साथी Upasna Siag द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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साथी

उपासना सियाग

नई सूरज नगरी

गली नंबर -- 7

9वां चौक

अबोहर ( पंजाब )

पिन -- 152116

मेल आई डी -- upasnasiag@gmail.com

साथी

" रामली , तू मेरे से ब्याह कर ले ...!" राम दीन ने अपने हाथ में पकड़ी एक छोटी से टहनी को दूसरे हाथ पर थपथपाते हुए , रामली यानि रामेश्वरी की और देखते हुए कहा।

" रे तेरा दिमाग तो ना खराब हो गया राम दीन ...! ठीक है तेरे से बात भी करूँ , मिलने को भी आऊं हूँ और मुझे, मेरी माँ के बाद तेरे मुहं से ही रामली सुनना अच्छा भी लागे, पर ब्याह ...! ये तूने कैसे सोच लिया ...! " रामली उर्फ़ रामेश्वरी ने बात तो बहुत हैरानी से शुरू की पर खत्म करते -करते उसका चेहरा लाल और दिल जोर से धडकने भी लग गया था।

लो जी, अब दिल है तो धड़केगा ही। अब रामली की उम्र चाहे पैसठ से सत्तर बरस के बीच थी तो क्या हुआ ! राम दीन भी तो बहत्तर का ही था ! चाहे ज्यादा उम्र थी उसकी पर सारी उम्र मेहनत की थी उसने, तो अपनी उम्र से पांच -सात साल छोटा ही लगता था।

दिल ने तो धडकना ही था. यहाँ भला उम्र का क्या काम ...!

राम दीन का भरा पूरा परिवार था लेकिन पत्नी को गुजरे हुए पन्द्रह बरस हो गए थे। मध्यम वर्गीय किसान था वह। चार बेटों , दो बेटियों का पिता और पोते - पोतियों से भी घर भरा हुआ था। बेटों को उनकी जमीन का बंटवारा कर दिया और अपना हिस्सा भी अलग रखा। इसके, उसके पास तर्क भी थे। उसके दो बेटियां है आखिर वो उसकी ही जिम्मेदारी है। बेटों को कोई ऐतराज़ ना था सभी खुश थे। सभी जिम्मेदारियों से मुक्त राम दीन को जीवन के अंतिम पड़ाव में अपने जीवन साथी की कमी बहुत खलती थी। उम्र के इस पड़ाव में एक साथी की ज्यादा जरूरत होती है।

बेटे -बहुए बहुत आज्ञाकारी थे। पोते - पोतियाँ भी घेरे हए रहते थे उसे। लेकिन कब तक !सभी के अपने अपने काम -धंधे थे। क्या हुआ थोड़ी देर सुबह शाम बैठ लिए बतला लिया ! हर एक बात तो वह बच्चों से भी नहीं कर सकता था। रात को अक्सर पत्नी को याद करते - करते कब आँखों से आंसू बह निकलते और ना जाने कब आँख लग जाती। सुबह भीगा तकिया इसकी गवाही देता की रात कैसी गुजरी है राम दीन की।

रामेश्वरी भी उम्र को झुठलाती एक साधारण रंग -रूप वाली एक किसान पत्नी ही थी। उसके पति को गुजरे हुए दस बरस हो चुके थे। दो बेटे, दो बेटियों, नाती -पोतों से घर भरा पूरा था। जमीन का बँटवारा पति उनके जीते हुए ही कर गए थे। कुछ हिस्सा रामेश्वरी के नाम भी था। अपना समय पूजा- पाठ में बिताती वह किसी तरह अपना जीवन बिता रही थी।

राम दीन और रामेश्वरी की मुलाकात भी कम दिलचस्प तरीके से नहीं हुई थी।

हुआ यूँ के एक दिन राम दीन की बड़ी बहू की नज़र में उसका आंसुओं से भीगा तकिया नज़र में आ गया। उसे बहुत दुःख हुआ कि उनके बापू जी कितने दुखी है और वह कुछ नहीं कर सकती। उसने झट से सभी घर की बाकी महिलाओं को एकत्रित किया और बताया -पूछा कि उनको बापू जी के लिए क्या करना चाहिए। छोटी बहू बोली, " दीदी अब हम बापू जी के लिए क्या कर सकते हैं , बुढ़ापा है तो झेलना ही पड़ेगा...!" बाकी ने समर्थन तो किया पर कोई हल निकालने की भी बात सोचने लगी। तभी बड़ी को ध्यान आया और बोली , " मैंने दो दिन पहले अपने गाँव के मंदिर में पुजारी को लाउड-स्पीकर पर बोलते सुना था कि कोई बस जा रही है तीर्थ -यात्रा के लिए तो बापू जी का भी नाम लिखा देते हैं उनका मन भी बहल जायेगा .." सभी की सहमती हो गयी। रात को बेटे जब घर आये तो उन्होंने भी इसे सही बताया।

अब राम दीन भी खुश था। और वह दिन भी आ गया जिस दिन राम दीन ने तीर्थ पर जाना था।

उसी बस में और लोगो के साथ -साथ रामेश्वरी भी थी। एक जगह बस रुकी तो यात्रियों से कहा गया कि वे सब नीचे उतर कर चाय -नाश्ता कर सकते हैं।

लेकिन यह क्या हुआ ...! नीचे उतरते हुए बस के पायदान से रामेश्वरी का पाँव ही फिसल गया। पास ही खड़े राम दीन ने लपक कर रामेश्वरी की बांह थाम ली। रामेश्वरी को जैसे सहारा मिला। सभी लोग इकट्ठे हो गए। रामेश्वरी का हाल पूछने लगे। राम दीन के मन में हल चल शुरू हो गयी और वह समझ नहीं पा रहा था ये सब क्या है. रामेश्वरी भी थोड़े सकते में तो थी पर संयत भी थी।

बस चल पड़ी सभी अपनी बातों में मगन थे। कोई भजन भी गा रहे थे। पर राम दीन का मन तो उड़ा -उड़ा था। लगता था उसे अब इस उम्र में पहली नज़र में प्यार हुआ था। सारी उम्र यूँ ही निकाल दी उसने।

सबसे पहले बस जिस तीर्थ स्थल पर रुकी वहां धर्म शाला में पहले से ही कमरे बुक थे। सभी महिलायें - पुरुष अपने - अपने कमरों आराम करने लगे। थोड़ी देर में सभी शाम की आरती देखने निकल पड़े। राम दीन को लगा के उसे रामेश्वरी से बात करनी चाहिए। वह आरती के समय उसके पास ही खड़ा हो गया। आरती के बाद उसके साथ -साथ ही चलने लगा। फिर हिम्मत करके बोला , " तू हमारे गाँव में ही रहती है और कभी देखा ही नहीं ...!" ,तेरा नाम क्या है ...?"

" रामेश्वरी " उसने संक्षिप्त सा उत्तर दिया और आगे चली गयी। पर ये क्या दिल तो रामेश्वरी का भी धड़का , शायद पहली बार ही।

अब राम दीन का मन करता था कि रामेश्वरी के इर्द-गिर्द ही रहे। पर समाज -उम्र की मर्यादा भी थी, तो मन को थाम लेता था।

एक दिन मौसम थोडा सा भीगा था। कहीं- कहीं गीली मिटटी या मिटटी चिकनी भी थी। औरतों -पुरुषों का ग्रुप अलग अलग चल रहा था। अचानक राम दीन, जिसका ध्यान रामेश्वरी की ओर ही था, चिल्लाया , " अरे रामली , गिर मत जाना आगे कीचड़ है ! "

" हे राम ...! रामली ...! , मेरी माँ के अलावा किसी की भी हिम्मत ना हुई मुझे ऐसा कहने को। पति ने भी कहा तो उसे भी मना कर दिया के उसे छोटे नाम से ना पुकारें और यह रामूड़ा मुझे ऐसे कह रहा है ...!" वह मन ही मन सोच कर रह गयी। इतने लोगों के सामने कुछ कह ना पायी। पलट कर देखा तो था। उसे राम दीन का ' रामली ' कहना बहुत भला सा, अपना सा भी लगा ,ना जाने क्यूँ ...!

कुछ दिन घूम -घाम कर सभी लोग अपने -अपने घर लौट आये। राम दीन को रामेश्वरी बहुत भा गयी। वह कर भी क्या सकता था। समाज के नियमो से अलग तो वह कुछ नहीं कर सकता था। वहीं रामेश्वरी को अपनी सीमा , मर्यादा मालूम थी तो ज्यादा तूल नहीं दिया और भूलने की कोशिश करने लगी। हाँ कोशिश ही कर रही थी नहीं तो दिन में कई बार उसके भी कानो में 'रामली ' शब्द गूंज उठता था और वह झट से पलट कर भी देखती।

ईश्वर ने तो और ही सोचा था उनके लिए। सो एक दिन रामेश्वरी अपने खेत गयी हुई थी। कपास की चुगाई का समय था तो वह निगरानी के लिए चली गयी। राम दीन भी संयोग से उधर ही जा रहा था। थोड़ी देर उससे बात करने के लिए रोक लिया। फिर कई दिन तक ऐसे ही मुलाकातों का सिलसिला चलता रहा। यहाँ एक बात सपष्ट कर देती हूँ .उनके प्यार में एक -दूसरे का खाली पन भरने की ही कवायद थी और कहीं कोई अपवित्रता नहीं थी। एक स्त्री का पुरुष और एक पुरुष का स्त्री, ही संबल बन सकती है। यह वही बता सकते है या जानते है जिन्होंने अपने साथी को ढलती उम्र में खो दिया हो।

ऐसे ही दिन था जब राम दीन ने विवाह का प्रस्ताव भी रख दिया और रामेश्वरी चुप चाप चल पड़ी। उसमे इतनी हिम्मत कहाँ थी कि अपने बच्चों और समाज से लड़ने की समाज को मुहं दिखाने की ...!

मगर राम दीन ने तो अपने बेटों को बुला कर घोषणा कर दी के वह रामेश्वरी से विवाह करना चाहता है। बेटे सन्न रह गए। कुछ बोल ही नहीं सूझ रहे थे. बड़ा बेटा बोला , " लेकिन बापू , लोग क्या कहेंगे , ये मुहं काला करने वाली बात कहने - करने की क्यूँ सोच रहे हो ...!" बाकी बेटों ने भी अपनी सहमती जताई।

अब बात बहुओं तक भी पहुंची तो सभी की प्रतिक्रिया भी वही थी जो उनके पतियों की थी। सभी सोच में पड़ गयी। बड़ी बहू थोड़ी दयावान थी और उम्र में परिपक्व भी। बोली , " इसमें कोई बुराई भी तो नहीं आखिर हम सब अपने -अपने बच्चों , गृहस्थी में मग्न है तो उनको भी साथी की जरुरत है , मुझसे उनका अकेला पन नहीं देखा जाता। " छोटी बहू बोल पड़ी , "अरे जाने दो ना , यूँ ही सास का स्यापा हो जायेगा, जान खाएगी सारा दिन।" पर कई देर तक बात -चीत या बहस बाजी हुई तो जीत बड़ी बहू के तर्क की ही हुई।

उसने सभी को बुला कर कह दिया कल हम उनके घर जायेंगे रिश्ते की बात करने।

अब कहने को कह तो दिया पर जा कर क्या कहेंगे और बात रिश्तेदारों में जाएगी तो क्या इज्ज़त रह जाएगी हम सब की। हमारा तो मजाक ही बन कर रह जायेगा। राम दीन की बेटियां पतियों समेत पहुँच गयी। विरोध के स्वर गूंजने लगे। सभी विपक्ष में ही बोल रहे थे। एक बड़ी बहू ही थी तो राम दीन की पक्ष ले रही थी। उसके पास अकाट्य तर्क थे एक दम " वीटो -पावर " की तरह। उसका मानना था इंसान को मरने से पहले अच्छी तरह जी लेना चाहिए। आखिर बापू जी और रामेश्वरी दोनों को अपने जीवन में खुशिया लाने का पूरा हक़ है. इसमें कोई भी अनैतिकता नहीं है। वे दोनों विवाह ही तो कर रहे हैं। कुछ विरोध के बाद सब रज़ा मंद हो गए।

अब बारी थी रामेश्वरी के परिवार को मनाने की तो तय हुआ के बड़ा बेटे -बहू जा कर बात करके आयें। दोनों सुबह रामेश्वरी के घर जाकर उसके बड़े बेटे बहू से बात की। एक बार जो उनकी प्रतिक्रिया थी उसके लिए रामदीन के बेटा बहू मानसिक रूप से तैयार थे। कई देर की बहस के बात रामेश्वरी के बेटे से कहा गया के वह घर के बाकी सदस्यों से बात कर ले . फिर दोनों के परिवार वाले एक जगह इक्कठा हो कर बात कर लेते हैं।

ऐसी बातों में औरत को अधिक सहन करना पड़ता है . रामेश्वरी का तो बुरा हाल था। उसे लग रहा था वो मुहं ढक कर ही बैठ जाये, उसकी तो सारे जीवन की कमाई ही व्यर्थ गयी।

उसकी बेटियों को बुलाया गया। यहाँ भी सभी विरोध के स्वर ही गूंजे पर छोटी बेटी का पति जो एक अध्यापक भी था उसने सभी को अपने अकाट्य तर्क से सबको सहमत कर लिया और बोला ," आखिर ये समाज है क्या ...! हम लोगों से ही तो बना है न , हर इन्सान को खुश रहने का अधिकार है , इस समाज को हम ही तो बदलेंगे...!"

अगले दिन तय हो गया दोनों परिवार एक जगह एकत्रित हो जायेंगे और आगे की कार्यवाही तय करेंगे। सभी लोग इक्कठा हुए और विवाह की सहमती भी जता दी पर अब बात जमीन की हो रही थी कि जो जमीन रामेश्वरी के नाम थी और राम दीन के नाम की भी। इस पर विवाद होता इससे पहले राम दीन बोला , " हमारी जमीने हमारे नाम ही रहेगी आगे भी हम हमारी बेटियों की जिम्मेदारी उठाते रहेंगे। हमारे ना रहने पर मेरी जमीन मेरे बच्चे और रामेश्वरी की जमीन उसके बच्चे उसकी जमीन पर अपना हक़ ले लेंगे। अब सब खुश थे।

एक अच्छा मुहूर्त देख कर उनकी मंदिर में शादी कर दी। गाँव में बहुत चर्चा हुई पर जब उनके परिवार वाले साथ थे तो उनको कोई चिंता नहीं थी। विवाह कार्य संपन्न होते - होते रात ढलने लगी थी। सभी सोने चले गए। जाग रहे तो बस वे दोनों ...कोई बात ही नहीं सूझ रही थी की क्या बात करें।

तभी दोनों चौंक पड़े मंदिर के पुजारी उस दिन का पचांग बता रहे थे , वार -तिथि सब कुछ बता कर आरती शुरू कर दी। उन दोनों के मन को आरती बहुत भली लग रही थी। सुहा रही थी दोनों हाथ जोड़ कर बैठ गए और अपने सुखद भविष्य की कामना करने लगे। तभी पुजारी का स्वर गूंजा। वह बता रहे थे कुछ दिन बाद उनके गाँव से एक बस तीर्थ यात्रा को जा रही है। जिसने भी जाना हो अपना नाम लिखवा दे। राम दीन ने रामेश्वरी की और देखते हुए बोला , " चले क्या रामली ....!" और रामली ने भी हँसेते हुए सहमती जता दी।

उपासना सियाग