कहते हैं इंसान वही जिसमें इंसानियत जिंदा हो.... लेकिन कभी कभी ये इंसानियत हमें सोचने पर मजबूर कर देतीं हैं की क्या हमने सही किया....!!
कल किसी काम से बेटी के साथ आरटीओ कार्यालय गयीं थीं...। बेटी अठारह वर्ष की हो गयीं थीं तो उसका लाइसेंस बनवाना था.... कल उसका लर्निंग टेस्ट था...। चूंकि बेटी को टेस्ट देना था इसलिए मैं कार्यालय के बाहर ही उसका इंतजार करने लगी...। मेरे अलावा वहां ओर भी बहुत से लोग थे जो अपने किसी ना किसी परिचित के साथ वहां आए थें.....।
कुछ देर बाद ही वहां एक बेहद व्रद्ध महिला आई जो लोगों से पैसे मांग रहीं थीं...। उसकी हालत बेहद दयनीय लग रहीं थीं...। एक मैली सी साड़ी जैसे तैसे उसके शरीर को ढंके हुवे थीं...। चेहरे पर झुर्रियाँ उनकी उम्र बयां कर रहीं थीं....। हाथ में लाठी उनकी झूकी कमर को सहारा दे रही थीं...। एक एक कर वो सभी लोगों के पास जा रहीं थीं पर कोई भी उसकी तरफ़ ध्यान ही नहीं दे रहा था...।
कुछ देर बाद वो मेरे पास आई....। मुझसे भी उसने पैसे मांगे...। मैंने पैसे देने से इंकार कर दिया ओर कहा की ' मांजी कुछ खाना खाना हो तो लेकर दूं....। '
इस पर वो महिला बोलीं की खाना नहीं खाना हैं पर अगर तुम मुझे थोड़ा आटा लेकर दो तो मेहरबानी होगी...।
मैं राजी हो गयीं ओर वो मुझे सड़क के दूसरी तरफ़ एक किराने की दुकान पर लेकर गयीं....। वहां मैंने उनके कहें अनुसार पांच किलो आटा पैक करने को बोला... दुकानदार अभी आटा पैक कर ही रहा था की वो महिला बोलीं.... " बेटा बिना तेल के रोटी कैसे बनेगी....दो किलो तेल(खाने का) भी दिलवा दो...।"
मैंने दुकानदार से वो भी देने को कहा...। मैं पैसे दे ही रहीं थीं की वो महिला फिर बोलीं.... बेटा थोड़ी दाल भी दिलवा दो...। सिर्फ रोटी कैसे खाऊंगी...।
मैंने दुकानदार से वो भी देने को कहा...। इतने में वो फिर बोलीं... " बेटा थोड़ी चायपत्ती और शक्कर भी दिलवा दो..।"
मैंने वो भी दिलवा दिया.... वो फिर बोलीं.... बेटा चावल भी....
इस बार मैने बीच में टोक दिया और कहा... 'मांजी.... बस.... बहुत हो गया अभी.... आपने सिर्फ आटा कहा था पर आपकी तो लिस्ट खत्म ही नहीं हो रहीं हैं...। '
वो भगवान का वास्ता देने लगी, पर सच कहूं तो मेरा मन खट्टा हो चुका था...। मैं एक लब्ज़ नहीं बोलीं और सारा सामान पैक करवाकर.... दुकानदार को पैसे देकर वहां से चलीं गयीं....। मैं वापस अपनी जगह पर आकर बेटी का इंतजार करने लगी...।
मन में तरह तरह की बातें चल रहीं थीं... पर एक संतुष्टि भी थीं की कुछ दिन शायद उनको मांगने की या लोगों के आगे गिड़गड़ाने की जरूरत तो नहीं पड़ेगी...।
कुछ देर में बेटी आई तो मैं उसके साथ घर के लिए निकल ही रहीं थीं की मेरी नजर सामने सड़क पर गयीं.... मैंने देखा वहीं बुढ़ी महिला सामने खड़ी कुछ महिलाओं से फिर से मांग रहीं थीं...। उसके हाथों में वो सामान भी नहीं था जो उसे दिलवाया था....।
चूंकि बेटी जल्दी में थीं ,उसे परीक्षा देने भी जाना था तो हम वहां से निकल गयें...। लेकिन पूरे रास्ते मैं बस यहीं सोचती रहीं... क्या मैंने सही किया था...? क्या उस महिला का इस तरह एक के बाद एक फरमाईश करना सही था..? क्या सच में उम्र के इस पड़ाव में आकर भी उनके भीतर संतुष्टि का भाव नहीं हैं जो वो फिर से मांगने लगी...? क्या प्यार और इंसानियत का यहीं मोल रह गया हैं की लोग आपके प्यार और इंसानियत का फायदा उठाएं....?
मुझे दुख सिर्फ इस बात का हो रहा था की वो चाहतीं तो सभी सामान लेकर अपने घर कम से कम आज तो आराम कर ही सकतीं थीं.... क्योंकि शायद पूरा दिन मांगने पर भी इतना सामान मिलना तो मुश्किल हैं... मैं भी यहीं चाहतीं थीं की वो आराम करें... लेकिन फिर से मांगने निकल जाना....!!
ऐसी भी क्या मजबूरी होगी उनकी जो उन्हें फिर से मांगने जाना पड़ा....! क्या मैंने उन्हें टोककर गलत किया....? क्या मुझे उनको थोड़ा और सामान दिला देना चाहिए था....? लेकिन फिर ये सोचती हूँ की क्या उनकी लिस्ट कभी खत्म होतीं....?
सवाल बहुत से हैं... पर जवाब कुछ भी नहीं....। कभी कभी ये इंसानियत और सेवाभाव हमें संतुष्टि से ज्यादा सोचने पर मजबूर कर देता हैं....। इसलिए सोचा आप सभी से पूछ लूं.... शायद मुझे कुछ सवालों के जवाब मिल जाएं.....।