ग्रीन मेन - 2 Green Man द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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ग्रीन मेन - 2

उन्नीस साल पहले…
     गुजरात का सोरठ प्रदेश। जूनागढ़ और गीर सोमनाथ के समंदर किनारे का प्रदेश, जिसे ‘सोरठ’ और ‘लीली नाघेर’ कहा जाता है। यह प्रदेश गीर के जंगल से घिरा है। बारिश के मौसम में वन का अलग निखार आ जाता। गर्मियों के मौसम में पेड़ो ने गर्मी की वज़ह से उतारे हुए कपड़े, बारिश के बाद सज-धज कर तैयार हो जाते। गाढ़ निद्रा में सोये झरने मीठे गीत गाते हुए वन को लपेटने निकल पड़ते। पंछी की मीठी आवाज़, मृग की उछल-कूद, झरने का मधुर संगीत और शेर की गर्जना से वन खिलखिला उठता। शेर का रिश्ता इंसानों के साथ कुत्ते-बिल्ली जैसा होता है। मौसम में साक्षात् प्रकृति वहाँ उतर आई हो ऐसा प्रतीत होने लगता। सोरठ की भूमि पर जन्म लेना हर किसी के नसीब में नहीं होता।
     इस प्रकृति की गोद में एक छोटा गाँव ब्रम्हपुरी बसा हुआ है। गाँव से समंदर शायद पाँच किलोमीटर दूर होगा। उस गाँव में ब्राह्मण ज़्यादा होने की वज़ह से उस गाँव का नाम ब्रम्हपुरी रखा गया था। इस गाँव में सब जाती के लोग बसें हुए थे। इस गाँव में एक दरगाह और दो मंदिर थे। एक शिवालय और दूसरा हनुमान जी मंदिर। दोनों मंदिर गाँव के छोर पर और प्रकृति की गोद में बसें हुए थे।
     शंकर और उसका परिवार ब्रम्हपुरी गाँव में बसा हुआ था। घर बहुत पुराना और गोबर-मिट्टी से बना था। घर की छत बांस और मिट्टी के छज्जे से बनी थी। बड़ा आँगन लकड़ियों की कतार से घिरा था और बीच में एक लकड़ियों से बना हिलता-झूलता दरवाज़ा। आँगन में एक तरफ़ पुराना नीम का पेड़ था और सामने नारियल के पत्तों में से बनी छत के नीचे दो गाय और एक बछड़ा बंधा हुआ था। नीम के पेड़ के नीचे एक लकड़े की चारपाई हमेशा रहती थी। चारपाई में रस्सियाँ गूंथी थीं, जिसमें कुछ रस्सियाँ टूट कर नीचे लटक रही थीं।
     शंकर के घर उसका पुराना दोस्त अपने परिवार के साथ आया हुआ था। घर से जुड़े बरामदे पर नई रस्सियों से गूंथी चारपाई बिछाई थी। जिस पर फूलों की छाप वाली पुरानी दरियाँ बिछाई थी। उस पर उसका दोस्त सुभाष, उसकी पत्नी सरिता औरत और उन्नीस साल का उसका बेटा बिराजमान था। शंकर अभी-अभी खेत से लौटे थे इसलिए उनके कपड़े मिट्टी से लदे हुए थे। वे चारपाई के सामने पड़ी अनाज की बोरी के ऊपर बैठे थे।
     ज़ब मेहमान आए, तभी पुष्पा ने उन लोगों को पानी दिया था। मगर सरिता और उनके बेटे अमरित ने पानी नहीं पिया, वे दोनों ज्यादातर शहर में ही बड़े हुए थे इसलिए उन दोनों को यह जगह पसंद नहीं आई थी। गौ मूत्र और गोबर की गंध की वज़ह से वे दोनों साँस लेने में भी कंजूसी कर रहे थे। उनका बस चले तो यहाँ से भाग चलें।
     आँगन में खेल रहे चार साल के दो लड़के को गोबर के गंध की परवाह ही नहीं थी। दोनों ने नीले रंग की चड्ढी और मिट्टी की वज़ह से शर्ट का तो रंग ही बदल गया था। खेल में इतने ध्यान मग्न थे कि मेहमान के ऊपर उन दोनों ने ध्यान ही नहीं दिया। नीम के पेड़ के नीचे वे दोनों लकड़ी से ज़मीन में गड्ढा बना रहे थे। उन दोनों के हिसाब से वे दोनों कुआँ खोद रहे थे। दोनों की गुनगुनाती बातें एक-दूसरे के अलावा किसी को समझ नहीं आ रही थी।
     अमरित ने उन दोनों को देखा और फिर अपनी मम्मी से कहने लगा, “मम्मा, ये दोनों कितने गंदे है। गाँव में सब ऐसा ही होता है?” उसने शंकर के कपड़ों को देखा, “गंदा रहना इस गाँव का नियम है?”
     सरिता कुछ बोले उसके पहले सुभाष बोला, “बेटे, पहले हम भी इस तरह खेला करते थे। तुम पूरे दिन मोबाइल में खेलते रहते हो उसे खेल नहीं बोलते, सही खेल यहीं है। तुम देख रहे हो…दोनों कितने मजे से खेल रहे हैं।”
     शंकर ने अमरित को कहा, “हम नहीं चाहते कि हम गंदे हो मगर हालात सबको गंदा ही कर देती है। सब हालात का ही खेल है…तुम्हारे पापा को देखो और मुझे देखो।” अपने गंदे कपड़ों पर नज़र डाल कर वे फीकी मुस्कान से हँस पड़े।
     पुष्पा तश्तरियाँ और कलश में चाय लेकर आई। उसने सुभाष और शंकर को तश्तरी में चाय दी। सरिता तश्तरी बढ़ाने से पहले ही मना कर चुकी थी। अमरित ने भी चाय के लिए मना कर दिया। पुष्पा को लगा कि बच्चे को तश्तरी में चाय पीने की आदत नहीं होगी इसलिए नहीं पी रहा है। पुष्पा ने अमरित को कहा, “बेटा, चाय पीनी है तो मैं कटोरा लेकर आती हूँ।”
     मुँह बनाते हुए अमरित बोला, “कोई आवश्यकता नहीं है, चाची। आज चाय पीने का मन नहीं कर रहा है।” नाक में गोबर की अंध आते ही उसने अपना नाक सिकुड़ लिया और आँगन में पड़े गोबर के ऊपर उसकी नज़र गई। मुँह बिगाड़ते हुए उसने अपन मुँह फेर लिया।
     चाय का एक घूँट पी कर बोला, “शंकर, कई सालों बाद गाय के शुद्ध दूध की चाय पी रहा हूँ। चाय की घूँट मारते ही पूरे बदन में फुर्ती आ जाती है। मेरे नसीब में यह चाय लिखी होगी वरना मैं कब का चला गया होता। शहर जाकर कर काम से पीछा ही नहीं छूट रहा है। एक दिन के लिए आया था…गाँव में पैर रखा और दिन ख़त्म!”
     शंकर ने अपनी करुण आवाज़ में कहा, “बहुत सालों बाद मैं तुम्हें देख रहा हूँ। गाँव छोड़ने के बाद तू तो हमें भूल ही गया है,” शंकर अपने बचपन की यादों में चला गया। गाँव के पुराने दृश्य और सुभाष के संग गाँव में भगदड़ के चलचित्र उनकी आँखों के सामने चलने लगे। दूसरे क्षण उसने अमरित की तरफ़ देख कर कहा, “तुम्हारा बेटा तुम्हारी तरह होशियार लगता है।”
     “हाँ, इनका नाम अमरित है। वह कॉलेज के आख़री साल में है। कॉलेज ख़त्म होते ही उनको IAS की तैयारी के लिए भेज दूंगा। मैं तो सिर्फ इतना ही कहूंगा कि सरकारी नौकरी के अलावा कुछ नहीं है। मुझे ही देख लो, सरकारी कॉलेज में पढ़ाता हुँ। वक्त घर से जाता हुँ और वक्त पर आ जाता हुँ।”
      “सुभाष, तुम्हारी ज़िंदगी तो सुधार गई। मुखिया जी तुमसे बहुत खुश होंगे, नहीं!,” शंकर ने आँगन में खेल रहे लड़कों की तरफ़ नज़र डाली, “मेरे बेटे को भी कोई अच्छी सरकारी नौकरी लग जाए तो अच्छा।”
     “क्या, ये दोनों तुम्हारे बेटे हैं?” सुभाष ने उन दोनों के ऊपर नज़र डालते हुए तश्तरी नीचे रखी।
     “नहीं, भूरे रंग के शर्ट वाला मेरा बेटा समर है और दूसरा अपने पड़ोसी मनीष भाई का बेटा मलिक है।”
     “तुम अपने बेटे को कॉलेज तक पढ़वा लो, फिर उसको सरकारी नौकरी की तैयारी में लगा देना। मेरे हिसाब से वह पुलिस तो बन ही जाएगा।” सुभाष ने अपने बेटे की होशियारी पर रोब झाड़ते हुए कह दिया। उसे अभी से गर्व होने लगा कि जैसे उनका बेटा IAS बन चुका हो।
     “अगर पुलिस भी बनेगा तो भी मेरे लिए बहुत गर्व की बात होगी।”
     “ठीक है शंकर, अब हम चलते हैं।” सुभाष के उठते ही सरिता और अमरित खड़े हो गए क्योंकि इस गंदी जगह से निकलने के लिए सुभाष से ज़्यादा उन दोनों को जल्दी थी।
     शंकर ने लंबी निराशा की साँस छोड़ी और बोला, “अब पता नहीं…वापस मिल पाएंगे या नहीं!”
     सुभाष ने पलट कर उनके दोनों कंधे कपडे लिये। वह बोला, “अरे, हम जरूर मिलेंगे। हम दोनों बहुत लंबा जीने वाले हैं,” शंकर के उदास चेहरे को उसने भाप लिया, “तू इस तरह उदास मत हो। तुम्हें ऐसा ही करना है तो अगली बार हम नहीं मिलेंगे!”
     शंकर जबरदस्ती मुस्कुराया, जिससे सुभाष को अच्छा महसूस हो। सुभाष जाने लगा और शंकर लकड़े के स्तंभ को लिपट कर देखता रहा। वह समयरूपी बैल को रस्सी से खिंच कर भूतकाल में धकेल देना चाहता था, जिससे वह अपने बचपन में लौट सके। अफ़सोस इस बात का था कि वह रस्सी रबर की निकली। कितना भी पकड़ने या खींचने की कोशिश करे, रस्सी लंबी ही होती जा रही थी। फिर एक वक्त पर रस्सी टूट जाएगी और बैल उसको हमेशा के लिए पीछे छोड़ कर चला जाएगा, सिर्फ रस्सी का बचा हुआ टुकड़ा उसके हाथ में रह जाएगा।
     शंकर को बचपन की यादें स्मरण होते ही उसकी आँखें भीग गईं। बोलने में उसकी जीभ एकदम तलवार की तरह चलती थी मगर आज क्या हुआ कि जैसे पहाड़ पर तलवार का प्रहार किया हो और तलवार ने हमेशा के लिए अपनी तीक्ष्णता गुमा दी। उसकी आँखों में मित्रता का प्रेम घुल चुका था, जो वह हमेशा अपनी आँखों में समाये रखना चाहता था।
     मेहमान के जाते वक्त खेल रहे दोनों लड़कों ने अपने मिट्टी वाले हाथ खुद की चड्ढी से पोंछ लिये और मेहमान को जाते हुए देखने लगे। पुष्पा उन लोगों को अलविदा कह चुकी थी।
     सुभाष, सरिता और अमरित गाय के पास से गुजरे। गोबर को देख कर सरिता और अमरित ने अपने नाक के आगे रुमाल रख दीया। सरिता ने एकदम धीमी आवाज़ में कहा, “ये लोग कैसी गंदी जगह में रहते हैं। अगर मैं ज़्यादा देर यहाँ पर रहती तो मुझे उलटी आ जाती। मैं आपको यहाँ पर आने के लिए मना बोल रही थी, लेकिन एक तुम ही हो जो-”
     सुभाष ने उसकी बात काटते हुए कहा, “शंकर मेरे बचपन का दोस्त है। अगर मैं उसे मिले बिना चला जाऊँ तो उन्हें कैसा लगेगा?...तुम शहर में रही हो इसलिए तुम्हें यह जगह गंदी लग रही है।” तीनों आँगन से बाहर निकल चुके थे। फिर कुछ ही क्षण में वे शंकर की आँखों से ओझल हो गए।
     समर और मलिक दोनों दौड़ कर बरामदे पर चढ़ गए। दोनों पसीने से रेब-ज़ेब थे। समर ने कहा, “पापा ये लोग कौन थे? कितने सुंदर कपड़े पहने थे उन लोगों ने…। वे कहाँ से आए थे?”
     पुष्पा समर के पास बैठ गई। अपनी ओढ़नी से समर के चेहरे का पसीना पोंछा और बोली, “वो मुखिया जी के बेटे थे और तुम्हारे पापा के दोस्त। वो दूर शहर में रहते हैं। वो घर आए इसलिए तुम्हारे पापा से मिलने आए थे,” पुष्पा की नज़र समर के पास खड़े मलिक पर पड़ी। मलिक का चेहरा चिढ़ा हुआ था, “चल तू भी आ जा, वरना पूरा दिन मुँह फुला कर घूमता-फिरता रहेगा।” मलिक के पास आते ही पुष्पा ने ओढ़नी से उसका मुँह पोंछ दिया। मलिक के चेहरे पर एक प्यारी मुस्कान दौड़ गई।
     शंकर ने समर की चड्ढी की मिट्टी झाड़ी और उसकी चड्ढी का लटकता हुआ नाड़ा सही करते हुए वह बोला, “बेटा समर और मलिक, तुम दोनों को अच्छी पढ़ाई करनी है। यह सब पढ़ाई का नतीजा है। तुम भी इन लोगों की तरह सुंदर कपड़े पहन सकते हो” शंकर मलिक की चड्ढी झाड़ने लगा।
     समर ने कौतूहल से पूछा, “पापा, तो आपने पढ़ाई क्यों नहीं की? आपने पढ़ाई में ध्यान दिया होता तो आप और मैं भी इन लोगों की तरह होते।”
     समर के शब्द सुनते ही वह अपने गहन विचारों में खो गया। चेहरे पर विचित्र भाव विचलित हो गए। समर ने ज़ब उसे झकझोरा तब में विचारों से बाहर आए। वह हल्की मुस्कान से हँसे और बोले, “गाँव में ऐसा कोई नहीं था जो पढ़ाई में मुझ से आगे निकल जाए। मैं अपनी कक्षा में अव्वल आता था। सब मुझे अपना दोस्त बनाने के लिए आतुर रहते थे।”
     समर ने अपनी चड्ढी खिंच कर नाभि के ऊपर चढ़ा दी और अपनी माँ की गोद में बैठ गया और बोला, “आप इतने होशियार थे, तो आप बड़े अफसर क्यों नहीं बन पाए?”
     “आज हम तीन वक्त का खाना खा रहे हैं, उस वक्त दो वक्त का खाना भी नहीं मिलता था। उस वक्त पापा के पास मुझे पढ़ाने के लिए रुपये नहीं थे। वे तो मुझ बहुत पढ़ाना चाहते। परंतु मैं घर के हालात समझ चुका था, इसलिए मैंने पढ़ाई छोड़ दी और पापा के साथ खेत संभाल लिया,” उसने समर के सिर पर हाथ रखा, “तू चिंता मत करना बेटा, मेरे पर बीती है, वह मैं तुम पर बीतने नहीं दूंगा। तुम्हारा पापा परिस्थिति से भले ही गरीब हो मगर दिल से धरती का सबसे बड़ा धनवान है। लोग आज-कल सरकारी अफसर की बहुत इज्जत करते हैं। मैं नहीं चाहता कि मैं गाँव के एक सामान्य इंसान की मौत मरू। मैं पुलिस वाले का पापा होकर मरना चाहता हूँ। तुम मेरा कहने का मतलब समझ रहे हो बेटा?” उसने समर के गालों को अपने हाथों में ले लिये।
     पुष्पा गोद में बैठे समर के बाल सँवारती हुई बोली, “आप बात जलेबी की तरह घुमा रहे ह, तो मेरा बच्चा कैसे समझेगा!” उसने समर के गाल को चूम लिया, “मेरा बेटा जरूर पुलिस अफसर बनेगा। आप देखिएगा एक दिन मैं भी सीना चौड़ा करके गाँव में घूमूँगी।”
     “पापा, पुलिस अफसर बनना इतना ही जरूरी है तो मैं खूब मेहनत करूँगा। मैं आपको कभी निराश नहीं करूँगा। आप मेरे अच्छे पापा हों।” समर अपनी माँ की गोद से उठ कर अपने पापा के गले लग गया।
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