सीमा चौकी Kishore Sharma Saraswat द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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सीमा चौकी

सीमा चौकी

 

मई महीने के उत्तरार्ध की भीषण गर्मी से लोक निमार्ण विभाग की सड़क का तारकोल पिघल कर उन लोगों को शर्मिन्दा किये जा रहा था, जो इस विभाग की कारगुज़ारी पर छींटा-कशी करने से गुरेज नहीं करते थे। अलबत्ता बगल में बहता दरिया, रात के समय, अपने बरफ जैसे शीतल जल से गुज़रती हवाओं से लोगों को कांपने पर मजबूर कर देता था। मौसम के मिजाज़ के इस विचित्र दो राहे पर स्थित सीमा चौकी के प्रहरी दिन की ऊँघ को तिलांजलि देकर गोधूलि से पूर्व ही सजग होकर अपनी नित्यक्रिया पर निकल पड़ते थे। सरकारी पगार के अतिरिक्त भला कमाई का इससे उपयुक्त और आसान और क्या साधन हो सकता था। तीन राज्यों की सीमाओं पर स्थित यह सीमा चौकी विशेषकर अनाज की तस्करी को रोकने के लिये स्थापित की गई थी। चौकसी के नाम पर खाद्य एवं पूर्ति विभाग के दो निरीक्षक, पुलिस विभाग का एक हवलदार और छः सिपाही इस चौकी की शोभा बढ़ा रहे थे। चौकी के पिछवाड़े की ओर बहुत विशाल और घना जंगल था और सामने की तरफ, सड़क से उस पार, भीषण गर्जना के साथ बहता दरिया। स्थानीय लोगों का कहना था कि रात के समय इस जंगल से शेर, हाथी और अन्य जंगली जानवरों के समूह बाहर निकलकर दरिया में अपनी दिन भर की प्यास बुझाने के लिये आते हैं। इसलिये सारी चहल पहल पर घना अंधेरा होने के पूर्व ही पूर्णविराम लग जाता था।

दरिया के उस पार दूसरे राज्य की सीमा लगती थी, जहाँ पर गरीब लोगों की एक बस्ती थी। खेती-बाड़ी, काम धंधे का कोई साधन तो था नहीं, इसलिये लोग मेहनत-मजदूरी करके ही अपना जीवन यापन करते थे। इसी बस्ती में बुधिया नाम की एक गरीब औरत भी रहती थी। पति को गुजरे चार वर्ष बीत चुके थे। इस अवस्था में एक मात्र सहारा उसका बारह वर्षीय बेटा, राम खिलावन ही था, जिसे देखकर वह अपने सभी गम भूल जाती थी। जमींदारों के खेतों में काम करके किसी प्रकार वह अपनी घर गृहस्थी की गाड़ी चला रही थी। बेटे को पास के गाँव के सरकारी स्कूल में दाखिल करा रखा था। वह भी एक होनहार सपुत्र की तरह अपनी बेसहारा माँ के सपनों को साकार करने में लगा हुआ था। परन्तु पता नहीं उनके इस छोटे से परिवार को किस की बुरी नज़र लग गई। बुधिया को अचानक हल्का सा बुखार हुआ और फिर उस कमबख्त ने उसे ऐसा जकड़ा कि बेचारी पिछले छः महीनों से बिस्तर से चिपक कर रह गई थी। काम छूट गया और फिर खाने के लाले पड़ने लगे थे। अब घर की तंगहाली और ऊपर से माँ की बीमारी, दोनों ने उस नन्हें को कहीं का नहीं छोड़ा था। स्कूल छूट गया और उसके साथ ही माँ के अरमानों पर भी पानी फिर गया। किताबों की जगह अब उसके नन्हें हाथों में मेहनतकश के औज़ार थे।

प्रतिदिन, भोर होते ही, बस्ती के ज्यादातर नौजवान अपने कंधों पर सूखी लौकियों से बनी दरिया पार करने की नावों को उठा कर उस पार के जंगलों में काम करने के लिए निकल पड़ते। कंधों पर रखे परने में रूखी-सूखी रोटीयाँ और हाथों में लकड़ी के छोटे-2 चप्पू, परन्तु फिर भी खुशी और मस्ती भरी जिंदगी लिये वे हँसते-गाते चल पड़ते अपनी मंजिल की ओर। अब इस कारवाँ के साथ एक साथी और जुड़ गया था और वह था नन्हा राम खिलावन। ठेकेदार से, हफ्ता भर की पगार से, जो रूपये-पैसे मिलते उस में से थोड़ा बचा कर बाकी से घर के लिए खाद्य सामग्री खरीद लेते थे। सिर पर खाद्य सामग्री की गठरियाँ उठाये इस कारवाँ की वापसी का रास्ता बदल जाता। वे प्रतिदिन की भान्ति गीत गाने और कोलाहल करने की अपेक्षा चुपचाप घुमावदार लम्बा रास्ता पकड़ते, ताकि सीमा चौकी के प्रहरियों की कुदष्टि उन पर न पड़ जाए।

खेतों में गन्ने की फसल तैयार हो चुकी थी। सो जंगल से निकलकर कभी-कभी हाथी इनका स्वाद चखने की गरज से उधर आ जाते थे। परन्तु लोगों की मुस्तैदी से उन्हें अकसर बैरंग ही लौटना पड़ता था। अपने मिशन में नाकायाब इन हाथियों का झुण्ड एक दिन दरिया के किनारे ही सुस्ता रहा था। हाथियों को अपने सामने पाकर सभी लोग कुछ दूरी पर खड़े हो गए। हथिनी का एक छोटा बच्चा राम-खिलावन के हाथ में गन्ना देखकर, अपनी नन्हीं सूंड ऊपर उठाकर उसकी ओर लपका। राम खिलावन ने बिना झिझक किये, हंसते हुए, आगे बढ़ कर, अपने हाथ में पकड़ा गन्ना उस हथिनी के बच्चे को दे दिया। मित्रता का यह रिश्ता दिन प्रतिदिन प्रगाढ़ होने लगा। राम खिलावन बिना चूक किये अपने साथ गन्ना ले जाता और हथिनी का बच्चा जंगल में उसके आने की प्रतीक्षा करता रहता था। हाथियों के कुनवे से मानो उसकी मित्रता हो गई थी। वह बिना किसी झिझक और रोक-टोक से उनके झुण्ड में चला जाता था। वे भी अपनी सूंड उठाकर उसका अभिवादन करने में नहीं चूकते थे। उसका नन्हा दोस्त तो उसे देखकर अपनी खुशी का इजहार उछल-कूद मचाकर किया करता था।

सुबह काम के लिए जाते समय राम खिलावन ने प्रतिदिन की भाँति गन्ना उठाया तो माँ बोली ‘बेटा मैं कई रोज से देख रही हूँ तू बिना कोई नागा किए सुबह-सुबह गन्ने चूसता रहता है। किसी दिन ठंड लग गई तो मेरी तरह बीमार होकर बिस्तर पकड़ लेगा। फिर हमें पानी पिलाने वाला भी कोई नहीं मिलेगा।’

‘अम्मा तू भी भोली है। मैं थोड़े न चूसता हूँ इन्हें। ये तो मैं अपने दोस्त के लिए लेकर जाता हूँ।’

‘अǔछा, तो तू उसे भी बीमार करेगा। कौन है तेरा दोस्त? कभी उसे

घर लेकर तो नहीं आया।’

माँ की यह बात सुनकर राम खिलावन खिलखिला कर हंसने लगा।

‘क्यों रे! मैंने ऐसा क्या कह दिया? यह भी भला कोई हंसने की बात

थी?’

‘हंसने की बात नहीं तो और क्या थी अम्मा? तू ही सोच, क्या कभी हाथी भी किसी के घर आता है?’

‘हाथी? क्या तेरा दोस्ता हाथी है? अरे पगले, हाथी भी क्या कभी किसी का दोस्त हुआ है। मेरे बच्चे, यह मैं क्या सुन रही हूँ। अगर तुझे कुछ हो गया तो मैं तो कहीं की भी नहीं रहूँगी। बस, तू रहने दे। हमने नहीं जाना है काम पर। एक की जगह आधी खाकर गुजारा कर लेंगे।’ माँ की आँखों से आंसू गिरने लगे।

     ‘अरे अम्मा! क्यों इतना घबराती है। मुझे कुछ नहीं होने वाला।’ इतना कहकर राम खिलावन ने अपना सामान और गन्ना उठाया और फिर अन्य मजदूरों के साथ अपने काम पर निकल गया।

प्रतिदिन की भाँति मज़दूर हंसते-गाते अपनी मंजिल पर निकल पड़े। पुलिस का हवलदार चारपाई के ऊपर बैठकर चाय की चुस्कियाँ ले रहा था। चौकी के पास से गुज़रते मज़दूरों को देखकर गुर्राया ‘देखो साले मुफ्त में ही कितने खुश हो रहे हैं। भर पेट भोजन मिल जाता तो पता नहीं आसमान ही सिर पर उठा लेते।’

हवलदार की बात सुनकर डयूटी पर खड़ा संतरी बोला ‘जनाब, आपको नहीं मालूम, ये बड़े बदमाश हैं। मैं पिछले हफ्ते गाँव में धोबी से वर्दी प्रेस करवाने गया था। वहाँ पर मैंने सुना था कि दरिया के उस पार के लोग इधर से ही आटा-दलिया खरीद कर ले जाते हैं। दोनों ओर की कीमतों में काफी अन्तर जो है।’

‘बिलकुल दुरूस्त फरमाया। तेरी बात में दम है। देख, साले इस वक्त कैसे फुदकते जा रहे हैं। और शाम को सुसरियों की तरह चुपचाप निकल जाएँगे। तैने एक बात पर गौर किया है क्या कभी?’

‘वो क्या जनाब?’ संतरी चापलूसी करता हुआ बोलाः

‘कई बार मैंने नोट किया है, ये शाम के वक्त किसी दूसरे रास्ते से भी निकल जाते हैं। हो ने हो जो तुम कह रहे हो, इसके पीछे वही राज हो।’

‘जी जनाब, इनके ऊपर नज़र रखनी पड़ेगी।’ अब तक मजदूर काफी आगे निकल चुके थे। घने जंगल की गहराइयों में उनकी आवाज़ भी दब चुकी थी। परन्तु सीमा चौकी’ पर तो आज उन्हें फांसने के लिए मकड़-जाल बुना जा रहा था।

आज पगार बांटने का दिन था। शाम के समय रूपये मिले तो सभी गाँव की हाट की ओर आटा-दाल की खरीद हेतु चल पड़े। दस किलोग्राम-बीस किलोग्राम जिसकी जितनी सामर्थ्य थी खरीदकर पोटलियाँ बाँध लीं। राम खिलावन ने भी माँ की इच्छानुसार सामान खरीदकर एक छोटी सी गठरी बाँध ली। दिन ढलने को जा रहा था, इसलिये वे कतार बनाकर तेज कदमों से आगे बढ़े जा रहे थे, ताकि रोशनी रहते दरिया पार कर सकें। उन्हें क्या मालूम था कि दरिया के किनारे पुलिस के सिपाही उन्हें पकड़ने के लिए घात लगाए बैठे हैं। ज्योंही वे उनके समीप पहुँचे तो एक सिपाही चिल्लाया ‘बदमाशों! कहाँ जा रहे हो? सामान की तस्करी करते हो? तुम्हें हवालात में देना पड़ेगा। ऐसे तुम बाज नहीं आओगे।’

आवाज सुनकर सभी मजदूर ठिठक कर अपनी-अपनी जगह पर खड़े हो गए।

‘क्या है इन गठरियों में?’ दूसरा सिपाही तड़क कर बोला।

‘जनाब से रहम की भीख मांगते हैं। हम गरीब मजदूर है। अपने घर के लिए खाने का सामान लेकर जा रहे हैं और कुछ नहीं है। आपको अगर शंका हो तो स्वयं देख लीजिये।’

‘एक चोर और ऊपर के चतुर, साला जबान चलाता है। चलो, सभी चौकी चलो, आज तुम्हारा पक्का इंतजाम करते हैं।’

राम खिलावन थोड़े फर्क से पीछे चल रहा था। सिपाहियों की घुड़की सुनकर वह घबराकर पीछे जंगल की ओर भागने लगा। एक सिपाही की नज़र उस पर पड़ी तो वह चिल्लाया ‘सुअर के बच्चे कहाँ भागा जा रहा है? यहीं पर रूक जा, नहीं तो तेरी टांगे तोड़ दूंगा।’ परन्तु वह नहीं रूका और जंगल के भीतर घुस गया। दो सिपाही, भद्दी-भद्दी गालियाँ बकते हुए उसके पीछे भागने लगे। बेचारा उन मुस्टंडों से भागकर कहाँ जाता, पकड़ लिया गया। एक सिपाही ने उससे सामान की गठरी छीन ली और दूसरे ने उसके कान के ऊपर दो-तीन चपत लगा दिए। बेचारा रोते हुए मिन्नत करने लगा, ‘साहब, मुझे छोड़ दो, मुझे घर जाने दो, मेरी माँ बीमार है। वह भूखों मर जाएगी।’

‘साले, मर जाएगी तो मरने दे। कौन से देश खाली हो जाएगा। पहले ही बहुत आबादी है। कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। पर साले पिल्ले तू यह बता, यह तस्करी का सामान किधर ले कर जा रहा था। पैदा होते ही कालाबाजारी का धंधा शुरू कर दिया।’

राम खिलावन अब कुछ कहने या बोलने की स्थिति में नहीं था। सौभाग्य से उसकी रोने की आवाज उसके मित्र के कानों तक पहुँच गई। वह अपनी नन्हीं सूँड ऊपर उठाकर चिल्लाया और उस की ओर भागने लगा। अपने बच्चे को अकेला भागते हुए देखकर दूसरे हाथी भी उसके पीछे-पीछे भागने लगे। दूर से पहाड़ जैसे हाथियों की गर्जन सुनकर दोनों सिपाही पीछे की ओर सरपट भागने लगे। नजदीक आकर हाथियों के झुंड ने राम खिलावन को चारों ओर से घेर लिया। परन्तु उसका नन्हा मित्र अपनी सूँड उसके चेहरे के ऊपर घुमा-घुमा कर उसकी कुशलक्षेम पूछने लगा।

उधर कुछ ले-देकर मजदूरों को छोड़ दिया गया था। वे घर पहुँचे तो राम खिलावन की माता जी अपने बेटे को न पाकर विलाप करने लगी। आस-पड़ोस के लोग इकट्ठे होकर, अपने-अपने तरीके से, उसे सान्त्वना देने लगे। तभी उन्हें दरिया के उस पार हाथियों के चिंघाड़ने की आवाजें सुनाई दी।’ ‘सत्यानाश हो इन कुंजरों का, फिर आ गए। अगर एक बार फसल इन के मुँह लग गई, ये तो फिर सर्वनाश करके ही छोड़ेंगे। इन से तो अब परमात्मा ही बचाएगा।’ बीच में से एक आदमी बोला।

‘भैया, मुँह के जबानी जमा-खर्च से कुछ नहीं बनेगा। फसल तो एक ओर रही, ये हम लोगों का जीना भी दूभर कर देंगे। अब तो बस एक ही रास्ता बचा है, इन्हें इस ओर दरिया पार करने से पहले ही भगाना होगा।’ दूसरे ने सलाह दी।

‘हाँ भई हाँ, बिलकुल ठीक बात है। अगर खेतों के साथ-साथ गाँव की भी सलामती चाहते हो तो इनका मुँह पड़ने से पहले ही इन्हें खदेड़ना पड़ेगा।’ कई आवाजें एक साथ निकली। सभी अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग अलापने लगे। राम खिलावन की बात का विषय अब इस चर्चा में धूमिल हो चुका था।

बेचारी बुधिया के आँसू पोंछने की सुध अब किसी को न थी। लोग भाग-भाग कर एक-दूसरे को बुलाने लगे। देखते ही देखते हाथों में जलती हुई मशालें लेकर, लोगों का हजूम दरिया की ओर निकल पड़ा। अब तक दूसरी ओर से हाथियों का झुण्ड भी दरिया के किनारे पहुँच चुका था। परन्तु आज जलती हुई आग और लोगों के शोरगुल का हाथियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। उनके इस अड़ियल रवैये को देखकर लोग ठिठक कर थोड़ा पीछे हट गए। तभी हाथियों का सरदार झुण्ड में से आगे बढ़ा।

यह क्या जलती हुई मशालों की हल्की रोशनी में उन्हें उस गजराज की सूँड में एक आकृति सी दिखाई दी। वह हाथी अपनी मद-मस्त चाल से पानी में उतर गया और धीरे-धीरे इस ओर खड़े लोगों की तरफ बढ़ने लगा। लोग

घबराकर थोड़ा और पीछे हट गए। हाथी को यों अपनी ओर आने से लोगों में एक भय तो व्याप्त था, परन्तु साथ ही साथ एक अचम्भा भी। अगर ये कोई हानि पहुँचाने के उद्देश्य से आए हैं, तो बाकी उस ओर क्यों खड़े हैं?

     अब तक रोशनी पड़ने से आकृति साफ होने लगी थी। ओह! यह तो अपना राम खिलावन है। सभी लोग अब भय त्याग कर हाथी की ओर कौतूहल वश देखने लगे। हाथियों के प्रति घृणा अब स्नेह में बदल चुकी थी। ज्योंही पानी लांघकर हाथी ने राम खिलावन को ज़मीन पर उतारा, लोगों की ओर से ‘गजराज की जय’ के उद्घोष से वातावरण गूंज उठा। नन्हें दोस्त ने दरिया के उस पार से अपनी सूँड उठाकर जोर से किलकारी की, मानो अपने मित्र की सलामती पर वह भी अपनी खुशी का इज़हार कर रहा हो। हाथी अब पीछे मुड़ कर पानी में उतर चुका था। परन्तु राम खिलावन कृतज्ञता भरी नज़रों से तब तक उस ओर देखता रहा जब तक हाथियों का झुण्ड जंगल में ओझल नहीं हो गया। खबर पूरी बस्ती में फैल चुकी थी। न जाने बीमार बुधिया में कहाँ से ऊर्जा का स्पंदन हुआ। असहाय पीड़ा का बोध भी उसके कदमों को रोक न पाया। वह द्रुत गति से, अपने लाडले की एक झलक पाने के लिए, दरिया की ओर निकल पड़ी। उसकी अंतरात्मा से केवल यही शब्द निकल रहे थे ‘बेटा! तू सच कहता था, हाथी भी सच्चे दोस्त होते हैं।

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