बदलाव ज़रूरी है Pallavi Saxena द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बदलाव ज़रूरी है

नमस्कार दोस्तों कैसे हैं आप सब, आशा है सब बढ़िया ही होंगे. आगे कुछ भी कहने से पहले आप सभी को अँग्रेजी केलेण्डर के नववर्ष की हार्दिक हार्दिक शुभकामनायें मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि आप सभी स्वस्थ रहे मस्त रहे ....!

परिचय

तो दोस्तों जैसा के आप सभी जानते ही हैं कि आजकल एकल कहानियों के बजाय सिरीज़ का ज़माना है धारावाहिक भी अब लोगों को उतने पसंद नहीं आते इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैंने एक बार फिर कुछ अलग लिखने का प्रयास किया इस उम्मीद के साथ कि जितना प्यार आप सभी ने मेरी पिछली कहानी “साथी” को दिया था उतना ही प्यार आप मेरी इस नयी पहल को भी देंगे आप सभी को बहुत पहले आयी एक फिल्म (दस कहानियाँ) तो शायद याद ही होगी. जिसके अंतर्गत एक ही फिल्म में दस अलग अलग कहानियाँ दिखाई गयी थी. मैंने भी कुछ वैसा ही लिखने की कोशिश की है. मैंने भी एक ही शीर्षक अर्थात टाइटल के अंतर्गत एक ही विषय वस्तु को ध्यान में रखते हुए दस अलग -अलग कहानियाँ लिखने का प्रयास किया है . जिसमें आपको हर एपिसोड में एक नयी कहानी पढ़ने को मिलेगी ना की एक ही कहानी का चलना आशा करती हूँ. आशा करती हूँ कि आप सभी पाठकों को मेरा यह प्रयास पसंद आएगा और आप सब इसे भी अधिक से अधिक (स्टार) और टिप्पणी के रूप में अपना भरपूर प्यार देकर इसे लोकप्रिय श्रेणी में पहुंचा देंगे. तो बस लीजिये पढ़िये इस सीरीज़ की पहली कहानी "चाँद करवाचौथ का" 

अस्वीकरण

यह कहानी पूरी तरह से काल्पनिक है और सिर्फ़ मनोरंजन के उद्देश्य से बनाई गई है। कहानी में दर्शाए गए पात्र , संस्थाएं और घटनाएं काल्पनिक है। इनका उपयोग दृश्यों, पात्रों और घटनाओं को नाटकीय बनाने के लिए किया गया है। कहानी का किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से या किसी वास्तविक घटना से कोई सम्बंध नहीं है। किसी भी प्रकार की समानता महज़ एक संयोग है या फिर अनजाने में हुआ है। कहानी का उद्देश्य किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति को बदनाम करना नहीं है। कहानी का कंटेंट, कहानी के लेखक और कहानी से जुड़े किसी भी शख़्स (व्यक्तियों) का उद्देश्य किसी भी तरह से किसी व्यक्ति, समुदाय या वर्ग, किसी भी धर्म या धार्मिक भावनाओं या मान्यताओं का अपमान या ठेस पहुंचाना नहीं है। कहानी में कुछ अभिव्यक्तियों का उपयोग विशुद्ध रूप से दृश्यों को नाटकीय बनाने के लिए किया गया है। कहानी का लेखक या कहानी से जुड़ा कोई भी व्यक्ति, किसी भी व्यक्ति द्वारा इस तरह के अभिव्यक्तियों के उपयोग का समर्थन नहीं करता है।

"चाँद करवाचौथ का"  

एक स्त्री अपने सुहाग का जोड़ा पहने अपने बंद कमरे में मध्यम सी रौशनी में खुद को आईने में देख कर आँसू बाह रही है. बार-बार उसका हाथ सिंदूर और मंगल सूत्र की और बढ़ता है लेकिन उसमें इतनी हिम्मत नहीं है कि वह उन्हें लाग ले अचानक खिड़की के बाहर से शोर सुनाई देता है
"अरे-अरे चलो-चलो चाँद निकल आया है "
वह महिला भी खिड़की के पास जाकर देखती है उसे बहुत सी स्त्रियां सजी धजी हाथों में पूजा की थाली लिए एक ओर जाति दिखाई देती हैं. उसके चेहरे पर भी एक पल के लिए मुस्कान आजाती है. अगले ही पल, उसकी उदास आँखों से आँसुओं की दो बुंदे टपक जाती है और वह जल्दी से अपना चेहरा छिपा कर वहां से हट जाती है कि कहीं को देख ना ले और अपने पलंग पर अपने कानों को दोनों हाथों से बंद कर लेती है ताकि बाहर हो रही त्यौहार की हलचल उसे और ज्यादा परेशान और दुखी ना करे.
बहुत देर तक इस तरह बैठे रहने के बाद जब उसने अपने कमरे में लगी हुई घड़ी की ओर देखा तब रात के बारह 12:00 बज चुके थे. वह स्त्री उठी और धीरे से वापस अपनी खिड़की के बाहर झाँककर देखने लगी जब कोई दिखाई ना दिया तो उसने आसमान की और देखा तो मनमोहक सा चाँद ठीक उसकी आँखों के सामने मुसकुरा रहा था. लेकिन हालातों की मारी इस स्त्री को वह सुंदर सा मुसकुराता हुआ चाँद भी जीभ चिढ़ाता हुआ सा महसूस हुआ.
उस स्त्री ने उसकी और उदास और नम आँखों से देखते हुए कहा "क्या अब यही रहा गया था कि तुम भी यूँ अपने पूरे शबाब पर आकर मेरे ही कमरे की खिड़की में आकर मुझे यूँ चिढ़ाओ गे....! तुम ही बताओ जो कुछ भी हुआ भला उसमें मेरा क्या कुसूर था. मेरी क्या भूल थी. मैंने तो हमेशा तुम से उनकी लम्बी उम्र की ही कामना की थी. फिर भी ऐसा हुआ. सब कहते है मेरी ही भक्ति में कमी रही होगी. अब तुम ही इस प्रश्न का उत्तर दो क्या सच में मेरी पूजा, मेरी आराधना, में कोई कमी रह गयी थी"
सोचते -सोचते उसकी आँखों से उसके मन की पीड़ा गरम पानी बनकर टपक रही थी. चाँद की और प्रश्नों से भरी निगाहों से देखते देखते कब उस स्त्री की आँख लग गयी उसे पता ही नहीं पड़ा. सुबह सुबह जब अखबार वाले की साईकल की घंटी बज उठी और बाहर दूध लाने वाले भईया की पुकार ने उसे एकदम से जगा दिया. वह उठी घर के बाहर पहुँची दूध के पैकेट और अखबार उठाया सब टेबल पर रख नहाने चली गयी. बाहर आयी और बच्चों को उठाया उनका टिफ़िन बनाया, खुद का टिफ़िन बनाया, उन्हें स्कूल की बस के स्टॉप पर छोड़ा अपनी दो पहिया वाहन लिया और अपने कार्यालय की ओर निकल गयी. वह वहां पहुँची तो उसकी एक सहकर्मी ने उससे सवाल किया.
क्यों "कल कैसी गुज़री रात..?"
"बस अब यही बचा है कि तुम भी यही सवाल पूछो "
"हाँ तो इसमें गलत क्या है...? हम तुम भी तो इंसान ही है...! बस इसलिए पूछ लिया. इतना गुस्सा क्यों होती हो...?"
पहले तो उस स्त्री ने अपनी सहकर्मी को बहुत ही गुस्से से देखा फिर बोली "जैसी तुम्हारी गुज़री वैसे ही मेरी गुज़री"
"हे चल झूठी...!!! मेरी तो बहुत मस्त गुज़री पर तेरी आँखें तो चीख चीख कर कुछ और ही कह रही है"
"क्या मतलब...? "
क्या, क्या मतलब...? कल ना मैंने जमकर पार्टी करी जो महिलाएं सुबह से भूखी मर रही थी ना उनको भर पल्ली पकवानों की खुशबु और स्वाद से बहुत ललचाया मैंने...! और वो कहते है ना कड़े उपवास में यदि मन में भोजन का विचार भी आ जाये तो समझो उपवास भंग...हा... हा... हा.....!!! कहते हुए वह सहकर्मी जोर जोर से हँसने लगी.
उसकी बातों को सुनकर उस दुखी महिला के चेहरे पर भी हल्की सी मुस्कान उभर आयी.
जब दुपहर के भोजन का समय हुआ. तब वह दोनों एक साथ बैठकर अपना अपना डब्बा खोलकर भोजन कर ही रही थी कि पहली वाली स्त्री ने अपनी सहकर्मी से एक प्रश्न किया. "सुन ना तू ऐसा कैसे कर सकती है यार "
क्या...?
"अरे वही करवाचौथ वाले दिन पार्टी और क्या...?"
"हाँ तो...!उसमें क्या है..? हमें ईश्वर ने मौका दिया है तो हम उसका फायदा क्यों ना उठायें भला"
पर क्या तुझे दुःख नहीं होता...? क्या बाकियों को देखकर तुझे इर्षा नहीं होती...?
"बिलकुल नहीं...! अरे जब उन लोगों को हमसे कोई हमदर्दी नहीं होती उस दिन हम तुम जैसों का चेहरा दिख भर जाना जिनके लिए अपशकुन हो जाता हो, उन नामाकूलों के लिए दुखी हो मेरी जुत्ती"
"फिर भी यार...! सब एक जैसे तो नहीं होते ना, कुछ अच्छी स्त्रियां भी होती है. लेकिन वह भी समाज के आगे मजबूर हो जाती है. इसलिए चाहकर भी कुछ कर नहीं पाती."
"सुन तुझे एक बात कहूँ, एक स्त्री ही स्त्री की सबसे बड़ी दुश्मन होती है...! एक बार को पुरुष कभी उस दिन किसी विधवा स्त्री को देख ताना नहीं मारेगा. लेकिन वही एक स्त्री बिना कुछ उल्टा सीधा बोले बिना रह ना सकेगी."
"लेकिन यार मेरी समझ में तो यह नहीं आता कि क्या कोई भी त्यौहार या उससे जुड़ा कोई भी देवी /देवता यह तो नहीं कहता कि मैं केवल वही वर दूंगा /दुंगी जिस वर के लिए वह व्रत रखा गया है.... तो फिर हम तुम जैसे लोग यह व्रत क्यों नहीं कर सकते...? पति ना सही बाकी और भी तो बहुत लोग है ना परिवार में...!
"वही तो, अब बताओ भला...! यदि कोई करवाचौथ का व्रत रखते हुए अपने परिवार में बीमार कोई भी और व्यक्ति जैसे व्रती अर्थात व्रत रखने वाले व्यक्ति के माता, पिता, भाई, बंधु, बच्चे आदि के लिए व्रत करेगा या उस व्यक्ति के लिए जीवनदान या आरोग्य प्राप्ति की प्रार्थना करेगा तो क्या करवाचौथ माता मना कर देगी. कि ए जाओ....!!! मैं यह वर नहीं दे सकती. मैं तो केवल पति की लम्बी आयु का ही वर दे सकती हूँ. ऐसा तो नहीं होता ना भाई....! अगर वो माता है तो माँ जगत जननी माँ जगदम्बा ही एकमात्र सुहाग की दात्री मानी जाती है. फिर इस एंगल से तो हर हाल में केवल उनका ही पूजन अर्चन करना चाहिए. बाकी किसी की नहीं. मगर देवी को मानने वाले तो हर विपदा में माँ को ही याद करते है, है ना...!
हाँ...!
"तो क्या माँ मना कर देती है कि नहीं मैं तो केवल सुहाग का ही वर दुंगी, बाकी कोई परेशानी है तो अपने पिता के पास जाओ अर्थात भोले बाबा के पास जाओ या नारायण के पास जाओ.... नहीं ना...!!!"
"हाँ यह बात तो सही है. मैंने कभी इस नज़रिये से सोचा ही नहीं...!"
तभी तो कहती हूँ मेरी जान...! जो गलती हमने की ही नहीं उसकी सजा हम खुद को क्यों दें...! जब ईश्वर किसी को उसकी आराधना करने के लिए मना नहीं करता. चाँद उस दिन, उस रात हम से कोई पर्दा नहीं करता और सब के लिए निकलता है तो फिर यह समाज वाले कौने होते हमें सजा सुनाने वाले. या दुःख पहुंचाने वाले.

"सही कहा यार तूने वाकई  "बदलाव जरूरी है...!"