ओस की बूँदें Dr Seema Thakur द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

ओस की बूँदें

ओस की बूँदें

1कृ

हे! वीणापाणि

षारदे माँ प्रज्ञा प्रदायनी ।

वीणावादिनी, ज्ञान दायनी ।।

वीणापाणि वर दे !

ज्ञान से भर दे !!

षुभ्रवसना षुभ्र है रसना

ष्वेत कमल है षुभ्रासना

जीवन शुभ्र कर दे!!

धी, विवेक तू जागृत करती

ज्ञान की देवी माँ सरस्वती

बुद्धि हमें प्रखर दे!!

काव्य, कला, सृजन की दात्री

कर अलौकिक जीवन रात्रि

ज्ञान के स्वर दे!!

डॉ. सीमा ठाकुर

2...

मुस्कुराते चलो

जीवन की राह में मुस्कुराते गाते चलो।

आए लाख रुकावटें तुम कदम बढ़ाते चलो।।

संकटों की बाढ़ हो

या सामने पहाड़ हो

जब कदम उठा लिया तो धाक जमाते चलो।।

लक्ष्य यदि दूर हो

पॉव भी मज़बूर हो

हाथ से हाथ मिला होंसले दिलाते चलो।।

कदम कभी रुके नहीं

सर कभी झुके नहीं

थक के जो है बैठ गए उनको भी उठाते चलो।।

डॉ.सीमा ठाकुर

3. नवचेतना फूँक ज़रा

फिर माता रही पुकार, नवचेतना फूँक ज़रा।

उठ फिर भर हुँकार, नव चेतना फूँक ज़रा।।

झाड़ झंकार खड़े बेईमानी के

उखाड़ दे ये खर पतवार, नवचेतना फूँक ज़रा।।

भीख नहीं हक़ माँग रहा तू

और ज़ोर से ललकार, नवचेतना फूँक ज़रा।।

नहीं देष के काम जो ये जवानी

तो तुझपे है धिक्कार, नवचेतना फूँक ज़रा।।

जयचंदों ने धारण कर लिए है नए वेष

ढूँढ निकाल गद्‌दार, नवचेतना फूँक ज़रा।।

फिर उठा तलवार देष के गद्‌दारों का

ढूँढ कर मार, नवचेतना फूँक ज़रा।।

रावण फिर मिलते हैं अब इन रूपों में

आतंक, मंहगाई,भ्रश्टाचार, नवचेतना फूँक ज़रा ।।

फिर ला धानी चूनर भारत माँ को पहनाने

फिर कर नव श्रृंगार, नवचेतना फूँक ज़रा।।

डॉ. सीमा ठाकुर

4. कर्त्तव्य निभाएँगे

सूरज से सीखो तुम भैया रोज़ समय से आना।

और सीखो तारों से तुम रातों को चमकाना।।

प्रकृति ने अपने—अपने सबको काम हैं बाँटे।

सब के हैं कर्त्तव्य यहाँ पर फूल हो या काँटे।।

फूलों का है काम , सारी दुनिया को महकाना।

काँटों की ड्‌यूटी है उनको बुरी नजर से बचाना।।

नदियों का कर्त्तव्य बना है सबकी प्यास बुझाना।

धरती करे व्यवस्था सबकी रहना हो या खाना।।

छोटे से तिनके का भी जब कुछ न कुछ कर्त्तव्य।

सोचो हमें क्या करना है, हम तो हैं मनुश्य।।

लें षपथ कि जी जान से अपना कर्त्तव्य निभाएँगे।

मानवता की सेवा में जीवन अर्पित कर जाएँगे।।

डॉ. सीमा ठाकुर

5. नंदिनी

अपनों के लिए अपनों से दंष सह रही है नंदिनी।

संतान सफल हो इसलिए एकाकी रह रही है नंदिनी।।

बचपन की त्यागकर सभी अल्हड़ अठखेलियाँ

गंगा की तरह षांत गंभीर बह रही है नंदिनी।।

नव नीड़—निर्माण—निरत हैं सुत—सुता

उनकी खुषी के आषीर्वचन कह रही है नंदिनी।।

देह जीर्ण, हृदय विदीर्ण धारण किया पर धैर्य को

त्याग की प्रतिमूर्ति बन वसुधा सी सब सह रही है नंदिनी।।

नंदिनी नाम नारी का है जो सबके सुख में है सुखी

आरती की लौ बनी मौन जी रही है नंदिनी।।

डॉ.सीमा ठाकुर

6. फूल कहते हैं

फूलों की पंखुड़ी पे रखी षबनम मुझसे बोली।

क्यों हो तुम खोई—खोई, क्या सोच रही हमजोली।।

ऐसा क्या है ग़म तुमको जो तुम भूली मुस्कान।

इस जग की सारी खुषियों से यूँफिरती हो अनजान।।

दर्द अगर है कोई जीवन में तो भी हँसते रहना।

सीखो इन फूलों से काँटों की चुभन भी सहना।।

तक़दीर ने तो फूलों को दिए हैं केवल काँटे।

लेकिन फूलों ने हर पल सबको सुख ही बाँटे।।

लोग कुचलकर इसके तन को कितनी दवा बनाएँ।

खु़द को मिटाकर भी ये सबकी जान बचाए।।

रंग—रूप निखारे सबका,सबका मन बहलाए।

रंग सजाकर अपना ये दुनिया रंगीन बनाए।।

पूजा की थाली में सजकर बने साधक की भाशा।

ईष्वर के चरणों में चढ़कर पूरी कराए अभिलाशा।।

बिंधकर सूई से गजरा बन जब वेणी को सजाए।

प्रियतम के मन की बात कह प्रिया को मनाए।।

अंतिम यात्रा में भी यही अंत तक साथ निभाए।

सब छोड़े साथ पर ये खुद संग ही जल जाए।।

लोग तोड़ लेते इसको पर ये न षिकवा करता।

अपनी रंगो—खुषबू से है सबका मन ये हरता।।

काँटों में रहकर भी न अपना स्वभाव बदला।

बुरा करने वालों का भी करता सदा ही भला।।

और तुम हो कि ज़रा से कश्ट से हो घबराई।

षबनम की बातें सुनकर मैं ज़रा सा मुसकाई।।

अपने मन में सोचा फिर इस सच को पहचाना।

फूलों में इक गुरु छिपा है ग़र समझे इसे जमाना।।

माना मैंने जीचन है एक अग्नि परीक्षा।

पर फूलों ने दी मुझको आज नई ये षिक्षा।।

जीवन में भाग्य चाहे सुख दे या दुख बाँटे।

मुझे फूल ही बनना है त्याग निराषा के काँटे।।

फूल की हर पंखुड़ी का है सबसे यही कहना।

सुख आए या दुख बस हँसते ही रहना।।

डॉ.सीमा ठाकुर

7 मेरे मन में छिपा बच्चा

मेरे मन में छिपा बच्चा

आज भी गिलहरियों के पीछे भागना चाहता है

चाहता है आज भी तितलियाँ पकड़ना

या कागज़ की चिंदियों को तितलियों सा उड़ाना

चाहता है बारिष के जमे पानी में छपाछप करना

या भरी हुई नालियों में नावें चलाना

बनते मकानों की रखी हुई बालू पर

दौड़कर चढ़ना और महल बनाना

टूट जाने पर उन महलों के ठहाके लगाना

बेवजह दौड़ना ,उछलना—कूदना

रास्ते की कंकरियों में ठोकर लगाना

या आम की गुठलियों से पपीहे बनाना

चढ़ना कूद कर पेड़ पर ,वो कच्चे अमरूद खाना

या बगीचे में जाकर गुलाब चुराना

मगर जिं़दग़ी की हमग़ीरी में

ऐसे उलझे हैं हम

कि मन के इस बच्चे को सुला देते हैं हम

सुनाकर ज़रूरतों की लोरी

हमारी इस मतलबी मषरूफ़ दुनिया में

कहाँ जगह है इस बच्चे की खिलखिलाहट की

मग़र फिर भी कभी—कभी ही सही

मेरे मन में छिपा बच्चा...............

डॉ.सीमा ठाकुर

8. पापा

मेरे बचपन के आँँगन में तेरे लाड़ का साया।

मेरी ज़िदग़ी है तेरे प्यार का सरमाया।।

मेरी तोतली बोली को दोहराना तेरा।

मुझे बाहर से आते ही गोद में उठाना तेरा।।

मुझको बाँहों के झूले में झुलाया तूने।

सौ बार सीने से लगाकर सुलाया तूने।।

वो टॉफी, चॉकलेट लेकर घर आना तेरा।

मुझको दरवाजे से ही आवाज़ लगाना तेरा।।

मेरी उँगली थामकर चलना सिखाया तूनेे।

मेरी राहों में सदा फूलों को बिछाया तूने।।

अपनी पलकों से चुनकर दर्द के काँटे।

तूने सदा खुषियों के फूल ही बाँटे।।

ज़िंदग़ी जीने का तूने ही पाठ पढ़ाया।

मेरी ज़िदग़ी सँवारी ,मुझे आगे बढ़ाया।।

तुझको दे दूँ उपहार में चाँदी सोना।

मग़र तेरे प्यार के आगे सब है बौना।।

लब पर ये ही दुआ,दिल में ये ही तमन्ना।

हर जन्म में तुम मेरे ही पापा बनना।।

डॉ. सीमा ठाकुर

9. पेड़ लगाओ

एक दिन एक हरा भरा पेड़ मेरे सपने में आया।

मुझे देखा मुस्कुराया।

पहले पूछा प्रेम से मेरा हालचाल।

फिर कर बैठा एक भोला सा सवाल।।

भाई क्या तुम लोगों ने अक्ल बेच खाई है।

अपने ही हाथों अपने पर्यावरण में आग लगाई है।।

अरे क्यों धरा को श्रीहीन बनाते हो।

अंधाधुंध पेड़ काटे जाते हो।।

अरे हम ही तो लाते हें कजरारे बादल।

और तुम हमको ही करते हो घायल।।

मेरे ही फल खाकर अपनी भूख मिटाते हो।

और मेरी ही पत्तियों से सीटी बजाते हो।।

हर वक्त तोड़ते हो मेरी पत्तियाँ और छाल।

कैसा लगेगा ग़र खींचे कोई तुम्हारी खाल,तुम्हारे बाल।।

ज़रा सोचो अग़र धरा से हम ही मिट जाएँगे।

तो भविश्य के लोग कैसे काम चलाएँगे।।

न अन्न होगा,न वर्शा,न बादल ही पाओगे।

बस कजरारे कजरारे गाते ही रह जाओगे।।

तो मानो मेरा कहना अक्ल पे न रखो पत्थर।

लगाओ पेड़ तभी बनेगी ये सृश्टि बेहतर।।

डॉ. सीमा ठाकुर

10. गुरु को नमन

हे भगवान! तेरे मन में आखिर क्या था आया ?

क्या सोच कर तूने स्कूल बनाया ?

हे भगवान! किस जन्म का तूने मुझसे बदला निकाला ?

इस नन्हीं सी जान पर क्यों इतना बोझ डाला?

इस पर भी तुझको ज़रा चैन न आया।

बाकी सबजैक्ट कम थे क्या जो मैथ्स भी बनाया।।

इसको जोड़ो, उसे घटाओ, इसका एरिया निकालो।

अरे किष्तों में क्यों खाते हो मुझको एक बार में खालो।।

जमा—घटा समझ न पाई जब पेपर सामने आया।

षून्य दिखा सारा मुझको,सर ने चक्कर खाया।।

हुर्इ्र मुसीबत अब क्या बोलूँ, अब तो राम बचाए।

इतनी मेहनत करने पर भी नौ नंबर ही आए।।

मैडम कुछ भी नहीं पढ़ाती, न ही कुछ समझाए।

बस कुछ ही बच्चों को सारे सवाल करवाए।।

और भी ऐसे ही जाने कितने बनाए बहाने।

पर फिर भी पापा के डंडे पड़े ही खाने।।

टीचर को कोस—कोसकर मैंने फिर षुरू किया पढ़ना।

पर यार संख्या देखते ही होता अपना मरना।।

पर एक दिन मैडम ने ऐसा गुर बताया।

मैथ्स का हौवा था मेरा उसको दूर भगाया।।

डरो नहीं, सोचो आता है सब और हल करते जाओ।

मेहनत और अभ्यास को अपनी आदत बनाओ।।

अब अपनी सोचपर पछताती हूँ मन है मेरा रोता।

हम ही आलस करते हैं, गुरु बुरा नहीं होता।।

गुरु तो कोषिष करता है कि हमको बेहतर बनाए।

जितना उसको आता है, वह सब कुछ हमको सिखाए।।

अपनी खुषबू लुटाता है गुरु तो वो चंदन है।

ऐ मेरे गुरु! तुझको मेरा षत—षत वंदन है।।

डॉ. सीमा ठाकुर