"मेरे बचपन के मजे अब खत्म होने वाले थे चलो अब हॉस्टल तीसरी क्लास मे था मेरी किस्मत मे हॉस्टल जाना भगवान ने लिख दिया और वो भी 200 + किलोमीटर दूर गांधीनगर मे अब इतनी दूर और पहली बार हॉस्टल मे जाना कोई छोटी बात नही थी। इतनी दूर ट्रैवल करके जाना मतलब गाडी मे बैठे बैठे के हालात खराब हो जाती थी लगातार 4 -5 घंटे तक का सफर होता था। यहाँ पे मेरा बचपन बहुत हद तक खत्म होने वाला था। यहाँ से मेरे जिवन घड़तर की शुरुवात होने वाली थी। इस कहानी का शीर्षक है एक महान व्यक्तित्व और किस तरह एक गाँव का लड़का मुश्किल परिस्थितियों मे कैसे अपना व्यक्तित्व बनाता है ये सब इसमें बताया है । इतनी दूर हॉस्टल मे जाना था लेकिन अच्छा था की दीदी भी मेरे साथ थी मे पहली बार हॉस्टल गया तो मेरी मम्मी बहुत रोई थी और मे भी बहुत रोया था। बस ऐसे ही मेरा हॉस्टल लाइफ का सफर शुरू हुआ था। लेकिन घर से हॉस्टल का सफर बहुत दूर शुरू होने वाला था। चलो जैसे तेसै मे हॉस्टल आतो गया लेकिन मेरी मुश्किलो का अभी आरंभ होने वाला था। क्योकि मे पहली बार हॉस्टल मे आया था। जैसे की इस कहानी का शीर्षक है एक महान व्यक्तित्व तो बस इस शीर्षक का वास्तविक मतलब बनना शुरू हो गया आगे कैसे एक व्यक्तित्व का निर्माण होता है वो हम जानेंगे। हम हॉस्टल लाइफ के बारे मे जानेंगे। हॉस्टल मे हम सब कुछ खुद ही करना पड़ता था जैसे की सुबह सबसे पहले हमे 5 बजे हमे बेल मारके उठाते थे और ऐसे जल्दी जल्दी मे उठाते थे की जैसे जंग लडने के लिये फौज मे जाना हो। हम जल्दी से हमारी पथारी ठीक करके ब्रश करने के लिये एक लाइन मे बैठे जाते थे। उसके बाद नहने जाना होता था वो भी लाइन मे हॉस्टल मे सब कुछ साथ मे करना होता था । पानी पीने के लिये भी लाइन खाना खाने के लिये भी प्रार्थना मे बैठना हो या सब कुछ एक ही लाइन मे सब के साथ मिल ज़ुल के करना था। किसी भी प्रकार का भेदभाव यहाँ पे होता नही था नाम के अलावा किसी को कुछ भी नही पता था ना धर्म ना जाती कुछ भी नही सिर्फ और सिर्फ नाम उसके अलावा अपना काम बस यही दो चीजे हॉस्टल मे सबसे अच्छी थी। सुबह हम नहाने के बाद फ्रेश होके स्कूल यूनिफॉर्म पहनके मस्त तैयार होके प्राथना के लिये बैठना था। यहा 2 बार सुबह शाम प्राथना होती थी। यहाँ अपने रोल नंबर के हिसाब से लाइन मे बैठना था मे जब तीसरी मे था तब मेरा रोल नंबर 18 चौथी मे 33 और पाँचवी मे 3 था इस लिये मुझे ठीक से याद है ताकि हमारे हॉस्टल मे यही नंबर से सब कुछ चलता था कोई क्लास रूम मे अलग से कोई नंबर नही था यही नंबर हमारी सारी चीजो जैसे की कपड़े, बुक्स बेग सभी जगह लगा देते थे। ताकि कही भी कभी भी समान खो जाये तो आसानी से मिल जाये। ऐसे ऐसे छोटी छोटी चीजो से ही यहाँ बहुत कुछ सीखने मिलता था। हमारे प्रधान अध्यापक ने ये स्कूल और हॉस्टल दोनो को मिला दिया था मतलब जहा रहना वही पढ़ना उन्होंने गुरुकुल की तरह पूरी स्कूल हॉस्टल बनाई थी। लेकिन उनका गुस्सा क्या ही बताऊ इतना सब लोग डरते थे की बात ही ना पूछो उनके गुस्से की वजसे ही सब लोग नियम कानून से रहते थे कोई भी उनके सामने उची या नीची आवाज मे बात ही नही कर सकते थे। हम लोग तो उनके सामने काप ने लग जाते थे। जहा भी हमने ग्रुप मे मस्ती मजाक या झगड़ा किया तो समजो हमारी तो बैंड बज जायेगी। अगर एक दो ने भी आवाज की तो पूरी क्लास को बहुत बार मार पड़ती थी। मुझे भी बहुत बार मार पडी है। लेकिन क्या करे सामूहिक प्रसाद खानी ही पडती थी और हमारे प्रधान अध्यापक सब को बहुत पिट ते थे हमारे पूरी हॉस्टल मे 100 लोग थे या उसके आस पास ही रहते लड़किया 15 - 20 होती थी लेकिन अगर एक भी गलती करता या आवाज करता तो अध्यापक सब को मारते थे और वो भी गरबा रास डांडिया खेलने वाली लकडी से और वो लकडी साग की लकडी से बनी हुई थी जो टूटी ती भी नही थी। वैसे ही घटना थी जब मे अपना टोवेल सुखाने के लिये मेरे दोस्त के साथ स्कूल के टेरेस के उपर गया था वहा पर मे कपडे सुखा रहा था तब लोहे का शरिया जो थोडा मुडा हुआ था वो मेरे शीर मे लग गया था जिसकी वजसे खून निकलने लगा। लेकिन मुझे खून निकलने से ज्यादा डर ये था की कही अध्यापक ने देख लिया तो मुझे बहुत मार पड़ेगी इसी वजसे मैने और मेरे दोस्त ने किसी को नही बताया जैसे तेसै खून सुख गया मेरे बाल भी तभी बडे थे तो घाव भी दिख नही रहा था और पुरा दिन मैने डर डर के निकाल कही किसी को पता ना चल जाये लेकिन मेरे दोस्त की वजसे मे बच गया और उस दोस्त का नाम भी मुझे याद है केवल तीसरी मे मेरे साथ पढ़ता था और धीरे धीरे मेरा घाव दो तीन दिन मे ठीक हुआ। लेकिन स्कूल लाइफ मे ये डर होना भी बहुत जरूरी होता है इस लिये तो हम बहुत कुछ सिख सकते है। "