कहने को शातिर दिमाग़ वाला स्पिन निशाने बाज़ था।
प्लान था। माया को किस वक़्त सबक दें दिया जाये।
जिस वक़्त वो बीस मंजिले फ्लेट मे किसी को कुछ कहने के लिए या गुफ़्तगू करने के लिए आयी थी।
स्पिनर निशाने बाज़ किस और से आयी, और चली गयी। ये भयानक तरतीब किस की बनाई माहौल मे
अजनबी गरमाहट थी। कोई भी नहीं जानता था।
ये निशाने का दायरा बीस फुट था। जिसमे कोई आता जाता नहीं हो, बे तरतीब निशाना हुक्म की बेपरवाही थी।
एक नहीं बहुत थे निशानेबाज़.... स्पीनर बंदूक और गोली की आवाज नहीं... हवा का रुख दिशा मोड़ सकता था।
पक्का अंदाजा था। माया ---------- सिर्फ माया-----!!!!!
शूटर विनोद पांच साल बाद आज... फ्लेटो के बीच, उच्ची बिल्डिंग मे देखा गया था। वो देखने मे छोटा सा साढ़े चार फुट का था। सिर पे हेट रखे.. मुँह भिचा हुआ था, कंधे स्ट्रांग थे। और सामने टेबल था... तभी उसने ब्रिफकेश खोला ही था, तभी फोन वजा ----"किसी मर्द की आवाज़ ने विनोद का रंग उड़ गया। वो खत्म सा हो गया।
"रेट पड़ गयी "एक दम चुपी।
"सारे अकाउंट जब्त कर लिए गए, बगेरा बगेरा...."
"ओ न " मुँह से निकला, दुबई मे ऐसा होता है।
तभी टूटी, तंद्रा। "छोड़ दो, माया को, अंडर ग्रोड हो जाओ।"दूसरी और आवाज़ ने जैसे विनोद का गला घुट गया हो।-----------
विनोद ने कोई सुराग छोड़े बिना जा चूका था।
माया के साथ आठ बाडीगार्ड थे, जो तदरुस्त भलवान किस्म के। खरीद होने के बाद, वो बड़ी गाड़ी मे बैठ कर मार्किट से निकल चुकी थी। कोई किताब पढ़ रही थी।
राहुल की तीसरी क़िस्त लाखों मे बैक मे जमा हो चुकी थी। माधुरी और उसकी याद बच्चा जॉन थी। राहुल के कृते को हमेशा याद रखती थी। वकालत गरीबो की है।
आमीरों ने तो जज वकील खरीदे होते है। बोली लगे है।
कितना आस्ये होता है, बिन आस के काव की कहानी
वही प्यास... किसको नहीं लगती... सब को लगती है।
देखने मे माधुरी कुवारी ही लगती थी... छोटी उम्र की, वो दुबई की जम्पल नहीं थी, रीना दोस्त की शादी मे इस लिए आयी थी, राहुल समेत उसका परिवार निमतरण पे था। पर जमपल देहली की थी। बिजनेस राहुल का दुबई के आगे तक फैला हुआ था, पता नहीं जो लोन था उसके बगैर वो कया धंधा करता था खुद राहुल और उसके परछावे को ही पता था। रीना बारे बता दू, रिश्ते मे वो उसकी बहन जयादा नहीं दोस्त थी... हर बात शेयर होती थी।
खुद बिजनेस मे दिलचस्पी लेती थी रीना... उनके कपनी के शेयर आज कल चरजा रुपए मे विकते थे... खरीद तीस रुपए मे होती थी। कब कया हो कोई नहीं जानता था। कपनी डिजायन बनती थी अच्छे बेडरूम के। दो दिन बाद वापसी थी दिल्ली की माधुरी की... उसका स्वर ठीक न था। डॉ ने खटी चीजे बँद की हुई थी, गले मे छोटा सा टोंसल था... कब कया हो पता नहीं, वक़्त भाग रहा था। किस हद तक कोई कया कर जाये कोई नहीं जानता था।
माधुरी मेरी ऐसी पात्र थी, जो जीना चाहती थी, सिर्फ तो सिर्फ आपने परवार मे।
ऐसा कब होगा कोई नहीं जानता था। धोखा पग पग पे खड़ा जैसे न उम्मीद बनाये था।
--------------- चलता 6 वा प्लाट ------
नीरज( मामूली लेखक )की आँख किधर जाये कोई नहीं जानता था।