नज़रिया satish bhardwaj द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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नज़रिया

“माँ किधर जा रही हो” 38 साल के युवा ने अपनी 60 वर्षीय वृद्ध माँ को पुकारते हुए कहा।

सड़क किनारे खड़े होकर साइकिल पर कुछ सामान बेच रहे एक व्यक्ति के पास जाकर वो वृद्धा रुकी और बोली “ये नज़रिया कै पैसे की दी”

विक्रेता ने ठिठोली करते हुए कहा “पैसे नी रुपये, 40 रुपए की हैं। लेकिन यो समझ ले कैसी भी बुरी नज़र हो तेरे पोते को लगेगी भी नहीं”

वृद्धा ने थोड़ा बुरा सा मुँह बनाया और अपने पल्लू की गांठ मे से पैसे निकाल कर उसे दे दिये। नज़रिया हाथ मे लेकर बूढ़ी की आँखो मे दमकता हुआ पानी साफ दिखाई दे रहा था। बुढ़िया ने दुकानदार की तरफ देखते हुए कहा “पोत्ता ना प्यारी सी पोत्ति है”

उस दुकानदार ने मुसकुराते हुए कहा “ओ लक्ष्मी आई है, माई अपने पल्लू मे गांठ मार ले, इसे जब ही खोलिए जब पोती को पहनाएं। पूरी रक्षा करेगी बिटिया रानी की”

उसका बेटा बोला “क्या इन चीजों के चक्कर मे पड़ रही हो”

वृद्धा ने तुनकते हुए कहा “तू नहीं समझेगा, एक तो पहले ही ये खुशी मुझे इतनी देर से मिली है, बालक पालने की उमर मे तो ब्याह किया तूने, तेरे पिताजी तो बिना ये खुशी देखे ही बिदा हो लिए”

युवक ने बातों पर ध्यान नहीं दिया।

बूढ़ी महिला ने अपने सारे पैसे उस युवक को दिये और वो नज़रिया अपनी धोती के पल्लू मे बांध ली। और वो पल्लू अपनी मुट्ठी मे भींच लिया।

युवक ने कहा “ये पैसे तुम ही रखो माँ”

बूढ़ी ने उसकी आँखों मे देखते हुए कहा “इन पैसो का मैं क्या करूंगी? कितने दिन जीना है? दो रोट्टी चाहियेँ बस, वो तू दे ही देगा। बाकी टाइम अब पोती के पोतड़े धुलुंगी”

युवक ने उसकी बातों पर शायद इस बार भी ध्यान भी नहीं दिया और एक तिपहिया को रुकवाकर उसमे अपनी माँ के साथ बैठ गया। बैठने के बाद बूढ़ी ने बाहर दिल्ली के नज़ारों को देखते हुए कहा “चल भगवान ने सुन ली, पीले पोतड़े देखने नसीब हो गए नुझे” फिर सांस छोडते हुए उदासी से कहा “गाँव की ज़मीन-घर बिकने का दुख है”

युवक ने झल्लाहट के साथ कहा “खाना-कमाना तो यहाँ है, वहाँ की प्रॉपर्टी से मिल भी क्या रहा था? यहाँ कितना किराया देना पड़ता है पता भी है आपको?“

बूढ़ी औरत चुप लगा गयी। क्योंकि वाकई मे उसे ये सब हिसाब-किताब नहीं पता था। उदासी मे सांस छोड़ते हुए बोली “बेटा प्रोपट्टी और घर का फर्क तुझे भी कहाँ पता है?”

उस बूढ़ी की ये बात बेटे की समझ से बाहर थी।

.....

दोनों एक व्यस्ततम रेलवे स्टेसन पर पहुँच गए। युवक ने बूढ़ी को एक सीट पर बैठा कर कहा “यहाँ बैठो माँ मैं अभी आता हूँ। टिकट खिड़की पर भीड़ लगी है, थोड़ी देर हो सकती है घबराना मत”

बूढ़ी महिला वहाँ बैठकर प्रतीक्षा करने लगी। दोपहर से शाम हो गयी, शाम भी अब रात मे बदल चुकी थी। बूढ़ी महिला बैचेन थी। उठकर इधर-उधर घूमने लगी लेकिन दूर नहीं जा रही थी। क्योंकि बेटा आयेगा तो उसे ना देखकर परेशान होगा। लोगो से समय पूछ लेती थी। अब उसे भूख भी लग रही थी। लेकिन भूख से अधिक चिंता उसे अपने बेटे की हो रही थी।

तभी एक पुलिस वाले के पास गयी और बोली “बेटा, मेरा बेटा मुझे यहाँ बैठाकै टिकट लेने गया था। आया नहीं अभी तक, मुझे फिकर हो री कहीं कुछ मुसीबत मे तो नहीं पड़ गया मेरा लाल”

पुलिस वाले ने अपनी अनुभवी निगाहों से उस बूढ़ी औरत को देखा और पूछा “कहाँ जा रही थी माँ तुम?”

बूढ़ी बोली “दिल्ली जाना था”

पुलिस वाले ने कहा “दिल्ली मे तो तुम हो ही”

बुढ़िया ने थोड़ा तुनक कर कहा “मेरे लाल, दिल्ली भोत बड़ी है, रेल में बैठकर जाते यहाँ से”

सिपाही ने कहा “माँ वो ही तो मैं कह रहा हूँ, दिल्ली बहुत बड़ी है, दिल्ली मे कहाँ जाना है?”

बूढ़ी औरत के चेहरे पर उसकी बेचारगी और मासूमियत साफ झलकने लगी थी, वो परेशान होकर बोली “यो तो ना पता मेरे चाँद, मेरा बेटा साथ था, यो तो उसे ई पता था”

वहाँ कुछ और लोग भी आकर खड़े हो गए थे। उनमे से ही एक ने बोला “माँ इन स्टेसनों पर रोज किसी ना किसी का बेटा अपने माँ या बाप को छोड़ कर चला जाता है।

सिपाही ने उसकी तरफ थोड़ा घूर कर देखा। हालांकि सिपाही का दृष्टिकोण भी कुछ ऐसा ही था लेकिन वो शायद उस बूढ़ी औरत की परेशानी को देखकर ऐसा कुछ नहीं बोल रहा था।

सिपाही ने बुढ़िया को बैठाया और एक युवक से इशारा किया। वो दोने मे पूरी और सब्जी लेकर आ गया। सिपाही ने बुढ़िया को वो खाने को दिया। बुढ़िया को तेज़ भूख लग रही थी। लेकिन वो थोड़ा संकोच करते हुए बोली। बेटा पेशाब की हाजत लग रही है। कहाँ जाऊँ?

सिपाही ने एक युवक से कहा “जा लेकर जा इन्हे”

वो बुढ़िया को लेकर चल दिया।

बुढ़िया ने चलते-चलते कहा “बेटा देख लिए मुझे देखते हुए कोई आए तो ध्यान रखिए”

इसके बाद बूढ़ी औरत ने खाना खाया। फिर एक महिला सिपाही भी आ गयी थी।

महिला सिपाही ने बुढ़िया से कहा “माँ जी किस गाँव से आई हो आप? आपको यहाँ घर का पता नहीं मालूम तो आपको आपके गाँव भिजवा देते हैं”

इस बात पर बुढ़िया एकदम से घबरा गयी उसके मन मे एक ही विचार आया “सब-कुछ बेचकर गाँव से यहाँ ले आया था बेटा, अब गाँव क्या मुँह लेकर जाएगी?”

बुढ़िया ने मौन साध लिया और फिर महिला सिपाही से बोली “बेटी आज रात यहीं इंतज़ार कर लेती हूँ, फिर कल कु खुद ही अपने गाँव चली जाऊँगी”

महिला सिपाही ने कहा “माँ जी एसे नहीं बैठने देंगे यहाँ आपको स्टेसन वाले”

बुढ़िया ने कहा “बेट्टी मैं थोड़ी देर मे चली जाऊँगी तू फिकर ना कर”

सिपाही और वो महिला सिपाही अधिक कुछ ना कहते हुए वहाँ से चल दिये। इन रेलवे स्टेसनों पर रोज़ ऐसी घटनाएँ होती थी। कोई बेटा माँ-बाप को छोड़ जाता था तो कोई माँ या बाप भी अपने बच्चो को छोड़ जाता था, तो कोई बिछड़ जाता था।

....

उस बूढ़ी औरत को कोई लेने नहीं आया, गाँव भी वो कभी नहीं गयी। कोई कुछ दे देता तो खा लेती थी। उसके पास कुछ भी नहीं था। बस नाक मे एक सोने की लोंग थी। एक दिन एक नशेड़ी ने वो भी उतार ली। बुढ़िया ने कोई खास विरोध भी नहीं किया। क्योंकि बुढ़िया को उस लोंग की कोई चिंता भी नहीं थी। वो तो बस अपनी धोती के एक कोने को अपनी मुट्ठी मे दबाये रहती थी। पल्लू की उस गांठ का वो बुढ़िया हमेशा ध्यान रखती थी। वो स्टेसन के आस-पास ही घूमती थी और उस कुर्सी के आस-पास तो दिन मे कई बार आती थी, जहाँ उसका बेटा उसे छोड़कर गया था।

2 महीने से अधिक बीत गए थे। इस बूढ़ी के कपड़े चिथड़ों मे बदल चुके थे। वो किसी से भी कुछ नहीं बोलती थी, मानसिक संतुलन भी शायद खो चुकी थी। कभी-कभी उसे पूरे दिन कुछ भी खाने को नहीं मिलता था तो भी वो किसी से कुछ नहीं मांगती थी। बस कहीं कोने मे बैठकर अपनी धोती के पल्लू मे बंधी उस गांठ को निहारने लगती थी। 

कुछ नशेड़ी युवको को उस बुढ़िया की धोती के पल्लू मे बंधी वो गांठ खटकने लगी थी। उनको लगता था कि इसमे कोई मूल्याबान वस्तु होगी। एक दिन रात को उन युवको ने बुढ़िया की उस गांठ का सामान उससे छीनने की कोशिश की, बुढ़िया ने तुरंत चीखना-चिल्लाना शुरू कर दिया। लेकिन अपनी मुट्ठी मे बंधी वो गांठ ही नहीं छोड़ी। इस खींच-तान मे बूढ़ी को कई जगह चोट लग गयी, फिर बुढ़िया का सर ज़मीन पर पड़े पत्थर से ज़ोर से टकराया गया और खून की धारा बह चली।

शोर होने पर कुछ और लोग भी वहाँ इकट्ठे होने लगे। वो लुटेरे भाग गए लेकिन उस औरत को गहरी चोट लग गयी थीं। कुछ ही क्षणो मे उसकी जीवन की ये यात्रा समाप्त हो गयी।

पुलिस के लोग आकर अपनी औपचारिकतायें पूरी कर रहे थे और पूछ-ताछ भी कर रहे थे। तभी एक आदमी ने कहा “दारोगा जी अपनी धोती के उस कोने को अपनी मुट्ठी मे बांधे रखती थी। उस दिन भी उन नशेड़ियों ने ये ही लूटने की कोशिश की थी। इसने जान दे दी लेकिन अपनी मुट्ठी ही नहीं खोली।

इनमे वो पुलिस का सिपाही भी था जो इस बूढ़ी महिला से सबसे शुरू मे मिला था। भीड़ मे से किसी ने पुलिस कर्मी को वो घटना याद दिलवाई।

सिपाही ने नीचे बैठते हुए बुढ़िया की मुट्ठी को खोला। अब पकड़ और भी अधिक मजबूत हो गयी थी। सिपाही ने धोती के पल्लू की गांठ खोली, उसमे एक जोड़ी नज़रियाँ बंधी हुई थी।

हालांकि उस सिपाही ने इन स्टेसनों पर कई बार मानवीय संवेदनाओं को मरते हुए देखा था। इतनी बार कि उस सिपाही की संवेदनायें भी मृत हो चूंकि थी। लेकिन एक बूंद उस सिपाही आँखों से निकल कर उसके गालों पर बहकर आ गयी।

सिपाही ने उन नज़रिया को उस बुढ़िया की मुट्ठी मे रख दिया और उसके शव को ले जा रहे लोगो से कहा “इनके अंतिम संस्कार की पूरी प्रक्रिया मैं खुद देखुंगा, इसकी ये नज़रिया ही सबसे बड़ी संपत्ति थी... ये इसके साथ ही रहनी चाहिए।