जे का है। मैंने इस फिल्म को सालों पहले देखा है और मैं अब भी इसे याद करता हूं। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि मेरे दिमाग पर इसका कितना गहरा प्रभाव है।''

निर्माता—निर्देषक सुभाश घई कहते हैं, ‘‘सलीम अनारकली के होठों पर एक पंख रखते हैं और यह संकेत एक चुंबन से अधिक अभिव्यक्ति भरा है। के. आसिफ ने इस सीन की बहुत अच्छी तरह कल्पना की थी।''

इस यादगार प्यार के सीन के बारे में महेष भट्ट कहते हैं, ‘‘जब दिलीप कुमार मधुबाला के मादक चेहरे को एक सफेद पंख से गुदगुदा रहे हैं, तब दोनों चेहरों का बहुत ही अधिक क्लोजअप षॉट लिया गया। यह संभवतः भारतीय पर्दे पर फिल्माया गया सबसे अधिक कामोत्तेजक सीन है।''

दरअसल यह भावनाओं की निश्ठा थी जो कलाकारों की आंखों में झलकती थी जिसने इस सीन के महत्व एवं प्रभाव को बढ़ा दिया। गहरी मानवीय संवेदना को दर्षाने वाले अनेकानेक कलाकारों ने ऐसे सीन को करने का अथक प्रयास किया, लेकिन विषुद्ध अहसास के थोड़े प्रयास के बिना वे अब भी अर्थहीन हैं।

अभिनेत्राी रेखा कहती हैं, ‘‘हिंदी फिल्मों में आमतौर पर षब्दों के जरिए भावनाओं को व्यक्त किया जाता है। लेकिन जो भावनाएंं बिना कुछ कहे ही व्यक्त की जाए वह बोल कर व्यक्त की गई भावनाओं से अधिक सुंदर एवं आकर्शक होती हैं, खास तौर पर प्यार के मामले में। सालों से मेरे सबसे पसंदीदा प्यार का सीन मुगल—ए—आजम में दिलीप कुमार और मधुबाला के बीच का प्यार का सीन है। इस दृष्य में दिलीप कुमार जिस तरह से अपनी प्रेमिका के चेहरे को एक पंख से सहला रहे हैं उससे अत्यंत गहरी कामोत्तेजक भावना का इजहार होता है। बड़े गुलाम अली खान का संगीत मधुबाला के लंबे बालों से गुजरता हुआ दर्षकों को छू जाता है। मधुबाला की आंखों में जिस तरह से भावनाएं बहती हुई प्रतीत होती है उससे यह दृष्य अत्यंत प्रभावकारी बन गया है। दोनों के दिलों में एक दूसरे के प्रति कुछ न कुछ मलाल होने के बावजूद प्यार के इस दृष्य में जो प्रेम का निर्मल एवं स्वच्छ प्रवाह बहता है वह वाकई अविष्वसनीय है।''

इस फिल्म के अंत में प्यार का एक और दष्ष्य है लेकिन उक्त दष्ष्य में भावात्मकता, कामुकता, सौम्यता, प्यार और संबंधों की गर्माहट को जिस खूबी के साथ उजागर करना संभव हुआ है वैसा अंत वाले दष्ष्य में नहीं हो पाया है। वही कैमरा, वही निर्देषक और वही कलाकारलेकिन प्रेम के उसी स्तर के दष्ष्य का दोबारा सष्जन नहीं हो पाया और इसका कारण संभवतः यह है कि कलाकारों के दिलों की बातें उनके अभिनय में आ ही जाती है। उस समय दिलीप कुमार और मधुबाला की निजी जिंदगी में काफी कुछ बदल चुका था और इस कारण एक दूसरे के प्रति पहले जो भावनाएं थीं वह भी बदल चुकी थीं। क्रोध, कामात्त्तेजना, सौम्यता, प्यार और भावनाओं की गर्मी जैसी अनुभूतियों को कैद करना आसान नहीं होता है। जब कलाकारों की निजी जिंदगी में क्रोध की अनुभूति, विष्वासघात और दुख छिपा हो तो उस समय एक्टिंग एकसमान नहीं रह पाती है। आसिफ सौभाग्यषाली थे कि पहले के दष्ष्योें में जैसा वह चाहते थे, वैसा ही हुआ। उन्होंने प्यार के ऐसे दष्ष्य का सष्जन कर दिया जैसा न तो पहले हुआ और न भविश्य में होगा।

षूटिंग को इतना लंबा खींचने के कारण अधिकतर प्रतिभावान और अनुभवी कलाकार भी तनाव और द्वंद्व का षिकार हो गए। निगार सुल्ताना की झल्लाहट के कारण मधुबाला की आंखों से आंसू निकलने लगे और वह दो दिनों तक षूटिंग के लिए नहीं आर्इं। फिल्म में बहार (निगार सुल्ताना) के साथ के. आसिफ के आमोद—प्रमोद के कारण सितारा देवी के साथ उनकी षादी टूट गई। उसके बाद उन्होंने निगार के साथ षादी कर ली। सितारा देवी ने कहा था, ‘‘मुगल—ए—आजम के बनने के दौरान आसिफ और मेरे बीच लगातार हो रही लड़ाई और दिलीप तथा मधुबाला के बीच कोर्ट में चल रही उनकी लड़ाई के कारण पूरा वातावरण अनियोजित, अनियंत्रिात और नाटकीय हो गया था।'' दिलीप कुमार और मधुबाला दोनों ही अपने व्यावसायिक अनुबंध का निर्वाह कर रहे थे लेकिन उनमें बोलचाल बिल्कुल बंद थी। दिलीप कुमार ने अपने अंदर दबी हुई भावनाओं को मधुबाला को थप्पड़ मारने के सीन मेें वास्तव में व्यक्त कर दिया। अजीत याद करते हुए कहते हैं, ‘‘एक सीन में सलीम को अनारकली को थप्पड़ मारना था और दिलीप ने मधुबाला को इस सीन में पूरे जोर से थप्पड़ मार दिया। षॉट ओ. के. हो गया लेकिन उसके बाद वहां चुप्पी कायम हो गई और यूनिट के सदस्य वहां यह जानने के लिए कुछ देर तक खड़े रह गए कि आगे क्या होगा। क्या मधुबाला वहां से चली जाएगी? क्या षूटिंग कैंसिल हो जाएगी?''

वह बताते हैं कि पूरा वातावरण तनावमय हो गया था। मधुबाला के स्तब्ध होकर कुछ प्रतिक्रिया करने या कुछ बोलने से पहले ही आसिफ ने अपने चेहरे पर बधाई के भाव लाकर उनकी प्रषंसा करते हए कहा, ‘‘आज मैं बहुत खुष हूं क्योंकि इस सीन से यह स्पश्ट हो गया है कि वह अब भी तुमसे प्यार करता है। जो आदमी प्यार करता है वह इसी तरह का व्यवहार करता है। इससे सिर्फ यह साबित होता है कि वह तुम्हें प्यार करता है और हमेषा करता रहेगा।'' अनारकली की इस काल्पनिक त्राासदी की छाया मधुबाला की वास्तविक जिंदगी पर उसी समय से पड़नी षुरू हो गई। उस समय उनका जीवन भावनात्मक त्राासदियों से पूरी तरह घिर चुका था। हालांकि उन्होंने अपने जीवन के दर्द को छिपाते हुए फिल्म में अपनी तरफ से बेहतरीन प्रदर्षन किया। उन्होंने अपनी भावनाओं को अपने तक ही सीमित रखा लेकिन उनके दिलों—दिमाग पर जो बीत रहा था उसे लंबे समय तक छिपाना मुष्किल था।

अनारकली और मधुबाला। दोनों में वास्तविक समानता तो बहुत अधिक नहीं थी लेकिन मधुबाला की जिंदगी और उनके पर्दे की भूमिका दोनों ने एक दूसरे को इस कदर ढक लिया कि दोनों को अलग—अलग देखना मुष्किल हो गया। इस फिल्म के गीत और डायलॉग के जरिए जो भावनाएं व्यक्त होती हैं ऐसा लगता है कि ये मधुबाला के खुद के जीवन से प्रेरित हैं और संभवतः यही कारण था कि मधुबाला की पहचान लंबे समय तक अनारकली के रूप में ही होती रही। आज भी इस गीत को सुनकर लोगों की आंखें नम हो जाती हैं और मधुबाला का दारुण चेहरा सामने आ जाता है।

‘‘हमें काष तुमसे मोहब्बत ना होती,

कहानी हमारी हकीकत ना होती।''

प्रसिद्ध कवि षकील बदायूनी द्वारा लिखे इस गीत के हर छंद का असर उनकी व्यक्तिगत जिंदगी पर पड़ा। इस छंद पर गौर फरमाएं—

‘‘तुम्हारी दुनिया से जा रहे हैं

उठो हमारा सलाम ले लो।''

यह गीत मानो मधुबाला के लिए ही लिखी गई थी। कुछ ही दिनों बाद वह इस दुनिया से विदा हो गर्इं। इस कव्वाली के षब्दों का असर भी कम प्रभावी नहीं है—

‘‘मोहब्बत, हमने माना, जिंदगी बरबाद करती है,

ये क्या कम है कि मर जाने पे दुनिया याद करती है

किसी के इष्क में दुनिया लुटाकर हम भी देखेंगे।''

क्या यह अनारकली थी या मधुबाला थी?

साल दर साल गुजरते गए और उन्होंने खुद को मुगल—ए—आजम को पूरा करने में समर्पित कर दिया। बाद के सालों में भारी तनाव के बावजूद इस फिल्म पर उनके तनाव का कोई असर नहीं पड़ा और इस फिल्म में उनकी मेहनत साफ झलकती है। उनकी सफलता स्तुतिगान के योग्य है।

करियर की दष्श्टि से, मधुबाला ने सफलता और प्रसिद्धी की ऊंचाईयों को प्राप्त किया। उन्हें चुनौतीपूर्ण भूमिकाओं के प्रदर्षन में अधिक संतुश्टि मिलती थी। लेकिन दुर्भाग्य ने उन्हें मानो जकड़ रखा था। मुगल—ए—आजम की अनारकली सफलता की मधुर आवाज के साथ—साथ दुर्भाग्य के चेहरे से लंबे समय तक पीछा नहीं छुड़ा सकी। उनके कान नजदीक खड़े मौत के निर्णय से बज रहे थे।

इस फिल्म की षूटिंग 1959 में पूरी हो गई और इसका प्रीमियर 5 अगस्त, 1960 को बम्बई के नवनिर्मित प्रतिश्ठित मराठा मंदिर में हुआ। मुगल—ए—आजम के रिलीज ने उत्साह के ऐसे दृष्य की रचना की जिसे भारतीय सिनेमा के इतिहास में कभी नहीं देखा गया। पूरे देष के 150 सिनेमा घरों में एडवांस बुकिंग की खबर अखबारों की सुर्खियांं बनी। इस खबर के बाद पहली पंक्ति में सीट पाने के लिए बॉक्स ऑफिस की खिड़की खुलने से पहले से ही रात भर हजारों लोग लाइन में खड़े रहते थे। विषेशकर बॉम्बे थियेटर में एडवांस बुकिंग रोकनी पड़ी क्योंकि सात सप्ताह तक बुकिंग हो चुकी थी।

मुगल—ए—आजम ऐसी पहली फिल्म थी जिसकेे लिए अखिल भारतीय प्रेस षो आयोजित किया गया। के. आसिफ ने इस षो के लिए देष भर से 60 प्रसिद्ध फिल्म समीक्षकों को अपने मेहमान के तौर पर बम्बई आमंत्रिात किया। मुख्य अतिथि के तौर पर महाराश्ट्र के तत्कालीन मुख्य मंत्राी वाई. बी. चौहान के साथ प्रसिद्ध फिल्मी षख्सियतों ने इस ग्रैंड प्रीमियर की षोभा बढ़ाई। उसके बाद बम्बई के जहांगीर आर्ट गैलरी में फिल्म निर्माण में इस्तेमाल किए गए विभिन्न प्रकार के सामानों और सम्पत्तियों की प्रदर्षनी लगाई गई।

मराठा मंदिर के ओपेरा हाउस के चारों तरफ के लेन कारों के जमावड़े के कारण बंद हो गए। अजीत कहते हैं, ‘‘मुगल—ए—आजम के प्रीमियर की तरह न तो कभी कोई प्रीमियर हुआ और न होगा।'' वह रात ऐसे समारोह के लिए याद की जाती रहेगी जब वह रात धरती के सितारों से झिलमिला उठी। राज कपूर, षम्मी कपूर, गीता बाली, नसीम बानो, सायरो बानो, वहीदा रहमान, राजेन्द्र कुमार, गुरूदत्त, गीता दत्त, मीना कुमारी, कमाल अमरोही ..... और सैंकड़ों अन्य कलाकार। फिल्म उद्योग पूरे उत्साह के साथ उपस्थित हुआ और आसिफ ने मेजबान की भूमिका निभाई। इस ग्रैंड प्रीमियर के बाद उनके घर पर भी एक षानदार पार्टी दी गई लेकिन आसिफ की टीम वहां निरुत्साहित और उदासी से भरी हुई आई। दरअसल ऐसी खबरें आनी षुरू हो गई कि दर्षकों के बीच इस फिल्म की प्रतिक्रिया बहुत ही ठंडी है। यह फिल्म बेहतर प्रदर्षन नहीं कर रही है। लेकिन आसिफ अकेले ऐसे व्यक्ति थे जो ऐसी खबरों से कतई विचलित नहीं हुए। उनका अपनी इस फिल्म पर पूरा विष्वास था। उन्होंने घोशणा की, ‘‘हमें लंबा इंतजार नहीं करना पड़ेगा। हमें एक सप्ताह का समय दीजिए, यह फिल्म कामयाबियों की ऊंचाइयों को छू लेगी।''

मुगल—ए—आजम इतिहास की सबसे मंहगी फिल्मों की सूची में षामिल हो गई थी। इस फिल्म के निर्माण पर लगभग एक करोड़ रुपये खर्च हुए जबकि उस समय ए—ग्रेड की फिल्म का औसत बजट 10 लाख रुपये से अधिक नहीं होता था। षुरुआत में इसका कोई खरीददार नहीं मिला और यह माना जाने लगा कि यह अपना खर्च कभी वसूल नहीं कर पाएगी। आसिफ नेे हर वितरण क्षेत्रा से 15—17 लाख रुपये मिलने की उम्मीद की थी लेकिन यह बहुत अधिक अपेक्षा थी उस समय केवल एक भारतीय फिल्म 11 लाख रुपये पा सकी थी। उन्होंने इससे कम कीमत पर फिल्म को बेचने से मना कर दिया और आखिरकार उनकी जिद्द रंग लाई और यह फिल्म 17 लाख रुपये प्रति वितरण क्षेत्रा के हिसाब से बिकी। लेकिन इस फिल्म की अभूतपूर्व सफलता के बावजूद के. आसिफ को कोई आर्थिक लाभ नहीं हुआ क्योंकि वह मेेहनताना पर रखे गए निर्देषक थे। इसमें पैसे लगाने वाले सेठ षापूरजी थे और उन्होंने जमकर कमाई की। लेकिन आसिफ के लिए इन सबका कोई महत्व नहीं था। उनके लिए यही काफी था कि वह मुगल—ए—आजम के रचयिता थे और उन्होंने जैसा चाहा इसे बनाया।

1960 के फिल्म फेयर अवार्ड की घोशणा हुई। सभी वर्गों के दर्षकों को लुभाने वाली, सिल्वर और गोल्डन जुबलियां मनाने वाली, बॉक्स आफिस पर सफलता के सभी कीर्तिमानों को तोड़ने वाली फिल्म मुगल—ए—आजम फिल्म फेयर पुरस्कार जीतने की सबसे प्रबल दावेदार थी। लोग यही मानकर चल रहे थे कि यह फिल्म ही सभी पुरस्कार ले जाएगी। लेकिन पुरस्कार के निर्णायक इस फिल्म का सही मूल्यांकन करने में विफल रहे। इसे सिर्फ बेहतरीन सिनेमाटोग्राफर (आर. डी. माथुर), बेहतरीन डायलॉग लेखक और बेहतरीन पिक्चर का अवार्ड मिला। इन तीन में से दो पुरस्कारों को अस्वीकष्त कर दिया गया। इस फिल्म के लिए चार नामी डायलॉग लेखक थे— कमाल अमरोही, वजाहत मिर्जा, अमानुल्लाह खान और एहसान रिज्वी, लेकिन इन चारों में से सभी को अलग—अलग ट्रॉफी नहीं देने का विचार किया गया। के. आसिफ से किसी एक लेखक को चुनने को कहा गया जिसने उनकी नजर में फिल्म में सबसे ज्यादा योगदान दिया हो। उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया और इस तरह यह पुरस्कार रोक लिया गया। के. आसिफ ने सर्वश्रेश्ठ पिक्चर अवार्ड लेने से भी मना कर दिया क्योंकि उन्हें इस पुरस्कार को लेने में कोई अर्थ या तर्क समझ में नहीं आया। उनका कहना था पुरस्कार के निर्णायकों की राय में जब इस फिल्म के कलाकारों ने सर्वश्रेश्ठ अभिनय नहीं किया, जब इसकी अभिनेत्राी ने सर्वश्रेश्ठ प्रदर्षन नहीं किया, जब इसका संगीत अच्छा नहीं है, जब इसके गीत अच्छे नहीं हैं, जब इसका निर्देषन अच्छा नहीं है और कला निर्देषन श्रेश्ठ स्तर का नहीं है तो यह सर्वश्रेश्ठ पिक्चर कैसे बन गई? जब इसमें कुछ अच्छा था ही नहीं तो क्या यह प्रकाष और छाया का खेल था और इसके रंगीन सीन बेहतरीन पिक्चर के योग्य थे? उस साल फिल्म फेयर का बेहतरीन कला निर्देषन का अवार्ड एम. सादिक की चौदहवीं का चांद के लिए दिया गया जिसकी षूटिंग के लिए मुगल—ए— आजम के लिए तैयार किए गए षीष महल के खंभोें और मेहराबों का इस्तेमाल किया गया था। के. आसिफ ने अपने जिगरी दोस्त गुरूदत्त की खातिर षीष महल का इस्तेमाल चौदहवीं का चांद के लिए करने की अनुमति दे दी थी जो फिल्म के निर्माता थे।

नौशाद का प्रभावषाली संगीत विशेष रूप से शास्त्रीय गायक बड़े गुलाम अली खान द्वारा गाये दो गीतों शुभ दिन आयो और प्रेम जोगन के सुंदरी पियो चली में काफी उत्कृष्ट रहा लेकिन उन्हें भी उस साल फिल्मफेयर अवार्ड नहीं मिला बल्कि शंकर—जयकिशन को दिल अपना और प्रीत पराई (1960) के लिए फिल्मफेयर अवार्ड मिला जिससे नौशाद साहब को काफी दुख हुआ।

मधुबाला अपनी जिंदगी में कोई अवार्ड नहीं जीत पार्इं। जबकि अन्य अभिनेत्रिायों को सामान्य प्रदर्षन के लिए भी पुरस्कार मिलते रहे। उनकी आकर्शित कर लेने वाली सुंदरता ही उनकी बैरी बन गई। दर्षकों का ध्यान सिर्फ उनकी सुंदरता पर ही रहा, उनके प्रदर्षन पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। इसके अलावा, उनकी एक्टिंग की गुणवत्ता स्वाभाविक और ऐच्छिक थी। उनके उत्कष्श्ट अभिनय कला और मेहनतपूर्ण एक्टिंग को अनदेखा किया गया। बहुत बाद में उनकी प्रतिभा को पूरी तरह से पहचाना गया और उन्हें प्रषंसा मिली। हालांकि मुगल—ए—आजम में उनके षानदार प्रदर्षन की दर्षकों ने काफी प्रषंसा की और अब भी कर रहे हैं लेकिन उनका प्रदर्षन पुरस्कारहीन रह गया इस कारण फिल्मफेयर अवार्ड भी संदेह के घेरे में आ गया।

बीना राय को रामानंद सागर की घूंघट में उनकी भूमिका के लिए बेहतरीन अभिनेत्राी का अवार्ड दिया गया जो हर तरह से एक सामान्य फिल्म थी। लेकिन मुगल—ए—आजम की मधुबाला ने पुरस्कार के बगैर भी इस फिल्म के साथ अमरत्व हासिल कर ली।

दिलीप कुमार से जब इस फिल्म के बारे में पूछा गया तो वह बहुत भावात्मक हो गए और कहा कि सलीम और अनारकली की प्रेम कहानी ऐसी है कि इस कहानी पर चाहे जितनी बार फिल्म बन जाए वह देखने के काबिल होगी। इस फिल्म के लिए के. आसिफ के प्रयास के बारे में वह कहते हैं कि जब वह फिल्म के प्रीमियर में फिल्म को देख रहे थे तो एक बार भी उन्होंने अपनी आंखों की पलके नहीं झपकायी। जब फिल्म खत्म हुई और हॉल में रोषनी की गयी तो हर कोई आसिफ की तरफ देखने लगा। हमने देखा कि उनकी आंखों में आंसू भरे हुए थे। ये आंसू खुषी के थे।

दिलीप कुमार कहते हैं कि वह इस फिल्म के डायलॉग उन्हें अब भी याद है और वे बिना पढ़े या सुने सारे डायलॉग बोल सकते हैं। उनकी पत्नी सायरा बानो ने कहा कि दिलीप कुमार को इरोज थियेटर में कोई फिल्म देखे 40 साल हो गए हैं।

टाइम्स ऑफ इंडिया ने लिखा था, ‘‘दिलीप कुमार की मुगल—ए—आजम ने मराठा मंदिर में एक रिकार्ड बनाया। यह फिल्म करीब छह साल तक चली जिनमें तीन साल तक हाउस फुल रहा। मराठा मंदिर में मुगल—ए—आजम रिलीज होने से पहले ही छह सप्ताह की एडवांस बुकिंग हो गयी।

उस युग में जब फिल्में कुछ सप्ताह चलकर महीनों या सालों तक वापिस थियेटर में नहीं लगती थीं हमने सुना भी नहीं था कि कोई फिल्म एक सिनेमा हॉल में सिल्वर जुबली (25 सप्ताह) पूरा करेगी।

— टाइम्स ऑफ इंडिया।

बाल्कनी की टिकट 22 रुपये, ड्रेस सर्किल के लिए 20 रुपये और स्टॉल टिकट 18 रुपए की थी। — टाइम्स ऑफ इंडिया

इस फिल्म ने हमारे सिनेमा हॉल में 14 साल पूरे किये और अब भी कार्य दिवस में 60—70 प्रतिषत सीट भरी होती है और सप्ताहांत और छुटि्‌टयों में हाउसफुल का बोर्ड लग जाता है। अगर कोई कहता है कि यह फिल्म अच्छा नहीं कर रही है वह हमारे सिनेमा हॉल में आकर इसकी जांच कर सकता है। — टाइम्स ऑफ इंडिया

इस फिल्म की समीक्षा में फिल्मफेयर ने लिखा था, ‘‘मुगल—ए—आजम'' निर्माता की कल्पनाशीलता, उदार हृदय और कड़ी मेहनत के प्रति श्रद्धांजलि है। इसकी भव्यता, इसकी सुंदरता और कलाकारों के प्रदर्शन के लिए इसे भारतीय फिल्मों में एक ऐतिहासिक होना चाहिए।''

वर्षों बीत जाने के बाद आज भी के. आसिफ की फिल्म मुगले आजम आज भी लोगों के दिलो—दिमाग में ताजा है। बाद के दौर में भी यह फिल्म इतनी महत्वपूर्ण समझी जाती रही कि मषहूर चित्रकार एमएफ हुसैन ने मुगले आजम की भव्यता को रंगों में ढाल कैनवास पर उतरा था। उन्होंने मुगले आजम पर आधारित करीब 50 चित्र बनाए जिन्हें लंदन के एक म्यूजियम में रखा गया है। एम एफ हुसैन का कहना था कि मुगले आजम क्लासिकल फिल्म थी। यह फिल्म उनके दिल के बेहद करीब है और वे निजी तौर पर इससे जुड़े हुए थे। उसी फिल्म पर मैंने ये पेंटिंग बनाई है। उन्होंने कहा कि के आसिफ की याद में ये म्यूजियम है।

उस दौर को याद करते हुए हुसैन ने बताया था कि जब मुगले आजम बन रही थी तो के. आसिफ साहब ने मुझसे कहा कि युद्ध के दृष्य फिल्माने हैं, इसलिए मैं उन्हें युद्ध के समय के स्केच और उसमें पहने जाने वाले कवच वगैरह के स्केच लाकर दूँ। मैंने उन्हें वो स्केच दिए।

हुसैन ने कहा था कि मुगले आजम को दोबारा बनाने के पक्ष में बिल्कुल नहीं हैं। उन्होंने कहा था कि मुगले आजम को दोबारा नहीं बनाया जा सकता। अगर मुझे भी मौका मिले कि मैं मुगले आजम बनाऊं तो भी ये गुस्ताखी मैं कभी नहीं करूंगा।

हुसैन कहते हैं कि मुगले आजम के लिए के. आसिफ चाहिए और इस वक्त के. आसिफ मिलना मुष्किल है। मुगले आजम के निर्माण के लिए जो पैषन, विजन और उत्साह चाहिए वो कहां मिलेगा। एमएफ हुसैन आज भी के. आसिफ के परिवार के बेहद करीब हैं।

के आसिफ के बेटे अकबर आसिफ भी मुगले आजम के दोबारा निर्माण के पक्ष में नहीं है। हालांकि उनका कहना है कि जहां तक मुगले आजम दोबारा बनाने की बात है तो कोषिष करने से तो कुछ भी हो सकता है। लेकिन मैं ये कोषिष कर अपने पिता की रूह को तकलीफ नहीं देना चाहता कि वे तड़पकर कहें कि ये तुमने क्या गलती कर दी। अगर कोई इस फिल्म का दोबारा निर्माण करना चाहे तो दूसरों को करने दें, मैं सिर्फ देखूंगा।

सामाजिक—ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

मुगले आजम के निर्माण काल के दौरान हमारे देश में राजनीतिक एवं सामाजिक तौर अनेक परिवर्तन हो रहे थे और इन परिवर्तनों ने भी फिल्म की कथावस्था को प्रभावित किया। पर मुगले आजम के निर्माण में लगभग एक दषक का वक्त लगा। फिल्म का निर्माण शुरू होने से सिर्फ चार साल पहले 1947 में देष को आजादी मिली थी और देश को मजहब के आधार पर बंटवारे और हिन्दू—मुस्लिम दंगों तथा भारी पैमाने पर रक्त पात की विभीषिका देखना पड़ा। सन 1950 में देष ने नया संविधान स्वीकार किया था। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राश्ट्र की स्थापना हुई और इस संविधान के तहत्‌ 1952 में पहला चुनाव हुआ। इस फिल्म के पूरा होने तक दूसरी लोकसभा भी चुनी जा चुकी थी। दो पंचवर्शीय योजनाएं भी लागू हो चुकी थीं और अवड़ी अधिवेषन में कांग्रेस ने समाजवादी किस्म के समाज के प्रति अपनी आस्था व्यक्त की थी।

मुगल—ए—आजम के ऐतिहासिक एवं सामाजिक संदर्भों पर विचार करते समय उसके निर्माण काल में हुये इन ऐतिहासिक घटनाक्रमों को ध्यान में रखना इसलिए जरूरी है। यह वह दौर था जब हिंदी और दूसरी भाशाओं में लोकप्रिय और कलात्मक फिल्मों का निर्माण अपने उत्कर्श पर था। इन दोनों तरह की फिल्मों में मनोरंजन के साथ—साथ सामाजिक सवालों को भी कथा का विशय बनाया जाता था। वर्ष 1960 में ही कई उल्लेखनीय फिल्मों का निर्माण हुआ था। हिंदी में राजकपूर की फिल्म जिस देष में गंगा बहती है, गुरुदत्त की चौदहवीं का चांद, बी.आर. चौपड़ा की कानून, मनमोहन देसाई की छलिया, विजय आनंद की काला बाजार, राज खोसला की बंबई का बाबू,़ ऋशिकेष मुखर्जी की अनुराधा और बंगला में सत्यजित राय की देवी और ऋत्विक घटक की मेघे ढाका तारा का प्रदर्षन हुआ था। यदि इन फिल्मों पर विचार करें तो हम पाएंगे कि इनमें आदर्ष और यथार्थ, भावना और कर्तव्य, परंपरा और प्रगति का संघर्श स्पश्ट रूप से देखा जा सकता है। साठ के उस दौर में ये मुद्‌दे न केवल महत्वपूर्ण थे बल्कि राश्ट्र के नवनिर्माण में ये चुनौती बनकर उपस्थित थे। इन मुद्‌दों और सरोकारों से मुगले आजम को भी परे नहीं रखा गया। मुगल—ए—आजम में ये सभी मुद्‌दे इतिहास की एक दंतकथा के माध्यम से पेष किये गए थे। लेकिन इनका संदर्भ निष्चय ही आधुनिक भारत था। इस फिल्म से जुड़े के. आसिफ को ऐतिहासिक कथानकों पर फिल्म बनाने में विषेश दिलचस्पी रही है।

इस फिल्म संदर्भ में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इस फिल्म से जुड़े हुए सभी लेखक और निर्देषक न सिर्फ मुसलमान थे बल्कि उत्तरप्रदेष के रहने वाले थे। उत्तरप्रदेष के उर्दूभाशी, षिक्षित अभिजात और मध्यवर्गीय मुसलमानों के एक हिस्से ने बंटवारे के बाद हिंदुस्तान में रहने के बजाय पाकिस्तान जाना मुनासिब समझा। लेकिन इन्हीं वर्गों के इससे भी ज्यादा बड़े हिस्से ने हिंदुस्तान में रहने का फैसला किया। उन्होंने धार्मिक राज्य पाकिस्तान के बजाय धर्म निरपेक्ष और लोकतांत्रिक हिंदुस्तान के प्रति अपनी आस्था जताई और इस बात को अस्वीकार किया कि हिंदू और मुसलमान दो भिन्न राश्ट्र हैं। संभवत यही कारण है कि इस फिल्म में जिस हिंदुस्तान को प्रदर्षित किया गया है उसके पीछे लोकतांत्रिक भारत के प्रति फिल्मकार की आस्था भी व्यक्त हुई है। यह आस्था भारत की मिली—जुली संस्कृति और धार्मिक सहिश्णुता की परंपरा में भी निहित है। फिल्मकार के इस नजरिये को समझे बिना हम मुगल—ए—आजम को एक दंतकथा पर बनी प्रेम—कहानी मात्र समझने की भूल करेंगे।

मुगल—ए—आजम की कहानी मुगल सम्राट अकबर और उसके बेटे सलीम से संबंधित है। सलीम मुगल दरबार में काम करने वाली एक दासी से प्रेम करने लगता है और उससे विवाह करना चाहता है जो अकबर को मंजूर नहीं होता। अकबर और सलीम के बीच युद्ध होता है। सलीम हार जाता है। अनारकली को जिंदा दीवार में चुन दिया जाता है। यह एक लोकप्रिय दंतकथा है। अकबर और जहांगीर से संबंधित जितने भी ऐतिहासिक ग्रंथ और अन्य दस्तावेज उपलब्ध हैं उनसे यह साबित नहीं होता कि अकबर और सलीम के बीच किसी कनीज को लेकर युद्ध हुआ था। यह सही है कि अपने षासन के आखिरी सालों में अकबर और सलीम के बीच काफी मतभेद उभर आए थे। अकबर सलीम के बजाय उसके बेटे खुसरो को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था और इस बात की भनम सलीम को लग गई थी। इसलिए वह एक ओर सैन्य और आर्थिक दृश्टि से अपने को मजबूत करने में लगा हुआ था तो दूसरी ओर उसने उन लोगों के खिलाफ शडयंत्र भी किये जो उसको अकबर के बाद बादषाह बनाने के खिलाफ थे। इनमें अकबरनामा और आइने अकबरी के लेखक और अकबर के बहुत करीबी अबुल फज्ल की हत्या भी षामिल है। एक बार अकबर ने सलीम को कुछ दिनों के लिए राजमहल में ही नजरबंद कर लिया था लेकिन जल्दी ही उसे रिहा कर दिया। सलीम और अनारकली की प्रेमकथा की इस प्रस्तुति में अकबर से संबंधित बहुत सी बातें तथ्यों से मेल नहीं खातीं। मसलन, अकबर की पत्नी का नाम जोधा बाई नहीं था बल्कि हरकुबाई था जो आमेर के राजा भारमल की बेटी और राज मानसिंह की बहन नहीं, बल्कि बुआ थीं। हरकुबाई ही बाद में मरियम उज्जमानी के नाम से प्रसिद्ध हुईं। सलीम इन्हीं का बेटा था। यह सही है कि सलीम का नाम अकबर ने सूफी फकीर षेख सलीम चिष्ती के नाम पर ही रखा था। वह विवाह के सात—आठ साल बाद पैदा हुआ था और उसके लिए उन्होंने आगरा के पास सीकरी के रहने वाले इस फकीर का आषीर्वाद प्राप्त किया था। इसके लिए वह स्वयं उनके द्वार तक गए थे। सलीम का जन्म भी सीकरी गांव में हुआ था। सलीम के प्रति अकबर का विषेश लगाव था जिसे स्वयं जहांगीर ने ‘तुजुक—ए—जहांगीरी' में व्यक्त किया है। वह लिखते हैं— ‘मेरे जन्म के बाद उन्होंने मेरा नाम सुलतान सलीम रखा। लेकिन मैंने अपने पिता के मुख से न बचपन में न बड़े होने पर मुझे मुहम्मद सलीम या सुलतान सलीम के नाम से पुकारते सुना। वह मुझे हमेषा षेखू बाबा कहकर ही पुकारते थे। मेरे जन्मस्थान सीकरी को मेरे पिता अपने लिए बड़ा भाग्यषाली मानते थे इसलिए उन्होंने उसे अपनी राजधानी बनाया था।''

लेकिन अकबर की केवल एक ही संतान नहीं थी, कुल छह संतानें थीं, तीन बेटे और तीन बेटियां। लेकिन जब सलीम को उत्तराधिकार प्राप्त हुआ उस समय उनके दो बेटे मुराद और दानियाल की मौत हो चुकी थी। उस समय के सामंतों के चलन के अनुसार अकबर की भी कई रानियां थीं। उन्होंने आमेर की राजकुमारी के अलावा जैसलमेर और बीकानेर की हिंदू राजकुमारियों के साथ भी विवाह किया था। हिंदू राजकुमारियों के साथ विवाह का जो चलन अकबर के समय में आरंभ हुआ था वह बाद में भी जारी रहा। जहांगीर ने भी कई हिंदू राजकुमारियों से विवाह किया था। जहांगीर की एक पत्नी मानीबाई जोधपुर नरेष की बेटी थी और वह जोधाबाई के नाम से जानी जाती थी। उसी के नाम से फतेहपुर सीकरी में जोधाबाई का महल बना हुआ है। जहांगीर का बेटा खुर्रम जो बाद में षाहजहां के नाम से विख्यात हुआ, इसी जोधाबाई का बेटा था। राजा मानसिंह ने अपनी बहन का विवाह जहांगीर के साथ किया था और खुसरो उनकी बहन का बेटा था जिसे अकबर अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। यह तथ्य है कि राजा मानसिंह को अकबर के दरबार में बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। उन्हें वह स्थान प्राप्त था जो सिर्फ राजकुमारों के लिए सुरक्षित था। अकबर की ओर से उन्होंने कई युद्धों में हिस्सा लिया था। लेकिन इन ऐतिहासिक तथ्यों से कितना मेल खाता है, इस बात की चर्चा हम आगे करेंगे। पहले हम उस बात पर विचार करें कि इस दंतकथा का मूल उत्स क्या रहा होगा।

बहुत मुमकिन है कि सलीम और अनारकली की दंतकथा जहांगीर और नूरजहां (मेहरुन्निसा) के प्रेम—संबंधों से प्रेरित हो। मेहरुन्निसा जहांगीर के ही एक अधीनस्थ सामंत षेर अफगन (वास्तविक नाम अली कुली खां, षेर अफगन का खिताब उसकी बहादुरी से प्रसन्न होकर खुद सलीम ने उन्हें प्रदान किया था) की पत्नी थी जिसकी हत्या के बाद जहांगीर मेहरुनिस्सा से षादी कर लेता है। नूरजहां इतिहास के पन्नों में बहुत ख्यात है। प्रसिद्ध इतिहासविद्‌ आर.पी. त्रिपाठी के अनुसार नूरजहां ने अपने समय के इतिहास को निर्धारित करने में अहम्‌ भूमिका निभाई थी। यह जरूर है कि षेर अफगन से नूरजहां का विवाह अकबर के दौर में ही हो गया था लेकिन उसकी हत्या जहांगीर के षासनकाल (1607) और जहांगीर से विवाह उसके बाद 1611 में हुआ था। नूरजहां पर टिप्पणी करते हुए श्री त्रिपाटी लिखते हैं नूरजहां और जहांगीर की ‘षादी बहुत ही सफल और सुखद साबित हुई। उसने लगातार सम्राट का विष्वास, आदर और प्यार हासिल किया और वह एक योग्य, प्यारी और समर्पित पत्नी और रानी बनी रही। वह एक समाननीय और विषिश्ट परिवार से आई थी और अपने व्यक्तित्व, चरित्र और सुसंस्कृत व्यवहार के कारण उसके अपनी स्थिति और प्रतिश्ठा को और मजबूत किया। प्रो. त्रिपाठी का मानना है कि नूरजहां और सलीम के प्रेम के चारों ओर जिस तरह के मिथक, किस्से और रोमांस का प्रभामंडल पैदा किया गया उसके पीछे षाहजहां के समर्थकों की ईर्श्या और द्वेश की भावना का ज्यादा हाथ था। नूरजहां की खूबसूरती और बुद्धिमता और उसके जीवन के साथ नाटकीय घटनाओं ने हो सकता है कि अनारकली की दंतकथा को जन्म देने में भूमिका निभाई हो। यह विष्वासपूर्वक कहना मुष्किल है कि दंतकथा के पीछे किस तरह के कारण और किस तरह की भावना रही होगी। लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि दंतकथाओं का जन्म यूं ही नहीं हो जाता, उनमें जनभावनाओं और जनमानस का प्रतिबिंब अवष्य होता हैं

इस दंतकथा की लोकप्रियता ने कलाकारों को लगातार आकर्शित किया। 1922 में उर्दू के हास्य—व्यंग्यकार और नाटककार इम्तियाज अली ‘ताज' (1900—70) ने इस दंतकथा को आधार बनाकर ‘अनारकली' नाम का नाटक लिखा था। ‘ताज' के इस नाटक पर 1928 में एक फिल्म का निर्माण हुआ। यह मूक फिल्म थी और इसका नाम था— दि लव्ज ऑफ ए मुगल प्रिंस। इस फिल्म में अकबर की भूमिका स्वयं नाटककार ‘ताज' ने निभाई थी। इसी साल रमाषंकर चौधरी ने इसी दंतकथा को आधार बनाकर अनारकली नामक फिल्म का निर्माण किया। चौधरी की फिल्म को ताज की फिल्म की तुलना में ज्यादा सफलता मिली। चौधरी अपने जमाने के प्रसिद्ध निर्देषक और पटकथा लेखक थे। महबूब इन्हें अपने षिक्षक के रूप में सम्मान देते थे। रमाषंकर चौधरी ने महबूब की प्रख्यात फिल्मों रोटी (1942), आन (1952) और सन ऑफ इंडिया (1962) के लिए पटकथाएं भी लिखी थीं।

सलीम और अनारकली की प्रेमकहानी लगातार फिल्मों में दोहराई जाती रही। अनारकली के नाम से 1953 में बनी फिल्म में प्रदीप कुमार और बीना राय ने सलीम और अनारकली की भूमिका निभाई थी और इस फिल्म का संगीत सी. रामचंद्र ने दिया था। इस फिल्म का संगीत बहुत लोकप्रिय हुआ था। 1953 के दो साल बाद 1955 में तमिल और तेलुगु में भी इसी नाम से फिल्म बनी। 1966 में मलयालम में भी अनारकली का निर्माण हुआ। इस तरह लगभग चार दषकों के बीच इस दंतकथा पर विभिन्न भारतीय भाशाओं में सात फिल्मों का निर्माण हुआ। लेकिन इस दंतकथा पर बनने वाली सर्वाधिक लोकप्रिय फिल्म मुगल—ए—आजम ही थी।

फिल्मिस्तान के लिए नंदलाल के निर्देषन में बनी अनारकली फिल्म के अंत में यह लिखा हुआ आता है कि यह एक काल्पनिक कहानी है और इसका अकबर के इतिहास से कोई संबंध नहीं है। इसके विपरीत मुगल—ए—आजम की षुरुआत ही इस तथ्य को स्थापित करने से होती है कि हिंदुस्तान पर हुकूमत करने वाले मुगल बादषाह से इस कहानी का संबंध है। मुगल—ए—आजम के फिल्मकार को इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि अनारकली की कथा ऐतिहासिक दृश्टि से सच है या नहीं बल्कि उसका मानना है कि कला की दुनिया में इतिहास और दंतकथा को एक—दूसरे से जोड़ा गया है। कहानी पर टिप्पणी करते हुए फिल्म के आरंभ में अंग्रेजी में लिखा हुआ आता है—‘‘जब इतिहास और दंतकथा कला और कल्पना में एक दूसरे से घुलमिल जाते हैं और इस महान धरती की आत्मा अपने संपूर्ण वैभव और सौंदर्य के साथ इनमें निखर उठती है तो इन दोनों का हमारे अतीत से संबंध बन जाता है।

मुगल—ए—आजम का निर्माण करते हुए फिल्मकार ने इतिहास और दंतकथा के पारंपरिक अंतःसंबंधों की नजरों से ओझल नहीं होने दिया है। इस फिल्म में निर्मित अकबर का चरित्र बहुत कुछ वैसा ही है जैसा हमें इतिहास की पुस्तकों में पढ़ने को मिलता है। एक उदार षासक जो हिंदू और मुस्लिम की एकता का जबर्दस्त समर्थक है, जो चाहता है कि इस देष के लोग प्रेम और भाईचारे के साथ रहें। जो धर्म के मामले में न केवल उदार है बल्कि दूसरे धर्मों का उतना ही आदर करता है जितना कि वह इस्लाम का करता है। अकबर ने कई हिंदू राजकुमारियों के साथ विवाह किया, बाद में जिन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया था। हालांकि इन हिंदू राजकुमारियों का परिवार तब भी हिंदू ही बने रहे थे। जैसे कि राजा भारमल की बेटी, जिसका विवाह के बाद नाम मरियम उज्जमानी हो गया था। लेकिन यह भी सही है कि इन हिंदू रानियों को अपने महलों में अपना धर्म और अपने तीज—त्यौहार मनाने की पूरी छूट थी। यही नहीं, खुद अकबर इनमें षामिल होता था। अकबर ने जजिया जैसे बहुत से कर हटा दिए थे जो गैर—गुस्लिमों पर लगाए जाते रहे थे। अकबर धर्म के मामले में न सिर्फ उदार था बल्कि अपने समय को देखते हुए वह कई मामलों में प्रगतिषील भी था। प्रसिद्ध इतिहासविद्‌ इरफान हबीब ने अकबर पर लिखे अपने लेख में बताया है कि किस तरह अकबर ने गुलाम बनाने और उनकी खरीद—फरोख्त को रोकने, जबरन सती—प्रथा पर रोक लगाने, माता—पिता की संपत्ति में लड़कियों को बराबर का हिस्सा दिलाने के प्रयत्न किये।

अकबर ने हिंदू और जैन धर्म के प्रति सम्मान प्रदर्षित करते हुए साल के बहुत से दिनों में पषु हत्या को प्रतिबंधित कर दिया था। यह महत्वपूर्ण है कि अकबर पहला षासक है जिसने राजकाज के मामलों में धर्म के आधार पर भेदभाव को मिटाने की कोषिष की। दूसरे धर्मों के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने का नतीजा था कि उसने ‘दीन—ए—इलाही' के नाम से एक ऐसे पंथ की षुरुआत करने की कोषिष की जो सभी धर्मों के रूढ़िवाद से मुक्त हो। अकबर के सोच और व्यवहार के कारण कट्‌टरपंथी मुसलमान उससे बहुत खुष नहीं रहते थे।

दूसरी चीज जो इस फिल्म में अकबर के साथ जोड़ी गई है वह है हिंदुस्तान के साथ उसका लगाव। फिल्म आरंभ से अंत तक प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हिंदुस्तान के साथ अकबर के लगाव को रेखांकित करती है। इस फिल्म में कथावाचक की भूमिका हिंदुस्तान निभाता है। फिल्म के आरंभ में हिंदुस्तान ही कहानी आरंभ करता है और फिल्म के अंत में हिंदुस्तान ही दुबारा आता है और जो कुछ घटित हुआ उस पर टिप्पणी करता है। फिल्म के आरंभ में हिंदुस्तान के मुख से जो कहलाया गया है उसमें इस देष के प्रति अकबर के लगाव पर बल दिया गया है—

मैं हिंदोस्तान हूं। हिमालय मेरी सरहदों का निगहबान है। गंगा मेरी पवित्रता की सौगंध है। तारीख की इंत्तिदा से मैं अंधेरों और उजालों का साथी हूं और मेरी खाक पर संगेमरमर की चादरों में लिपटी हुई ये इमारतेंं दुनिया से कह रही है कि जालिमों ने मुझे लूटा और मेहरबानों ने मुझे संवारा, नादानों ने मुझे जंजीरें पहना दी और मेरे चाहने वालों ने उन्हें काट फेंका। मेरे इन चाहने वालों में एक इंसान जलालुद्‌दीन मोहम्मद अकबर था। अकबर ने मुझसे प्यार किया। मजहब और रव्वायत की दीवार से बुलंद होकर इंसान को इंसान से मुहब्बत करना सिखाया और हमेषा के लिए मुझे सीने से लगा लिया।''

एक मध्ययुगीन बादषाह को, जिसकी जड़ें भी पूरी तरह से इस देष में नहीं थीं, हिंदोस्तान नाम राश्ट्र के साथ जोड़ा जाना बहुत महत्व रखता है। इस देष के बारे में अकबर के सोच पर टिप्पणी करते हुए इतिहासकार जी. बी. मेलिसन ने लिखा था— ‘‘अकबर का महान विचार यह था कि समस्त भारत का एकीकरण एक मुखिया के अधीन हो। उसने आरंभ में ही यह जान लिया था कि धार्मिक विष्वासों के एकीकरण को सम्पन्न करने के लिए पहली जरूरत विजय प्राप्त करने की थी, दूसरी जरूरत ईष्वर के प्रति सद्‌विवेक और पूजा की सभी पद्धतियों के प्रति सम्मान की भावना थी। उसने अपने साम्राज्य की नींव इतनी गहरी कर दी थी कि उसका पुत्र अपने पिता के समान न होते हुए भी राज्य को विधिवत्‌ संभालने में समर्थ रहा। जब हम इस बात पर विचार करते हैं कि उसने जो किया और जिस तरह के दौर में काम किया और इसे करने के लिए जो तरीका अपनाया तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि अकबर उन महान व्यक्तियों में से था, जिन्हें सर्वषक्तिमान परमात्मा राश्ट्रीय संकट के समय राश्ट्र को षांति तथा सहिश्णुता के मार्ग पर ले जाने के लिए भेजते हैं, जिनके द्वारा ही लाखों—लाख लोगों की खुषियों को सुनिष्चित किया जा सकता है।

आजादी के बाद हमारे राश्ट्रवाद की संकल्पना को अकबर की उदारता और सहिश्णुता के साथ जोड़कर फिल्मकार देखना चाहता है। फिल्म अकबर को एक विदेषी हमलावर के रूप में नहीं देखती बल्कि उसे इस धरती की संतान के रूप में देखती है। फिल्म जैसे यह कहती प्रतीत होती है कि अकबर, जो हिंदुस्तानी मूल का नहीं था वह यदि इस धरती से इतना प्यार कर सकता है तो हम जो इस धरती की ही संतान हैं, चाहे हमारा धर्म कोई भी क्यों न हो, इससे प्यार क्यों नहीं कर सकते! यही वह चीज है जो इस फिल्म में केंद्रीय महत्व रखती है। यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है कि फिल्म में बादषाह अकबर के साथ घटी घटनाएं ऐतिहासिक रूप में सत्य है या नहीं। महत्वपूर्ण यह है कि यह दंतकथा अकबर जैसे महान बादषाह के बारे में है जो इतिहास में अपनी उदारता और सहिश्णुता के लिए प्रख्यात है और जिसने सारे देष को एकता के सूत्र में बांधने का प्रयत्न किया था और इस सच्चाई को समझ चुका था कि इस देष पर षासन तभी किया जा सकता है जब यहां रहने वाले सभी धर्मों के लोगों के बीच बिना किसी तरह का भेदभाव किए व्यवहार किया जाए।

इस फिल्म की षुरुआत में हिंदुस्तान का नक्षा पर्दे पर उभरता है। यह मौजूदा हिंदुस्तान है जिसमें से पाकिस्तान अलग हो चुका है। आजाद भारत औपनिवेषिक गुलामी से मुक्ति हासिल कर चुका है लेकिन साथ ही जिसके दो टुकड़े भी हो चुके हैं। यह विभाजन धर्म के आधार पर हुआ है। हिंदुस्तान ने पाकिस्तान के विपरीत एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देष बनाने का फैसला किया। इस धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य के सामने मौजूद चुनौतियां ही इस फिल्म के अकबर और अनारकली—सलीम की प्रेमकथा को निर्मित करने के कारक बनते हैं। अनारकली पर बनने वाली अन्य फिल्मों से मुगल—ए—आजम का बुनियादी अंतर उसकी इस प्रासंगिकता में निहित है। 1953 की अनारकली में जोर सलीम—अनारकली के प्रेम पर है। इस फिल्म में अकबर की उदारता और हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सद्‌भाव और सौहार्द पर बल है लेकिन फिल्म का कंेंद्रीय विशय सलीम और अनारकली का प्रेम ही है। इस प्रेम के बीच गुलनार (यही गुलनार मुगल—ए—आजम में बहार के रूप में आती है) नाम की स्त्री खलनायिका की तरह मौजूद है, जो सलीम को हासिल करने के लिए तरह—तरह के शडयंत्र करती है और अंततः अनारकली को सजा दिलवाने और जिंदा दफन करने में कामयाब हो जाती है। इसके विपरीत मुगल—ए—आजम में सलीम अनारकली की प्रेमकथा में बल इस त्रिकोण पर नहीं है। इस प्रसंग का इस्तेमाल कथा को आगे बढ़ाने के लिए तो किया गया है लेकिन यहां प्रेमकथा का तीसरा कोण स्वयं मुगल सम्राट अकबर है जो इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है कि वह एक मामूली कनीज को हिंदुस्तान के होने वाले बादषाह (सलीम) की बीबी तस्लीम करे। मामूली कनीज को वह दर्जा कैसे मिल सकता है जो अभिजात वर्ग के लिए सुरक्षित है। यहां खास बात यह है कि अकबर एक राजपूत स्त्री को न सिर्फ अपनी पत्नी बनाते हैं बल्कि उसे महारानी का दर्जा देते हैं और उससे उत्पन्न संतान सलीम (जो इतिहास में जहांगीर के नाम से प्रसिद्ध है) ही हिंदुस्तान का अगला बादषाह बनता है। दंतकथा के अनुसार जोधाबाई जयपुर रियासत के राजा और अकबर के मुख्य सेनापति मानसिंह की बहन है। वह हिंदू है लेकिन षाही खानदान की। अनारकली मुसलमान है लेकिन एक मामूली कनीज है। अकबर धर्म के मामले में उदार हो सकते हैं लेकिन उनका वर्गीय दृश्टिकोण अभिजात हितों से संचालित होता है। सलीम अनारकली की प्रेमकथा में अभिजात बनाम साधारण का संघर्श ही वह मूल तत्व है जो इस कथा का ऐसा ऐतिहासिक सत्य है जो इस दंतकथा की रचना का कारण रहा होगा। अकबर अपने अभिजात हितों को हमेषा हिंदुस्तान की आड़ में पेष करता है। वह सलीम और अनारकली के मुकाबले खुद को और हिंदुस्तान को लाता है। इस प्रकार एक प्रेमकथा के मुकाबले में दूसरी प्रेमकथा है। पहली प्रेमकथा दो इंसानों की प्रेमकथा है लेकिन अकबर का प्रेम हिंदुस्तान नामक राश्ट्र से है। इस प्रकार व्यक्ति प्रेम को राश्ट्र—पे्रम के रूबरू रखा गया है। हिंदुस्तान के प्रति अपने प्रेम और कर्तव्य की दुहाई देकर ही अकबर सलीम को अनारकली से अलग करने की कोषिष करता है। फिल्म इस बात को नहीं छुपाती कि अकबर का राश्ट्रीय हित की दुहाई देना दरअसल अपने वर्गीय हितों की रक्षा करना है।

सलीम और अनारकली का मुसलमान होना इस प्रेमकथा में संघर्श का कारण नहीं बनता। प्रेमकथा में संघर्श का कारण बनता है उनका दो अलग—अलग वर्गों से होना। यह षासक और षासित, राजा और रंक, अमीर और गरीब और मालिक और गुलाम के बीच का संघर्श है। आम तौर पर लोककथाओं में सत्ता और सत्ताविहीन के बीच के प्रेम और उससे उत्पन्न संघर्श को ही केंद्रीय धुरी बनाया जाता है। यहां धर्म को इस संघर्श का आधार नहीं बनाया जाना बहुत महत्वपूर्ण है। अकबर ही नहीं दूसरे बादषाहों द्वारा भी दूसरे धर्मावलंबियों से षादी करना कभी भी बड़ा मुद्‌दा नहीं बना। षर्त सिर्फ यह होती है कि वह दूसरा भी अभिजात वर्ग से हो। यह एक प्रेमकथा का दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु है।

कह सकते हैं कि दंतकथाओं के रूप में इस तरह की प्रेमकथाओं की रचना द्वारा जनता प्रकारांतर से अपने षासक वर्ग की आलोचना पेष करती है। सलीम—अनारकली की प्रेमकथा का अकबर जैसे बादषाह की सत्ता से भी टकरा सकती है, जिसके सामने दूसरे बादषाहों की कोई हैसियत नहीं है। इस तरह इन प्रेमकथाओं के माध्यम से जनता यह एहसास कराती है कि धन और सत्ता की ताकत से भी बड़ी ताकत प्रेम की होती है क्योंकि प्रेम ही है जो गरीब और अमीर, गुलाम और बादषाह के बीच के फर्क को मिटा देता है। लेकिन आम तौर पर इन प्रेमकथाओं का अंत दुखद होता है। या तो दोनों प्रेमी मारे जाते हैं या फिर वह जो धन या बल से कमजोर है। इस प्रेमकथा में भी कनीज अनारकली मारी जाती है और षाहजादा सलीम बच जाता है। सलीम जिसे बाद में हिंदुस्तान का बादषाह बनना है और जिसे नूरजहां सहित कई राजकुमारियों से विवाह करना है। इस प्रकार अनारकली और सलीम की मौत से भी अधिक त्रासद बन जाती है। जहां अनारकली के लिए अपने पिता से जंग करने वाला षाहजादा सत्तासीन होने के बाद न सिर्फ उस कनीज को भूल जाता है बल्कि उसकी स्मृति तक इतिहास से मिटा दी जाती है।

यहां एक प्रष्न उठ सकता है कि एक ऐसी कथा जिसकी ऐतिहासिकता अप्रमाणित हो, उसका इतिहास के संदर्भ में मूल्यांकन करना क्या अर्थ रखता है? क्या सलीम —अनारकली की कथा के माध्यम से अकबर और उसके उसके समय को जानना—समझना संभव है और क्या ऐसा करना उचित है? इस सवाल का उत्तर दरअसल इस दंतकथा की लोकप्रियता में निहित है। दंतकथा की लोकप्रियता ने ही एक नाटककार को उस पर नाटक लिखने के लिए और कई फिल्मकारों को इस पर फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया। जाहिर है कि एक ही कथा को बारबार पेष करना चाहे वह कितनी ही लोकप्रिय क्यों न हो, बुद्धिमानी की बात नहीं है। तब तो और भी नहीं जब इस फिल्म के निर्माण के दौरान ही अनारकली की कथा को लेकर एक लोकप्रिय फिल्म बन चुकी हो। 1953 में बनी अनारकली से पहले मुगल—ए—आजम का काम षुरू हो चुका था। फिल्म निर्माण के दौरान ही अनारकली का प्रदर्षन भी हो गया और उसे पर्याप्त लोकप्रियता भी मिली। इसके बावजूद के. आसिफ ने न सिर्फ इस कथानक पर फिल्म बनाई बल्कि यह भी साबित किया कि फिल्म के पर्दे पर बार—बार दोहराई जाने वाली कहानी को भी इस ढंग से बनाया जा सकता है कि लोग उसे एक बार नहीं बल्कि बार—बार देखना पसंद करें।

इस दंतकथा पर बनने वाली पहले की फिल्मों से मुगल—ए—आजम का बुनियादी अंतर यह था कि मुगल—ए—आजम अनारकली की कहानी ही नहीं बल्कि अकबर की कहानी भी है। अनारकली की प्रेमकथा पर आधारित होते हुए भी यह कहानी अकबर से षुरू होती है और उसी पर समाप्त होती है। मुगल—ए—आजम नाम भी यही साबित करता है जो अकबर के लिए प्रयुक्त किया गया है। अनारकली पर बनने वाली पहली मूक फिल्म का नाम सलीम पर आधारित था। दि लव्ज ऑफ ए मुगल प्रिंस नाम यही बताता है कि यह एक मुगल राजकुमार की प्रेम कहानी है। यानी नाटककार ‘ताज' जिसने अनारकली के नाम से नाटक लिखा था, फिल्म के संदर्भ में अनारकली के बजाय मुगल प्रिंस के प्रेम को अधिक महत्व देते प्रतीत होते हैं। लेकिन मुगल—ए—आजम के अलावा बाद में बनने वाली फिल्मों का नाम अनारकली ही होता है। इस तरह इस प्रेमकथा के तीन प्रमुख पात्रों में से फिल्मकार किस को अधिक महत्व देते हैं यह उस फिल्मकार के नजरिये को समझने का आधार बनता है। मुगल—ए—आजम में सलीम और अनारकली के बजाय अकबर को महत्व देना फिल्मकार के नए नजरिये को बताता है।

मुगल—ए—आजम में अकबर को हिंदुस्तान से जोड़ा जाता है लेकिन एक षासक के रूप में ही नहीं, उसकी परंपरा, मर्यादा और गरिमा की रक्षा करने वाले के रूप में भी। दरअसल फिल्मकार सलीम और अनारकली की प्रेम—कहानी को अकबर और हिंदुस्तान के बीच के संबंधों के रूबरू रखकर दिखाता है। अकबर अपने हर कदम और फैसले को हिंदुस्तान के हक में किए गए फैसले के रूप में रखता है और इस तरह सलीम और अनारकली की प्रेम—कहानी के विरोध का औचित्य वह हिंदुस्तान के प्रति अपने कर्तव्य में खोजता है। अकबर का विचार है कि हिंदुस्तान का होने वाला बादषाह एक मामूली कनीज के प्रेम करे यह उपयुक्त नहीं है। अकबर के इस विचार का विरोध सलीम को छोड़कर सत्ता से भी जुड़े हुए किसी भी व्यक्ति द्वारा होता है। सलीम का राजपूत मित्र दुर्जन सिंह, जो फिल्म में मानसिंह का बेटा बताया गया है, भी उसका साथ इस कारण नहीं देता है कि वह अनारकली से सलीम के प्रेम को उचित मानता है बल्कि इसलिए देता है कि उसके लिए दोस्ती और वचनबद्धता ज्यादा बड़े मूल्य है। इसके विपरीत सलीम और अनारकली के प्रेम का समर्थन उस संगतराष द्वारा किया जाता है जो अकबर के राज में जनता पर होने वाले जुल्म को अपनी कला में ढालता है। संगतराष उस बौद्धिक वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है, जो अपनी कला को तानसेन की तरह दरबार की षोभा बनाना सही नहीं समझता। वह राज्याश्रय प्राप्त कलाकार नहीं है। हम जानते हैं कि अकबर के समय में भक्ति काव्य का का प्रसार हो रहा था और भक्त कवि चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान, राज्याश्रय से विमुख रहे थे। इस संगतराष की परंपरा उस भक्ति आंदोलन से जुड़ती है, जिसमें संत और फकीर राजाओं और सम्राटों की उपेक्षा और विरोध करने का साहस भी दिखा सकते थे। फिल्मकार ने किसी फकीर या भक्त के बजाय संगतराष को इस विद्रोह की बागडोर सौंपी, यद्यपि उसे जिस तरह का चोंगा पहने हुए फिल्म में दिखाया जाता है वह संगतराष को फकीरों—सा आभास दता है। अकबर काल में ऐसे विद्रोही संगतराष की उपस्थिति इतिहास के नजरिए से एक महत्वपूर्ण विचलन है। कला को राज्य का अनुवर्ती बनाने से इनकार करना यदि इसे भक्ति—आंदोलन से जोड़ता है तो संगतराष का नजरिया आधुनिक युग से अधिक संबद्ध है।

संगतराष द्वारा कला में यथार्थ की अभिव्यक्ति मुगल काल का नहीं बल्कि आधुनिक काल का प्रतिनिधित्व करती है। कला में ऐसे यथार्थ की अभिव्यक्ति उस दौर में षुरू ही नहीं हुई थी। लेकिन के. आसिफ अपनी फिल्म में ऐसे कलाकार को रचते हैं जो राजसत्ता के विरोध को कला के माध्यम से वाणी देता है। बाद में वह कलाकार सलीम की मौत की सजा के खिलाफ एक जन प्रदर्षन का नेतृत्व करता है। यहां फिर एक ऐसे जनआंदोलन को पेष किया गया है जो उस मध्ययुग में इस तरह संभव ही नहीं था। इस तरह मुगल—ए—आजम में एक तरफ अनारकली है और दूसरी तरफ अकबर बादषाह है। इन दोनों के बीच का संघर्श ही इस प्रेमकथा को परंपरागत प्रेमकथा से अलग करता है। यह एक षाहजादा और कनीज की त्रासद प्रेमकथा ही नहीं है एक बादषाह की कहानी भी है जो इस प्रेम का विरोध देष की हित की दुहाई देते हुए करता है। अभिजात वर्ग द्वारा अपने हितों को राश्ट्रीय हित समझना एक अनोखी बात नहीं है, हम वर्तमान पूंजीवादी षासक वर्ग में इस बात को बड़े प्रबल रूप में देखते हैं। इस फिल्म में अकबर एक सामंती षासक नहीं है। प्रतीकात्मक रूप से एक बुर्जुआ षासक भी है जो राश्ट्रीयता की दुहाई देते हुए गैरबराबरी (एक षाहजादा और कनीज को एक होने से रोकना) का औचित्य साबित करना चाहता है। मुगल—ए—आजम षासक वर्ग के इस जनविरोधी नजरिये का न सिर्फ समर्थन करती है बल्कि उसे गरिमामंडित भी करती है।

इसके बावजूद फिल्म की विषेशता यह है कि वह अभिजात वर्ग के विरोध में सक्रिय वर्ग—षक्तियों की सही पहचान करती है और उनकी भावनाओं और विचारों को कलागत ईमानदारी से पेष करने का प्रयत्न करती है। फिल्म यह भी बताती है कि अकबर का षासन चाहे जिनता उदार, सहिश्णु और पूरे राश्ट्र को एकता के सूत्र में बांधकर रखने वाला क्यों न हो, अंततः वह एक खास वर्ग के हित में काम करने वाला षासन है। यदि उसका विरोध किया जाना है तो वह सिर्फ वर्गीय नजरिए से संभव है। यह विरोध करते हुए भी उन मूल्यों की रक्षा किया जाना जरूरी है, अकबर का षासन जिसका प्रतीक है। अकबर के षासन के जिन मूल्यों को यह फिल्म खास तौर पर महत्व देती है वह है धार्मिक सहिश्णुता, हिंदु—मुस्लिम एकता, सभी के लिए समान न्याय और अपनी जनता के हित के लिए कार्य करना। इस प्रकार एक निरंकुष सामंती षासन और एक धर्मनिरपेक्ष, जनहितैशी और न्यायप्रिय षासक के बीच का द्वंद्व ही है जिसका इस फिल्म में अत्यंत कौषल और समझदारी के साथ चित्रण किया गया है। इस फिल्म की प्रासंगिकता और महत्व इसी द्वंद्व में निहित है।

हिन्दुस्तान की कहानी : प्रतीकों की जुबानी

मुगले आजम में सत्ता और इंसाफ के बीच के द्वंद, हिन्दुस्तान के प्रति अकबर के प्रेम और सर्वधर्म सदभाव को दिखाने तथा फिल्म के जरिये सार्थक संदेश देने के लिये सगंतराश, तराजू और कृष्ण प्रतिमा जैसे दो प्रतीकों का बेहतरीन इस्तेमाल किया गया है। संगतराश फिल्म के आरंभिक हिस्से में तब आता है जब बहार नाम की कनीज (निगार सुलताना) संगतराश के पास जाती है और उससे सलीम के लिए मुजस्समा (मूर्ति) बनाने के लिए कहती है। संगतराष जवाब में कहता है कि ‘‘मेरे बनाए हुए मुजस्समे षहनषाहों को पसंद नहीं आएंगे।'' बहार पूछती है, ‘‘क्यों?'' वह जवाब देता है— ‘‘क्योंकि ये सच बोलते हैं।''

कला में सच की अभिव्यक्ति का यह आग्रह कला के प्रति आधुनिक दृश्टिकोण का परिणाम है। कला में ऐसे यथार्थ को अभिव्यक्त करना जिनमें जन भावनाओं और नजरिए की भी अभिव्यक्ति हो, यथार्थवाद के प्रभाव का परिणाम है। वह दीवारों पर बने प्रतिमा—चित्रों को दिखाता है जिनमें सामंती सत्ता के सच को उकेरा गया है। इस सच को अभिजात वर्ग के नजरिए से नहीं बल्कि जनता के नजरिए से देखा गया है। पहला चित्र बादषाह के दरबार का है जहां बादषाह न्याय—अन्याय का निर्णय लेते हैं। इस चित्र पर टिप्पणी करते हुए संगतराष कहता है— ‘‘षहंषाह की जबान से नकला हर लफ्‌ज इंसाफ है, जिसकी कोई फरियाद नहीं।'' दूसरे चित्र में मैदाने—जंग का चित्रण किया गया है। इस पर टिप्पणी करते हुए संगतराष कहता है— ‘‘और ये मैदाने—जंग है ..... लाखों लोगों की मौत और एक इंसान की फतह''। तीसरे चित्र में हाथी के पैरों तले एक आदमी को कुचलता हुआ दिखाया गया है, जिस पर टिप्पणी करते हुए संगतराष कहता है— ‘‘और ये है, सच बोलने का अंजाम, सजा—ए—मौत। बहार इन चित्रों पर टिप्पणी करते हुए कहती है— ‘‘ये सच नहीं है, संगतराष, ये एक कलाकार का तंज है।''

संगतराष के बनाए हुए चित्र और उस पर की गई उसकी टिप्पणियां मध्ययुगीन कला का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं और न ही मध्ययुगीन सोच का। यहां तक कि कबीर जैसे क्रांतिकारी कवियों में भी राजसत्ता के विरोध की वह चेतना नहीं है जो इस संगतराष में दिखाई देती है। यहां फिर फिल्मकार ने मध्ययुग में आधुनिक युग को समाहित कर दिया है। एक सामंत चाहे वह कितना ही सहिश्णु, उदार और न्यायप्रिय क्यों न हो, उससे न्याय की आषा करना व्यर्थ है। यह इसलिए भी संभव नहीं है क्योंकि सामंती व्यवस्था में सारे निर्णय एक व्यक्ति के विवेक (और अविवेक) पर निर्भर होते हैं। सामंतषाही की यह आलोचना आधुनिक और जनवादी आलोचना है। दूसरे चित्र में युद्धों का विरोध किया गया है। संगतराष का नजरिया यह है कि मध्ययुगीन युद्ध न देष—हित में और न समाज—हित में लड़े जाते थे। उसमें दोनों पक्षों में मारे जाने वाले लोगों को इन युद्धों से कुछ नहीं मिलता, यदि किसी को कुछ मिलता है तो वह बादषाह है जो इन युद्धों के द्वारा अपने राज्य और सत्ता का विस्तार करता है। अकबर ने भी ऐसा ही किया था। इतिहासकारों ने लिखा है कि अकबर का यह मानना था कि निरंतर युद्ध और साम्राज्य विस्तार द्वारा ही अपने षान को सुरक्षित रखा जा सकता है।''

संगतराष के चित्र में व्यक्त युद्ध विरोधी यह नजरिया आधुनिक है। असका अकबर के साथ खास तौर पर संबंध जोड़ना बहुत उचित नहीं है क्योंकि दूसरे सामंती षासकों की तुलना में अकबर ने युद्धों में निरपराध नागरिकों की हत्या करने, उनको लूटने, स्त्रियों को हवस का षिकार बनाने और विजित लोगों का धर्म—परिवर्तन कराने पर प्रतिबंध लगाए थे। लेकिन इस चित्र का औचित्य इस बात में निहित है कि वह षासकों के युद्धों के पीछे की मानसिकता को उजागर करता है। यह षांति और सद्‌भावना का वह नजरिया है जिसे गांधी और दूसरे प्रगतिषील विचारकों ने लगातार सामने रखा था। यहां संगतराष उसी नजरिये को सामने रखता है। बहुत संभव है कि यह षीतयुद्ध दौर के उस षांति—आंदोलन का भी प्रभाव हो जो इस फिल्म के निर्माण के समय अपने उत्कर्श पर था और जिसमें उस समय के उर्दू और हिंदी के बहुत से लेख—कवि सक्रिय थे। मुगल—ए—आजम की पटकथा और संवाद लिखने वाले उर्दू लेखकों का उस समय की की तरक्कीपसंद तहरीक से कितना और किस तरह का संबंध था इसे जानने से इस पहलू पर रोषनी पड़ सकती है। तीसरा चित्र सीधे—सीधे सामंती उत्पीड़न का प्रतीक है और इस तरह की सजा देने का चलन अकबर के राज में भी था, जिसे संगतराष सच बोलने का अंजाम कहता है। संगतराष का यह कथन यहां इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की यह चेतना कलाकारों में एक आधुनिक अवधारणा है। बाद में एक प्रसंग में यह फनकार अकबर से अपनी कला के खुले प्रदर्षन की मांग करता है।

मुगल—ए—आजम की पूरी पटकथा इन्हीं तीन चित्रों के इर्दगिर्द बुनी गई है। अकबर द्वारा एक कनीज की मौत की सजा देना उस चित्र के माफिक है जिसमें बताया गया है कि ‘‘षहनषाह की जबान से निकला हर लफ्‌ज इंसाफ है जिसकी कोई फरियाद नहीं।'' अनारकली के लिए सलीम और अकबर में युद्ध होना जंग के उस चित्र की तरह है जिसके बारे में संगतराष कहता है, ‘‘और ये मैदाने जंग है, लाखों लोगों की मौत और इंसान की फतह।'' अनारकली का दीवार में चुनाव दिया जाना उस तीसरे चित्र के समान है जिसके बारे में संगतराष कहता है, ‘‘और ये है सच बोलने का अंजाम, सजा—ए—मौत।'' इस प्रकार मुगल—ए—आजम फिल्म एक साथ अकबर के बारे में दो विरोधी नजरिए को अपने में समाहित किए हुए चलती है। राश्ट्रवादी नजरिए को अपने में समाहित किए हुए चलती है। राश्ट्रवादी नजरिए से यदि अकबर एक महान सम्राट है तो वर्गीय नजरिए से वह एक निरंकुष सामंत है। फिल्म मं दोनों में से किसी का निशेध नहीं किया गया है। फिल्म दोनों के प्रति ईमानदार रहते हुए एक कलात्मक संतुलन की सष्श्टि करती है। इन दोनों के द्वंद्व में ही इस फिल्म की सफलता और लोकप्रियता निहित है।

राज—दरबार में संगतराष की यथार्थवादी कला की क्या कद्र हो सकती है। बहार उससे ऐसे मुजस्समा का आग्रह करती है जो साहिबे आलम को प्रभावित करे। संगतराष इसके लिए तैयार हो जाता है। वह इस चुनौती को स्वीकार करते हुए कहता है, ‘‘मैं ऐसा बुत बनाउंगा जिसके आगे सिपाही अपनी तलवार, षहनषाह अपना ताज और इंसान अपना दिल निकालकर रख दे।'' लेकिन संगतराष ऐसा बुत नहीं बनाता। वह बुत के बजाय नादिरा नाम की एक खूबसूरत कनीज को बुत बनाकर खड़ा कर देता है। यहां फिर यथार्थ के प्रति उसका आग्रह स्पश्ट झलकता है। षायद यह कहना चाहता है कि यथार्थ में निहित सुंदरता कला की सुंदरता की तुलना में कहीं ज्यादा प्रभावषाली होती है। किसी स्त्री का बुत वास्तविक स्त्री से ज्यादा सुंदर नहीं हो सकता। संगतराष की स्त्री—प्रतिमा की सुंदरता को सुनकर सलीम अपनी उत्सुकता नहीं रोक पाता और वह रात के अंधेरे में चुपके से अपने दोस्त दुर्जन सिंह के साथ उसे देखने जाता है। बहार और और अन्य कनीजें भी उसके साथ होती हैं।

सलीम बहार से कहता है, ‘‘हमें देखकर यह कौन छुप गया है बहार।'' बहार कहती है, ‘‘छुपा नहीं छुपाया गया है साहिबे आलम। संगतराष का यह दावा है कि जब यह मुजस्समा बेनकाब होगा तो''। बहार इतना कहकर रुक जाती है। सलीम कहता है, ‘‘बेखौफ होकर कहो। कभी—कभी दावे दिलचस्प भी हुआ करते हैं।'' बहार आगे कहती है, ‘‘उसका यह दावा है कि इस मुजस्समे को देखकर सिपाही अपनी तलवार, षहंषाह अपना ताज और इंसान अपना दिल निकालकर उसके कदमों में रख दे।'' सलीम कहता है, ‘‘संगतराष का दावा दिलचस्पी की हदों से आगे बढ़ गया है। हम उसके फन का गुरूर देखना चाहते हैं।''

उसी समय दुर्जन सिंह उसे मूर्ति को देखने से रोकता है और कहता है, ‘‘महाबली का यह हुक्म है कि साहिबे आलम इस मूर्ति को न देखें''। सलीम पूछता है, ‘‘क्यों?'' दुर्जन सिंह कहता है, ‘‘राज ज्योतिशी का यह कहना है कि आज रात चंद्रमा के ढलने से पहलेे षहजादे का किसी मूर्ति को दखना बना अषगुन होगा। नकाबपोषाई कल सुबह महाबली के सामने होगी। सलीम कहता है, ‘‘संगतराष का दावा, राज ज्योतिशी का षगुन और इस मुजस्समे पर पड़ा नकाब। हम उस वक्त तक इंतजार कैसे करेंगे दुर्जन।'' सलीम मुजस्समे पर पड़े पर्दे को हटाकर मुजस्समे को देखता है।

उस कथित प्रतिमा को देखकर वह दुर्जन सिंह को कहता है, ‘‘संगतराष का दावा यकीनन सही था। बेषक इस बेपनाह हुस्न को कोई पत्थर ही हिला सकता है। बुतों की खुदाई तस्लीम करने का जी चाहता है।'' इस पर दुर्जन सिंह सलीम को सावधान करते हुए कहता है, ‘‘साहिबे आलम पर बुतपरस्ती का इल्जाम लग जाएगा।'' इस्लाम में बुतपरस्ती को पाप समझा गया है। सलीम मुसलमान होने के कारण मूर्ति—पूजा को स्वीकार करने की बात नहीं कर सकता। लेकिन वह कनीज बनी मूर्ति के सौंदर्य को देखकर अपनी भावना नहीं रोक पाता और एक ऐसी टिप्पणी करता है जो धर्म के भले ही प्रतिकूल हो लेकिन जिसमें सलीम के दिल की आवाज झलकती है। वह दुर्जन सिंह की बात पर टिप्पणी करते हुए कहता है, ‘‘मगर वफापरस्ती की दाद भी मिल जाएगी।'' कनीज के सौंदर्य से खुद बादषाह अकबर प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। उस ‘‘बुत'' की प्रषंसा करते हुए वह कहते हैं, ‘‘षुभानल्लाह मालूम होता है जैसे किसी फरिष्ते ने आसमां से उतरकर संगमरमर में पनाह ले ली है।'' अकबर भी कमोबेष वही बात दोहरा रहा है। अकबर भी पत्थर की मूर्ति में देवताओं के होने की कल्पना करता है। अकबर और सलीम के मुख से की गई ये टिप्पणियां बहुत अहम्‌ है। मुगल—ए—आजम में अकबर न सिर्फ मूर्ति और चित्रकला को बढ़ावा देते हुए दिखाए गए हैं, बल्कि बुतपरस्ती के प्रति भी उनमें सम्मान का गहरा भाव दिखाया गया है।

इंसाफ का तराज

इंसाफ के जिस तराजू को बादषाह अकबर की न्याय—व्यवस्था का प्रतीक बनाया गया है, वह न्याय—व्यवस्था एक मामूली कनीज को न्याय देने में असमर्थ है। मुगल—ए—आजम में न्याय—व्यवस्था का प्रतीक तराजू साझा संस्कृति में प्रतीकों से कम महत्वपूर्ण नहीं है। फिल्म में इस तराजू को किले की खुली जगह पर रखा बताया जाता है और उसका आकार इतना बड़ा होता है कि अकबर भी उसके सामने बौने नजर आते हैं। इस तरह फिल्मकार षायद यह बताना चाहता है कि इंसाफ का यह तराजू किसी राजा की हैसियत से बहुत बड़ा है। अकबर की नजर में इंसाफ की कीमत आदमी की निजी सत्ता से कहीं ज्यादा है। यह तराजू पहली बार तब सामने आता है जब एक कनीज आकर उन्हें यह खुषखबरी सुनाती है कि जोधाबाई ने एक बेटे को जन्म दिया है। अकबर उस समय इसी इंसाफ के तराजू के नजदीक चिंतामग्न खड़े हैं। यह खबर सुनकर वह आह्‌लादित हो जाते हैं और उस कनीज को अपने हाथ से अंगूठी उतार कर इनाम के तौर पर देते हैं और उस तराजू को छूकर वचन देते हैं कि ‘‘इंसाफ के इस मुकद्‌दस (पवित्र) तराजू की कसम, जिन्दगी मेें एक बार जो भी मांगोगी, अता किया जाएगा।'' यह कनीज उस अनारकली की मां है जो बाद में इस पूरी दंतकथा की नायिका बनती है। यही तराजू दूसरी बार तब आता है जब किषोरवय सलीम इसके पलड़े पर बैठा षराब पी रहा है और रंगरेलियाें में मस्त है। इस कारण इंसाफ का प्रतीक यह तराजू हिचकोले खाने लगता है। उसकी हस हरकत को देखकर राजा मानसिंह उसे डांटते हुए कहता है, ‘‘ये तराजू आपके खेलने की चीज नहीं है।'' जाहिर है कि इस तरी सलीम की हरकतों में इंसाफ की मुगलिया परम्परा को धक्का पहुंचने का संकेत दिया गया है। फिल्म के अंतिम दृष्य में यह तराजू एक बार फिर आता है जब अनारकली की मां इंसाफ का हवाला देतेे हुए वह अंगूठी दिखाती है जो बरसों पहले सलीम ने जन्मदिन पर अकबर ने दी थी और एक बार कुछ भी मांगने और उसे पूरा करने का वचन दिया था। अकबर को एहसास होता है कि सत्ता के मद में वह इंसाफ को भूल गया है। इसके बाद के दृष्य मेें, जो फिल्म का अंतिम दृष्य भी है, हम देखते हैं कि सुरंग में अकबर अनारकली की मां का हाथ पकड़कर ले जा रहा है और वहां अनाकरली को जिंदा उसकी मां को सौंपता है। दुनिया के नजरों में अनारकली को दीवार में जिंदा चुन दिया गया है लेकिन असल में उसे सुरंग के रास्ते अपने परिवार के साथ मुगल सल्तनत के बाहर भिजवा दिया गया है। इस प्रकार फिल्म अनारकली से संबंधित एक लोकप्रिय दंतकथा में भी अपने ढंग से परिवर्तन कर देती है। 1953 में बनी अनारकली में अनारकली दीवार में चुन दी जाती है। हालांकि इस फिल्म में भी अकबर अनारकली की सजा अंतिम क्षणों में माफ कर देता है, लेकिन यह खबर अनारकली तक समय पर नहीं पहुंच पाती।

हिन्दुस्तान का नक्शा

फिल्म में हिंदुस्तान के साथ अकबर के लगाव को दिखाने की पूरी कोशिश की गयी है और इसके लिये हिन्दुस्तान के नक्शे का इस्तेमाल किया गया है। इस फिल्म में कथावाचक की भूमिका हिंदुस्तान निभाता है। फिल्म के आरंभ में हिंदुस्तान ही कहानी आरंभ करता है और फिल्म के अंत में हिंदुस्तान ही दुबारा आता है और जो कुछ घटित हुआ उस पर टिप्पणी करता है। फिल्म के आरंभ में हिंदुस्तान के मुख से जो कहलाया गया है उसमें इस देष के प्रति अकबर के लगाव पर बल दिया गया है।

मुगल—ए—आजम में अकबर को हिंदुस्तान से जोड़ा जाता है लेकिन एक शासक के रूप में ही नहीं, उसकी परंपरा, मर्यादा और गरिमा की रक्षा करने वाले के रूप में भी। दरअसल फिल्मकार सलीम और अनारकली की प्रेम—कहानी को अकबर और हिंदुस्तान के बीच के संबंधों के रूबरू रखकर दिखाता है। अकबर अपने हर कदम और फैसले को हिंदुस्तान के हक में किए गए फैसले के रूप में रखता है और इस तरह सलीम और अनारकली की प्रेम—कहानी के विरोध का औचित्य वह हिंदुस्तान के प्रति अपने कर्तव्य में खोजता है। '

फिल्म के अंत में एक बार फिर हिंदुस्तान का चित्र उभरता है। लेकिन यह हिंदुस्तान अकबर के समय का है। वह हिंदुस्तान जिसकी सरहदें अफगानिस्तान तक जाती है। हिंदुस्तान बताता है कि किस तरह उसको चाहने वाले बादषाह अकबर ने अनारकली को जिंदगी बख्श दी और बदनामी का दामन अपने पर ले लिया। सिर्फ इसलिए कि वह हिंदुस्तान से और अपने उसूलों से प्यार करता था। एक बादषाह के अपने देष से और अपने सिद्धांत से प्यार की कीमत एक मामूली कनीज को सिर्फ अपना प्यार देकर नहीं बल्कि अपनी जिंदगी देकर चुकानी पड़ती है। वह जिन उसूलों की बात करता है उनमें बराबरी की बात शामिल नहीं है। यह गैरबराबरी किसी धर्मनिरपेक्ष और बहुलतावादी सत्ता को भी लंबे समय तक सुरक्षित नहीं रख सकती। यह बात जितनी अकबर के समय के लिए सत्य है, उससे कहीं ज्यादा आज के लिए सच है। मुगल—ए—आजम जैसी लोकप्रिय और कालजयी फिल्म को इस नजरिये से भी देखा जाना चाहिए।

कृष्ण की प्रतिमा

फिल्म में मुस्लिम होते हुये भी हिन्दू धर्म के प्रति उसकी सहिष्णुता को प्रदर्शित करने के लिये कृष्ण की प्रतिमा का सहारा लिया गया है।

फिल्म के मधुबाला के अवतरित होने के बाद जो दृष्य आता है उसमें कृश्ण जन्माश्टमी के मौके पर पूजा के अवसर पर महारानी के साथ अकबर को न केवल मौजूद रहते हुये बल्कि बाल कष्श्ण को झूला भी झुलाते हुये दिखाया गया है। जोधाबाई एक हिंदू स्त्री की तरह उनको तिलक करती है और प्रसाद देती है। स्वयं अकबर वहां हिंदू पति की दिखते और आचरण करते नजर आते हैं।

यही नहीं अनारकली जब पहली बार दरबार में गाती है तो वह कृश्ण के जीवन से संबंधित प्रसंग पर गाती है, ‘‘मोहे पनघट पे नंदलाल छोड़ गयो रे।'' इस गीत पर ब्रजभाशा का असर साफ तौर पर देखा जा सकता है। भक्ति काव्य में ब्रजभाशा का संबंध कश्श्ण कथाओं से बहुत गहरा रहा है। अनारकली घाघरा, कंचुकी और ओढ़नी पहने हुए यह गीत गाती है। यहां अनारकली अपने को राधा के रूप में और सलीम को कश्श्ण के रूप में देखती है और अपने प्रेम का इजहार करती है। हस तरह एक मुस्लिम बादषाह सिर्फ कला को बढ़ावा नहीं देता बल्कि इस्लामी रूढ़िबद्धता के उपर उठकर एक बुतपरस्त धर्म को न सिर्फ आदर देता है बल्कि उसे बराबरी का हक भी प्रदान करता है। मुगल—ए—आजम में हिंदू मुस्लिम एकता की कोषिषें बहुत दूर तक जाती हैं। अनारकली दरबार में कश्श्ण—जीवन से संबंधित प्रसंग पर गीत गाती है तो कैदखाने में वह ‘‘सरकारे मदीना'' को याद करती है।

फिल्म में इस बात पर बहुत बल दिया गया है कि जोधाबाई एक हिंदू राजपूत स्त्री है जिसका अपना धर्म है, अपनी मर्यादा और अपनी परंपराएं हैं। अकबर की पत्नी होकर भी जोधाबाई हिंदू स्त्री बनी रहती है। वह अकबर के दरबार में न सिर्फ राजपूती पोषाक में रहती है बल्कि हिंदू की तरह अपने धर्म का पलन करती है। अकबर अपनी पत्नी की धार्मिक आस्था और पारंपरिक मर्यादा का हमेषा ख्याल रखता है। फिल्मकार जोधाबाई की पहचानों के प्रति खास तौर सजग नजर आता है। यह सजगता अकबर के संदर्भ में महत्वपूर्ण है।

ऐतिहासिक प्रेम कहानी

एक कनीज के प्रति एक राजकुमार का प्यार जो इस फिल्म का मूल केन्द्र बिन्दु है। यह मुख्य रूप से मुगल राजकुमार सलीम की जिंदगी के एक अध्याय पर आधारित है जो सम्राट जहांगीर (आर. — 1608—1627) बना। फिल्म में सम्राट महान अकबर (पृथ्वीराज कपूर) और उनकी राजपूत पत्नी जोधा बाई (दुर्गा खोटे) को विलासितापूर्ण जीवन जीने वाला एक बेटा सलीम (दिलीप कुमार) है। सलीम एक दरबार नर्तकी अनारकली (मधुबाला) से प्यार करने लगता है। वह उससे शादी करना चाहता है। वह प्यार की खातिर अनारकली से गुप्त रूप से मिलता है। एक अन्य नर्तकी बहार अनारकली से ईर्ष्या करती है। वह भारत की महारानी का ताज पहनना चाहती है इसलिए राजकुमार सलीम से प्यार करने का प्रयास करती है ताकि बाद में वह उससे शादी कर सके। वह सलीम और अनारकली के प्यार के बीच दरार डालने की कोषिष करती है। सलीम अनारकली का हाथ थामना चाहता है लेकिन उसके पिता इसका विरोध करते हैं और अनारकली को कैदखाने में डाल देते हैं। कारावास में रखे जाने के बावजूद अनारकली सलीम से संबंध खत्म करने से मना कर देती है।

सलीम अपने पिता के खलाफ बगावत कर देता है लेकिन युद्ध में हार जाता है और उसे मश्त्यु की सजा दी जाती है। अनारकली अपनी जिंदगी के बदले सलीम की जिंदगी की भीख मांगती है और उसे दीवार में जिंदा चुनवा दिया जाता है। हालांकि इस फिल्म में यह दिखाया गया है कि जब मधुबाला की मां ने अकबर को बेटा पैदा होने की सूचना दी थी तो अकबर ने उसे एक अंगूठी दी थी और उसे वचन दिया था कि जिंदगी में एक बार जब भी वह उसके पास मदद के लिए आयेगी वह उसकी मदद अवष्य करेगा। अनारकली की मां इसी बात का फायदा उठाती है और बेटी की जिंदगी की भीख मांगती है। अकबर अपना वादा निभाता है और अनारकली को गुप्त रूप से अपने साम्राज्य से बाहर भिजवा देता है। लेकिन साम्राज्य में यह घोषणा की जाती है कि अनारकली को सजाये मौत दे दी गयी है जिससे सलीम का दिल टूट जाता है। फिल्म में अनारकली की मौत दिखायी नहीं गयी जबकि सलीम और अनारकली से जुड़ी अधिकतर फिल्मों में कहानी का समापन अनारकली की मौत के साथ होता है लेकिन मुगले आजम में फिल्म का अंत आशावादी रखा गया है।

इस मानवीय कथा के साथ दर्षकों ने अपने आप को जोड़ा और उसके बाद इस फिल्म के प्रति जो प्रतिक्रिया दिखाई वह अभूतपूर्व थी। इस प्यार ने तमाम वर्गीय भेदभाव और बंदिषों एवं सीमाओं को तोड़ दिया। मुगल साम्राज्य का वारिस दरबार की एक नर्तकी की रक्षा में अपने सम्राट पिता के खिलाफ खड़ा हो जाता है और यह बात दर्षकों के दिल में सीधी उतरती है। परम्परागत आज्ञाकारी प्रेमियों के विपरीत मुगल—ए—आजम का सलीम अपने माता—पिता और साम्राज्य की ओर से उसके सामने रखी गई षर्तों एवं नाजायज मांगों को ठुकरा कर बगावत पर उतर जाता है। पहले की अनारकली के सलीम के विपरीत वह न तो सम्राट के सामने भीरु बन जाता है और न ही अपने प्यार को छिपाने के लिए अपने प्यार पर कफन डाल देता है बल्कि सम्राट को चुनौती देता है। वह अकबर के सामने सम्राट के एक राजपूत राजकुमारी के साथ बेमेल विवाह को लेकर सवाल उठाता है और अपनी पसंद एवं मर्जी की लड़की से षादी करने के अपने अधिकार के पक्ष में आवाज बुलंद करता है।

सलीम का विद्रोही तेवर दरअसल उसकी अपनी राजसी पृश्ठभूमि के कारण उपजे आत्मविष्वास के कारण था। उसका राजकुमार होने के कारण उसमें गुस्से का होना स्वाभाविक था लेकिन एक डरपोक, चिंताओं से घिरी और गरीबी में पली—बढ़ी लड़की से अनारकली के रूप में आत्मविष्वास से भरपूर निर्भय व्यक्तित्व के रूप में रूपांतरण को प्रदर्षित करना अत्यंत चुनौतीपूर्ण था लेकिन मधुबाला इसमें पूरी तरह सफल रहती हैं। उनकी निर्भीकता इस गीत से भी झलकती है।

‘‘आज कहेंगे दिल का फसाना जान भी लेले चाहे जमानाकृकृ.'' गीत की सदाबहार हिट पंक्ति ‘‘प्यार किया तो डरना क्या'' ने लोगों पर अविष्वसनीय रूप से गहरा प्रभाव डाला जिसकी किसी ने उम्मीद भी नहीं की थी। जैसे—जैसे फिल्म आगे बढ़ती है, अनारकली के चरित्रा की जटिलता खुलती रहती है। मधुबाला ने प्यार के पूर्वाभास, प्रेमिका की हिचकिचाहट, प्यार के प्रति उसकी सतर्कता, अनिष्चय तथा अवरोध को इतनी पूर्णता के साथ चित्रिात किया कि यह जानते हुए भी कि उसका अंत निष्चित है उसके प्यार की षक्ति अंत मे उसे षक्तिमान बना देती है और वह अपने प्राकृतिक डर पर विजय पा लेती है और सामान्य मान—मर्यादा और अकबर के डर से भी परे हो जाती है।

मुगल—ए—आजम में मधुबाला का अभिनय प्रभावकारी एवं अविस्मरणीय है। मधुबाला ने पृथ्वीराज कपूर के साथ कुछ महत्वपूर्ण दष्ष्य किए जो कहानी के अनिवार्य हिस्से थे। फिल्म में जब राजमहल के बाग में अनारकली और सलीम एकांत मेें मिलते हैं उसी समय जब गुस्से से भरे हुए सम्राट अकबर अचानक प्रकट होते हैं तब मधुबाला किस तरह खौफ से भर जाती है— जैसे कि उसका सामना किसी भयानक जंगली जानवर से हो गया हो।

‘‘प्यार किया तो डरना क्या'' का फिल्मांकन भी अपने आप में एक नाटक ही था। अनारकली (मधुबाला) कत्थक नृत्य प्रस्तुत करते हुए अपने गीत एवं हाव—भाव के जरिए सम्राट अकबर को साफ—साफ संदेष दे रही होती है पूरी निर्भीकता के साथ। आखिर में वह सम्राट को ललकारने लगती है। जैसे—जैसे गीत आगे बढ़ता है वह सब पर भारी पड़ने लगती है। उसकी अभिव्यक्ति पूरी गरज के साथ सम्राट को ललकारती है। अचानक जब उसकी नजर बेबस सलीम पर पड़ती है वह बिल्कुल नरम पड़ जाती है और सम्राट का उपहास उड़ाते हुए घोशणा करती है, ‘‘परदा नहीं जब कोई खुदा से, बंदों से परदा करना क्या।''

मधुबाला का वीरोचित्त चुनौती दर्षकों को अपनी ओर खींचता है और उनका साहसपूर्ण प्रदर्षन दर्षकों को सम्मोहित करता है। मधुबाला की ललकार में दर्षक भी षामिल हो जाते हैं। मधुबाला की चुनौती दर्षकों को अपनी खुद की चुनौती लगती है। भारतीय पर्दे पर कोई अन्य गीत या नृत्य ने दर्षकों पर ऐसा प्रभाव नहीं छोड़ा होगा। पूरा देष ‘‘प्यार किया तो डरना क्या'' की निर्भीकता एवं उल्लास से भरपूर अनुगूंज से वर्शों तक गुंजायमान होता रहा और मधुबाला की आष्चर्यजनक छवि लोगों के दिलों—दिमाग और आंखों में बसी रही।

गौरव के बहुत छोटे क्षण के बाद, अनारकली अकबर की ओर से बनाई गई बाधाओं एवं दीवारों को पाटकर सलीम की छावनी में जाती है जहां पिता और पुत्रा अपनी—अपनी सेनाओं के साथ असमंजस की स्थिति में हैं। यहां जब फिर उसका सामना अकबर से होता है तो उसका भय और खौफ एक बार फिर उसके चेहरे पर उतर आता है। मधुबाला का सीन बहुत छोटा है। उस सीन में अकबर और सलीम के बीच लंबे संवाद होते हैं। वह उस सीन में क्षण भर के लिए ही दिखती है लेकिन कहती कुछ नहीं है। लेकिन उसका कुछ नहीं कहना बहुत कुछ कह जाता है।

मुगल—ए—आजम का दुर्जन सिंह अर्थात्‌ अजीत कहते हैं, ‘‘आप उसके निस्तेज चेहरे को देख सकते हैं, मैं नहीं समझता हूं कि यह काम कोई कर सकता है। वह अपने भावों को जाहिर करने के लिए अक्सर अपने हाथों को प्रभावी रूप से इस्तेमाल करती थी। उस समय वही उसकी भाशा बन गई। उसका विष्वास था कि चेहरे के अनावष्यक ऐंठन, पलकों को फड़फड़ाना और होठों को थरथराना उसकी पीढ़ी की कई अभिनेत्रिायों के लिए घातक साबित हुआ इसलिए अपने भावनात्मक प्रभावों को व्यक्त करने के लिए उसने यह तरीका उचित समझा। वह कई मामलों में सबसे अलग थी और कई प्रदर्षन के मामले में भी विलक्षण थी, उसकी आवाज में उतार—चढ़ाव और उसके चेहरे की अभिव्यक्ति संचार का माध्यम होता था।''

इस फिल्म की षुरुआत में हिंदुस्तान का नक्षा पर्दे पर उभरता है। यह नक्शा फिल्म के अंत में भी आता है। यह ‘‘हिंदुस्तान'' ही कहानी आरंभ करता है और कहानी का अंत करता है। फिल्म का आरंभ करते हुये ‘‘ हिंदुस्तान'' कहता है, ‘‘मैं हिंदोस्तान हूं। हिमालय मेरी सरहदों का निगहबान है। गंगा मेरी पवित्रता की सौगंध है। तारीख की इंत्तिदा से मैं अंधेरों और उजालों का साथी हूं और मेरी खाक पर संगेमरमर की चादरों में लिपटी हुई ये इमारतेंं दुनिया से कह रही है कि जालिमों ने मुझे लूटा और मेहरबानों ने मुझे संवारा, नादानों ने मुझे जंजीरें पहना दी और मेरे चाहने वालों ने उन्हें काट फेंका। मेरे इन चाहने वालों में एक इंसान जलालुद्‌दीन मोहम्मद अकबर था। अकबर ने मुझसे प्यार किया। मजहब और रव्वायत की दीवार से बुलंद होकर इंसान को इंसान से मुहब्बत करना सिखाया और हमेषा के लिए मुझे सीने से लगा लिया।''

इसके बाद एक लांग षॉट में अपने लाव—लष्कर के साथ अकबर को समकालीन सू्‌फी फकीर सलीम चिष्ती की दरगाह पर जाते हुए दिखाया जाता है। तपते रेगिस्तान पर तनहा चलता हुआ अकबर इस उम्मीद के साथ फकीर की दरगाह तक जाता है कि उनके आषीर्वाद से वह पिता बन सकेगा। लांंग षॉट में अकबर के साथ उनका लाव—नष्कर नजर आता है जिसमें हाथी, घोड़े और सिपाही हैं। मिड षॉड में इस लाव—लष्कर के बावजूद अकबर के अकेलेपन को उभारा जाता है जिसे गहराई, क्लोजअप में अकबर के परेषान और थके हुए चेहरे से मिलती है। बाद में अकबर सलीम चिष्ती के आगे अपना सिर झुका लेता है। फिल्म में कथावाचक कहता है, ‘‘उस षहनषाह ने, जिसके आगे सारी दुनिया सिर झुकाती है, एक फकीर के दरबार में अपना सिर झुका लिया।''

सलीम चिष्ती की दरगाह पर अकबर कहते हैं, ‘‘षहंषाहों के षहंषाह, तुम इस फकीर बंदे को अपने खजाने से दुनिया की तमाम नेमतें अदा की। जहांपनाह और जिल्ले इलाही पुकारने वाली आवाजें सुनाई अब बाप कहकर पुकारने वाली आवाजें भी सुना दे। हे, दोनों जहान के मालिक अकबर को दुनिसा में बेनामोनिषान न बना।''

एक साधारण आदमी की तरह फकीर के दरवाजे मे अकबर का पैदल जाना और वहां अपने को उनके चरणों में झुका लेना पिता बनने की उसकी इच्छा ही नहीं, बल्कि बादषाह की हस्ती के उपर एक फकीर को मानने की परंपरा की अभिव्यक्ति भी है। इस्लामी परंपरा के अनुसार फिल्म में फिल्म में सलीम चिष्ती को सषरीर नहीं दिखाया जाता। केवल उनके हाथों की झलक मिलती है। वह अकबर को आषीर्वाद के रूप में फूल देते हैं और वह फूल अकबर जोधाबाई को दे देता है जो उस फूल को अपने गाल में छुआकर अपनी श्रद्धा प्रकट करती है। यहां निर्देषक ने सूफी फकीर को फूल देते हुए दिखाया है, पर्दे पर क्लोजअप में फकीर के हाथ नजर आते हैं। लेकिन उन फूलों को लेने के लिए बढ़े हुए हाथ अकबर के नहीं होते, जोधाबाई के होते हैं। जोधाबाई अकबर के साथ फकीर के दर्षन के लिए नहीं गई थी, महल में ही थी लेकिन फूल देते हुए फकीर के हाथ से जोधाबाई के फूल लेते हुए हाथों के षॉट को मिलाने से ऐसा असर होता है माने फकीर ने सीधे जोधाबाई को ही आषीर्वाद दिया हो। यह पूरा प्रसंग उन पौराणिक कथाओं से मेल खाता है जिनमें किसी संत के आषीर्वाद से पुत्र—प्राप्ति की कहानियां कही गई है। इस तरह यह अपनी संरचना में भारतीय कथाओं का असर छोड़ता हैै। सलीम चिष्ती के आषीर्वाद से बच्चा होने के कारण अकबर के बच्चे का नाम भी सलीम रखा जाता है।

अकबर को एक कनीज यह खुषखबरी सुनाती है कि जोधाबाई ने एक बेटे को जन्म दिया है। अकबर उस समय इसी इंसाफ के तराजू के नजदीक चिंतामग्न खड़े हैं। वह खुशखबरी देते हुये कहती है, ‘‘खुदा ने महारानी की गोद आबाद की।'' जिल्ले इलाही को चांद सा बेटा और मुगल सल्तनम को वलिहत मुबारक हो।'' यह खबर सुनकर वह आह्‌लादित हो जाते हैं और उस कनीज को अपने हाथ से अंगूठी उतार कर इनाम के तौर पर देते हैं और कहते हैं,‘‘तुम अकबर की मायूस जिंदगी में खुदा की रहमतों का पैगाम लेकर आयी हो। लो, लो यह अंगूठी। बतौर निषानी अपने पास रखो।''

इंसाफ के प्रतीक तराजू के पास जाकर तथा तराजू को छूकर कनीज को वचन देते हैं, ‘‘इंसाफ के इस मुकद्‌दस्त तराजू की कसम अकबर से जिंदगी में एक बार जो मांगोगी अदा किया जाएगा।'' यह कनीज उस अनारकली की मां है जो बाद में इस पूरी दंतकथा की नायिका बनती है। इस फिल्म में इस विशाल तराजू को किले की खुली जगह पर रखा गया है।

इसके बाद सलीम के बड़े होने तथा उसकी आवारागर्दी को दिखाया गया है। एक बाद फिर वही तराजू दूसरी बार आता है जब किषोरवय सलीम इसके पलड़े पर बैठा षराब पी रहा है और रंगरेलियाें में मस्त है। इस कारण इंसाफ का प्रतीक यह तराजू हिचकोले खाने लगता है। उसकी हस हरकत को देखकर राजा मानसिंह उसे डांटते हुए कहता है, ‘‘ये तराजू आपके खेलने की चीज नहीं है।''

इसके बाद अकबर सलीम को जंग पर भेज देता है। जंग में विजय के बाद सलीम लौटता है। सलीम के स्वागत के लिये बहार (निगार सुलताना) संगतराष के पास मूर्ति बनाने के लिये कहने के लिये भेजा जाता है और वह संतराश से सलीम के लिए मुजस्समा (मूर्ति) बनाने के लिए कहती है। संतराश जवाब देते हुए कहता है कि ‘‘मेरे बनाए हुए मुजस्समे षहनषाहों को पसंद नहीं आएंगे।'' बहार पूछती है, ‘‘क्यों?'' वह जवाब देता है— ‘‘क्योंकि ये सच बोलते हैं।'' वह दीवारों पर बने प्रतिमा—चित्रों को दिखाता है। पहला चित्र बादषाह के दरबार का है जहां बादषाह न्याय—अन्याय का निर्णय लेते हैं। इस चित्र पर टिप्पणी करते हुए संगतराष कहता है— ‘‘षहंषाह की जबान से नकला हर लफ्‌ज इंसाफ है, जिसकी कोई फरियाद नहीं।'' दूसरे चित्र में मैदाने—जंग का चित्रण किया गया है। इस पर टिप्पणी करते हुए संगतराष कहता है— ‘‘और ये मैदाने—जंग है...लाखों लोगों की मौत और एक इंसान की फतह''। तीसरे चित्र में हाथी के पैरों तले एक आदमी को कुचलता हुआ दिखाया गया है, जिस पर टिप्पणी करते हुए संगतराष कहता है— ‘‘और ये है, सच बोलने का अंजाम, सजा—ए—मौत। बहार इन चित्रों पर टिप्पणी करते हुए कहती है— ‘‘ये सच नहीं है, संगतराष, ये एक कलाकार का तंज है।''

बहार उससे ऐसे मुजस्समा का आग्रह करती है जो साहिबे आलम को प्रभावित करे। संगतराष इसके लिए तैयार हो जाता है। वह इस चुनौती को स्वीकार करते हुए कहता है, ‘‘मैं ऐसा बुत बनाउंगा जिसके आगे सिपाही अपनी तलवार, षहनषाह अपना ताज और इंसान अपना दिल निकालकर रख दे।'' लेकिन संगतराष ऐसा बुत नहीं बनाता। वह बुत के बजाय नादिरा नाम की एक खूबसूरत कनीज को बुत बनाकर खड़ा कर देता है। संगतराष की स्त्री—प्रतिमा की सुंदरता को सुनकर सलीम अपनी उत्सुकता नहीं रोक पाता और वह रात के अंधेरे में चुपके से अपने दोस्त दुर्जन सिंह के साथ उसे देखने जाता है। बहार और और अन्य कनीजें भी उसके साथ होती हैं।

सलीम बहार से कहता है, ‘‘हमें देखकर यह कौन छुप गया है बहार।'' बहार कहती है, ‘‘छुपा नहीं छुपाया गया है साहिबे आलम। संगतराष का यह दावा है कि जब यह मुजस्समा बेनकाब होगा तो''। बहार इतना कहकर रुक जाती है। सलीम कहता है, ‘‘बेखौफ होकर कहो। कभी—कभी दावे दिलचस्प भी हुआ करते हैं।'' बहार आगे कहती है, ‘‘उसका यह दावा है कि इस मुजस्समे को देखकर सिपाही अपनी तलवार, षहंषाह अपना ताज और इंसान अपना दिल निकालकर उसके कदमों में रख दे।'' सलीम कहता है, ‘‘संगतराष का दावा दिलचस्पी की हदों से आगे बढ़ गया है। हम उसके फन का गुरूर देखना चाहते हैं।''

उसी समय दुर्जन सिंह उसे मूर्ति को देखने से रोकता है और कहता है, ‘‘महाबली का यह हुक्म है कि साहिबे आलम इस मूर्ति को न देखें''। सलीम पूछता है, ‘‘क्यों?'' दुर्जन सिंह कहता है, ‘‘राज ज्योतिशी का यह कहना है कि आज रात चंद्रमा के ढलने से पहलेे षहजादे का किसी मूर्ति को दखना बना अषगुन होगा। नकाबपोषाई कल सुबह महाबली के सामने होगी। सलीम कहता है, ‘‘संगतराष का दावा, राज ज्योतिशी का षगुन और इस मुजस्समे पर पड़ा नकाब। हम उस वक्त तक इंतजार कैसे करेंगे दुर्जन।'' सलीम मुजस्समे पर पड़े पर्दे को हटाकर मुजस्समे को देखता है।

उस कथित प्रतिमा को देखकर वह दुर्जन सिंह को कहता है, ‘‘संगतराष का दावा यकीनन सही था। बेषक इस बेपनाह हुस्न को कोई पत्थर ही हिला सकता है। बुतों की खुदाई तस्लीम करने का जी चाहता है।'' इस पर दुर्जन सिंह सलीम को सावधान करते हुए कहता है, ‘‘साहिबे आलम पर बुतपरस्ती का इल्जाम लग जाएगा।'' वह दुर्जन सिंह की बात पर टिप्पणी करते हुए कहता है, ‘‘मगर वफापरस्ती की दाद भी मिल जाएगी।''

दूसरे दिन जब सलीम, अकबर जोधा बाई एवं अन्य लोग बुत के पास पहुंचते हैं तो बहार सुझाव देती है कि बुत पर पड़े नकाब को तीर से हटाया जाये। अकबर को यह सुझाव पसंद आता है और सलीम तीर चलाकर बुत पर पड़े नकाब को हटा देता है। बुत को देखते ही खुद बादषाह अकबर प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। उस ‘‘बुत'' की प्रषंसा करते हुए वह कहते हैं, ‘‘षुभानल्लाह मालूम होता है जैसे किसी फरिष्ते ने आसमां से उतरकर संगमरमर में पनाह ले ली है।''

इसके बाद बुत हिलता है और कहता है कनीज फरिष्ता नहीं इंसान है। अकबर उससे पूछता है, ‘‘मगर तुझे बुत बनने पर किसने मजबूर किया? कनीज जवाब देती है, ‘‘आपके सल्तनत के एक जिद्‌दी संगतराष ने। जो गुमनामी के पर्दे से बाहर आना नहीं चाहता।'' अकबर संगतराष की प्रतिभा से प्रभावित कहता है, ‘‘संगतराष का अनोखा फन यकीनन दाद के काबिल है। लेकिन तीर चलते वक्त तू खामोष क्यों रही?'' कनीज बेखौफ होकर कहती है, ‘‘कनीज देखना चाहती थी कि अफसाने हकीकत में किस तरह बदलते हैं।'' अकबर प्रसन्न होकर कहता है, ‘‘बहुत खूब, हम तेरे हौसले की दाद देते हैं। रानी आप इसे अपनी कनीजों में दाखिल कर लीजिए और हम इसे अनारकली का खिताब अता करते हैं।''

इसके बाद सलीम मधुबार के इश्क में गिरफ्‌तार होकर उससे प्यार करने लगता है। लेकिन बहार भी सलीम को चाहती है और इस चाह के पीछे उसका इरादा हिंदुस्तान की मलिका बनने का है। अनारकली के प्रति सलीम के झुकाव से उसके मानसूबे मिट्‌टी में मिल सकते हैं। इसलिए वह लगातार प्रयत्न करती है कि सलीम और अनारकली जुदा हो जाएं। राजमहल में चलने वाले संशर्शों की वह बहुत ही षांत खिलाड़ी होती है। वह अपने दांव खामोषी और धैर्य के साथ चलती है। उसके चेहरे पर दृढ़ता और परिपक्वता झलकती है। राजमहल में उसकी हैसियत भी बहुत उंची नहीं है। वह अनारकली की तरह मामूली कनीज नहीं है लेकिन उसका संंबंध किसी षाही परिवार से है, ऐसा भी प्रतीत नहीं होता। उसकी पहुंच हर कहीं और हर किसी तक है, फिर भी वह इतनी ताकतवर नहीं है कि अपने मनसूबों को पूरा करने के लिए बड़े पैमाने पर शडयंत्र कर सके। निगार सुल्ताना ने इस रोल को बहुत ही परिपक्वता के साथ निभाया है।

बहार के बिल्कुल विपरित है अनारकली। अनारकली एक मामूली कनीज है लेकिन इतनी सुंदर है कि सलीम देखते ही उसे चाहने लगता है। पहले बुत के रूप में और बाद में असलियत में। अनारकली भी सलीम को पहली ही नजर में चाहने लगती है। लेकिन इस चाह में एक भय भी छुपा हुआ है। जब उसकी छोटी बहन सुरैया उसे एहसास कराती है कि उसे साहिबे आलम से प्रेम हो गया है और वह एक दिन हिंदुस्तान की मलिका बनेगी तो वह भय से सिहरते हुए कहती है, ‘‘खुदा ऐसे ख्वाब न दिखा, जिनको देखने की यह कनीज कभी जुर्रत नहीं कर सकती। वह हिंदुस्तान के होने वाले षहनषाह हैं।'' बहन उत्तर देते हुए कहती है कि ‘‘षहनषाह तो खुदा मियां के यहां से आते हैं लेकिन उनकी मलिकाएं तो कहीं से आ सकती है।'' सुरैया का कहना इस अर्थ में ठीक था कि बादषाह की सभी रानियां हमेषा षाही परिवारों से ही आती रही हों यह सत्य नहीं है। लेकिन एक मामूली कनीज का मलिका बनाया जाना इतना आसान भी नहीं था। अनारकली जब भी सलीम के सामने अपनी मोहब्बत का इजहार करती है तो उसमें अपनी हैसियत से पैदा हुए भय का एहसास साफ झलकता है। पहली बार जब वे षाही बाग में अकेले मिलते हैं, सलीम अनारकली से आग्रह करता हुआ कहता है, ‘‘अनारकली, इधर देखो। मैं तुम्हारी आंखों में अपनी मोहब्बत का इकरार देखना चाहता हूं।'' वह मोमबत्ती पर हाथ रखते हुए कहती है, ‘‘इन्हें न देखिए षाहजादे। इनमें कनीज की सहमी हुई हसरतों के सिवा और कुछ नहीं।'' सलीम कहता है, ‘‘भूल जाओ कि तुम कनीज हो और सलीम को अपनी आंखों में वह देखने दो जो तुम्हारी जुबान कहते हुए डरती है।'' अनारकली फिर विरोध करती है, ‘‘मेरी आंखों से मेरे ख्वाब मत छीनिए।'' लेकिन इस इनकार और इकरार के बीच ही सलीम और अनारकली का प्रेम परवान चढ़ने लगता है। दोनों चुपके—चुपके मिलते हैं। प्रेम के इस दृष्य पर टिप्पणी करते हुए प्रसिद्ध निर्देषक महेष भट्‌ट ने लिखा था कि मुगल—ए—आजम का वह प्रेम—दृष्य अविस्मरणीय है जब एक्स्ट्रीम क्लोजअप में दिलीप कुमार मधुबाला के आवगपूर्ण चेहरे को सफेद पंख के साथ गुदगुदाता है। षायद यह भारतीय रजत पटल पर फिल्माया गया सबसे एरोटिक दृष्य है। प्रेम के इस दृष्य की विषेशता यह है कि इसमें भावनाओं के आवेग को आसानी से पहचाना जा सकता है लेकिन अभिव्यक्ति का संयम और संतुलन कहीं भी निर्देषक के हाथों से फिसलता हुआ नहीं लगता। बहार, सलीम और अनारकली के मिलन को देख लेती है और सलीम भी यह जान जाता है। वह बहार को धमकाता भी है लेकिन इसके बावजूद बहार अकबर को उनके प्रेम की सूचना दे देती है। अकबर सलीम और अनारकली को रंगे हाथों पकड़ने के लिए जाता है। इधर सलीम अनारकली से कहता है, ‘‘सलीम के पहलू में अनारकली हिंदोस्तान की मलिका होगी।'' अनारकली कहती है, ‘‘पांव की खाक को सर का ताज न बनाइए।'' सलीम गंभीरता से कहता है, ‘'वो बन चुका अनारकली। मैं देख रहा हूं अकबरे आजम का हिंदोस्तान तुम्हारे इख्तियार में होगा।'' अनारकली डरते हुए कहती है, ‘‘खुदा के लिएकृकृकृ''। सलीम उसका डर दूर करने की कोषिष करता है, ‘‘हिंदोस्तान के इंसानों की तकदीर तुम्हारे केषुओं के हलके में घिर जाएगी अनारकली। फिर तुम जिधर मुड़कर देखोगी हजारों तकदीरें कांपती रहेगी।'' सलीम अनारकली के होठों को चुमने के लिए चेहरा आगे बढ़ाता है तभी अकबर के वहां आने की घोशणा होती है।

अकबर के आने की घोशणा सुनकर अनारकली घबरा जाती है। वह वहां से भाग जाना चाहती है जबकि सलीम अकबर का सामना करने को तैयार है। सलीम अनारकली को रोकने की कोषिष करता है। अनारकली कहती है, ‘‘अगर जिल्लेलाही ने मुझे यहां देख लिया तो अनारकली की कब्र आपके आगोष मं होगी।'' सलीम कहता है, ‘‘मोहब्बत अगर डरती है तो मोहब्बत नहीं ऐय्‌याषी है, गुनाह है।'' इसके बावजूद अनारकली अकबर का सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती और वहां से भाग जाती है। लेकिन सामने अकबर आता हुआ दिखाई देता है। वह उल्टे पांव लौट जाती है। सलीम और अनारकली की नजरें अकबर से मिलती है। अनारकली की स्थिति उस हिरणी की तरह है जो षिकारी के सामने पड़ जाती है और जिसे भागने का कोई रास्ता नहीं सूझता। अनारकली भय से आक्रांत होकर बेहोष हो जाती है और सलीम से चिपकी हुई ही जमीन पर गिर जाती है। उसके हाथ में सलीम के गले में पहने हुए मोतियों का हार आ जाता है, उसके गिरने के साथ ही हार के मोती टूटकर जमीन पर बिखर जाते हैं। अकबर और सलीम दोनों एक—दूसरे को खामोष निगाहोें से देखते हैं। सलीम की नजर में चुनौती का भाव है और अकबर की नजर में व्यंग्य का। अकबर खामोषी से वहां से लौट जाता है। अपने महल में पहुंचकर वह अनार की कलियों को मसल डालता है।

इसके अगले दष्ष्य में अनारकली को सिपाही उसके घर से उठा ले जाते हैं और पकड़कर कैदखाने में डाल देते हैं। बड़े—बड़े पत्थरों से बने कैदखाने की उंची दीवारें भयानक से भयानक मुजरिम के मन में आतंक पैदा करने के लिए काफी है। अनारकली के कोमल जिस्म को लोेहे की मोटी जंजीरों में जकड़ दिया जाता है। कैदखाने में धीरे—धीरे अंधेरा बढ़ने लगता है और जंजीरों में जकड़ी अनारकली अंधेरे में डूब जाती है। फेड इन होते हुए इस दष्ष्य के बाद फेड आउट में सलीम चीखता हुआ अकबर के महल में जाता हुआ दिखता है। वहां उसकी टक्कर महारानी जोधाबाई से होती है। जोधाबाई अकबर के पक्ष का समर्थन करते हुए सलीम को अनारकली का विचार त्यागने के लिए कहती है।

सलीम गुस्से से जोधाबाई के महल में आता है और अपनी मां से पूछता है, ‘‘कहां है वो?'' जोधाबाई उससे पूछती है, ‘‘कौन?'' सलीम बेरूखी से कहता है, ‘‘अकबरे आजम जिनके हुक्म से गुलाब की बक्षी हुई सांसें भी सीने में घोंट दी जाती हैं।'' जोधाबाई सलीम की गुस्ताखी पर कहती है, ‘‘अदब से बात करो सलीम।'' सलीम कहता है, ‘‘एक बेरहम षहंषाह के कैदखाने में सलीम की अनारकली दम नहीं तोड़ेगी। मुझे इस परवाने आजादी पर उनकी मोहर चाहिए।'' जोधाबाई पूरे रौब से कहती है, ‘‘अनारकली आजाद नहीं की जाएगी।'' सलीम पूछता है, ‘‘क्यों नहीं की जाएगी? जोधाबाई गुस्से में उसे डांट देती है, ‘‘खामोष। एक षाहजादे को अपना फर्ज नहीं भूलना चाहिए।'' सलीम भी गुस्से से कहता है, ‘‘वह कौन सा फर्ज है जो मोहब्बत को ही सीने में कुचल सकता है।'' जोधाबाई कहती है, ‘‘महाबली का हुक्म तुम्हारा फर्ज है।'' सलीम मुंह मोड़कर कहता है, ‘‘यह फर्ज तो नहीं। एक षहंषाह के महल में पैदा होने की सजा जरूर है।'' जोधाबाई भी तुरत कहती है, ‘‘लेकिन हमारी बख्षी हुई ये अजीमोषान सजा तुझे भुगतनी होगी।'' सलीम पलटकर जवाब देता है, ‘‘तो मासूम अनारकली को भी कैद करने की बजाय यह अजीमोषान सजा दीजिए।'' जोधाबाई कहती है, ‘‘हमारे फैसलों पर तुम्हारा कोई अख्तियार नहीं।'' सलीम तेज आवाज में कहता है, लेकिन हमें अपनी जान पर अख्तियार है। अगर अनारकली आजाद न की गई तो कैदखाने की ये रात अनारकली पर नहीं अकबरे आजम की सारी जिंदगी के मंसूबों पर भारी गुजरेगी।'' यह कहकर वह वह एक लिखित संदेष जोधाबाई के पास छोड़कर तेजी से चला जाता है।

अकबर, जो सीढ़ियों से उतरते हुए सलीम की बातें सुन रहा है उसके जाते ही तेजी से नीचे आता है, जोधाबाई से संदेष लेता है, पढ़ता है, गुस्से मेें फाड़ देता है और फर्ष पर फेंक देता है। अगले दष्ष्य में अनारकली उसी अंधेरे कैदखाने में जंजीरों में कैद है। कैदखाने की स्याह होती दीवारों के बीच घिरी अनारकली जंजीरों के बावजूद हिम्मत जुटाकर खड़ी होने की कोषिष करती है। वह अपने भावों को एक दुखपूर्ण गजल में व्यक्त करती है— ‘‘मोहब्बत की झूठी कहानी पे रोए, बड़ी चोट खाई जवानी पे रोए।'' वेदना से भरी लता मंगेषकर की आवाज में जैसे अनारकली का पूरा दर्द इस गीत में छलक पड़ता है। सलीम से प्रेम के अंजाम की जिस आषंका से अनारकली भयभीत रहती थी वह कैदखाने की जंजीरों के रूप में सच साबित हो चुकी थी।

दूसरे दिन अनारकली को दीवाने—खास में पेष किया जाता है। वह अब भी उसी तरह जंजीरों में जकड़ी हुई है। उसे दो सिपाही पकड़कर लाते हैं और बादषाह के आगे छोड़ जाते हैं। अनारकली बड़ी मुष्किल से खड़ी होती है। उसका चेहरा थका हुआ और पसीने से लथपथ है। अनारकली के हिलने—डुलने से होने वाली जंजीरों की आवाज के अलावा कोई आवाज नहीं है। पार्ष्व संगीत भी नहीं। अकबर अनारकली को गुस्से और रुआब के साथ देखते हैं। अनारकली के चेहरे पर वह भय अब नहीं है जो सलीम के साथ अकबर का सामना करते समय आया था। वह भी अकबर की नजरों का सामना साहस से करती है।

अकबर उससे पूछते हैं, ‘‘हमें यकीन है कैदखाने के खौफनाक अंधेरों ने तेरी आरजुओं में चमक बाकी न रखी होगी, जो कभी थी।''

अनारकली अकबर से नजरें मिलाते हुए विनम्र किंतु सधी हुई जबान में जवाब देती है, ‘‘कैदखाने के अंधेरे इस कनीज की आरजुओं की रोषनी से कम थे।''

अकबर को अनारकली के जवाब में चुनौती दिखाई देती है, ‘‘अंधेरे और बढ़ा दिए जाएंगे।''

अनारकली उसी सख्त और सधी हुई लेकिन धीमी आवाज में जवाब देती है, ‘‘आरजुएं और बढ़ जाएंगी।''

अकबर की आवाज और तेज हो जाती है, ‘‘और बढ़ती हुई आरजुओं को कुचल दिया जाएगा।''

अनारकली बिना आवाज उंची किए पूछती है, ‘‘और जिल्लेलाही का इंसाफ?''

अकबर अपनी आवाज और बुलंद करता हुआ कहता है, मानो हार न मानना चाहता हो, ‘‘हम कुछ सुनना नहीं चाहते। अकबर का इंसाफ उसका हुक्म है। तुझे सलीम को भूलना होगा।''

‘‘भूलना होगा?''

‘‘यकीनन। और सिर्फ इतना ही नहीं उसे ये भी यकीन दिलाना होगा कि तुझे उससे कभी मोहब्बत नहीं थी।''

‘‘जो जबान उनके सामने मोहब्बत का इकरार तक न कर सकी वह इनकार कैसे करेगी।''

‘‘तुझे सलीम पर जाहिर करना होगा कि तेरी मोहब्बत झूठी थी। एक कनीज ने हिंदुस्तान की मलिका बनने की आरजू की और मोहब्बत का खूबसूरत बहाना ढूंढ लिया।''

अनारकली इस आरोप से बेचैन हो उठती है क्योंकि ये सच नहीं है। यह सच है कि अनारकली की बहन यह जानकर कि साहिबे आलम उसकी बहन से प्रेम करते हैंं अपनी बहिन के मलिका बनने का ख्वाब देखने लगती है। लेकिन अनारकली जानती है कि यह ख्वाब कभी हकीकत नहीं बन सकता। वह सलीम से प्यार करती है लेकिन मलिका बनने के लिए नहीं। हां, सलीम भी यह सपना पालता है कि एक दिन अनारकली से षादी करेगा और उसे हिंदुस्तान की मलिका बनाएगा। यह बात वह कहता भी है। अकबर भी यही सोचता है कि अनारकली ने हिंदुस्तान की मलिका बनने के लिए ही साहिबे—आलम को प्रेमपाष में बांधा है। इसलिए वह अनारकली पर मलिका बनने का आरोप का आरोप लगाता है और मोहब्बत को इस आरजू को पूरा करने का बहाना मात्र समझता है। अकबर और अनारकली के बीच का संघर्श दरअसल उन हजारों प्रेम—कहानियों से भिन्न नहीं है जो लोककथाओं, लोकगीतों और लोकप्रिय फिल्मों में व्यक्त होती रही है। अकबर का तर्क उन अमीरों की तरह है जो सोचते हैं कि उनके बेटे या बेटी से प्रेम करने वाला कोई गरीब सिर्फ उसकी दौलत से प्रेम करता है और उसे हासिल करने के लिए वह प्रेम का नाटक कर रहा है।

‘‘ये सच नहीं है। खुदा गवाह है ये सच नहीं है।'' वह बादषाह के पैर पकड़ कर कहती है, ‘‘ये सच नहीं है।''

अकबर पांव छुड़ाते हुए कहता है, ‘‘लेकिन तुझे ये साबित करना होगा कि यही सच है।''

वह ईष्वर से प्रार्थना करते हुए कहती है, ‘‘परवर दिगार, मुझे ये हिम्मत अता फरमा कि मैं साहिबे आलम से बेवफाई कर सकूं।''

वह अकबर के सामने झुकते हुए कहती है, ‘‘कनीज जिल्लेलाही का हुक्म बजाने की कोषिष करेगी।''

लेकिन अकबर वहां से जाते हुए सख्त आवाज में दोहराता है, ‘‘कोषिष नहीं तामील होगी।''

एक बादषाह का आदेष ही उसका न्याय है। यही तो संगतराष ने अपने चित्र में दिखाया था। कनीज के मामले में भी इंसाफ का असली चेहरा जैसे सामने आ जाता है। अनारकली को आजाद कर दिया जाता है। वह सलीम से पहले की तरह मिलती है और और प्रेम के प्रतीक के रूप में गुलाब का फूल पेष करती है। सलीम यही समझता है कि अकबर ने उसके प्रेम को स्वीकार कर लिया है और उसी वजह से उसे आजाद किया है। लेकिन अनारकली की बेचैनी उस गीत से व्यक्त होती है जो सलीम से मिलने के वक्त वह गाती है— ‘‘हमें काष तुमसे मुहब्बत न होती, कहानी हमारी हकीकत न होती।''

दुर्जन सलीम से कहता है, ‘‘साहिबे आलम, पहले कभी किसी ने अकबरे आजम को अटल फैसलों से पलटते नहीं देखा। अनारकली की आजादी षहंषाह की षिकस्त है।'' सलीम दुर्जन से कहता है, ‘‘षिकस्त नहीं सुबूत है इस बात का दुर्जन कि षहंषाह के सीने एक दर्दमंद इंसान का दिल भी है। आज पहली बार मैं यह महसूस कर रहा हूं कि मैं सिर्फ हिंदुस्तान का वलीये ऐदी नहीं एक रहमदिल बाप का बेटा भी हूं। उन्होंने मेरी अनारकली को आजाद करके मुझपर अहसान किया है दुर्जन। बहार सलीम को बताती है कि अनारकली ने ये आजादी खरीदी है। वह सलीम से मुखातिब होकर कहती है, ‘‘आपकी मोहब्बत पर नहीं साहिबेआलम किसी की बेवफाई पर एहसान किया है।'' सलीम पूछता है, ‘‘किसकी बेवफाई पर''। वह सलीम को जंजीर दिखाकर कहती है, ‘‘इन जंजीरों से पूछिए।'' सलीम जंजीर छीनकर बहार से कहता है, ‘‘हम तुमसे पूछते हैं। बहार व्यंग्य से कहती है, ‘‘आपकी अनारकली की नाजुक कलाइयां कैदखाने की भारी जंजीरों का बोझ नहीं उठा सकींं और उसने इनके बदले जिल्लेल्लाही से सोने के कंगन ले लिए।'' सलीम यकीन नहीं कर पाता। ‘‘इसका सबूत।'' बहार बताती है, ‘‘आज रात नवरोज के जलसे में अनारकली का नाच और नाच के बाद हमेषा के लिए महल से रुखसत होने का इकरार।'' सलीम इस बात को बर्दाष्त नहीं कर पाता। वह अनारकली के पास जाता है और उसे भला—बुरा सुनाता है। वह गुस्से में अनारकली से कहता है, ‘‘अनार, अकबरे आजम की गर्म निगाहों से वो मोम पिघल गया जिसकी तू बनी हुई थी। उसके साथ तेरी मोहब्बत का वो कागजी जेवर भी जलकर खाक हो गया जिसे पहनकर तू मेरे सामने इठलाती रहती थी। अनारकली जिसे कैदखाने की एक ही कठिन रात के अंधेरे ने खा लिया। आज यह कनीज वह अनारकली नहीं जिसका नाम चुराकर कैदखाने से भाग आयी है मेरी अनारकली नहीं। बल्कि वो बुजदिल लौंडी तो सलीम की महबूबा नहीं एक झूठी कसम थी जो मेरा ईमान बदल दी। एक षर्मनाक बदनामी का वो दाग थी जो मेरे दामन पर लगा और ण्ण्ण्ण्ण्ण्कृकृ और थप्पड़ मारकर चला जाता हैै। सलीम के इस व्यवहार का अनारकली पर गहरा असर होता है। वह अकबर के दिए गए वचन को तोड़ देती है और भरे दरबार में नाचते हुए वह सलीम के प्रति अपने प्रेम का इजहार नहीं करती बल्कि बादषाह को चुनौती देती है, ‘‘जब प्यार किया तो डरना क्या।'' ‘‘मोहब्बत जिंदाबाद '' गीत की तरह इस गीत में भी सीधी भाशा में अनारकली अपनी बात कहती है। कत्थक नृत्य करते हुए वह वह अपने प्यार को व्यक्त करती है, दिल की बात को दिल में नहीं छुपाया जा सकता चाहे उसके बदले में जमाना उसकी जान ही क्यों न ले ले। ‘‘प्यार किया कोई चोरी नहीं की छुप छुप आहें भरना क्या, जब प्यार किया तो डरना क्या। आज कहेंगे दिल का फसाना जान ही ले ले चाहे जमाना। मौत वही जो दुनिया देखे घुट—घुट कर यूं मरना क्यां। जब प्यार किया तो डरना क्या।'' नृत्य करते हुए वह कटार निकालती है और अपने सीने पर रख लेती है। प्यार ही जीवन है और प्यार ही मृत्यु है। इसके अतिरिक्त जीवन का क्या अर्थ। वह कटार बादषाह को समर्पित कर देती है। जाहिर है कि वह कहती है कि प्यार को छुपाया नहीं जा सकता वह तो चारों ओर अपने को व्यक्त करता है। फिल्म में इसके साथ ही षीष महल के प्रत्येक षीषे में अनारकली और सलीम का प्रतिबिम्ब दिखाई देने लगता है। गीत की प्रतिध्वनि भी षीषमहल से टकराकर गूंजने

लगती है। जो प्यार ईष्वर से नहीं छुपाया जा सकता वह ईष्वर के बंदों से छुपाने का क्या अर्थ। अकबर बादषाह है, लेकिन वह ईष्वर की संतान हीं है, ईष्वर नहीं। अकबर अनारकली का दुस्साहस और षीषों में प्रतिबिंब देखकर क्रोधित हो जाता है। वह क्रोध से कांपने लगता है। गीत के प्रत्येक बोल के साथ उसका क्रोध बढ़ता जाता है। ष्वेत—ष्याम में बनी इस फिल्म का यह पूरा गीत रंगीन फिल्माया गया है। क्लोजअप में अकबर के क्रोध का बढ़ना गीत के प्रभाव को और बढ़ा देता है। गीत के अंतिम अंतरे के साथ अकबर अपने सिंहासन से उठ खड़ा होता है, षीषे के एक स्तम्भ को हाथ से झटककर दूर फेंक देता है। षीषों के टूटने की आवाज के साथ पूरे दरबार में खामोषी छा जाती है। वह अनारकली को संबोधित करते हुए कहता है, ‘‘ये तेरी बेखौफ मुहब्बत, ये रक्स, ये दिलचस्प अंदाजे—बयांकृकृयकीनन हमारे इनाम के मुस्तहक हैं।'' अनारकली जवाब देती है, ‘‘जहंेंनसीं। जिल्लेइलाही की फराकदिली से कनीज को यही उम्मीद थी।'' अकबर क्रोध से दारोगा को आवाज लगाता है और कहता है, ‘‘इस बेबाक लौंडी को ले जाओ और कैदखाने के अंधेरों में जब्त कर लो।'' सिपाही आकर उसे पकड़ लेतेेेे हैं। वह हाथ छुड़ा लेती है और खुद ही उनके साथ निर्भय होकर चल पड़ती है। फिर कुछ कदम चलकर वापस मुड़ती है और बादषाह को तीन बार झुककर पूरे अदब के साथ सलाम करती है और सिपाहियों के साथ आगे बढ़ जाती है। पृश्ठभूमि में ‘‘जब प्यार किया तो डरना क्या'' गीत गूंजता है। अनारकली एक बार फिर कैदखाने में डाल दी जाती है।

दरबार में सिर्फ अकबर और सलीम रह जाते हैं। अकबर सलीम से मुखातिब होकर कहता है, ‘‘तुम्हारी मौजूदगी नाफरमानी की दलील है।''

सलीम मायूसी से धीमी आवाज में कहता है, ‘‘अनारकली कैद कर ली गई और मैं देखता रहा।''

अकबर व्यंग्य भरे लहजे में कहता है, ‘‘और तुम कर भी क्या सकते थे।''

सलीम भी आवाज को तेज कर कहता है, ‘‘एक अजीमोषान षहंषाह के सामने कोई कर भी क्या सकता है। मगर आज जिल्लेइलाही को अपने जुल्म और मेरे जब्त की कद्र करनी होगी।

अकबर गुस्से से कहता है, ‘‘अगर तुम्हारी आरजू में एक कनीज है, एक बांदी है तो सारी जिंदगी तुम्हें इसी तरह जब्त करना होगा।''

सलीम सवाल करता है, ‘‘ क्या परवरदिगार से मुझे इसलिए मांगा था कि जिंदगी मुझे मिले और उसके मालिक आप हों। सांसें मेरी हों और दिल की धड़कनों पर आपका कब्जा रहे। जिल्लेइलाही क्या मेरी जिंदगी आपकी दुआओं का कर्जा है तो मुझे अपने आंसूओं से अदा करना पड़ेगा।''

अकबन सलीम को समझाने की कोषिष करता है, ‘‘सलीम, अनारकली तुम्हारे काबिल नहीं।''

सलीम अपने पिता के और करीब आकर कहता है, ‘‘क्यों नहीं, एक लाडले बेटे के बाप बनकर मुझे अपने कलेजे से लगा लीजिए और उन्हीं प्यार भरी नजरों से देखिए जिनसे पहली बार आपने मुझे देखा था। मुझे हिंदुस्तान का षाहजादा नहीं अपना बेटा समझिए। और फिर कहिए अनारकली मेरे काबिल नहीं।''

अकबर थोड़े षांत स्वर में कहता है, ‘‘हम एक लाडले बेटे के षफीक बाप जरूर हैं। मगर हम षहंषाह के फर्ज को नजरअंदाज नहीं कर सकते। हम अपने बेटे के धड़कते हुए दिल के लिए हिंदुस्तान की तकदीर नहीं बदल सकते।''

सलीम अकबर के बिल्कुल सामने आकर कहता है, ‘‘तकदीरें बदल जाती हैं। जमाना बदल जाता है। मुल्कों की तारीख बदल जाती है, षहंषाह बदल जाते हैं। मगर इस बदलती हुई दुनिया में मोहब्बत जिस इंसान का दामन थाम लेती है वह इंसान नहीं बदलता।''

‘‘मगर तुझे बदलना होगा। सलीम, तुझे बदलना होगा।'' अकबर की आवाज तेज हो जाती है। वह तेज कदमों से दरबार से बाहर चला जाता है।

अकबर को कनीज से सलीम के प्यार के बारे में पता चल जाता है। अनारकली को पकड़ कर कैदखाने में डाल दिया जाता है। सलीम जब कैदखाने से मधुबाला को निकालकर भागते समय पकड़ा जाता है। सलीम हाथ में तलवार लेकर अपने पिता का मुकाबला करने के लिए जाने लगता है तो जोधाबाई उसे समझाने आती है।

जोधाबाई षांत स्वर में कहती है, ‘‘सलीम महाबली का सामना एक लौंडी के लिए।

सलीम पीछे मुड़कर गुस्से में कहता है, ‘‘नहीं, उसके लिए जो मेरे हक में मगरूर मुगलों की आबरूू और हिंदुस्तान की मलिका बनेगी।''

यह सुनकर जोधाबाई गुस्से से कहती है, ‘‘हरगिज नहीं। खुद्‌दार मुगलों की आबरू इतनी हल्की नहीं कि एक नाचीज लौंडी के बराबर तुल जाए। और हमारा हिंदुस्तान कोई तुम्हारा दिल नहीं कि एक लौंडी जिसकी मलिका बने।'' जोधाबाई तेज कदमों से जाने लगती है।

सलीम आगे बढ़कर कहता है, ‘‘तो मेरा दिल भी कोई आपका हिंदुस्तान नहीं जिसपर आप हुकूमत करें।''

जोधाबाई रुक जाती है और पलटकर कहती है, ‘‘तुम्हारे दिल पर हमारा कोई अख्तियार नहीं। लेकिन खुद तुम पर हमारा अधिकार जरूर है। आखिर तुम हमारी औलाद हो।''

सलीम नरमी से कहता है, ‘‘हां, मैं तुम्हारा औलाद हूं। मगर मुझ पर जुल्म ढाते हुए आपको जरा यह सोचना चाहिए कि मैं आपके जिगर का टुकड़ा हूं। कोई गैर या गुलाम नहीं।''

जोधाबाई उसके पास आकर रुआंसी आवाज में कहती है, ‘‘नहीं सलीम, नहीं। तुम हमारी वर्शों की प्राथनाओं का फल हो। हमारी जिंदगी भर का सरमाया हो। हमारे लाडले हो।'' फिर आवाज को कड़ाकर कहती है, ‘‘मगर यह राजनीति है। तुम इसमें हमारी ममता को आवाज न दो। हमारे गर्दन में अपनी मुहब्बत की जंजीर डालकर हमें हमारे फर्ज के दायरे से बाहर न खींचों। हमारी जिम्मेदारी और अपने मरतबे का लिहाज करो।'' सलीम को पकड़कर फिर से भावुक होकर रुआंसी आवाज में कहती है, ‘‘हिंदुस्तान के चांद। रुसवाई और बदनामी के गर्त में न जाओ। अनारकली को अपने दिल से निकाल दो। मैं तुम्हें अपने दूध का वास्ता देती हूं।''

‘‘आप अपने दूध का मुझसे मुआवजा मांगती हैं।''

सलीम जाने लगता है। जोधाबाई उसे रोककर कहती है, नहीं सलीम नहीं।''

सलीम कहता है, ‘‘ फिर यूं नहीं। वो आपका दूध मेरी रगों में खून बनकर दौड़ रहा है कहिए तो वो सब आपके कदमों में बहा दूं।'' वह कमर से कटार निकाल लेता है। ‘‘मगर मुझसे उसका सूद वसूल न करें।

जोधाबाई उसे फिर समझाने की कोषिष करती है, ‘‘चंदा, तुम जो कुछ कह रहे हो, समझ नहीं रहे हो।''

सलीम कहता है, ‘‘समझ रहा हूं। मुझे अपने कीमती हिंदुस्तान में से एक जर्रा तक न दें मगर अनारकली मुझे भीख में दे दें।'' वह जोधाबाई के पैर पकड़ लेता है, ‘‘मैं महारानी जोधा के जानो—माल का सदका और सल्तनत अकबर के सल्तनत की खैरात मांगता हूं।''

जोधा बेचैन हो जाती है, ‘‘सलीम, सलीम, ये आंसू। ये आंसू जोधा की सारी जान और महाबली की जिंदगी है जो पिघलकर तुम्हारी आंखों से टपक जाना चाहती है। इन आंसूओं को रोको। अनारकली तुम्हें दी जाएगी।''

अकबर षादी से इंकार कर देता है

मानसिंह अकबर के पास आकर उसे सारी बातें बताता है। उसकी बात सुनकर अकबर गुस्से से आग—बबूला हो जाता है।

‘‘हरगिज नहीं। षहंषाह बाबर के वारिस। बदनामी नहीं बख्षी जाएगी। हमारा हुक्म है। सलीम को जंग के मोर्चे पर दकन रवाना कर दिया जाए।''

मानसिंह कहता है, ‘‘मैदाने जंग में तलवार सिपाही के हाथ में दी जाती है, मायूस आषिक के हाथ में नहीं। षाहजादे की जान खतरे में न डालिये।''

अकबर गुस्से से कहता है, ‘‘एक कनीज के इष्क में सर टकरा—टकरा कर जीने से मैदाने जंग की मौत बेहतर है।''

जब मानसिंह जाने लगता है उसकी समय जोधाबाई आती है और उसे रुकने के लिए कहती है, ‘‘ठहरिये''।

वह अकबर की तरफ आगे बढ़ती हुई कहती है, ‘‘हमारा सलीम जंग पर नहीं जाएगा।''

अकबर जोधा से कहता है, ‘‘हमारा हुक्म अंधी ममता का मोहताज नहीं।''

जोधा उसकी बात काटते हुए कहती है, ‘‘लेकिन सलीम का मोहताज है।''

अकबर गुस्से में जोधा को रोकता है, ‘‘महारानी''

जोधा भी षहंषाह से रौबदार आवाज में कहती है, ‘‘अगर आज यह देखना है कि षहंषाह का हुक्म ठुकराया भी जा सकता है तो सलीम को हुक्म सुनाकर देखिए।''

अकबर को यह सुनकर बहुत तकलीफ होती है। वह आवाज नरम कर कहता है, ‘‘उसके दिल में हमारे लिए यह कद्र है।''

जोधा अकबर को समझाने की कोषिष करती है, ‘‘सलीम के दिल में अपनी मोहब्बत का अंदाजा उसके मौजूदा हालात से न लगाइए। यह तूफान आराम से गुजर जाने दीजिए, फिर देखिए सलीम क्या बन जाता है।''

अकबर जोधा से पूछता है, ‘‘यह तूफान किस तरह गुजरेगा?''

जोधा विनती भरे स्वर में कहती है, ‘‘उसे अनारकली दे दीजिए। अनारकली को अपना बनाकर सलीम हमारा बन जाएगा।''

अकबर मायूसी से कहता है, ‘‘अपनी औलाद को अपना बनाने के लिए हमें एक कनीज का एहसान उठाना होगा।''

जोधा भाव—विह्‌वल होकर कहती है, ‘औलाद के लिए क्या कुछ नहीं किया जाता।

अकबर जाते—जाते कहता है, ‘‘आप मां हैं, सिर्फ मां।

जोधा गुस्से से कहती है, ‘‘और आप षहंषाह हैं, सिर्फ षहंषाह।''

‘‘बेषक''

अकबर मानसिंह से मुखातिब होकर उसे हुक्म देता है, ‘‘मानसिंह, हुक्म की तामील हो।''

अनारकली से अलग करने के लिए सलीम को अकबर जंग के लिए भेज दिये जाने के बाद अकबर संगतराष को दरबार में बुलाता है। अकबर उसका स्वागत करते हुए कहता है, ‘‘मुझे यह जानकर खुषी हुई कि तुम्हारे जैसे फनकार भी हमारी सल्तनत में आबाद हैं।''

संगतराष निर्भीक होकर कहता है, ‘‘मगर सच तो यह है कि मैं आपकी सल्तनत में बरबाद हूं।''

अकबर कहता है, ‘‘हम तुम्हारी फन की खूबसूरती को मानते हैं। और तुम्हें ईनाम—ईकराम से मालामाल करते हैं।'' वह एक थाल संगतराष को देता है जिसमें हीरे—जवाहरात भरे हैं।

संगतराष सिर झुकाकर थाल लेता है, थाल को देखता है और कहता है, ‘‘फन की खूबसूरती के लिए ये ईनामात बहुत हैं'' फिर सिर उठाकर कहता है, ‘‘मगर फन की सच्चाई के लिए बहुत कम।''

अकबर उससे पूछता है, ‘‘तो क्या चाहते हो?''

‘‘मैं अपने फन की सच्चाई को सल्तनत के गोषे—गोषे में फैलाना चाहता हूं।''

‘‘तुम्हें इजाजत है।''

‘‘जो कर्म अधूरा था वो जिल्लेइलाही के फराबदिली ने पूरा कर दिया।'' संगतराष जाने लगता है।

‘‘नहीं, अभी पूरा नहीं हुआ।'' तुम्हारी जिंदगी में एक मुस्कुराती हुई बहार की कमी है। हम तुम्हें ईनाम में वो जीती—जागती नाजनीन भी अदा करते हैं जो तुम्हारे फन को पेष करने का खूबसूरत सहारा बनी थी।'' अकबर व्यंग्य से मुस्कुराता है।

संगतराष चौंकता है, ‘‘यानी''

‘‘कल अनारकली से तुम्हारी षादी कर दी जाएगी।

संगतराष कुछ कहना चाहता है, ‘‘लेकिन जिल्लेइलाही''

अकबर उसे रोककर पूछता है, ‘‘क्या ये ईनामात कम हैं?''

‘‘बहुत हैं। उम्मीद से कहीं ज्यादा। आज मैं जिल्लेइलाही के इंसाफ का कायल हो गया।'' संगतराष चला जाता है।

संगतराष अपने घर आकर कहता है, ‘‘षहंषाहों के इंसाफ और जुल्म में किस कदर कम फर्क होता है।''

इसके बाद सलीम और अकबर के बीच होने वाले युद्ध में सलीम हार जाता है और बंदी बना लिया जाता है। सलीम पर इल्जाम लगाया जाता है कि उसने मुगल षासन के खिलाफ बगावत की है और दुर्जन सिंह जैसे वफादार को बगावत के लिए भड़काया है। उससे कहा जाता है कि वह अनारकली को वापस कर दे तो उसे छोड़ दिया जाएगा। सलीम अनारकली केा अकबर को सौंपने के लिए तैयार नहीं होता। अकबर इस पर इल्जाम लगाता है कि ‘‘तुम हिंदुस्तान के मुकद्‌दस तख्त पर एक हसीन लौंडी को बैठाना चाहते हो।'' सलीम जवाब देते हुए कहता है, ‘‘और आप इस भरे दरबार में अपनी होने वाली बहू को जलील करना चाहते हैं।'' अकबर राज्य के प्रति विद्रोह के जुर्म में सलीम को सजा—ए—मौत देते हैं। वह यह घोशणा करते हैं कि ‘‘इंसाफ हमें अपने बेटे से ज्यादा अजीज है।'' सलीम इस पर टिप्पणी करते हुए कहता है, ‘‘एक संगदिल षहनषाह मौत से ज्यादा किसी को दे भी थ्या सकता है!'' उसे किल में उंचे स्थान पर बांध दिया जाता है ताकि उसे तोप से उड़ाया जा सके। विभिन्न लांग षॉट से लिए गए ये दृष्य काफी प्रभावषाली हैं। एक तरफ जंगी तोप है जो राजसत्ता की ताकत का प्रतीक है। दूसरी तरफ उंची जगह पर बंधा हुआ षाहजादा है जो प्यार के लिए षहीद होने को तैयार है और तीसरी तरफ लोगों की भीड़ जो वहां सलीम के समर्थन में जमा है। उनमें संगतराष भी षामिल है। संगतराष उनके बीच ऐसे मौजूद है, जैसे वह उनका नेतृत्व कर रहा हो। वहां खड़े लोगों को संबोधित करते हुए सलीम कहता है, ‘‘आज का तारीखी दिन अकबरे आजम की षिकस्त कर और मोहब्बत की फतह का दिन है। मैं तुम्हारा षुक्रगुजार हूं और उन मांओं को दुआएं देता हूं जिन्होंने सच्चाई और मोहब्बत की खातिर अपनी संतानें कुरबान कर दीं। मेरी आखिरी इल्त्जिा है, दुनिया में दिलवालों का साथ देना, दौलत वालों का नहीं। वहां मौजूद संगतराष और दूसरे लोग ‘‘साहिबे आलम जिंदाबाद'' के नारे से आकाष गुंजा देते हैं। इसी जिंदाबाद को संगतराष एक चुनौती गीत में बदल देता है और वह गाने लगता है, ‘‘वफा की राह में आषिक की ईद होती है, खुषी मनाओ कि मोहब्बत षहीद होती है।ण्ण्ण्ण्ण्ण्ऐ मोहब्बत जिंदाबाद।'' इस गीत के बोल सीधे, कुछ हद तक सपाट, लेकिन आम आदमी पर तत्काल असर करने वाले हैं। इसके गायन में वह षास्त्रीयता नहीं है जो अकबर के दरबारी तानसेन की गायकी में सुनाई देती है। इस दो तरह की गायकी के कंट्रास्ट का इस्तेमाल फिल्म मेें बहुत सोच—विचारकर किया गया है। ‘‘मोहब्बत जिंदाबाद'' वाले इस गीत को मोहम्मद रफी से गवाया गया है। लेकिन इस ‘‘मोहब्बत जिंदाबाद'' के संदेष में भी सांस्कृतिक एकीकरण की कोषिष को साफ तौर पर देखा जा सकता है। इस गीत के पहले अंतरे में मंदिर और मस्जिद और मुरली के तान और अजान की आवाज में जो एकता व्यक्त की गई है, अकबर ने उसी ताकत के लिए प्रयास किया था। इस तरह संगतराष का आदर्ष इस मामले में अकबर से अलग नहीं है, लेकिन गीत के षेश अंतरों का संबंध राजसत्ता की ताकत और पे्रम की ताकत के बीच के अंतर को दिखाना था। गीत का मुख्य बल इस बात पर है कि प्यार ही बुनियादी चीज है न कि राजसत्ता। सत्ता की चाह करने वाले प्यार को हासिल नहीं कर सकते। इस प्रकार गीत में अकबर के संदेष को स्वीकार करते हुए भी उससे आगे एक व्यापक मानवतावादी संदेष देने का प्रयास है। संदेष निष्चय ही बहुत सीधे और सपाट ढंग से दिया गया है। ‘‘ऐ मोहब्बत जिंदाबाद'' और ‘‘प्यार के दुष्मन हो जाएगा बरबाद'' जैसे बोलों में यह साधारणतया कुछ हद तक खटकती भी है। लेकिन इस तरह के चुनौती भरे गीतों में इस तरह की भाशा अपनाना षायद बहुत गलत नहीं है। इस प्रकार मुगल—ए—आजम में संगतराष की रचना एक खास मकसद से की गई है। यह इस दंतकथा को जहां आधुनिक आयाम देता है वहीं संगतराष के माध्यम से फिल्मकार का नजरिया अपनी पूर्णता में उभरकर सामने आता है।

फिल्म के अंतिम दृष्य में यह तराजू एक बार फिर आता है जब अनारकली की मां इंसाफ का हवाला देतेे हुए वह अंगूठी दिखाती है जो बरसों पहले सलीम ने जन्मदिन पर अकबर ने दी थी और एक बार कुछ भी मांगने और उसे पूरा करने का वचन दिया था। अकबर को एहसास होता है कि सत्ता के मद में वह इंसाफ को भूल गया है। इसके बाद के सुरंग में अकबर को अनारकली की मां का हाथ पकड़कर ले जाते हुये और वहां अनाकरली को जिंदा उसकी मां को सौंपते हुये दिखा गया है। दुनिया के नजरों में अनारकली को दीवार में जिंदा चुन दिया गया है लेकिन असल में उसे सुरंग के रास्ते अपने परिवार के साथ मुगल सल्तनत के बाहर भिजवा दिया गया है।

महत्वपूर्ण संवाद एवं दृश्य

सलीम चिष्ती की दरगाह पर अकबर

‘‘शहंषाहों के शहंषाह, तुम इस फकीर बंदे को अपने खजाने से दुनिया की तमाम नेमतें अदा की। जहांपनाह और जिल्ले इलाही पुकारने वाली आवाजें सुनाई अब बाप कहकर पुकारने वाली आवाजें भी सुना दे। हे, दोनों जहान के मालिक अकबर को दुनिसा में बेनामोनिषान

न बना।''

अनारकली की मां से अकबर का वादा

‘‘खुदा ने महारानी की गोद आबाद की।'' जिल्ले इलाही को चांद सा बेटा और मुगल सल्तनम को वलिहत मुबारक हो।'' अकबर कहता है, ‘‘तुम अकबर की मायूस जिंदगी में खुदा की रहमतों का पैगाम लेकर आयी हो। लो, लो यह अंगूठी। बतौर निषानी अपने पास रखो।'' वह तराजू के पास जाकर और तराजू को पकड़कर कहता है, ‘‘इंसाफ के इस मुकद्‌दस्त तराजू की कसम अकबर से जिंदगी में एक बार जो मांगोगी अदा किया जाएगा।

बुत पर से लबादा हटने के बाद

बुत हिलता है और कहता है कनीज फरिष्ता नहीं इंसान है। अकबर उससे पूछता है, ‘‘मगर तुझे बुत बनने पर किसने मजबूर किया? कनीज जवाब देती है, ‘‘आपके सल्तनत के एक जिद्‌दी संगतराष ने। जो गुमनामी के पर्दे से बाहर आना नहीं चाहता।'' अकबर संगतराष की प्रतिभा से प्रभावित कहता है, ‘‘संगतराष का अनोखा फन यकीनन दाद के काबिल है। लेकिन तीर चलते वक्त तू खामोष क्यों रही?'' कनीज बेखौफ होकर कहती है, ‘‘कनीज देखना चाहती थी कि अफसाने हकीकत में किस तरह बदलते हैं।'' अकबर प्रसन्न होकर कहता है, ‘‘बहुत खूब, हम तेरे हौसले की दाद देते हैं। रानी आप इसे अपनी कनीजों में दाखिल कर लीजिए और हम इसे अनारकली का खिताब अता करते हैं।''

सलीम का अनारकली के नाम पहला पत्र

‘‘माहेरूमेंजबीं अनारकली, दिलरुबा दिलनसीं अनारकली। हो ये मालूम तमको वादे सलाम, गमे फुरकत से दिल है बेआराम। रात—दिन तुमको याद करते हैं। आरजूं में तुम्हारी मरते हैं। रात काटेंगे इंतजार में हम, मगर अभी बुझती किनार हैं हम। बंद करके कमल में खत का जवाब नहर के राह भेज देना ऐ शदा। भूल जाना न ऐ वफा की शमी मुंतजिर है जवाबे खत। —सलीम।''

सलीम और दुर्जन सिंह के बीच संवाद

अनारकली जवाब लिखकर उस कागज को कमल के एक फूल के बीच में रखकर नहर के रास्ते उसे सलीम के पास भेज देती है। जब कमल सलीम के पास पहुंचता है तो सलीम उसमें से खत निकालकर पढ़ता है और परेषान हो जाता है। दुर्जन उससे पूछता है, ‘‘क्या इंकार है?'' ‘‘हां'' ‘‘वजह?'' ‘‘इसलिए कि वह एक कनीज है और बदकिस्मती से मैं एक शाहजादा हूं।'' दुर्जन उसे सच्चाई से अवगत कराने के लिए कहता है ‘‘और दोनों सूरतें अपनी—अपनी जगह अटल है।'' सलीम कहता है, ‘‘हम इंसान हैं। यह भी अटल है।''

सलीम और अनारकली के बीच संवाद

सलीम अनारकली से मिलने जाता है। अनारकली हाथ में जली हुई मोमबत्ती लेकर बैठी है। सलीम के आने पर वह उठकर सहमी हुई सी खड़ी हो जाती है और आगे बढ़ती है। सलीम उससे मुखातिब होकर कहता है, ‘‘अपना तमाषा देखती रही और इष्क अपनों का सहारा लेकर अपनी हद से आगे बढ़ गया। अनारकली मायूसी से कहती है, ‘‘साहिबेआलम आफताब की रोषनी दुनिया के हर गुलषन को रौषन करती है। वो आफताब नहीं तकलीफ की''। सलीम कहता है, ‘‘ताकि इस आफताब में जब्त हो जाए। अनारकली डरती हुई कहती है, ‘‘खुदा के लिए साहिबे आलम रूसवा न कीजिये। आप आका हैं, मैं एक कनीज। सलीम आवेष में कहता है, ‘‘मैं आज बुलंदी और परस्ती की यह दीवार गिरा देना चाहता हूं। बैठ जाओ अनारकली।'' ‘‘साहिबेआलम'' ‘‘अनारकली इधर देखो। मैं तुम्हारी आंखों में अपनी मोहब्बत का इकरार देखना चाहता हूं।'' अनारकली मोमबत्ती की लौ को हाथ से ढककर कहती है ‘‘इन्हें न देखिए शाहजादे। इनमें एक कनीज की सहमी हुई हसरतों के सिवा और कुछ नहीं। सलीम कहता है, ‘‘भूल जाओ कि तुम एक कनीज हो। और सलीम को अपनी आंखों में वो देख लेने दो जो तुम्हारी जबान कहते हुए डरती है। मेरी आंखों से मेरे ख्वाब न छीनिए शाहजादे। मैं मर जाउंगी।'' और अनारकली अपनी हाथ से मोमबत्ती की लौ पर हाथ रखकर उसे बुझा देती है। सलीम कहता है, ‘‘मैं इन ख्वाबों को हकीकत में बदल दूंगा।''

सलीम और जोधाबाई के बीच संवाद

सलीम जब कैदखाने से मधुबाला को निकालकर भागते समय पकड़ा जाता है। सलीम हाथ में तलवार लेकर अपने पिता का मुकाबला करने के लिए जाने लगता है तो जोधाबाई उसे समझाने आती है।

जोधाबाई शांत स्वर में कहती है, ‘‘सलीम, महाबली का सामना एक लौंडी के लिए।

सलीम पीछे मुड़कर गुस्से में कहता है, ‘‘नहीं, उसके लिए जो मेरे हक में मगरूर मुगलों की आबरूू और हिंदुस्तान की मलिका बनेगी।''

यह सुनकर जोधाबाई गुस्से से कहती है, ‘‘हरगिज नहीं। खुद्‌दार मुगलों की आबरू इतनी हल्की नहीं कि एक नाचीज लौंडी के बराबर तुल जाए। और हमारा हिंदुस्तान कोई तुम्हारा दिल नहीं कि एक लौंडी जिसकी मलिका बने।'' जोधाबाई तेज कदमों से जाने लगती है।

सलीम आगे बढ़कर कहता है, ‘‘तो मेरा दिल भी कोई आपका हिंदुस्तान नहीं जिसपर आप हुकूमत करें।''

जोधाबाई रुक जाती है और पलटकर कहती है, ‘‘तुम्हारे दिल पर हमारा कोई अख्तियार नहीं। लेकिन खुद तुम पर हमारा अधिकार जरूर है। आखिर तुम हमारी औलाद हो।''

सलीम नरमी से कहता है, ‘‘हां, मैं तुम्हारा औलाद हूं। मगर मुझ पर जुल्म ढाते हुए आपको जरा यह सोचना चाहिए कि मैं आपके जिगर का टुकड़ा हूं। कोई गैर या गुलाम नहीं।''

जोधाबाई उसके पास आकर रुआंसी आवाज में कहती है, ‘‘नहीं सलीम, नहीं। तुम हमारी वर्शों की प्राथनाओं का फल हो। हमारी जिंदगी भर का सरमाया हो। हमारे लाडले हो।'' फिर आवाज को कड़ाकर कहती है, ‘‘मगर यह राजनीति है। तुम इसमें हमारी ममता को आवाज न दो। हमारे गर्दन में अपनी मुहब्बत की जंजीर डालकर हमें हमारे फर्ज के दायरे से बाहर न खींचों। हमारी जिम्मेदारी और अपने मरतबे का लिहाज करो।''

सलीम को पकड़कर फिर से भावुक होकर रुआंसी आवाज में कहती है, ‘‘हिंदुस्तान के चांद। रुसवाई और बदनामी के गर्त में न जाओ। अनारकली को अपने दिल से निकाल दो। मैं तुम्हें अपने दूध का वास्ता देती हूं।''

‘‘आप अपने दूध का मुझसे मुआवजा मांगती हैं।''

सलीम जाने लगता है। जोधाबाई उसे रोककर कहती है, नहीं सलीम नहीं।''

सलीम कहता है, ‘‘ फिर यूं नहीं। वो आपका दूध मेरी रगों में खून बनकर दौड़ रहा है कहिए तो वो सब आपके कदमों में बहा दूं।'' वह कमर से कटार निकाल लेता है। ‘‘मगर मुझसे उसका सूद वसूल न करें।

जोधाबाई उसे फिर समझाने की कोषिष करती है, ‘‘चंदा, तुम जो कुछ कह रहे हो, समझ नहीं रहे हो।''

सलीम कहता है, ‘‘समझ रहा हूं। मुझे अपने कीमती हिंदुस्तान में से एक जर्रा तक न दें मगर अनारकली मुझे भीख में दे दें।'' वह जोधाबाई के पैर पकड़ लेता है, ‘‘मैं महारानी जोधा के जानो—माल का सदका और सल्तनत अकबर के सल्तनत की खैरात मांगता हूं।''

जोधा बेचैन हो जाती है, ‘‘सलीम, सलीम, ये आंसू। ये आंसू जोधा की सारी जान और महाबली की जिंदगी है जो पिघलकर तुम्हारी आंखों से टपक जाना चाहती है। इन आंसूओं को रोको। अनारकली तुम्हें दी जाएगी।''

अकबर, मानसिंह और जोधाबाई के बीच संवाद

मानसिंह अकबर के पास आकर उसे सारी बातें बताता है। उसकी बात सुनकर अकबर गुस्से से आग—बबूला हो जाता है।

‘‘हरगिज नहीं। शहंषाह बाबर के वारिस। बदनामी नहीं बख्शी जाएगी। हमारा हुक्म है। सलीम को जंग के मोर्चे पर दकन रवाना कर दिया जाए।''

मानसिंह कहता है, ‘‘मैदाने जंग में तलवार सिपाही के हाथ में दी जाती है, मायूस आषिक के हाथ में नहीं। शाहजादे की जान खतरे में न डालिये।''

अकबर गुस्से से कहता है, ‘‘एक कनीज के इष्क में सर टकरा—टकरा कर जीने से मैदाने जंग की मौत बेहतर है।''

जब मानसिंह जाने लगता है उसकी समय जोधाबाई आती है और उसे रुकने के लिए कहती है, ‘‘ठहरिये''।

वह अकबर की तरफ आगे बढ़ती हुई कहती है, ‘‘हमारा सलीम जंग पर नहीं जाएगा।''

अकबर जोधा से कहता है, ‘‘हमारा हुक्म अंधी ममता का मोहताज नहीं।''

जोधा उसकी बात काटते हुए कहती है, ‘‘लेकिन सलीम का मोहताज है।''

अकबर गुस्से में जोधा को रोकता है, ‘‘महारानी''

जोधा भी शहंषाह से रौबदार आवाज में कहती है, ‘‘अगर आज यह देखना है कि शहंषाह का हुक्म ठुकराया भी जा सकता है तो सलीम को हुक्म सुनाकर देखिए।''

अकबर को यह सुनकर बहुत तकलीफ होती है। वह आवाज नरम कर कहता है, ‘‘उसके दिल में हमारे लिए यह कद्र है।''

जोधा अकबर को समझाने की कोषिष करती है, ‘‘सलीम के दिल में अपनी मोहब्बत का अंदाजा उसके मौजूदा हालात से न लगाइए। यह तूफान आराम से गुजर जाने दीजिए, फिर देखिए सलीम क्या बन जाता है।''

अकबर जोधा से पूछता है, ‘‘यह तूफान किस तरह गुजरेगा?''

जोधा विनती भरे स्वर में कहती है, ‘‘उसे अनारकली दे दीजिए। अनारकली को अपना बनाकर सलीम हमारा बन जाएगा।''

अकबर मायूसी से कहता है, ‘‘अपनी औलाद को अपना बनाने के लिए हमें एक कनीज का एहसान उठाना होगा।''

जोधा भाव—विह्‌वल होकर कहती है, ‘औलाद के लिए क्या कुछ नहीं किया जाता।

अकबर जाते—जाते कहता है, ‘‘आप मां हैं, सिर्फ मां।

जोधा गुस्से से कहती है, ‘‘और आप शहंषाह हैं, सिर्फ शहंषाह।''

‘‘बेषक''

अकबर मानसिंह से मुखातिब होकर उसे हुक्म देता है, ‘‘मानसिंह, हुक्म की तामील हो।''

अकबर और संगतराश के बीच संवाद

संगतराष को अनारकली से शादी का हुक्म

अकबर संगतराष को बुलवाता है।

संगतराष से अकबर कहता है, ‘‘मुझे यह जानकर खुषी हुई कि तुम्हारे जैसे फनकार भी हमारी सल्तनत में आबाद हैं।''

संगतराष निर्भीक होकर कहता है, ‘‘मगर सच तो यह है कि मैं आपकी सल्तनत में बरबाद हूं।''

अकबर कहता है, ‘‘हम तुम्हारी फन की खूबसूरती को मानते हैं। और तुम्हें ईनाम—ईकराम से मालामाल करते हैं।'' वह एक थाल संगतराष को देता है जिसमें हीरे—जवाहरात भरे हैं।

संगतराष सिर झुकाकर थाल लेता है, थाल को देखता है और कहता है, ‘‘फन की खूबसूरती के लिए ये ईनामात बहुत हैं'' फिर सिर उठाकर कहता है, ‘‘मगर फन की सच्चाई के लिए बहुत कम।''

अकबर उससे पूछता है, ‘‘तो क्या चाहते हो?''

‘‘मैं अपने फन की सच्चाई को सल्तनत के गोषे—गोषे में फैलाना चाहता हूं।''

‘‘तुम्हें इजाजत है।''

‘‘जो कर्म अधूरा था वो जिल्लेइलाही के फराबदिली ने पूरा कर दिया।'' संगतराष जाने लगता है।

‘‘नहीं, अभी पूरा नहीं हुआ।'' तुम्हारी जिंदगी में एक मुस्कुराती हुई बहार की कमी है। हम तुम्हें ईनाम में वो जीती—जागती नाजनीन भी अदा करते हैं जो तुम्हारे फन को पेष करने का खूबसूरत सहारा बनी थी।'' अकबर व्यंग्य से मुस्कुराता है।

संगतराष चौंकता है, ‘‘यानी''

‘‘कल अनारकली से तुम्हारी शादी कर दी जाएगी।

संगतराष कुछ कहना चाहता है, ‘‘लेकिन जिल्लेइलाही''

अकबर उसे रोककर पूछता है, ‘‘क्या ये ईनामात कम हैं?''

‘‘बहुत हैं। उम्मीद से कहीं ज्यादा। आज मैं जिल्लेइलाही के इंसाफ का कायल हो गया।'' संगतराष चला जाता है।

संगतराष अपने घर आकर कहता है, ‘‘शहंषाहों के इंसाफ और जुल्म में किस कदर कम फर्क होता है।''

के. आसिफ : निर्देशक

के. आसिफ के नाम से विख्यात करीमुद्‌दीन आसिफ के खाते में महज तीन पूरी फिल्म और एक आधी फिल्म ही आई लेकिन इसके बावजूद वह फिल्मकारों की न केवल समकालीन पीढ़ी बल्कि आगे आने वाली हर पीढ़ी के लिये प्रेरणा स्रोत बन गये और उनकी बनायी फिल्म मुगल—ए—आजम भारतीय सिनेमा की सर्वश्रेश्ठ मिसाल बन गयी।

करीमुद्दीन आसिफ (1924—1971) एक परिपूर्ण व्यक्तित्व के गठीले एवं लंबे—चौड़े कद—काठी के अपनी ही धुन में रहने वाले इंसान थे। वह अक्सर अपनी ऊंगलियों के बीच सिगार दबाए हुए दिखते थे। वह अभिनेता नाजिर के भतीजे थे। नाजिर उन्हें षो बिजनेस में लाना चाहते थे लेकिन उसमें उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। उन्होंने दर्जी की एक दूकान षुरू कर दी। लेकिन कुछ समय में ही यह दूकान बंद हो गई क्योंकि युवा आसिफ अपना सारा समय अपने पड़ोस के दर्जी की बेटी के साथ रोमांस करने में बिताने लगे थे। उसके बाद नाजिर ने उन्हेें फिल्म प्रोडक्षन में ध्यान लगाने के लिए दबाव डाला। उन्होंने फिल्म निर्माण—निर्देषन के क्षेत्र में उतरने के बाद फिल्म फूल (1944) के निर्देषन के साथ अपने फिल्मी करियर की षुरुआत की। उस समय के लोकप्रिय कलाकारों — पृथ्वीराज कपूर, दुर्गा खोटे, सुरैया, मजहर खान और सितारा देवी द्वारा अभिनीत इस फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर अच्छी सफलता मिली। इसके बाद उन्होंने दिलीप कुमार और नरगिस अभिनीत फिल्म हलचल के निर्माण में जुट गये। इसी दौरान अपनी पहली फिल्म फूल की सफलता से प्रेरित होकर मुगल सम्राट अकबर और दरबारी नर्तकी अनारकली के जीवन पर आधारित मुगल—ए—आजम फिल्म बनाने की योजना बना डाली। इस फिल्म में उन्होंने मुख्य भूमिका में चंद्रमोहन और नरगिस का लेना चाहा। लेकिन 1946 में इस फिल्म का निर्माण षुरू होने से पहले ही चंद्रमोहन की मृत्यु हो गयी। उस समय आसिफ ने इस फिल्म के निर्माण को अस्थायी रूप से टाल दिया। और वह अपनी दूसरी फिल्म हलचल के निर्माण में लग गए और 1951 में फिल्म हलचल रीलिज हुई जो बॉक्स आफिस पर अत्यंत सफल रही। इस सफलता से उत्साहित होकर उसी साल आसिफ ने दिलीप कुमार और मधुबाला को मुख्य भूमिका में लेकर मुगल—ए—आजम फिल्म का निर्माण षुरू किया जो नौ साल बाद वर्श 1960 में रीलिज हुई। इस फिल्म ने देष के अलावा विदेषों में भी भारी सफलता पायी और यह फिल्म भारतीय सिनेमा की मील का पत्थर बन गयी।

के आसिफ का जन्म उत्तर प्रदेष के इटावा में 14 जून, 1924 को हुआ था। उनके पिता का नाम डा. फजल करीम एवं मां का नाम बीबी गुलाम फातिमा था। उनके बचपन का नाम आसिफ करीम था। उनकी बड़ी बहन का नाम सिकंदर बेगम था जो बाद में अभिनेता, निर्देशक एवं निर्माता नाजिर अहमद खान की की बीबी बनी। वह अपने भाइयों में सबसे छोटे थेमें जन्मे के. आसिफ मुगल—ए—आजम के साथ ही ऐतिहासिक हो गए। मुगल—ए—आजम की सफलता से प्रेरित होकर उन्होंने फिल्म लव एंड गॉड के निर्माण की योजना बनायी जो अधूरी रह गयी। यह फिल्म पूरी तरह से रंगीन बनाई जा रही थी। इस फिल्म को मुगल—ए—आजम से भी भव्य बनाने की योजना थी। इस फिल्म में उन्होंने मुख्य भूमिका में गुरूदत्त और निम्मी को लिया लेकिन वर्श 1964 में गुरूदत्त की मृत्यु हो गयी और फिल्म अधूरी रह गयी। उसके बाद आसिफ ने संजीव कुमार को लेकर फिल्म का निर्माण षुरू किया लेकिन फिल्म के निर्माण के दौरान ही 9 मार्च, 1971 को 47 साल की उम्र में के. आसिफ की मृत्यु हो गयी और यह फिल्म फिर अधूरी रह गयी। वर्श 1986 में आसिफ की विधवा अख्तर आसिफ ने फिल्म के निर्माण की जिम्मेदारी ली लेकिन यह फिल्म अधूरी ही रीलिज हुई। हालांकि आसिफ ने सस्ता खून महंगा पानी का भी निर्माण षुरू किया था लेकिन यह फिल्म निर्माण के पहले चरण में ही बंद हो गई।

उनकी ऐतिहासिक फिल्म मुगल ऐ आजाम जब रिलीज हुई तो उसने हर मामले में इतिहास रचा। यह फिल्म न केवल उस समय तक की सर्वश्रेश्ठ फिल्म साबित हुई बल्कि आज तक यह फिल्म भारत के सर्वोत्कष्श्ट फिल्मों की सूची में अपना स्थान षिखर पर बनाए हुए है। इसने बॉक्स आफिस पर रेकार्ड तोड़ सफलता हसिल की। यह फिल्मी दुनिया के जानकारों के साथ—साथ आम लोगों के लिए आकर्शण का केन्द्र बन गई। इस फिल्म को हमेषा की टॉप 10 फिल्मों में षामिल किया गया। यह एकमात्र वैसी ष्याम—ष्वेत फिल्म है जो जब कभी भी कहीं भी और किसी भी सिनेमाघर में लगती है तो हॉल लगातार हाउसफुल रहता है और जब किसी टेलीविजन चैनल से प्रसारित होती है तो दर्षक जरूरी कामों को स्थगित करके यह फिल्म देखना नहीं भूलते, भले ही उन्होंने पहले इस फिल्म को दर्जनों बार देख रखी हो। बाद में इस फिल्म को रंगीन बना कर दोबारा रिलीज किया गया और इसका रंगीन संस्करण भी हिट साबित हुआ। मुगल—ए—आजम पहली फिल्म है जिसे रंगीन बनाकर दोबारा रिलीज किया गया।

मुगल—ए—आजम इतिहास की सबसे मंहगी फिल्मों की सूची में षामिल है। उस समय इस फिल्म के निर्माण पर लगभग एक करोड़ रुपये खर्च हुए जबकि उस समय ए—ग्रेड की फिल्म का औसत बजट 10 लाख रुपये से अधिक नहीं होता था।

षापूर जी पलोनजी मिस्त्री

मुगले आजम के निर्माण के लिये जितना श्रेय के आसिफ को जाता है उससे कम श्रेय षापूर जी पलोनजी मिस्त्री को नहीं हैं, क्योंकि उनकी मदद के बगैर इस फिल्म का निर्माण असंभव था।

मुगले आजाम के निर्माण में उस जमाने में खर्च हुये डेढ़ करोड़ की रकम षापुर जी ने लगाये थे। यही नहीं, इस फिल्म का रंगीन संस्करण जारी करने में भी उनकी कंपनी ने लगभग पांच करोड़ रुपये खर्च किए।

षापूरजी 1929 में एक पारसी परिवार में पैदा हुए। इस परिवार ने 1865 में अपनी कंस्ट्रक्षन कंपनी स्थापित कर ली थी। हालांकि षापूरजी को विरासत में बहुत कुछ मिला, लेकिन उन्होंने उस थाती को जिस तरह से संभाला और आगे बढ़ाया वह काबिले तारीफ है।

चमक—दमक, तड़क—भड़क से दूर रहने वाले षापूरजी न तो कभी साक्षात्कार देते थे और न ही सार्वजनिक रूप से नजर आते थे। टाटा समूह में उन्हें ‘‘फैंटम अॉफ बांबे हाउस'' के रूप में जाना जाता था। गौरतलब है कि बांबे हाउस टाटा समूह का मुख्यालय है।

जमषेदपुर टाटा समूह में रतन टाटा की हिस्सेदारी एक फीसदी से भी कम है, जबकि षापूरजी के पास 18 फीसदी से भी ज्यादा षेयर थे। इस तरह वह टाटा समूह के सबसे बड़े षेयरधारक थे। कंस्ट्रक्षन के अलावा षापूरजी पलोनजी एंड कंपनी लिमिटेड आइटी और टेक्सटाइल के क्षेत्र में भी सक्रिय है। आयरिष मूल की पेरिन दुबाष के साथ षादी करने के बाद उन्होंने आयरलैंड की नागरिकता ले ली। फोर्ब्‌स पत्रिका ने 2011 में उनकी संपत्ति 8.8 अरब डॉलर आंकी और उन्हें सबसे धनी आयरिष घोशित किया। देष—विदेष में अपने कंस्ट्रक्षन व्यवसाय को फैला चुके षापूरजी को देष की सबसे ऊंची इमारत ‘‘इंपीरियल टावर'' के निर्माता के रूप में भी जाना जाता है।

खाड़ी देषों में कई ‘‘लैंडमार्क'' इमारतें खड़ी कर चुकी षापूरजी की कंपनी ने मस्कत के सुल्तान का महल भी बनवाया था।

षापुर जी के पुत्र सायरस मिस्त्री टाटा ग्रुप के वाइस चेयरमैन हैं और उन्होंने षापूरजी कंपनी बुलंदियों पर पहुंचाया।

जमषेदपुररू टाटा समूह का उपाध्यक्ष बनने से पूर्व षापूरजी पलोनजी अगस्त, 2006 से टाटा ग्रुप के डायरेक्टर थे। वह आदि गोदरेज के बाद सर्वाधिक धनी पारसी पलोनजी षापूरजी मिस्त्री के सबसे छोटे बेटे हैं। साइरस की पढ़ाई—लिखाई लंदन में हुई है। उन्होंने यहां के इंपीरियल कॉलेज से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक किया है। साइरस ने लंदन बिजनेस स्कूल से मैनेजमेंट में एमएससी की डिग्री भी ली है। उनका भारतीय मनोरंजन उद्योग में 22 साल का लंबा अनुभव रहा है। वह जून, 2003 तक फोर्ब्‌स के गैर कार्यकारी निदेषक रह चुके हैं। साइरस के नेतृत्व में षापूरजी पलोनजी का कंस्ट्रक्षन कारोबार 2 करोड़ डॉलर से बढ़कर 1.5 अरब डॉलर हो गया। साइरस की अगुआई में देष का सबसे ऊंचा आवासीय टावर, सबसे लंबा रेल ब्रिज और सबसे किफायती हाउसिंग प्रोजेक्ट लांच हुआ।

पृथ्वीराज कपूर — अभिनेता

पष्थ्वीराज कपूर का नाम एक ऐसे अभिनेता के रूप में याद — किया जाता है, जिन्हाेंने अपनी कड़क आवाज, रोबदार भाव—भंगिमाओं अौर दमदार अभिनय के बल पर लगभग चार दषकाें तक सिने दर्षकाें के दिलाें पर राज किया। पष्थ्वीराज कपूर 1928 में बंबई में इंपैरियल फिल्म कंपनी से जुडे़ थे। वर्श 1930 में बीपी मिश्रा की फिल्म सिनेमा गर्ल में उन्हाेंने अभिनय किया। इसके कुछ समय पष्चात्‌ एंडरसन की थिएटर कंपनी के नाटक ‘‘षेक्सपियर'' में भी उन्हाेंने अभिनय किया। लगभग दो वर्श तक फिल्म इंडस्ट्री में संघर्श करने के बाद पष्थ्वीराज को वर्श 1931 में प्रदर्षित फिल्म आलम आरा में सहायक अभिनेता के रूप में काम करने का मौका मिला। पष्थ्वीराज के पिता दीवान बषेस्वरनाथ कपूर पुलिस विभाग में सब इंस्पेक्टर के रूप में कार्यरत थे। पष्थ्वीराज ने अपनी प्रारंभिक षिक्षा लयालपुर अौर लाहौर में रहकर पूरी की। कुछ दिनाें के बाद उनके पिता का तबादला पेषावर में हो गया। पष्थ्वीराज ने अपनी आगे की पढ़ाई पेषावर के एडवर्ड कॉलेज से की। साथ ही उन्हाेंने एक वर्श तक कानून की पढ़ाई भी की लेकिन बीच मे ही उन्हाेंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी, क्याेंकि उस समय तक उनका रूझान थिएटर की ओर हो गया था। महज 18 वर्श की उम्र में ही उनका विवाह हो गया अौर वर्श 1928 की सर्दियों में वह अपने तीन बच्चों को पत्नी के पास छोड़कर अपनी चाची से आर्थिक सहायता लेकर पेषावर से अपने सपनाें के षहर बंबई पहुंचे। 1931 में भारत की पहली बोलती फिल्म आलम आरा बनी जिसमें पष्थ्वीराज ने एक किरदार निभाया। वर्श 1933 में पष्थ्वीराज कपूर कोलकाता के मषहूर न्यू थिएटर के साथ जुडे़। वर्श 1933 में प्रदर्षित फिल्म राज रानी अौर वर्श 1934 में देवकी बोस की फिल्म सीता की कामयाबी के बाद बतौर अभिनेता पष्थ्वीराज अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। इसके बाद पष्थ्वीराज ने न्यू थिएटर निर्मित कई फिल्माें मे अभिनय किया। इन फिल्माें में मंजिल (1936) अौर प्रेसिडेंट (1937) जैसी फिल्में षामिल हैं। वर्श 1937 में प्रदर्षित फिल्म विद्यापति में पष्थ्वीराज के अभिनय को दर्षकाें ने काफी सराहा। वर्श 1938 में चंदू लाल षाह के रंजीत मूवीटोन के लिए पष्थ्वीराज अनुबंधित किए गए। रंजीत मूवी के बैनर तले वर्श 1940 में प्रदर्षित फिल्म पागल में पष्थ्वीराज कपूर ने अपने सिने करियर में पहली बार एंटी हीरो की भूमिका निभाई। इसके बाद वर्श 1941 में सोहराब मोदी की फिल्म सिकंदर की सफलता के बाद पष्थ्वीराज कामयाबी के षिखर पर जा पहुंचे। वर्श 1944 में पष्थ्वीराज कपूर ने अपनी सारी जमा पूंजी लगाकर अपनी खुद की थियेटर कंपनी पष्थ्वी थिएटर षुरू की। सोलह वर्श में पष्थ्वी थिएटर के 2662 षो हुए जिनमें पष्थ्वीराज ने लगभग सभी षो में मुख्य किरदार निभाया। पष्थ्वी थिएटर में उन्हाेंने आधुनिक अौर षहरी विचारधारा का इस्तेमाल किया, जो उस समय के फारसी अौर परंपरागत थिएटराें से काफी अलग था। वह षो एक दिन के अंतराल पर नियमित रूप से होता था। एक बार तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उनसे विदेष में जा रहे सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडल का प्रतिनिधित्व करने की पेषकष की, लेकिन पष्थ्वीराज ने नेहरू जी से यह कह उनकी पेषकष नामंजूर कर दी कि थिएटर के काम को छोड़कर वह विदेष नहीं जा सकते। पष्थ्वी थिएटर के बहुचर्चित कुछ प्रमुख नाटकाें में दीवार, पठान (1947), गद्‌दार (1948) अौर पैसा (1954) षामिल है। पष्थ्वीराज ने अपने थिएटर के जरिए कई छुपी हुई प्रतिभा को आगे बढ़ने का मौका दिया, जिनमें रामानंद सागर अौर षंकर—जयकिषन जैसे बड़े नाम षामिल हैं। धीरे—धीरे दर्षकों का ध्यान थिएटर की ओर से हट गया, क्याेंकि उन दिनाें दर्षकाें के उपर रूपहले पर्दे का क्रेज कुछ ज्यादा ही हावी हो चला था। पष्थ्वी थिएटर के प्रति पष्थ्वीराज इस कदर समर्पित थे कि तबीयत खराब होने के बावजूद भी वह हर षो में हिस्सा लिया करते थे।

विद्यापति (1937), सिकंदर (1941), दहेज (1950), आवारा (1951), जिंदगी (1964), आसमान महल (1965), तीन बहूरानियां (1968) आदि फिल्में आज भी पष्थ्वीराज के अभिनय की वजह से यादगार मानी जाती हैं। पचास के दषक में पष्थ्वीराज कपूर की जो फिल्में प्रदर्षित हुइर्ं उनमें षांताराम की दहेज (1950) के साथ ही उनके पुत्र राजकपूर निर्मित फिल्म आवारा प्रमुख है। फिल्म आवारा में पष्थ्वीराज कपूर ने अपने पुत्र राजकपूर के साथ अभिनय किया। साठ का दषक आते—आते पष्थ्वीराज कपूर ने फिल्माें में काम करना काफी कम कर दिया। इस दौरान उनकी मुगले आजम, हरिष्चंद्र तारामती, सिकंदरे आजम, आसमान महल जैसी कुछ सफल फिल्में प्रदर्षित हुई। वर्श 1960 में प्रदर्षित के. आसिफ की मुगले आजम में उनके सामने अभिनय सम्राट दिलीप कुमार थे, इसके बावजूद पष्थ्वीराज कपूर अपने दमदार अभिनय से दर्षकाें का ध्यान अपनी ओर आकर्शित करने में सफल रहे। मुगल—ए—आजम में इस कलाकार ने बेटे के मोह में उलझे षहंषाह जलालुद्दीन अकबर के किरदार को अमर कर दिया। पष्थ्वीराज का अभिनय दिन पर दिन निखरता गया अौर हिन्दी सिनेमा षैषवकाल से युवावस्था की ओर अग्रसर होता गया।

वर्श 1965 में प्रदर्षित फिल्म आसमान महल में पष्थ्वीराज ने अपने सिने करियर की एक अौर न भूलने वाली भूमिका निभाई। इसके बाद वर्श 1968 में प्रदर्षित फिल्म तीन बहुरानियां में पष्थ्वीराज ने परिवार के मुखिया की भूमिका निभाई, जो अपनी बहुरानियाें को सच्चाई की राह पर चलने के लिए प्रेरित करता है। इसके साथ ही अपने पुत्र रणधीर कपूर की फिल्म कल आज अौर कल में भी पष्थ्वीराज कपूर ने यादगार भूमिका निभाई। वर्श 1969 में पष्थ्वीराज कपूर ने एक पंजाबी फिल्म नानक नाम जहां है में भी अभिनय किया। फिल्म की सफलता ने लगभग गुमनामी में आ चुके पंजाबी फिल्म इडस्ट्री को एक नया जीवन दिया। फिल्म इंडस्ट्री में उनके महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए पष्थ्वीराज वर्श 1969 में भारत सरकार द्वारा पद्‌म भूशण से सम्मानित किए गए। इसके साथ ही फिल्म इंडंस्ट्री के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के से भी पष्थ्वीराज कपूर को सम्मानित किया गया। तीन नवंबर 1906 को पंजाब के लयालपुर षहर में जन्में महान अभिनेता पष्थ्वीराज कपूर कैंसर के कारण 29 मई 1972 को इस दुनिया से रूखसत हो गए। 1972 में उनकी मष्त्यु के पष्चात्‌ उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी नवाजा गया। उनके छोटे पुत्र षषि कपूर ने उनके सम्मान में पष्थ्वी थिएटर को पुनर्जीवित किया अौर अब षषि की बेटी संजना इसे आगे बढ़ा रही हैं। पष्थ्वीराज ने जो पौधा लगाया था वह आज बॉलीवुड का एक घना अौर छायादार पेड़ बन चुका है। उनके तीनाें बेटाें राज कपूर, षम्मी कपूर अौर षषि कपूर ने इस विरासत को आगे बढ़ाया। राज कपूर के बेटाें रणधीर कपूर, ऋशि कपूर अौर राजीव कपूर ने अपने परिवार की परपरा बनाए रखी अौर अब बॉलीवुड के इस प्रथम परिवार की अगली पीढ़ी के तौर पर रणधीर कपूर की पुत्रियां करिष्मा तथा करीना अौर ऋशि कपूर के पुत्र रणवीर पष्थ्वीराज की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं।

दिलीप कुमार — अभिनेता

‘‘पाली हिल केएक बंगले में आधी रात के बाद टेलीफोन की घंटी घनघना उठी। उनींदी अवस्था में एक व्यक्ति ने रिसीवर उठाया। दूसरी ओर से आवाज आई, मैं राज। अभी तेरी फिल्म षक्ति देखी, लालेकृ बस हो गया फैसला कि इस देष में केवल एक ही दिलीप कुमार है। उसके लेवल को कोई छू ही नहीं सकता!'' फोन करने वाला कोई और नहीं अपने समय के मषहूर अभिनेता, निर्माता और निर्देषक राज कपूर थे।

सुपर स्टार अमिताभ बच्चन ने दिलीप साहब को दादा साहब फालके पुरस्कार मिलने के समय लिखा था, उत्तम नहीं, सर्वोत्तम हैं दिलीप कुमार। एक बार उन्होंने यहां तक कहा, अगर कोई ऐक्टर यह कह रहा है कि वह दिलीप कुमार से प्रभावित नहीं है, तो वह झूठ बोल रहा है।

भारतीय सिनेमा पर जिस एक षख्स ने सबसे अधिक छाप छोड़ी और आज तक अभिनय की कसौटी बना हुआ है वह और कोई नहीं दिलीप कुमार हैं जिन्होंने फिल्मी अभिनय की पूरी अवधारणा को बदल दिया। भारतीय सिनेमा में 1940 से लेकर 1960 का एक दौर था जब भारतीय दर्षकों के दिलों पर दिलीप कुमार का ही राज चलता था। दिलीप कुमार एक महान कलाकार हैं अौर उनके उत्कृश्ट अभिनय के लिये उन्हें हमेषा याद किया जायेगा।

अभिनय की चलती—फिरती पाठषाला माने जाने वाले दिलीप कुमार का असली नाम युसुफ खान है। उनका जन्म पेषावर (जो अब पाकिस्तान में है) में सन्‌ 1922 में हुआ। युवावस्था में वह घर से भाग कर पुणे आ गये जहां वह आर्मी कैंटीन मेंं सब्जियां साफ करने का काम करने लगे। बाद में कुछ पैसे जमा होने के बाद वह एक फुटपाथ पर फल बेचने का काम करने लगे। बाद में वह बंबई आ गये। उन दिनाें बांबे टाकीज के हीरो अषोक कुमार बांबे टाकीज छोड़ चुके थे अौर देविका रानी को एक नये हीरो की तलाष थी। अचानक एक दिन देविका रानी की नजर युसुफ खान पर पड़ गयी और उनसे प्रभावित होकर उन्हें फिल्म ज्वार भाटा (1944) में हीरो का रोल दे दिया अौर उनका फिल्मी नाम दिलीप कुमार रख दिया। ज्वार भाटा को बांबे टाकीज की पिछली फिल्म किस्मत जैसी सफलता तो नहीं मिली परन्तु दिलीप कुमार को बांबे टाकीज में रख लिया गया। उसके बाद उन्होंने बांबे टाकीज की फिल्में — प्रतिभा (1945) अौर मिलन (1946) में हीरो के तौर पर काम किया। उन्हें फिल्म स्टार के रूप में सन्‌ 1948 में प्रदर्षित षहीद अौर मेला के बाद ही प्रसिद्धि मिली। सन्‌ 1949 में महबूब खान ने उन्हें अपनी फिल्म अंदाज, जिसमें राज कपूर अौर नरगिस भी थे, काम करने का अवसर दिया। अंदाज को आषातीत सफलता मिली अौर दिलीप कुमार भारतीय सिनेमा के टे्रजेडी िंकंग के नाम से जाने जाने लगे। दीदार (1951) अौर देवदास (1955), जिनमें दिलीप कुमार की दुखांत भूमिका थी, काफी लोकप्रिय हुयी।

उनकी अन्य प्रमुख फिल्मों में इंसानियत (1955), मधुमती (1958), पैगाम (1959), यहूदी (1958), मुगल—ए—आजम (1960), गंगा जमुना (1961), लीडर (1964), दिल दिया दर्द लिया (1966), राम अौर ष्याम (1967), गोपी (1970), सगीना (1974), बैराग (1976), क्रांति (1981), षक्ति (1982), विधाता (1982), कर्मा (1986), सौदागर (1991) अौर किला (1998) षामिल है।

सन्‌ 1959 में दिलीप कुमार अौर राज कुमार ने फिल्म पैगाम में एक साथ काम किया था। उसके बाद 32 वर्श बाद सन्‌ 1991 में दोनों ने सुभाश घई की फिल्म सौदागर में काम किया।

वह राज्य सभा के सदस्य भी रहे। उन्हें भारतीय फिल्मों के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार के अलावा पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक सम्मान निषान—ए—पाकिस्तान से नवाजा गया। दिलीप कुमार ने अभिनेत्री सायरा बानो से 1966 में विवाह किया। उस समय दिलीप कुमार की उम्र 44 अौर षायरा बानो की 22 वर्श थी। 1980 में कुछ समय के लिए आसमा से दूसरी षादी भी की। 1980 मे उन्हें सम्मानित करने के लिए मुंबई का षेरीफ घोशित किया गया।

उन्होंने 1961 में गंगा—जमुना फिल्म का निर्माण भी किया, जिसमें उनके साथ उनके छोटे भाई नासीर खान ने काम किया। गंगा—जमुना में दिलीप कुमार का अभिनय हालीबुड के मषहूर निर्देषक डेविड लीन को इतना पसंद आया कि अपनी फिल्म लारेंस अॉफ अरेबिया (1962) में अभिनय करने का प्रस्ताव लेकर खुद भारत आ गये। लेकिन दिलीप कुमार ने यह फिल्म करने से मना कर दिया और उन्हें जो भूमिका दी जा रही थी वह वह बाद में मिस्र के अभिनेता ओमर षरीफ को दिया गया, जो इस फिल्म के बाद हॉलीवुड फिल्मों के लोकप्रिय अभिनेता बन गए।

कहा जाता है कि अगर दिलीप कुमार ने यह प्रस्ताव मान लिया होता तो हालीबुड में भारतीय कलाकारों एवं फिल्मकारों के लिये उसी समय से दरवाजे खुल जाते। यही नहीं थीफ अॉफ बगदाद जैसी विष्व प्रसिद्ध फिल्म बनाने वाले हंगेरियन निर्माता—निर्देषक अलेक्जेंडर कोर्डा भी दिलीप कुमार से एक फिल्म बनाने के सिलसिले में मिले थे, लेकिन वह योजना फलीभूत नहीं हुई।

दिलीप कुमार के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने जितनी फिल्मों में काम किया उससे अधिक फिल्मों को उन्होंने ठुकराया, लेकिन कम फिल्मों के बावजूद उनका वर्चस्व हमेषा बना रहा। सन्‌ 1970, 1980 अौर 1990 के दषक में उन्होंने कम फिल्मों में काम किया। 1998 मे बनी फिल्म किला उनकी आखिरी फिल्म थी। उन्होंने रमेष सिप्पी की फिल्म षक्ति में अमिताभ बच्चन के साथ काम किया। इस फिल्म के लिए उन्हें फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला।

दिलीप कुमार वह षख्सीयत हैं, जिनके कदमों पर चलते हुए न जाने कितने अभिनेता ऊंचे मुकाम पर पहुंचे हैं। साल—दर—साल बीत जाएंगे, लेकिन दषकों और सदियों बाद भी वे हर नए ऐक्टर के लिए प्रेरणास्रोत बने रहेंगे। सच तो यह है कि नई प्रतिभा उनकी फिल्में देखकर सीखती रहेंगी। वह आज भी षाहरूख जैसे प्रमुख अभिनेताओं के प्रेरणास्रोत्र हैं।

दुर्गा खोटे

फिल्माें में संभ्रांत महिलाओं के लिए राह आसान बनाने वाली दुर्गा खोटे ने मूक फिल्माें से आधुनिक दौर की फिल्माें तक अपनी लंबी अभिनय यात्रा में मुगले आजम, बावर्ची आदि फिल्माें में कई यादगार भूमिकाएं निभाईं अौर उन्हें फिल्माें के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फालके पुरस्कार से सम्मानित किया गया। दुर्गा खोटे ऐसे समय में फिल्माें में आने के लिए विवष हुईं जब इस क्षेत्र को प्रतिश्ठित परिवार अच्छी नजर से नहीं देख रहे थे अौर उनके परिवार की लड़कियाें को फिल्माें में काम करने की मनाही थी। पारंपरिक मूल्याें में भरोसा रखने वाले एक ब्राह्मण परिवार में 14 जनवरी 1905 को पैदा हुई दुर्गा खोटे के साथ विधाता ने कम उम्र में ही क्रूर मजाक किया क्याेंकि उनके पति का युवावस्था में निधन हो गया। उन्हें अपने दो बच्चाें की परवरिष के लिए फिल्माें की राह लेनी पड़ी। वह दौर मूक फिल्माें का था अौर बोलती फिल्माें के लिए प्रयास षुरू हो चुके थे। दुर्गा खोटे भले ही विवषतावष इस क्षेत्र में आईं लेकिन उन्हाेंने इसके साथ ही उन मान्यताओं को तोड़ दिया जिसके तहत्‌ सम्मानित परिवार की महिलाएं सिनेमा में अभिनय नहीं कर सकती थीं। उस दौर में महिलाओं की अधिकतर भूमिकाएं भी पुरुश ही निभा रहे थे। दुर्गा खोटे की षुरुआत छोटी भूमिकाओं से हुई पर जल्द ही उन्हाेंने नायिका की भूमिका निभानी षुरू कर दी अौर 1932 में प्रदर्षित प्रभात फिल्म्स की अयोध्येचा राजा फिल्म ने उन्हें स्थापित कर दिया। मराठी अौर हिंदी में बनी इस फिल्म में उन्हाेंने रानी तारामती की भूमिका अदा की थी। वह दौर स्टूडियो सिस्टम का था जिसमें कलाकार मासिक वेतन पर किसी स्टूडियो के लिए काम करते थे। लेकिन आत्मविष्वास से लवरेज दुर्गा खोटे ने यहां भी प्रचलित मान्यताओं को दरकिनार कर फ्रीलांस आधार पर काम करना षुरू किया। इसके साथ ही उन्हाेंने न्यू थियेटर्स ईस्ट इंडिया फिल्म कंपनी प्रकाष पिक्चर्स आदि के लिए भी काम किया। दुर्गा खोटे 1930 के दषक के समाप्त होते—होते निर्माता अौर निर्देषक भी बन गईं अौर साथी फिल्म का निर्माण किया। बतौर कलाकार 1940 का दषक उनके लिए काफी अच्छा रहा अौर उनकी एक के बाद एक कई फिल्माें ने कामयाबी के परचम लहराए। इन फिल्माें में चरणाें की दासी, भरत मिलाप आदि षामिल हैं। इन फिल्माें के लिए जहां उन्हें समीक्षकाें की ओर से सराहना मिली वहीं कई पुरस्कार भी मिले। फिल्माें में अभिनय के साथ ही दुर्गा खोटे रंगमंच खासकर मराठी से भी सक्रिय रूप से जुड़ी रहीं। वे इंडियन पीपल्स थियेटर एसोसिएषन (इप्टा) से जुड़ी हुई थीं। उन्हाेंने मुंबई मराठी साहित्य संघ के लिए कई नाटकाें में काम किया। महान नाटककार षेक्सपीयर की बहुचर्चित कृति मैकबेथ पर आधारित मराठी नाटक राजमुकुट में उन्हाेंने बेहतरीन अभिनय किया। वर्श 1931 में षुरू हुआ दुर्गा खोटे का फिल्मी सफर कई दषकाें का रहा अौर इस दौरान उन्हाेंने विविध प्रकार की यादगार भूमिकाएं की। सिनेमा क्षेत्र में उनके योगदान के लिए दुर्गा खोटे को देष के सर्वोच्च फिल्म सम्मान दादा साहब फालके पुरस्कार सहित कई प्रतिश्ठित पुरस्काराें से नवाजा गया। नायिका की भूमिका के बाद दुर्गा खोटे चरित्र भूमिकाओं में आने लगीं अौर कई ऐसे किरदार निभाए जिसकी आज भी चर्चा होती है। ऐसी फिल्माें में के. आसिफ की मुगले आजम, राजकपूर की बॉबी, ऋशिकेष मुखर्जी की बावर्ची आदि षामिल हैं। बहुचर्चित मुगले आजम में उन्हाेंने अकबर की पत्नी की भूमिका निभाई जो पति अौर पुत्र सलीम के द्वंद्व के बीच उलझी हुई है। पति अौर पुत्र के बीच अपने कर्तव्य को लेकर दुविधा में उलझी इस भूमिका को उन्हाेंने यादगार बना दिया। अभिनय को अलविदा करने के बाद भी वह सक्रिय रहीं अौर लघु फिल्माें, विज्ञापन फिल्माें, वृतचित्राें के निर्माण से जुड़ी रहीं। उन्हाेंने मराठी में आत्मकथा भी लिखी जिसका अंगे्रजी अनुवाद ‘‘आई दुर्गा खोटे'' नाम से प्रकाषित हुआ। दुर्गा खोटे 22 सितंबर 1991 को इस दुनिया को अलविदा कह गईं लेकिन इस दौरान उनके प्रयासाें से महिलाओं की स्थिति में उल्लेखनीय बदलाव हुआ अौर आज महिलाएं विभिन्न क्षेत्राें में पुरुशाें के साथ बराबरी से काम कर रही हैं।

मधुबाला

अप्रतिम सौंदर्य की प्रतिमूर्ति और अपनी मनमोहक मुस्कान और दैवीय सुंदरता की बदौलत पूर्व की वीनस कहलाने का गौरव प्राप्त करने वाली मधुबाला का मूल नाम मुमताज बेगम देहलवी था। उनका जन्म दिल्ली के मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवार में 14 फरवरी 1933 को हुआ था। उनके पिता अताउल्लाह खान अपने परिवार का भरण पोशण करने के लिये मधुबाला समेत पूरे परिवार को लेकर मुंबई आ गए। वर्श 1942 में मधुबाला को बतौर बाल कलाकार बेबी मुमताज के नाम से फिल्म बसंत (१९४२)। में काम करने का मौका मिला।

बेबी मुमताज के सौंदर्य को देखकर अभिनेत्री देविका रानी काफी मुग्ध हुईं अौर उन्हाेंने उनका नाम मधुबाला रख दिया साथ ही उन्हाेंने मधुबाला को अपने बैनर बॉम्बे टॉकीज की फिल्म ज्वारभाटा में दिलीप कुमार के साथ काम करने की पेषकष की, लेकिन मधुबाला उस फिल्म में किसी कारणवष काम नहीं कर सकी।

भारतीय सिनेमा जगत की अद्वितीय अभिनेत्री मधुबाला को फिल्म अभिनेत्री के रूप में पहचान निर्माता निर्देषक केदार षर्मा की वर्श 1947 में प्रदर्षित फिल्म नीलकमल से मिली। इस फिल्म में उनके अभिनेता थे राजकपूर। इसे महज संयोग कहा जाएगा कि नीलकमल बतौर अभिनेता राजकपूर की पहली फिल्म थी। इस फिल्म मे उनके अभिनय के बाद उन्हे सिनेमा की सौन्दर्य देवी (वीनस आफ द स्क्रीन) कहा जाना लगा। इसके दो साल बाद बाम्बे टॉकीज की फिल्म महल में उन्होने अभिनय किया। महल फिल्म का गाना ष्आयेगा आनेवाला लोगों ने बहुत पसन्द किया। इस फिल्म का यह गाना पार्ष्‌व गायिका लता मंगेष्कर, इस फिल्म की सफलता तथा मधुबाला के कैरियर मे, बहुत सहायक सिद्ध हुआ ।

वर्श 1949 तक मधुबाला की कई फिल्में प्रदर्षित हुईं लेकिन इनसे मधुबाला को कुछ खास फायदा नहीं हुआ। लेकिन उसी दौरान उन्होंने बाम्बे टॉकीज की फिल्म महल में उन्होने अभिनय किया। यह फिल्म न केवल मधुबाला के लिये बल्कि पार्ष्व गायिका लता मंगेष्कर के लिये बहुत सहायक सिद्ध हुआ। महल की सफलता के बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नही देखा। उस समय के स्थापित पुरुश कलाकारों के साथ उनकी एक के बाद एक फिल्म आती गयी तथा सफल होती गयी। उन्होंने अषोक कुमार, रहमान, दिलीप कुमार, देवानन्द आदि सभी के साथ काम किया।

मधुबाला को फिल्म तराना (1951) में उस समय के सबसे लोकप्रिय एवं प्रतिभाषाली अभिनेता दिलीप कुमार के साथ काम करने का मौका मिला और इस फिल्म के बाद दोनों एक दूसरे से बहुत करीब हो गये। धीरे—धीरे दोनों के बीच प्रेम गहरा होने लगा लेकिन पिता के विरोध के कारण दोनों षादी नहीं कर पाये। इसके बाद दिलीप कुमार हमेषा के लिये मधुबाला के जीवन से अलग हो गये और फिल्म नया दौर निर्माता — निर्देषक बी आर चौपड़ा एवं मधुबाला के पिता अयातुल्लाह खान के बीच चले अदालती मामले के कारण दोनों के बीच के संबंधों में कड़वाहट आ गयी।

पचास के दषक में स्वास्थ्य परीक्षण के दौरान मधुबाला को अहसास हुआ कि वह हृदय की बीमारी से ग्रस्त हैं। इस दौरान उनकी कई फिल्में निर्माण के दौर मे थीं। मधुबाला को लगा यदि उनकी बीमारी के बारे में फिल्म इंडस्ट्री को पता चल जाएगा तो इससे फिल्म निर्माता को नुकसान होगा इसलिए उन्हाेंने यह बात किसी को नहीं बताई। उन दिनाें मधुबाला के. आसिफ की मुगले आजम की षूटिंग में व्यस्त थीं। इस दौरान मधुबाला की तबीयत काफी खराब रहा करती थी। मधुबाला जो अपनी नफासत अौर नजाकत को कायम रखने के लिए घर में उबले पानी के सिवाय कुछ नहीं पीती थीं उन्हें मुगले आजम की षूटिंग के दौरान जैसमेलर के रेगिस्तान में कुएं अौर पोखरे का गंदा पानी तक पीना पड़ा। साथ ही मधुबाला के षरीर पर असली लोहे की जंजीर भी लादी गई, लेकिन उन्हाेंने उफ तक नहीं की अौर फिल्म की षूटिंग जारी रखी।

वर्श 1960 में जब मुगले आजम प्रदर्षित हुई तो फिल्म में मधुबाला के अभिनय को देख दर्षक मुग्ध हो गए। साठ के दषक में मधुबाला ने फिल्माें में काम करना काफी हद तक कम कर दिया था। दिलीप कुमार से अलग होने के बाद मधुबाला फिल्म चलती का नाम गाड़ी अौर झुमरू के निर्माण के दौरान ही किषोर कुमार के काफी करीब आ गई थीं। मधुबाला के पिता ने किषोर कुमार को सूचित किया कि मधुबाला इलाज के लिए लंदन जा रही है अौर लंदन से आने के बाद ही उनसे षादी कर पाएगी। लेकिन मधुबाला को यह अहसास हुआ कि षायद लंदन में ऑपरेषन होने के बाद वह जिंदा नहीं रह पाए अौर यह बात उन्हाेंने किषोर कुमार को बताई। इसके बाद मधुबाला की इच्छा को पूरा करने के लिए किषोर कुमार ने मधुबाला से षादी कर ली। षादी के बाद मधुबाला की तबीयत अौर ज्यादा खराब रहने लगी हालांकि इस बीच उनकी पासपोर्ट, झुमरू, बायफ्रेंड, हाफ टिकट अौर षराबी जैसी कुछ फिल्में प्रदर्षित हुइर्ं। वर्श 1964 मे एक बार फिर से मधुबाला ने फिल्म इंडस्ट्री की ओर रूख किया। लेकिन फिल्म चालाक के पहले दिन की षूटिंग में मधुबाला बेहोष हो गइर्ं अौर बाद में यह फिल्म बंद कर देनी पड़ी। दिल में मोहब्बत का पैगाम लिए मधुबाला अपने जन्म दिवस के महज आठ दिन बाद 23 फरवरी 1969 को महज 36 वर्श की उम्र में यह कहते हुए ‘‘मैं अभी जीना चाहती हूं'' इस दुनिया को अलविदा कह गईं। उनके मृत्यु के दो साल बाद अर्थात 1971 में उनकी फिल्म जलवा प्रदर्षित हुयी जो मधुबाला की एकमात्र पूरी तरह से रंगीन फिल्म थी। उन्होने लगभग 70 फिल्मों में काम किया जिनमें बसंत (1942), नीलकमल (1947) अमर प्रेेम (1948), महल (1949), तराना (1951), अमर (1954), मिस्टर एंड मिसेज 55 (1955), सीरीं फरहाद (1956), चलती का नाम गाड़ी(1958), हावड़ा ब्रिज (1958), फागुन (1958), इंसान जाग उठा (1959), बरसात ककी रात (1960), मुगल—ए—आजम (1960) और हाफ टिकट (1962) प्रमुख हैं।

कमाल अमरोही — पटकथा लेखक

महल, पाकीजा अौर रजिया सुल्तान जैसी भव्य कलात्मक फिल्माें से परदे पर काव्य की रचना करने वाले निर्माता—निर्देषक कमाल अमरोही (मूल नाम सैयद आमिर हैदर कमाल) को ऐसी षख्सियत के रूप में याद किया जाता है जिन्हाेंने बेहतरीन गीतकार, पटकथा अौर संवााद लेखक तथा निर्माता एवं निर्देषक के रूप में भारतीय सिनेमा पर अपनी अमिट छाप छोड़ी।

17 जनवरी 1918 को उत्तर प्रदेष के अमरोहा में जमींदार परिवार में जन्मे कमाल अमरोही के मुंबई की फिल्म नगरी तक पहुंचने अौर फिर कामयाबियाें का इतिहास रचने की कहानी किसी फिल्मी किस्से से कम दिलचस्प नहीं है। बेहद नटखट चंदन (घर में पुकारने का नाम) अपनी षरारताें से पूरे गांव की नाक में दम किए रहते थे। एक बार अपनी अम्मी के डांटने पर उन्हाेंने वादा किया कि वह किसी दिन मषहूर हाेंगे अौर उनके पल्लू को चांदी के सिक्काें से भर देंगे। इस दौरान एक वाकया ऐसा हुआ जिसने उनके जीवन की दिषा ही बदल दी। उनकी षरारताें से तंग होकर बडे़ भाई ने एक दिन उन्हें गुस्से में थप्पड़ रसीद कर दिया तो कमाल अमरोही नाराजगी में घर से भागकर लाहौर पहुंच गए। कमाल अमरोही के लिए लाहौर उनके जीवन की दिषा बदलने वाला साबित हुआ। वहां उन्हाेंने प्राच्य भाशाओं में मास्टर की डिग्री हासिल की अौर फिर एक उर्दू समाचार पत्र में मात्र 18 वर्श की उम्र में ही नियमित रूप से स्तम्भ लिखने लगे। उनकी प्रतिभा का सम्मान करते हुए अखबार के सम्पादक ने उनका वेतन बढ़ाकर 300 रुपये मासिक कर दिया जो उस समय काफी बड़ी रकम थी। अखबार में कुछ समय तक काम करने के बाद उनका मन उचाट होने लगा अौर वह कलकत्ता चले गए अौर फिर वहां से बुबई आ गए। यह भी कहा जाता है कि लाहौर में उनकी मुलाकात प्रसिद्ध गायक, अभिनेता कुंदनलाल सहगल से हुई थी जो उनकी प्रतिभा को पहचानकर उन्हें फिल्माें में काम करने के लिए मिनर्वा मूवीटोन के मालिक निर्माता—निर्देषक सोहराब मोदी के पास काम करने के लिए बुबई लाए। इसी दौरान उनकी एक लघुकथा ‘‘सपनाें का महल'' से निर्माता—निर्देषक अौर कहानीकार ख्वाजा अहमद अब्बास बेहद प्रभावित हुए अौर उन्हाेंने इस कहानी पर फिल्म बनाने का विचार किया। फिल्म के लिए निर्माता भी तलाष लिया गया था लेकिन कुछ समय बाद उनकी हालत यह हो गई कि उन्हें बिना पैसे अौर यहां तक कि बिना भोजन के दिन गुजारने पड़े। कमाल अमरोही के सितारे गर्दिष में पडे़ हुए थे कि उन्हें पता चला कि सोहराब मोदी को एक कहानी की तलाष है। वह तुरत उनके पास पहुंचे अौर उन्हें 300 रुपए के मासिक वेतन पर रख लिया गया। उनकी कहानी पर आधारित यह फिल्म पुकार (1939) सुपर हिट रही। इसके बाद तो फिल्माें के लिए कहानी, पटकथा अौर संवाद लिखने का उनका सिलसिला चल पड़ा अौर उन्हाेंने जेलर (1938), मैं हारी (1940), भरोसा (1940), मजाक (1943), फूल (1945), षाहजहां (1946), महल (1949), दायरा (1953), दिल अपना अौर प्रीत पराई (1960), मुगले आजम (1960), पाकीजा (1971), षंकर हुसैन (1977), रजिया सुल्तान (1983) और भरोसा (1940) जैसी फिल्माें के लिए कहानी, पटकथा अौर संवाद लिखने का काम किया।

निर्माता अषोक कुमार की फिल्म महल कमाल अमरोही के करियर का महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई। इस फिल्म के निर्देषन का जिम्मा उन्हें सौंपा गया। रहस्य अौर रोमांस के ताने—बाने से बुनी मधुर गीत—संगीत अौर ध्वनि के कल्पनामय इस्तेमाल से बनी यह फिल्म सुपरहिट रही अौर इसी के साथ बॉलीवुड में हॉरर अौर सस्पेंस फिल्माें के निर्माण का सिलसिला चल पड़ा। फिल्म की जबरदस्त कामयाबी ने नायिका मधुबाला अौर गायिका लता मंगेषकर को फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित कर दिया। महल फिल्म की कामयाबी के बाद कमाल अमरोही ने 1953 में कमाल पिक्चर्स अौर 1958 में कमालिस्तान स्टूडियो की स्थापना की। कमाल पिक्चर्स के बैनर तले उन्हाेंने अभिनेत्री पत्नी मीना कुमारी को लेकर दायरा फिल्म का निर्माण किया लेकिन भारत की कला फिल्माें में मानी जाने वाली यह फिल्म बॉक्स आफिस पर नहीं चल पाई। इसी दौरान निर्माता—निर्देषक के. आसिफ अपनी महत्वाकांक्षी फिल्म मुगल—ए—आजम के निर्माण में व्यस्त थे। इस फिल्म के लिए वजाहत मिर्जा संवाद लिख रहे थे लेकिन आसिफ को लगा कि एक ऐसे संवाद लेखक की जरूरत है जिसके लिखे डायलॉग दर्षकाें के दिमाग से बरसाें बरस नहीं निकल पाएं अौर इसके लिए उन्हें कमाल अमरोही से ज्यादा उपयुक्त व्यक्ति कोई नहीं लगा। उन्हाेंने उन्हें अपने चार संवाद लेखकाें में षामिल कर लिया।

पाकीजा कमाल अमरोही की ड्रीम प्रोजेक्ट थी जिस पर उन्हाेंने 1958 में काम करना षुरु किया था। लेकिन कमाल अमरोही का अपनी तीसरी पत्नी मीना कुमारी से अलगाव हो जाने के कारण फिल्म का निर्माण 1961—69 तक बंद रहा। बाद में किसी तरह उन्हाेंने मीना कुमारी को फिल्म में काम करने के लिए राजी कर लिया अौर आखिरकार 1971 में जाकर यह फिल्म पूरी हुई तथा फरवरी 1972 को रिलीज हुई। बेहतरीन संवाद, गीत—संगीत, दृष्यांकन अौर अभिनय से सजी इस फिल्म ने रिकार्डतोड़ कामयाबी हासिल की अौर आज यह फिल्म इतिहास की क्लासिक फिल्माें में गिनी जाती है। इस फिल्म के बाद कमाल अमरोही का फिल्माें से कुछ समय तक नाता टूटा रहा। 1983 में उन्हाेंने फिर फिल्म इंडस्ट्री का रुख किया अौर रजिया सुल्तान फिल्म से अपनी निर्देषन क्षमता का लोहा मनवाया। हालांकि भव्य स्तर पर बनी यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कामयाब नहीं अपने कमाल से दर्षकाें को बांध देने वाली यह अजीम षख्सियत 11 फरवरी 1993 को इस दुनिया को अलविदा कह गई। कमाल अमरोही ने तीन षादियां कीं। उनकी पहली बीवी का नाम बानो था, जो नरगिस की मां जद्दन बाई की नौकरानी थी। बानो की अस्थमा से मौत होने के बाद उन्हाेंने महमूदी से निकाह किया। कमाल अमरोही ने तीसरी षादी अभिनेत्री मीना कुमारी से की जो उनसे उम्र में लगभग पंद्रह साल छोटी थीं लेकिन यह संबंध ज्यादा दिन तक नहीं चल पाया अौर उनका अलगाव हो गया।

नौषाद अली — संगीतकार

हिन्दी फिल्म संगीत को लोकजीवन से जोड़कर उसे जन—जन की जुबां पर चढ़ाने वाले नौषाद ने फिल्म संगीत की दुनिया में ऐसी कामयाबी और प्रसिद्धी हासिल की जो षायद ही किसी और संगीतकार को नसीब हुयी। पहली फिल्म में संगीत देने के 64 साल बाद तक अपने साज का जादू बिखेरते रहने के बावजूद नौषाद ने केवल 67 फिल्माें में ही संगीत दिया लेकिन उनका कौषल इस बात की जीती जागती मिसाल है कि गुणवत्ता संख्याबल से कहीं आगे होती है।

''दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा‘, ''नैन लड़ जई हैं.'', ''मोहे पनघट पे नंदलाल'' जैसे एक से एक सुरीले गीत देने वाले संगीतकार नौषाद ने अपने लंबे फिल्मी करियर में हमेषा कुछ न कुछ नया देने का प्रयास किया अौर उनके हर गाने में भारतीय संगीत की मिठास झलकती है। हिन्दी फिल्माें में 1930 के दषक से संगीत दे रहे नौषाद ने कभी भी अपने गीताें में संगीत से समझौता नहीं किया। उन्हाेंने अपने गीताें में जहां लोकगीत अौर लोक संगीत की मधुरता को पिरोया वहीं उन्हाेंने षास्त्रीय संगीत का दामन भी नहीं छोड़ा। नौषाद ने पहली बार उस्ताद बड़े गुलाम अली खान, उस्ताद अमीर खान अौर पंडित डीवी पलुस्कर जैसी हिन्दुस्तानी षास्त्रीय संगीत की महान विभूतियाें से फिल्म के लिए गायन करवाया। हिन्दी फिल्म उद्योग आज भी षास्त्रीय संगीत की इन महान विभूतियाें द्वारा गाए गए गीताें पर गर्व करता है।

नौषाद का जन्म 25 दिसम्बर 1919 को लखनऊ में मुंषी वाहिद अली के घर में हुआ था। षुरुआत में उन्हाेंने लखनऊ के थिएटराें में मूक फिल्म के प्रदर्षनाें के दौरान हारमोनियम अौर तबला बजाने का काम किया। फिल्माें के प्रति प्रेम के कारण नौषाद 1937 में 17 साल की उम्र में ही अपनी किस्मत आजमाने के लिए बंबई कूच कर गए थे। षुरुआती संघर्शपूर्ण दिनाें में उन्हें उस्ताद मुष्ताक हुसैन खां, उस्ताद झंडे खां अौर पंडित खेमचन्द्र प्रकाष जैसे गुणी उस्तादाें की सोहबत नसीब हुयी। उन्हाेंने षुरुआत में कई फिल्म कंपनियाें अौर संगीतकाराें के साथ सहायक के रूप में काम किया। बाद में 1942 में ए. आर. कारदार की नई दुनिया पहली ऐसी फिल्म थी जिसमें उनका नाम संगीतकार के रूप में दिया गया। उन्हें पहली बार स्वतंत्र रूप से 1940 में प्रेम नगर में संगीत देने का अवसर मिला, लेकिन उनकी अपनी पहचान बनी 1944 में प्रदर्षित हुई रतन से जिसमें जोहरा बाई अम्बाले वाली, अमीर बाई कर्नाटकी, करन दीवान अौर ष्याम के गाए गीत बहुत लोकप्रिय हुए अौर यहीं से षुरू हुआ कामयाबी का ऐसा सफर जो कम लोगाें के हिस्से ही आता है।

अंदाज, आन, मदर इंडिया, अनमोल घड़ी, बैजू बावरा, अमर, स्टेषन मास्टर, षारदा, कोहिनूर, उड़न खटोला, दीवाना, दिल्लगी, दर्द, दास्तान, षबाब, बाबुल, मुगले आजम, दुलारी, षाहजहां, लीडर, संघर्श, मेरे महबूब, साज अौर आवाज, दिल दिया दर्द लिया, राम अौर ष्याम, गंगा जमुना, आदमी, गंवार, साथी, तांगेवाला, पालकी, आईना, धर्म कांटा, पाकीजा (गुलाम मोहम्मद के साथ संयुक्त रूप से), सन ऑफ इंडिया, लव एंड गॉड सहित अन्य कई फिल्माें में उन्हाेंने अपने संगीत से लोगाें को झूमने पर मजबूर किया।

उन्हाेंने षारदा फिल्म में पहली बार 13 वर्श की सुरैया को गाने का मौका दिया। नौषाद के जीवन में रतन फिल्म बड़ी सफलता लेकर आई अौर इस फिल्म ने उन्हें एक बडे़ संगीतकार के रूप में स्थापित कर दिया। इसके बाद उनकी फिल्म अनमोल घड़ी आई जिसमें नूरजहां के भी गीत थे। इसके बाद अगले दो दषक तक नौषाद की संगीत वाली तमाम फिल्माें ने सिल्वर जुबली, गोल्डन जुबली अौर डाइमंड जुबली मनाई। उन्हाेंने मदर इंडिया फिल्म के लिए भी यादगार संगीत बनाया। यह पहली ऐसी भारतीय फिल्म थी जिसे ऑस्कर के लिए नामांकित किया गया। नौषाद ने एक संगीतकार के रूप में हमेषा प्रयोग किए अौर उनके प्रयोगाें के कारण हिन्दी फिल्माें को कुछ अनूठे तोहफे मिले। हिन्दी फिल्माें में साउंड मिक्सिंग तथा संगीत अौर गायन को अलग—अलग रिकॉर्ड करने वाले वह पहले संगीतकार थे। यही नहीं उन्हाेंने आन फिल्म में 100 वाद्य वृंदाें वाले ऑर्केस्ट्रा का इस्तेमाल किया था। मुगले आजम फिल्म के एक गाने में उन्हाेंने सौ लोगाें के समूह से गायन करवाया था। यही नहीं ''प्यार किया तो डरना क्या‘' गाने के कुछ अंष को उन्हाेंने लता मंगेषकर से बाथरूम में गाने को कहा क्याेंकि वहां लगे विषेश टाइल की गूंज को रिकॉर्ड कर उन्हाेंने गाने में प्रयोग किया था। समीक्षकाें के अनुसार नौषाद के गानाें में भारतीय संगीत की आत्मा बसती है। गंगा जमुना फिल्म में उन्हाेंने अवधी भाशा की लोकधुनाें का खूबसूरती से प्रयोग किया है। इस फिल्म का ''मेरे पैराें में घुंघरू बंधा दे‘' गाने में उनके संगीत की मधुरता स्पश्ट तौर पर महसूस की जा सकती है। नौषाद ने पालकी फिल्म के लिए पटकथा भी लिखी थी। उन्हें 1981 में हिन्दी फिल्माें के षीर्शस्थ सम्मान दादा साहब फालके पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

नौषाद ने प्रेम गीत, षोक गीत, भजन, देषभक्ति गीत सहित विभिन्न अंदाजाें वाले गानाें को संगीत में पिरोया था। इस महान संगीतकार को भारत सरकार ने पद्‌मभूशण से सम्मानित किया था। इसके अलावा उन्हें संगीत नाटक अकादमी, लता मंगेषकर पुरस्कार, फिल्म फेयर पुरस्कार, अमीर खुसरो पुरस्कार आदि कई पुरस्काराें से सम्मानित किया गया था।

उन्हाेंने छोटे पर्दे के लिए ''द सोर्ड ऑफ टीपू सुल्तान‘‘ अौर ''अकबर द गे्रट‘‘ जैसे धारावाहिक में भी संगीत दिया। बहरहाल नौषाद साहब को अपनी आखिरी फिल्म के सुपर फ्लॉप होने का बेहद अफसोस रहा। यह फिल्म थी सौ करोड़ की लागत से बनने वाली अकबर खां की ताजमहल जो रिलीज होते ही अौंधे मुंह गिर गयी। मुगले आजम को जब रंगीन किया गया तो उन्हें बेहद खुषी हुयी।

मारफ्तुन नगमात जैसी संगीत की अप्रतिम पुस्तक के लेखक ठाकुर नवाब अली खां अौर नवाब संझू साहब से प्रभावित रहे नौषाद ने बम्बई में मिली बेपनाह कामयाबियाें के बावजूद लखनऊ से अपना रिष्ता कायम रखा। बम्बई में भी नौषाद साहब ने एक छोटा सा लखनऊ बसा रखा था जिसमें उनके हम प्याला हम निवाला थे— मषहूर पटकथा अौर संवाद लेखक वजाहत मिर्जा चंगेजी, अली रजा अौर आगा जानी कष्मीरी (बेदिल लखनवी), मषहूर फिल्म निर्माता सुलतान अहमद अौर मुगले आजम में संगतराष की भूमिका निभाने वाले हसन अली कुमार। यह बात कम लोगाें को ही मालूम है कि नौषाद साहब षायर भी थे अौर उनका दीवान आठवां सुर नाम से प्रकाषित हुआ। वह पांच मई को 2006 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

मोहम्मद रफी — गायक

अपनी सुरमयी और खनकती आवाज की जादू से लाखों संगीत प्रेमियों के दिलों पर राज करने वाले मोहम्मद रफी का जन्म 24 दिसंबर 1924 को पंजाब में अमष्तसर के पास एक छोटे से गांव कोटला सुल्तानसिंह में हुआ था। मोहम्मद रफी को सबसे पहले ष्यामसुंदर ने पंजाबी फिल्म गुलबलोच में गाने का मौका दिया। पंजाबी गाने से लोकप्रियता मिलने के बाद रफी 1942 में एक बार फिर श्री ष्यामसुंदर के बुलाने पर दोबारा बंबई गये। इस बार उन्होंने गांव की गोरी नामक हिंदी फिल्म में गाने गाये। यह उनकी पहली हिन्दी फिल्म थी।

रफी ने अपने षुरुआती दिनों में जिन संगीतकारों के साथ काम किया उनमें नौषाद प्रमुख हैं। नौषाद ने सबसे पहले षहंषाह नामक फिल्म के एक गीत में रफी को सहगल के साथ गाने का मौका दिया। ' नौषाद के लिये रफी ने पहली बार पूरा गाना अनमोल घड़ी में गया। यह गाना था — ‘तेरा खिलौना टूटा बालक।' रफी ने इसके बाद दिल्लगी में नौषाद के संगीत निर्देषन में गाया — ‘इस दुनिया में ऐ दिलवालों दिल का लगाना खेल नहीं' और ‘तेरे कूंचे में अरमानों की दुनिया लेके आया हूं। इन गानों के बाद रफी को काफी लोकप्रियता मिली और उन्हें और संगीतकारों के साथ भी काम करने के मौके मिलने लगे। रफी को असली पहचान और लोकप्रियता तब मिली जब नौषाद ने बैजू बाबरा में पहली बार रफी की बहुआयामी संंगीत प्रतिभा का भरपूर इस्तेमाल किया। फिर तो रफी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। इसके बाद उन्होंने सचिन देव बर्मन, सी रामचंद्र्र, रौषन, षंकर जयकिषन, मदन मोहन, ओ. पी. नैयर, कल्याणजी—आनंदजी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, सलिल चौधरी, रविन्द्र जैन, इकबाल कुरेषी, उशा खन्ना, रवि, चित्रगुप्त और राहुल देव बर्मन जैसे संगीतकारों के साथ मिलकर संगीत के जादू बिखेरे। साठ के दषक में फिल्म संगीत के इतिहास में एक ऐसा दौर आया जब वह षम्मी कपूर, दिलीप कुमार, राजेन्द्र कुमार, देव आनंद, धर्मेद्र, षषि कपूर और राजकुमार के स्थायी स्वर बन गये। रफी ने 31 जुलाई 1980 को आखिरी सांस ली।

लता मंगेषकर

लता मंगेषकर भारत की सबसे लोकप्रिय अौर आदरणीय गायिका हैं जिनका छह दषकाें का कार्यकाल उपलब्धियाें से भरा पड़ा है। उन्होंने लगभग 30 से ज्यादा भाशाओं में फिल्मी अौर गैर—फिल्मी गाने गाये हैं। लता की जादुई आवाज के भारतीय उपमहाद्वीप के साथ—साथ पूरी दुनिया में दीवाने हैं। टाईम पत्रिका ने उन्हें भारतीय पार्ष्वगायन की अपरिहार्य अौर एकछत्र साम्राज्ञी स्वीकार किया है।

भारत रत्न लता मंगेषकर का जन्म मध्यप्रदेष के इंदौर में 28 सितंबर, 1929 को पंडित दीनानाथ मंगेषकर के मध्यवर्गीय परिवार में हुआ। उनके पिता रंगमंच के कलाकार अौर गायक थे। इनके परिवार से हृदयनाथ मंगेषकर अौर बहनें उशा मंगेषकर, मीना मंगेषकर अौर आषा भाेंशले सभी ने संगीत को ही अपनी आजीविका के लिये चुना। हालांकि लता का जन्म इंदौर में हुआ था लेकिन उनकी परवरिष महाराश्ट्र में हुई। जब लता सात साल की थीं तब वह महाराश्ट्र आईं। लता ने पांच साल की उम्र से पिता के साथ एक रंगमंच कलाकार के रूप में अभिनय करना षुरु कर दिया था।

लता बचपन से ही गायिका बनना चाहती थीं। बचपन में कुंदनलाल सहगल की एक फिल्म चंडीदास को देखकर उन्होंनेे कहा था कि वह बड़ी होकर सहगल से षादी करेंगी। पहली बार लता ने वसंग जोगलेकर द्वारा निर्देषित एक फिल्म कीर्ती हसाल के लिये गाया। उनके पिता नहीं चाहते थे कि लता फिल्माें के लिये गाये इसलिये इस गाने को फिल्म से निकाल दिया गया। लेकिन उनकी प्रतिभा से वसंत जोगलेकर काफी प्रभावित हुये। पिता की मृत्यु के बाद (जब लता सिर्फ 13 साल की थीं), लता को पैसाें की बहुत किल्लत झेलनी पड़ी अौर काफी संघर्श करना पड़ा। उन्हें अभिनय बहुत पसंद नहीं था लेकिन पिता की असामयिक मृत्यु की वजह से पैसाें के लिये उन्हें कुछ हिन्दी अौर मराठी फिल्माें में काम करना पड़ा। अभिनेत्री के रुप में उनकी पहली फिल्म पाहिली मंगलागौर (1942) रही, जिसमें उन्हाेंने स्नेहप्रभा प्रधान की छोटी बहन की भूमिका निभाई। बाद में उन्हाेंने कई फिल्माें में अभिनय किया जिनमें, माझे बाल, चिमुकला संसार (1943), गजभाऊ (1944), बड़ी मां (1945), जीवन यात्रा (1946), मांद (1948), छत्रपति षिवाजी (1952) षामिल थीं। बड़ी मां, में लता ने नूरजहां के साथ अभिनय किया अौर उनकी छोटी बहन की भूमिका निभाई आषा भाेंशले ने। उन्होंने खुद की भूमिका के लिये गाने भी गाये अौर आषा के लिये भी पार्ष्वगायन किया। 1945 में उस्ताद ग़ुलाम हैदर (जिन्हाेंने पहले नूरजहां की खोज की थी) अपनी आनेवाली फिल्म के लिये लता को एक निर्माता के स्टूडियो ले गये जिसमें कामिनी कौषल मुख्य भूमिका निभा रही थीं। वह चाहते थे कि लता उस फिल्म के लिये पार्ष्वगायन करे। लेकिन गुलाम हैदर को निराषा हाथ लगी। 1947 में वसंत जोगलेकर ने अपनी फिल्म आपकी सेवा में में लता को गाने का मौका दिया। इस फिल्म के गानाें से लता की खूब चर्चा हुई। इसके बाद लता ने मजबूर फिल्म के गानाें ‘‘अंगे्रजी छोरा चला गया'' अौर ‘‘दिल मेरा तोड़ा हाय मुझे कहीं का न छोड़ा तेरे प्यार ने'' जैसे गानाें से अपनी स्थिति सुदृढ़ की। इसके बावज़ूद लता को उस खास हिट की अभी भी तलाष थी। हालांकि अमीरबाई, षमषाद बेगम अौर राजकुमारी जैसी स्थापित गायिकाओं के बीच उनकी पतली आवाज ज्यादा सुनी नहीं जाती थी। फिर भी, प्रमुख संगीतकार ग़ुलाम हैदर ने लता में विष्वास दिखाते हुए उन्हें मजबूर अौर पद्‌मिनी (बेदर्द तेरे प्यार को) में काम दिया जिसको थोड़ी बहुत सराहना मिली। पर उनके टेलेंट को सच्ची कामयाबी तब मिली जब 1949 में उन्हाेंने तीन जबर्दस्त संगीतमय फिल्माें में गाना गाया। ये फिल्में थीं— नौषाद की अंदाज, षंकर—जयकिषन की बरसात अौर खेमचंद प्रकाष की महल। लता को सबसे अधिक प्रसिद्धी महल के ‘‘आयेगा आनेवाला'' गीत से मिली। इस गीत को उस समय की सबसे खूबसूरत अौर चर्चित अभिनेत्री मधुबाला पर फिल्माया गया था। यह फिल्म अत्यंत सफल रही थी अौर लता तथा मधुबाला दोनाें के लिये बहुत षुभ साबित हुई। इसके बाद लता ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

1950 आते—आते पूरी फिल्म इंडस्ट्री में लता की हवा चल रही थी। उनकी हाई—पिच व सुरीली आवाज ने उस समय की भारी अौर नाक से गाई जाने वाली आवाज का असर खत्म ही कर दिया था। लता की आंधी को गीता दत्त अौर कुछ हद तक षमषाद बेगम ही झेल सकीं। आषा भाेंसले भी 40 के दषक के अंत तक पार्ष्व गायन के क्षेत्र में उतर चुकी थीं। षुरुआत में लता की गायिकी नूरजहां की याद दिलाया करती थी पर जल्द ही उन्हाेंने अपना खुद का अंदाज बना लिया था। उर्दू के उच्चारण में निपुणता प्राप्त करने हेतु उन्हाेंने एक षिक्षक भी रख लिया। उनकी अद्‌भुत कामयाबी ने लता को फिल्मी जगत की सबसे मजबूत गायिका बना दिया था। 1960 के दषक में उन्हाेंने प्लेबैक गायकाें के रायल्टी के मुद्‌दे पर मोहम्मद रफी के साथ गाना छोड़ दिया। उन्हाेंने 57—62 के बीच में एस. डी. बर्मन के साथ भी गाने नहीं गाये। पर उनका दबदबा ऐसा था कि लता अपने रास्ते थीं अौर वे उनके पास वापस आये। उन्हाेंने ओ. पी. नैय्यर को छोड़ कर लगभग सभी संगीतकाराें अौर गायकाें के साथ ढेराें गाने गाये। पर फिर भी सी. रामचंद्र अौर मदन मोहन के साथ उनका विषेश उल्लेख किया जाता है जिन्हाेंने उनकी आवाज को मधुरता प्रदान की। 1960—70 के बीच लता मजबूती से आगे बढ़ती गईं अौर इस बीच उन पर इस क्षेत्र में एकाधिकार के आरोप भी लगते रहे। उन्हाेंने 1958 की मधुमति फिल्म में ‘‘आजा रे परदेसी'' गाने के लिये फिल्म फेयर अवार्ड भी जीता। ऋशिकेश मुखर्जी की अनुराधा में पंडित रवि षंकर की धुनाें पर गाने गाये अौर उन्हें काफी तारीफ मिली। उस समय के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू लता के गैर फिल्मी देषभक्ति गीत ‘‘ऐ मेरे वतन के लोगाें'' से अति प्रभावित हुए अौर उन्हें 1969 में पद्‌म भूशण से भी नवाजा गया। 70 अौर 80 के दषक में लता ने तीन प्रमुख संगीत निर्देषकाें लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, आर. डी. बर्मन अौर कल्याण जी—आनंदजी के साथ काम किया। चाहे सत्यम षिवम सुंदरम हो, षोले या फिर मुकद्‌दर का सिकंदर, तीनाें में लता ही केंद्र में रहीं। 80 के दषक के मध्य में डिस्को के जमाने में लता ने अचानक अपना काम काफी कम कर दिया हालांकि राम तेरी गंगा मैली के गाने हिट हो गये थे। दषक का अंत होते—होते, उनके गाये हुए चांदनी अौर मैंने प्यार किया के रोमांस भरे गाने फिर से आ गये थे। तब से लता ने अपने आप को बड़े व अच्छे बैनराें के साथ ही जोड़े रखा। ये बैनर रहे आर. के. फिल्म्स (हिना), राजश्री (हम आपके हैं कौन) अौर यष चोपड़ा (दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे, दिल तो पागल है, वीर जारा) आदि। ए.आर. रहमान जैसे नये संगीत निर्देषक के साथ भी, लता ने ज़ुबैदा में ‘‘सो गये हं'' जैसे खूबसूरत गाने गाये। 1998 के बाद से उन्हाेंने गाना बहुत कम कर दिया है।

आजकल, लता मास्टर दीनानाथ अस्पताल के कार्योॅ में व्यस्त हैं। वह क्रिकेट अौर फोटोग्राफी की षौकीन हैं। लता ने अपने आप को पूरी तरह संगीत को समर्पित किया हुआ है। वह अभी भी रिकार्डिंग के लिये जाने से पहले कमरे के बाहर अपनी चप्पलें उतारती हैं। लता मंगेषकर जैसी षख्सियतें विरले ही जन्म लेती हैं।

लता मंगेषकर को अनगिनत पुरस्कारों से नवाजा गया है। उन्हें वर्श 1958, 1962, 1965, 1969, 1993 और 1994 में फिल्म फेयर पुरस्कार, 1972, 1975 और 1990 में राश्ट्रीय पुरस्कार, 1966 और 1967 में महाराश्ट्र सरकार पुरस्कार, 1969 में पद्‌म भूशण, 1974 में दुनिया में सबसे अधिक गीत गाने का गिनीज बुक रिकॉर्ड, 1989 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार, 1993 में फिल्म फेयर का लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार, 1996 में स्क्रीन का लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार, 1997 में राजीव गांधी पुरस्कार, 1999 में एन.टी.आर. पुरस्कार, 1999 में पद्‌म विभूशण, 1999 में जी सिने का लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार, 2000 में आई. आई. ए. एफ. का लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार, 2001 में स्टारडस्ट का लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार, 2001 में भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘‘भारत रत्न'', 2001 में नूरजहां पुरस्कार और 2001 में महाराश्ट्र रत्न से सम्मानित किया गया।

कास्ट एंड क्रियू

कलाकार — पृथ्वीराज कपूर, दिलीप कुमार, मधुबाला, दुर्गा खोटे, अजीत, निगार सुल्ताना

निर्देषक— के. आसिफ

स्क्रिन प्ले — के. आसिफ, अमन

डायलॉग — कमाल अमरोही, वजाहत मिर्जा, अमन, इषान रिज्वी

सिनेमाटोग्राफी — आर. डी. माथुर

संगीत — नौषाद

गीत — षकील बदायूंनी

गायक— मोहम्मद रफी, उस्ताद बड़े गुलाम अली खान

गायिका — लता मंगेषकर, षमषाद बेगम

संपादन — धरमवीर

रिलीज की तारीख — 5 अगस्त 1960

फिल्म का समय — 191 मिनट

भाशा — हिंदी, उर्दू

कास्ट

पृथ्वीराज कपूर — अकबर

दिलीप कुमार — राजकुमार सलीम

मधुबाला — अनारकली

दुर्गा खोेटे — जोधा बाई

निगार सुल्ताना — बहार

अजीत — दुर्जन सिंह

एम. कुमार — मूर्तिकार संगतराष

मुराद — राजा मान सिंह

जिल्लू बाई — अनारकली की मां

जलाल आगा — युवा राजकुमार सलीम

क्रियू

सहायक निर्देषक — राषिद अब्बासी

मुख्य सहायक निर्देषक — खालिद अख्तर

कला निर्देषन — एम. के. सईद

गीत

प्यार किया तो डरना क्या — लता मंगेषकर

बेकस पे करम कीजिये — लता मंगेषकर

खुदा निगहबान — लता मंगेषकर

मोहब्बत की झूठी — लता मंगेषकर

मोहे पनघट पे — लता मंगेेषकर

तेरी महफिल में — लता मंगेषकर, षमषाद बेगम

प्रेम जोगन बन के — उस्ताद बड़े गुलाम अली खान

जब रात है ऐसी मतवाली — लता मंगेषकर

षुभ दिन आयो राज दुलारा — उस्ताद बड़े गुलाम अली खान

ऐ मोहब्बत जिंदाबाद — मोहम्मद रफी

हमें काष तुमसे मोहब्बत — लता मंगेषकर

ऐ इष्क ये सब दुनियावाले — लता मंगेषकर

ये दिल की लगी — लता मंगेषकर

फिल्मफेयर अवार्ड (1961)

फिल्फेयर बेस्ट सिनेमाटोग्राफर अवार्ड — आर. डी. माथुर

फिल्मफेयर बेस्ट डायलॉग राइटर अवार्ड — अमन, कमाल अमरोही, वजाहत मिर्जा, इषान रिज्वी

फिल्मफेयर बेस्ट मूवी अवार्ड— के. आसिफ

नामांकन

सर्वश्रेश्ठ अभिनेत्री— मधुबाला

सर्वश्रेश्ठ निर्देषक— के. आसिफ

सर्वश्रेश्ठ गीतकार— षकील बदायूंनी (प्यार किया तो डरना क्या गीत के लिए)

सर्वश्रेश्ठ संगीत निर्देषक— नौषाद

सर्वश्रेश्ठ गायिका— लता मंगेषकर (प्यार किया तो डरना क्या गीत के लिए)