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अम्बेडकर vs गाँधी @ अरुंधति रॉय

गाँधी और अम्बेडकर — अरुंधति रॉय

आलेख

डा. मुसाफिर बैठा

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गाँधी और अम्बेडकर — अरुंधति रॉय

अम्बेडकर के विचारों से छत्तीसी रिश्ता रखने वाली पार्टीयां भी अभी उनका दामादी—आवभगत कर रही हैं. गोयाए किसी को नकारने केए एप्रोप्रिएट करने के लिएए शक्ति—शिथिल करने लिए उससे प्यार का अभिनय भी किया जा सकता है! वैज्ञानिक एवं तार्किक मानवीय सोच के प्रणेता महामना बुद्ध एप्रोप्रिएट कर लिए गएए हिंदू—मुस्लिम धार्मिक वह्याचारों सहित व्यर्थ के धार्मिक—सांस्कृतिक आचरणों—आडम्बरों में उलझने वाले नादान मनुष्य पर चोट करने वाले कबीर—रैदास देवताबना दिए गए. हिंदूवादी शक्तियों के द्वारा जिस प्रकार से भाजपा एवं उसकी मानस निर्माता संस्था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ इन दिनों अम्बेडकर एवं गाँधी को दुलारने एवं पुचकारने पर उतारू हो गया है वह कट्टरपंथियों का एक बड़ा पैंतरा है. अम्बेडकर एवं गाँधी के प्रति धुर पूर्वग्रह पालने वाली ये संस्थाएं नरम हृदय का स्वांग रचकर दरअसलए इन्हें नकारने के शातिर एजेंडे पर हैं. ष्संघष् की कट्टरता में लोच का का यह नया दर्शन शातिर और मानीखेज है. दूरगामी सोच एवं लक्ष्य से उपजा है. गाँधी दर्शन में जो कुछ भी मानवीय एवं तर्कशील तत्व हैं उन्हें तो संघ विरूपित करना ही चाहता हैए भयावह यह है कि संघ एवं गाँधी से विपरीत ध्रुव पर रहे अम्बेडकर में भी अपनाने का तत्व पा लेना भगवा खेमों की बड़ी कारवाई है. इस प्रसंग और भूमिका की मार्फत आगे बढ़़ते हुए अब हम उस विवाद और विषय पर आते हैं जो अम्बेडकर की अंग्रेजी लघु पुस्तक ष्।ददपीपसंजपवद वि ब्ेंजमष् (जाति का विनाश) को समाहित करते हुए अरुंधति रॉय की भूमिका के साथ प्रकाशित हुई अंग्रेजी पुस्तक से संबद्ध है. इस पुस्तक को लेकर साइबर स्पेसए ब्लॉगए फेसबुक सहित पत्र—पत्रिकाओं में बीते दिनों काफी विमर्श और खींचतान चली है.

ष्नवायनष् प्रकाशन से आई इस पुस्तक की भूमिका सेलिब्रेटी लेखिका अरुंधति रॉय ने लिखी है. अगर इस हाई—फाई लेखिका की उक्त पुस्तक में अम्बेडकर एवं गाँधी विषयक शाब्दिक—मंतव्यों को ष्आगष् माना जाए तो कतिपय बहुजन बौद्धिकों द्वारा रॉय की मंशा पर सवाल खड़ा करने से उपजा विवाद ष्घीष् का काम करता दिखाई दे रहा है! जाहिर हैए इस पुस्तक की कीर्ति फैलेगी और प्रकाशक का व्यावसायिक हित बेहतर रूप में सध सकेगा. अम्बेडकर के प्रति सदाशयता एवं सहानूभूति रखने वाले लोगों का मानना है कि गांधी के बरक्स अम्बेडकर को रखकर किया गया यह अध्ययन अम्बेडकर के कद को और अधिक वैश्विक बनाएगा क्योंकि वैश्विक कद के गाँधी से तुलित होते ही अम्बेडकर की छवि में वृद्धि होगी. जबकि इस पुस्तक के प्रकाशन में राजनीति एवं व्यवसाय बुद्धि का इस्तेमाल देखने वालों का मानना है कि अम्बेडकर की विख्यात कृति को व्याख्याति करते हुए गांधी को बेपनाह भाव देने में अम्बेडकर के प्रति हेठी तो है हीए साथ ही गाँधी के मसाले के जरिये अम्बेडकर को बेचने की यह कवायद हैए जैसे कि बिना इसके अम्बेडकर की स्वीकार्यता नहीं हो सकती. यहाँ स्मरण रखने योग्य है कि कुछ दिनों पहले गांधी के बाद सबसे बड़े भारतीय महापुरुष की ष्खोजष् का एक सर्वे बीबीसी लन्दन ने किया था जिसमें अम्बेडकर को यह गौरव हासिल हुआ. सर्वेक्षण में माना गया कि गाँधी की सर्वोच्च स्वीकार्यता असंदिग्ध है. पूरे भारतीय जनमानस का ख्याल रखकर बात करें तो यह सही भी है.

ष्भीमष् नाम से भी जाने वाले बाबा साहेब की 60 पृष्ठों की इस क्षीणकाय पुस्तक ष्।ददपीपसंजपवद वि ब्ेंजमष् की लगभग 200 पृष्ठों में अरुंधति रॉय की टीप्पणी के साथ आई विवादित पुस्तक की भीमकाय—भूमिका प्रस्तुत करने की डा. अरुंधति की अति बौद्धिक कार्रवाई को बहुत उचित नहीं ठहराया जा सकता. वह भी तब जबकि इस भूमिका में अम्बेडकर से बहुत बहुत ज्यादा गाँधी पर फोकस है. रॉय को दरअसलए अलग से यह पुस्तक लिखनी चाहिए थी. तब मामला और जो कुछ बने 60 के सोने में 200 के टलहे को फेंट विशुद्ध प्रदूषण फैलाने का नहीं बनता! क्या अरुंधति की खुद की किसी पुस्तक में ऐसी उलाड़ (मगजतमउमसल नदइंसंदबमक) भूमिका लगाई गयी है जिसमें पुस्तक की सामग्री से तिगुनी भूमिका के शब्द होंघ् एक लोकल कहावत है— एक आने का मुर्गाए नौ आने का मसाला. यानी मुर्गा को स्वादिष्ट बनाने में उसकी कीमत से नौगुना खर्च मसाला आदि में खर्च कर देने की फालतू—फिजूल कार्रवाई. व्यंजना यहाँ यह भी है कि इतनी तामझाम वाली भूमिका के बिना बाबा साहेब जैसे एक विराट आयाम व आभा वाले दलित व्यक्तित्व की कृति को भी उच्चवर्गीय विलासी मिजाज अंगेजी—पाठक जगत में भाव नहीं मिलने वाला! अतः उस दलित कृति में बिक्री—व्यवसाय का ष्भवसागरष् पार कराकर ष्स्वर्गिकष् अर्थ लाभ पहुंचाने के लिए किसी दैवी छवि की ब्राह्मणी लेखिका के पवित्र वचनों की छौंक लगाना जरूरी समझा गया! उद्देश्य साफ थाए अम्बेडकर एवं उनकी ष्देखन में छोटन लगेए घाव करे गंभीरष् प्रभाव की अनमोल कृति के महत्त्व को बौना बनाने की प्रच्छन्न कोशिश की गयी है. जिस समाज में आम आदमी की बनियागिरी को कैश करके केजरीवाल जैसा खुदगर्जए आत्मप्रशंसा—आकुलए अहंकारीए अवसरवादी एवं उद्दाम महत्वकांक्षा का व्यक्ति एक राजनीतिक दल खड़ा करके चला लेता हैए मुख्यमंत्री का खास आसन पा जाता है वहाँ किसी खास इलीट लेखक के बड़बोलेपन को यदि कैश करने का मंसूबा बाँध कोई प्रकाशक सफल हो रहा है तो इसमें कोई चौंकाने वाली बात कहीं से नहीं है! बाबा रामदेव जैसा कसरत—बेचू व्यक्ति नीम हकीम एवं धूर्त बड़बोला—बकबकबोला व्यापारी में अपने को रूपांतरित कर जब कसरतए कद्दू और करेला बेच कर एक आर्थिक साम्राज्य खड़ा कर ले रहा हैए औरए ब्याज में बाबाध्साधु की पदवी भी पा ले रहा हैए शोहरत की बरसात में नहा रहा है तो हमारे समाज के बुलंद सोच की बलिहारी ही तो है यह! निर्मल बाबा जैसा आदमी महज थूथन और हथेली से आशीर्वाद बरसाकर ईश्वर बना बैठा है तो हमारे समाज के आमजनमानस की भेड़चाल बुद्धि का क्या बखान करनाघ्

अरुंधति रॉय की उक्त पुस्तक के हैदराबाद में होने वाले लोकार्पण का कुछ दलित संगठनों ने विरोध किया तो सभा में गड़बड़ी के भयवश लोकार्पण ही ताल दिया गया. रॉय एवं उनके अंधसमर्थक इस विषय में पिटा—पिटाया राग अलाप रहे थे कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ऐसा विरोध हमला है. जबकि यह कहकर वे आलोचना के जनतांत्रिक अधिकार को विरोध मात्र का जामा पहना रहे थे. क्या कोई बौद्धिक—सामाजिक संगठन अपनी बैठक बुलाकर किसी विषय पर संयत—संगत तरीके से अपनी मतविभिन्नता दर्ज कर रहा है तो वह आपत्तिजनक हैए हमला हैघ् आदिवासियों एवं बाँध विस्थापितों के अधिकारों के लिए तो अरुंधति खुद विरोध आंदोलनों का हिस्सा रही हैंए अगुआ रही हैंए क्या अपने ऐसे लापरवाह वक्तव्यों के प्रति उनका कोई नैतिक दायित्व नहीं बनताघ् अम्बेडकर ने मनुस्मृति दहन किया था. क्या वह किताब विशेष को जलाना था कि किसी समाज में पल रहे किसी अमानवीय विचारधारा का प्रतीकात्मक विरोध थाघ् हम देखते हैं कि बहुत से राजनीतिक निर्णयों एवं कार्रवाइयों के विरोध में लोग सरकार अथवा सरकारी—प्रशासनिक निर्णय से जुड़े व्यक्ति विशेष के पुतले का दहन करते हैं. तो इसके उद्देश्य एवं औचित्य पर बिना विचारे क्या इसे आप गैर मुनासिब कृत्य ठहरा देंगेघ् अरुंधति रॉय विवादित पुस्तक की अपनी उक्त भारी भरकम भूमिका में लिखती हैं कि संयोग से (पदबपकमदजसल) रिचर्ड एटनबरो निर्देशित ष्गाँधीष् फिल्म में अम्बेडकर का ूंसा—वद चंतज यानी एक संवादहीन छोटा रौल भी नहीं फिल्माया गया है। पर इसे वे मात्र एक तथ्य के रूप में रखती हैंए इस बात की आलोचना नहीं करतीं। वे पदबपकमदजसल शब्द का प्रयोग करती हैं। हालांकि ऐसा कह वे आलोचना का सूत्र हमें थमा जाती हैं क्योंकि वे यह भी तथ्य जोड़ती हैं कि फिल्म को भारत सरकार का आर्थिक सहयोग भी मिला था। बताइएए यह कैसी फिल्म है कि गाँधी—अम्बेडकर की कुछ मिनटों की भी आमने—सामने की (िंबम जव िंबम) मुलाकात नहीं करवाई जातीघ् औरए इस प्रकरण पर आप हैं कि अपनी 200 पृष्ठों की बात में से कुछ शब्द भी आलोचना में खर्च करना नहीं चाहतींघ् अपनी इस भूमिका में गाँधी के बारे में टोकरी भर बातें लिखकर उनको बाबा साहेब पर भारी बना कर परोसने में यह बात तो जरूर है कि अरुंधति रॉय का मूल ध्येय गांधी के वैश्विक कद को पुस्तक के विज्ञापन के निवेश करने का ही हैए और यह षड्यंत्र कारक सौदा प्रकाशक के इशारे पर हुआ है! संघी पत्रकार अरुण शौरी द्वारा ॅवतेीपचचपदह थ्ंसेम ळवके लिखकर अम्बेडकर को जानबूझ कर नीचा दिखाने का प्रयास किया गयाए कम कर के आंकने का प्रयत्न किया गयाए यहाँ अरुंधति भी सायास यह सब कर रही लगती हैं. कारण कि विवाद के परिप्रेक्ष्य में जो भी उनका लिखित स्पष्टीकरण आया है उसमें वे अनेक बार बचाव की मुद्रा में आती दिखती हैं. टीपिकल सवर्ण एवं वामपंथी मान्य बुद्धिजीवियों की तरह आलोचना में मुखर हुए बहुजन बुद्धिजीवियों को वे सांस्कारिक पिटे—पिटाए ढ़र्रे पर अक्षमए अयोग्यए आक्रामक और आतंकी तक बताने का संकेत छोड़ रही हैं. ध्यान रहेए इस पुस्तक का कॉन्टेंट अम्बेडकर का वह भाषण है जो उन्हें आर्य समाज प्रभावित ष्जात—पांत तोडक मंडलष् के मंच से सन 1936 में देना थाए पर इस पर्चे को जब आयोजन के अधिकारियों ने भाषण पूर्व पढ़़ा तो जात—पांत तोड़ने की उनकी ष्सहानुभूतिष् को लकवा मार गया और जात—पांत पर अम्बेडकर की तीखी मार को वे सह नहीं पाए. मंडल ने बीच का रास्ता सुझाया था कि भाषण को अम्बेडकर कुछ कांट—छाँट कर नरम बनाए जबकि बाबा साहेब को अपने भाषण से एक शब्द भी जाति कायम रखने की तरफदारी में त्यागना मंजूर न था! यहाँ एक असंबद्ध सा प्रश्न मन में कौंधता है कि जिस गांधी की संत—वंदना में अरुंधति उतरी हैंए उनके उस अतिशय वर्ण—प्रेम में वे कैसा संतत्व देखती हैं जिसको भजते हुए उन्होंने जातिगंध को समाप्त होने का स्वप्न देखाघ् गांधी ने ओस चाटकर प्यास बुझाने के कई ठकुरसुहाती या कि अव्यवहारिक एवं हास्यास्पद सिद्धांत पेश किये। समाज से भेदभाव को मिटाने का बच्चों सा खेल खेला। दूध की रखवाली बिल्ली के भरोसे छोड़ा जा सकता है — इस सिद्धांत के भरोसे ट्रस्टीशिप का लोकलुभावन—सह—सेठ सुहावन स्वांग रचा। वैसेए मैं भी वर्तमान कांग्रेसी नेता एवं राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पी एल पुनिया द्वारा ॅवतेीपचचपदह थ्ंसेम ळवके के सन्दर्भ में दिए गए बयान की तर्ज पर कहूँगा कि चाहे अरुंधति ने बाबा साहेब का कंधा लेकर खुद के एवं अपने प्रकाशक के किन्हीं मनसूबे को पूरने के लक्ष्य से यह लेखन कार्य किया हो पर अंततः वे इस पुस्तक को पुनः चर्चा में लाकर हमें लाभ तो पहुंचा ही गयी हैं. पुनिया ने ॅवतेीपचचपदह थ्ंसेम ळवके पढ़़ते हुए यह निचोड़ रखा था — ष्ण्ण्ण्ठनज वि जीम ीनदकतमके वि इववो जींज प् ींअम तमंकए प् ूवनसक सपाम जव ेपदहसम वनज वदमए ॅवतेीपचचपदह थ्ंसेम ळवके इल ।तनद ैीवनतपमण् ।सजीवनही जीम इववा कमदपहतंजमे ठत् ।उइमकांतए पज कवमे बवदजंपद ं सवज वि उंजमतपंस ंदक पदजमतमेजपदह तममितमदबमेण् ष्(ज्मीमसांण्बवउ)

हम याद रखेंए जब गैर—बहुजनों ने दलित साहित्य को अछूत मानना बंद कियाए अन्यमनस्क—अनमने—सहानुभूति में ही सही उसपर लिखना पढ़़ना शुरू किया तभी उसके अच्छे दिन आये. बात बढ़़ीए धार बढ़़ीए संवाद बढ़़ा. औरए यह तय है कि सेंत में उनने इस स्व—अहितकारी एवं ष्परकल्याणकारीश् कार्य में हाथ नहीं लगाया! सरकारी संस्थानोंए कॉलेजोंए विश्वविद्यालयोंए शोध संस्थानों में दलित शोधए अध्ययनए विमर्श आदि के नाम पर देखिये द्विजों की कितनी चांदी हैघ् अधिकांश माल वे ही चट कर जा रहे हैं. इस फील्ड में भी दलित—पिछड़े हाशिए पर ही हैं. अनुयायी की भूमिका में ही हैंए अगुआई पर द्विजों ने ही कब्जा कर रखा है. औरए द्विजों की नेतृत्वकारी भूमिका के अपने खतरे भी हैं. वे चाहेंगे कि दलित लेखन की त्वराए तेजए धारए एक्सक्ल्युसिवनेस को खत्म कर नखदंत विहीन कर दे. इतिहास गवाह हैए कबीरपंथए बौद्ध धर्मए जैनधर्म आदि के प्रगतिशीलए मानवतावादीए बुद्धिवादी तत्वों को द्विजों ने घुसकर मटीयामेट किया भी है. अम्बेडकर जयंती मनाये जाने के समाचार जानने के लिए इन पंक्तियों के लेखक ने दिनांक 15 अप्रैल 2014 के पटना संस्करण के कुछ अखबारों के पन्नों की छानबीन की. पाया कि लगभग हर प्रमुख राजनीतिक पार्टी से जुड़े समाचार हैं. संघीए बजरंगीए धुरफंदी सबके! जाति और जमात आधारित संगठनों की सहभागिता का मुआयना किया तो रोचक तथ्य हाथ लगे. केवल बहुजन समुदाय से जुड़े राजनैतिक सामाजिक संगठनों द्वारा ही अम्बेडकर जयंती मनाए जाने की खबरें पढ़़ने को मिलीं. मसलनए द्विज जातियोंए द्विज जमातोंए द्विज संगठनों द्वारा अम्बेडकर जयंती मनाए जाने की खबर नदारद मिली. जबकि द्विज गाँधी ही नहीं बल्कि गैर—द्विज सरदार पटेल से जुड़े समारोहों का आयोजन द्विज संगठनों द्वारा बड़े पैमाने पर तामझाम के साथ किया जाता रहा है. लख रहा हूँ कि जैसे हिंदी अखबार वाले हिंदू होकर अथवा बहुसंख्यक प्रतिनिधि बनकर अल्पसंख्यकों के पर्व—त्योहारों पर बधाई और शुभकामना व्यक्त करते हैंए उसी तरह से अखबारों के रिपोर्टर अम्बेडकर की पुस्तक श्एनिहिलेशन अॉफ कास्टश् की भूमिका लिखने वालीं अरुन्धति रॉय की तरफ से समाचार बनाते देखे गए हैं. जब वे अरुंधति की बात करते हैं तो अपना बनाकर कहते हैंए और जब अरुंधति के मत से अलग के विचारों को वे रखते हैं तो दलितों के विचारए उनके विचार जैसे परायेपन का बोध कराने वाले जुमलों का इस्तेमाल करते हैं. दूसरे शब्दों मेंए अरुंधति के लिए अपनापा का भाव एवं विरोधी मत अथवा स्वर के लिए दुराव वाले संबोधन.

अरुंधति को ष्हवक वि ेउंसस जीपदहेष् तथा बिक्रम सेठ को जीम ेनपजंइसम इवल उपन्यास के लिए जब करोड़ों रुपये का पारिश्रमिक प्रकाशक द्वारा अग्रिम ही धमा दिया जाता है तो उसमें भी लोगों को बुरा और आपत्तिजनक नहीं लगा कि आखिर यह कैसा श्रम है जिसके लिए इतनी बड़ी राशि दी जा सकती हैघ् क्या यह श्रम का बेहूदा ऊंचा मूल्यांकन नहीं हैघ् क्या यह अधिमूल्यांकन (वअमततंजपदह) श्रमणशीलों के श्रम को मिले तुच्छ कीमत और मूल्यांकन के विरोध में जाते हुए सामान्यतः श्रम करने वालों का अपमान नहीं करताघ् क्या अरुंधति बताएंगी कि आम दलितों वंचितोंए मेहनतकशों की जो दुर्दशा है वह उनके जैसे देव—श्रम मूल्य हडपने वालों के चलते ही बहुत कुछ नहीं हैघ् फिल्मए खेल (खासकरए क्रिकेटए टेनिस)ए पेंटींगए व्यवसायए शेयर मार्केट आदि के लिए कुछ लोगों के श्रम का मूल्य जो लाखों—करोड़ों की राशि में आँका जाता है वह क्या एक तरहकी बर्बरता और क्रूर बेईमानी बेहयाई नहीं हैघ् क्या इस विषय पर रॉय जैसी प्रबुद्ध लेखिका अपने पवित्र विचार रखेंगीघ् किसी धन—मतांध व्यापारी ने आपकी किताब पर बेशुमार पैसे क्या लुटा दिए आप सेलेब्रेटी के अभिमान में पैदल ही धरती से देवलोक तक विचरण करने लगींघ् अरुंधति के विवादित लिखे को जब तकोर्ं के साथ घेरे में लिया गया है तो वे और उनके अंधसमर्थक तिलमिला गए हैं. इसी आसंग में प्रश्न फेंटा जा सकता है कि आखिर साहित्य में बहुजनों के लिए बोलनेए लिखने का अधिकार किसको हैघ् यानी क्या स्वानुभूति एवं सहानुभूति के खांचे में बद्ध करके इस सवाल को देखा जा सकता हैघ् उत्तर हैए हाँ में भी है और नहीं में भी. स्पष्ट है कि अनुभव सच की बुनियाद का कोई मुकाबला नहीं हो सकता. दूसरी ओर सहानुभूति की अभिव्यक्ति का भी अपना महत्त्व है. साहित्य में ष्परकाया—प्रवेशष् की धारणा का आत्यंतिक महत्त्व है. किसी भी दूसरे व्यक्ति अथवा दूसरे स्रोतों से पाए ज्ञान अथवा पर—अनुभव को अपने कला कौशल के सहारे ही अधिकाँश साहित्य लिखा गया है. यह भी अनुभव को बरतने का उदहारण है. डायरीए यात्रा—वृत्तान्तए आत्मकथाए रिपोर्ताज जैसी प्रायः स्व—अनुभव एवं यथार्थ पर आधारित विधाओं से अलग कविताए कहानीए उपन्यास जैसी वृहतर विधाओं में जो लेखन उपलब्ध हैंए वे अपने—पराये के अनुभवोंए लिखित मौखिक विविध जानकारियों में कल्पना का पुट मिलाकार ही रचे जाते हैं. बावजूदए साहित्य में यथार्थ आधारित विधाओं में लेखन तो जरूर हो रहा है पर उसकी विश्वसनीयता बहुत नहीं होती. हम अपने अनुभवों का अपनी सुविधा एवं राजनीति अनुसार छोड़—पकड़ भी करते हैंए और तोड़—मरोड़ भी. अतः साहित्य मूलतः कल्पनाजीवी ही होता है. कल्पना के नाम पर लिखने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि उसमें आनय तथ्योंए वाद—विवादों के लिए कोई प्रमाण नहीं माँगा जा सकता. जबकि अनुभव अथवा तथ्य आधारित लेखन को कोई भी जांच—परख पर आरोपित कर सकता है. अप्रियए प्रतिकूलए अवमानना जन्य तथ्यों के अंकन पर घमासान मच सकता हैए प्रमाण मांगे जा सकते हैंए कोर्ट—कचहरी का चक्कर लग सकता है. रिश्तों—नातों में दरार आ सकती है.

प्रसंगवशए अरुंधति रॉय ने आम द्विज अथवा वाम संस्कार के दलित विरोधियों की तरह अपनी आलोचना में एक छिद्रान्वेषण यह रखा है कि जब कोई गैरदलित किसी दलित के बारे में नहीं लिख सकता तो अम्बेडकर तो महार थेए उनके बारे में महारों के अलावा अन्य दूसरी जाति का दलित लिखने का कैसे अधिकारी हो सकता हैघ् पूरे मामले में यह मुद्दा कहीं था भी नहीं. मुद्दा था तो यह कि प्रसंग से लगभग हटकर गांधी को पैमाना और रेफरेंस पॉइंट रखकर क्यों किताब की विशालकाय भूमिका लिखी गयीघ् विभिन्न एंगल से रॉय की क्षुद्र और पैसे उगाहने के एजेंडे को पकड़ा गया. जब हैदराबाद में पुस्तक के प्रस्तावित लोकार्पण के विरोध का कुछ दलित संगठनों ने फैसला लिया तो लोकार्पण रोक क्यों दिया गयाघ् राजनीति साफ थीए काम तो विज्ञापन अथवा प्रोमोशन का हो ही गया! यह भी स्पष्ट हुआ कि आम द्विज लेखकों के जो पूर्वग्रह दलित लेखन के प्रति हैए वही इस ख्यातनाम अबल—कातर लेखिका के अंतस में भी पल रहे हैं. ये और इनके धुर समर्थक यह कतई नहीं मान सकते कि जो दलितों के बारे में हमारी द्विज प्रतिभा जो कलमबद्ध कर रही है उसमें कोई खोट हो सकती हैए वह वेद—वाणी से कम हो सकता है! औरए सबसे बढ़़कर मन में यह ब्रह्मा—मुख जन्म से उपजी कुंठा और अकड़ जनित ष्पारंपरिक अस्वीकारष् की चेतना कि उनके मौलिक प्रतिभा की छानबीन एक दलित कुलजनमा कैसे कर सकता हैघ् गांधी और अम्बेडकर के विचार—द्वंद्व में भी यह एक मूल बात रही.

अंत मेंए अम्बेडकर एवं गाँधी की परस्पर निर्भरता को सूत्र में समझें तो अम्बेडकर की प्रतिभा और उनके वैचारिक योगदान को द्विजवादी—वर्णवादी गाँधी ने स्वीकार किया औरए इस स्वीकार ने गाँधी के कद को तो बढ़़ाया हीए साथ हीए अम्बेडकर को भी अपनी प्रतिभा साबित करने का मौका दिलाया. अलबत्ताए तथ्य यह भी है कि न गाँधी बिना अम्बेडकर का व्यक्तित्व पूर्ण होता है और न ही अम्बेडकर बिना गांधी का. दोनों का विराट कद अधिकांश मामलों में परस्पर पूरक न होकर भी आपस के इंटरेक्शन की परिणति तो है ही.

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